शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

हौसला बुलंद हो तो मंजिल कठिन नहीं


वाराणसी। हौसला बुलंद हो तो मंजिल कठिन नहीं होती। दृष्टिहीन लेकिन अत्यंत प्रतिभावान कृष्णगोपाल तिवारी उन लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं जो थोड़ी-सी विफलता मिलने पर ही आत्मबल खो बैठते हैं। जौनपुर के टीडी कालेज से स्नातक करने वाले कृष्णगोपाल के आईएएस बनने में उनका अंधत्व कभी बाधक नहीं बना। ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाने से पहले कृष्णगोपाल अपने मार्गदर्शक व उत्तर रेलवे के मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक मनोज शर्मा [आईआरटीएस] का आशीर्वाद लेना नहीं भूले।
आदर्श शिष्य की तरह वह अपने गृह जनपद अंबेडकर नगर से अपने पिता स्वामीनाथ तिवारी के साथ बृहस्पतिवार को कैंट स्टेशन पहुंचे और शर्मा के कक्ष में जाकर कृतज्ञता ज्ञापित की। गुरु मनोज शर्मा अपने शिष्य की प्रतिभा के तो पहले से ही कायल हैं। उन्होंने अपनी कुर्सी पर शिष्य को बैठाकर उसके प्रति सम्मान जताया और अपने जीवन के हर क्षेत्र में पूरी ईमानदारी बरतने की सीख दी। अब तक 86 प्रतिभाओं को हिस्ट्री, फिलॉसफी व जनरल स्टडी में मार्गदर्शन देकर आईएएस में सफलता दिलानेवाले शर्मा ने बताया कि कृष्ण जब मुझसे नई दिल्ली में मिले तो उनमें आईएएस बनने का माद्दा देखकर ही उन्हें मार्गदर्शन शुरू किया। कृष्ण अंबेडकरनगर जिले का दसवानपुर [भीटी] गाव के निवासी है।
उन्होंने प्राथमिक शिक्षा काही गाव से, जूनियर से इंटर तक की शिक्षा अजय प्रताप इंटर कालेज भीटी से ली। इसके बाद जौनपुर स्थित टीडी कॉलेज से बीए व कानपुर स्थित छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए की पढ़ाई की। मां पवित्रा देवी को अपना आदर्श मानने वाले कृष्णगोपाल अपने बड़े भाई बालगोपाल को प्रेरणास्त्रोत मानते हैं। इनके पिता अहमदाबाद मिल में काम करते थे। मिल बंद होने के कारण काम छूट गया और घर आकर रहने लगे। घर की आर्थिक तंगी के बीच तमाम तरह के ताने व चुनौतियों का सामना करते हुए कृष्णगोपाल ने वर्ष 2007 में अर्थशास्त्र व इतिहास से देश की सर्वोच्च परीक्षा आईएएस में 142वा स्थान प्राप्त कर बड़ा मुकाम हासिल कर लिया। इन्हें मध्यप्रदेश कैडर मिला है। अपनी पढ़ाई के बाबत कृष्णगोपाल ने बताया कि मित्रों से सुन-सुनकर पाठ याद किया। टेलीविजन व आडियो टेप की मदद से पुस्तकों का अध्ययन किया। सिविल सेवा में जाने के इच्छुक लोगों के लिए उनका कहना है कि अगर हम कुछ कर सकते हैं तो सभी कर सकते हैं।

बुधवार, 21 जनवरी 2009

इंटरनेट से दूर भागते आज के राजनेता


डॉ. महेश परिमल
ऒबामा की ताजपॊशी हॊ गई। आप जानते हैं चुनाव के समय उन्हॊंने किस तरह से लॊगॊं कॊ रिझाने के लिए कंप्यूटर का इस्तेमाल किया। वे इसे अच्छी तरह जानते हैं कि कंप्यूटर के माध्यम से वे किस तरह लॊगॊं के बीच पहुँच सकते हैं। हमारे देश के नेता कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं या अपना मेल चेक करते हैं। इससे अधिक उन्हें कुछ नहीं आता। सरकार की तरफ से मिले लेपटॉप का उपयॊग तॊ उनका निजी सचिव या फिर उनके नाती पॊते करते हैं। क्या यह अच्छी बात है। हमारे देश में हाल ही में कई रायों के विधानसभा चुनाव हुए। सरकारें बनने लगीं। यदि हम जीते हुए प्रत्याशियों पर एक नजर डालेंगे, तो पाएँगे कि इसमें से बहुत ही कम ऐसे होंगे, जो आधुनिक तकनीक को समझते होंगे। ये वही लोग हैं, जिन्होंने अपने भाषण में आधुनिक टेक्नालॉजी को अपनाने पर जोर दिया होगा। वास्तव में देखा जाए, तो ये लोग जो कहते हैं, उससे ही दूर रहते हैं। हाल में अमेरिका में जो राष्ट्रपति चुनाव हुआ, उसमें इंटरनेट संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस बात को स्वयं बराक हुसैन ओबामा भी मानते हैं। ओबामा अपने ब्लॉग पर लाइव डिस्कशन करते थे, वे जीत जाएँ, इसके लिए उनके ब्लॉगर साथियों ने बहुत परिश्रम किया।
आज के नेता इंटरनेट का कितना उपयोग करते हैं, यह तो उनके परिवार वालों से जाना जा सकता है। इन्हें मिले सरकारी लेपटॉप का इनसे अधिक इनके परिवार के बच्चे करते पाए गए हैं। ये नेता तो अधिक से अधिक अपने ई-मेल चेक करने तक ही सीमित रहते हैं। राजीव गांधी ही पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्हें आधुनिक तकनालॉजी की जानकारी थी। आज जो हम हर तीसरे व्यक्ति के हाथ में मोबाइल देख रहे हैं, गाँव-गाँव और गली-गली में पीसीओ देख रहे हैं, इसके पीछे राजीव गांधी का ही हाथ है। उन्होंने अपने साथी सैम पित्रोडा के माध्यम से इस टेक्नालॉजी को आगे बढ़ाया। टेक्नालॉजी तो अनेक प्रकार ही होती है, पर भारत की मध्यमवर्ग की प्रजा के लिए वह कितनी उपयोगी साबित होती है, यह महत्वपूर्ण है। इसके लिए राजीव गांधी ने कई रास्ते खोज निकाले, जिनका आज खुलकर प्रयोग हो रहा है।
सैम पित्रोडा ने टेली कम्युनिकेशन के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात किया। राजीव गांधी के इस वफादार साथी ने उस समय टेक्नालॉजी जो की फसल बोई थी, आज हम सब उसी लाभ उठा रहे हैं। आज के युवा राजनेता इंटरनेट को समझने की कोशिश कर रहे हैं। कई तो इसमें पारंगत भी हो गए हैं। जम्मू-कश्मीर के नेशनल कांफ्रेंस के सुप्रीमो फारुक अब्दुल्ला के पुत्र और सांसद उमर अब्दुल्ला तो इसमें मास्टर हैं। उमर की जिनके साथ शादी हुई है, वह सचिन पायलट की बहन है, वह कंप्यूटर इंजीनियर है। अब कई राजनेता इस दिशा में रुचि ले रहे हैं। कइयों ने तो अपना बायोडाटा भी इंटरनेट पर डाल रखा है।
दिल्ली के एक इंटरनेट कनेक्शन प्रोवाइडर को आज के नेताओं को इंटरनेट के उपयोग के बारे में जानकारी देने का काम मिला। विश्व में ई-लर्न्ािंग किस तरह से चल रही है, उसकी पूरे एक घंटे तक जानकारी उन्होंने नेताओं को दी। उसने अपना अनुभव बाँटते हुए बताया कि इंटरनेट के बारे में इन नेताओं को कुछ बताना यानी भैंस के आगे बिन बजाना ही है। इस दिशा में वे इतना ही कर सकते हैं कि मोबाइल पर घंटों बात कर सकते हैं। इसकी गंभीरता को समझे बिना ये अपनी वेबसाइट खोल लेते हैं, इससे अधिक हुआ तो अपने कार्ड में अपना ई-मेल पता और वेबसाइट का पता डलवा लेते हैं, ताकि अपने आप को आधुनिक बता सकें। इनका काम यहीं तक सीमित रहता है, इसलिए न तो इनकी वेबसाइट अपडेट होती है और न ही ये अपना ई-मेल चेक कर पाते हैं। कुछ दिनों बाद इनका मेल बॉक्स भर जाता है, इन्हें इसका पता भी नहीं चलता।
विश्व भर के राजनेता क्या कर रहे हैं, उनकी प्रगति किस तरह से हुई, उन्होंने क्या-क्या भूलें कीं, उन्होंने किस तरह से आगे बढ़ने के लिए छलांग लगाई, ऐसी ढेर सारी जानकारियाँ नेट पर उपलब्ध है। किंतु हमारे राजनेता इससे बिलकुल अनजान हैं। कहा जाता है कि जब बाबरी मस्जिद गिराई जा रही थी, तब तात्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव कंप्यूटर पर गेम खेल रहे थे, ऐसा उनके आलोचकों का कहना है। सच तो यह है कि उस समय वे कुछ ऐसी जानकारी सर्च कर रहे थे, जो देश के लिए उपयोगी थी। श्री राव कंप्यूटर का उपयोग करना अच्छी तरह से जानते थे। आधुनिक टेक्नालॉजी का उपयोग करने के लिए राजनीति के इन खिलाड़ियों के पास समय नहीं है। उनके हाथ-पाँव तो उनके सचिव होते हैं या फिर उनके समर्थक, जो यदि एक बार कंप्यूटर पर बैठ गए, तो अपना काम अधिक और नेता का काम कम करते हैं।
भारत की आधी आबादी जब 25 वर्ष के अंदर है, तब इंटरनेट का उपयोग महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके बाद भी 90 प्रतिशत राजनेता ऐसे हैं, जिन्हें इंटरनेट की जरा भी जानकारी नहीं है। उन्हें ई-मेल की थोड़ी-बहुत जानकारी होती है, किंतु वेबसाइट, डोमाइननेम, अपलोड-डाउनलोड, सर्च इंजन के संबंध में कुछ भी समझ नहीं है। आश्चर्य इस बात का है कि इन नेताओं को सरकार की तरफ से मिलने वाले लेपटाप और ब्राडबेंड कनेक्शन का उपयोग उनका स्टाफ या उनके बच्चे ही अधिक करते हैं।
अब इन राजनेताओं को कौन समझाए कि आज इंटरनेट इंसान के लिए कितना आवश्यक हो गया है। जहाँ ये इंटरनेट से दूर भाग रहे हैं, वहीं अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच अमिताभ बच्चन रात के दो बजे तक इंटरनेट पर अपने विचार लिख रहे हैं, ये विचार लोगों तक पहँच रहे हैं और लोग इस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं। ये चुनाव प्रचार का एक सशक्त माध्यम बन सकता है, इसकी समझ यदि आज के नेताओं को आ जाए, तो सचमुच देश के दिन फिर सकते हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

