बुधवार, 30 अप्रैल 2008

शहरी जंगलों में खोता बचपन


डॉ. महेश परिमल
छुट्टी के दिन बाजार जाना हुआ, रास्ते में देखा कि सड़क के बीचो-बीच कुछ पत्थर रखे हुए हैं। यह संकेत आम है कि ऐसा केवल उस समय किया जाता है, जब सड़क पर किसी तरह का काम चल रहा हो। लोग समझ जाते हैं और दूसरी तरफ से आगे निकल जाते हैं। पर उस दिन आश्चर्य हुआ कि इस तरह की शरारत बच्चों ने क्रिकेट खेलने के लिए की थी। सड़क पर तो किसी भी तरह का काम नहीं चल रहा था, बच्चों ने ही सड़क पर पत्थर रखकर क्रिकेट खेलने का जरिया बना लिया। लोग तो आगे बढ़ गए, पर शायद यह किसी ने नहीं सोचा कि आखिर बच्चे सड़क पर ही क्रिकेट क्यों खेलते हैं?
एक मोहल्ले की इमारतों की खिड़कियों पर यदि काँच नहीं है, तो यह समझ लेना आसान होता है कि इस मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट प्रेमी हैं। उनके ही बॉल से खिड़कियों के काँच ने अपना अस्तित्व खो दिया है। यह तो हुई खामोश खिड़कियों की बात, पर मुम्बई के उपनगर दइसर की उस घटना को क्या कहा जाए, जिसमें रात आठ बजे क्रिकेट खेलने वाले चार किशोरों को पुलिस पकड़कर ले गई। वजह केवल यही थी कि क्रिकेट खेलते हुए बॉल पास के एक फ्लैट की खिड़की की लोहे की जाली को छुकर निकल गई थी। बस उसके मालिक ने पुलिस को टेलीफोन से इसकी शिकायत कर दी। पुलिस ने उन चारों किशोरों को थाने पर काफी समय तक बिठा रखा। बाद में उन्हें अभिभावकों के विनय अनुनय के बाद समझाइश देते हुए छोड़ दिया गया।
बात फिर वहीं आ जाती है कि आखिर बच्चे खेलने के लिए जाएँ तो जाएँ कहाँ? वेसे भी देखा जाए तो आजकल के बच्चों के पास पढ़ाई, होमवर्क और टयूशन के बाद इतना भी वक्त नहीं है कि वह कुछ खेल भी सके। फिर भी बच्चे यदि इसके लिए समय निकाल लें, तो यह बड़ी बात है। चलो, उन्हें समय मिल गया, तो क्या खेलें? आजकल तो क्रिकेट ही राष्ट्रीय खेल बना हुआ है, क्योंकि इसमें अच्छा खेलने वाले को सम्मान ही नहीं, बल्कि काफी धन भी मिलता है। इसी सोच के चलते आज हर बच्चा क्रिकेट ही खेलना चाहता है। इस खेल के लिए थोड़ा मैदान तो चाहिए ही। पर आज महानगरों में फैलते कांक्रीट के जंगलों में भला मैदान कहाँ से मिलेगा। जो जगह थी, वह तो पार्किंग में निकल गई, जो थोड़ी-बहुत जगह थी, वहाँ पेड़-पौधे लगा दिए गए। बच्चों के लिए पार्क की व्यवस्था फ्लैट लेने के पहले थी, पर बाद में केवल कागजात में ही सिमट गई। बच्चों के लिए कोई जगह नहीं। ऐसे में बच्चे सड़क पर उतर जाएँ, तो दोष किसे दिया जाए?
आज क्रिकेट ही क्यों, किसी भी खेल की बात कर लें, तो स्पष्ट होगा कि शहरों से निकलने वाले खिलाड़ियों से बेहतर तो गाँव के युवा खिलाड़ी ही सफल हो रहे हैं। इसकी वजह यही है कि आज महानगरों दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलोर, अहमदाबाद, सूरत, बड़ोदरा में जहाँ बच्चों को खेलने के लिए खुले विशाल और हवादार मैदानों की कमी हैं, वहीं गाँवों के बच्चे गाँव की सीमा के खेतों में, नदी के तट पर और खुले आसमान के नीचे थककर चूर होने की हालत तक खेलते हैं और अपना पूरा बचपन जीते हैं, ऐसे में खेल प्रतिभा तो गाँव से ही निकलेगी। दूसरी ओर ऍंगरेजी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों ने कबड्डी, खो-खो, छुप्पन छुपैया, गिल्ली-डंडा जैसे नाम भी शायद ही सुने हों। उन्हें तो क्रिकेट, टेबल-टेनिस, बेस बॉल, फुटबॉल आदि खेलों की जानकारियाँ घर के एक कोने में रखे इडियट बॉक्स के द्वारा मिल ही जाती है, किंतु इन खेलों के लिए भी उन्हें खुला मैदान नसीब नहीं होता, सो वे कंप्यूटर या विडियो गेम से ही इन खेलों का लुत्फ उठा लेते हैं। सभी को तो पेशेवर खेल संस्थाओं की सुविधा तो नहीं मिल सकती।

कहने की बात यह है कि शहरी बच्चों का बचपन सीमेंट कांक्रीट के जंगलों के बीच खो गया है। उनकी छोटी सी नाजुक जिंदगी में खेलों के द्वारा उत्साह, उमंग, ताजगी, मित्रता, तंदुरुस्ती का सिंचन हो ही नहीं पा रहा है। ऐसे में कुछ बच्चे यदि छुट्टियों का मजा लेने अपने ननिहाल चलें जाएँ और वहाँ खुले आसमान के नीचे ताजा हवा के साथ नदी किनारे खेलने मिल जाए, तो फिर क्या कहना? वे इन पलों को खोना ही नहीं चाहते, खुलकर भरपूर जीते हैं। फिर शहर आकर बीते पलों की याद में ही जीने को विवश हो जाते हैं। तब उनकी हर बात पर गाँव के खुले मैदान की चर्चा होती है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो बच्चे अपने बचपन में भरपूर खेल नहीं खेल पाए, उन्हें बड़ी उम्र में मानसिक और शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। ऐसे बच्चे जिनका बचपन खेल से दूर होता है, वे आगे चलकर चिड़चिड़े स्वभाव के, स्वार्थी, शंकाशील और शरीर से दुबले-पतले होते हैं। उनकी रोग प्रतिकारक क्षमता कम होती है। उनमें एकता, मेलजोल, सद्व्यवहार जैसे कुदरती गुणों का भी विकास नहीं हो पाता।
महानगरों में फ्लेटधारी अक्सर यह शिकायत करते हुए पाए जाते हैं कि फ्लेट बनने के पहले उन्हें दिए गए नक्षे में बच्चों के लिए पार्क का स्थान था, जो बाद में गायब हो गया। इसके लिए वे बिल्डर को दोषी मानते हैं, किंतु बिल्डर का कहना होता है कि हम तो बच्चों के खेलने और वृध्दों के बैठने के लिए खुली जगह रखते ही हैं, पर सोसायटी वाले उसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर देते हैं। शादी, रिसेप्शन और जन्मदिन की पार्टी के लिए इस जगह का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। यदि हम बगीचा बनाते हैं, तो इसकी ठीक तरह से देखभाल नहीं की जाती। ऐसे में हमारा क्या दोष?
कुछ भी कहिए, आज महानगरों में बिल्डर और हाउसिंग सोसायटी के बीच मासूमों का बचपन छिन रहा है। हम लाख अपने आपको समझा लें, पर यह सच है कि जिसका बचपन खिलखिलाता होगा, उसका पूरा जीवन ही हँसता-मुस्कराता होगा। बचपन की निर्दोष शरारतों का मजा जिसने नहीं लूटा, उसकी जिंदगी बिल्कुल कोरी है। आज के शहरी किशोर इन्हीं कोरी जिंदगियों के बीच अपना समय गुजार रहे हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

अंडरवर्ल्ड में गॉडमदर, मम्मी, नानी और सुप्रीमो का दबदबा


डॉ. महेश परिमल
अंडरवर्ल्ड की दुनिया एक ऐसी दुनिया है, जिसमें जाने के कई रास्ते होते हैं, पर आने का हर रास्ता बंद होता है।इसलिए जब भी कोई अपराध की इस दुनिया में कदम रखता है, तब यही सोचकर वह आगे बढ़ता रहता है कि अब उसके कदम अपनी आम जिंदगी की ओर नहीं बढेग़े। बाहर कदम रखते ही उसकी पूरी दुनिया ही बदल जाती है। उसका रहन-सहन ही नहीं, बल्कि उसका नाम भी बदल जाता है।वह साधारण लोगों के बीच भी असाधारण लोगों की तरह रहता है। उसके सम्पर्क सूत्र भी बढ़ जाते हैं। अपनी निश्ठा दिखाता हुआ वह तेजी से आगे बढ़ने लगता है और कुछ ही महीनों में वह इस दुनिया का ''सयाना'' बन जाता है।इसके विपरीत उसकी पत्नी, प्रेयसी और बच्चों का जीवन कुछ जोखिम भरा हो जाता है। फिल्मी दुनिया में तो अंडरवर्ल्ड के आदमी ही अपने प्रतिद्वंद्वी को ''टपका या लुढ़का'' देते हैं, इस प्रक्रिया में कई बार उसके बच्चे या फिर पत्नी, प्रेयसी भी मौत का शिकार हो जाती है।पर आज हालात बदल रहे हैं। अपराध की इस असली दुनिया में अब गॉडमदर, मम्मी, नानी या फिर सुप्रीमो का दबदबा बढ़ने लगा है।अब तक यही एक ऐसा क्षेत्र था, जिसमें महिलाओं का नामो-निशान नहीं था, किंतु अब इस क्षेत्र में भी महिलाओं ने बाजी मारनी शुरू कर दी है।माफिया में अब वास्तविक जीवन में कथित अपराधियों की पत्नी, बहन या रखैल उनके धंधे को आगे बढ़ाने का काम बखूबी कर रही हैं।

इस दुनिया में महिलाओं की सूची अब लम्बी होने लगी है। उनके ''साथी'' एक आदेश पर अपनी जान देने को तैयार रहते है। परंतु एक लम्बे समय बाद यही गुंडे पुलिस के मुखबिर बन जाते हैं, और उनके साम्राज्य का नेस्तनाबूत कर देते हैं। गॉडमदर संतोक बेन जाडेजा, सुजाता निखलज, पद्मा पुजारी, हसीना पार्कर, आशा गवली, मोनिका बेदी ये ऐसे नाम हैं, जो अपराध की दुनिया में जाने-पहचाने जाते हैं।ये सभी महिलाएँ जब विवाह करती हैं, तब शायद उन्हें यह मालूम नहीं होता कि उनका पति अपराध की दुनिया से वास्ता रखता है, या फिर उसके प्रेम की गिरफ्त में होतीे हैं।तब उन्हें अपने प्रेमी की वास्तविक स्थिति का पता नहीं होता, और जब पता चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
गुजरात में जहाँ महात्मा गाँधी का जन्म हुआ था, उसी पोरबंदर में माफिया डॉन सरमन मुंजा जाडेजा 1986 में जब मारा गया, तब उसकी पत्नी संतोक बेन जाडेजा ने डॉन की गद्दी सँभाल ली, तब उसे ''गॉडमदर'' के रूप में जाना जाता था।चेम्बूर की सुजाता निखलज को ''नानी'' के रूप में पहचाना जाता था।ये सारी महिलाएँ मेडम, दादी, और सुप्रीमो के नाम से पहचानी जाती।एक समय पूरे गुजरात में संतोक बेन जाडेजा की तूती बोलती थी, आज भले ही वह जेल में हो, पर सच तो यही है कि उनके भी दिन थे।उसी तरह सुजाता निखलज, पद्मा पुजारी और आशा गवली का साम्राज्य पूरे मुम्बई में फैला हुआ है। भारत दाऊद इब्राहीम के पूरे काम उसकी बहन हसीना पार्कर के ही इशारे पर होते थे।इन्हें पकड़ना आसान नहीं होता है, क्योंकि यह सीधे किसी भी अपराध से जुड़े नहीं होते। इनके खिलाफ सुबूत इकट्ठे करना टेढ़ी खीर साबित होता है।

