सोमवार, 25 अप्रैल 2022

मुफ्तखोरी एक धीमा जहर


दैनिक जागरण में राष्ट्रीय संस्करण के संपादकीय पेज पर 25 अप्रैल 2022 को प्रकाशित



  


 मुफ्तखोरी एक धीमा जहर

डॉ. महेश परिमल

हाल ही में दिल्ली में एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि सरकार द्वारा मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं के कारण अब लोग पेट की आग बुझाने के लिए श्रम करने से कतराने लगे हैं। खाली समय का उपयोग वे अब अपराध में करते हैं। ऐसे लोग काम की तलाश में नहीं निकलते। इनका अधिकांश समय गप्पबाजी में निकल जाता है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे व्यक्ति की उत्पादकता पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि उसे अपना जीवन गुजारने के लिए अधिक धन की आवश्यकता ही नहीं होती। इसे ही यदि दूरदृष्टि से देखा जाए, तो यह कहा जा सकता है कि हमारे यहां जिस तरह का बीज अभी बोया जा रहा है, श्रीलंका में उसकी कटाई हो रही है। मुफ्त में तमाम सुविधाएं देने वाले राज्यों से यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर इसके लिए वे वित्तीय प्रबंध किस तरह से करेंगे? राज्य अगर किसी गृह उद्योग के लिए मुफ्त में शेड देता हे, या बिजनेस के लिए बिना ब्याज के कर्ज देता है, तो इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। किंतु जीवन के लिए आवश्यक चीजों को मुफ्त में देने की घोषणा की जाती है, तो व्यक्ति काम की तलाश में घर से ही नहीं निकलेगा। ऐसे में पूरी एक पीढ़ी को ही काहिल बना दिया जाएगा।

अभी पंजाब सरकार ने मतदाताओं के लिए कई घोषणाएं की हैं। इसमें प्रमुख है एक जुलाई से 300 यूनिट मुफ्त बिजली। अन्य कई घोषणाएं भी हैं, पर सभी जनोपयोगी हैं। यह तो होना ही चाहिए, पर मुफ्त बिजली देकर सरकार आम जनता को एक मायावी संसार में धकेल रही है। हम सब देख रहे हैं कि अधिकांश राज्य आज कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। आम जनता से करों से प्राप्त धन मुफ्त की चीजों को देने में खर्च हो रहा है। राज्य सरकारों को यदि मुफ्त की चीजें देना ही है, तो पार्टी फंड से दिया जाए, सरकारी धन का उपयोग मुफ्तखोरी के लिए देना उचित नहीं है। इससे सरकारी तिजोरी पर भार बढ़ता है। जनता को कितनी भी चीजें मुफ्त में दी जाए, उस कम ही लगेगी। इससे सरकारें बहुत ही जल्दी कर्ज में डूब जाएंगी। कर्ज के पहाड़ के नीचे दब श्रीलंका की हालत हम सभी देख रहे हैं। कर्ज लेते समय उसे यह आभास भी नहीं था कि इसे देना भी पड़ेगा। चीन ने जो जाल उस पर फेंका, उसमें वह उलझ गया है। अब उसे समझ में आ रहा है कि मुफ्त की चीजें देना उसके लिए जी का जंजाल बन गया है। आज वहां सभी आवश्यक चीजों के दाम आसमान छूने लगे हैं। लोगों का जीना ही दूभर हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब वहां भुखमरी शुरू हो जाएगी। भारत का इससे सबक लेना चाहिए। आम जनता को मुफ्त में चीजें देने से अर्थतंत्र पर सीधा असर पड़ता है। एक तरफ देश में फैला भ्रष्टाचार तो दूसरी तरफ मुफ्तखोरी, इससे लोगों की उत्पादकता पर सीधा असर हुआ है। लोग काम करने से कतराने लगे हैं।