कोई कुछ नहीं करेगा


नीरज नैयर

हम भारतीयों को मुगालते में जीना पसंद है. हम मुगालते में हैं कि अमेरिका हमारे दुश्मन को अपना दुश्मन मानेगा, हम मुगालते में हैं कि पाकिस्तान हमारी धमकियों से डरकर कार्रवाई करेगा, हम मुगालते में हैं कि विश्व समुदाय पाक पर जुबान जमा खर्ची के बजाए सख्त कदम उठाएगा.
जबकि हम खुद इस बात को भली-भांति जानते हैं कि कोई कुछ नहीं करने वाला. मुंबई हमले को एक महीना बीत चुका है बावजूद इसके न तो पाकिस्तान ने कोई कार्रवाई की और न ही हमने कोई माकूल जवाब देने की हिम्मत जुटाई. हम अब भी कभी मुस्लिम राष्ट्रों को पाक की खिलाफत करने को कह रहे हैं तो कभी उसके मददगार चीन को.
अमेरिका और यूरोपीय देश भले ही मुंबई हमले में भारत के साथ खड़े होने की बात कह रहे हो मगर यह सोच लेना कि वह पूरी तरह से हमें समर्थन देंगे गलत होगा क्योंकि सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं और भारत का साथ देने के नाम पर वो उन्हें कुर्बान नहीं कर सकते. अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा से लड़ने के लिए उन्हें पाकिस्तान की जरूरत है इसलिए वो पाकिस्तान पर घुर्रा तो सकते हैं पर काट नहीं सकते. इसी तरह भी हमारा साथ देने के मूड में दिखाई नहीं पड़ रहा है. रूस भारत का पुराना साथी रहा है मगर मौजूदा माहौल में साथ देने के बजाए वो भारत-पाक को शांत रहने की नसीहत दे रहा है. जबकि उसकी खुफिया एजेंसी खुद इस बात का खुलासा कर चुकी है कि मुंबई हमलों में दाऊद का हाथ था.
वैसे रूस का रूखा व्यवहार कोई अचरज की बात नहीं है. भारत के अमेरिका के नजदीक आने की बेताबी के चलते रूस पहले से ही दूरी कायम किए हुए था. मनमोहन सिंह की महज 28 घंटे की मास्को यात्रा के साथ ही यह साफ हो गया था कि दोनों देशों के बीच पुरानी वाली बात नहीं रही. पाकिस्तान जिस तरह का रुख जाहिर कर रहा है उससे इस बात की संभावना कम ही दिखाई पड़ती है कि वह बिना चोट खाए बाज आने वाला है. रक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि भारत को प्रेशर डिप्लोमेसी के साथ-साथ पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करके कड़ा संदेश देना चाहिए. वायुसेना इस काम के लिए पुरी तरह तैयार है. बड़ी संख्या में संभावित अड्डों की पहचान कर ली गई है.
महज सात मिनट में उन्हें जमींदोंज किया जा सकता है. मुंबई हमले को एक महीने से अधिक समय बीत जाने के बाद भी पड़ोसी मुल्क ने कोई वायदा नहीं निभाया है. उल्टा उसने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा के गिरफ्तार आतंकवादियों को भी छोड़ दिया है. पाकिस्तान अमेरिका के दबाव को भी लगातार नजर अंदाज किए जा रहा है. अभी हाल ही में अमेरिका ने अपने सबसे बड़े सैन्य आफिसर एडमिरल माइक मुलेन को पाकिस्तान दबाव बनाने के इरादे से भेजा था. लेकिन पाक इस मौके पर भी अपने तेवर दिखाने से बाज नहीं आया. उसने मुलेन की मौजूदगी में लड़ाकू विमानों को इस्लामाबाद के ऊपर से उड़ाकर यह संदेश देने का प्रयास किया कि उसकी सेना अमेरिकी दबाव को कितनी अहमियत देती है.
पाक इस बात को अच्छी तरह जानता है कि अमेरिका एक सीमा तक ही उसपर दबाव डाल सकता है. क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ लड़ाई में अमेरिकी और नाटो सैनिकों को भेजा जाने वाला 75 फीसदी साजो सामान पाकिस्तान के रास्ते होकर ही गुजरता है. ऐसे में अमेरिका पाक से सीधी लड़ाई लेकर वॉर ऑन टेरर को कमजोर नहीं करना चाहेगा. अमेरिका कूटनीतिक पैंतरेबाजी अपनाकर दोनों देशो के बीच महज तनाव टालने में जुटा है. अमेरिकी नेतृत्व ने भारत सरकार को 20 जनवरी तक संयम बरतने की सलाह दी है. हालांकि इसके पीछे उसका तर्क है कि तब तक नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा सत्ता संभाल लेंगे.
वाशिंगटन यह कतई नहीं चाहता कि जब अमेरिकी चुनाव में इतिहास रचने वाले ओबामा व्हाइट हाउस की कमान थाम रहे हों उस वक्त भारत-पाक एक दूसरे पर मिसाइल दाग रहे हों. कुछ दिन पहले ही अमेरिकी विदेशमंत्री कोंडालीजा राइस ने प्रणव मुखर्जी को फोन करके यह टटोलने की कोशिश की कि भारत सैन्य कार्रवाई की क्या योजना बना रहा है.
अमेरिकी की यह कवायद पूरी तरह से मुंबई हमले और उसके बाद पनपे तनाव को खत्म करने की है. वो भारत के रुख का भले ही समर्थन कर रहा हो मगर वो भारत को पाक पर तवज्जो देने के मूड में कतई नहीं है. अमेरिका को यकीन है कि 20 जनवरी के बाद भारत का सारा ध्यान गणतंत्र दिवस की तैयारियों पर केंद्रित हो जाएगा. इस तरह जनवरी निकल जाएगी. फरवरी में कश्मीर घाटी में जमकर बर्फबारी होने की संभावना बढ़ जाएगी, लिहाजा भारत को सैन्य कार्रवाई कुछ और दिन के लिए टालनी पड़ेगी.
इसके बाद अगर भारत पाक के खिलाफ सख्त कदम उठाएगा तो शायद उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उतना समर्थन नहीं मिलगा जितना अभी मिल रहा है. पाकिस्तान भी इसी कोशिश में है कि युद्धोउन्माद फैलाकर विश्व समुदाय का ध्यान मुंबई घटना से भटकाया जाए. जितना लंबा वक्त पाकिस्तान गुजार लेगा मुंबई हमले की बात अपने आप दब जाएगी. मामले के ठंडे पड़ने के बाद पाक के हौसले तो बुलंद होंगे ही वहां से संचालित आतंकवादी संगठनों को पुन: मुंबई जैसे हमले करने का मौका मिल जाएगा. भारत को अगर पाकिस्तान को सबक सिखाना है तो उसे और कड़े कदम उठाने होंगे.
अमेरिका आदि देश केवल तभी पाक के खिलाफ सख्ती बरतेंगे जब उन्हें भारत यह एहसास कराए कि यदि पाक को आर्थिक और सैन्य मदद बंद नहीं की गई तो भारत सैन्य कार्रवाई करेगा. यदि भारत पाकिस्तान पी हमला करता है तो इसका प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ना लाजमी है. अमेरिका को अगर पाक पर वास्तविक दबाव डालना है तो इसके साथ तत्काल सभी सैनिक मदद बंद करने की घोषणा करनी चाहिए. जब तक भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पाकिस्तान के प्रति कड़े रुख जाहिर नहीं करेगा तब तक कोई भी कुछ नहीं करने वाला.