चेम्बूर के तिलक नगर में सामान्य मध्यम वर्ग परिवार से निकली सुजाता निखलज के प्रेम में डॉन छोटा राजन पड़ा, उस समय वह दाऊद का विश्वस्त था।जब उस पर पुलिस का शिकंजा कसने लगा, तब उसका काम सुजाता ही देखने लगी।जब छोटा राजन दाऊद से अलग हुआ, तब सुजाता अपने तीन बच्चों को लेकर मुम्बई आ गई।तब उसे लगा कि किसी की टांग तोड़कर या किसी से जबर्दस्ती वसूली करने से अच्छा है कि कुछ ऐसा किया जाए, जिससे पुलिस की नजर उस पर न पडे, अतएव उसने खुशी डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी खोल ली।इस कंपनी की आड़ में उसके काले धंधे भी होने लगे।उधर पद्मा पुजारी मूलत: सिख है। अंडरवर्ल्ड से जुड़े रवि पुजारी के सम्पर्क में तो वह अपने स्कूल के ही दिनों से थी।वह कांवेंट में पढ़ी-लिखी है, इसलिए धाराप्रवाह ऍंगरेजी बोल लेती है।हाल ही में फिल्म निर्देशक महेश भट्ट को धमकी देने वाले पुजारी के गेंग के ही थे।पद्मा की तरह आशा गवली भी अंडरवर्ल्ड के डॉन अरुण गवली की पत्नी है।अरुण गवली जब विधान सभा चुनाव में जीत गया, तब पर्दे के पीछे से उसका सारा काम आशा ही सँभालती थी। आशा गवली को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों का बेहतर ज्ञान है।गवली गेंग के आदमी उसे पहले ''आशा मेम'' से संबोधित करते थे, पर अब ''मम्मी'' के नाम से संबोधित करते हैं। मुम्बई में ही पढ़े-बढ़े सुरेश गुरु सालेम की गेंग के लिए काम करता था, दत्ता सावंत की हत्या में इसी गेंग का हाथ था, ऐसा कहा जाता है। 2006 में जब सुरेश मारा गया, तब से उसकी पत्नी ने ही उसका पूरा काम देखना शुरू किया। बहरहाल वह जेल में है।

अंडरवर्ल्ड का एक नियम यह है कि सामान्यत: अपने परिवार की किसी भी महिला को अपने धंधे में शामिल नहीं किया जाता।प्रतिस्पर्धियों में कितनी भी दुश्मनी क्यों न हो, पर उसके परिवार की महिलाओं पर कभी हाथ नहीं डाला जाता था।डॉन अपने साथियों को यही आदेश देते कि चाहे कुछ भी हो जाए, पर प्रतिस्पर्धी के घर की महिलाओं का पूरा सम्मान किया जाए।पर अब वैसी बात नहीं रही।कड़ी प्रतिस्पर्धा, रंजिश के कारण अब लोग इस तरह के नियम की अहवेलना करने लगे हैं।अब तो सबसे पहले महिलाओं को ही अपना निशाना बनाने लगे हैं।इस स्थिति में महिलाओं ने स्वयं को तैयार कर लिया और उन्होंने भी हथियार उठा लिए।फिर क्या था, इन महिलाओं ने भी अपने पति के धंधे को पूरी तरह से अपना लिया और शुरू कर दिया, किसी को भी लुढ़काना, टपकाना, सुपारी लेना, वसूली करना इनके बाएँ हाथ का काम हो गया।इनके नखरे भी अजीब होते।62 किलो वजनी, पाँच फीट दो इंच ऊँची सुनिता देखने में प्रभावशाली लगती थी, उसे जब पुलिस स्टेशन लाया गया, तब वह वहाँ का पानी पीने को भी तैयार न थी। पूरे 16 दिनों तक उसे सलाइन पर रखा गया।दिखने में बला की खूबसूरत मोनिका बेदी ने अपने प्रेमी अबू सालेम को फिल्मी हस्तियों के फोन नम्बर और पते दिए थे।अवैध वसूली में इन्होंने करोड़ों रुपए कमाए। पुलिस के अनुसार मोनिका की योजना थी कि इस धन से वह अबू सलेम को दाऊद के शिकंजे से मुक्त करा लेगी और अमेरिका में सेटल हो जाएगी।इनकी यह योजना निश्फल हुई और आज ये दोनों ही अलग-अलग जेलों में बंद हैं।
इस तरह से अंडरवर्ल्ड की यह दुनिया के बेताज बादशाहों के दिन फिरने लगे हैं।अब न तो वह कानून व्यवस्था रही, न ही उनके अपने नियम कायदे।जब तक इनके धंधे में उसूल था, तब तक इनका धंधा खूब चला, पर बेईमानी के धंधे में जब ईमानदारी नहीं रही, तब से उनका धंधा भी चौपट होने लगा।अब यह कोरी कल्पना नहीं रही कि कानून के हाथ लम्बे नहीं होते। अब तो अपराधी कोई भी हो, उसकी नियति सीखचों के पीछे ही लिखी है।अभी भी कई ऐसे हैं, जो कानून से खेल रहे हैं, पर कभी न कभी तो वह स्थिति आएगी, जब लोग उन्हें सलाखों के पीछे देखेंगे।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

नाम गुम जाएगा, सरनेम ही रह जाएगा


डॉ. महेश परिमल
किसी की हस्ती की शादी हो, तो मीडिया को इस बात की चिंता पहले रहती है कि दुल्हन अब अपना उपनाम ( सरनेम ) क्या रखेगी। अब ऐश्वर्या को ही ले लो। लोगों को बड़ी चिंता थी कि अब वह अपना सरनेम क्या लिखेगी। अरे भई, उसने तो अपने नाम के आगे बच्चन लिखना भी शुरू कर दिया है। लेकिन बहुत से लोग अभी भी चिंतित हैं कि ऐश्वर्या बच्चन कैसा लगेगा? अब कैसा भी लगे, वह तो लिखेगी, आप क्या कर लेंगे?

खैर नामों की महिमा अपनी जगह कायम है। भले ही शेक्सपियर कह गए हों कि नाम में क्या रखा है। सच तो यह है कि आज नाम नहीं सरनेम बिकता है। हमारे बीच ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने शादी के बाद अपना सरनेम नहीं बदला। अभी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान जब प्रियंका को जब गांधी उपनाम से संबोधित किया, तब उन्होंने कहा कि मुझे प्रियंका गांधी नहीं, बल्कि प्रियंका वढेरा कह कर बुलाएँ। उस समय वहाँ पर प्रियंका भाई राहुल गांधी और उनके पति राबर्ट वढेरा भी मौजूद थे। यह भी सच है कि किसी भी काँग्रेसी को उन्हें प्रियंका वढेरा कहना नहीं सुहाता, फिर भी लोग गाहे-बगाहे उन्हें प्रियंका गांधी बोल ही देते हैं। इसी दिन अभिताभ बच्चन ने भी प्रेस वालों से कहा कि अब ऐश्वर्या श्रीमती बच्चन के नाम से पहचानी जाएँगी। शबाना आजमी आज भी इसी नाम से पहचानी जा रही है। इस नाम में उनके पिता मरहूम कैफी आजमी का नाम जुड़ा है। आजमी याने आजमगढ जिले के निवासी होने के कारण आजमी तखल्लुस इस्तेमाल में लाया गया। बड़े घर की बड़ी बातें, इस बात के मद्देनजर आज युवतियाँ शादी के बाद अपने पिता के ब्रांड नेम को छोड़ना नहीं चाहती। वे पिता के ब्रांड नेम के सहारे ही आगे बढ़ना चाहती हैं। ससुराल से मिले उपनाम के सहारे अपनी पहचान कायम करना वह नहीं चाहती। पहले सरहद पार की बात करते हैं। बेनजीर भुट्टो ने शादी कभी अपना उपनाम जरदारी इस्तेमाल में नहीं लाया। इसी नाम की ही बदौलत वह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो पाईं। आज भी वे अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो के ब्रांड नाम से ही पहचानी जाती हैं।


अब हमारे सामने हैं आशा भोंसले। आर. डी. बर्मन से शादी के बाद भी उन्होंने अपना उपनाम भोंसले बरकरार रखा। जब उन्होंने शादी की थी, तब राहुल देव बर्मन एक काफी ऊँचा नाम था, पर उन्होंने अपना पुराना सरनेम नहीं छोड़ा। इन्हीं के साथ आता है शर्मिला टैगोर का नाम। नवाब पटौदी से शादी के बाद भी उन्होंने अपना सरनेम नहीं बदला। उनके बेटे और बेटी ने जरूर अपने पिता के सरनेम अपने नाम के साथ लगाया, पर शर्मिला ने अपना ब्रांड नाम नहीं छोड़ा, वह अब भी शर्मिला टैगोर के नाम से ही जानी जाती है। राजनीति में देखा जाए, तो गांधी ब्रांड नाम सबसे बड़ा है। इसी गांधी ने भाजपा को भी नहीं छोड़ा। एक समय ऐसा था, जब उसने संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी को अपने साथ लिया। एक वक्ता के रूप में भाजपा ने वरुण गांधी को खूब सामने लाया। वे अपनी कविताओं से लोगों को खूब रिझाते। आज भी वे भाजपा के जूनियर कार्र्यकत्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। वसुंधरा राजे सिंधिया ने शादी के बाद भी अपने राजपरिवार को अपने नाम के साथ ही रखा।

