गुरुवार, 31 जुलाई 2008

प्रायश्चित-


आज प्रेमचंद की जयंती पर विशेष
प्रेमचंद
दफ्तर में जरा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तरी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाजिरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज देना पड़ता हे। खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड़ के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर पैरगाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर ला कर रख दी। मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग फक हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यान्वित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेन्द्रियॉँ शिथिल हो गयी हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे; पर इतने बहदवास वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड़ के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचन्द्र को वह जगह दी थी और सुबोधचन्द्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचन्द्र, जो उनका सहपाठी था, जिस जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की; पर कभरी सफल न हुए थे। वही सुबोध आज उनका अफसर होकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कि वह फौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार मंत्र चलाए, झूठे आरोज किये, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा का कोई उपाय न सूझता था।
मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध थां दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिनगारी पड़ गयी, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ थां डील-डौल,रंग-रूप, रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं कियां सुबोध बीस वर्ष तक निरन्तर उनके हृदय का कॉँटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में नौकर हो गये, तब उनका चित शांत हुआ। किन्तु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, जब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फॉँस निकल गयी। पर हा हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है! विधि इतना कठोर!
जब जरा चित शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा—अब आप लोग जरा हाथ-पॉँव सँभाल कर रहिएगा। सुबोधचन्द्र वे आदमी नहीं हें, जो भूलो को क्षम कर दें?
एक क्लर्क ने पूछा—क्या बहुत सख्त है।
मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा—वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जाएगा। मै अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, चेतावनी देदी कि जरा हाथ-पॉँव सँभाल कर रहिएगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दम्भी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों हजम कर जाय और डकार तक न ले; पर क्या मजाल कि कोइ्र मातहत एक कौड़ी भी हजम करने जाये। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाये! में तो सोच राह हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर हाजिरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सौदा-सुलुफ लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा। ओर चपरासियों के तो शायद दफ्तर में दर्शन ही न हों।
इस प्रकार सारे दफ्तर को सुबोधचन्द्र की तरफ से भड़का कर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।

इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचन्द्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ्तर के सब कर्मचारियों को हाजिर पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपक कर उनके गले से लिपट गये और बोले—तुम खूब मिले भाई। यहॉँ कैसे आये? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई!
मदारीलाल बोले—यहॉँ जिला-बोर्ड़ के दफ्तर में हेड क्लर्क हूँ। आप तो कुशल से है?
सुबोध—अजी, मेरी न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिश्र और न-जाने कहॉं-कहॉँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही मे न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिलकुल कोरा हूँ; मगर जहॉँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफसर खूश थे। फांस में भी खूब चैन किये। दो साल में कोई पचीस हजार रूपये बना लाया और सब उड़ा दिया। तॉँ से आकर कुछ दिनों को-आपरेशन दफ्तर में मटरगश्त करता रहा। यहॉँ आया तब तुम मिल गये। (क्लर्को को देख कर) ये लोग कौन हैं?
मदारीलाल के हृदय में बछिंया-सी चल रही थीं। दुष्ट पचीस हजार रूपये बसरे में कमा लाया! यहॉँ कलम घिसते-घिसते मर गये और पाँच सौ भी न जमा कर सके। बोले—कर्मचारी हें। सलाम करने आये है।
सबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला—आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा हे कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफसर नहीं, अपना भाई समझिए। आप सब लोग मिल कर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुखर्रू रहूँ। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लँगोटिया यार है।
एक वाकचतुर क्लक्र ने कहा—हम सब हुजूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको असंतुष्ट न करेंगे; लेकिनह आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाय, तो हुजूर उसे क्षमा करेंगे।
सुबोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा सिद्धान्त है और हमेशा से यही सिद्धान्त रहा है। जहॉँ रहा, मतहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आप दोनों ही किसी तीसरे के गुलाम हैं। फिर रोब कैसा और अफसरी कैसी? हॉँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।
जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं—
‘आदमी तो अच्छा मालूम होता है।‘
‘हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जायगा।‘
‘पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।‘
‘ये दिखाने के दॉँत है।‘

सुबोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्वाव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित है, इतना नम्र हे कि जो उससे एक बार मिला हे, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी जबान पर आता ही नहीं। इनकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की ऑंखों मेंगुण ओर भी भयंकर हो जाता है। सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की ऑंखों में खटकते रहते हें। उसके विरूद्ध कोई न कोई गुप्त षडयंत्र रचते ही रहते हें। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुँह की खायी। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भुस में आग लगा कर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानों उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।
एक दिन मदारीलाल सेक्रटरी साहब के कमरे में गए तब कुर्सी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज पर पॉँच हजार के नोट पुलिदों में बँधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलया गया थां आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मॅगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झॉँक कर देखा, सुबोध का कहीं जता नहीं। उनकी नीयत बदल गयी। र्दर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कॉँपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाये; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से निकले ओर चपरासी को पुकार कर बोले—बाबू जी भीतर है? चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला हुआ थां सामने वाले तमोली के दूकान से आकर बोला—जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे है। अभी-अभी तो गये हैं।
मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा—यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।
क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। जरा देर में लौट कर बोला—सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइल मेज पर रख आया हूँ।
मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा—कमरा छोड़ कर कहॉँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठायेंगे।
क्लर्क ने कहा—उनके कमरे में दफ्तवालों के सिवा और जाता ही कौन है?
मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ्तरवाले सब के सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाय, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं।इस वक्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीजिए।
क्लर्क ने टाल कर कहा—चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है।
मदारीलाल ने झुँझला कर कहा—आप से मै जो कहता हूँ, वह कीजिए। कहने लगें, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरसी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहॉँ एक-एक कागज लाखों का है।
यह कह कर मदारीलाल खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बन्द कर दिये। जब चित् शांत हुआ तब नोटों के पुलिंदे जेब से निकाल कर एक आलमारी में कागजों के नीचे छिपा कर रख दियें फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गये।
सुबोधचन्द्र कोई घंटे-भर में लौटे। तब उनके कमरे का द्वार बन्द था। दफ्तर में आकर मुस्कराते हुए बोले—मेरा कमरा किसने बन्द कर दिया है, भाई क्या मेरी बेदखली हो गयी?
मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा—साहब, गुस्ताखी माफ हो, आप जब कभी बाहर जायँ, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा-बन्द कर दिया करें। आपकी मेज पर रूपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक्त किसकी नीयत बदल जाय। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गये हैं, जब दरवाजे बन्द कर दिये।
सुबोधचन्द्र द्वार खोल कर कमरे में गये ओर सिगार पीने लगें मेज पर नोट रखे हुए है, इसके खबर ही न थी।
सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम कियां सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले—तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। दस ही बजे रूपये मँगवा लिये थे। रसीद लिखवा लाये हो न?
ठेकेदार—हुजूर रसीद लिखवा लाया हूँ।
सुबोध—तो अपने रूपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं हे। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायगा।
यह कह कर सुबोध ने मेज पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब कागज उलट-पुलट डाले; मगर नोटो का कहीं पता नहीं। ऐं नोट कहॉँ गये! अभी तो यही मेने रख दिये थे। जा कहॉँ सकते हें। फिर फाइलों को उलटने- पुलटने लगे। दिल में जरा-जरा धड़कन होने लगी। सारी मेज के कागज छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आध घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिये, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गये, पुराने मुलाकाती हैं। उनसे बातें करता जरा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मँगवाये, बस इतनी ही देर र्हु। जब गया हूँ तब पुलिंदे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहॉँ गायब हो गये? मैंने किसी संदूक, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहॉँ? शायद दफ्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठा कर रख दिये हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:!
तुरन्त दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले—आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा कर नहीं रख दिय?
मदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा—क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो खबर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गये हैं, वब दरवाजे बन्द करा दिये। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे है?
सुबोध ऑंखें फैला कर बोले—अरे साहब, पूरे पॉँच हजार के है। अभी-अभी चेक भुनाया है।
मदारीलाल ने सिर पीट कर कहा—पूरे पाँच हजार! हा भगवान! आपने मेज पर खूब देख लिया है?
‘अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।’
‘चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?’
‘आइए, जरा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़े हुए है।’
सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमारियॉँ, संदूक सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देंखे गये; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शबहा न था। सुबोध ने एक लम्बी सॉँस ली और कुर्सी पर बैठ गये। चेहरे का रंग फक हो गया। जर-सा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हे देखत तो समझता कि महीनों से बीमार है।
मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा— गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अंधेर न हुआ था। मुझे यहॉँ काम करते दस साल हो गये, कभी धेले की चीज भी गायब न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रूपये-पैसे के विषय में होशियार रहिएगा; मगर शुदनी थी, ख्याल न रहा। जरूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ा कर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया। वह लाख कसम खाये कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन में इसे मान नहीं सकता। यहॉँ से तो केवल पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे; मगर दरवाजे ही से झॉँक कर चले आये।
सोहनलाल ने सफाई दी—मैंने तो अन्दर कदम ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता हूँ, जो अन्दर कदम रखा भी हो।
मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा—आप व्यर्थ में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता? (सुबोध के कान में)बैंक में कुछ रूपये हों तो निकाल कर ठेकेदार को दे लिये जायँ, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।
सुबोध ने करूण-स्वर में कहा— बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रूपये होंगे, भाईजान! रूपये होते तो क्या चिन्ता थी। समझ लेता, जैसे पचीस हजार उड़ गये, वैसे ही तीस हजार भी उड़ गये। यहॉँ तो कफन को भी कौड़ी नहीं।
उसी रात को सुबोधचन्द्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रूपयों का प्रबन्ध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के परदे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ न थी।

दूसरे दिन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँच कर आवाज दीं मदारी को रात-भर नींद न आयी थी। घबरा कर बाहर आय। चपरासी उन्हें देखते ही बोला—हुजूर! बड़ा गजब हो गया, सिकट्टरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।
मदारीलाल की ऑंखे ऊपर चढ़ गयीं, मुँह फैल गया ओर सारी देह सिहर उठी, मानों उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।
‘छुरी फेर ली?’
‘जी हॉँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपाके बुलाया है।’
‘लाश अभी पड़ी हुई हैं?’
‘जी हॉँ, अभी डाक्टरी होने वाली हैं।’
‘बहुत से लोग जमा हैं?’
‘सब बड़े-बड़ अफसर जमा हैं। हुजूर, लहास की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुष हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोडे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सायानी लड़की हे ब्याहने लायक। बहू जी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लहास के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं हे, जो रूमाल से ऑंखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन आये हुए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था। रूपये की तो कभी परवा ही नहीं थी। दिल दरियाब था!’
मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड़ कर अपने को सँभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा—बहू जी बहुत रो रही थीं?
‘कुछ न पूछिए, हुजूर। पेड़ की पत्तियॉँ झड़ी जाती हैं। ऑंख फूल गर गूलर हो गयी है।’
‘कितने लड़के बतलाये तुमने?’
‘हुजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।’
‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?’
‘जी हॉँ, सब लोग यही कहते हें कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे; पर साइत आपसे सलाइ लेकर करेंगे। सिकट्टरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है।‘
‘क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिख कर छोड़ गये है?’
‘हॉँ, मालूम होता है, छुरी चलाते बखत याद आयी कि शुबहे में दफ्तर के सब लोग पकड़ लिए जायेंगे। बस, कलक्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख दी।’
‘चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें यक क्या मालूम होगा?’
‘हुजूर, अब मैं क्या जानूँ, मुदा इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बड़ी तारीफ लिखी है।‘