देश में इस समय जो प्रदूषण है, उसका मुख्य बिंदु राजनीति है। नेता अपने स्वार्थ के कारण लोगों को मुफ्त में अनाज आदि देने की घोषणा तो कर देते हैं, पर जब उस पर अमल करने का समय आता है, तो उनकी हालत खराब हो जाती है। सरकारें केंद्र से सहायता की गुहार लगाती है। केंद्र से मिलने वाली सहायता राशि का ब्याज ही इतना अधिक होता है कि राज्य सरकारें ब्याज भी नहीं चुका पाती। मूल धन वहीं का वहीं रहता है। वैसे देखा जाए, तो मुफ्त की सुविधाएं देने का सिलसिला तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के समय से शुरू हुआ था। उसके पदचिह्नों पर आजकल दिल्ली की सरकार चल रही है। अब तो चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की सुविधाएं देना एक ब्रह्मास्त्र बन गया है। इसके बिना कोई भी चुनाव नहीं जीता जा सकता।

बहरहाल किसी भी दल में यह हिम्मत नहीं है कि वह दूसरे दल से यह कह सके कि मुफ्त में आवश्यक चीजें देने की घोषणा करना गलत है। सभी सत्ता पर काबिज होने के लिए इस तरह की घोषणाएं करते हैं। अभी फरवरी-मार्च महीने में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उस दौरान गोवा में मुफ्त की चीजें देने की बहार ही आ गई। मतदाताओं को इतने अधिक प्रलोभन दिए गए कि यदि सभी को अमल में लाया गया, तो किसी को नौकरी करने की जरूरत ही न पड़े। मतदाताओं को जितना दो, उतना कम ही है। पर यह सब उन तक पहुंचता है, सरकारी तिजोरियों के माध्यम से। कुछ समय बाद ही यह तिजोरी खाली हो जाती है। फिर भीख मांगने की नौबत आ जाती है। उसके बाद भी मुफ्त में दी जाने वाली चीजों पर रोक नहीं लगती। 

इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार तल्ख टिप्पणी की है। पर नेता इससे बाज नहीं आते। प्रलोभन की यह राजनीति खत्म होनी चाहिए। इसके लिए सबसे बड़ी बात जागरूकता की है। आम जनता को यह समझना चाहिए कि मुफ्त की यह चीजें अभी भले ही अच्छी लग रही हों, पर भविष्य में इसका बुरा असर होगा। देश के सर पर कर्ज और बढ़ेगा, लोग महंगाई के बोझ तले दब जाएंगे। होना तो यह चाहिए कि मुफ्त की चीजें यदि पार्टी फंड से दी जाएं, तो नेताओं को समझ में आ जाएगा कि इसमें कितना धन लगता है। इस समय सभी दलों के पास बेशुमार राशि है, इसका उपयोग मतदाताओं को लुभाने के लिए किया जाए। यह फंड भी उन्हें देश के लोगों से ही प्राप्त हुआ है, तो क्यों न इसे वे देशवासियों के लिए ही उपयोग में लाएं।

यह सच है कि मुफ्तखोरी से किसी का भला नहीं होने वाला। अब यह लोगों की आदत में शामिल हो रही है। यह एक प्रदूषण है, जो हमारे शरीर के लिए धीमे जहर का काम कर रहा है। हमारे भीतर के मेहनतकश इंसान को खत्म कर रहा है। जब बिना काम के घर में राशन आ रहा हो, तो फिर काम करने की क्या जरूरत? यह सोच इंसान को बरबाद कर रही है। नेता शायद ही इसे समझ पाएं, पर जनता इसे समझ जाए, तो ही ठीक है, नहीं तो हम सभी को अपने अंधेरे भविष्य को देखने के तैयार होना होगा।

डॉ. महेश परिमल


बुधवार, 20 अप्रैल 2022

दूर करनी होगी पेड़ों की थकान

वायु प्रदूषण से अकाल मौतें चिंतनीय


कहा गया है कि वायु को शुद्ध करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर लगता है कि अब हमारे देश के ही नहीं, बल्कि विदेशों के पेड़ भी थकने लगे हैं। वे हमें जो प्राणवायु दे रहे हैं, उसमें वह बात नहीं रही। हमारा पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है। हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं। शोध बताते हैं कि वायु प्रदूषण से जो लोग मौत के शिकार हुए हैं, वे समय से पहले मौत के आगोश में समा गए हैं। समय से पहले हुई मौत को अकाल मौत कहा जाता है। हमारे देश में रोज ही कई लोगों की अकाल मौतें होती हैं। इसमें कई कारण तो निजी हैं। पर वायु प्रदूषण से होने वाली मौत के लिए मौत का शिकार व्यक्ति अकेला ही जिम्मेदार नहीं है। एक पूरी पीढ़ी ही इसके लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है। इस देश में जिस दिन पेड़ों की संख्या इंसानों की संख्या से दोगुनी हो जाएगी, उस दिन से वायु प्रदूषण का नामो-निशान नहीं होगा।  