समय के साथ चलते हुए कुछ युवतियाँ शादी के बाद झट से पति का सरनेम इस्तेमाल करना शुरू कर देती हैं, क्योंकि उनके पति का सरनेम उन्हें आगे बढ़ाने में मदद करता है। अब हिलेरी रोधन ने शादी के बाद तुरंत ही पति बिल क्ंलिटन का उपनाम अपने साथ जोड़ लिया। इन दिनों वह अमेरिका के राश्ट्रपति पद की सशक्त उम्मीदवार है। इसी तरह जॉन. एफ. केनेडी से शादी करने के पहले जेकी केनेडी का नाम जेकवेलीन बॉवीर था। केनेडी उन्हें जेकी कहकर बुलाते थे। बाद में उनकी पहचान जेकी केनेडी की तरह ही हुई। केनेडी की हत्या के बाद इस विधवा ने जब दूसरी शादी की, तब उन्होंने अपने पति का सरनेम ओनासिस इस्तेमाल में नहीं लाया। वह आज भी जेकी केनेडी के नाम से पहचानी जाती हैं।
अब आते हैं बच्चन सरनेम पर। देखा जाए तो बच्चन सरनेम न होकर तखल्लुस है। अक्सर साहित्यकार अपने नाम के आगे किसी एक शब्द को तखल्लुस के रूप में इस्तेमाल करते हैं। धर्मवीर भारती, फणीश्वर नाथ 'रेणु', गोपाल दास 'नीरज', सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', उपेन्द्रनाथ 'अश्क', लाला 'जगदलपुरी', प्यारे लाल आवारा, महेश अनघ, उर्मिला शिरीष आदि ऐसे नाम हैं, जो तखल्लुस के साथ ही पहचाने जाते हैं। अब आते हैं 'बच्चन' तखल्लुस पर। इस तखल्लुस के साथ भी एक घटना जुड़ी हुई है। बात तब की है, जब हरिवंश राय जी ने लिखना शुरू किया। अखबारों में नाम आने लगा- हरिवंश राय, लोगों को आश्चर्य हुआ कि आखिर यह कौन है? तब उनकी पहचान एक छात्र के रूप में ही थी। जब अधिक नाम प्रकाशित होने लगा, तो चर्चा भी होने लगी। बात जब उनके परिवार तक पहुँची, तब बड़े-बूढ़ों से पूछा गया कि आखिर यह हरिवंश राय कौन हैं। तब उन्होंने अपनी ठेठ भोजपुरी में कहा- अरे ऊही हमार घर के बच्चन है ना, उही ये लिखत हय। यहाँ एक बच्चे को और भी छोटा करके बच्चन कहा गया। गाँव में आज भी किसी ठाकुर को नीचा दिखाना होता है, तो उसे 'ठकुरा' कहा जाता है। ठीक इसी तरह बच्चे को और छोटा करके बच्चन कहा गया। तब हरिवंश राय जी को यह अच्छा लगा, तो उन्होंने 'बच्चन' को तखल्लुस के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। बाद में पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जब उन्होंने तेजिंदर कौर से शादी की, तब उन्हें समाज से निष्कासित कर दिया गया। इस तरह से वे राय उपनाम का उपयोग नहीं कर सकते थे। जब अमिताभ और अजिताभ का स्कूल में दाखिला हुआ, तो परेशानी नाम की आई। तब हरिवंश राय ने अपना तखल्लुस 'बच्चन' बच्चों के नाम के आगे लिख दिया। पहले यह नाम साहित्य जगत में खूब प्रसिध्द हुआ, फिर अमिताभ के फिल्मों में आने के बाद तो यह इतना प्रचलित हो गया कि लोग इसे बच्चन को सरनेम के रूप में ही जानने लगे। अब तो यह एक ब्रांड नेम होकर रह गया है। इस नाम के साथ जुड़ना ही लोगों को गौरवान्वित करता है।
नाम की महिमा भले ही खत्म हो जाए, पर उपनाम की महिमा कभी खत्म नहीं होगी। आज कार्पोरेट जगत में नाम मुखर हो रहा है। लोग परस्पर 'फर्स्ट नेम' से पुकारने के लिए कहा जाता है, इससे लोग आसानी से करीब हो जाते हैं। मुश्किल तब होती है, जब लोग अपने बॉस को भी उनके नाम से पुकारते हैं। इससे भले ही कर्मचारी और बॉस के बीच दूरी कम होती हो, पर सच तो यह है कि हर रिश्ता एक दूरी की माँग करता है। यह दूरी ही है, जो विश्वास के बल पर भीतर से दोनों को जोड़ती है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

पेड़ॊं से प्यार करना सीखॊ


पंकज अवधिया
जब भी जंगलो मे जाना होता है दो प्रकार के दृश्य देखने को मिलते है। एक तो पुराने वृक्षो की लकडियो से लदे ट्रक जिन्हे जंगल विभाग की अनुमति मिली होती है और दूसरा तरह-तरह की लकडियो को सिर मे लादे आम निवासी। दोनो ही मामलो मे लकडियाँ जंगल से लायी जाती है। ट्रको मे लदी लकडी आधुनिक मानव समाज की आवश्यकता के लिये जरुरी बतायी जाती है जबकि सिर पर लडी लकडी जलाने के काम आती है। इससे ही घरो का चूल्हा जलता है। मै अक्सर इन लोगो से लकडी की कीमत पूछ लेता हूँ। ट्रक वाले ठेकेदार कहते है साहब ये तो हजारो मे बिकेगी और आम लोग बताते है कि इसके तो कम दाम मिलेंगे पर कुछ दिनो तक घर मे खाना बन जायेगा। जब मै उनसे कहता हूँ कि एक पेड की कीमत लाखो मे है तो वे चौक जाते है। आप भी शायद चौक जाये क्योकि जब वैज्ञानिको ने एक पेड की कीमत निकालनी चाही तो उनके होश उड गये।
पचास वर्ष तक जीने वाला एक वृक्ष इस अवधि मे 31,250 अमेरीकी डालर के कीमत की आक्सीजन देता है। यह प्रदूषण को नियंत्रित करता है। प्रदूषण को कम करने के इस कार्य को आदमी 62,000 अमेरीकी डालर के खर्चने के बाद कर सकता है। मिट्टी के क्षरण को रोकने और उसकी उपजाऊ शक्ति बढाने के योगदान की कीमत 31,250 आँकी गयी है। 37,500 अमेरीकी डालर के बराबर जल का पुनर्चक्रीयकरण करता है। 31,250 अमेरीकी डालर की कीमत के बराबर जीवो को आश्रय देता है। यदि आज की दर से एक अमेरीकी डालर को चालीस रुपयो के बराबर माना जाये तो एक पेड की कीमत 78 लाख 50 हजार रुपये होती है। ऊपर किये गये आँकलन मे पेडो से प्राप्त होने वाले फल और अन्य उपयोगी पौध भागो से होने वाली आय को नही जोडा गया है। मान लीजिये किसी पेड की छाल से कैसर की दवा बनती है और एक पेड पचास वर्षो मे 100 कैसर रोगियो की जान बचाता है। अब यदि कैसर के इलाज की आधुनिक कीमत एक लाख प्रति मरीज भी आँकी जाये तो वह पेड एक करोड का हो जाता है। अर्थात कुल कीमत हुयी 1,78,50,000। इतनी महंगी चीज को हम कुछ हजार मे बेच कर खुश हो रहे है। ये समझदारी है या बेवकूफी?
हमारे योजनाकार कह सकते है कि पेड लगाये भी जा सकते है। सही है पर इसमे सोचिये कितनी लागत आयेगी पचास सालो मे। माँ प्रकृति ने तो पूरी लागत बचा दी है और साथ ही एक पेड से कई नये पेड बनाकर दिये है। यह तो अब आधुनिक अनुसन्धानो से भी प्रमाणित हो चुका है कि माँ प्रकृति द्वारा लगाये गये जंगल मनुष्य द्वारा लगाये जंगल से लाख गुना बेहतर है। माँ प्रकृति के राज जानने के लिये पहले उनका आदर करना सीखना होगा।
कुछ महिनो पहले मै एक पेड की कीमत के आधार पर नियमगिरि पर्वत के पेडो की कीमत का आँकलन कर रहा था। आपको तो मालूम ही है कि यहाँ बाक्साइट का खनन होना है और इसके लिये बडी मात्रा मे पेडो को क़ाटे जाने की योजना है। बाक्साइट जरुरी है और इससे बहुत आमदनी होगी। उसकी तुलना मे पेडो की क्या कीमत-ऐसा खनन के हिमायती कहते फिर रहे है। पर उपरोक्त आँकलन के आधार पर यदि कुछ हजार पेडो के कीमत की तुलना बाक्साइट खनन से होने वाले फायदे से की जाये तो पता चलेगा कि यह खनन घाटे का सौदा है। अपने सर्वेक्षण मे मैने अल्प सम्य मे ही दसो ऐसे पुराने पेडो की पहचान की जो कि लाइलाज समझे जाने वाले आधुनिक रोगो की चिकित्सा मे उपयोगी है।
यह बात समझ से परे है कि क्यो हमारे योजनाकार ये भूल जाते है कि बाक्साइट के बिना जीया जा सकता है पर आक्सीजन के बिना नही। यह तो सरासर आत्मघाती कदम है। मै इसे बेवकूफी मानता हूँ। सब कुछ जानते हुये भी अपने पैर पर कुल्हाडी मारना। रोज हमारे समाचार पत्र यह प्रकाशित करते है कि सडक चौडीकरण के नाम पर दर्जनो पुराने पेड काटे गये। ऐसी हर कार्यवाही से सरकार को करोडो का घाटा होता है। आधुनिक विकास तो इन पेडो को बचाते हुये भी किया जा सकता है। हमारे देश मे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अरबो रुपये खर्च हो रहे है फिर भी पेडो के कटने की गति कम नही हो रही है। रट्टू तोते की तरह चिपको आँदोलन हमे पढा दिया जाता है और हम परीक्षा देकर इसे भूल जाते है। आज गाँव-गाँव मे ऐसे आँदोलनो की जरुरत है। नयी पीढी को पेडो की सही कीमत बताने की जरुरत है वरना वह दिन दूर नही जब प्राणवायु और अच्छे स्वास्थय के लिये तडपते हुये हम आखिरी साँसे गिन रहे होंगे।
पंकज अवधिया
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

