मंगलवार, 22 जुलाई 2008

झूठ बोलते विज्ञापन


डॉ. महेश परिमल
ये विज्ञापन का युग है. हर चीज बिकती है विज्ञापनों के सहारे. उस दिन जब टी.वी. पर झाड़ू का विज्ञापन देखा, तो माथा ठनक गया. क्या ंजमाना आ गया है, अब झाड़ू के विज्ञापन भी टी.वी. पर देखो. अगर विज्ञापन में दम हो, तो क्या नहीं बिक सकता? सब कुछ बिक सकता है. विज्ञापन चाहे मिट्टी का ही क्यों न हो, अगर बेचने वाले में दम है, तो वह भी बिक जाएगी.
आज विज्ञापनों का महाभारत हमारे देश में हो रहा है. कंपनियाँ एक से एक चींजें बांजार में ला रही हैं. उनका तो यह भी दावा है कि अगर आपने उनके उत्पाद को नहीं खरीदा, तो आप आधुनिकता की इस दौड़ में सबसे पीछे रह जाएँगे. विज्ञापनों का चक्रव्यूह अभेद्य है, इससे कोई नहीं बच सकता. आज के बच्चे भी अभिमन्यु की तरह माता के गर्भ में विज्ञापन सुनते हैं. पैदा होकर वे यह तो नहीं बता पाएँगे कि इसे कैसे खरीदा जाए, बल्कि उसे किस प्रकार चलाया जाता है या उपयोग में लाया जा सकता हैं, यह अवश्य बता देंगे. आज के बच्चे चक्रव्यूह तो नहीं तोड़ पाते हैं, बल्कि खुद को ही तोड़ कर रख देते हैं, इन विज्ञापनों के चक्रव्यूह में.
हम भी किसी से कम नहीं हैं. टी.वी. पर हमारा प्रिय नायक जिसकी प्रशंसा कर रहा है, तो निश्चित वह चींज अच्छी ही होगी. आखिर उसकी वकालत हमारा नायक कर रहा है. वह भला कैसे ंगलत हो सकता है? उसने उस विज्ञापन से करोड़ों कमाए हैं, यह हम जानना ही नहीें चाहते. हम तो केवल उसकी बताई चींजे ही खरीदेंगे. उसे हम नहीं लेंगे, तो हमारा पड़ोसी ले लेगा, फिर हम तो पीछे रह जाएँगे. ऐसे भला कैसे हो सकता है? यहाँ आकर हम भूल जाते हैं कि विज्ञापनों का संसार कौरवों की सेना की तरह है, हम उनका माल खरीदकर उसी को बढ़ावा दे रहे हैं.
अब आइए विज्ञापनों की असलियत पर. हमारे सपनों का नायक इतराते हुए जूते पहनता है, हम भी वैसा ही जूता ले आते हैं, दो दिन बाद ही उसका सोल जूते से नाता तोड़ लेता है, हमारी आत्मा का साक्षात्कार परमात्मा से हो जाता है. हम कुछ नहीं कर सकते. बालों का काले और लम्बे करने वाले बहुत से तेल आ रहे हैं, जो बहुत ही शुध्द होने का दावा करते हैं, पर हमारे सर पर जाते ही वह तेल विज्ञापन वाला काम नहीं कर पाता. हमारी खल्वाट बढ़ जाती है और खोपड़ी की जड़ों से सफेदी झाँकने लगती है.
यहाँ तक तो ठीक है, हम गंजे हो गए, हमने जूते पहनना छोड़ दिया. अब बच्चों को कैसे समझाया जाए, जब वह देखता है कि शेविंग करता आदमी अपने मोबाइल पर कहता है कि जरूरी मीटिंग में हूँ. अब उस मासूम को कैसे बताया जाए कि वह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है. पर बच्चे को वही सच लग रहा है. अब हम उसके लिए सच की सही परिभाषा कहाँ से लाएँ? कार से उतरकर व्यापारी जब अपने मोबाइल पर कहता है कि ग्राहक सर पर खड़ा है, माल जल्दी भेजो. ये कौन-सा सच है, कोई बता सकता है. क्या ऐसा नहीं लगता कि हम एक ऐसे रचना संसार में विचर रहे हैं, जिसका सच से कोई वास्ता नहीं. झूठ और फरेब की एक दुनिया है, जहाँ हम अपनी साँसों को भी अपनी नहीं कह सकते. हम अपने देशको राष्ट्र कहते हैं, पर विज्ञापन वाले इसे छोटा साबित कर महाराष्ट्र का ही नहीं, बल्कि सौराष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं.

हमारे देशकी बहुत बड़ी आबादी अभी-भी भरपेट भोजन प्राप्त नहीं कर पा रही है. वित्तमंत्री के ऑंकड़े कुछ भी बोलते हों, पर यह सच है कि ंगरीब बहुत ही ज्यादा ंगरीब है और अमीर बहुत ही ज्यादा अमीर. ंगरीबों की साँसें भी उधार की होने लगी है. उनके पास तो आटे में पानी अधिक हो जाने के बाद उससे रोटी कैसे बनाई जाए, इसका भी आइडिया नहीं है. कोई विज्ञापन वाला ऐसा तो कुछ भी नहीें बताता. उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि एक ंगरीेब की भूख कितनी रोटी की होती है? क्योंकि उसने भरपेट कभी खाना ही नहीं खाया. जब भी उसे भोजन मिला, उससे भीतर की ऑंतों का हाहाकार कुछ कम हुआ. पर ऑंतों का चित्कार कभी कम नहीं हुआ.
क्या कभी ऐसा विज्ञापन भी टी.वी. पर आएगा, जिसमें यह बताया जाएगा कि एक गोली लो और अपनी भूख हमेशा के लिए खत्म कर लो. या फिर इस दवा के पीने से किसी भी पिता को यह बेटी के बड़े होने का ंगम नहीं सताएगा. इस कपड़े को पहनने के बाद किसी भी लाचार बहू-बेटी को अपना तन बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस गोली के खाते ही पिता के बलंगम के साथ आने वाला खून अब बंद हो जाएगा.
ये विज्ञापन हमें राह क्यों नहीं दिखाते? सदैव भटकाते ही क्यों हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विज्ञापन दिखाने के पहले यह बता दिया जाए कि ये विज्ञापन केवल अमीरों के लिए हैं, कृपया जो ंगरीब हैं, वे इसे न देखें. आज विज्ञापन हमारे मानस पटल पर चोट करते हुए हमारे आर्थर्िक धरातल को कमजोर कर रहे हैं. मानसिक ंगुलामी की ओर ले जाते ये विज्ञापन हमें भीतर से खोखला कर रहे हैं. इसके लिए कोई आगे नहीं आता. न ंगरीबों के लिए काम करने वाली सरकार, न ंगरीबी का मंजाक उड़ाकर वोट बटोरने वाले नेता. क्या हमें इतना भी हक नहीं कि हम ये जान सकें कि विज्ञापन के रूप में आज जो कुछ भी हमारे सामने परोसा जा रहा है, वह किस दुनिया का सच है? किस संस्कृति का परिचायक है? आखिर ये कौन-सी दुनिया है, जहाँ के लोगों को सब-कुछ इतना अच्छा और भला लगता है कि चंद लमहों में ही पूरी दुनिया ही बदल जाती है. है कोई अर्थशास्त्री जो इसका गणित समझा सके या फिर है कोई ऐसा पथ प्रदर्शक जो इस बटोही इनकी दुनिया का भूगोल बता सके?
डॉ. महेश परिमल

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