शुक्रवार, 31 मई 2013

कब तक जान लेगा तम्‍बाखू





विश्‍व धूम्रपान निषेध दिवस पर आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 15 मई 2013

आंध्र प्रदेश से बही बयार


आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


आंध्र प्रदेश से बही बयार
डॉ. महेश परिमल
 फिल्म ‘सिंघम’ का वह दृश्य याद होगा, जिसमें सारे पुलिस कर्मचारी यह तय करते हैं कि अब हम जो भी काम करेंगे, अपने अधिकारियों के कहने पर ही करेंगे। पुलिस स्टेशन के सारे फोन बंद कर दिए जाते हैं। ताकि किसी मंत्री या नेता का फोन न आने पाए। कुछ ऐसा ही हाल ही में हुआ है। जब आंध्र के डीजीपी ने साहस पूर्वक पुलिस की बदली में किसी मंत्री या नेता का कहना नहीं माना। पुलिसकर्मियों के मनचाही पोस्टिंग के लिए मंत्री एवं विधायकों की सिफारिशों को डीजीपी ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया। डीजीपी की इस कार्रवाई से मंत्रियों एवं नेताओं में खलबली है। एक और मामले में शिक्षकों के तबादले एवं नियुक्ति में भी शिक्षा विभाग के प्रमुख राजेश्वर तिवारी ने भी मंत्रियों, सांसदों एवं विधायकों की सिफारिशों को अमान्य करते हुए अपने विवेक से काम लिया है। इसे आज की लिजलिजी व्यवस्था के खिलाफ एक छोटी सी चिंगारी ही कहा जाएगा, पर सच यही है कि यही चिंगारी भविष्य में दावानल का रूप ले सकती है।
आंध्र प्रदेश में एक अनापेक्षित घटना में राज्य के डीजीपी दिनेश रेड्डी ने राज्य भर में 50 से अधिक उेप्युटी सुप्रीन्टेडेंट का एक साथ तबादला कर दिया गया है। वैसे डीजीपी को यह अधिकार भी है कि वे जिसे चाहें, जहां चाहें तबादला कर सकते हैं। लेकिन ऐसा वहां पहली बार हुआ है कि पुलिस तबादलों के पहले उनके पास आई तमाम मंत्रियों एवं विधायकों की सिफारिशों को अमान्य कर दिया। अभी तक गृहमंत्री सविता रेड्डी, वित्त मंत्री रामनरायण रेड्डी, पर्यटन मंत्री वसंत कुमार और एवं अन्य मंत्रियों और रसूखदार सांसद अपने हिसाब से अपनों को मनचाही जगह पर पोस्टिंग करवा देते थे। पर इस बार ऐसा नहीं हो पाया। जिससे पूरे राज्य में एक तरह से सन्नाटा छा गया है। डीजीपी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि राज्य के तमाम मंत्री, सांसद एवं विधायक भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। ऐसे में यदि उनके हिसाब से पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग की जाती, तो भ्रष्टाचार को और अधिक बढवा मिलता। इसलिए इस बार उन्होंने स्वयं को प्राप्त अधिकारों का उपयोग करते हुए तमाम रसूखदारों की सिफारिशों को अमान्य करते हुए अपने विवेक का इस्तेमाल किया।
इस संबंध में एक आईएएस अधिकारी ने बताया कि अब हम बिना कानून के नियमों का अमल कर पाप के भागीदार नहीं बनना चाहते। रसूखदारों के कहने पर हमें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता रहा है। इस बार हमने वही किया, जो नैतिक दृष्टि से सही है। इसी तरह शिक्षकों के तबादले को लेकर शिक्षा विभाग के प्रमुख राजेश्वर तिवारी ने भी तमाम रसूखदारों की सिफारिशों को ताक पर रखकर अपने विवेक का इस्तेमाल किया। आंध्र में चली बदलाव की यह बयार भ्रष्टाचार के खिलाफ एक छोटी से जंग है। जंग भले ही छोटी हो, पर यदि ऐसा सभी राज्यों में हो, तो निश्चित रूप से एक क्रांति का जन्म हो सकता है। आज देश का कोई भी विभाग राजनीति के दखल से नहीं बच पाया है। हर जगह सिफारिशों का दौर जारी है। लोग अपनी मनचाही