चेटिंग रूम में युवा मानसिकता को भ्रमित करने का प्रयास


डा. महेश परिमल
मात्र 23 वर्ष की उम्र और उसके पास है, एसेंट हुंडई. उसमें सवार होकर वह तेजी से भागी जा रही है. लांग ड्राइव पर निकली यह युवती मुम्बई से पुणे जाने वाले रास्ते पर तेजी से जा रही है, अचानक उसे कुछ विचार आता है और वह अपनी कार स्पीड के साथ रोड पर बने डिवाइडर से टकरा देती है. बुरी तरह से घायल अवस्था में उसे अस्पताल में दाखिल किया जाता है, कुछ स्वस्थ होने के बाद वह बताती है कि उसने जानबूझकर अपनी गाड़ी को डिवाइडर से टकरा जाने दिया था. आखिर उसे इस तरह का विचार क्यों और कैसे आया?
एक और घटना. मुम्बई की अंधेरी के एक निजी नर्स्ािंग होम में एक बेहोश महिला को भरती किया जाता है. वह अचानक बेहोश कैसे हुई, यह बताने के लिए कोई तैयार न था. उसके पति को भी पता नहीें था कि उसकी पत्नी अचानक कैसे बेहोश हो गई? उसके पति का कहना था कि वह कामकाजी महिला थी. आफिस से घर और घर से आफिस के अलावा वह और कहीं नहीं जाती थी. डाक्टर भी परेशान थे कि आखिर इस महिला को हो क्या गया है?
अचानक पति ने पत्नी के पर्स की जाँच की. पर्स में से उसे कुछ हतप्रभ करने वाले पत्र मिले! कैसे थे ये पत्र और क्या लिखा था इसमें? यह रहस्य ही रह जाता, यदि इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता. उस पत्र में यह लिखा था कि शांतिपूर्वक आत्महत्या किस प्रकार की जाए. पहली युवती भी इसी तरह के मेनिया का शिकार थी, और वह महिला भी कुछ इसी तरह की बीमारी से ग्रस्त थी. आइए जाने कि ये आखिर है क्या?
आजकल के युवाओं में इंटरनेट का क्रेज बढ़ रहा है. कहते हैं कि इंटरनेट ज्ञान का खजाना है. यह सच होते हुए भी आज गलत साबित हो रहा है. इंटरनेट से केवल ज्ञान ही नहीं, बल्कि बहुत कुछ ऐसा भी प्राप्त हो रहा है, जिसे पचा पाना बहुत ही मुश्किल है. चेटिंग रूम में आजकल जो अपसंस्कृति पनप रही है, उसे आज के अभिभावक न समझ पाएँ, पर इसके दुष्परिणाम जब सामने आते हैं, तब पता चलता है कि हमारे सामने ही हमारी संतान बरबाद हो रही थी और हम इसे समझ नहीं पाए. उपरोक्त दोनों ही उदाहरण में युवती और महिला को चेटिंग रूम में किसी मित्र ने शांति के साथ आत्महत्या करने की सलाह दी थी. जिसे उन्होंने सहजता के साथ स्वीकार भी कर लिया था. याने आजकल इंटरनेट पर शांति के साथ आत्महत्या कैसे करें, यह भी बताया जा रहा है. युवा इसकी चपेट में जल्दी आ जाते हैं, क्योंकि आजकल तनाव के कारण बढ़ते ही जा रहे हैं. परीक्षा में विफलता, प्यार में धोखा, गृह कलह, मित्रों द्वारा घोखा, बुरी संगत में पड़कर कुछ गलत कर बैठना, यह सब आजकल के युवाओं के साथ होता रहता है. इसी के शिकार होते ही युवा आत्महत्या करने की सोचने लगते हैं.
इस अवस्था में यदि वे इंटरनेट का सहारा लेते हैं, तब उन्हें वहीं कैफे में कोई ऐसा मिल ही जाता है, जो उनकी मानसिक स्थिति को समझकर उनकी समस्या का समाधान आत्महत्या में बताता है. अच्छे संस्कारों के बीच पलने वाला युवा जब इसे एक पाप बताता है, तब वह आत्महत्या वाली साइट खोलकर बता देता है, जिसमें बताया गया है कि आत्महत्या करना पाप नहीं है, जीवन बेकार है, तुम इस धरती के लिए बोझ हो, मृत्यु के बाद क्या? इन सभी के बारे में इंटरनेट पर कई वेबसाइट हैं, जो बताती हैं कि आत्महत्या कैसे की जाती है. अपना मानसिक संतुलन खोने वाले युवाओं को पता ही नहीं चलता कि आत्महत्या के बारे में जानने के लिए जो साइट उन्होंने खोली है, वह साइट न होकर मौत का चेम्बर है. इन वेबसाइट पर आत्महत्या करने के विभिन्न उपाय बताए जाते हैं.
इंटरनेट कैफे में आकर युवा चेटिंग करते हैं और अपने अनजान मित्रों से आत्महत्या के बारे में खुलकर चर्चा करते हें. सामने वाला मित्र उन्हें खुदकुशी के लिए उकसाता है. इस दौरान उसे बताया जाता है कि आत्महत्या करना बहुत ही आसान है. इससे शरीर को जरा भी तकलीफ नहीं होती, फिर कल का दिन तुम्हारे लिए तो बहुत ही बुरा है, कल तुम्हें जो पीड़ा होगी, उसे तुम बर्दाश्त नहीं कर पाओगे, इसलिए यदि अभी से ही आत्महत्या के लिए मन बना लो, तो कल का दिन आएगा ही नहीं. बस फिर क्या है, भटका हुआ युवा मन निकल पड़ता है खुदकुशी के लिए. आश्चर्य की बात यह है कि युवा मन की इस मानसिकता को कोई समझ नहीं पाता. घर में किसी को वक्त ही नहीं है कि उसके पास जाकर प्यार से बात करे. प्यार, अपनापन की चाहत में युवा मन को चेटिंग रूम में ही चैन मिलता है, जो उसे अंधेरी गुफा की ओर ले चलता है, जहाँ मौत के सिवाय कुछ नहीं होता.
ऐसा नहीं है कि इंटरनेट पर खुदकुशी करने के लिए प्रेरित करने वाली साइट्स ही हैं. snehindia.org, www.education.vsnl.com, www.cbnindia.com, www.psycom.net/depression ऐसी वेबसाइट्स हैं, जो सकारात्मक विचार देती हैं. इन साइट्स में जीवन को जीने के लिए विभिन्न उपाय बताए जाते हैं. पर सच तो यह है कि आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली साइट्स की अपेक्षा इस तरह के सकारात्मक विचारों वाली साइट्स बहुत ही कम हैं. अब यह अभिभावकों पर निर्भर करता है कि वे अपने बच्चों की तमाम गतिविधियों को ध्यान से देखें कि उनकी संतान क्या करती हैं. उनके दोस्त कौन-कौन हैं, वे किस तरह का विचार रखते हैं, वे जो कुछ पढ़ते हैं, उन किताबों में किस तरह की जानकारियाँ हैं, अपने साथियों के साथ वे किस तरह की फिल्में देखते हैं, कंप्यूटर पर किस तरह की साइट्स पर जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं? यदि इन बातों का पता चल जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी संतान क्या कर रही है? इसके बाद अभिभावक ही उन्हें राह बताएँ कि उन्हें क्या करना है? यदि संतान भटक रही है, तो उसे उपरोक्त सकारात्मक विचारों वाली साइट्स से भी परिचय कराएँ, ताकि संतान कुछ अच्छा भी सोचे.
धन बटोरना चाहते हैं, इसलिए अभी उनके पास अपनी संतान के लिए वक्त नहीं है, तो उन्हें समझ जाना चाहिए कि जब तक वे संतान के लिए धन इकट्ठा करेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. उस धन का इस्तेमाल करने के लिए वही संतान उनके पास नहीं होगी. या तो वह अपराध की दुनिया में चली गई होगी, या फिर चेटिंग रूम में उन्हें आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने वाला कोई साथी मिल गया होगा, जिसे वे अंजाम दे चुके होंगे.
इसलिए अभिभावकों की सतर्कता बहुत ही आवश्यक है. यदि उनके पास वक्त नहीं है, तो निश्चित जानें कि कल उनके बच्चों के पास भी अपने अभिभावकों के लिए वक्त नहीं रहेगा. इसे अभिभावक यदि आज ही समझ लें, तो बहुत ही अच्छा होगा, क्योंकि कल उन्हें देखने वाला कोई नहीं होगा. उनके पास वक्त होगा, लेकिन बच्चे व्यस्त होंगे. तब वे अपने झुर्रियों वाले कँपकँपाते हाथों से अपने बच्चों के लिए कोई इबारत नहीं लिख पाएँगे.
डा. महेश परिमल

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मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

समाज को संवेदनहीन बनाता शोर


डा. महेश परिमल
सुप्रीमकोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि शोर को कम से कम किया जाए. रात में किसी भी प्रकार का ध्वनि प्रसारक यंत्रों का प्रयोग न किया जाए, शहरों में आने वाले वाहनों में तेज या चीखने वाले हार्न का इस्तेमाल बिलकुल भी न किया जाए, पर कोर्ट के अन्य आदेशों की तरह इस आदेश की भी खुलेआम धाियाँ उड़ाई जा रही है. शोर बढ़ता ही जा रहा है, डी जे संस्कृति में साँस लेने वाली यह पीढ़ी शायद यह नहीं जानती कि आज भले ही वे अपने माता-पिता की आवाज सुन रहे हैं, पर यही हालात रहे , तो वह दिन दूर नहीं, जब वे अपने बच्चों की आवाज नहीं सुन पाएँगे. शायद इस स्थिति को कोई स्वीकार नहीं करना चाहेगा, पर आने वाला समय तो यही कह रहा है.
हम बीसवीं सदी को शोरगुल और कोलाहल की सदी के रूप में जानते थे और अब तो इक्कीसवीं सदी की शुरुआत हो गई है लेकिन यह शोर बढ़ता ही जा रहा है. यदि इस शोरगुल, चीख-चिल्लाहट पर नियंत्रण नहीं किया गया तो निकट भविष्य में इसके गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे.
प्रत्येक व्यक्ति के लिए शोर और शोरगुल के मापदंड अलग-अलग हो सकते हैं. इसे सभी के लिए एक ही प्रकार से परिभाषित करना मुश्किल है. फिर भी गलत जगह पर, गलत अवसर पर, एकाएक, अनोखे ढंग से आने वाली आवाज को शोर कहा जा सकता है. दूसरे अर्थो में कहें, तो अनावश्यक, असुविधाजनक और निरर्थक आवाजों का जमावड़ा शोर, शोरगुल, चीख-चिल्लाहट की श्रेणी में आता है.
शोर अथवा शोरगुल का उद्भव सड़क पर दौड़ने वाले वाहनों जैसे कि कार, ट्रक, स्कूटर, ट्रेक्टर, बस, मोटर-सायकल और रेलवे ट्रेन, विमान, हेलीकॉप्टर, प्रेशर हार्न, लाऊड स्पीकर इत्यादि से होता है. मेला, प्रदर्शनी और अन्य उत्सवों में भी शोर एक गंभीर समस्या के रूप में हमारे सामने आता है. व्यस्त बाजारों, भीड़ वाले स्थानों, सब्जी मार्केट, व्यापारिक मेले आदि अनेक स्थान ऐसे हैं, जहाँ शोर सुनाई पड़ता है. फैक्ट्रियों और कारखानों में भी शोर का साम्राज्य होता है. घर, हॉटल-रेस्तराँ, सार्वजनिक स्थानों में पॉप म्यूंजिक या अन्य गीत-संगीत का शोर होता है. इसके अतिरिक्त जहाँ लोगों की भीड़ होगी वहाँ उनकी बातचीत का शोर होगा. कुल मिलाकर शोर से बचा नहीं जा सकता.
रेलवे स्टेशन, बस स्टेन्ड, एयरपोर्ट, सिनेमा-थियेटर के बाहर, मेला, बाजार, मंदिर, बरात आदि स्थानों पर होने वाला शोर जनमानस को प्रभावित करता है. किसी स्थान पर तेज आवांज में बजने वाला लाऊड स्पीकर, डी.जे. म्यूंजिक सिस्टम आदि का शोर कानों को प्रभावित करता है. रेडियो, टी.वी., वी.सी.डी. को ऊँची आवांज में चलाना भी कानों के लिए नुकसानदायक होता है. अनेक फैक्ट्रियाँ, कारखानों में मशीनों से आने वाली निरर्थक आवाजें वहाँ काम करते व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर असर करती है.

