डॉ. महेश परिमल
ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया। इससे केंद्र सरकार को अब समझ जाना चाहिए कि कठोरता से बात नहीं बनने वाली। अब उसे यह भी समझना होगा कि ममता द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद सपा-बसपा ही उनके खेवनहार हैं। ममता से भले ही नाता टूट जाए, पर अभी जो खेवनहार हैं, वे किसी से कम नहीं हैं। वे अपनी बात मनवाना अच्छी तरह से जानते हैं। यह भी सच है कि दोनों ने कांग्रेस के कठिन समय में उनका साथ दिया है। पर इसकी भारी कीमत भी वसूली है। आज वही खेवनहार अपनी भारी कीमत तय कर रहे हैं। इसलिए अब कांग्रेस को और संभलने की आवश्यकता है। साथ ही सपा-बसपा से सचेत रहना भी उतना ही आवश्यक है।
ममता की दहाड़ अभी भी गूंज रही है। उनका केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया है। अब मंत्रिमंडल का पुनर्गठन होगा। जिसमें यदि सपा के सांसद रहेंगे, तो निश्चित रूप से वे न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में लगाएंगे। मंत्री बनने की ताकत और उसके बाद मंत्रिपद पर बने रहने के लिए वे येनकेन प्रकारेण अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कदापि पीछे नहीं रहेंगे। रही बात ममता की, इस बार वे नहीं मानने वाली। उनका विरोध पहले भी जिन मुद्दों पर था, अभी भी वे उसी पर कायम हैं। हालांकि कई बार उसे ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। पर वे अपनी आक्रामकता से बाज नहीं आएंगी। अपने तीखे तेवरों से उसने अपनी पहचान बना ली है। समय और अवसर के अनुसार राजनैतिक दाँव-पेंच आजमाने वाली ममता बनर्जी अपनी भावनाओं को ही राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। इसके लिए कई बार वे काफी परेशानियों में भी उलझी हैं। बंगाली बाघिन के रूप में पूरे पश्चिम बंगाल के रूप में उनकी पहचान है। आज ममता के पास 19 सांसद हैं, पर एक समय ऐसा भी था, जब उनका महत्व कोई खास नहीं था। 1989 में पश्चिम बंगाल कांग्रेस के एक प्रादेशिक पद के रूप मे ंउन्होंने मुर्शिदाबाद के एक कलेक्टर द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका घेराव किया था। उसे पूरे 14 घंटे तक बंधक बनाकर रास्ते पर ही रोक रखा था। आखिर में वामपंथी सरकार के मंत्री घटनास्थल पर पहुंचे और जाँच आयोग की घोषणा की, तब जाकर कलेक्टर को छोड़ा गया। उसके तेवर ही उसकी पहचान है और वह अपनी पहचान खोना नहीं चाहती।
जिद ममता बनर्जी का ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जो उनके विरोधियों को भी चारों खाने चित कर सकता है। इस ब्रह्मास्त्र से वे कई बार स्वयं भी घायल हुई हैं। बात 1994 की है, जब वे केंद्र सरकार में मंत्री थीं। तब नदिया जिले की किसी महिला पर बलात्कार हो गया। इसमें वामपंथी दल की किसी हस्ती शामिल थी। इसलिए पुलिस ने उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की। ममता ने स्वयं ही उक्त पीड़ित महिला को पश्चिम बंगाल सरकार के सचिवालय यानी राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई। इस समय तक तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु उनके तेवर से वाकिफ नहीं थे, इसलिए उनसे मिलने की भी जहमत उन्होंने नहीं उठाई। इससे नाराज होकर ममता राइटर्स बिल्डिंग में ही धरने पर बैठ गइर्ं। पूरे 7 घंटे के धरने के बाद देर रात पुलिस ने उन्हें जबर्दस्ती लॉकअप में बंद कर दिया। तब ममता ने यह संकल्प लिया कि अब वे कभी जनता की अनुमति के बिना इस राइटर्स बिल्डिंग में अपने पांव तक नहीं रखेंगी। इस संकल्प को पूरा करने में उसे पूरे 18 साल लगे।
राष्ट्रपति चुनाव के समय भी ममता-मुलायम ने बैठक कर कांग्रेस को झटका दिया था। मुलायम तो तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुट भी गए थे। पर कांग्रेस के साथ कुछ विवशताओं के चलते दोनों फिर अलग हो गए। लेकिन मुलायम भी प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते हुए येनकेन अपनी उपस्थिति का आभास दिलाते रहते हैं। लोग तो यहां तक कहते हैं कि मुलायम की जिद होती ही है मान जाने के लिए। मुलायम पहले तो जिद करते हैं, फिर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं, फिर वे कुछ शर्तो के साथ मान भी जाते हैं। उनकी मान-मनौव्वल में क्या होता है, यह कांग्रेस के अलावा किसी को पता नहीं है। लेकिन वे मान जाते हैं, इतना तय है। उधर मायावती अपनी अकूत संपत्ति को लेकर उलझन में है। जब तक वे कांग्रेस को समर्थन दे रही हैं, तब तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, यह एक अलिखित समझौता है, कांग्रेस-बसपा का। जिस दिन उसने भी ममता की तरह तेवर दिखाने शुरू किए, उसे भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। इसलिए वह भी अपनी मजबूरियों के तहत कांग्रेस को अपना समर्थन दे रही हैं।