नीरज नैयर

सोमवार, 19 जनवरी 2009

चिकित्सकों में घटती मरीज के मर्ज की चिंता



प्रमोद भार्गव
एक समय था जब चिकित्सक और मरीज के बीच करूणा का भावनात्मक रिश्ता अनायास ही कायम हो जाया करता था और चिकित्सक मरीज के मर्ज की चिंता दिल से करता था। लेकिन दवा कंपनियों की व्यावसायिक होड़ ने चिकित्सकों को पहले उपहार और अब रिश्वत देकर मरीज को दवाएं खपाने का जो सिलसिला शुरू किया है उससे चिकित्सक की मनोवृत्ति लालची हुई और करूणा का रिश्ता पैसा कमाने की होड़ में तब्दील हो गया। इसीलिए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ए. रामदास को आईएमए को सलाह देनी पड़ी कि वह उपहार और रिश्वत के लालच से चिकित्सकों को मुक्त बनाए जाने के लिए जागरूकता अभियान चलाये। लेकिन समाज के प्रत्येक तबके में अनैतिक्ता का विस्तार और भ्रष्टाचार की पैठ क्या जागरूकता के थोथे अभियानों से प्रभावित हो पाएगी, यह कहना मुश्किल ही है ?
यह भारत वर्ष में ही संभव है जहां दवाओं का एक बड़ा अनुपात मर्ज को कम या खत्म करने की बजाय मर्ज को बढ़ाने का काम करता हो। सेहत के लिए दो तरह की दवायें खतरनाक साबित हो रही हैं। एक वे जो या तो नकली दवायें हैं, या निम्न स्तर की हैं, दूसरी दवायें ओटीसी मसलन 'ओवर दि काउण्टर' दवायें हैं, जिनके उपयोग के लिए न तो चिकित्सक के पर्चे की जरूरत पडती है और न ही विक्रय के लिए, ड्रग लायसेंस की आवश्यकता रहती है। ऐसी दवायें बडी संख्या में रोगी की सेहत सुधारने की बजाय बिगाड़ने का ही काम ज्यादा कर रही हैं। इसीलिए देखने में आ रहा है कि मामूली रोग भी महीनों में ठीक होने की स्थिति में नहीं आते।
नकली और मिलावटी दवाओं का कारोबार का देश में निरंतर विस्तार हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन मेडीकल ऐसोसियेशन की माने तो नकली और मिलावटी दवाओं का व्यवसाय कुल दवाओं के कारोबार का 35 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस समय देश में दवाओं का कुल कारोबार 22 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है। जिसमें से 7 हजार करोड़ की नकली दवायें होती हैं। इसके बावजूद दुनियां में दवाओं के निर्माण में भारत का प्रमुख दस देशों में स्थान है। लेकिन नए क्षेत्रों में जिस तेजी से यह व्यवसाय फैल रहा है, वह चिंता का कारण है। वर्तमान में यह कारोबार उत्तरप्रदेश, मधयप्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र को अपने चंगुल में फांस लिया है।
दरअसल सुरसामुख की तरह फैलते इस कारोबार पर अंकुश लगाने की मंशा, सरकार में दिखाई नहीं देती है। न तो जानलेवा कारोबार को रोकने के लिए पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह कोई सख्त कानून बनाये जाने की पहल की जा रही है और न ही दवाओं की जांच के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाओं की उपलब्धता है। दवाओं की गुणवत्ता की जांच के लिए देशभर में कुल 37 प्रयोगशालायें हैं। जो पूरे साल में बमुश्किल लगभग ढ़ाई हजार नमूनों की जांच कर पाती हैं। नमूने की जांच का प्रतिवेदन देने में भी उन्हें छह से नौ माह का समय लग जाता है। दवा निरीक्षकों की कमी, उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार और चिकित्सकों के सहयोग के चलते नकली दवा निर्माता व विक्रेताओं का कारोबार खूब फल फूल रहा है। इसी कारण नकली दवाओं के कारोबारियों की दिलचस्पी अब केवल मामूली बुखार, सर्दी, जुकाम, हाथ पैरों में दर्द की दवायें बनाने तक सीमित नहीं रह गई हैं, वे टीबी, मधुमेह, रक्तचाप और हृदयरोगों की भी दवायें बनाने लगे हैं।
आईएमए इस पर नियंत्रण के लिए मादक पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह एक कड़ा कानून बनाये जाने की अपील सरकार से कई मर्तबा कर चुका है। लेकिन सरकार व्यक्ति की सेहत और जीवन से जुड़ा मामला होने के बावजूद इस कारोबार पर लगाम लगाने की दृष्टि से कोई कड़ा कानून नहीं बना रही। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने इस संदर्भ में पहल जरूर की थी, लेकिन आरोपियों को मौत की सजा देने का प्रावधान रखा जाने के कारण कुछ मानवाधिकार संगठनों ने इसके विरूध्द आवाज उठाई और कानून को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। हैरानी होती है कि जो कारोबारी चिकित्सकों की सांठ-गांठ से दवा के रूप में जहर बेचकर लाखों लोगों की सेहत और जान से खिलवाड़ कर रहे हैं, उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाने में हिचक क्यों ? इसे हम राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी भी कह सकते हैं।
दरअसल भूमण्डलीकरण के चलते नवउदारवाद ने लालच की जो प्रवृति को बडावा दिया है उसने दवाकंपनियों और चिकित्सकों के गठजोड़ को मरीजों के आर्थिक व शारीरिक शोषण का हिस्सा बना दिया। जबकि सरकार इन हालातों से वाकिफ होने के बावजूद चुप्पी साधो हुए है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कुछ दवा कंपनियों ने तो वकायदा चिकित्सकों को सिल्वर और गोल्डन कूपन दिए हुए हैं, जिन्हें चिकित्सक रोगी के पर्चे पर चस्पा कर इसी कंपनी की दवा लिखते हैं। लिहाजा रोगी यहीं दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। चिकित्सक का इस बात से कोई काररूणिक नाता नहीं रह गया है कि ये दवाएं मरीज के स्वास्थ्य पर अनुकूल असर डाल रही हैं अथवा प्रतिकूल ? यह लालच इंसान के स्वास्थ्य के साथ जानलेवा खिलवाड़ है।
बाजारबाद की अवधारणा ने ही ओटीसी दवाओं के बाजार को विस्तार दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद इस बाजार में तेजी तो आई ही, वह भयमुक्त भी हुआ दवा कंपनियों के बीच ऐसी दवाओं की बिक्री को लेकर प्रतिस्पर्धा भी बड़ी है। कुछ दवा संगठनों ने तो ओटीसी दवाओं की सूची में और दवायें शामिल करने की दृष्टि से स्वास्थ्य मंत्रालय को ज्ञापन देकर गुहार भी लगाई है। अनेक दवाओं को पेटेंट के दायरे से बाहर कर दिये जाने के कारण भी ओटीसी कारोबार में इजाफा हुआ है। बहरहाल हमारे देश में सेहत के साथ खिलवाड़ भी मुनाफे के कारोबार में तब्दील किये जाने का षडयंत्र धड़ल्ले से चल रहा है और केन्द्र व राज्य सरकारें हैं कि चुप्पी साधो हैं। यह चुप्पी शायद ही रामदास की जागरूक्ता अभियान संबंधी गुहार से टूटे ?
प्रमोद भार्गव