वैज्ञानिकों के अनुसार यदि इसी प्रकार ये शोर बढ़ता रहा, तो आने वाले दो-तीन दशकों में हमारे राष्ट्र में बहरे लोगों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृध्दि होगी. इतने अधिक नियंत्रण, नियम एवं कानून होने के बावजूद शहरों में शोर के प्रदूषण पर कोई कमी नहीं आ रही है. उल्टे इसमें लगातार वृध्दि हो रही है. मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कानपुर, पुणे, अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत जैसे औद्योगिक शहरों में शोर की समस्या दिन ब दिन विकराल रूप लेती जा रही है. अब तो इस शोररूपी राक्षस ने छोटे शहरों में भी अपने पाँव पसारने शुरु कर दिए हैं. कोलाहल का स्तर प्रति दस वर्षों में दोगुना हो रहा है. पिछले दस वर्षो में जिस गति से शोर बढ़ा है, उसकी गति पर यदि नियंत्रण नहीं किया गया, तो स्थिति गंभीर से गंभीरतम होती जाएगी.
विश्व आरोग्य संस्था ने स्वास्थ्य की दृष्टि से आवाज की तीव्रता को दिन में अधिक से अधिक 55 डेसिबल और रात्रि में 45 डेसिबल को उचित माना है. डेसिबल आवाज की तीव्रता मापने की इकाई है. डेसिबल मापक्रम में शून्य स्तर पर भी सामान्य व्यक्ति आवाज का अनुभव कर सकता है. सामान्य से अधिक स्तर की आवाज की तीव्रता शरीर को नुकसान पहुँचाती है. विशेषकर कानों पर इसका घातक असर होता है. आइए शोर के दुष्प्रभाव के विषय में विस्तार से जानें-
 एकाएक अत्यधिक तीव्र गति से होने वाली आवांज विशेषकर 60 डेसिबल से अधिक आवांज की तीव्रता जैसे कि जेट विमान की आवांज, बम फूटने की आवांज आदि कान के पर्दे को फाड़ सकती है. इसके कारण हमेशा के लिए बहरापन आ सकता है.
 एकाएक तेज शोर होने पर कई व्यक्तियों में कुछ घंटों के लिए बहरापन आ सकता है.
 3. शोरगुल वाले वातावरण में हमेशा रहने के कारण कान का अंदर का भाग कमजोर हो सकता है. कान का आंतरिक भाग मुख्य रूप से दो कार्य करता है- श्रवण शक्ति तथा शरीर का संतुलन बनाए रखना. हमेशा शोर के प्रभाव में रहने वाले व्यक्ति में बहरापन, चक्कर आना, ऑंखों के आगे अँधेरा छाना आदि लक्षण दिखाई देते हैं. कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों एवं कर्मचारियों में ये समस्या अधिक देखने को मिलती है.
 4. जो व्यक्ति इस प्रकार के शोर वाले वातावरण में रहते हैं, उनमें ऊँचा सुनने की आदत पाई जाती है. धीमी आवाज सुनने की काबिलियत वे खो बैठते हैं. ये लोग स्वयं भी ऊँची आवांज में ही बातें करते हैं.
 5. शोर और कोलाहल की जानलेवा असर केवल कानों को ही प्रभावित नहीं करती किंतु शरीर के अन्य भागों पर भी इसका घातक असर होता है. शोर के कारण बेचैनी, घबराहट, मानसिक तनाव, चिड़चिड़ापन, गुस्सा, डिप्रेशन, ब्लडप्रेशर, हार्ट अटैक आदि अनेक समस्याएँ जन्म लेती हैं. हमेशा शोर वाले वातावरण में रहने के कारण मनुष्य के स्वभाव में भी परिवर्तन आता है
 6. अधिक शोर वाले वातावरण में रहने के कारण ऑंखों की पुतलियाँ भी फैल जाती है. नतीजा यह होता है कि बारीक काम करते समय ऑंखें एकाग्र नहीं हो पाती, रंग पहचानने में परेशानी होती है और रात को देखने में भी मुश्किल होती है.
 7. शाला में बच्चों पर किए गए प्रयोगों के आधार पर यह परिणाम सामने आया कि जो स्कूल अधिक कोलाहल वाले स्थानों पर होते हैं, वहाँ के बच्चों में अभ्यास में एकाग्रता नहीं आ पाती. सड़को पर होने वाले शोर का असर उनकी याददाश्त पर होता है. उनमें सिरदर्द, गुस्सा, बात-बात में लड़ाई-झगड़ा आदि बातें सामान्य हो जाती है.
 8. कारखानों में मशीनी शोरगुल के बीच काम करने वाले लोगों में मानसिक तनाव, सिरदर्द, कम सुनाई पड़ना, एकाग्रता का अभाव, कार्यक्षमता में कमी, चक्कर आना आदि समस्याएँ आती हैं. इसके अतिरिक्त उनमें श्वसन तंत्र एवं पेट के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव में भी झगड़ालू प्रवृति एवं छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा दिखाई देता है.
 9. शोर का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है. अमेरिका में केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में डा. जोन्स ने लगभग दो लाख बच्चों पर शोध करके यह निष्कर्ष निकाला कि शांत वातावरण में रहने वाली स्त्रियों की अपेक्षा शोर वाले वातावरण में रहने वाली स्त्रियों के नवजात शिशुओं मे अनेक प्रकार की शारीरिक विकृतियाँ पाई जाती है. इसके अलावा शोरगुल वाले वातावरण में रहने वाली गर्भवती स्त्रियों में प्रि मेच्योर डिलीवरी होने की संभावना भी अधिक रहती है.
 10. शोर के कारण स्मरणशक्ति में भी कमी आती है. एकाएक होने वाली आवाज जैसे कि बाइक या अन्य वाहन के हार्न की आवांज, किसी के रोने या चीखने की आवांज, विमान या बम की आवांज के कारण वार्तालाप पर प्रभाव पड़ता है और व्यक्ति एक क्षण को यह भूल जाता है कि वह किस विषय पर बात कर रहा था, इसका सीधा प्रभाव याददाश्त पर पड़ता है.
 अधिकतर स्त्रियों में शोर के कारण थकान, चक्कर आना, घबराहट, उल्टी, सिरदर्द, माइग्रेन, नींद न आना आदि समस्याएँ पैदा होती है.
 शोर के कारण नींद न आना एक सामान्य बात है, इससे आगे चल कर एकाग्रता में कमी आती है और कार्य क्षमता पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है.
 शोर के कारण मस्तिष्क, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, हृदय, पाचन तंत्र आदि प्रभावित होते हैं. शोध से यह बात भी सामने आई है कि अधिक शोर के कारण रक्त में कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ जाता है जिससे हृदयरोग, एन्जाइना, हार्ट अटैक, रक्तचाप आदि का खतरा बढ़ जाता है.
इस तरह से देखा जाए तो आज हम किसी भी तरह से शोर से बच ही नहीं पा रहे हैं. वह हमारे जीवन का एक आवश्यक अंग बनकर रह गया है. हमें खुशी होती है, तो हम उसे शोर के माध्यम से ही व्यक्त करते हैं. अब तो दु:ख के समय भी हमें शोर की आवश्यकता पड़ने लगी है. हमारे कान इसके इतने आदि हो गए हैं कि जब कहीं शोर न हो रहा हो, तो वह स्थिति हमें नागवार गुजरने लगती है. इस शोर ने समाज को कुछ भी नहीं दिया, बस खुशियाँ जाहिर करने का माद्दा बनकर रह गया. लेकिन इसने समाज से वह सब कुछ छीन लिया, जो हमारे भीतर संवेदना के रूप में रहता था. इस शोर ने हमें संवेदनहीन बनाकर रख दिया है.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

रक्तदान महाकल्याण, तो अंगदान ?


डा. महेश परिमल
आखिर एस.व्यंकटेश की मौत हो गई. इच्छा मृत्यु की उसकी ख्वाहिश अधूरी रह गई. कोर्ट का फैसला यदि जल्द आ गया होता, तो संभव था, उसकी अंतिम इच्छा पूरी हो जाती. पर कोर्ट ने अपना निर्णय लेने में यहाँ भी देर कर दी. उसे तो मरना ही है, यह सभी जानते थे, पर व्यंकटेश अपनी मौत को ऐतिहासिक बनाना चाहता था. अपने शरीर के अंगों को दान में देकर, ताकि उसकी मौत से कुछ लोगों को ंजिंदगी मिल जाए. मौत से हमेशा मौत ही मिलती है, इसे व्यंकटेश ने नहीं समझा. वह अपनी मौत चाहकर दूसरों को जिंदगी देना चाहता था. आखिर मौत उसे ले गई और उसका जीवन उसके साथ ही खत्म हो गया. आखिर बच भी कहाँ पाते हैं 'मस्क्यूलर डीस्ट्राफी' के मरीज.
हम अपनी इच्छा से किसी को अपना खून देते हैं, मरीज की जान बच जाती है. खून देना हमारी इच्छा पर निर्भर करता है, इस पर किसी की जोर-जबर्दस्ती नहीं होती. इस स्थिति में यदि कोई व्यक्ति यह चाहे कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शरीर का कोई अंग दान में दे दिया जाए, तो लोग इस निर्णय की सराहना करते हैं. पर कोई लाइलाज बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति यदि पूरे होशो-हवास में यह निर्णय ले कि मेरा जीना अब बेकार है, अब मुझे नहीं जीना चाहिए, मेरे शरीर के अंग दान में दे दिए जाएँ, तो क्या यह गलत है?
अपनी खुद की चींज किसी को देना वाकई जिगर की बात है. इस जिगर को हर र्कोई प्राप्त नहीं कर सकता. काफी मुश्किलों से मिलता है, इस तरह का जिगर. 'राइट टू डाई' 'मर्सीकिलिंग' ये सब विवादों के बीच उलझी हुई मानव जाति आज भी रक्तदान के लिए अभियान चलाती है. पूरे विश्व में रक्तदान का अभियान जोर-शोर से चल रहा है. युध्द, ऑपरेशन के दौरान खून की आवश्यकता पड़ती है, इसे सभी स्वीकारते हैं, इसीलिए इस अभियान को बिना किसी विवाद के स्वीकार कर लिया गया है. 'ब्रेन डेड' होने के बाद मानव शरीर के अंगों को अन्य किसी कामों में उपयोग के लिए लिया जा सकता है. व्यंकटेश दिमागी रूप से खत्म हो चुका था, डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था, इसे स्वयं व्यंकटेश भी जानता था, इसीलिए उसने अपनी अंतिम इच्छा यह जताई थी कि उसके शरीर के अंग उन मरीजों को दे दिए जाएँ, जिन्हें उसकी जरूरत है. इसे समझा उसकी माँ ने, और इसे आगे बढ़ाया. किंतु यहाँ नियम और कानून इतने उलझे हुए हैं कि व्यंकटेश ने तब तक विदाई ले ली. उसके साथ ही उसके वे उपयोगी अंग भी चले गए, जो किसी जरूरतमंद के काम आ सकते थे.