जगह पर जाने के लिए अपार धन भी लुटाने को तैयार रहते हैं। ऐसे में जनता के प्रतिनिधि आगे आकर अपने रसूख का इस्तेमाल कर काफी कमा लेते हैं। इनके द्वारा इस तरह के अनैतिक कार्य कराने की पूरी श्रंखला होती है। जिसके तहत से अपना काम करा ले जाते हैं। साधारण से तबादले में भी हमारे जनप्रतिनिधियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसे अब तक अनदेखा किया जा रहा था। जबकि इससे हर कोई अच्छी तरह से वाकिफ था। आंध्र में जो कुछ हुआ, उसका असर यदि अन्य राज्यों में भी हो,तो बहुत अच्छी बात होगी। पर यदि आंध्र के डीजीपी का ही तबादला कर दिया जाए, तो इसे उच्च स्तर का भ्रष्टाचार ही कहा जाएगा। वैसे यह तय है कि डीजीपी ने यह ऐतिहासिक कदम बिना मुख्यमंत्री एन. किरण कुमार रेड्डी से बिना पूछे नहीं उठाया होगा। एक तरह से इस काम के लिए उन्हें मुख्यमंत्री की स्वीकृति थी।
उधर भले ही आंध्र के मंत्री मुख्यमंत्री से नाराज चल रहे हों। संभवत: उनकी न चलने के कारण अब नाराज मंत्रियों ने केंद्रीय पर्यटन मंत्री चिरंजीवी का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए उछाला है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. किरण कुमार रेड्डी से नाराज आंध्र प्रदेश के मंत्रियों ने वर्ष 2014 के चुनावों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में अब केंद्रीय पर्यटन राज्यमंत्री के. चिरंजीवी के नाम को उछालना शुरू किया है। चिरंजीवी खुद भी मुख्यमंत्री द्वारा लिए गए कुछ फैसले से खुश नहीं हैं और बिजली की दरों में बढ़ोतरी जैसे मुद्दों पर वह सार्वजनिक रूप से विरोध कर चुके हैं। यह घटनाRम ऐसे समय पर हो रहा है जब कांग्रेस के आलाकमान को विभिन्न मुद्दों पर कई तरफ से मुख्यमंत्री के खिलाफ शिकायतें मिली हैं।
कुछ भी कहो, पर सच तो यही है कि अब आंध्र में परिवर्तन की हवा बहनी शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री को हटाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं। ऐसे में डीजीपी का भी वहीं जमे रहना मुश्किल लगता है। पर यदि उन्होंने यह तय कर लिया है कि अब किसी भी तबदलों में रसूखदारों की सिफारिशें नहीं चलेंगी, तो इसे राज्य के लिए बेहतर शुरुआत कहा जा सकता है। पर जैसा कि हमेशा से होता आया है कि अच्छी शुरुआत किसी को भी भली नहीं लगती। जब रसूखदारों की सिफारिशें अमान्य होने लगेंगी, तब तो उनके होने का अर्थ ही क्या रह जाएगा? उनकी पूछ-परख खत्म हो जाएगी, उनके अस्तित्व पर ही संकट छा जाएगा। देश की लिजलिजी व्यवस्था पर चोट करने के लिए इस तरह के प्रयास आवश्यक हैं। तभी लोकतंत्र बचा रह पाएगा, अन्यथा आज तो गली-गली में लोकतंत्र की धज्जियां ही उड़ रही हैं। केंद्रीय सत्ता इसलिए बार-बार बदनाम हो रही है। ऐसे में आंध्र के डीजीपी दिनेश रेड्डी और शिक्षा विभाग के अध्यक्ष ने जो कदम उठाया है, उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। रोम्या रोलां ने कहा है कि यदि कोई चीज आराम से अपना काम कर रही हो, तो उसे बरबाद करने के लिए उसमें थोड़ा सा राजनीति का समावेश कर दो, वह बरबाद हो जाएगी। आज वही हो रहा है, जिसमें भी राजनीति ने अपना दखल दिया है, वह बरबाद हो गया है। राजनीति के इस कीड़े से देश को बचाया जाना आवश्यक हो गया है।
    डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 10 मई 2013

भारी पड़ी येद्दि की बगावत

डॉ. महेश परिमल