मदारीलाल की सॉँस और तेज हो गयी। ऑंखें से ऑंसू की दो बड़ी-बड़ी बूँदे गिर पड़ी। ऑंखें
पोंछतें हुए बोले—वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नन्दू! आठ-दस साल साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तरह रहते थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरी क्या तरीफ लिखी है? मगर तुम्हें क्या मालूम होगा?
‘आप तो चल ही रहे है, देख लीजिएगा।’
‘कफन का इन्ताजाम हो गया है?’
‘नही हुजूर, काह न कि अभी लहास की डाक्टरी होगी। मुदा अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दूसरा आदमी बुलाने आता हो।’
‘हमारे दफ्तर के सब लोग आ गये होंगे?’
‘जी हॉँ; इस मुहल्लेवाले तो सभी थे।’
‘मदारीलाल जब सुबोधचन्द्र के घर पहुँचे, तब उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि सब लोग उनकी तरफ संदेह की ऑंखें से देख रहे हैं। पुलिस इंस्पेक्टर ने तुरन्त उन्हें बुला कर कहा—आप भी अपना बयान लिखा दें और सबके बयान तो लिख चुका हूँ।’
मदारीलाल ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कि पुलिस के अफसर भी दंग रह गये। उन्हें मदारीलाल पर शुबहा होता था, पर इस बयान ने उसका अंकुर भी निकाल डाला।
इसी वक्त सुबोध के दोनों बालक रोते हुए मदारीलाल के पास आये और कहा—चलिए, आपको अम्मॉँ बुलाती हैं। दोनों मदारीलाल से परिचित थे। मदारीलाल यहॉँ तो रोज ही आते थे; पर घर में कभी नहीं गये थे। सुबोध की स्त्री उनसे पर्दा करती थी। यह बुलावा सुन कर उनका दिल धड़क उठा—कही इसका मुझ पर शुबहा न हो। कहीं सुबोध ने मेरे विषय में कोई संदेह न प्रकट किया हो। कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए भीतर गए, तब विधवा का करुण-विलाप सुन कर कलेजा कॉँप उठाा। इन्हें देखते ही उस अबला के ऑंसुओं का कोई दूसरा स्रोत खुल गया और लड़की तो दौड़ कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों लड़को ने भी घेर लिया। मदारीलाल को उन तीनों की ऑंखें में ऐसी अथाह वेदना, ऐसी विदारक याचना भरी हुई मालूम हुई कि वे उनकी ओर देख न सके। उनकी आत्मा अन्हें धिक्कारने लगी। जिन बेचारों को उन पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतनी अत्मीयता, इतना स्नेह था, उन्हीं की गर्दन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीं के हाथों यह भरा-पूरा परिवार धूल में मिल गया! इन असाहायों का अब क्या हाल होगा? लड़की का विवाह करना है; कौन करेगा? बच्चों के लालन-पालन का भार कौन उठाएगा? मदारीलाल को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उनके मुँह से तसल्ली का एक शब्द भी न निकला। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मेरे मुख में कालिख पुती है, मेरा कद कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने जिस वक्त नोट उड़ये थे, उन्हें गुमान भी न था कि उसका यह फल होगा। वे केवल सुबोध को जिच करना चाहते थें उनका सर्वनाश करने की इच्छा न थी।
शोकातुर विधवा ने सिसकते हुए कहा। भैया जी, हम लोगों को वे मझधार में छोड़ गए। अगर मुझे मालूम होता कि मन में यह बात ठान चुके हैं तो अपने पास जो कुछ था; वह सब उनके चरणों पर रख देती। मुझसे तो वे यही कहते रहे कि कोई न कोई उपाय हो जायगा। आप ही के मार्फत वे कोई महाजन ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें कितना भरोसा था कि कह नहीं सकती।
मदारीलाल को ऐसा मालूम हुआ कि कोई उनके हृदय पर नश्तर चला रहा है। उन्हें अपने कंठ में कोई चीज फॅंसी हुई जान पड़ती थी।
रामेश्वरी ने फिर कहा—रात सोये, तब खूब हँस रहे थे। रोज की तरह दूध पिया, बच्चो को प्यार किया, थोड़ीदेर हारमोनियम चाया और तब कुल्ला करके लेटे। कोई ऐसी बात न थी जिससे लेश्मात्र भी संदेह होता। मुझे चिन्तित देखकर बोले—तुम व्यर्थ घबराती हों बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। आखिर वह किस दिन काम आयेगी? मेरे साथ के खेले हुए हैं। इन नगर में उनका सबसे परिचय है। रूपयों का प्रबन्ध आसानी से हो जायगा। फिर न जाने कब मन में यह बात समायी। मैं नसीबों-जली ऐसी सोयी कि रात को मिनकी तक नहीं। क्या जानती थी कि वे अपनी जान पर खेले जाऍंगे?
मदारीलाल को सारा विश्व ऑंखों में तैरता हुआ मालूम हुआ। उन्होंने बहुत जब्त किया; मगर ऑंसुओं के प्रभाव को न रोक सके।
रामेश्वरी ने ऑंखे पोंछ कर फिर कहा—मैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका; लेकिन आप उस दुष्ट का पता जरूर लगाइए, जिसने हमारा सर्वनाश कर लिदया है। यह दफ्तर ही के किसी आदमी का काम है। वे तो देवता थे। मुझसे यही कहते रहे कि मेरा किसी पर संदेह नहीं है, पर है यह किसी दफ्तरवाले का ही काम। आप से केवल इतनी विनती करती हूँ कि उस पापी को बच कर न जाने दीजिएगा। पुलिसताले शायद कुछ रिश्वत लेकर उसे छोड़ दें। आपको देख कर उनका यह हौसला न होगा। अब हमारे सिर पर आपके सिवा कौन है। किससे अपना दु:ख कहें? लाश की यह दुर्गति होनी भी लिखी थी।
मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कि सब कुछ खोल दें। साफ कह दें, मै ही वह दुष्ट, वह अधम, वह पामर हूँ। विधवा के पेरों पर गिर पड़ें और कहें, वही छुरी इस हत्यारे की गर्दन पर फेर दो। पर जबान न खुली; इसी दशा में बैठे-बैठे उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि वे जमीन पर गिर पड़े।
तीसरे पहर लाश की परीक्षा समाप्त हुई। अर्थी जलाशय की ओर चली। सारा दफ्तर, सारे हुक्काम और हजारों आदमी साथ थे। दाह-संस्कार लड़को को करना चाहिए था पर लड़के नाबालिग थे। इसलिए विधवा चलने को तैयार हो रही थी कि मदारीलाल ने जाकर कहा—बहू जी, यह संस्कार मुझे करने दो। तुम क्रिया पर बैठ जाओंगी, तो बच्चों को कौन सँभालेगा। सुबोध मेरे भाई थे। जिंदगी में उनके साथ कुछ सलूक न कर सका, अब जिंदगी के बाद मुझे दोस्ती का कुछ हक अदा कर लेने दो। आखिर मेरा भी तो उन पर कुछ हक था। रामेश्वरी ने रोकर कहा—आपको भगवान ने बड़ा उदार हृदय दिया है भैया जी, नहीं तो मरने पर कौन किसको पूछता है। दफ्तर के ओर लोग जो आधी-आधी रात तक हाथ बॉँधे खड़े रहते थे झूठी बात पूछने न आये कि जरा ढाढ़स होता।
मदारीलाल ने दाह-संस्कार किया। तेरह दिन तक क्रिया पर बैठे रहे। तेरहवें दिन पिंडदान हुआ; ब्रहामणों ने भोजन किया, भिखरियों को अन्न-दान दिया गया, मित्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ मदारीलाल ने अपने खर्च से किया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कि आपने जितना किया उतना ही बहुत है। अब मै आपको और जेरबार नहीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे ज्यादा और कोई क्या अदा करेगा, मगर मदारीलाल ने एक न सुनी। सारे शहर में उनके यश की धूम मच गयीं, मित्र हो तो ऐसा हो।
सोलहवें दिन विधवा ने मदारीलाल से कहा—भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनुग्रह किये हें, उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने हमारी क्या गति होती। कहीं रूख की भी छॉँह तो नहीं थी। अब हमें घर जाने दीजिए। वहॉँ देहात में खर्च भी कम होगा और कुछ खेती बारी का सिलसिला भी कर लूँगी। किसी न किसी तरह विपत्ति के दिन कट ही जायँगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखिएगा।
मदारीलाल ने पूछा—घर पर कितनी जायदाद है?
रामेश्वरी—जायदाद क्या है, एक कच्चा मकान है और दर-बारह बीघे की काश्तकारी है। पक्का मकान बनवाना शुरू किया था; मगर रूपये पूरे न पड़े। अभी अधूरा पड़ा हुआ है। दस-बारह हजार खर्च हो गये और अभी छत पड़ने की नौबत नहीं आयी।
मदारीलाल—कुछ रूपये बैंक में जमा हें, या बस खेती ही का सहारा है?
विधवा—जमा तो एक पाई भी नहीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीं पाते थे। बस, वही खेती का सहारा है।
मदारीलाल—तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायगी कि लगान भी अदा हो जाय ओर तुम लोगो की गुजर-बसर भी हो?
रामेश्वरी—और कर ही क्या सकते हैं, भेया जी! किसी न किसी तरह जिंदगी तो काटश्नी ही है। बच्चे न होते तो मै जहर खा लेती।
मदारीलाल—और अभी बेटी का विवाह भी तो करना है।
विधवा—उसके विवाह की अब कोइ्र चिंता नहीं। किसानों में ऐसे बहुत से मिल जायेंगे, जो बिना कुछ लिये-दिये विवाह कर लेंगे।
मदारीलाल ने एक क्षण सोचकर कहा—अगर में कुछ सलाह दूँ, तो उसे मानेंगी आप?
रामेश्वरी—भैया जी, आपकी सलाह न मानूँगी तो किसकी सलाह मानूँगी और दूसरा है ही कौन?
मदारीलाल—तो आप उपने घर जाने के बदले मेरे घर चलिए। जैसे मेरे बाल-बच्चे रहेंगें, वैसे ही आप के भी रहेंगे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का विवाह भी किसी अच्छे कुल में हो जायगा।
विधवा की ऑंखे सजल हो गयीं। बोली—मगर भैया जी, सोचिए.....मदारीलाल ने बात काट कर कहा—मैं कुछ न सोचूँगा और न कोई उज्र सुनुँगा। क्या दो भाइयों के परिवार एक साथ नहीं रहते? सुबोध को मै अपना भाई समझता था और हमेशा समझूँगा।
विधवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और आज दस साल से उनका पालन कर रहे है। दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते है और कन्या का एक प्रतिष्ठित कुल में विवाह हो गया हे। मदारीलाल और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके इशारों पर चलते हैं। मदारीलाल सेवा से अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं।
प्रेमचंद

बुधवार, 30 जुलाई 2008

जी-8 सम्मेलन : करोड़ों का खर्च, नतीजा सिफर?


नीरज नैयर
बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु परिवहन, और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आपोजिट जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की. तीन दिनों तक चले विचार मंथन में 60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपए में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई, जहां से शुरू हुई थी. विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले. हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा. क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे. ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे अफ्रीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला होता. जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही रहा है. जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं. पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी. हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के इस अड़ियल रवैये ने की जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते वह रजामंद नहीं होंगे ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया था. एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है. जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी. अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं. वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं. ग्रीन हाउस गैसे पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है. वैज्ञानिक कई बार आगह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे. जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया. महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं. जून 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था. इस समय ये 150 के आसपास मंडरा रहा है. दस करोड़ में अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है. कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं. खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े है. पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन दिनों 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है. पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे. इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया.अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा.
क्या है जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है. ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं.
1998 में जुड़ा रूस-इसके सदस्यों में अमेरिका,ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,जापान,इटली और कनाडा हैं. जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया.
जी-5 आउटरीच समूह-दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील,चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है. इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है.
क्या है ग्लोबल वामिर्ग: कारण और उपाय-वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वामिर्ग के लिए दोषी हैं. ग्लोबल वामिर्ग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. विज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है.वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है. जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.
तो क्या कारण हैं ?-वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है.
क्या होगा असर?-इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे.
रोकने के उपाय- ग्लोबल वामिर्ग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं. औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.
नीरज नैयर

मंगलवार, 29 जुलाई 2008

आत्महत्या का प्रयास अपराध माना जाए?


डॉ. महेश परिमल
ऐसा कौन-सा अपराध है, जिसमें सफल होने पर कुछ नहीं होता, किंतु विफल होने पर सजा होती है? आपने सही सोचा, जी हाँ वह अपराध है 'आत्महत्या'। क्या आत्महत्या को अपराध माना जाए? इसमें विफल होने वाले व्यक्ति के लिए जीवन एक अभिशाप बनकर रह जाता है। आप ही सोचें, एक गरीब व्यक्ति, जिसके पास जीने का कोई सहारा नहीं है, बीमार है, भोजन के लिए कहीं कुछ भी नहीं है, भीख माँगने पर उसका स्वाभिमान आड़े आता है, ऐसी दशा में वह आवेश में आकर आत्महत्या करना चाहे, तो क्या गलत है? इस पर वह यदि किसी कारण से अपने प्रयास में विफल रहता है, तो वह अपराधी कैसे हो गया? इसके बाद उसका जीवन जेल में कटता है। वहाँ जाकर फिर वही घिसटती जिंदगी! कहाँ तो सचमुच का अपराध करने वाले अपराधी समाज में ही बेखौफ घूमते हैं और कहाँ अपने जीवन को बरबाद करने के चक्कर में विफल होने वाला साधारण व्यक्ति जेल की हवा खा रहा है। क्या यह न्यायसंगत है?
अपने इस तर्क के माध्यम से मैं आत्महत्या के लिए लोगों को विवश नहीं करना चाहता। ऐसा अब पूरे देश में सोचा जाने लगा है। आत्महत्या एक अपराध है, जब यह कानून बनाया जा रहा था, तब परिस्थितियाँ दूसरी थीं। आज हालात पूरी तरह से बदल गए हैं। जिस तरह से 50-75 साल पहले टीबी याने क्षय रोग को राजरोग कहा जाता था, उसके बाद कैंसर की बारी आई और आज एड्स का बोलबाला है। इस तरह से परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ उन दशाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता हो जाती है, जो उस समय नहीं थी। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने कई उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। अभी-अभी ही माँ-संतान को जोड़ने वाली गर्भनाल में रहने वाले अरबों जनकोष (स्टेम सेल) से हर तरह के रोगों का उपचार करने की जानकारी प्राप्त हुई है। फिर भी मानव मन भटकता रहता है। वह कब क्या करेगा, यह कहा नहीं जा सकता। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। 1995-96 में इंडियन पैनल कोड 309 की धारा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे बहाल रखा। वैसे तो कानूनविदो की 42 वीं वार्ष्ािक रिपोर्ट में आत्महत्या को कानूनन रूप देने की सिफारिश को स्वीकार कर सरकार ने रायसभा में भेजा गया था, पर लोकसभा में बहुमत न मिलने के कारण यह आवेदन काम नहीं आया। इस दलील को लेकर यह कहा जा रहा था कि इससे आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं। यह दलील झूठ भी साबित हो सकती है, क्योंकि श्रीलंका में चार वर्ष पहले आत्महत्या को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया, तब से वहाँ आत्महत्या के मामलों में कमी आई है।