हाल ही में एक शोध से पता चला है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के आंकड़ों में बेतहाशा इजाफा हुआ है। शोध में देश के मुम्बई, बैंगलोर, कोलकाता, हैदराबाद, चैन्नई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद को शामिल किया गया। इन शहरों में वायु प्रदूषण से करीब एक लाख लोगों की मौत हुई है। यह जानकारी चौंकाने वाली है। सरकार की तमाम कोशिशें इन आंकड़ों के आगे लाचार नजर आती हैं। पर्यावरणविद् लम्बे समय से सरकारों को आगाह कर रहे हैं कि इस दिशा में ठोस कदम उठाएं जाएं, पर उनकी कोई सुन ही नहीं रहा है। बर्मिघम विश्वविद्यालय और यूसीएल के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि तेजी से बढ़ते उष्णकटिबंधीय शहरों में 14 वर्षो में लगभग 1,80,000 परिहार्य मौतें वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ने के कारण हुई।

साइंस एडवांस में 8 अप्रैल को प्रकाशित, अध्ययन से वायु गुणवत्ता में तेजी से गिरावट और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक वायु प्रदूषकों के शहरी जोखिम में वृद्धि का पता चलता है। शोधकर्ताओं ने हवा की गुणवत्ता में इस तेजी से गिरावट के लिए उभरते उद्योगों और आवासीय स्रोतों- जैसे सड़क यातायात, कचरा जलाने और लकड़ी का कोयला और ईंधन लकड़ी के व्यापक उपयोग को जिम्मेदार ठहराया। बर्मिघम विश्वविद्यालय में यूसीएल भूगोल के छात्र कर्ण वोहरा   ने बताया कि भूमि निकासी और कृषि अपशिष्ट निपटान के लिए बायोमास के खुले में जलने के कारण उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का अत्यधिक प्रभुत्व रहा है।

शोध के अनुसार, वायु प्रदूषण के संपर्क में आने पर समय से पहले मरने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि दक्षिण एशिया के शहरों में सबसे अधिक है, विशेष रूप से बांग्लादेश में ढाका में कुल 24 हजार लोग और मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद जैसे भारतीय शहरों में कुल एक लाख लोग अकाल मौत के शिकार हुए हैं। देश के 125 प्रदूषित शहरों में मेरठ शहर का भी नाम आया। रविवार 10 अप्रैल  को एयर क्वालिटी इंडेक्स बढ़कर 364 पर पहुंच गया। जो यह बताता है कि हालात बहुत ही खराब हैं। लगातार खराब होती हवा के कारण लोगों को सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है। 

हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों और वायु प्रदूषण के बीच संबंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का संबंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने से है। इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया, जहां हानिकारक प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। एक अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। 

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अब पूरे विश्व में वायु को शुद्ध करने का महाभियान चलाने का समय आ गया है। इस कार्य में बिना किसी भेदभाव के सभी देशों को एकजुट होना होगा। आपसी कटुता को दूर रखकर वायु प्रदूषण को दूर करने के सामूहिक प्रयास करने होंगे। यह सच है कि भविष्य भले ही ऑक्सीजन सिलेंडर रखकर चलने का हो, पर ऐसी नौबत आने ही क्यों दी जाए। भावी पीढ़ी को यह बताना होगा कि थके पेड़ों को नई ऊर्जा वही दे सकती है। जिस तरह से घर में बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है, ठीक उसी तरह हमारे आसपास के पेड़ों की भी उपेक्षा हो रही है। पेड़ों को अपना साथी मानने का समय आ गया है। उन्हें अब घर का प्रमुख सदस्य मान लेना होगा, क्योंकि भविष्य अंधकारमय है। इस अंधेरे को दूर करने में पेड़ अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं।