आज भी हायर सेकेण्डरी स्कूलों में बायोलॉजी के विद्यार्थी मेंढक की चीरफाड़ इसलिए करते हैं कि उससे मनुष्य के अंगों के बारे में जाना जा सके. हमारे वैज्ञानिक अपने प्रयोग को सफल बनाने के लिए मूक प्राणियों का इस्तेमाल करते हैं. किंतु आज मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि मौत के करीब पहुँचने के बाद भी वह अपना उपयोग किसी अच्छे काम में नहीं कर सकता. बिल्ली मूक प्राणी है, वह बोलकर अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर सकती. इसलिए स्वार्थी मनुष्य उसकी ऑंतों से 'केट गैट स्टीच' बनाता है, जिसका उपयोग ऑपरेशन के दौरान किया जाता है. इसी तरह कई वस्तुएँ हैं, जो जानवरों के शरीर से इंसानों को प्राप्त होती हैं.
आज भी किडनी दान संभव है. लोग स्वेच्छा या धन लेकर अपनी किडनी दान में दे रहे हैं. चूँकि एक किडनी से भी इंसान जी सकता है, इसलिए इसके दान करने में वह पीछे नहीं हटता. अब तो नारियाँ भी अपना गर्भाशय किराए पर देकर 'सरोगेट मदर' की उपाधि स्वीकारने में संकोच नहीं करतीं. ऐसे में 'मर्सीकिलिंग' की घटना भविष्य में साधारण घटना बन जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
अब समय आ गया है कि इच्छा मृत्यु के संदर्भ में कानून बनाया जाए. यह काम न्यायाधीशों का है, जिसे आज नहीं तो कल उन्हें करना ही पड़ेगा. इसे वे आज ही समझ लें, तो बेहतर है. इस संदर्भ में कोई सीमा तय होनी चाहिए, जैसे कि 'मस्क्यूलर डीस्ट्राफी' से ग्रस्त, गंभीर दुर्घटना, जानलेवा बीमारी आदि से पीड़ित व्यक्ति स्वेच्छा से अंगदान करना चाहता हो या अपनी मौत चाहता हो, तो इसके लिए नियम बनने चाहिए.
मानव एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो अपने स्वार्थ के लिए अपने ही बनाए गए तमाम कायदे-कानून को तोड़ने में पीछे नहीं रहता. समय के साथ-साथ मानव को ही मानव अंगों की आवश्यकता होगी, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता. दूसरी ओर मृत्यु के बाद क्या होता है, का प्रश्न अभी भी सुलझा नहीं है. ऐसे में मानव अंगों की माँग बढ़ेगी और उसकी पूर्ति की बात भी बार-बार उठेगी. तब इच्छा-मृत्यु को स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया जाएगा. इस देश में रोज ही कई तरह के कांड सामने आ रहे हैं, उसमें कुछ वर्षों पहले सुना गया था कि किसी साधारण से ऑपरेशन के दौरान मरीज की किडनी निकाल ली गई. तो इस तरह से बिना उसकी जानकारी और अनुमति से जब अंग निकाल लिए जाएँ, तो स्वेच्छा से अंग दान को क्यों स्वीकार न किया जाए?
अब इस विषय को पौराणिक काल में जाकर देखें, तो स्पष्ट होगा कि भगवान शंकर द्वारा अपने पुत्र की हत्या के बाद उसके सर के स्थान पर हाथी का सर लगाने की घटना सामने आती है. उनका वही पुत्र देवताओं में सबसे पहले पूज्य माना जाता है. शंकर द्वारा मिले इस वरदान की बात जब हाथी को पता चली, तो उसने सहर्ष अपना सर दान में दे दिया था. वृत्तासुर राक्षस को मारने के लिए महर्षि दधीचि की अस्थियों से विश्वकर्मा ने इंद्र के लिए वज्र बनाया था. दधीचि द्वारा किया गया स्वेच्छा से यह अंग दान देवताओं के वरदान साबित हुआ. भीष्म पितामह की इच्छा मृत्यु से हम सब वाकिफ ही हैं. उन्होंने श्री कृष्ण के दर्शन के बाद ही अपने प्राण त्यागे. ये उदाहरण बताते हैं कि पौराणिक काल में भी मानव ने अपने अंगों का दान कर पुण्य कमाया और अपनी उदारता बताई. फिर आज मानव इतना स्वार्थी कैसे हो गया? यदि ऐसे में कोई मानव अंग दान की बात करता है, तो उसे क्यों अस्वीकार किया जाता है? यह प्रश्न आज नहीं तो कल निश्चय ही मानव जाति को झकझोरेगा, इसमें कोई दो मत नहीं.
डा. महेश परिमल

शनिवार, 19 अप्रैल 2008

ओपन बुक एक्जाम : एक सफल प्रयोग


डॉ. महेश परिमल
एक बार फिर परीक्षा का मौसम आ धमका है। हाई स्कूल और हायर सेकेण्डरी की परीक्षाएँ शुरू भी हो गई हैं। इसी के साथ शुरू हो गया है, विद्यार्थियों का तनाव। उनके इस तनाव को दूर करने के लिए कई राज्यों में हेल्प लाइन सेवा शुरू की गई है। एक तरफ वर्ष भर का आकलन केवल तीन घंटे में करने की प्रवृत्ति और दूसरी ओर हेल्प लाइन। कैसा मजाक है विद्यार्थियों के साथ? शिक्षा पर हर वर्ष करोड़ों का बजट बनाने वाली सरकारें शायद ही कभी इस दिशा में एक विद्यार्थी की नजर से देखती होंगी।
कभी हेल्प लाइन पर पूछने वाले प्रश्नों पर गंभीरता से सोचने की कोशिश किसी पालक या फिर शिक्षाविद् ने की है? मासूमों के प्रश्न भी गंभीरता लिए हुए हैं। सर, क्या आप बता सकते हैं कि परीक्षा के समय ही मुझे अधिक नींद क्यों आती है? सर, खूब पढ़ता हूँ किंतु परीक्षा में सब भूल जाता हूँ। सर, मुझे अपना पाठ ठीक से याद क्यों नहीं होता? सर, इन दिनों मुझे कमजोरी क्यों आती है? सर, मेरे माता-पिता ने मुझे बड़े अरमान से पढ़ाया है, अब परीक्षा के समय मैं अपने आप को कमजोर मान रहा हूँ, यदि मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, तो मुझे ही काफी दु:ख होगा। सर, मेरा आत्मविश्वास डोल रहा है, इस किस तरह से नियंत्रित रखूँ? ये सारे सवाल बरसों से चली आ रही देश की शिक्षा पध्दति पर सवालिया निशान लगाते हैं। समझ में नहीं आता कि हर बात पर विदेश की नकल करने वाले, विदेशी वस्तुओं और नियम कायदों की दुहाई देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि आजकल वहाँ ओपन बुक एक्जाम होने लगे हैं। क्या इस दिशा में हमारे शिक्षाविद् कभी कुछ सोच पाएँगे?
जिस तरह से एक न्यायाधीश के सामने फैसले का आधार केवल गवाह होता है, ठीक उसी तरह एक परीक्षक के सामने विद्यार्थी? की उत्तर पुस्तिका ही होती है, उसी के आधार पर वह परीक्षार्थी का मूल्यांकन करता है। ऐसे में उसके सामने कोई विकल्प नहीं होता कि बच्चो का मानसिक स्तर कैसा है? उसके सामने तो उत्तर-पुस्तिका होती है। ऐसे में किसी ने यदि पूरा रट कर लिख लिया हो, या फिर नकल करके लिख दिया हो, तो उसे अच्छे अंक देने ही पड़ते हैं। इस स्थिति में उस परीक्षार्थी की कोई अहमियत नहीं होती, जिसने अपने उत्तर पूरी तरह से अपनी समझ से लिखे हों, अपनी तर्क शक्ति के सामने उसने कई उत्तर यदि छोटे भी लिखे हों, तो परीक्षक के लिए वह मामूली बात है। समझबूझ से उत्तर लिखने वाले परीक्षार्थी ने भले ही वर्ष भर सभी छोटी परीक्षाओं में अच्छे परिणाम दिए हों, पर ऐन परीक्षा के समय उसने अपनी तर्क शक्ति के आधार पर उत्तर लिखें हों, तो उसकी इस प्रतिभा से परीक्षक संतुष्ट नहीं होता। क्योंकि परीक्षक के सामने प्रश्न पत्र के अलावा उत्तरों का भी एक मापदंड होता है, जिसमें तर्क से लिखे गए उत्तरों का कोई महत्व नहीं होता। क्या ऐसे में यह कल्पना की जाए कि बिना रटे या नकल किए अपनी समझबूझ से उत्तर देने वाले विद्यार्थी को आखिर कम अंक क्यों मिलते हैं?
आजकल जिस तरह के प्रश्नपत्र तैयार हो रहे हैं, उसके अनुसार विद्यार्थी के लिए अनुत्तीर्ण होना तो मुश्किल है, किंतु अधिक और अच्छे अंक लाना और भी मुश्किल है। इसमें तर्क शक्ति से हल किए जाने वाले सवाल अधिक होते हैं। फिर भी वर्र्ष भर की पढ़ाई का मूल्यांकन केवल तीन घंटों में किसी भी तरह संभव नहीं है। अक्सर यही होता है कि परीक्षा के समय विद्यार्थी तनावग्र्रस्त हो जाते हैं। परीक्षा का भूत उनके सर पर सवार हो जाता है। परीक्षा को लेकर हमारे देश में शुरू से ही एक डर पैदा किया जाता है। उससे निपटने के गुर नहीं बताए जाते हैं। पूरा वर्ष बरबाद होने की दुहाई दी जाती है। सीख, नसीहतें और समझ के सारे रास्ते पढ़ाई से शुरू होते हैं और पढ़ाई पर ही खत्म होते हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के पास केवल तनाव के और कुछ भी नहीं रहता, पर पालक इसे समझ नहीं पाते हैं।
किसी भी विद्वान को अपने पास बिठा लें और उसे किसी एक विषय पर कुछ लिखने को कहा जाए, निश्चित रूप में उसे लिखने के लिए संदर्भों की आवश्यकता होगी। फलस्वरूप उनके द्वारा कई पुस्तकों की माँग की जाएगी, उन पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद ही वह विद्वान कुछ लिख पाएगा, निश्चित ही यह समय तीन घंटे से अधिक ही होगा, तो फिर 15 से 17 वर्ष के विद्यार्थियों से यह कैसे अपेक्षा की जाती है कि वह केवल तीन घंटे में साल भर का पढ़ा हुआ संक्षेप में लिखे? विद्यार्थियों की ऐसी दशा देखकर ही अमेरिका में अब ओपन बुक एक्जाम का प्रचलन शुरू किया गया है। इससे बच्चों में रटने की कुप्रवृत्ति पर काफी हद तक अंकुश लगेगा, कई स्थानों पर तो बच्चों ने रटना ही छोड़ दिया है। अब तक होता यह था कि रटने वाले बच्चो रटकर तो परीक्षा में प्रश्नों का हल कर लेते थे, पर ऐसे बच्चों का विजन काफी संकीर्ण हुआ करता था। ओपन बुक एक्जाम से बच्चों में रटने की प्रवृत्ति अब न के बराबर है। अब उनका विजन भी विस्तृत हो गया है। यह विजन परीक्षा के प्रश्नों को गहराई से समझने और उसके उत्तर लिखने में काम आता है।