आत्महत्या के मामले में हमारे साधु-संत दोहरी बातें करते हैं। एक तरफ उनका मानना है कि आत्महत्या करने से हमें अपने जीवन में जो भोगना होता है, वह नहीं भोग पाते, इसलिए हमें फिर जन्म लेना पड़ता है। दूसरी तरफ वे कहते हैं कि मानव जीवन दुर्लभ है, 84 लाख योनियों से गुजरने के बाद मानव जीवन प्राप्त होता है, इसे व्यर्थ न किया जाए। इन दोनों विचारों में सच क्या है? वैसे देखा जाए, तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्ष्ाि, श्री रंग अवधूत आदि महानुभाव कैंसर की पीड़ा को हँसते-हँसते झेला। साधु-संतों और साधारण मानव की सहनशक्ति में अंतर होता है, इसलिए साधारण मनुष्य पीड़ाएँ नहीं झेल पाता। जस्टिज लक्ष्मण का कहना है कि असाध्य बीमारी या असाध्य पीड़ा से त्रस्त मनुष्य को जीने के लिए बाध्य करना अमानवीय और अनैतिक है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस तरह से व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता है, उसी तरह अपनी जीवन लीला समाप्त करने का अधिकार भी व्यक्ति के पास होना चाहिए। कई देशों में अपने यहाँ मर्सिकिलिंग या यूथेनेसिया को कानूनी रूप दिया गया है। जो व्यक्ति पूरी तरह से किसी असाध्य रोग से पीड़ित है और उसके बचने की कोई संभावना नहीं है, उसे जीवित रखकर इंसान आखिर क्या हासिल करना चाहता है?
कानून विद् कहते हैं कि समाज के सभी वर्गों को इस दिशा में आगे बढ़कर आत्महत्या को अपराध मानने के खिलाफ आंदोलन करना होगा,तभी बात बन सकती है। मौत की सजा को अमानवीय बताने वाले, उसे रद्द करने की माँग करने वाले मसिकिलिंग और यूथेनेसिया के मामले में खामोश क्यों रह जाते हैं। कोई व्यक्ति यदि घृणित अपराध करता है और उसे मौत की सजा होती है, तो लोग उसे मानवता का ध्वंस मानते हैं, ऐसे लोग असाध्य बीमारी से ग्रस्त लाचार और विवश व्यक्ति के प्रति सद्भाव क्यों नहीं रखते।
यह सच है कि आत्महत्या का विचार त्यागकर व्यक्ति नई ऊर्जा के साथ अपनी मंजिल को प्राप्त कर ले, ऐसे कम ही मिलेंगे। हर बार आत्महत्या का कारण वाजिब हो, यह भी जरूरी नहीं। सही समय पर व्यक्ति को यदि सही मार्गदर्शन मिल जाए, तो व्यक्ति आत्महत्या का विचार त्याग भी सकता है। यदि विचार आ जाए और इसके लिए वह प्रयास भी करे, उसमें विफल हो जाए, तो उसे अपराधी माना जाए? इस संबंध में कानून विदों एवं न्यायाधीशों के विचारों को गंभीरता से लेना होगा।
णरा सोचें, आत्महत्या का विचार करने वाला व्यक्ति किन हालात से गुजर रहा है? आत्महत्या करने के लिए वह कैसे-कैसे तरीके अपनाता है। कभी कहीं से कूदकर, कभी जहर खाकर, कभी शरीर की नस काटकर, कभी गले में फाँसी लगाकर, आखिर यह सब करते हुए उसे पीड़ा की एक लम्बी सुरंग तो पार करनी ही होती है। जब ये प्रयास विफल हो जाते हैं, तो क्या वह अपराधी हो गया? दूसरी ओर जिसने इत्मीनान के साथ किसी की हत्या की हो, उसके बाद उस तनाव को दूर करने के लिए शराब की शरण में जाकर अपने को हल्का कर रहा हो, वह भी अपराधी? आखिर इन दोनों के अपराध में जमीन-आसमान का अंतर तो है ही। एक ने अपना जीवन होम करने की सोची और दूसरे ने किसी और का जीवन बड़े आराम से खत्म कर दिया। दोनों की प्रवृत्तियों में अंतर है। फिर हत्या करने वाला तो आराम से कानून की नजर से छिप भी जाता है,पर आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला समाज में घोषित हो जाता है। पीड़ादायक स्थिति को तो अधिक करीब से आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला झेलता है, फिर वह अपराधी कैसे हुआ? मेरा यहाँ इतना ही कहना है कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मानसिकता को समझते हुए उस पर रहम किया जाए। उसे अपराधी घोषित करने के पहले उसके अपराध को गंभीरता से लें, आखिर उसने यह कदम क्यों उठाया? इन प्रश्नों का जवाब ढ़ूँढा जाए, तो आत्महत्या की कोशिश में नाकाम होना एक अपराध नहीं होगा, बल्कि अपने जीवन के साथ खिलवाड़ करना माना जाएगा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 28 जुलाई 2008

वेतन आयोग की वेतन विसंगतियां

नीरज नैयर
वेतन आयोग ने मानो विवादों का पिटारा खोल दिया है. जब से आयोग ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं उसके खिलाफ अवाजें उठने लगी हैं. चुनावी बजट की सौगातों के बीच वेतन आयोग की सिफारिशों पर टकटकी लगाए बैठे अधिकतर सरकारी मुलाजिम अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. हालांकि हर तबके के लिए वेतनमान में वृद्धि की बात कही जा रही है मगर आयोग का सारा ध्यान क्रीमीलेयर की तरफ ही सिमटा दिखाई दे रहा है. छठा वेतन आयोग वो तारतम्य बनाकर नहीं चल पाया जो पूर्व के वेतन आयोग के वक्त नजर आया था. मौजूदा आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम वेतन अनुपात 1:12 से अधिक है, जो कि पिछले वेतन आयोग की सिफारिशों से कहीं ज्यादा है. आयोग की सिफारिशों में जहां अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतनमान में भारी असमानता व विसंगतियां हैं, वहीं भत्तों के आवंटन में भी भेदभाव किया गया है. सबसे हैरत की बात तो यह है कि आयोग ने जहां एक ओर उच्च श्रेणी के अधिकारियों के वेतन में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की है, वहीं निम्न श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन और भत्तावृद्धि 23 से 50 प्रतिशत के आस-पास ही रखी है. आयोग ने शीर्षस्थ कैबिनेट सचिव के वेतन में करीब 35500 रुपए की वृद्धि की बात कही है, जबकि निम्न श्रेणी के क्लर्क के वेतनमान में मामूली बढ़ोत्तरी की सिफारिश की गई है. निम्न स्तर के मुकाबले उच्च श्रेणी में 24 गुना वृद्धि समता के सिद्धांत पर कहीं से भी खरी नहीं उतरती. पूर्ववर्ती वेतन आयोगों ने अपनी सिफारिशों में प्रचलित वेतन, भत्ता महंगाई भत्ता और अंतरिम राहत में बढ़ोत्तरी में सभी श्रेणियों के लिये 20-40 प्रतिशत एक सरीखी वृध्दि देने को कहा था पर छठे वेतन आयोग ने इससे उलट ही काम किया है. मौजूदा आयोग की सिफारिश में जैसे-जैसे श्रेणियां और वेतन भत्ते बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वेतन भत्तों आदि में बढ़ोत्तरी होती है. पांचवे वेतन आयोग में श्रेणी-1 के दायरे में आने वाले वरिष्ठ स्तर के अधिकारियों को बेसिक वेतनमान 14300 से 26000 निर्धारित था जिसे बढ़ाकर अब 48200 से 67000 करने की सिफारिश की गई है. यानी करीब 34000-41000 का भारी भरकम इजाफा वेतनमान में किया गया है. वहीं श्रेणी-1 के मध्य स्तर के अधिकारियों का वेतनमान 8000-20900 के बजाए 21000-39100 करने की बात कही गई है. मतलब 13000-18200 का इजाफा जबकि श्रेणी-॥ व ॥। में करीब 8000-21000 और श्रेणी IV में मामूली बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव है. इसके साथ ही आयोग ने करीब 12 लाख ग्रुप डी कर्मचारियों के पदों को खत्म करने की सिफारिश की है. इनमें से एक लाख पद तो फिलहाल रिक्त पड़े हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रुप डी पदों पर जो कर्मचारी अभी कार्यरत् हैं, उनमें से न्यूनतम हाईस्कूल योग्यता रखने वाले कर्मचारियों को ग्रुप सी में प्रमोट कर दिया जाए और बाकी ग्रुप डी के पदों पर नई भर्तियां न की जाए. नई भर्तियों के बजाए मौजूदा पदों को ही समाप्त करने की सिफारिश से पता चलता है कि आयोग ने रोजगार बढ़ाने के बजाए बेरोजगार बढ़ाने वाली नीतियों पर जोर दिया है. आयोग की रिपोर्ट आने से पहले यह मानकर चला जा रहा था कि छठे वेतन आयोग में खासतौर से सेना और आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा संभाल रहे सुरक्षा बलों का खास ध्यान रखा जायेगा. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. अधिकारियों की कमी से जूझ रही सेना ने वेतनमान में 100-200 प्रतिशत वृध्दि की मांग की थी. ताकि निजी क्षेत्र की चकाचौंध अफसरों को प्रभावित न कर पाए, मगर आयोग ने सभी मांगों को दरकिनार करते हुए सेना के हाथ में मामूली बढ़ोत्तरी का लॉलीपॉप थमा दिया है. सेना के जवान महसूस कर रहे हैं कि नागरिक सेवाओं के मुकाबले उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया है. जवानों के वेतन में महज 1000 रुपए की मामूली बढ़ोत्तरी की गई है, वहीं लेफ्टिनेंट कर्नल और कर्नल के वेतनमान में भी मुश्किल से चार-पांच हजार का इजाफा किया गया है. जबकि नागरिक सेवा में उच्च श्रेणियों के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कई गुना वृध्दि की सिफारिश की गई है. ऐसे ही आयोग की सिफारिशों ने आखिल भारतीय सेवाओं में भी असमानता उत्पन्न कर दी है. आयोग ने यहां भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों (आईएएस) को खुश करने के लिये दोनों हाथ से लुटाने का प्रयास किया है. वहीं भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा(आईएफएस) को नजरअंदाज कर दिया है. छठे वेतन आयोग द्वारा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के लिए सीनियर स्केल, जूनियर स्केल और सिलेक्शन ग्रेड वेतनमान 6100, 6600 और 7600 रुपए रखा गया है. जबकि भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के लिये क्रमश: 6500, 7500 तथा 8300 की सिफारिश की गई है. इसके पीछे आयोग का तर्क है कि आईएएस अफसरों की प्रारंभिक तैनाती सामान्यता छोटी जगहों पर होती है. उन्हें बार-बार स्थानांतरण का सामना करना पड़ता है और सेवा के शुरुआती दिनों में जिस दबाव का सामना करना पड़ता है, वह औरों से कहीं ज्यादा है. यहां यह साफ करना जरूरी है कि सेवा के प्रारंभ काल से लेकर अंत तक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आईएएस अफसरों की अपेक्षा कहीं अधिक तनावपूर्ण, जोखिमपूर्ण और दबावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं. इस बात को खुद सुप्रीम कोर्ट और सोली सोराबजी समिति स्वीकार कर चुकीहै. ऐसे में आयोग का यह तर्क हास्यास्पद ही लगता है. इसके साथ ही राजस्व सेवा एवं कस्टम व केंद्रीय उत्पाद शुल्क के अधिकारियों के लिये 80000 रुपए वेतनमान तय किया गया है, वहीं प्रदेशों की कानून व्यवस्था की कमान संभाल रहे पुलिस महानिदेशकों के वेतन में असमानता रखी गई है. वेतन आयोग ने सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, भारत तिब्बत सीमा बल, औद्योगिक सुरक्षा बल और सशक्त सीमा बल के पुलिस महानिदेशकों का वेतन रु. 80000 निर्धारित किया है जबकि प्रदेश स्तर पर इसमें विभिन्नता रखी गई है जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है. राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशक के वेतन में असमानता की खाई भी छठे वेतन आयोग ने और चौड़ी कर दी है. आयोग की सिफारिश में कास्टेबल स्तर के पुलिस कर्मी के वेतनमान में महज 100-500 रुपये तक की वृध्दि का अनुमान है. जबकि यह सभी जानते हैं कि पुलिस महकमे में निचले स्तर के पुलिस कर्मियों का जनता से सीधा संवाद होता है. ऐसे में मामूली तनख्वाह के भरोसे परिवार की जिम्मेदारियों के साथ वह कब तक कर्तव्यनिष्ठता की राह पर चल पाएगा. आयोग को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि ऊपर से लेकर नीचे तक वेतनमान में वृध्दि का तालमेल इस तरह से बैठाया जाए कि किसी को यह न लगे कि हमारे साथ अन्याय हुआ है. पुलिस महकमे मेें सुधार की बातें हमेशा से उठती आई हैं, मगर जब तक पुलिस कर्मियों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते, ऐसी बातें बेमानी हैं. केंद्रीय कर्मचारियों में (रेलवे छोड़कर) पुलिस का हिस्सा करीब 41 प्रतिशत है जबकि इस पर महज 36 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है. हर साल करीब 1000 जवान डयूटी के दौरान शहीद हो जाते हैं, उनका घर परिवार हर वक्त दहशत के साए में जीता रहता है. बावजूद इसके आयोग ने इनका कोई ध्यान नहीं रखा है. ऐसे ही भारतीय वन सेवा के अधिकारी भी वेतन आयोग की विसंगतियों का सामना कर रहे हैं. उनका आरोप है कि आयोग ने उनका पे स्केल घटा दिया है. अब तक आईएएस और आईएफएस के वेतनमान में सिर्फ 2-3 हजार रु. का अंतर था लेकिन नये पे स्केल लागू होने के बाद यह 15-18 हजार हो जाएगा. दरअसल तकरीबन 18-20 साल की सेवा पूरी करने के बाद एक आईएएस अफसर वन संरक्षक बनता है. इस पद का सुपर टाइम स्केल अभी 16400 से शुरू होता है लेकिन आयोग ने इस स्केल को घटाकर 15600 करने की अनुशंसा की है. जबकि 14 साल की सर्विस पूरी करने के बाद एक आईएएफ अधिकारी का सुपर टाइम स्केल अभी 18400 है जिसे बढ़ाकर 39200 करने की सिफारिश की गई है. यानी दोनों सेवाओं के अफसरों के वेतनमान में दोगुने का अंतर किया गया है. इसी तरह चीफ कंजर्वेटर ऑफ फारेस्ट (पीसीसीएफ) का मौजूदा स्केल 24040-26000 है. इस पद पर आईएफएस अफसर अपने कार्यकाल के अंतिम 4-5 सालों में पहुंच पाते हैं. 2-3 साल की सेवा के बाद अफसर 26000 रुपये के स्केल तक पहुंच जाते हैं जो अभी भारत सरकार के सचिव के बराबर हैं. लेकिन नई सिफारिशों में इसे बढ़ाकर 39200-67000 रखा गया है. तथा 13000 के पे ग्रेड का प्रावधान किया गया है. परन्तु 13000 के पे ग्रेड को पाने में अफसरों को कम से कम 12 साल इस पद पर कार्य करना होगा. जबकि जो अफसर इस पद पर पहुंच पाते है उनका कार्यकाल महज 4-5 साल का ही बचता है. इसका परिणाम यह होगा कि इस सेवा के अफसर सचिवों की भांति 80000 वेतनमान अब नहीं पा पाएंगे. कुल मिलाकर कहा जाए तो छठा वेतन आयोग हर पक्ष को संतुष्ट करने में नाकाम रहा है. वैसे तो हर पक्ष को संतुष्ट करना मुमकिन नहीं है. पर जब इतनी बड़ी तादाद में आयोग की सिफारिशों की मुखालफत हो रही है तो इन्हें अमलीजामा पहनाकर विवादों की आग में घी डालना उचित नहीं होगा.
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इतिहास
आजादी के बाद से अब तक कुल 6 वेतन आयोग गठित किए गये हैं.
आयोग गठन वर्ष रिपोर्ट सौंपी गई वित्तीय भार
पहला मई 1946 मई 1947 उपलब्ध नहीं
दूसरा अगस्त 1957 अगस्त 1959 39.62
तीसरा अप्रैल 1970 मई 1973 144.60
चौथा जून 1983 मई 1987 1282
पांचवां अप्रैल 1994 जनवरी 1994 17000
छठा जुलाई 2006 मार्च 2008 20,000
(करोड़ )
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क्या होता है वेतन आयोग
भारत सरकार हर 10 साल बाद एक वेतन आयोग का गठन करती है. जिसका काम केंद्रीय कर्मचारियों के वेतनमान को वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से निर्धारित करना होता है. आयोग में अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य सदस्य भी होते हैं जिन्हें एक समयावधि में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी होती है. उसके बाद सरकार को अंतिम निर्णय लेना होता है कि किन सिफारिशों को लागू किया जाए और किसे नहीं.
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छठा वेतन आयोग
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2006 में जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में छठे वेतन आयोग का गठन किया था, जिसने 24 मार्च 2008 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस आयोग में जस्टिस श्रीकृष्ण के अलावा रविंद्र ढोलकिया, जे.एस. माथुर और सुषमा नाथ शामिल थीं.
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राज्यों की टूटेगी कमर
छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से राज्यों की वित्तीय दशा और खराब होने की संभावना है. जो राज्य पहले से ही बीमारू की श्रेणी में शामिल हैं उनके लिए तो आयोग की सिफारिशें किसी विपदा से कम नहीं हैं. अकेले कर्मचारियों की पेंशन वृद्धि से ही तकरीबन 1 लाख 90 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त वित्तीय बोझ उठाना होगा. मध्य प्रदेश की ही अगर बात करें तो उसके ऊपर 45 हजार करोड़ का कर्जा है. ऐसे में उसके लिए अतिरिक्त वेतन वृद्धि बहुत महंगी साबित होगी. आयोग ने केंद्रीय कर्मचारियों के पेंशन में 40 प्रतिशत इजाफे की सिफारिश की है. बढ़ोत्ती का यह प्रस्ताव 80 साल या उससे अधिक की उम्र के पेंशन पा रहे पूर्र्र्व कर्मचारियों के प्रस्तावित स्पेशल बढ़ोत्तरी से अलग है. हालांकि तमिलनाडू और हरियाणा ने नई सिफारिशों को तत्काल अपने राज्यों में लागू किए जाने पर सहमति जताई है मगर देश के बाकी राज्यों की प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं दिखाई देती.
नीरज नैयर
9893121591