डॉ. महेश परिमल


शनिवार, 16 अप्रैल 2022

डिजिटल म्युजियम यानी भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों की जानकारी

 

14 अप्रैल 2022 को लोकस्वर में प्रकाशित





डिजिटल म्युजियम यानी भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों की जानकारी
देश में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें से सबसे अधिक चर्चित यदि किोई रहे हैं, तो वे हैं जवाहर लाल नेहरू। शेष प्रधानमंत्रियों की चर्चा उतनी नहीं होती। आज की पीढ़ी नेहरू को बतौर प्रधानमंत्री जानती है, पर लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह, हरदन हल्ली डोड्‌डेगौड़ा देवगौड़ा को नहीं जानती। इन्हें यदि जान भी जाए, तो कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में दो बार कार्य करने वाले गुलजारी लाल नंदा को कोई नहीं जानता। ऐसे में युवा पीढ़ी हमारे देश के सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों को न भूले, उनके भाषण को याद रखे, इसके लिए पूर्व प्रधानमंत्रियों की याद को संजोने के लिए नेहरू मेमोरियल म्युजियम एवं लायब्रेरी का निर्माण किया गया है, जिसका उद्घाटन 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। यह एक अच्छा प्रयास है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रयास की सराहना भले ही न हो, पर इसका विरोध निश्चित रूप से होगा, यह तय है। इसके पहले यह घोषणा की गई थी कि 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिन पर इस म्युजियम का उद्घाटन किया जाएगा। किंतु अब इसे बाबा साहेब अंबेडकर के जन्म दिवस पर सभी के लिए खोल दिया जाएगा। इस म्युजियम के माध्यम से यह बताने की कोशिश की जाएगी कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों की क्या-क्या उपलब्धियां रहीं। उनके विचार कैसे थे। देश के बारे में उनकी क्या सोच थी आदि। केंद्र के सांस्कृतिक एवं पर्यटन मंत्री जी कृष्णा रेड्‌डी ने बताया कि म्युजियम अब पूरी तरह से तैयार है। इस प्रोजेक्ट की लागत 226.20 करोड़ है। इसका बजट 271 करोड़ रुपए था। इसमें कांटेक्ट जेनरेशन, डिस्पले, टेक्नालॉजी आदि का समावेश किया गया है। डिजिटल स्टोरी, थ्री डी मेपिंग टेकनिक, ऑडियो, विजुअल प्रोजेक्शन, होलोग्राम आदि आकर्षण का केंद्र होंगे।
तीन मूर्ति भवन के बाजू में ही स्थित है नेहरू मेमोरियल म्युजियम। दस हजार वर्गमीटर भूमि पर तैयार इस म्युजियम में पूर्व प्रधानमंत्रियों की तस्वीरें, स्पीच, वीडियो क्लीप, समाचार पत्र, साक्षात्कार आदि उपलब्ध हैं। इसके अलावा उनका जीवन चरित्र, उनके विदेश प्रवास की जानकारी भी होगी। पहले यह योजना थी कि इसका उद्घाटन 2020 में किया जाए, किंतु कोविड महामारी के कारण यह संभव नहीं हो पाया। तीन मूर्ति भवन 1930 में अंग्रेजों ने बनवाया था। बाद में यह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निवास स्थान हो गया। नेहरु जी वहां 1964 तक रहे। हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की किताब के विमोचन समारोह के प्रसंग पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह टिप्पणी की थी कि कुछ विघ्नसंतोषियों ने यह प्रयास किया है कि देशवासी पूर्व प्रधानमंत्रियों को भूल जाएं। उनकी मंशा यह थी कि लोग हमारे किसी भी पूर्व प्रधानमंत्रियों को याद न करें। इस दौरान मोदी ने सभी प्रधानमंत्रियों के नामों का उल्लेख किया, किंतु उन्होंने जवाहर लाल नेहरू का नाम नहीं लिया।
हमारे देश में नेताओं ने पूर्व प्रधानमंत्रियों की गलतियों का जमकर प्रचार-प्रसार किया है। इससे वे वोट बटोरने में भी कामयाब हुए हैं। इसके बाद भी कई प्रधानमंत्रियों के नामों का उल्लेख तक नहीं किया जाता। लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह, एच.डी.देवगौड़ा आदि का नाम प्रधानमंत्री के रूप में नहीं लिया जाता। आज की पीढ़ी को हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों से रू-ब-रू कराने के लिए इस म्युजियम की स्थापना की गई है। इस म्युजियम के उद्घाटन के अवसर पर दो पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा और डॉ. मनमोहन सिंह को भी आमंत्रित किया गया है। देखा जाए, तो यह म्युजियम आज की पीढ़ी के लिए मील का एक पत्थर साबित होगा। युवा पीढ़ी हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों को अच्छी तरह से जानेगी, ऐसी आशा की जा सकती है।
डॉ. महेश परिमल 



मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

गिरते विचारों का मौसम

11 मार्च  2022 को जनसत्ता में प्रकाशित


10 अप्रैल 22 को नवभारत रायपुर में प्रकाशित



चिड़िया...कवि और व्यथा

समाज पर सांस्कृतिक हमले होते ही रहते हैं। इससे सबसे ज्यादा दु:खी कवि हृदय होता है। समाज का यही वर्ग सबसे अधिक संवेदनशील होता है। इसलिए ऐसे हमलों से इनका आहत होना लाजिमी है। इन दिनों छत्तीसगढ़ के रसखान कहे जाने वाले लोक कवि मीर अली मीर बुरी तरह से आहत हैं। उनकी पीड़ा हाल ही में जारी एक वीडियो से जारी हुई है। एक तरफ तो वे सुदूर गांवों में लगने वाले मोबाइल टॉवर से व्यथित हैं। इन टॉवर्स से निकलने वाले विकिरण से गांवों से चिड़ियों ने विदा ले ली है। अब गांवों में पखेरुओं का डेरा दिखाई नहीं देता। हर गांव-शहर की सुबह अब चिड़ियों की चहचहाट से नहीं, बल्कि मोबाइल ने निकलने वाली चिड़ियों की आवाज से होती है। कहते हैं समय परिवर्तनशील है, पर समय के साथ जीवन मूल्य भी इतनी तेजी से बदल जाते हैं, यह अब महसूस हो रहा है।

कवि मीर अली मीर लुप्त होती चिड़ियों को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- उड़ा जाही का रे, उड़ा जाही का रे, उड़ा जाही का, कलरव करैया, फुदुर-फुदुर फुदके चिहुर परैया, मोर सोनचिरैया, उड़ा जाही का रे...यानी उड़ जाएगी क्या, उड़ जाएगी क्या, चहचहाने वाली, फुदकने वाली मेरी सोन चिरैया हमेशा-हमेशा के लिए उड़ जाएगी क्या? ये केवल एक कवि की ही पीड़ा नहीं है, बल्कि आज पर्यावरण के सभी साथियों के लिए चिंता का विषय है। आज मानवजाति पर संचार व्यवस्था के संसाधन बुरी तरह से हावी हो गए हैं। परस्पर सम्पर्क रखने की चाहत ने आज संपूर्ण मानव जाति को ही हिलाकर रख दिया है। कई बार ऐसा लगता है कि मानव निरक्षर था, तो ही ठीक था, कम से कम अपनी जिंदगी जी तो लेता था। आज अतिशिक्षित होकर वह न तो अपनी जिंदगी जी पा रहा है और न ही अपनों को अच्छी तरह से जीने की प्रेरणा दे पा रहा है। संशय का एक संजाल हमारे आसपास फैल गया है, जिसमें हर कोई उलझ गया है।

छत्तीसगढ़ के कवि का वीडियो आया, तो उसकी पीड़ा समझ में आई। इसके पहले उनकी यह कविता कहीं प्रकाशित भी हुई होगी, पर लोगों की नजरों से नहीं गुजरी। अब वीडियो के माध्यम से लोगों ने उसे जाना और उनकी पीड़ा को समझा। कवि मीर अली मीर की पीड़ा आज घनीभूत होकर हम सबको सोचने के लिए विवश कर रही है। वास्तव में यह आज देश के जन-जन की पीड़ा है। बस इसे अभिव्यक्त करने का माध्यम नया है। आज देश के कोने-कोने में लोग धरती की पीड़ा को शब्द देने का प्रयास कर रहे हैं, पर कितनों की पीड़ा इस तरह से सामने आई? वे सोन चिरैया की लुप्त होती प्रजाति के लिए चिंतित हैं। 