कर्नाटक चुनाव के परिणाम हम सबके सामने हैं। राहुल गांधी मुस्करा रहे हैं, उधर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं। येद्दियुरप्पा की बगावत भाजपा को इतनी भारी पड़ेगी, यह तो उसने कभी नहीं सोचा था। वैसे भी येद्दि ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे भाजपा को सत्ता से बाहर कर देंगे। उन्होंने अपना वादा निभाया। पूर्ण बहुमत लेकर कांग्रेस दस वर्ष बाद फिर सत्ता पर काबिज हुई है। एक तरह से उसके लिए एक राहत ही है। कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक संदेश यह भी जाता है कि अब प्रमुख पार्टियों को क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए। कर्नाटक में जेडी (एस)दूसरे नम्बर पर है। भाजपा तीसरे नम्बर पर रही। अपने बड़बोलेपन के कारण अपनी पहचान बनाती मायावती की बसपा कर्नाटक में खाता ही नहीं खोल पाई। पहले ऐसा माना जाता था कि बसपा कांग्रेस के दलित वोट बैंक को तोड़ने में कामयाब होगी, पर ऐसा नहीं हो पाया। एक संदेश यह भी गया कि बगावती को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। येद्दियुरप्पा की बगावत ने आज कर्नाटक का राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया। एक व्यक्ति क्या कर सकता है? यह प्रश्न अभी सभी प्रमुख दलों के लिए महत्वपूर्ण बन गया है। कर्नाटक में जो येद्दि ने किया, वह गुजरात में केशुभाई पटेल और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह नहीं कर पाए। इन तीनों में यह साम्यता है कि इनका आधार आरएसएस है।
कर्नाटक में कांग्रेस को अपनी जीत से उतनी खुशी नहीं है, जितनी भाजपा की हार से। यहां कांग्रेस ने भाजपा को जो झटका दिया है, उसे भाजपा कभी भूल नहीं सकती। भाजपा के कमजोर प्रदर्शन से राहुल गांधी के चेहरे पर मुस्कराहट है। नरेंद्र मोदी का चेहरे पर तेज उतर गया है। दक्षिण भारत में मिला एकमात्र राज्य को भाजपा संभाल नहीं पाई। यह उसके लिए आत्मचिंतन का विषय है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए कर्नाटक चुनाव एक एसिड टेस्ट की तरह था। इसमें राहूुल तो पास हो गए, पर नरेंद्र मोदी की हालत पतली हो गई है। अब यह भ्ज्ञी सिद्ध हो गया है कि मतदाता यदि चुनावी सभा में आते हैं, तो इसका यह आशय कतई नहीं है कि वे उसे वोट देने के इरादे से आते हैं। हिमाचल के बाद नरेंद्र मोदी की यह दूसरी परीक्षा थी। नरेंद्र मोदी भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं, पर वोट डालने के लिए मतदाताओं को विवश नहीं कर सकते। भीड़ कभी वोट में तब्दील नहीं हो सकती। यह कर्नाटक चुनाव ने बता दिया। गुजरात में जो हालत कांग्रेस की हुई है, वह हालत भाजपा की कर्नाटक में हुई है। कर्नाटक में इस बार क्षेत्रीय पार्टियों और बागियों ने अपनी ताकत दिखाई है। गुजरात में कांग्रेस-भाजपा की लड़ाई आमने-सामने थी, जबकि कर्नाटक में जंग चतुष्कोणीय थी। भाजपा ने 70 सीटें खोई है, कांग्रेस को 41 सीटें अधिक मिली हैं। जेडीए ने भी अपनी बढ़त बनाते हुए 12 सीटें अधिक प्राप्त की है। इसी तरह केजेपी को 6 और अन्य दलों को 12 सीटें अधिक मिली है। भाजपा को भ्रष्टाचार पर अपनी नीति को स्पष्ट करना होगा। कहीं न कहीं भाजपा को यह दंभ था कि कर्नाटक में उसकी कभी हार नहीं हो सकती, अब यह दंभ भाजपा को शोभा नहीं देता। कहीं कहीं इस तरह का दंभ कांग्रेस में भी दिखता है।