शनिवार, 26 जुलाई 2008

अमेरिकी छात्रों को मिली हिंदी की किताब


ह्यूस्टन । हिंदी के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भाषा के रूप में उभरने को देखते हुए टेक्सास के स्कूलों ने इसकी शिक्षा में बढत ले ली है। अमेरिका के टेक्सास प्रांत ने अपने उच्च विद्यालय के छात्रों के लिए पहली बार हिंदी की पाठ्यपुस्तक पेश की है।
480 पन्नों की पुस्तक नमस्ते जी को तैयार करने में भारतीय मूल के शिक्षक अरुण प्रकाश को करीब आठ साल लगे। प्रकाश 1980 के दशक में शिक्षा और व्यापार के सिलसिले में टेक्सास प्रांत के ह्यूस्टन आए। जब 1989 में उन्होंने स्कूलों में हिंदी पढाना शुरू किया तो कक्षा में सिर्फ आठ छात्र थे। इनमें से सात भारतीय मूल के थे।
प्रकाश ने बताया कि शुरुआत में उन्हें सिर्फ 15 डालर प्रतिदिन का मेहनताना दिया गया। इस राशि से सिर्फ गैस खरीदा जा सकता था। प्रकाश ने शिक्षण के लिए औपचारिक तौर पर प्रशिक्षण नहीं लिया था और न ही उनके पास वर्कशीट था। इसी ने उन्हें पुस्तक लेखन की प्रेरणा दी।
इस नौसिखिए शिक्षक ने खुद पाठ तैयार किए और उन्हें हाथ से लिखा। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि उन्होंने हिंदी फोंट से युक्त कंप्यूटर हासिल नहीं कर लिया।
वर्र्षो तक प्रकाश ने पाठ्य सामग्री की फोटोकापी कराकर उसे पुस्तक का रूप देकर छात्रों में बांटा। लेकिन आने वाले वर्ष में पहली दफा हिंदी के छात्र प्रकाश द्वारा लिखित हार्डकवर पाठ्यपुस्तक हासिल करेंगे।
दशकों से अमेरिका में उच्च विद्यालय के छात्र लैटिन, स्पैनिश, फ्रेंच और जर्मन की कक्षाएं लेने में सक्षम हैं। लेकिन जिस तरह से भारत बडी आर्थिक ताकत के रूप में उभरा है उसको देखते हुए लोगों में उसकी मुख्य भाषा के प्रति भी दिलचस्पी बढ रही है। टेक्सास अमेरिका का चौथा प्रांत है जहां सबसे अधिक संख्या में हिंदी भाषी लोग रहते हैं। वह हिंदी के क्षेत्र में अग्रणी बनने को तैयार है।
आस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी आफ टेक्सास में हिंदी, उर्दू, फ्लैगशिप कार्यक्रम के निदेशक हर्मन वैन ओलफेन ने कहा कि हिंदी सीखने के प्रति दिलचस्पी बढ रही है क्योंकि सरकार ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भाषा के लिए और अधिक वक्ताओं की आवश्यकता महसूस की है। विश्वविद्यालय को पिछले साल स्नातक छात्रों के लिए भारत और पाकिस्तान की मुख्य भाषा का पहला राष्ट्रीय प्रायोजित संस्थान शुरू करने के लिए सात लाख डालर का अनुदान मिला।
यूनिवर्सिटी आफ टेक्सास के हिंदी उर्दू फ्लैगशिप कार्यक्रम की समन्वयक डार्लिन बास्किंग ने कहा कि हिंदी और उर्दू को उच्च विद्यालय स्तर पर लाने की इच्छा बढ रही है लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है।
पाठ्यपुस्तक उच्च विद्यालय स्तर की हिंदी के पहले दो वर्र्षो को कवर करती है और यह एक साल के कालेज स्तर की हिंदी के समतुल्य है। इसमें रंग बिरंगी तस्वीरें और उदाहरण तथा वर्कशाप की सीडियां हैं। प्रकाश को अमेरिकन काउंसिल आन टीचिंग आफ फारेन लैंग्वेजेज ने मास्टर शिक्षक के रूप में मान्यता दी है और उन्होंने हिंदी के 20 संभावित शिक्षकों को इस साल प्रशिक्षण दिया।
डिस्कवर एशिया प्रोफेशनल डेवलपमेंट वर्कशाप नौ से 20 जून तक चला और स्टारटाक अनुदान से वित्तपोषित हुआ। यह राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश की नेशनल सिक्योरिटी लैंग्वेज पहल का हिस्सा है।
(याहू से साभार)

गाजर की महिमा


भारती परिमल
रामपुर गाँव में एक बूढ़े काका रहते थे। उन्होंने अपने खेत में गाजर बोया। काका रोज सुबह-शाम गाजर को पानी पिलाते और यूं गाते-
गाजर-गाजर बड़ा हो
बड़ा हो और मीठा हो,
गाजर-गाजर बड़ा हो।
कुछ समय में ही गीत और पानी नें अपना कमाल दिखाया और छोटा सा गाजर खूब बड़ा हो गया। अब काका को लगा कि इसे निकाला जा सकता है। एक दिन सुबह-सुबह काका खेत में आए और गाजर को खींचकर निकालने का प्रयास किया। मगर यह क्या? एक हाथ से गाजर को निकाल न पाए, तो उन्होंने दूसरे हाथ की मदद ली। दोनों हाथों से पूरा जोर लगाकर खींचा, किंतु गाजर मिट्टी से बाहर न आया।
आखिर काका ने काकी को आवाज लगाई- गाजर खींचने में मेरी मदद करो। मैं गाजर को पकडूँ और तुम मुझे पकड़ो। काकी ने काका की बात मानते हुए खेत की ओर कदम बढ़ाया।
काकी, काका को खींचे,
और काका गाजर को खींचे।
काका-काकी दोनों ने मिलकर जोर लगाया, पर गाजर को न खींच पाए। थककर काकी ने अपनी बिटिया को आवाज लगाई- ओ मेरी लंबी चोटीवाली बिटिया यहाँ आओ। गाजर खींचने में हमारी मदद करो। आवाज सुनकर बिटिया दौड़ी आई-

लंबी चोटीवाली बिटिया काकी को खींचे,
काकी, काका को खींचे,
और काका गाजर को खींचे।
तीनों ने मिलकर खूब ताकत लगाई, पर गाजर को निकाल नहीं पाए। फिर लंबी चोटीवाली बिटिया ने अपने कुत्ते को आवाज लगाई- ओ कालिया, यहाँ आ। गाजर खींचने में हमारी मदद कर। पूँछ हिलाता कालिया आया-
कालिया, बेटी की लंबी चोटी खींचे,
बेटी, काकी को खींचे,
काकी, काका को खींचे,
और काका गाजर को खींचे।
पहले तो तीन थे। अब तो चार हो गए। चारों ने मिलकर खूब ताकत लगाई, पर गाजर को बाहर न निकाल पाए। कालिया तो परेशान हो गया। आखिर उसने आवाज लगाई- पूसी, ओ पूसी यहाँ आओ और हमारी गाजर खींचने में मदद करो। कालिया की आवाज सुनकर पूसी बिल्ली दौड़ती चली आई, अब-
पूसी, कालिया की काली पूँछ खींचे
कालिया, बेटी की लंबी चोटी खींचे,
बेटी, काकी को खींचे,
काकी, काका को खींचे,
और काका गाजर को खींचे।
पाँचों ने मिलकर खूब जोर लगाया, पर गाजर को खींच न पाए। अब क्या किया जाए? परेशान और थकी पूसी ने चीं-चीं चूहे को आवाज लगाई- ओ चीं-चीं, बिल से बाहर निकल और यहाँ आ। गाजर खींचने में हमारी मदद कर। पूसी की आवाज सुनकर चीं-चीं चूहा बाहर आया और पूसी के पास दौड़ा।
चीं-चीं, पूसी की भूरी पूँछ खींचे,
पूसी, कालिया की काली पूँछ खींचे,
कालिया, बेटी की लंबी चोटी खींचे,
बेटी, काकी को खींचे,
काकी, काका को खींचे,
और काका गाजर को खींचे।
छह लोगोें ने मिलकर पूरा जोर लगाया और इस बार सभी की मेहनत रंग लाई, इसलिए एकदम से गाजर जमीन से बाहर आ गया। एकाएक गाजर के बाहर आने से सभी गिर पड़े।
चीं-चीं गिरा- चूँ, चूँ, चूँ।
पूसी गिरी- म्याउँ, म्याउँ, म्याउँ।
कालिया गिरा- हाऊ, हाऊ, हाऊ।
बेटी िगरी- माँ, माँ, माँ।
काकी गिरी- ओहो, ओहो, ओहो।
काका गिरे- हा, हा, हा।
आखिर में हाथ पोंछते हुए सभी उठ कर खड़े हो गए। बड़े से गाजर को देखकर सभी खुश हो गए और उसके आसपास गोल घेरा बनाकर नाचने-कूदने लगे। फिर काका ने गाजर को दो-तीन बार साफ पानी से धोया। कालिया साफ कपड़ा ले आया। बिटिया ने गाजर को पोंछा और अंत में काकी ने उसे छिलकर, किसकर उसका हलुवा बनाया। काका-काकी, बेटी, कालिया, पूसी और चीं-चीं सब ने मिलकर गरम-गरम हलुवा खाया।
भारती परिमल