कांग्रेस इस मुगालते में है कि अभी कोई भी दल मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। इसलिए एफडीआई का विरोध नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। अब तृणमूल भी प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांग रही है। मतलब साफ है कि मध्यावधि चुनाव से ममता को कोई गुरेज नहीं है। वह अपनी साख बचा लेंगी, इसका उन्हें पूरा भरोसा है। भाजपा भले ही प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करे, पर वह भी मध्यावधि चुनाव नहीं चाहती।
20 सितम्बर को बंद का आह्वान विपक्षी दलों ने किया है। बंद का सफल होना ही विभिन्न दलों की ताकत को बताएगा। कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि बंद सफल हो। पर हाल ही में हुई डीजल में मूल्य वृद्धि से सभी हलाकान हैं। इसलिए केवल इसी मुद्दे पर बंद सफल हो सकता है। वैसे भी महंगाइ अपनी चरमवस्था में है। लोग सरकार से खफा हैं। देश की राजनैतिक स्थिति डांवाडोल है। कांग्रेसशासित राज्यों में तीन और गैस सिलेंडरों पर सबसिडी देने की घोषणा कांग्रेस ने कर दी है। इससे राज्यों पर भी ऐसा ही करने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। केंद्र के इस पांसे से क्या होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। पर बंद को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के लिए यह एक विकट घड़ी है, इससे पूरी सदाशयता के साथ नम्र होकर ही निपटा जा सकता है। कठोरता काम नहीं आने वाली, क्योंकि खेवनहार विश्वसनीय नहीं हैं।
डॉ. महेश परिमल
ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया। इससे केंद्र सरकार को अब समझ जाना चाहिए कि कठोरता से बात नहीं बनने वाली। अब उसे यह भी समझना होगा कि ममता द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद सपा-बसपा ही उनके खेवनहार हैं। ममता से भले ही नाता टूट जाए, पर अभी जो खेवनहार हैं, वे किसी से कम नहीं हैं। वे अपनी बात मनवाना अच्छी तरह से जानते हैं। यह भी सच है कि दोनों ने कांग्रेस के कठिन समय में उनका साथ दिया है। पर इसकी भारी कीमत भी वसूली है। आज वही खेवनहार अपनी भारी कीमत तय कर रहे हैं। इसलिए अब कांग्रेस को और संभलने की आवश्यकता है। साथ ही सपा-बसपा से सचेत रहना भी उतना ही आवश्यक है।
ममता की दहाड़ अभी भी गूंज रही है। उनका केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया है। अब मंत्रिमंडल का पुनर्गठन होगा। जिसमें यदि सपा के सांसद रहेंगे, तो निश्चित रूप से वे न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में लगाएंगे। मंत्री बनने की ताकत और उसके बाद मंत्रिपद पर बने रहने के लिए वे येनकेन प्रकारेण अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कदापि पीछे नहीं रहेंगे। रही बात ममता की, इस बार वे नहीं मानने वाली। उनका विरोध पहले भी जिन मुद्दों पर था, अभी भी वे उसी पर कायम हैं। हालांकि कई बार उसे ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। पर वे अपनी आक्रामकता से बाज नहीं आएंगी। अपने तीखे तेवरों से उसने अपनी पहचान बना ली है। समय और अवसर के अनुसार राजनैतिक दाँव-पेंच आजमाने वाली ममता बनर्जी अपनी भावनाओं को ही राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। इसके लिए कई बार वे काफी परेशानियों में भी उलझी हैं। बंगाली बाघिन के रूप में पूरे पश्चिम बंगाल के रूप में उनकी पहचान है। आज ममता के पास 19 सांसद हैं, पर एक समय ऐसा भी था, जब उनका महत्व कोई खास नहीं था। 1989 में पश्चिम बंगाल कांग्रेस के एक प्रादेशिक पद के रूप मे ंउन्होंने मुर्शिदाबाद के एक कलेक्टर द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका घेराव किया था। उसे पूरे 14 घंटे तक बंधक बनाकर रास्ते पर ही रोक रखा था। आखिर में वामपंथी सरकार के मंत्री घटनास्थल पर पहुंचे और जाँच आयोग की घोषणा की, तब जाकर कलेक्टर को छोड़ा गया। उसके तेवर ही उसकी पहचान है और वह अपनी पहचान खोना नहीं चाहती।