प्रश्न यह है कि क्या कर्नाटक चुनाव का असर केंद्र की राजनीति को कहां तक प्रभावित करेगा। केंद्रीय राजनीति डांवाडोल है। कर्नाटक की जीत से कांग्रेस लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर लेगी, यह सोचना गलत होगा। पर अखिल भारतीय कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के लिए यह एक अग्निपरीक्षा थी। जिसे उन्होंने पूरी सफलता के साथ उत्तीर्ण कर ली। इस परिणाम से यह भी सामने आया है कि राहुल युवाओं में लोकप्रिय हैं। दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ सिंह के लिए यह एक झटका है। 2014 के लोकसभा चुनाव का यह पहला सेमी फाइनल मैच था, जिसमें भाजपा केवल  50 रन भी नहीं बना पाई। वैसे देखा जाए, तो भाजपा ने अहम की लड़ाई में हार का सामना किया है। इस लड़ाई में परदे के पीछे आरएसएस एवं उसकी शाखाओं का वर्चस्व था। भाजपा ने युवाओं को लुभाने की यहां कभी कोशिश ही नहीं की, इसलिए यदा-कदा ऐसे किस्से सामने आते रहे, जिसमें भाजपा ने युवाओं के प्रति क्रूर रवैया अपनाया। मॉरल पुलिस के नाम पर भाजपा संगठनों ने युवाओं पर अपना गुस्सा उतारा था। चुनाव में हार-जीत चलती ही रहती है, पर इस समय तो भाजपा के लिए यह आत्म मंथन का विषय है कि आखिर बगावत को किस तरह से रोका जाए? कांग्रेस जब उत्तर प्रदेश में हारी, तब उसकी स्थिति भी भाजपा जैसी ही थी। कर्नाटक में लोकसभा की 28 सीटें हैं। उत्तर प्रदेश में कुल 80 सीटें हैं। कांग्रेस-भाजपा में मूल लड़ाई तो इन्हीं 80 सीटों के लिए ही है। क्योंकि यहीं की सीटों की बदौलत मुलायम-मायावती केंद्र की सरकार पर नकेल डालते रहते हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणाम कांग्रेस को थोड़ी राहत तो दे ही सकते हैं, पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार पर जो तीखी टिप्पणी की है, उससे कांग्रेस कर्नाटक की जीत की खुशी भी नहीं मना सकती।
कर्नाटक में भाजपा को मिली हार से सबसे अधिक खुशी नीतिश कुमार एवं शरद यादव को हुई होगी। नीतिश कुमार नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं। इस चुनाव परिणाम के बाद नीतिश मोदी के खिलाफ और अधिक आक्रामक हो सकते हैं। एनडीए की बैठक में भाजपा की इस हार की चर्चा तो होगी ही कि विधानसभा के चुनाव किस तरह से लड़े जाएं। इस हार से भाजपा कुछ सीखे, तो अच्छा है। नहीं तो संभव है 2014 के लोकसभा चुनाव में सौ सीटों तक ही सिमट जाए। कुछ भी कर्नाटक के चुनाव ने यह बता दिया कि पार्टी में ऐसे हालात पैदा ही न हों, जिससे बागी पेदा हों। एक बागी क्या नहीं कर सकता, इसे गंभीरता से लेना होगा। इसके अलावा अंतर्कलह पर किस तरह से काबू पाया जाए, यह भी एक सबक है। भाजपा ने यही गलती की। येद्दियुरप्पा के भ्रष्टाचार को पहले तो अनदेखा किया, बाद में उसे गंभीरता से लेते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पर भ्रष्टाचार पर भाजपा की नीतियां स्पष्ट नहीं हो पाई। भ्रष्टाचार को लेकर इधर वह केंद्र पर प्रहार करती रही और उधर येद्दिुयरप्पा के भ्रष्टाचार को संरक्षण देती रही। रेड्डी बंधुओं की करतूतों पर हमेशा परदा डालने वाली भाजपा आखिर किस मुंह से जनता से वोट मांगती? सभाओं में भीड़ से वोट का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। भाजपा के लिए यह गंभीर चिंतन नहीं बल्कि आत्ममंथन का समय है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 9 मई 2013

प्रधानमंत्री के ईमानदार होने के खतरे

डा. महेश परिमल