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

आतंकवादियों के लिए काल है, यह जाँबाज महिला


डॉ. महेश परिमल
अपराधी का सबसे गहरा संबंध अपराध से ही होता है। अपराध करने के लिए भी साहस चाहिए, जो जितना अधिक साहस इकट्ठा कर सकता है, वह उतना ही बड़ा अपराधी। अपराधी से कई लोग डरते हैं, विशेषकर शरीफ लोग। कई अपराधी बेखौफ होते हैं, तो कई मदमस्त। दुनिया में कुछ भी हो जाए, वे अपनी आपराधिक प्रवृत्ति से बाज नहीं आते। जिन अपराधियों के हाथों में हथियार होते हैं, वे और भी खूंखार होते हैं। निहत्था अपराधी भी यदि अपनी पर आ जाए, तो वह बहुत-कुछ कर सकता है। कुल मिलाकर अपराधी हर स्थिति में अपराधी ही होता है, केवल अपराध करने के पहले थोड़ी देर के लिए ही सही, पर शरीफ बनने का नाटक अवश्य करता है। अपराधी का बड़ा स्वरूप आतंकवादी है। अपराधी का इलाका होता है, पर आतंकवादी के सामने पूरा देश होता है। यही आतंकवादी जब किसी महिला के सामने हो और थर-थर काँपने लगे, तो उस महिला को क्या कहेंगे आप? जी हाँ हमारे देश में एक महिला ऐसी भी हैं, जिसके सामने अपराधी अपना गुनाह कुबूल करते हैं। इस महिला पर अब तक कई हमले हो चुके हैं, फिर भी वह आज भी गर्व से अपना काम मुस्तैदी से कर रही हैं।
यह महिला न तो पुलिस अधिकारी है, न हिप्रोटिस और न ही मनोचिकित्सक है। आतंकवादियों ने इस महिला का मार डालने की कसम खा रखी है। इस संबंध में जब उस महिला से पूछा गया, तो वह कहती हैं '' इट्स ए प्रोफेशनल हेजार्ड, यह तो व्यावसायिक खतरा है। इसमें हम क्या कर सकते हैं। मैं तो केवल अपनार् कत्तव्य निभा रही हूँ।'' इस जाँबाज महिला का नाम है डॉ. मालिनी सुब्रमण्यम। आतंकवादियों की हिट लिस्ट में इस महिला का नाम भी है। यह डॉक्टर किरण बेदी, मुम्बई पुलिस की एसीपी मीरा बोरवणकर से जरा भी कम नहीं है। देश के एकमात्र टॉप लेबल की फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की सहायक अधीक्षक के रूप में कार्यरत् डॉ. सुब्रमण्यम अपने काम में इतनी निपुण हैं कि कितना बड़ा अपराधी हो या फिर आतंकवादी, उनके सामने झूठ नहीं बोल सकता। कई खतरनाक अपराधियों पर नार्को टेस्ट कर उन्हें सच बोलने के लिए विवश किया है। शायद यही वजह है कि उस पर अब तक कई हमले हो चुके हैं। एक बार एक आरोपी ने उन्हें ऐसा धक्का दिया कि वह गिर गई और उनके हाथ की हड्डी टूट गई। छह हफ्ते का प्लास्टर लगा। ऐसे कई हमले उन पर हुए, पर वह डरने वालों में से नहीं है। लश्कर-ए-तोयबा के आतंकवादी सबाहुद्दीन ने तो उसे जान से मारने की धमकी दे रखी है। एक पत्रकार वार्ता में कर्नाटक पुलिस के डायरेक्टर जनरल के.आर.श्रीनिवास ने इस बात को स्वीकार भी किया। सबाहुद्दीन वही आतंकवादी है, जिस पर 2005 में बेंगलुरु की इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ साइंस में हुए बम विस्फोट में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
अपराधियों से सच उगलवाने के लिए नार्को टेस्ट को न्यायालय ने अभी तक पूरी तरह से मान्यता नहीं दी है। अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। किंतु सन 2000 से अब तक 1200 नार्को टेस्ट, 1800 ब्रेन मेपिंग और 3400 पोलिग्राफ टेस्ट करने वाली डॉ. मालिनी सुब्रमण्यम के लिए यह एक रिकॉर्ड है। यह रिकॉर्ड इस फौलादी महिला के मनोबल के आगे बहुत ही छोटा है। दो बच्चों की माँ डॉ. मालिनी ने अब तक 130 आतंकवादियों, 15 नक्सलवादियों और अन्य कई खूंखार अपराधियों के मुँह से सच उगलवाया है। इनमें से प्रमुख है स्टेम पेपर कांड के सूत्रधार अब्दुल करीम तेलगी, एक समय दाऊद इब्राहिम के साथी अबु सालेम, अल कायदा के सबाहुद्दीन, प्रीति जैन आदि।
अपराधियों के बीच आने के पहले डॉ. मालिनी नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरोसाइंसिस (नीमहांस ) से सम्बध्द थी। इस संस्था को पूरे एशिया में मनोरोगियों की देखभाल के लिए सर्वश्रेष्ठ अस्पताल माना जाता है। इस अस्पताल में जब भी किसी ड्रग्स एडिक्ट को लाया जाता, तब उसके इलाज में डॉ. मालिनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती। एक बार पुलिस के एक उच्चाधिकारी की नजर डॉ. मालिनी पर पड़ गई, वे उनकी कार्यप्रणाली से बहुत प्रभावित हुए। तब उन्होंने राय और केंद्र सरकार से डॉ मालिनी की सेवाएँ लेने की सिफारिश की। यही कारण है कि कुछ ही दिनों में डॉ. मालिनी का तबादला फोरेंसिक सइंस लेबोरेटरी में कर दिया गया। यहाँ पहुँचने के बाद डॉ. मालिनी ने नार्को टेस्ट और ट्रूथ सिरम के माध्यम से अपराधियों से सच किस तरह से उगलवाया जाए, इस पर एक रिसर्च तैयार किया और उसे केंद्र सरकार सूचना विभाग को भेज दिया। सामान्यत: केंद्र सरकार ऐसे विषय पर तुरंत कोई निर्णय नहीं लेती, परंतु न जाने क्यों, डॉ. मालिनी के शोधपत्र में ऐसा क्या था कि सरकार ने तुरंत ही इस पर अपना निर्णय लेते हुए डॉ. मालिनी के सुझाव को माना और अपराधियों से सच उगलवाने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल की अनुमति दे दी।
सबसे पहले कर्नाटक सरकार ने ही इस तकनीक को अपनाया। कुछ ही वर्षा में डॉ. मालिनी का नाम इस क्षेत्र में गूँजने लगा। फिर तो अपराधियों के बीच रहना उनकी दिनचर्या में ही शामिल हो गया। पिछले आठ वर्षों में डॉ. मालिनी ने इस क्षेत्र में अपना काम पूरी शिद्दत से करते हुए इतनी महारत हासिल की कि अपराधी उनके नाम से ही काँपने लगते। उसके बाद ही पुलिस ने उनकी सेवाएँ लेनी शुरू की। आज स्थिति लगातार बदल रही है। रोज-रोज नए-नए अपराधी उनके सामने होते हैं, एक महिला होने के नाते डॉ. मालिनी बखूबी जानती हैं कि उनका काम ही ऐसा है कि अपराधियों की ऑंखों की किरकिरी बनना स्वाभाविक है। फिर भी वह आज भी अपना काम बिंदास भाव से करती हैं। बिना डरे बिना थके... ऐसी जाँबाज महिला को शत-शत नमन ...।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

भारत के लिए सिरदर्द बनेगा नेपाल


नीरज नैयर
संविधान सभा के चुनाव के बाद नेपाल में जो राजनीतिक परिदृश्य उभरकर सामने आया है उससे हर कोई अचंभित है. किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि माओवादी इतने शक्तिशाली रूप में सामने आएंगे. हालांकि फिर भी ऐसे लोगों की जमात कहीं ज्यादा है जो पड़ोस में लोकतंत्र को अच्छा संकेत मान रहे हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. दरअसल जो लोग माओवादियों के आने पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं, या तो उन्हें नेपाल के हालात की अंदरूनी समझ नहीं है या फिर वो मुगालते में ही रहना पसंद करते हैं. नेपाल के साथ हमारे रिश्ते सैंकड़ों साल पुराने हैं. दोनों देशों की सीमाएं एक-दूसरे के लिए हमेशा से खुली रही हैं. असम से होते हुए धुलावड़ी के रास्ते नेपाल में प्रवेश करते वक्त कभी भी इस बात का एहसास नहीं होता कि हम दूसरे मुल्क की सरहद में दाखिल हो रहे हैं, पर नेपाल की राजनीति में मौजूदा बदलाव के बाद शायद रिश्तों की डोर अब उतनी लचीली नहीं रहने वाली. 575 में से 220 सीटें जीत कर आए माओवादी नेता प्रचंड भारत के साथ 1950 में की गई मैत्री संधि को खत्म कर नये सिरे से निर्धारण की बात करके अपने इरादे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं. हालांकि उन्होंने भारत और चीन से समांतर दूरी बनाकर चलने की बात कही है मगर माओवादियों का चीनी प्रेम जगजाहिर है. सब जानते हैं कि नेपाल में सत्ता संघर्ष के वक्त माओवादियों को पिछले दरवाजे से आर्थिक मदद चीन मुहैया करवा रहा था. दरअसल चीन भारत पर घेरा कसने में लगा हुआ है. श्रीलंका, म्यामांर और पाकिस्तान आदि देशों में पहुंच बढ़ाकर वह पहले ही हम पर दबाव बना चुका है और अब नेपाल के रास्ते सीधे तौर पर चुनौती देने की कोशिश में है. चीन इस बात को भलि-भांती जानता था कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बनवाए बिना वो अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकता, इसलिए उसने पर्दे के पीछे से ठीक वैसा ही खेल खेला जैसा एक निर्देशक अपने फिल्म को हिट करवाने के लिए खेलता है. चीन ने तिब्बत के रास्ते नेपाल तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान कर दिया है, उसने यह कहकर भारतीय नीति-निर्माताओं के होश उड़ा दिए हैं कि नेपाल ने इसके लिए हरी झंड़ी दिखा दी है. चीन के बारे में मशहूर है कि वो जिस क्षेत्र को कब्जा लेता है उसे कभी हाथ से जाने नहीं देता. चीन के इस ऐलान को अगर 1950 के परिदृश्य में रखकर देखें तो उसकी मंशा स्पष्ट हो जाती है. वह नेपाल के साथ भी वैसा ही कुछ करने की जुगत में लगता है जैसा उसने तिब्बत के साथ किया था. वह रेल लाइन के माध्यम से नेपाल पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहता है. हालांकि विश्व अब 1950 वाले दौर से बहुत आगे निकल आया है और ड्रैगन का नेपाल सरीखे देश को निगलना उतना आसान नहीं होगा, मगर फिर भी वो नेपाल को अपने अड्डे के रूप में विकसित करके भारत विरोधी गतिविधियों का संचालन अब बड़ी आसानी से कर सकेगा. माओवादियों के नेपाल की सत्ता पर काबिज होने से भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर नई चुनौतियां खड़ी होने वाली हैं. भारत में सक्रिय नक्सलवादियों की नेपाल माओवादियों से सांठ-गांठ किसी से छिपी नहीं है. नक्सलवादी न सिर्फ वहां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं बल्कि वहां से चीन के रास्ते आने वाले अत्याधुनिक हथियारों को भी भारत के खिलाफ प्रयोग कर रहे हैं. वैसे भी नक्सलवाद भारत में सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर चुका है, खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस पर कई बार चिंता जता चुके हैं. ऐसे में पड़ोस में लाल सलाम का नारा बुलंद होने से नक्सलवादियों के हौसले बुलंद होना लाजमी है. नक्सलवादियों को अब लगने लगेगा कि उनका संघर्ष भी एक दिन उन्हें माओवादियों की तरह सत्ता के रास्ते तक ले जा सकता है. खुफिया सूत्रों की अगर मानें तो नक्सलवादी नेपाल के राजनीतिक माहौल को लेकर खासे उत्साहित हैं. प्रचंड की जीत भले ही नेपाल में हुई है मगर उसका जश्न छत्तीसगढ़ के नक्सलवादी बहुल इलाकों में मन रहा है. अगर इन बातों में सच्चाई है तो यह निश्चित ही भारत के लिए खतरें के संकेत हैं. वैसे ये कहना गलत नहीं होगा कि नेपाल पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह से असफल रही. पड़ोस में जब उथल-पुथल मची थी उस वक्त सरकार यही मानकर चल रही थी कि वहां अधिकतर प्रतिनिधि नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यानी एमाले के ही होंगे क्योंकि नेपाली जनता माओवादियों के खूनी खेल से तंग आ चुकी है. लेकिन चुनाव के नतीजों ने ऐसी सभी आशाओं को हवा में उड़ा दिया. यहां तक की जिन मधेसी नेताओं पर भारतीय दूतावास और खुफिया एजेंसी रॉ का हाथ था वो भी मैदान में चारों-खाने चित्त हो गये. ऐसा नहीं है कि नेपाल में माओवादियों की सत्ता को लेकर सिर्फ भारत ही चिंतित है अमेरिका भी पूरे मसले पर गहरी नजर रखे हुए है. वह भी असमंजस में है कि नेपाल की सत्ता में शामिल माओवादियों को कैसे पचाया जाए. चूंकि अमेरिका ने माओवादियों को आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया हुआ है लिहाजा वो इस मामले पर गहन मंथन में लगा है. बहरहाल भारत सरकार भी इस मसले पर चुप्पी साधे हुए है और संभावित खतरों का आकलन करने में जुटी है. जबकि कम्युनिस्ट नेता देश पर आने वाली विपदाओं से किनारा करके नेपाल में प्रचंड को ऐसे बधाई दिए जा रहे हैं जैसे उन्होंने नेपाल के नहीं भारत के चुनाव में जीत हासिल की है.

क्या करे भारत
वैसे तो नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से भारत का नेपाल पर बचा-कुचा प्रभुत्व भी समाप्त होने वाला है मगर भारत प्रचंड को उन्हीं के लहजे में जवाब देकर उनकी हेकड़ी को कुछ कम जरूर कर सकता है. प्रचंड चाहते हैं कि 1950 में की गई भारत-नेपाल मैत्री संधि का पुन: निर्धारण किया जाए. मतलब पुरानी संधि को खत्म करके मौजूदा हालात के मद्देनजर नई संधि बने. भारत को चाहिए कि वो नेपाल को यह स्पष्ट करे कि ऐसी स्थिति में उस दौर की व्यापार आदि सारी संधियों का पुन: निर्धारण किया जाएगा. प्रचंड समानता की बात करते हैं जबकि सच ये है कि नेपाल पूरी तरह से भारत पर निर्भर है अगर भारत ने पूर्व में अपने हाथ खींच लिए होते तो नेपाल का क्या होता प्रचंड अच्छी तरह जानते हैं, ऐसे में वो ये कतई नहीं चाहेंगे कि नेपाल को भारत से मिलने वाली सहायता में कोई कटौती आए.