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

स्वच्छ जल-सा है रहमान का व्यक्तित्व और संगीत


सुनील मिश्र
भारतीय सिने-संगीत जगत में वे एक असाधारण उपस्थिति हैं। उनके रूप में एक ऐसा युवा हमारे बीच है, जो तमाम विशिष्टताओं के बीच एक साधारण इनसान है।
गीत में अनुभूतियोें का मार्ग जन्नत की तरफ हमें ले जाता है, इस बात पर कभी कोई भ्रम नहीं रहा। एआर रहमान को मिले यश से यह भी विश्वास पक्का हो गया कि संगीत हमारी अस्मिता को अपार यश और गर्व करने लायक वैभव भी प्रदान करता है। अगले दिन सुबह के अखबारों का मस्तक रहमान का गुणगान यों ही नहीं गा रहा था, दरअसल वो उपलब्धि ही ऐसी है, वो खुशी ही ऐसी है कि आठ कॉलम की बाहें भी उसे थाम नहीं पा रही हैं।
एआर रहमान का व्यक्तित्व सचमुच बेमिसाल है। भारतीय सिने-संगीत जगत में वे एक असाधारण उपस्थिति हैं। उनके रूप में एक ऐसा युवा हमारे बीच है, जो अपनी तमाम विशिष्टताओं के बीच एक सहज-साधारण सा इनसान है। अभी कुछ ही वर्ष पहले इंदौर में उनके साथ दो दिन का सान्निध्य इसी तारतम्यता में बार-बार स्मरण हो आता है जब वहां के हवाई अड्डे में, जहाज से उतरकर अपनी मां और खतीजा नाम की छोटी-सी बेटी के साथ वे लता मंगेशकर सम्मान ग्रहण करने आए थे। उनको सामने देखकर उनके संगीतबध्द किए तमाम गानों की पंक्तियां मस्तिष्क की तरंगों में स्पंदित होने लगीं। एक अजीब सी, मगर मनभावन-सी मानसिक अस्थिरता के बीच उनसे जब मुलाकात हुई, तो देखकर भारी विस्मय हुआ था, क्योंकि वे व्यवहारित हुए थे, बिल्कुल एक सहज इनसान की तरह, हमारे-अपने बीच के साधारण मनुष्य जैसे।
रहमान का जीवन कड़े संघर्षों का रहा है। बहुत छोटी-सी उम्र में मां और बहनों की जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी, जब उनके पिता एक गंभीर बीमारी में चल बसे थे। पिता संगीत से जुड़े थे। वादक थे। पिता का सान्निध्य उनको भी इसी रास्ते पर ले गया। संगीत बचपन में उनका मार्ग प्रशस्त करता, उसके पहले उनको परिवार की रोजी-रोटी के लिए दक्षिण के प्रख्यात संगीतकार इलियाराजा के आर्केस्ट्रा में एक वादक होना पड़ा। संघर्ष की कहानी थोड़ी लंबी है, गहरे संकट से भरी, मगर रहमान को उनके ऊपर वाले ने सब संकटों से उबारा और फिर एक दिन मणि रत्नम की फिल्म 'रोजा' के संगीत ने फिल्म जगत को अपने संगीत से चमत्कृत किया। चमत्कृत इस बात से भी किया कि संगीत निर्देशक छब्बीस साल का युवा है, एआर रहमान नाम है उसका। इस फिल्म के लिए उनको भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। रहमान तब से अब तक लगातार हिंदी और तमिल फिल्मोें के लिए संगीत रचनाएं कर रहे हैं और आने वाले तमाम वर्षों की योजनाओं में वे व्यस्त हैं।
नई पीढ़ी का रहमान से यह परिचय जिस गर्मजोशी से बना, वह आज भी बनी हुई है, यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। इन सत्रह सालों में एआर रहमान ने असाधारण उपलब्धियां अर्जित की हैं। उनकी फिल्मों का संगीत जीवन को एक अनूठे रूमान से भर देता है। उनके द्वारा संगीतबध्द किए गए गीतों को ताजिंदगी सुनते रहने का मन करता है। रंगीला, फायर, दिल से, अर्थ, ताल, तक्षक, पुकार, फिजा, जुबैदा, लगान, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह, साथिया, मीनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीा, युवा, स्वदेश, किसना, मंगल पांडे: द राइािंग, वाटर, रंग दे बसंती, गुरु, प्रोवोक्ड, जोधा अकबर, जाने तू या जाने ना, युवराज, गजनी और स्लमडॉग मिलिनेयर तक आते-आते हमारे सामने एक पूरे के पूरे समय का पुनरावलोकन होने लगता है। यह यात्रा आसान नहीं है। उत्कृष्टता की निरंतरता बने रहने के भी अपने तनाव सर्जक को होते हैं, जिसे सिर्फ वही जानता है। दृष्टियां चाहें वो आलोचना भरी हों या प्रशंसा भरी, उनके भीतर की आक्रामता को सही-सही पहचानने वाला ही रस्सी पर संतुलन बनाकर चलने में सफल होता है। एआर रहमान को हम इस मायने में एक सजग, कुशल और गहरी अंतर्दृष्टि का एक विशिष्ट सर्जक मानें।
रहमान का व्यक्तित्व तल दिखाई पड़ने वाले स्वच्छ जल-सा है। पिछले साल ही फिल्म 'जोधा अकबर' में उनके द्वारा गायी कव्वाली ख्वाजा मेरे ख्वाजा, अद्भुत थी। उनका अंत:करण भी निर्मल है। वे गहन आध्यात्मिकता से जुड़े इनसान हैं। ईश्वर एक समय उनके भीतर की तकलीफ का निवारण नहीं करता, तो यह सर्जक शायद उस सर्जना से वंचित रह जाता, जिसकी वजह आज हमें उन पर गर्व है। बातचीत में उन्होंने इस बात को सहजतापूर्वक स्वीकार किया था। अपने संगीत को भी वे उसी अध्यात्म का हिस्सा मानते हैं। हमेशा रहमान अपने गानों की रिकॉर्डिंग रात में ही करना पसंद करते हैं। स्लमडॉग मिलिनेयर के लिए रहमान को मिला गोल्डन ग्लोब अवार्ड एक ऐसी घटना है जिससे पूरा देश गदगद है। रहमान की मंजिल यहीं पर नहीं है, वे इससे भी काफी आगे के कलाकार हैं। जिस तरह यश, वैभव, उपलब्धियां और मान-सम्मान, रसूख भी, रहमान की नरम मुस्कान और अंत:करण की सहज आध्यात्मिक विनम्रता का कुछ भी नहीं बिगाड़ पातीं, ऐसा काश हम सबके साथ भी हो। इतनी नरमी, इतनी विनम्र मुस्कान हम सबके अहंकार के शूल को भी घातक बनने से रोके, तो कितना अच्छा हो।
बधाई, दिल से रहमान!
सुनील मिश्र
-लेखक सिने-विश्लेषक हैं।
smishr@gmail.com