अब जो नए प्रकार के प्रश्नपत्र तैयार हो रहे हैं, उसमें ऐसे सवाल होते हैं, जिनके उत्तर तो पाठय पुस्तकों में होते ही नहीं, बच्चों को उसके उत्तर अपनी तर्क शक्ति के आधार पर लिखने होते हैं। ऐसे में बच्चों का रटंत तोता होना उनके लिए हानि का सौदा होगा। यदि विद्यार्थियों की ओपन बुक एक्जाम होने लगेगी, तो अनुत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में कमी आएगी। उत्तीर्ण होने के लिए अभी जो 35 प्र्रतिशत अंक अनिवार्य माने जाते हैं, उसे बढ़ाकर 60 या 75 प्रतिशत किया जा सकता है। अब सवाल यह उठता है कि बोर्ड में जो 90 या 95 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण होते हैं, तो उन सबको कॉलेज में किस तरह से प्रवेश दिया जाए? इसके लिए यह उपाय किया जा सकता है कि सभी कॉलेजों को अपने यहाँ प्रवेश देने के लिए एक छोटी सी प्रवेश परीक्षा लेनी चाहिए, जिसमें विद्यार्थियों के आई क्यू की जानकारी प्राप्त हो सके। इस परीक्षा से विद्यार्थी की प्रतिभा का अनुमान हो जाएगा।
आज विदेशों के कई विश्वविद्यालयों में ओपन बुक एक्जाम लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं, इससे विद्यार्थियों में रटने की प्रवृत्ति खत्म हो रही है और उनके तनाव लगातार कम हो रहे हैं। अब उनमें भूलने का डर समाप्त हो गया है। जब विदेशों में ऐसा हो सकता है, तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? हमारे देश में आज भी डराने वाली परीक्षाओं का चलन है। एक तरफ ऐसी डरावनी परीक्षा और दूसरी तरफ हेल्प लाइन की सेवा, कैसा विरोधाभास है? यदि सरकार सचमुच ही बच्चों की पढ़ाई की दिशा में कुछ कर गुजरने का सोचती है, तो हमारे देश में भी ओपन बुक एक्जाम का चलन शुरू किया जाए, ताकि बच्चें तनावमुक्त होकर बिना किसी डर के परीक्षा दे सकें।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

फैसला और जोखिम का भाईचारा


डॉ. महेश परिमल
एक जोखिमभरा फैसला कई मुश्किलों को आसान कर देता है. कई लोग महत्वपूर्ण समय पर भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले पाते, वजह जानने की कोशिश करो, तो यही सामने आएगा कि उनका संशय हमेशा उन पर हावी होता है. वे हरदम यही सोचते हैं कि कहीं हमारा निर्णय गलत हो गया तो, हम बरबाद हो जाएँगे. बस यही डगमगाता आत्मविश्वास उनके जीवन की नैया को भी डगमगा देता है. जोखिम तो हर फैसले में होता है, क्या इस डर से कोई निर्णय लेना ही नहीं चाहिए?
यह तय है कि फैसले की घड़ी बहुत ही महत्वपूर्ण होती है, इसमें हमें काफी दूर तक सोचना पड़ता है. इस दौरान हम दोनों पक्षों पर समान रूप से नहीं सोच पाते. हमारा ध्यान सबसे पहले उसके नकारात्मक पक्ष की ओर जाता है. इसलिए डर के मारे हम निर्णय लेने की उस महत्वपूर्ण स्थिति को टाल देते हैं. इस तरह से हम यथास्थितिवाद के शिकार हो जाते हैं. हममें से अधिकांश लोग 'निर्णय लेने में भय' की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं. वे बार-बार इस बात से घबराते हैं कि कहीं हम गलत निर्णय न ले लें, जिसकी हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पडे, यहाँ वे यह भूल जाते हैं, निर्णय न लेना उससे भी महँगा पड़ सकता है. हर निर्णय जोखिमभरा तो होता ही है, इससे यह नहीं मानना चाहिए कि हमारा गलत निर्णय हमारे भविष्य को ही चौपट कर देगा. जो जितने अधिक निर्णय लेगा, वह उतना ही सफल माना जाएगा. क्योंकि यह उस खेल की तरह है, जिसमें हार-जीत तो होती ही रहती है. यह सिक्के के दो पहलू हैं. हमारे निर्णय हमारे व्यक्तित्व को हीरे की कणी की तरह चमकाते हैं. निर्णय न लेना उस मूर्ख की बात याद दिलाता है, जिसका यह संकल्प था कि जब तक वह तैरना नहीं सीख लेता, तब तक पानी में नहीं उतरेगा.
हमारे आसपास जितने भी सफल व्यक्ति हुए हैं, उनके व्यक्तित्व का बारीकी से अध्ययन किया जाए, तो यही पाएँगे कि उन्होंने अधिक से अधिक निर्णय लिए. यह आवश्यक नहीं कि जितने भी निर्णय लिए, वे सभी अच्छे थे. लेकिन हर बार एक गलत निर्णय ने उन्हें यह सीख दी कि किस तरह से गलत निर्णय नहीं लेने चाहिए. यह बात तय मान लें, कि जिसने कभी गलती नहीं कि वह कभी सफल नहीं हो सकता.
आपने यह पाया होगा कि निर्णय लेने के तुरंत बाद हम भीतर से काफी राहत महसूस करते हैं, तनावमुक्त हो जाते हैं. पर कुछ समय बाद जब नकारात्मक परिणाम सामने आने लगते है, तब हमारा विचलित होना स्वाभाविक है. इस स्थिति में हमारा धैर्य खोने लगता है. यही स्थिति होती है संभलने की, क्योंकि यही समय होता है, जब उस निर्णय के सकारात्मक परिणाम भी सामने आने वाले होते हैं. अगर हम खोते हुए धैर्य के साथ विचलित होने लगेंगे, तो निर्णय के सकारात्मक पहलुओं की ओर हमारा ध्यान नहीं जाएगा. यह वह स्थिति है, जब किसी समस्या का समाधान एक शेर की तरह हमारे सामने होता है, उसके पूँछ पर समाधान होता है. किंतु हम शेर से ही इतने आक्रांत हो जाते हैं कि हमारा ध्यान उसकी पूँछ की तरफ नहीं जाता. यहाँ हमारे धैर्य की परीक्षा होती है. अक्सर ऐसा ही होता है कि हम समझ नहीं पाते और निर्णय के अच्छे पहलू हमारे करीब से होकर गुंजर जाते हैं, इसका आभास हमें बाद में होता है.

कोई भी निर्णय लेने के पहले हमें मानसिक रूप से बुरे से बुरे परिणाम भोगने के लिए तेयार हो जाना चाहिए. कुछ लोगों के लक्ष्य सुनिश्चित होते हैं. वे अपने निर्णय से संबंधित हर जानकारी एकत्रित कर उसके तमाम पहलुओं का मूल्यांकन करते हैं. संभावित लाभ-हानि की सूची बना लेते हैं, तब सोच-समझकर निर्णय लेते हैं. वे जानते हैं कि निर्णय लेते समय उन्होंने समझदारी से काम लिया है. यदि उनका निर्णय गलत साबित हो जाता है, तो उसके कुप्रभावों का सामना करने के लिए भी वे तैयार होते हैं.
आप इस मुगालते में कभी न रहें कि आपने गलत निर्णय लिया ही नहीं. बड़े से बड़े और सफल से सफल नेता भी कई बार गलत निर्णय ले चुके हैं. पर हर बार गलत निर्णय ने उसके सही निर्णय लेने की शक्ति को बढ़ाया ही है. नेपोलियन ने रुस पर जाड़े में युध्द किया, हिटलर ने भी यही गलती दोहराई, इसी तरह चर्चिल और गालिपोली की लड़ाई, जॉन केनेडी और पिग्स की खाड़ी, ईरान से अमेरिकी बंधको की मुक्ति, या फिर इंदिरा गाँधी द्वारा आपात्काल लागू करना, इस तरह के निर्णयों की एक लंबी सूची है. इन नेताओं के निर्णयों के अध्ययन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
अनिर्णय की स्थिति में देर तक रहने के बजाए एक क्षण में निर्णय लेकर आगे बढ़ जाना बुद्धिमानी है. चाहे विमान चालक हो, या फिर अन्य वाहन चालक. वे तुरंत निर्णय लेते हैं, बीच चौराहे पर वाहन रोककर यह सोचने नहीं लगते कि किधर जाएँ. वे निर्णय लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. मात्र एक प्रतिशत संभावना है, जिसमें उनका निर्णय गलत होता है. तो आप भी इस एक प्रतिशत के डर से शेष 99 प्रतिशत की असीम संभावनाओं पर पानी क्यों फेर रहे हैं. अपने उन मित्रों से अवश्य सावधान रहें, जो भोजन के लिए आपका निमंत्रण स्वीकार करते हैं और आप जब उनसे पूछते हैं कि क्या खाना पसंद करेंगे, तो वे कहते हैं कि कुछ भी चलेगा. दरअसल इसका मतलब यह है कि वे निर्णय लेने में कमजोर हैं. उनका यह अवगुण उनके अन्य कार्यों में झलकता है.हमें निर्णय लेने ही चाहिए, हमें निर्णय लेते रहना चाहिए, हर निर्णय हमें सबक देगा. इसे कतई न भूलें. जोखिम की परवाह कभी न करें, क्योंकि जोखिम का डर आपके साये की तरह सदैव आपके साथ होगा. हममें से कई लोग ऐसे भी है, जो जोखिमभरा फैसला लेने में माहिर होते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि डरपोक और संकोची बने रहने से कुछ नहीं होगा. यह प्रवृति नुकसान और अपयश देती है. अत: फैसला लेने में देर न करो, पर दिमाग को सोचने का पूरा समय दो.
हाल ही में मुम्बई में अप्रवासी भारतीयों का सम्मेलन हुआ. इसमें कई ऐसे भारतीय शामिल हुए, जो बरसों पहले अपना देश छेोड़कर विदेश गए थे. वहाँ जाकर उन्होंने अपने बलबूते पर अपनी दुनिया बसाई, ये सब कुछ हुआ उनके अपने निर्णय लेने की क्षमता के कारण. इनमें से एक हैं हरसुख भाई. 1968 में जब वे बड़ोदरा एम.एस. यूनिवर्सिटी में से बी.कॉम करने के बाद जब वे अमेरिका पहुँचे, तब उनके पास केवल दो डॉलर थे. पहले तो उन्होंने एक हॉटल में वेटर की नौकरी की. इस नौकरी में उन्हें प्लेट धोना पड़ता था. उन्होंने इस काम को मन लगाकर किया. इस दौरान उन्होंने एमबीए किया और उसी हॉटल में एकाउंटेंट के रूप में काम शुरू किया. पाँच साल के भीतर ही उन्होंने केलिफोर्निया में पहली मोटेल शुरू की. इसके बाद उन्होनें पीछे मुड़कर नहीं देखा. अपने चार भाइयों को भी उन्होंने अमेरिका बुला लिया. अब पाँचों मिलकर निर्णय लेते, और आगे बढ़ने का उपक्रम करते. आज वे अमेरिका की तीस होटलों के मालिक हैं,यही नहीं अब तक 34 होटल बनाकर बेच भी चुके हैं. क्या उन्होंने कभी ंगलत निर्णय नहीं लिए होंगे? निश्चित ही उनके कई निर्णय गलत हुए होंगे, पर हर गलत निर्णय ने उनकी राह को मजबूत किया. आज वे पाँचों भाई विफल लोगों के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं. उन दो डॉलरों ने हरसुख भाई को जो दिशा दी, उसे वे कभी नहीं भूले. यदि उनके पास अधिक धन होता, तो निश्चित ही वे इतना आगे नहीं बढ़ पाते. जहाँ धन की कमी होती है, वहाँ बुद्धि अधिक काम करती है. बुद्धि का काम करना याने निर्णय लेते रहना. मस्तिष्क को हमेशा सक्रिय और चौकस रखना. यही बनाता है हमारे रास्तों को सुगम.
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 16 अप्रैल 2008

हवाओं को भी गुस्सा आता है...