जिद ममता बनर्जी का ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जो उनके विरोधियों को भी चारों खाने चित कर सकता है। इस ब्रह्मास्त्र से वे कई बार स्वयं भी घायल हुई हैं। बात 1994 की है, जब वे केंद्र सरकार में मंत्री थीं। तब नदिया जिले की किसी महिला पर बलात्कार हो गया। इसमें वामपंथी दल की किसी हस्ती शामिल थी। इसलिए पुलिस ने उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की। ममता ने स्वयं ही उक्त पीड़ित महिला को पश्चिम बंगाल सरकार के सचिवालय यानी राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई। इस समय तक तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु उनके तेवर से वाकिफ नहीं थे, इसलिए उनसे मिलने की भी जहमत उन्होंने नहीं उठाई। इससे नाराज होकर ममता राइटर्स बिल्डिंग में ही धरने पर बैठ गइर्ं। पूरे 7 घंटे के धरने के बाद देर रात पुलिस ने उन्हें जबर्दस्ती लॉकअप में बंद कर दिया। तब ममता ने यह संकल्प लिया कि अब वे कभी जनता की अनुमति के बिना इस राइटर्स बिल्डिंग में अपने पांव तक नहीं रखेंगी। इस संकल्प को पूरा करने में उसे पूरे 18 साल लगे।
राष्ट्रपति चुनाव के समय भी ममता-मुलायम ने बैठक कर कांग्रेस को झटका दिया था। मुलायम तो तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुट भी गए थे। पर कांग्रेस के साथ कुछ विवशताओं के चलते दोनों फिर अलग हो गए। लेकिन मुलायम भी प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते हुए येनकेन अपनी उपस्थिति का आभास दिलाते रहते हैं। लोग तो यहां तक कहते हैं कि मुलायम की जिद होती ही है मान जाने के लिए। मुलायम पहले तो जिद करते हैं, फिर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं, फिर वे कुछ शर्तो के साथ मान भी जाते हैं। उनकी मान-मनौव्वल में क्या होता है, यह कांग्रेस के अलावा किसी को पता नहीं है। लेकिन वे मान जाते हैं, इतना तय है। उधर मायावती अपनी अकूत संपत्ति को लेकर उलझन में है। जब तक वे कांग्रेस को समर्थन दे रही हैं, तब तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, यह एक अलिखित समझौता है, कांग्रेस-बसपा का। जिस दिन उसने भी ममता की तरह तेवर दिखाने शुरू किए, उसे भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। इसलिए वह भी अपनी मजबूरियों के तहत कांग्रेस को अपना समर्थन दे रही हैं।
कांग्रेस इस मुगालते में है कि अभी कोई भी दल मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। इसलिए एफडीआई का विरोध नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। अब तृणमूल भी प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांग रही है। मतलब साफ है कि मध्यावधि चुनाव से ममता को कोई गुरेज नहीं है। वह अपनी साख बचा लेंगी, इसका उन्हें पूरा भरोसा है। भाजपा भले ही प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करे, पर वह भी मध्यावधि चुनाव नहीं चाहती।
20 सितम्बर को बंद का आह्वान विपक्षी दलों ने किया है। बंद का सफल होना ही विभिन्न दलों की ताकत को बताएगा। कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि बंद सफल हो। पर हाल ही में हुई डीजल में मूल्य वृद्धि से सभी हलाकान हैं। इसलिए केवल इसी मुद्दे पर बंद सफल हो सकता है। वैसे भी महंगाइ अपनी चरमवस्था में है। लोग सरकार से खफा हैं। देश की राजनैतिक स्थिति डांवाडोल है। कांग्रेसशासित राज्यों में तीन और गैस सिलेंडरों पर सबसिडी देने की घोषणा कांग्रेस ने कर दी है। इससे राज्यों पर भी ऐसा ही करने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। केंद्र के इस पांसे से क्या होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। पर बंद को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के लिए यह एक विकट घड़ी है, इससे पूरी सदाशयता के साथ नम्र होकर ही निपटा जा सकता है। कठोरता काम नहीं आने वाली, क्योंकि खेवनहार विश्वसनीय नहीं हैं।
डॉ. महेश परिमल