कौन हैं मधेशी
नोपल की कुल आबादी का करीब 40 प्रतिशत तराई क्षेत्र है. इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मधेशी कहा जाता है. जिसका मतलब है मध्यक्षेत्र में रहने वाले लोग. ये मधेशी मुख्यत: भारतीय मूल के हैं, जो सैंकड़ों साल पहले रोजीरोटी की तलाश में यहां आकर बस गये. नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने से इनके ऊपर सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है. क्योंकि माओवादी मधेशियों को नेपाल से भगाना चाहते हैं.
नीरज नैयर
9893121591

बुधवार, 23 जुलाई 2008

खुशियाँ मनाओ, हम खुश खुशमिजाज हैं


डा. महेश परिमल
खुश होना एक अच्छी आदत है, पर इतनी सारी खुशियाँ आखिर हम लाएँ कहाँ से कि हम हर पल खुश रह सकें. खुशियाँ कहीं बाजार में तो मिलती नहीं, जिसे चाहे जिस भाव में खरीद लिया. यह तो स्वस्फूर्त प्रक्रिया है, यह हमारे भीतर से आती है. इसे पाने के लिए हमें कहीं जाना नहीं पड़ता. इस स्थिति में हम कैसे निकालें, हमारे भीतर की खुशियाँ? खुशी एक मानवीय संवेदना है, जो कभी हँसी के रूप में, कभी आंसू के रूप में, तो कभी खिलखिलाहट के रूप में हमारे सामने आती है.
जी.एस.के.एन.ओ.पी. नाम की एक संस्था मार्केटिंग के लिए शोध करने वाली एक जानी-मानी संस्था है. इसके संचालक निक चेरेली है. इस संस्था ने दुनिया के 30 देशों के 30,000 घरों में रहने वाले व्यक्तियों से मुलाकात कर उनके सुखी होने के विषय पर सर्वे किया है.
इस सर्वे में प्रत्येक व्यक्ति को यह पूछा गया कि वे लोग जो जीवन जी रहे हैं, क्या वे उससे संतुष्ट हैं? इस प्रश्न के उत्तर में दुनिया भर के 20 प्रतिशत लोगों ने वे 'बहुत सुखी हैं' ऐसा जवाब दिया. जबकि वे जैसा जीवन जी रहे हैं, उससे पूरी तरह से संतुष्ट हैं, सुखी हैं, ऐसा जवाब देने वाले 62 प्रतिशत थे. दस प्रतिशत ऐसे लोग थे, जो अपनेर् वत्तमान जीवन से बिलकुल भी खुश नहीं थे. मात्र चार प्रतिशत लोग तो ऐसे थे, जो अपने आपको पूरी तरह से दु:ख के सागर में गोते लगाने वालों में शामिल कर रहे थे.
भारत में यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुम्बई, पूना, बेंगलोर और कानपुर में किया गया. इन शहरों के चयन मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि ये सर्वेक्षण पूरी तरह से सच्चे हैं. फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत में खुश रहने वालों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है. इसके पीछे भले ही भारत की धर्म परायणता,भाग्यवादिता, कर्मण्यता आदि भाव हों, पर सच यही है कि भारतीयों में आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि 'कम खाओ, बनारस में रहो'.
ये जो सर्वेक्षण कराया गया, उसमें भारत के 34 प्रतिशत लोग अपने आप को सुखी मानते हैं. इस तरह से दुनिया के 30 देशों में भारत ने चौथा स्थान प्राप्त किया. 36 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले इजिप्त का स्थान तीसरा है. दूसरे नम्बर पर अमेरिका 40 प्रतिशत और पहले स्थान पर 46 अंक पाने वाला देश है ऑस्ट्रेलिया. इस देश के सबसे सुखी होने का कारण है यहाँ की जलवायु, समुद्री किनारा और प्राकृतिक वातावरण. यहाँ के लोग खुशी पाते ही नहीं, बल्कि खुशियों को इस तरह से बाँटते हैं कि वह दोगुनी होकर उनके पास पहुँच जाती है.
खुद को दुखी मानने वालों में जो देश हैं, उनमें हंगरी, रुस, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और पोलैण्ड का समावेश होता है. सुखी माने जाने वाले देशों में भारत के बाद क्रमश: इंग्लैण्ड, केनेडा और स्वीडन का नम्बर आता है. 13 से 19 वर्ष की आयु वाले अपने आपको बहुत सुखी मानते हैं. वैसे भी यह उम्र ऐसी होती है, जिसमें कोई तनाव नहीं होता, इनका सारा खर्च माता-पिता उठाते हैं. ये नौकरी भी नहीं करते, केवल पढ़ाई और मस्ती ही इनका लक्ष्य होता है. अत: ये लोग कभी-कभी ही दु:खी हो सकते हैें. दु:ख का अहसास इंसान को 30 से 55 वर्ष की आयु में होता है. यह बात इस सर्वे के दौरान सामने आई.
सर्वेक्षण के अनुसार 50 से 59 वर्ष की आयु वर्ग के लोग कम से कम सुखी होने की बात कहते हैं. इनमें से केवल 16 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो अपने को सुखी मानते हैं. वैसे सुखी होना और सुखी मानना दोनोें ही अलग बात है. जो दु:खी होते हैं, वे भी कभी-कभी खुशी के पल चुरा लेते हैं. उन्हें खुशी के बहाने की ही जरुरत होती है. इससे कहा जा सकता है कि सुख और दु:ख एक दूसरे के पूरक हैं.
सर्वेक्षण में प्राप्त कुछ रोचक तथ्य:-
· धन ही सब कुछ नहीं है, इससे हटकर भी कुछ है.
· पहला सुख स्वास्थ्य है.
· दूसरा सुख नारी है.
· तीसरा सुख संतान है.
· चौथा सुख निजी मकान है.
· पाँचवाँ सुख अपने आप पर काबू रखना है.,
· छठा सुख आर्थिक सुरक्षा है.
· सातवाँ सुख मनपसंद व्यवसाय है.
आश्चर्य इस बात का है कि इन सुखों में कार, फ्रिज, एसी, परिधान आदि का कोई स्थान नहीं है. हमारे पूर्वजों ने जो जीवन जीने के जो गुर सिखाए हैं, वे इससे काफी हद तक मिलते हैं. सादा जीवन उच्च विचार इस सुख का आधार है. स्वयं को कम सुखी मानने वाले समूह में अल्प आय वाले, बेरोजगार लोग शामिल हैं, लेकिन इन्हें आतंकवाद, शिक्षा और संक्रामक बीमारियों की अधिक ंचिंता है.
सुखी लोग आशावादी होते हैं, यह बात भी सर्वेक्षण में सामने आई. जो सुखी हैं, उनमें से 37 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे आने वाले एक वर्ष में इससे भी अधिक सुखी रहेंगे. अपने आप को सुखी अनुभव करने वाले लोगों में उनका व्यक्तित्व, भरपूर नींद, श्रध्दा, विश्वास आदि लक्षण देखने में आए. शराबखोरी और फास्ट फुड को उस सुख का आधार कतई नहीं माना गया है.

इसके साथ ही एक और सर्वे सामने आया है. इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट नाम की संस्था ने विश्व के 128 शहरों का सर्वे करके यह पाया कि दुनिया में ऐसे बहुत से शहर हैं, जो रहने के लायक हैं, इसके बाद ऐसे भी शहरों का पता चला, जो रहने के लायक नहीं हैं. दुनिया के टॉप टेन शहरों में सुखी ऑस्ट्रेलिया के कई शहर शामिल हैं. केवल रहने के लिए ही अनुकूल शहरों में पश्चिम यूरोप और उत्तरी अमेरिका के शहरों का समावेश है. रहने के अनुकूल टॉप टेन शहरों के नाम इस प्रकार हैं-
वेनकुँवर, मेलबोर्न, विएना, जिनेवा, पर्थ, एडिलेड, सिडनी, ज्यूरिख, टोरंटो और केलगिरी. एशिया और अफ्रीका के कई शहर रहने लायक नहीं हैं. जिन शहरों को अनुकूल माना गया है, वे शहर आतंकवादी गतिविधियों से दूर और उनके निशाने से भी काफी दूर माने गए हैं.र् वत्तमान में लोग ऐसे शहरों में रहना चाहते हैं, जो आतंकवाद की छाया से दूर हैं. ऐसे शहरों की सूची में अंतिम दस शहरो के क्रम में कराची, ढाका, तेहरान और हरारे शामिल हैं.
इस तरह से देखा जाए तो भारतीय अपने विशाल हृदय और सदाशयता के कारण अपने आप में अनूठा है, बल्कि इस तरह से वह अन्य देशों के लिए एक आदर्श है. आतंकवाद की चपेट में होने के बाद भी यहाँ के लोगों की जिजीविषा कम नहीं हुई है. भीतर से लड़ने वाले संकट के समय सब एक होने का माद्दा रखते हैं. विपत्तियाँ इन्हें अपने पथ से डिगाती नहीं. हर मुश्किल उन्हें और भी जूझने की शक्ति देती है. बाधाएँ इन्हें तपाती हैं, लेकिन ये तपकर और भी निखर जाते हैं. इसमें सहायक होती है यहाँ की हरियाली, वातावरण और शस्य श्यामला धरती...
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

झूठ बोलते विज्ञापन


डॉ. महेश परिमल
ये विज्ञापन का युग है. हर चीज बिकती है विज्ञापनों के सहारे. उस दिन जब टी.वी. पर झाड़ू का विज्ञापन देखा, तो माथा ठनक गया. क्या ंजमाना आ गया है, अब झाड़ू के विज्ञापन भी टी.वी. पर देखो. अगर विज्ञापन में दम हो, तो क्या नहीं बिक सकता? सब कुछ बिक सकता है. विज्ञापन चाहे मिट्टी का ही क्यों न हो, अगर बेचने वाले में दम है, तो वह भी बिक जाएगी.
आज विज्ञापनों का महाभारत हमारे देश में हो रहा है. कंपनियाँ एक से एक चींजें बांजार में ला रही हैं. उनका तो यह भी दावा है कि अगर आपने उनके उत्पाद को नहीं खरीदा, तो आप आधुनिकता की इस दौड़ में सबसे पीछे रह जाएँगे. विज्ञापनों का चक्रव्यूह अभेद्य है, इससे कोई नहीं बच सकता. आज के बच्चे भी अभिमन्यु की तरह माता के गर्भ में विज्ञापन सुनते हैं. पैदा होकर वे यह तो नहीं बता पाएँगे कि इसे कैसे खरीदा जाए, बल्कि उसे किस प्रकार चलाया जाता है या उपयोग में लाया जा सकता हैं, यह अवश्य बता देंगे. आज के बच्चे चक्रव्यूह तो नहीं तोड़ पाते हैं, बल्कि खुद को ही तोड़ कर रख देते हैं, इन विज्ञापनों के चक्रव्यूह में.
हम भी किसी से कम नहीं हैं. टी.वी. पर हमारा प्रिय नायक जिसकी प्रशंसा कर रहा है, तो निश्चित वह चींज अच्छी ही होगी. आखिर उसकी वकालत हमारा नायक कर रहा है. वह भला कैसे ंगलत हो सकता है? उसने उस विज्ञापन से करोड़ों कमाए हैं, यह हम जानना ही नहीें चाहते. हम तो केवल उसकी बताई चींजे ही खरीदेंगे. उसे हम नहीं लेंगे, तो हमारा पड़ोसी ले लेगा, फिर हम तो पीछे रह जाएँगे. ऐसे भला कैसे हो सकता है? यहाँ आकर हम भूल जाते हैं कि विज्ञापनों का संसार कौरवों की सेना की तरह है, हम उनका माल खरीदकर उसी को बढ़ावा दे रहे हैं.
अब आइए विज्ञापनों की असलियत पर. हमारे सपनों का नायक इतराते हुए जूते पहनता है, हम भी वैसा ही जूता ले आते हैं, दो दिन बाद ही उसका सोल जूते से नाता तोड़ लेता है, हमारी आत्मा का साक्षात्कार परमात्मा से हो जाता है. हम कुछ नहीं कर सकते. बालों का काले और लम्बे करने वाले बहुत से तेल आ रहे हैं, जो बहुत ही शुध्द होने का दावा करते हैं, पर हमारे सर पर जाते ही वह तेल विज्ञापन वाला काम नहीं कर पाता. हमारी खल्वाट बढ़ जाती है और खोपड़ी की जड़ों से सफेदी झाँकने लगती है.
यहाँ तक तो ठीक है, हम गंजे हो गए, हमने जूते पहनना छोड़ दिया. अब बच्चों को कैसे समझाया जाए, जब वह देखता है कि शेविंग करता आदमी अपने मोबाइल पर कहता है कि जरूरी मीटिंग में हूँ. अब उस मासूम को कैसे बताया जाए कि वह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है. पर बच्चे को वही सच लग रहा है. अब हम उसके लिए सच की सही परिभाषा कहाँ से लाएँ? कार से उतरकर व्यापारी जब अपने मोबाइल पर कहता है कि ग्राहक सर पर खड़ा है, माल जल्दी भेजो. ये कौन-सा सच है, कोई बता सकता है. क्या ऐसा नहीं लगता कि हम एक ऐसे रचना संसार में विचर रहे हैं, जिसका सच से कोई वास्ता नहीं. झूठ और फरेब की एक दुनिया है, जहाँ हम अपनी साँसों को भी अपनी नहीं कह सकते. हम अपने देशको राष्ट्र कहते हैं, पर विज्ञापन वाले इसे छोटा साबित कर महाराष्ट्र का ही नहीं, बल्कि सौराष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं.

हमारे देशकी बहुत बड़ी आबादी अभी-भी भरपेट भोजन प्राप्त नहीं कर पा रही है. वित्तमंत्री के ऑंकड़े कुछ भी बोलते हों, पर यह सच है कि ंगरीब बहुत ही ज्यादा ंगरीब है और अमीर बहुत ही ज्यादा अमीर. ंगरीबों की साँसें भी उधार की होने लगी है. उनके पास तो आटे में पानी अधिक हो जाने के बाद उससे रोटी कैसे बनाई जाए, इसका भी आइडिया नहीं है. कोई विज्ञापन वाला ऐसा तो कुछ भी नहीें बताता. उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि एक ंगरीेब की भूख कितनी रोटी की होती है? क्योंकि उसने भरपेट कभी खाना ही नहीं खाया. जब भी उसे भोजन मिला, उससे भीतर की ऑंतों का हाहाकार कुछ कम हुआ. पर ऑंतों का चित्कार कभी कम नहीं हुआ.
क्या कभी ऐसा विज्ञापन भी टी.वी. पर आएगा, जिसमें यह बताया जाएगा कि एक गोली लो और अपनी भूख हमेशा के लिए खत्म कर लो. या फिर इस दवा के पीने से किसी भी पिता को यह बेटी के बड़े होने का ंगम नहीं सताएगा. इस कपड़े को पहनने के बाद किसी भी लाचार बहू-बेटी को अपना तन बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस गोली के खाते ही पिता के बलंगम के साथ आने वाला खून अब बंद हो जाएगा.
ये विज्ञापन हमें राह क्यों नहीं दिखाते? सदैव भटकाते ही क्यों हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विज्ञापन दिखाने के पहले यह बता दिया जाए कि ये विज्ञापन केवल अमीरों के लिए हैं, कृपया जो ंगरीब हैं, वे इसे न देखें. आज विज्ञापन हमारे मानस पटल पर चोट करते हुए हमारे आर्थर्िक धरातल को कमजोर कर रहे हैं. मानसिक ंगुलामी की ओर ले जाते ये विज्ञापन हमें भीतर से खोखला कर रहे हैं. इसके लिए कोई आगे नहीं आता. न ंगरीबों के लिए काम करने वाली सरकार, न ंगरीबी का मंजाक उड़ाकर वोट बटोरने वाले नेता. क्या हमें इतना भी हक नहीं कि हम ये जान सकें कि विज्ञापन के रूप में आज जो कुछ भी हमारे सामने परोसा जा रहा है, वह किस दुनिया का सच है? किस संस्कृति का परिचायक है? आखिर ये कौन-सी दुनिया है, जहाँ के लोगों को सब-कुछ इतना अच्छा और भला लगता है कि चंद लमहों में ही पूरी दुनिया ही बदल जाती है. है कोई अर्थशास्त्री जो इसका गणित समझा सके या फिर है कोई ऐसा पथ प्रदर्शक जो इस बटोही इनकी दुनिया का भूगोल बता सके?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 21 जुलाई 2008