एक ईमानदार प्रधानमंत्री पूरे देश के लिए कितना घातक होता है, इसे आज के हालात को देखकर समझा जा सकता है। अपनी ईमानदार को बरकरार रखने के लिए प्रधानमंत्री क्या-क्या कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किसी एक के लिए विश्वासपात्र होने के लिए बाकी के साथ आखिर कितनी बार विश्वासघात होगा, इसे कौन समझ सकता है? बार-बार अपनी ईमानदारी का ढोल पीटने से कोई ईमानदार हो नहीं सकता। फिर भी यदि उसे ईमानदार मान ही लिया जाए, तो फिर वह अपनी ईमानदारी को बरकरार रखने के लिए जो हथकंडे अपनाता है, वह कोई ईमानदार कर नहीं सकता। बिलकुल पापड़ की तरह हो गई है आज की केंद्र सरकार। हवा का एक झोंका ही जिसे गिराने में सक्षम हो, ऐसी सरकार को बचाए रखने की अब पूरी कोशिशें हो रही हैं। एक के बाद एक घोटाले उजागर होते रहे हैं, जनता भी त्रस्त आ चुकी है, इन घोटालों से। लेकिन हमारी सरकार भ्रष्ट मंत्रियों को संरक्षण ही देना जानती है। फिर चाहे वे कानून मंत्री हों, या फिर रेल मंत्री। सबको साथ लेकर चलने से आखिर में अकेलेपन के सिवाय कुछ नहीं बचता है।
कर्नाटक में मतदान हुए। कांग्रेस मे यह आशा जागी कि इस बार कर्नाटक फतह कर लिया जाएगा। कुछ एजेंसियों ने कांग्रेस की जीत के आसार भी बताए। पर सरकार इतनी घिरी हुई है कि इसकी खुशी भी नहीं मना पाई। किस किस को जवाब दे। भ्रष्ट नेता और मंत्रियों के बलबूते चलने वाली सरकार का साथ देने वाले भी भ्रष्ट हैं। यदि साथ देने वाले भ्रष्ट नहीं होते, तो वे भी कब का साथ छोड़ चुके होते। सुप्रीमकोर्ट के आगे सरकार का चीरहरण हो रहा है।  कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का मुंह काला हो गया है। उसकी हालत देखने लायक है। फिर भी सरकार को बचा लेने की पूरी ताकत लगा रही है। ऐसे में लगता है कि अब लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजने ही वाली है। सरकार और सीबीआई की मिलीभगत अब किसी से छिपी नहीं है। सीबीआई का उपयोग या कहा जाए दुरुपयोग सरकार को चलाने औरबचाए रखने के लिए ही किया जा रहा है। इधर सरकार के खिलाफ यदि मुलायम सक्रिय होते हैं, तो उधर सीबीआई भी उनके खिलाफ सक्रिय हो जाते हैं। सक्रिय को निष्क्रिय करने की एक राजनीतिक साजिश चल रही है। जिसमें सरकार के सभी सहयोगी दल और विपक्ष के सभी सहयोगी दल शामिल हैं।
रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भांजे ने रिश्वत ली, यह सिद्ध हो गया  है। वे रंगे हाथ पकड़े गए हैं। पर चूंकि रेल मंत्री इसमें किसी भी तरह से संलिप्त नहीं है, इसलिए वे इस्तीफा नहीं देंगे। उधर कानून मंत्री कोयला खनन की रिपोर्ट में फेरबदल कर गैरकानूनी कार्य कर रहे हैं, फिर भी सरकार को लगता है कि वे कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं। इसके पहले भी जितने घोटाले हुए, उसमें भी संलिप्त मंत्री तब तक बेदाग थे, जब तक उन्हें पूरी तरह से दोषी नहीं बताया गया। अभी भी सरकार अश्विनी कुमार और पवन कुमार वंसल को मंत्री पद से हटाने में कोई गुरेज नहीं है। पर समस्या यह है कि आखिर कितने मंत्रियों को हटाया जाए। विपक्ष तो गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहा है। अगर उक्त दो मंत्रियों को हटा दिया जाए, तो फिर सरकार की साख का क्या होगा? अभी प्रधानमंत्री पद पर डॉ. मनमोहन सिंह गांधी परिवार की पहली पसंद हैं। उनके लिए उनकी ईमानदारी ही पर्याप्त है। इस ईमानदार छवि ने देश को कितना नुकसान पहुंचाया है, यह शायद आरटीआई के माध्यम से भी नहीं जाना जा सकता।