धूप दिनों-दिन तीखी होती जा रही है। शहरों के दूर वीरानों में इक्का-दुक्का चिड़ियाएं दिखाई दे जाती हैं। घर की मुंडेरों पर चिड़िया दिखाई नहीं देती। घरों की गैलरियों में आजकल नेट लगा दिए गए हैं, जहां चिड़ियों का प्रवेश वर्जित है। उनकी चहचहाट पर हम रोक लगा रहे हैं। हां, बाजारों में चिड़ियों को दाना देने के लिए कुछ उपकरण अवश्य दिखाई देने लगे हैं। ये उपकरण आजकल कुछ घरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। ध्यान से देखने पर उन उपकरणों में न तो दाना मिलता है और न ही पानी।

20 मार्च को हम गौरैया दिवस मनाते भी हैं। पर उस दिन के बाद कौन याद करता है चिड़ियों को? यदि थोड़ी-बहुत चिड़ियाएं शेष हैं, तो उनके दाना-पानी की व्यवस्था के लिए कितने लोग सचेत हैं? वैसे भी हमारे देश में दिवस केवल दिवस को ही याद किए जाते हैं। कई ऐसे दिवस भी हैं, जिस दिन उस दिवस के नाम पर केवल नाटकबाजी ही होती है। सच्चाई से उसका कोई वास्ता नहीं होता। बहरहाल हम सब महामारी के भीषण दौर से गुजर रहे हैं, जहां इंसानियत के नाम पर रोज ही नाटकबाजी हो रही है। ऐसे में इंसान की क्या औकात? जब इंसान की औकात नहीं है, तो फिर किसे फिक्र है, चिड़ियों को बचाने की? कवियों की पीड़ा, पर्यावरण प्रेमियों की पीड़ा के लिए आखिर किसके पास समय है़?


सोचता हूं भावी पीढ़ी को हम अपने पर्यावरण के बारे में कैसे और क्या बताएंगे? उन्हें चिड़ियों की चहचहाट सुनाने के लिए क्या हमें मोबाइल का सहारा लेना होगा? जंगली जानवरों की आवाज और उनकी आदतों के बारे में वे क्या केवल किताबों या फिर इंटरनेट के माध्यम से ही जान पाएंगे। हमने तो अपने बच्चों को बता दिया कि चिड़ियाएं कैसी होती हैं, उनकी आवाज कैसी होती है, पर वे अपने बच्चों को किस तरह से बताएंगे? हमारी भावी पीढ़ी हम पर किस तरह से गर्व करेगी? आज हम अपने माता-पिता या दादा-दादी, नाना-नानी को याद कर उनकी बातों पर गर्व कर सकते हैं। पर हम भावी पीढ़ी के लिए ऐसा क्या छोड़कर जाएंगे, जिससे उन्हें हम पर गर्व हो? हमने तो केवल बरबादियों का जश्न मनाते देखा है, तो फिर उन्हें कैसे बताएंगे कि चिड़िया कैसे फुदकती थी, कबूतर कैसे गुटरुं गूं करते थे। हिरण कैसे कुलांचे मारते थे, सिंहों का गर्जन कैसा होता था? अरे देखते ही देखते हमारे शब्दकोश से कांव-कांव वाला मुहावरा ही गायब हो गया। हम खामोश होकर शून्य में ताक रहे हैं। इस विजन में चारों तरफ अब हरियाली नहीं, बल्कि कंक्रीट के जंगल ही जंगल दिखाई दे रहे हैं। इन जंगलों में कहीं भी संवेदनाओं की हरी कोंपल तक दिखाई नहीं देती। भावनाओं की लहलहाती फसलों की बात ही छोड़ दो। किसान भरपूर निगाहों से अपने खेत को नहीं देख पाता, खलिहान खुद के लबालब होने का इंतजार कर रहे हैं। सुना है, नदी के पेट को चीरकर बांध बनाने की योजना बन रही है। शहरों के पेट में समाए गांव और बांधों के पेट में समा गई नदियां, ऐसे ही गुज़र जाएंगी सदियां….

डॉ. महेश परिमल




 

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