बुधवार, 14 जनवरी 2009

हमारी दानशीलता से भिखारी बनते करोड़पति



डॉ. महेश परिमल
दृश्य एक
भारत-बंगला देश सीमा पर स्थित एक गाँव, जिसका नाम है बेणुपुर। इस गाँव में एक सुबह एक महँगी चमचमाती मर्स्ािडीज कार प्रवेश करती है। इस कार में खूब ही महँगा शूट पहने हुए एक व्यक्ति बैठा है। एक नजर वह अपनी विशाल स्टेट पर फेरता है। उसके खेत पर काम करते मजदूर उसका अभिवादन करते हैं। एक गर्वभरी मुस्कान के साथ उसकी गाड़ी एक भव्य आलीशान बंगले के सामने रुकती है। वह अपने बंगले में प्रवेश करता है। पत्नी और बच्चों से मिलता है। अपने धंधे के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। अपनी बातों से वह अपने परिजनों को ऐसा फाँसता है कि परिजन भी ऑंख बंद कर उसकी बातों पर भरोसा कर लेते हैं।
दृश्य दो
अल्लाह के नाम पर कुछ दे दे बाबा। मौला के नाम पर कुछ दे दो बाबा। अल्लाह आपकी हिफाजत करेगा। इस बेबस इंसान को कुछ मिलेगा बाबा, अल्लाह आपको सुखी रखेगा। इस तरह के जुमलों के साथ कोई आपके सामने आए, जिसके दो हाथ न हों, तो निश्चित ही आपको दया आएगी और आपका हाथ जेब की तरफ चला जाएगा। हम यह सोचते हैं कि हमने बहुत बड़ा पुण्य कमाया। उस भिखारी की आत्मा हमें दुआएँ देगी। हम यह सोचकर रह जाते हैं और उस भिखारी को कुछ न कुछ देते रहते हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उक्त दोनों ही दृश्य एक ही व्यक्ति से संबंधित हैँ। वही व्यक्ति एक ओर बहुत बड़ी स्टेट और आलीशान बंगल का मालिक है, तो दूसरी ओर बेबस होकर भीख माँगने वाला एक भिखारी। एक ही व्यक्ति के दो रूप। ऐसा हमारे देश में भी हो सकता है। इस तरह के हजारों भिखारी हमारे देश में हैं, जो अपनी विवशता बताकर भीख माँग रहे हैं और हम सब पुण्य कमाने के चक्कर में इन्हें लखपति से करोड़पति बना रहे है। भीख देने से हमारी स्थिति में भले ही बदलाव न आए, पर इनकी स्थिति में बदलाव आ जाता है। ये अपने क्षेत्र में वैभवशाली व्यक्ति के रूप में पहचाने जाते हैं। हमारी कमजोरी का फायदा उठाकर ये भिखारी धन्ना सेठ बन जाते हैं और हमें पता ही नहीं चलता।

हमें क्या किसी को भी पता नहीं चलता, यदि उस भिखारी को जयपुर में पुलिस दबिश के दौरान पकड़ा न जाता। इस बंगलादेशी भिखारी का नाम है मोहम्मद जाकिर। छोटी उम्र में ही एक दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गँवाने वाले गरीब परिवार का लड़का। आवक का कोई साधन नहीं। दो दशक पहले किसी तरह वह भारतीय सीमा में घुस गया। कुछ महीने कोलकाता में रहने के बाद वह मुम्बई पहुँच गया। मुम्बई में वह गेटवे ऑफ इंडिया के सामने भीख माँगता। वह बताता है- कुदरत का कमाल तो देखो, यहाँ के लोग बहुत ही दयालु हैं। मुझे अपाहिज मानकर दो-पाँच रुपए दे देते हैं, कभी कोई विदेशी होता है, तो वह पचास रुपए भी दे देता है। गेट वे ऑफ इंडिया के सामने भीख माँगकर महीने में वह दस हजार रुपए आराम से कमा लेता था।
साल में एक बार वह अपने वतन जाता। अपने आप को पूरी तरह से तैयार कर। क्लीन शेव कर, उजले कपड़े पहनकर बंगलादेश में जब वह अपने गाँव पहुँचता है, तो लोग उसकी इात करते हैं। पहले तो उसने अपने ही गाँव में कुछ जमीन खरीदी, पाँच साल पूरे होते तक तो उसने मकान भी खरीद लिया। उसके बाद इसी भीख की कमाई से जमीन-जायदाद खरीदना शुरू कर दिया। धन आने से अपनी बेटी देने वाले भी उसे मिल गए। दोनों हाथों से नाकाम होने के बाद भी उसे अपनी बेटी देने वालों की लाइन लग गई। मोहम्मद जाकिर की शादी हो गई, आज वह पांच बच्चों का पिता है। पर भीख माँगने की आदत ऐसे लगी कि छोड़ने का नाम ही नहीं लेती। किसी तरह सीमा तक पहुँचकर वहाँ हमारे जाँबाजों को कुछ रिश्वत देकर वह भारत में घुस आता था। एक बार किसी ने मजाक में कह दिया कि अजमेर शरीफ चले जाओ, ख्वाजा साहब गरीबनवाज हैं, बस जाकिर अजमेर आ गया।
राजस्थान का पवित्र शहर अजमेर। जहाँ ईरान से 12 सदी में आए सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्फ ख्वाजा गरीब नवाज साहब की दरगाह है। यहाँ रोज हजारों हिंदू-मुस्लिम सजदा करने आते हैं। अपनी चाहत पूरी करने आते हैं। ऐसा विश्वासा है कि यहाँ आकर जो भी मुराद माँगो, वह अवश्य पूरी होती है। मोहम्मद जाकिर को अजमेर मुम्बई के बजाए अधिक अनुकूल लगा। यहाँ तो दोनों समय भोजन भी मुफ्त मिल जाता था। भीख की राशि पूरी बच जाती। उधर बंगलादेश में उसके परिजनों को भी अधिक समय तक बाहर रहने पर कोई आपत्ति न थी। उसके दिन आराम से कट रहे थे।
आखिर एक दिन तो भांडा फूटना ही था। सो फूट गया। हुआ यूँ कि जयपुर में आतंकवादियों द्वारा बम विस्फोट किए जाने के बाद वहाँ सुरक्षा-व्यवस्था कड़ी हो गई। लोगों से पूछताछ बढ़ गई। पुलिस ने जाकिर से पूछताछ की, उसका पता पूछा। पता कैसे बताता? वह तो घ ुसपैठिया था। उसकी बातचीत से शक हुआ कि वह बंगलाभाषी है, तो पुलिस ने सख्ती की। बड़ी मुश्किल से उसने अपना पता बताया। जब पुलिस बंगलादेश जाकर उस पते पर पहुँची, तब पता चला कि यह भिखारी तो करोड़पति है।
हमारी दया पर पलने वाले इस भिखारी के बाद मुम्बई के म्युनिसिपल अधिकारियों और रिश्वतखोर कर्मचारियों की बदौलत उसका राशनकार्ड भी बन गया। यही नहीं जे.जे. हास्पिटल की ओर से जारी किया गया विकलांगता का प्रमाण पत्र में इस भिखारी ने जुटा लिया। इस तरह से उसने हमारे देश की कानून-व्यवस्था को धता बताते हुए लाखों रुपए कमाए और उन सभी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, जो उसकी विकलांगता को देखकर उसे भीख दिया करते थे। उक्त करोड़पति भिखारी आज पुलिस की गिरफ्त में है, पर उसे क्या फर्क पड़ता है, आखिर वहाँ भी तो उसे खाना मुफ्त में ही मिल रहा है। वह अपनी संपति तो भारत को दान नहीं कर देगा। फिर मामला दूसरे देश का है। उसने ऐसा कोई अपराध भी नहीं किया है, जिसे कानून जुर्म मानता हो। इन सवालों के बीच आखिर हमारी दयानतगिरी, दानशीलता, रहम का क्या होगा, जो किसी बेबस को देखकर जेब में हाथ डालने को विवश कर देती है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

ईगल (चील्ह) के सात सिद्धान्त!