झुरमुट में गुम बांस गीत की मिठास


राजेश अग्रवाल
निर्धनता के थपेडों से सूख चुके 70 साल के छेड़ूराम को आज की शाम भी चौकीदारी पर जाने के लिए देर हो रही थी. अपने पोपले मुंह से बार-बार उखड़ती सांसों पर जोर देते हुए उसने तकरीबन एक घंटे तक सुरीली तान छेड़ी फिर पूरे आदरभाव के साथ बांस को भितिया पर लटका दिया. अब ये कई-कई दिनों तक इसी तरह टंगा रहेगा.
छैड़ूराम को याद नहीं कि पिछली बार बांस उसने कब बजाया. छेड़ूराम कहते हैं-' अब कौन पूछता है इसे. क्या मैं उम्मीद करूं कि मेरे नाती पोते इसे साध पाएंगे. पूरी रात खत्म नहीं होगी, अगर मैं एक राजा महरी का ही किस्सा लेकर बैठ जाऊं. अब तो वह कोलाहल है कि मेरे बांस बजाने का पड़ोसी को भी पता न चले, पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था. दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी ठहर कर कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था. छठी, बरही, गौना सब में बांस गीत गाने-बजाने वालों को बुलाया जाता था. राऊतों का तो कोई शुभ प्रसंग बांस गीत की बैठकी के बगैर अधूरा ही होता था.
अब इंस्टेन्ट जमाना हैं. टेस्ट मैच की जगह ट्वेन्टी-20 पसंद किये जाते हैं. बांस गीत की मिठास को पूरी रात पहर-पहर भर धीरज के साथ सुनकर ही महसूस किया जा सकता है. इसके सुर बहुत धीमे-धीमे रगों में उतरते हैं, आरोह- अवरोह, पंचम, द्रुत सब इसमें मिलेंगे. जब स्वर तेज हो जाते हैं तो मन-मष्तिष्क का कोना-कोना झनकने लगता है. रात में जब भोजन-पानी के बाद बांसगीत की सभा चबूतरे पर बैठती है तो बांस कहार, गीत कहार, ठेही देने वाले रागी और हुंकारू भरने वाले के बीच सुरों का संगत बिठाई जाती हैं. इसके बाद मां शारदा की वंदना होती है फिर शुरू होता है किसी एक कथानक का बखान. यह सरवन की महिमा हो सकती है, गोवर्धन पूजा, कन्हाई, राजा जंगी ठेठवार या लेढ़वा राऊत का किस्सा हो सकता है. गांव के बाल-बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े बारदाना, चारपाई, पैरा, चटाई लाकर बैठ जाते हैं और रात के आखिरी पहर तक रमे रहते हैं.
'अहो बन मं गरजथे बनस्पतिया जइसे, डिलवा मं गरजथे नाग हो
मड़वा में गरजथे मोर सातों सुवासिन गंगा, सभा में गरजथे बांस हो'.
राऊत जब जंगलों की ओर गायों को लेकर गए होंगे तब बांस की झुरमुट से उन्हें हवाओं के टकराने से निकलते संगीत का आभास हुआ होगा. इसे कालान्तर में उन्होंने वाद्य यंत्र के रूप में परिष्कृत कर लिया. इसी का उन्नत स्वरूप बांसुरी के रूप में सामने आया. बांसुरी अपने आकार और वादन में बांस के अनुपात में ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण सभी समुदायों में लोकप्रिय हो गया. बांस, जंगल-झाड़ी और पशुओं के साथ जन्म से मृत्यु तक का नाता रखने वाले यादवों ने बांस गीत को पोषित पल्लवित किया.
छत्तीसगढ़ की जिन लोक विधाओं पर आज संकट मंडरा रहा है, बांस गीत उनमें से एक है. रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की बोली और लोक विधाओं को छत्तीसगढ़ के बाहर देश-विदेश के मंचों पर रखा. उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मिड समर नाइट स्ट्रीम' का हिन्दी रूपान्तर 'कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना' तैयार किया, इसका मंचन अब तक केवल विदेशों में हो सका है. जानकर हैरत हो सकती है कि नाटक का पूरा कथानक बांस गीतों के जरिए ही आगे बढ़ता है, बांस न हो तो इस नाटक का दृश्य परिवर्तन अधूरा लगेगा.
राजनांदगांव के विक्रम यादव ने बांस की धुनों से पूरे नाटक में जादुई माहौल पैदा किया है. विक्रम ने बनारस के घाट पर हुए सन् 2007 के संगीत नाटक अकादमी के वार्षिक समारोह में भी प्रस्तुति दी. सार्क फेस्टिवल 2007 के विज्ञापनों और निमंत्रण पत्रों में बांस गीत गायक खैरागढ़ के नकुल यादव की तस्वीर को ही उभारा गया था.
आकाशवाणी रायपुर में बांस गीतों के लिए हर सोमवार का एक समय निर्धारित था. यदा-कदा कला महोत्सवों में भी बांस गीत के कलाकारों को शामिल किया जाता है.
छत्तीसगढ़ के हर उस गांव में जहां यादव हैं, बांस गीत जरूर होता रहा है. यह बस्तर तक भी फैला हुआ है. बस्तर के दूरस्थ कोंडागांव में खेड़ी खेपड़ा गांव में यादवों का एक समूह बांस गीत को बड़ी रूचि से बजाते हैं.
बांसुरी से लम्बी किन्तु बांस से पतली और छोटी, मुरली भी बजाने की परम्परा यादवों में रही है. मुरली बजाने वाला एक परिवार बिलासपुर के समीप सीपत में मिल जाएगा. यादव दो मुंह वाला अलगोजना और नगडेवना भी बजाते रहे हैं, जो काफी कुछ सपेरों के बीन से मिलता जुलता वाद्य यंत्र है, यह खोज-बीन का मसला है कि कहां कहां बांस या उससे मिलते जुलते वाद्य यंत्र अब बजाये जा रहे हैं.
बांस गीतों का सिमटते जाने के कुछ कारणों को समझा जा सकता है. बांस गीत में वाद्य बांस ही प्रमुख है. गीत-संगीत की अन्य लोक विधाओं की तरह इसके साजों में बदलाव नहीं किया जा सकता. यादवों के अलावा भी कुछ अन्य लोगों ने बांस गीत सीखा पर इसके अधिकांश कथानक यादवों के शौर्य पर ही आधारित हैं. सभी कथा-प्रसंग लम्बे हैं, जिसके श्रोता अब कम मिलते हैं. पंडवानी, भरथरी में कथा प्रसंगों के एक अंश की प्रस्तुति कर उसे छोटा किया जा सकता है, पर बांस गीत में इसके लिए गुंजाइश कम ही है. हिन्दी फिल्मों की फूहड़ नकल से साथ फिल्मांकन कर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का सर्वनाश करने वालों को बांस गीतों में कोई प्रयोग करने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता.
अब तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, गांवों में बड़ी मुश्किल से चराई के लिए दैहान मिल पाता है. ऐसे में कच्चे बांस के जंगल कहां मिलेंगे. वे पेड़ नहीं मिलते, गाय चराते हुए जिस पर टिककर बांस या बांसुरी बजाई जा सके. यादवों के एक बड़े वर्ग से उनका गाय चराने का परम्परागत व्यवसाय छिन चुका है. छैड़ूराम, नकुल या विक्रम में से किसी का भी परिवार अब गाय नहीं चराता है. बांस गीत से इनका लगाव अपनी परम्परा और संगीत बचाये रखने की ललक की वजह से ही है.
रंगकर्मी अनूप रंजन पाण्डेय पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ की लुप्त होती लोक विधाओं और वाद्य यंत्रों को सहेजने के लिए काम कर रहे हैं. उनका मामना है कि लोक विधाओं को संरक्षण देने के नाम पर सरकार या तो कलाकारों को खुद या सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से बढ़ावा देती है, लेकिन बांस गीत जैसी लोक विधाओं की बात अलग है. इसे 15-20 मिनट के लिए मंच देकर बचाया नहीं जा सकता, बांस गीत तब तक नहीं बचेगा,जब तक इसे सीखने वालों की नई पीढ़ी तैयार न की जाए. बांस गीत जैसी विधाओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये, जिनमें गुरू शिष्य परम्परा को ध्यान में रखा जाए और दोनों को मानदेय मिले.
राजेश अग्रवाल

शनिवार, 19 जुलाई 2008

बरखा बहार आई... ..


भारती परिमल
लो फिर से आया हरियाला सावन
पीऊ-पीऊ बोल उठा पागल मन
बादलों के पंख लगा उड़ गया रे
दूर पिया के देश में मुड़ गया रे
आज से कई वर्षों पहले कालिदास ने अपने नाटक आषाढ़ का एक दिन में एक कल्पना की थी- उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा यक्षिणी को बादलों के माध्यम से प्रेम संदेश भेजता है। उस जमाने की वह कल्पना आज इंटरनेट, ई-मेल के जरिए साकार हो रही है। इस कल्पना का साकार होना अपने आपमें एक रोमांचकारी अनुभव है।
चारों ओर बारिश की फुहार से वातावरण भीगा हुआ है। मोर अपनी प्रियतमा मोरनी को रिझाने के लिए पंख पसारे हुए है। कोयल की कुहू-कुहू और पपीहे की पीऊ-पीऊ जंगल को गुंजायमान कर रही है। ऐसे में आकाश में तारों और चंद्रमा के साथ बादलों का खेल अपनेपन की एक नई परिभाषा रच रहा है। ऐसा लगता है मानों हरियाली मुस्कान के साथ सजी-धजी धरती को आकाश की प्रियतमा बनने से अब कोई रोक नहीं सकता।
बारिश तो आकाश के द्वारा धरती को लिखा गया खुला प्रेमपत्र है। धरती का अपनापन इतना गहरा है कि वह कभी रेनकोट पहन कर बारिश का स्वागत नहीं करती, वह तो इस बारिश में पूरी तरह से भीग जाने में ही अपनी सार्थकता समझती है। और भीगती है, खूब भीगती है, इतनी कि एक पल को धरती-आकाश दोनों ही एकमेव ही दिखाई देते हैं। क्या ये सार्थकता कहीं और देखने को मिल सकती है भला? हाँ जब कोई प्रिय अपनी प्रियतमा से सावन की फुहारों के बीच मिलता है, तब उनकी भावनाएँ मौन होती हैं और इसी मौन में दोनों एक-दूसरे को सब-कुछ कह देते हैं. यही है प्रेम का शाश्वत रूप। लेकिन कुछ लोग इससे अलग विचार रखते हैं, उनका मानना है कि बरसात प्रेमियों को बहकाती है और वन-उपवन को महकाती है। यही मौसम होता है जब इसे कवि अपनी आंखों से देखता है. कभी विरह की आग में जलती हुई प्रेयसी के रूप में, तो कभी अपनी प्रियतमा से मिलने को आतुर प्रेमी के रूप में। कवियों ने हर रूप में इस बरसात को देखने का प्रयास किया है, जिसे हम कविताओं के रूप में सामने पाते हैं।
आषाढ़ का पहला दिन, यदि मेरा बस चले तो इसे मैं इंडियन वेलेंटाइन डे घोषित कर दूँ। आप ही सोचें वह भला कोई प्रेमी युगल है, जिसने पहली बारिश में भीगना न जाना हो। बारिश हो रही हो, बाइक पर दोनों ही सरपट भागे जा रहे हों, ऐसे में कहीं भुट्टे का ठेला दिखाई दे जाए, धुएं में लिपटी भुट्टे की महक भला किसे रोकने के लिए विवश नहीं करती? बाइक रोककर एक ही भुट्टे का दो भाग कर जिसने नहीं खाया हो, उनके लिए तो स्वर्ग का आनंद भी व्यर्थ है। प्रेम में डूबकर कविता लिखने वाले कवियों ने तो यहाँ तक कहा है कि जो प्रेम में भीगना नहीं जानता, वह विश्व का सबसे कंगाल व्यक्ति है।

वर्षा-ऋतु प्रेम में डुबोने वाली ऋतु है। प्रेम की अभिव्यक्ति में वर्षा की बूँद बहुत ही सहायक होती हैं। हल्की फुहारें भला किसे अच्छी नहीं लगती, क्या इसमें भीगकर हम कुछ भी महसूस नहीं करते? कोयल की कू-कू और पपीहे की पी-पी से जब हमारे आसपास का वातावरण गुंजायमान हो रहा हो, तब ऐसा कौन होगा, जिसे अपने प्रेम की याद न आए। बहुत ही सोच-समझकर ही कालिदास ने बादलों को अपना क़ासिद बनाया था, वे जानते थे कि इनसे बढ़कर और कोई नहीं है, जो मेरे हृदय की संवेदनाओं को मेरी प्रेयसी तक पहुँचा सके। ये जहाँ भी बरसेंगे, मेरी प्रेयसी समझ जाएगी कि इन बादलों में ही कहीं छिपा है, मेरे उस अपने का संदेशा। ये बरस जाएँ, तो मैं समझ जाऊँगी कि उन्होंने क्या संदेशा भिजवाया है।
बादलों के माध्यम से संदेशा भिजवाना, आज के इस इंटरनेट के युग में भले ही हास्यास्पद लगता हो, किंतु क्या सिर्फ इसी सोच के कारण हृदय की संवेदनाओं को शुष्क और नीरस किया जा सकता है? आज की पीढ़ी के पास इतना वक्त नहीं है कि वह अपना संदेशा भेजने के लिए बादलों की प्रतीक्षा करे। ई-मेल और मोबाइल के रहते आज संवेदनाओं की नदियाँ सूख रही हैं। लेपटॉप का इस्तेमाल करने वाला प्रेमी भला प्रेम-पत्र की गहराई क्या जाने? बंद लिफ़ाफ़े में से निकलने वाला छोटा सा कागज अपने आप में प्रेम का साम्राज्य लिए हुए होता है। इसकी जानकारी इंटरनेटिए प्रेमी को भला कहाँ होगी?
नए जमाने का अनादर हमें नहीं करना है, परंतु आषाढ़ के पहले दिन आकाश की ओर देखते हुए बादलों से यह प्रार्थना करें कि मेरे कंप्यूटर में वाइरस का आक्रमण हो गया है, हे बादल ! जिस तरह तू कालिदास के यक्ष का संदेशा ले गया था, उसी तरह अब तू मेरा मैसेज भी ले जा। तुझे तो वाइरस का टेंशन कहाँ है मेरे प्रिय बादल!
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ , कालिदास द्वारा बादलों के माध्यम से एसएमएस करने की जो प्रणाली खोजी गई थी, उस सिस्टम में इन कमिंग और आऊट गोइंग दोनों ही टोटल फ्री है। हर प्रेमी इस सिस्टम का लाभ उठा सकते हैं।

बरखा बहार आई... ..