केंद्र सरकार लगातार आरोपों एवं घोटालों से घिर रही है। उसके लिए सीबीआई किसी कठपुतली से कम नहीं है। आज सीबीआई की असलियत सामने आ गई है। इससे यह संदेश गया है कि इसके पहले भी सीबीआई ने जितनी भी रिपोर्ट दी है, वह भी कई प्रश्न चिह्न खड़े करती है। पहले सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो इन्वेस्टिगेशन कहा जाता था, अब वह सिद्ध भी हो गया है। अपने 9 पन्नों के जवाब में सीबीआई ने जो कुछ कहा है, वह देश की सच्ची तस्वीर पेश करता है। शायद इस समय देश की हंसी नहीं उड़ रही होगी। कोयला खनन में घोटाले का मामला इतना अधिक विवादास्पद नहीं हुआ होता, यदि उसमें से प्रधानमंत्री को पूरी तरह से बेदाग बताने का प्रयास नहीं होता। ऐसा प्रयास हुआ, इसीलिए मामले ने तूल पकड़ा। केवल एक ही बात सरकार के पक्ष में जाती है कि सरकार के खिलाफ लड़ने वाले स्वयं भी एकजुट नहीं है। उनमें भी आपस में तनातनी है। इसी का पूरा फायदा उठा रही है, कांग्रेस की यूपीए  सरकार। अब सरकार की सारी ऊर्जा अपने मंत्रियों को बचाने में ही लग रही ह। ऐसे में उनके प्रतिनिधि आम नागरिकों के प्रति किस तरह से जवाबदेह हो सकते हैं। सरकार आम आदमियो के लिए क्या कर रही है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। विपक्ष तो यह कह सकता है कि वह सरकार को जगाने का काम कर रही है। पर सरकार जब तक जागे, तब तक शायद बहुत देर हो जाए। मुलायम-मायावती आखिर कब तक खामोश रहेंगे। उन्हें तो अवसर की तलाश है। केंद्र सरकार के साथ मुश्किल यह है कि घोटाले में जब उनका कोई मंत्री शामिल होता है, तो उसे बचाने का प्रयास करती है, पर जब वह मंत्री सहयोगी दलों को होता है,तो उसे इस्तीफा देने के लिए विवश किया जाता है।
सरकार पर चारों तरफ से दबाव बढ़ रहा है। सरकार पहले अश्विनी कुमार का इस्तीफा लेगी। बंसल का मामला अभी और लटकाया जाएगा। उधर संसद अब तो चलने वाली नहीं है। यह सत्र भी सरकार की नाकामी को छिपाने वाला ही साबित हुआ। कई विधेयक केवल इसीलिए अटके पड़े हैं, पर उसकी चिंता न तो सरकार को है और न ही विपक्ष को। विपक्ष संसद चलने ही नहीं देना चाहती और सरकार भी कुछ ऐसा ही चाहती है। क्योंकि संसद में विपक्ष सरकार पर बुरी तरह से हावी हो जाता है। सरकार को जवाब देते नहीं सूझता। सरकार के लिए आगे के दस महीने बदनामी को झेलने में ही लग जाएंगे। तृणमूल और डीएमके के साथ छोड़ने के बाद सरकार मुलायम-मायावती की छींक से भी हिलने लगी है। ऐसे में बड़े-बड़े घोटालों और मंत्रियों की करतूतों ने सरकार को बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। सिख विरोधी दंगों में सज्जन कुमार का बेदाग बच जाना भी लोकसभा के मतदाताओं को नहीं भाया। 84 के दंगों का जवाब सरकार को 2014 में देना ही होगा। सरबजीत की मौत के बाद जिस तरह की राजनीति हुई, उससे तो यही लगता है कि अब सरकार सारा काम वोट को देखते हुए ही कर रही है। सराकर यह भूल रही है कि वह अश्विनी कुमार और पवन बंसल को बचाने का जितना प्रयास करेगी, उतनी ही उसकी बदनामी होगी।
जनता अब यह सबक सिखाना चाहती है कि देश के प्रधानमंत्री को इतना भी अधिक ईमानदार नहीं होना चाहिए कि उसकी ईमानदारी देश के लिए घातक बन जाए। ईमानदार होना बुरा नहीं है, बल्कि ईमानदारी को बचाए रखने के लिए बेईमानी करना बुरा है। आज देश में यही हो रहा है।
डॉ. महेश परिमल

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