पहलाः

ईगल ऊँची उड़ान भरता है। उसके साथ गौरया या दूसरे छोटे पक्षी नहीं होते हैं। कोई दूसरा पक्षी उसके साथ उड़ ही नहीं सकता। ईगल हमेशा गौरया और कौवों से अलग ही रहता है।
ईगल, ईगल के साथ उड़ता है।
दूसराः
ईगल की निगाहें बहुत तेज़ होती है। ईगल पाँच किलोमीटर तक की दूरी से भी अपने लक्ष्य पर दृष्टि को केंद्रित कर सकता है। जब वह अपने शिकार कको लक्ष्य बना लेता है तो फिर दुसरी तरफ देखता भी नहीं है। उसकी निगाहें बिल्कुल अपने लक्ष्य पर ही आकर ठहर जाती हैं। फिर तो चाहे जितनी कठिन बाधायें बीच में क्यों न आ जायें वह बिना अपना लक्ष्य हासिल किये नहीं रुकता।
अगर दृष्टि हो और एक लक्ष्य पर उसे केन्द्रित कर दिया जाय, तो फिर बाधायें सफलता के आड़े नहीं आती हैं।
तीसराः
ईगल मरी हुई चीजें नहीं खाता है।वह सिफ ताज़ा और जि़न्दा शिकार ही खाता है। गिद्ध मरे हुए जानवर खाते हैं, लेकिन ईगल नहीं।
आप जो कुछ देखते-सुनते हैं, खासतौर से फिल्मों और टेलीवीज़न में, उसके प्रति सचेत रहिए। हमेशा खुद को नई जानकरियों से लैस रखते हुए अपने ज्ञान को समसामयिक बनाये रखिये।

चौथाः
ईगल तूफानों से प्यार करता है। जब बादल घिरना आरम्भ करते हैं तो वह रोमांचित हो जाता है। वह तूफानी हवाओं को ऊँचाई पर उड़ान भरने के लिए प्रयोग करता है। अगर वह एक बार वह तूफानी हवा की धाराओं को पा जाता है, फिर तो बादलों से भी ऊपर चला जाता है। यह ईगल को उड़ते हुए पंखों को आराम करने का अवसर प्रदान करती हैं। दूसरी तरफ तूफानी हवाओं के बीच दूसरे पक्षी पेड़ों की शाखाओं और पत्तियों के बीच छुप जाते हैं।
हम जीवन की में आने वाली बाधा रूपी तूफानों के सहारे और भी अधिक ऊँचाइयों को छू सकते हैं। बहादुर हमेशा चुनौतियों को स्वीकार करके लाभान्वित होते हैं।

पाँचः
ईगल विश्वास करने से पहले जाँचता है। जब मादा ईगल मिलन के लिए नर ईगल के संपर्क में आती है तो वह नर को आकर्षित करते हुए नीचे की तरफ उड़ान भरती है और लकड़ी की एक टहनी को उठाती है। फिर वह नर को आकर्षित करने के लिए दुबारा हवा में उड़ जाती है। जब वह काफी ऊँचाई पर जाकर टहनी को छोड़ देती है और उसे गिरते हुए देखती है, तब नर उस टहनी का पीछा करता है। वह जितनी तेज़ी से नीचे गिरता है वह उतनी ही तेज़ी से उसका पीछा करता है। उसे टहनी को गिरने से पहले पकड़ना होता है। वह उसे पकड़कर वापस मादा ईगल के पास ले आता है। तब मादा ईगल उस टहनी को लेकर ऊँचाई पर जाकर फिर उसे नर को लाने के लिए छोड़ देती है। फिर वह तब तक के लिए ऊँचाइयों पर चली जाती है जब तक कि उसे यकीन न हो जाय कि नर ईगल पकड़ने की कला में निपुड़ नहीं हो गया। इस तरह टहनी का पकड़ना समर्पण दर्शाता है। तब कहीं जाकर मादा ईगल नर ईगल को मिलन का अवसर देती है।
चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक सहभागिता के लिए लागों के समर्पण की भावना को ज़रूर परखना चाहिए।


छः
जब ईगल अन्डे देने की तैयारी करते हैं तो नर और मादा दोनों पहाड़ी की ऐसी ऊँची चोटी की खोज करते हैं जहाँ कोई परभक्षी न पहुँच सके। इसके बाद नर ज़मीन पर आकर पत्थर के टुकड़े इकट्ठा करके चट्टान की दरार में रखता है। उसके बाद वह फिर धरती की तरफ उड़ान भरता है और टहनियाँ इकट्ठा करके लाता है और अन्डे देने के लिए घोसले का निर्माण करता है। फिर वह धरती की तरफ उड़ान भरके काँटे एकत्रित करके लाता है और और टहनियों के ऊपर रख देता है। इसके बाद फिर ज़मीन से जाकर नरम घास लाकर काँटों को ढंक देता है। इस तरह पहली पर्त तैयार हो जाने के बाद नर ईगल दुबार धरती पर जाकर और काँटे एकत्रित करके उससे घोसले को ढंक देता है। दुबारा वापस जाकर घास लाकर उन्हें काँटों के ऊपर रख देता है। इसके बाद अपेन परों को तोड़कर घोंसले को पूरा करता है। घोंसले के कंटीले तिनके परभक्षियों से रक्षा करते हैं। दोनों नर-मादा चील्ह परिवार को बढ़ाने में हिस्सेदारी निभाते हैं। मादा अन्डे देकर उनकी रक्षा करती है। नर घोसला बनाता है और शिकार करता है, फिर मादा ईगल उन्हें उड़ना सिखाने के लिए उन्हें घोसले से बाहर फेंक देती है। वह अपने बचाव की कोशिश में दुबारा घोसले के अन्दर आ जाते हैं। इस बीच वह घोसले की मुलायम पर्त को हटा लेती है। इससे बच्चों के वापस आने पर काँटें उन्हें चुभते हैं। तब शायद उन्हें आश्चर्य होता है कि उनके माँ-बाप जो उन्हें बहुत प्यार करते थे वह इस तरह का क्रूर व्यवहार क्यों करते हैं? माँ फिर भी उन्हें उठाकर बाहर फेंक देती है। डरे हुए बच्चों को बाप उन्हें गिरने से बचाता है। इस तरह की प्रक्रिया से वह एक दिन खुद उड़ने लगते हैं। जब उन्हें यह पता चलता है कि हम उड़ भी सकते हैं तो वह बहुत उत्तेजित होते हैं।
घोसले के निमार्ण की तैयारी हमें बदलाव की प्रेरणा देती है। तैयारी तभी सफल होती है जब उसमें भागीदार पूर्ण रूप से हिस्सेदारी निभाते हैं। यद्यपि कंटीले तिनको का स्पर्श दुखद होतो है, लेकिन वह यह प्रेरणा देता है कि कष्ट का मार्ग ही हमें सफलता की तरफ ले जाता है। काँटे हमें यह भी शिक्षा देते हैं कि उससे बचते हुए भी हमें आगे बढ़ना है। चुभन का एहसास हमे उससे गुज़रने के बाद ही होता है और इससे यह शिक्षा मिलती है कि कठिनाइयों से संघर्ष हमें सफलता की तरफ ले जाता है।


सातः
जब ईगल बूढ़ा हो जाता है और उसके पंख कमज़ोर हो जाते हैं वह उतनी तेज़ी से नहीं उड़ पाता है जितनी तेज़ी से उड़ता था , तब अपनी मौत को निकट जानकर वह अपनी जगह को त्याग कर एक चट्टान पर चला जाता है और वहाँ जाकर अपने पंखों को त्याग देता है। इस तरह उसका शरीर पंखविहीन हो जाता है। वह उस स्थान पर तबतक रहता है, जब तक कि उसके नये पंख न आ जायें, तब वह दुबारा उस स्थान से बाहर आता है।
पुरानी आदतें जो कि हमारे मार्ग में बाधा बन रही हों तो उसे त्याग देने में ही भलाई है।