भारती परिमल
लो फिर से आया हरियाला सावन
पीऊ-पीऊ बोल उठा पागल मन
बादलों के पंख लगा उड़ गया रे
दूर पिया के देश में मुड़ गया रे
आज से कई वर्षों पहले कालिदास ने अपने नाटक आषाढ़ का एक दिन में एक कल्पना की थी- उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा यक्षिणी को बादलों के माध्यम से प्रेम संदेश भेजता है। उस जमाने की वह कल्पना आज इंटरनेट, ई-मेल के जरिए साकार हो रही है। इस कल्पना का साकार होना अपने आपमें एक रोमांचकारी अनुभव है।
चारों ओर बारिश की फुहार से वातावरण भीगा हुआ है। मोर अपनी प्रियतमा मोरनी को रिझाने के लिए पंख पसारे हुए है। कोयल की कुहू-कुहू और पपीहे की पीऊ-पीऊ जंगल को गुंजायमान कर रही है। ऐसे में आकाश में तारों और चंद्रमा के साथ बादलों का खेल अपनेपन की एक नई परिभाषा रच रहा है। ऐसा लगता है मानों हरियाली मुस्कान के साथ सजी-धजी धरती को आकाश की प्रियतमा बनने से अब कोई रोक नहीं सकता।
बारिश तो आकाश के द्वारा धरती को लिखा गया खुला प्रेमपत्र है। धरती का अपनापन इतना गहरा है कि वह कभी रेनकोट पहन कर बारिश का स्वागत नहीं करती, वह तो इस बारिश में पूरी तरह से भीग जाने में ही अपनी सार्थकता समझती है। और भीगती है, खूब भीगती है, इतनी कि एक पल को धरती-आकाश दोनों ही एकमेव ही दिखाई देते हैं। क्या ये सार्थकता कहीं और देखने को मिल सकती है भला? हाँ जब कोई प्रिय अपनी प्रियतमा से सावन की फुहारों के बीच मिलता है, तब उनकी भावनाएँ मौन होती हैं और इसी मौन में दोनों एक-दूसरे को सब-कुछ कह देते हैं. यही है प्रेम का शाश्वत रूप। लेकिन कुछ लोग इससे अलग विचार रखते हैं, उनका मानना है कि बरसात प्रेमियों को बहकाती है और वन-उपवन को महकाती है। यही मौसम होता है जब इसे कवि अपनी आंखों से देखता है. कभी विरह की आग में जलती हुई प्रेयसी के रूप में, तो कभी अपनी प्रियतमा से मिलने को आतुर प्रेमी के रूप में। कवियों ने हर रूप में इस बरसात को देखने का प्रयास किया है, जिसे हम कविताओं के रूप में सामने पाते हैं।
आषाढ़ का पहला दिन, यदि मेरा बस चले तो इसे मैं इंडियन वेलेंटाइन डे घोषित कर दूँ। आप ही सोचें वह भला कोई प्रेमी युगल है, जिसने पहली बारिश में भीगना न जाना हो। बारिश हो रही हो, बाइक पर दोनों ही सरपट भागे जा रहे हों, ऐसे में कहीं भुट्टे का ठेला दिखाई दे जाए, धुएं में लिपटी भुट्टे की महक भला किसे रोकने के लिए विवश नहीं करती? बाइक रोककर एक ही भुट्टे का दो भाग कर जिसने नहीं खाया हो, उनके लिए तो स्वर्ग का आनंद भी व्यर्थ है। प्रेम में डूबकर कविता लिखने वाले कवियों ने तो यहाँ तक कहा है कि जो प्रेम में भीगना नहीं जानता, वह विश्व का सबसे कंगाल व्यक्ति है।

वर्षा-ऋतु प्रेम में डुबोने वाली ऋतु है। प्रेम की अभिव्यक्ति में वर्षा की बूँद बहुत ही सहायक होती हैं। हल्की फुहारें भला किसे अच्छी नहीं लगती, क्या इसमें भीगकर हम कुछ भी महसूस नहीं करते? कोयल की कू-कू और पपीहे की पी-पी से जब हमारे आसपास का वातावरण गुंजायमान हो रहा हो, तब ऐसा कौन होगा, जिसे अपने प्रेम की याद न आए। बहुत ही सोच-समझकर ही कालिदास ने बादलों को अपना क़ासिद बनाया था, वे जानते थे कि इनसे बढ़कर और कोई नहीं है, जो मेरे हृदय की संवेदनाओं को मेरी प्रेयसी तक पहुँचा सके। ये जहाँ भी बरसेंगे, मेरी प्रेयसी समझ जाएगी कि इन बादलों में ही कहीं छिपा है, मेरे उस अपने का संदेशा। ये बरस जाएँ, तो मैं समझ जाऊँगी कि उन्होंने क्या संदेशा भिजवाया है।
बादलों के माध्यम से संदेशा भिजवाना, आज के इस इंटरनेट के युग में भले ही हास्यास्पद लगता हो, किंतु क्या सिर्फ इसी सोच के कारण हृदय की संवेदनाओं को शुष्क और नीरस किया जा सकता है? आज की पीढ़ी के पास इतना वक्त नहीं है कि वह अपना संदेशा भेजने के लिए बादलों की प्रतीक्षा करे। ई-मेल और मोबाइल के रहते आज संवेदनाओं की नदियाँ सूख रही हैं। लेपटॉप का इस्तेमाल करने वाला प्रेमी भला प्रेम-पत्र की गहराई क्या जाने? बंद लिफ़ाफ़े में से निकलने वाला छोटा सा कागज अपने आप में प्रेम का साम्राज्य लिए हुए होता है। इसकी जानकारी इंटरनेटिए प्रेमी को भला कहाँ होगी?
नए जमाने का अनादर हमें नहीं करना है, परंतु आषाढ़ के पहले दिन आकाश की ओर देखते हुए बादलों से यह प्रार्थना करें कि मेरे कंप्यूटर में वाइरस का आक्रमण हो गया है, हे बादल ! जिस तरह तू कालिदास के यक्ष का संदेशा ले गया था, उसी तरह अब तू मेरा मैसेज भी ले जा। तुझे तो वाइरस का टेंशन कहाँ है मेरे प्रिय बादल!
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ , कालिदास द्वारा बादलों के माध्यम से एसएमएस करने की जो प्रणाली खोजी गई थी, उस सिस्टम में इन कमिंग और आऊट गोइंग दोनों ही टोटल फ्री है। हर प्रेमी इस सिस्टम का लाभ उठा सकते हैं।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

सितारे और समाज


सुनील मिश्र
कुछ दिनों पहले एक चैनल में एक हृदय रोगी बच्ची के बारे में समाचार दिया जा रहा था कि बीमारी के हिसाब से चिकित्सा का खर्च चुकाने में असमर्थ बच्ची का परिवार इस बात के लिए हताश है कि उसकी प्राण रक्षा कैसे हो? इस पर अमिताभ बच्चन ने तुरन्त इस समाचार प्रसारण के बीच में ही उस चैनल से सम्पर्क कर उस बच्ची की चिकित्सा का सारा खर्च स्वयं वहन करने का मन्तव्य बताया। देखते ही देखते एक उदास खबर एक खुशनुमा खबर में तब्दील हो गयी कि अमिताभ बच्चन ने आगे बढ़कर अपनी संवेदना का परिचय दिया। अमिताभ ने तत्काल ही दो लाख पचास हंजार रुपए का चेक भी इलाज के लिए भिजवा भी दिया। ऐसा ही सलमान खान का भी ािक्र था कि मायस्थेनिया ग्रेविस से ग्रस्त मराठी के प्रख्यात दलित कवि नामदेव ढसाल को उन्होेंने इलाज के लिए अर्थ सहयोग प्रदान किया।
ऐसी खबरें से सवाल उठता है कि ऐसा आखिर कितने और कौन सितारे करते हैं? कौन सितारे चुपचाप करते हैं और कौन ढोल बजाकर? हमारे देखने में कितने बार ही आया है कि सितारों ने अपनी मुसीबतों से निजात पाने के लिए बेतहाशा धन देवालयों में चढ़ावे के रूप में चढ़ाया है। और बहुत से लोग सोना, जेवर, आदि के रूप में जिस तरह से अपना तमाम वैभव लुटाते हैं उसी के साथ-साथ समाज का ख्याल करते हैं ।

मुम्बइया सिनेमा में ऐसे उदाहरण कम हैं मगर दक्षिण के सिनेमा में इस तरह के उदाहरण बहुत सारे हैं। दक्षिण में सबसे विशिष्ट बात उल्लेखनीय यह है कि बड़े-बड़े सितारे सामाजिक उत्तरदायित्वों से सीधे जुड़े हैं और उनके सरोकार आम जनता से सीधे स्थापित हैं। ऐसे कलाकारों में शिवाजी गणेशन, रजनीकान्त, चिरंजीवी, कमल हासन, एस.पी. बालसुब्रमण्यम, मोहनलाल, मम्मूटी आदि कितने ही नाम लिए जा सकते हैं। एम.जी. रामचन्द्रन और एन.टी. रामाराव अपने ऐसे ही सामाजिक रिश्तों के कारण दक्षिण में देवताओं की तरह पूजे जाते थे। चिरंजीवी ने तो ऑंखों का एक बड़ा सा अस्पताल बनवा रखा है और पता नहीं कितने नेत्रों को ज्योति देने में अपना योगदान किया है। रजनीकान्त की उदारता की घटनाएँ तो इतनी हैं कि वे अपने यहाँ पूज्य हो गये हैं। दक्षिण भारतीय जनता के लिए इन कलाकारों से मिलना बेहद सहज होता है। दक्षिण भारतीय सितारे शीर्ष पर पहुँचकर भी ंजमीन पर रहते हैं ।

मुम्बइया सिनेमा के कई सितारे अर्जन के मोह से छुटकारा ही नहीं पाना चाहते। अच्छी खासी माली हालत होने के बावजूद रसूख वाले राज्यों में तमाम ज़मीन अर्जित कर लेना चाहते हैं। ंसिनेमा से जुड़े ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने स्टुडियो के नाम पर, इन्स्टीटयूशन के नाम पर, फिल्मसिटी के नाम पर इस तरह की ंजमीन जायदाद खूब इकट्ठी कर ली है। जिस काम के लिए उन्हें यह सम्पदा हासिल हुई वह काम तो एक तरफ ही रखा रह गया। इसके विपरीत राज्य में ही सार्थक कामों के लिए सरकार का मुँह ताकने वालों को हतोत्साहित बने रहना पड़ता है क्योंकि उनकी कोई सितारा छवि नहीं होती।

हालाँकि मुम्बइया सिनेमा के कई सितारे ऐसे हैं जिन्होंने निरपेक्ष भाव से समाज से अपना रिश्ता बनाया है। समय-समय पर आपदाओं में, मुसीबत में, हादसों में वे समाज की मदद के लिए आगे आये हैं मगर ऐसे सितारों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही होगी। कई सितारे समाज सेवा और संवेदना के नाम पर कुछ समय की सुर्खियाँ बनकर, पीठ दिखा दिया करते हैं। सुप्रसिध्द पार्श्व गायक स्वर्गीय मुकेश बेहद संवेदनशील इन्सान थे। वे सर्दी की रातों में देर से फिएट कार में अपनी पत्नी के साथ निकलते थे खूब सारे कम्बल लेकर। फिर उन्हें जो भी बिना चादर-कम्बल के ठिठुरता दिखायी देता था, उसे धीरे से जाकर ओढ़ा दिया करते थे। यह बात उनके बेटे नितिन ने बतायी। किशोर कुमार को कन्जूस कहा जाता था मगर उन्होंने ंजरूरतमन्द को ठोंक-बजाकर पहचान लेने के बाद लाखों रुपए बिना ढिंढोरा पीटे गरीबों, बीमारों और परेशानहाल लोगों में खर्च किए।

विवेक ओबेराय जैसे कलाकार अपनी सामाजिक प्रतिबध्दता का परिचय देने में कभी पीछे नहीं रहते। इसकी प्रेरणा उन्हें अपने पिता से मिली है। कुछ वर्षों पहले सुनामी तूंफान ने महाविनाश मचाया था, तब विवेक ने समुद्री तूंफान पीड़ितों के बीच महीनों रहकर काम किया था। उन्होंने तो पुनर्वास के लिए गाँव भी गोद लिए थे और अपने कैरियर को ताक पर रख दुखियों और विपदाग्रस्त लोगों की सेवा की थी। गुजरात में भूकम्प के समय आमिर खान और अमिताभ बच्चन के भी कुछ गाँवों को गोद लिए जाने की खबरें थीं मगर वहाँ इनका कितना योगदान रहा, इसका उदाहरण समाज से सामने प्रचारित ही नहीं हुआ। भूख और गरीबी से बाबस्ता रहे मिथुन चक्रवर्ती की दयालुता के तमाम किस्से हैं।
कलाकारों को सितारा कहा जाता है क्योंकि वे आसमान पर रहते हैं और समाज का अस्तित्व ंजमीन पर होता है। ऐसे दो विरोधाभासों का मिलना दुरूह ही माना जाएगा मगर विरले सितारे ऐसे होते हैं जिनका कर्म ऐसी दूरी को पाटना होता है और वे ऐसा कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देते। यह बात क्या उन तमाम कलाकारों को झकझोरती नहीं, जो आज के चलन में गहरे रंग वाले काँच का चश्मा पहनकर ही समाज के बीच नंजरें झुकाए आया-जाया करते हैं? क्या इस अहंकार, इस झेंप को मिटाने कोई पहल उनके भीतर से उन्हें उकसाती नहीं?
सुनील मिश्र
smishr@gmail.com

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