प्रस्तुतिः वकार और ईश मुहम्मद

सोमवार, 12 जनवरी 2009

मेमोरी डेवलोपमेंट छात्र जीवन का अहम बिंदु

रामचंद्र मौर्य
ज्यादातर लोगों की यह समस्या और शिकायत होती है कि वे चीजों को लंबे समय तक याद नहीं रख पाते। कभी-कभी चिंता या दुख भी याददाश्त कमजोर होने का कारण माने जाते हैं। ढलती उम्र का तो यह सामान्य लक्षण हो सकता है लेकिन स्कूल कॉलेजों में अध्ययनरत अनेक छात्र-छात्राएं भी इस समस्या से परेशान रहते हैं। अत: इस पर गौर किया जाना जरूरी है। कमजोर याददाश्त वाले बच्चों को समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन सा नुस्खा अपनाया जाए कि वे परीक्षा के लिए याद की गई पाठ्य-सामग्री को न भूलें और अच्छे अंक लाएं। दरअसल इंसान के दिमाग के अंदर एकत्रित सूचनाएं समय के साथ धुंधली होने लगती हैं लेकिन छात्रगण कुछ उपाय करके अपनी मेमोरी को शॉर्प बना सकते हैं और कोर्स के कंटेंट को इस तरह याद कर सकते हैं कि उस पर समय या मनोवैज्ञानिक दबावों का असर न पड़े। मेमोरी डेवलेपमेंट के लिए मनोवैज्ञानिक कई प्रकार की हिदायतें देते हैं जिन पर अमल करने पर निश्चित ही याददाश्त बढ़ेगी और आत्मसात की गई पाठ्य-सामग्री विस्मृत नहीं होगी।
मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक हम दिन भर में जो भी देखते, सुनते, महसूस करते या पढ़ते हैं, वह सब हमारे दिगाम के एक भाग में स्टोर हो जाता है। जब हम किसी विषय विशेष की याद करना चाहते हैं और वह हमें याद नहीं आता तो हम कहते हैं कि हम उस चीज को भूल गए हैं लेकिन यह बात पूरी तरह सच नहीं है। दरअसल हमारी मेमोरी में वह विषय स्टोर तो है लेकिन समय के प्रभाव, सूचनाओं के बोझ तथा चिंतित रहने व मनोवैज्ञानिक दबावों के कारण दिमाग में दब जाता है। उसे रिकॉल करने का सही तरीका लोग नहीं जानते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि चीजों को इस तरह याद किया जाए कि आवश्यकता पड़ने पर पूरा विषय हमें तुरंत याद आ जाए। मेमोरी डेवलेपमेंट कैसे किया जाए, पाठ्य सामग्री को कैसे याद किया जाए, इन बातों को जानने के पहले जानें कि मनोवैज्ञानिक मेमोरी डेवलेपमेंट के बारे में क्या कहते हैं।
माइंड पार्ट्स
मनोवैज्ञानिको के मुताबिक इंसान का दिमाग दो हिस्सों में बंटा होता है। बायां हिस्सा एनालिसिस (विश्लेषण), कैलकुलेशन (गणना) और लॉजिक (तर्क) के काम करता है। दाहिना हिस्सा इमेजिनेशन (कल्पनाशक्ति), क्रिएटिविटी (सृजनात्मकता), ड्रीम्स (सपने देखना) और फैंटेसी (हवाई कल्पना) के काम करता है। माना जाता है कि दिमाग के बाएं हिस्से का इस्तेमाल ज्यादातर टीचर, मैकेनिकल इंजीनियर, एकाउंटेंट जैसे लोग करते हैं क्योंकि इनके काम में तर्क, गणना और विश्लेषण की प्रमुखता रहती है। दिमाग के दाहिने हिस्से का उपयोग पेंटर, एक्टर, ग्राफिक डिजाइनर, कवि-लेखक आदि ज्यादा करते हैं क्योंकि इनका काम कल्पना की उड़ान पर ज्यादा निर्भर होता है।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हम जो पढ़ते हैं, हमारा दिमाग औसत रूप में उसका 25 फीसदी कंटेंट याद रखता है। इसी तरह हम जो सुनते हैं उसका 35 फीसदी, जो देखते हैं उसका 50 फीसदी और जो बोलते हैं उसका 60 फीसदी और जो काम करते हैं उसका 75 फीसदी हिस्सा मानव मस्तिष्क में स्टोर हो जाता है। कभी-कभी मानसिक रूप से अलर्ट होकर आंखे खुली रखकर हम जो कुछ पढ़ते, देखते, सुनते, बोलते या याद करते हैं उसका 95 फीसदी मैटर हम औसतन याद रख पाते हैं लेकिन जिन विषयों के प्रति हम अलर्ट नहीं रहते, हमारा दिमाग उनको 10 मिनट भी याद नहीं रख पाता। दरअसल, हर व्यक्ति विशेष का आई-क्यू अलग-अलग आंकड़ों में होता है। जिसकी मानसिक-क्षमता, सोचने की क्षमता अधिक होती है वह चीजों को जल्दी आत्मसात करता है और लंबे समय तक उसे मेमोरी में स्टोर करके रखता है लेकिन जिस व्यक्ति का आई क्यू कम होता है वह चाहकर भी विषयवस्तु को न तो समझ सकता है और न लंबे समय तक उसे याद रख सकता है। अगर हम पॉजिटिव सोच रखें, सकारात्मक प्रयास करें और आत्मविश्वास से लैस रहें तो अपनी आई क्यू भी बढ़ा सकते हैं और सोचने-समझने की क्षमता विकसित कर मेमोरी डेवलेपमेंट को बरकरार भी रख सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि हमारा दिमाग किसी भी विषयवस्तु को औसतन 24 घंटे तक ठीक ढंग से याद रखता है और उसके बाद उसे भूलने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसलिए छात्र-छात्राओं को चाहिए कि पढ़े गए विषय को याद रखने के लिए उसे बार-बार दोहराते रहें और याद करने के बजाए समझने की कोशिश करें। याद की गई विषयवस्तु तो भूल सकते हैं लेकिन समझी गई पाठ्य-सामग्री नहीं भूली जाती। पढ़ी गई बातों को याद रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें व्यवस्थित ढंग से याद किया जाए और सही समय पर सही तरीके से उनका रिवीजन किया जाए। माना जाता है कि किसी भी चैप्टर को पढ़ने के सात दिन के अंदर उसका रिवीजन किया जाना चाहिए। एक से डेढ़ महीने के अंदर दूसरा और 6 महीने के बाद तीसरे रिवीजन से वह लंबे समय तक याद रहता है। प्रश्न यह है कि किसी विषयवस्तु या पाठ्य-सामग्री को किस तरह याद किया जाए कि हम सालों साल उसे भूल न पाएं।
एकाग्र होकर करें पढ़ाई
हमारा दिमाग हर वक्त एक साथ कई चीजों के बारे में सोचता रहता है। उदाहरण के लिए पढ़ते वक्त भी हमारा दिमाग ऐसी कई बातों के बारे में सोचता है जिसका पढ़ाई से कोई मतलब नहीं होता, जिससे पढ़ाई में बाधा पड़ती है, इसे मन का भटकाव भी कहते हैं। इसकी वजह से मन पढ़ाई में नहीं रम पाता और हम जो पढ़ते हैं, वह पूरी तरह याद नहीं हो पाता। इसके लिए जरूरी है कि जो पढ़ें, एकाग्रता से पढ़ें और एक समय में अपना पूरा ध्यान एक ही काम में लगाएं। चित्त की चंचल प्रवृत्ति से बचें। मन को भटकने न दें। एकाग्र होकर की गई पढ़ाई हमेशा याद रहती है।
एकाग्रता की जहां तक बात है तो शुरूआत में हो सकता है कि मन को जितना बांधने, संयमित रहने की कोशिश करें, वह उतना ही अधिक भटकने लगे लेकिन पॉजिटिव थिंकिंग, योग-प्राणायाम, ध्यान या मेडिटेशन करके मन की चंचल वृत्तियों से बचा जा सकता है। मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम और ध्यान सबसे बढ़िया तरीका है। पढ़ी गई अध्ययन सामग्री को बार-बार भूलने की स्थिति में पढ़ने के बाद तुरंत किताब बंद कर, आंखें बंद करके पढ़े हुए विषय के बारे में सोचें और देश-दुनिया से बेखबर होकर ध्यान करें। इसका निश्चित ही मेमोरी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
लिखाई-पढ़ाई को लेकर अगर आपके अंदर पॉजिटिव थिंकिंग है, मेहनत-लगन से पढा़ई करने का जज्बा रखते हैं तो निश्चित ही प्रतिभा निखरेगी, आई क्यू बढ़ेगा, मेमोरी का डेवलेपमेंट बरकरार रहेगा। वैसे तो मेमोरी बढ़ाने का दावा करने वाले कुछ टॉनिक भी बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ये टॉनिक मनोवैज्ञानिक असर के तहत ही काम करते हैं। ये भले ही शरीर में कुछ दूसरे बदलाव लाते हों जिससे दिमाग की सक्रियता बढ़ती हो लेकिन सबसे अहम यह कि एक धारणा बन जाती है कि याददाश्त टॉनिक से ही तेज हो रही है। असलियत में इसी धारणा की वजह से हम अपनी मेमोरी को बढ़ता हुआ महसूस करते हैं। पर इससे बड़ा सच यह है कि यदि बिना कोई टॉनिक या दवा लिए सिर्फ यह सोचा जाए कि मेरी याददाश्त भी किसी आईएस टॉपर से कम नहीं है और मैं भी उसी तरह से पाठ्य-सामग्री को कंठस्थ कर सकता हूं तो मेमोरी वाकई पहले से बेहतर हो जाएगी। दरअसल यह हमारे शरीर की प्रवृत्ति है कि हम जो सोचते हैं, उसी के अनुरूप हमारा शरीर ढलने लगता है। तभी तो मनोवैज्ञानिक व डॉक्टर हमेशा पॉजिटिव थिंकिंग की सलाह देते हैं।
टुकड़ों में करें अध्ययन
आजकल पाठ्य-विषयों के सेलेबस व विषयवस्तु का दायरे इतना बढ़ गया है कि यह संभव ही नहीं है कि संपूर्ण अध्ययन सामग्री को एक साथ आत्मसात किया जा सके। इसके लिए अध्ययन सामग्री को टुकड़ों में बांटकर प्रतिदिन पढ़ाई करें। जो अध्याय पढ़ें, उस दिन उसी का ध्यान करें और तब तक ध्यान करें जब तक पढ़ी गई सामग्री किताब से पूरी तरह मेल नहीं खाती। इस तरह धीरे-धीरे संपूर्ण अध्ययन सामग्री को ग्रहण कर लेंगे और मेमोरी प्रॉब्लम से बचेंगे। यानी व्यवस्थित तरीके से पढा़ई करें। कोशिश करें कि जो भी मैटर आप पढ़ें, उसे डायग्राम या संक्षिप्त रूप में इस तरह लिख लें कि उसे देखते ही आपको पूरा मैटर याद आ जाए।
संबंध बनाकर याद करें
कोई भी नई बात हमें तभी याद होती है जब हम उसे अपने दिमाग में पहले से स्टोर किसी बात से जोड़कर देखते हैं। उदाहरण के लिए- चंद्रमा के किसी पर्यायवाची शब्द को याद करने के लिए हम उसे पहले से याद चंद्रमा की परिभाषा के साथ जोड़ देते हैं। इसके बाद जब कभी वह शब्द हमारे सामने आता है तो हमें चंद्रमा की परिभाषा याद आ जाती है और हम जान जाते हैं कि यह शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। मनोविदों के मुताबिक स्टडी करते समय हमें प्वॉइंट बनाकर उसे किसी ऐसी चीज से जोड़ने की कोशिश करना चाहिए जो हमें आसानी से उस प्वॉइंट और मैटर की याद दिला सके। हो सके तो दिमाग में उस प्वॉइंट की एक इमेज बना लें। जब भी जरूरत होगी उस इमेज को याद करते ही पूरा विषय व्यक्ति के जेहन में उभर जाएगा।
सामूहिक चर्चा
मेमोरी डेवलेपमेंट का एक और रास्ता है सामूहिक चर्चा। अध्ययन सामग्री को पढ़ें और अपने सहपाठियों के साथ उस पर चर्चा करें। पढ़ने के बाद विचार-विमर्श करने पर विषयवस्तु याद हो जाती है और कभी नहीं भूलती। इस मामले में नोट्स बनाकर अध्ययन का तरीका भी काफी कारगर होता है। अध्ययन के बाद नोट्स बनाते समय निश्चित ही कुछ चीजें आपको याद नहीं आ सकती हैं, ऐसे में संबंधित पुस्तक की जरूरत पड़ सकती है। पुस्तक का इस्तेमाल करने के बाद फिर से नोट्स बनाएं तो बार-बार इस प्रैक्टिस के क्रम में विषयवस्तु स्थायी रूप से कंठस्थ हो जाती है।
कुछ अलग सोचें
व्यक्ति का दिमाग उसे कुछ अलग हटकर सोचने-करने के लिए प्रेरित करता रहता है। खासकर रचनात्मक कार्यों में तो नयापन बहुत जरूरी है। अगर सृजनात्मक कार्यों में नयापन नहीं है तो ऐसी थिंकिंग, ऐसे कार्य का कोई मोल नहीं। वैसे हमारा दिमाग अजीब चीजों को जल्दी पकड़ता है और सामान्य चीजों के मुकाबले उन्हें लंबे समय तक याद भी रखता है। इसलिए जितना संभव हो सके रचनात्मक अध्ययन शैली अपनाएं।
मेमोरी पर भरोसा जरूरी
हमेशा पॉजिटिव सोचें और ऐसा सोचें कि मेरा दिमाग सबसे बेहतर है और मैं किसी से भी कम नहीं हूं। मैं चीजों को लंबे समय तक याद रख सकता हूं। कौन सा ऐसा काम है जिसे मैं नहीं कर सकता। सफल लोग जो काम करके आगे बढ़ चुके होते हैं उनके पदचिह्नों पर चलकर हम उनकी तरह क्यों नहीं बन सकते आदि-आदि। अगर आप बार-बार ऐसा सोचेंगे तो निश्चित ही मनोबल बढ़ेगा, आत्मविश्वास बढ़ेगा, मानसिक क्षमता बढ़ेगी और मेमोरी का डेवलेपमेंट होगा। नकारात्मक चिंतन से हमेशा बचने की कोशिश करें और दूसरों को भी इससे बचने की सलाह दें।
रामचंद्र मौर्य

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हार की जीत

सुदर्शन की कहानी
माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”

खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”

“कहो, इधर कैसे आ गए?”

“सुलतान की चाह खींच लाई।”

“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”

“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”

“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”

“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”

“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”

“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”

दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”

बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”

आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”

“वहाँ तुम्हारा कौन है?”

“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”

खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”

“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।

बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”

“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”

“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”

खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”

सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।

बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”
सुदर्शन

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

एक साल में कई बार आता है नया साल


नया साल यानी नई खुशियां, नई उमंगें, नई उम्मीदें और जश्न मनाने का मौका। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि एक ंवर्ष में नया साल मनाने का मौका कई बार आता हैं। तो नए साल के मौके पर अपना थोड़ा उत्साह बचाकर रखें। आखिर पूरे साल में जश्न मनाने का यह इकलौता मौका थोड़े ही है।

एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ग्रिगोरियन कैलेंडर पर आधारित है। दुनिया भर में प्रचलित इस कैलेंडर को पोप ग्रेगोरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। वहीं ईस्टर्न आर्थोडाक्स चर्च रोमन कैलेंडर को मानता है। इस कैलेंडर के अनुसार नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। यही वजह है कि आर्थोडाक्स चर्च को मानने वाले देशों रूस, जार्जिया, इजरायल और सर्बिया में नया साल 14 जनवरी को भी मनाया जाता है। इस्लाम के कैलेंडर को हिजरी साल कहते हैं। इसका नववर्ष मोहर्रम माह के पहले दिन होता है।

इस कैलेंडर के मुताबिक नया साल आठ जनवरी को मनाया जाएगा। हिजरी कैलेंडर के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इसमें दिनों का संयोजन चंद्रमा की चाल के अनुसार नहीं होता। लिहाजा इसके महीने हर साल करीब 10 दिन पीछे खिसक जाते हैं। इसी तरह चीन का भी अपना अलग कैलेंडर है। जो चंद्र गणना पर आधारित है, इसके मुताबिक चीनियों का नया साल 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है।

भारत भी कैलेंडरों के मामले में कम समृद्ध नहीं हैं। भारत में फिलहाल विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत प्रचलित हैं। इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। इस दिन गुड़ी पड़वा और उगादी के रूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष मनाया जाता है।

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