डा. महेश परिमल
घाघ और भड्डरी की कहावतों में से एक है 'वायु चलेगी उ?ारा, मांड पीयेंगे कु?ारा'. मतलब यही कि फसल की बोवाई के दौरान यदि वायु उ?ार दिशा की ओर से आती हो, तो फसल इतनी अच्छी होगी कि कु?ाों को भी भात का पानी पीने को मिलेगा. यह उ?ारा वायु की विशेषता है. दूसरी ओर पुरवैया, पछुआ और मलयानिल भी तो हैं. इनकी भी अपनी विशेषताएँ हैं. पुरवैया या पुरवा जहाँ परदेस गए अपने स्नेहीजनों की याद दिलाती हैें, तो पछुआ हवाओं को पाश्चात्य संस्कृति का प्रतीक माना जाता है. कुछ भी हो पर हवाएँ तो हमें सदैव ही राहत देती रहती हैं. वैज्ञानिक भले ही इसे ऑक्सीजन कहें, पर यह समस्त प्राणियों के लिए प्राणवायु है. यही प्राणवायु अब हमें न जाने क्यों विचलित कर रही हैं. इनका रौद्र रूप अब छोटे-छोटे ही सही, पर तबाही के मंजर दिखा रहा है.
कभी-कभी हवाएँ जब नाराज हो जाती हैं, तो कदम-कदम दिखाई देता है, तबाही का मंजर. पेड़ गिरते हैं, कई वाहन क्षतिग्रस्त होते हैं, कई दीवारें गिरती हैं, झोपड़ियाँ नष्ट होती हें, बिजली बंद हो जाती है, कई लोग घायल होते हैं, परिंदों के आशियाने उजड़ जाते हैं, यानि केवल हम ही नाराज नहीं होते. हमें जीवित रखने वाली ये प्राणवायु भी नाराज होती है. धरती जब नाराज होती है, तब क्या होता है, यह तो गुजरात से पूछो, और जब समुद्र नाराज होता है, तो सुनामी का कहर बरपाता है. मतलब यही कि नाराज होना केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी और प्रकृति को भी आता है.
जानते हैं इस बार हवाओं को गुस्सा क्यों आया? धरती और समुद्र का गुस्सा होना तो हम जान गए, पर हवाओं का गुस्सा होना हमें ऐसा लगा कि जैसे कोई अपना ही हमसे अचानक ही नाराज हो गया. अपना इसलिए क्योंकि हवाओं का स्पर्श ही दिल को सुकून देता है और सांसों में उसका बसना जीवन देता है. अपनेपन का यह स्रोत, जीवन देने वाली यह प्राणवायु ही हम से नारांज हो गई. देखा जाए तो हवाएँ कभी नाराज ही नहीं होती. पर लोग उससे भी छेड़छाड़ करने लगे, वह भी बरसों से लगातार, तो ऐसे में उसका भी नाराज होना स्वाभाविक है. अगर हम इसकी तह पर जाना चाहें, तो हम पाएँगे कि गलती हमारी ही है. वैसे भी यही इंसान अपने स्वार्थ के कारण धीरे-धीरे प्रकृति का ही सबसे बड़ा दुश्मन बनने लगा है. प्रकृति से उसकी छेड़छाड़ लगातार बढ़ रही है. निश्चित ही सहन करने की भी एक सीमा होती है. अब प्रकृति की सहनशक्ति समाप्त होने लगी है. इसीलिए हमें प्रकृति का कोप दिखाई देने लगा है.

हवाओं का नाम लेते ही पेड़ो की याद आती है. तरु महिमा क्या होती है, यह हम नहीं जानते, पर इतना तो जानते हैं कि आज भी कहीं-कहीं पेड़ों की पूजा होती है. अगर यह कहा जाए कि यही हैं हवाओं के जन्मदाता, तो गलत न होगा. पेड़ के लिए श?दकोश एक और नाम देता है तरु. संस्कृत में तरु का अर्थ पेड़ के अलावा आपदाओं से रक्षा करने वाला भी है. भला किसे अच्छा नहीं लगता, घना और हरियाला छायादार पेड़. चिलचिलाती धूप में पसीने से तरबतर, थके हारे किसी राहगीर को इस तरह का पेड़ दिखाई दे जाए, तो निश्चित ही वह उस पेड़ की ठंडी छाँव में थोड़ी देर के लिए आराम करना चाहेगा. पेड़ का हरियालापन ही लोगों को आकर्षित करता है. अब हम अपने चारों ओर नजर घुमा लें, तो क्या आप पाएँगे, कोई छायादार हरियाला पेड़. जब आपदाओं से रक्षा करने वाले को ही काट कर ड्राइंग रुम की शोभा बना ली है, तो वह कैसे हमारी रक्षा कर पाएगा? सोचा कभी आपने?
पेड़ का मानव से बरसों पुराना नाता है. मानव भी इनके महत्व को समझता है. पर आज वह अपने स्वार्थों में इतना लिपट गया है कि वह अपनी रक्षा करने वाले को ही काटने लगा है. जिस पेड़ की जड़ जितनी ही गहरी होंगी, वह उतना ही विश्वसनीय होगा. इसी तरह जिस व्यक्ति के सद्विचारों की जड़ें जितनी गहरी होंगी, वह उतना ही परोपकारी होगा. इंसान ने पेड़ से यही सीखा. लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं. अब न तो व्यक्ति के विचारों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह कुछ अच्छा सोचे. इसके साथ ही वह अपने इस तरह के विचारों को आरोपित करते हुए गहरी जड़ों वाले पेड़ों का अस्तित्व ही समाप्त करने में लग गया है. मानव की यह प्रवृ?ाि उसे कहाँ ले जाएगी, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सच है कि प्रकृति को अब गुस्सा आने लगा है. यही कारण है कि अब हमें प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कुछ अधिक ही होने लगे हैं.
मानव जब क्रोधित होता है, तब वह अपनी ही हानि करता है. लेकिन प्रकृति की नाराजगी में भी कुछ अच्छा ही छिपा होता है. जहाँ भूकम्प ने पानी के कई स्रोतों को नया जीवन दिया, वहीं सुनामी ने जो कुछ मानव को दिया, वह अभी भी रहस्य के घेरे में है. लेकिन इंसान ही है, जो क्रोधित होकर अपना ही नुकसान करता है, क्योंकि क्रोध बुद्धि को नष्ट कर देता है. यही वजह है कि प्रकृति से साथ-साथ रहने वाला यही मानव अब उससे लगातार दूर होता जा रहा है. वह जितना दूर जाएगा, उतना ही अकेला होता जाएगा. तब उसके पास नहीं होगी, किसी पेड़ की ठंडी छाँव, किसी कुएँ का शीतल जल और न ही होगी गहरी नींद. इसलिए अभी भी समय है, इस नटखट मानव को आना ही होगा प्रकृति की गोद में. प्रकृति बहुत ही उदार है, वह मानव के सारे पापों को क्षमा कर देगी, उसकी नादानियों को भूल जाएगी और फिर देगी अपना दुलार, प्यार और ढ़ेर सारा प्यार....
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

देश में बहती शराब की नदियाँ


डॉ. महेश परिमल
पहले कहा जाता था कि हमारे देश में दूध की नदियाँ बहती थीं। हमारे बुजुर्गो की यह बात हमें समझ में नहीं आती थीं। हमें विश्वास ही नहीं होता था कि ऐसा हो भी सकता है। आज उनकी बात कुछ-कुछ समझ में आ रही है। जब हम देख रहे हैं कि हमारे देश में दूध नहीं शराब की नदियाँ बह रहीं हैं। मेरी बात अटपटी लग सकती है, लेकिन आज जिस तरह से हमारे देश में शराब की बिक्री बेतहाशा बढ़ रही है, उससे तो यही कहा जा सकता है कि देश में भले ही दूध की नदियाँ बहती हो, पर अब शराब की नदियाँ बह रहीं हैं, तो गलत नहीं होगा।
हमारे देश में शराब की बिक्री में हर वर्ष 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो रही है। अब तो कोई भी समारोह हो, शराब की महफिल के बिना अधूरा है। नए वर्ष की अगवानी तो बिना इसके संभव ही नहीं है। नए वर्ष के आगाज में भारत में जितनी शराब पी जाती है, उतनी तो अमेरिका और ब्रिटेन में भी नहीं पी जाती है। जिस तरह से रिश्वत को आजकल शिष्टाचार मान लिया गया है, ठीक उसी तरह शराब का सेवन अब किसी को आश्चर्य में नहीं डालता। शराब कंपनियाँ भी अब इस काम के लिए फिल्म स्टॉर्स का सहारा लेने लगी है। हाल ही में रेडिको खेतान नाम की कंपनी ने मेजिक मोमेंट्स नाम की खुद की वोदका के ? प्रचार के लिए ऋतिक रोशन का अपना ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाया है। अनु कपूर वर्षों से शराब के लिए विज्ञापन करते आए हैं। फिल्म भूल-भुलैया के नायक शाइनी आहूजा को डिएजीओ कंपनी ने वोदका का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाया है। शाहरुख और शिल्पा शेट्टी भी अब अल्कोहल के विज्ञापनों में काम करने के लिए तैयार हो गए हैं। यह सभी जानते हैं कि शराब शरीर के लिए हानिकारक है, लेकिन फिर भी लोग इसे पीने से बाज नहीं आते। सरकार ने अवश्य इसके विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा दिया है, पर जिस ब्राण्ड की शराब हो, उसी ब्राण्ड के सोडे का विज्ञापन करना गलत नहीं मानती। सरकार की इसी नासमझी के कारण ये चालाक कंपनियाँ जिस ब्राण्ड की शराब बेचती हैं, उसी ब्राण्ड के सोडे का विज्ञापन टीवी पर करती हैं, इससे उनकी शराब का विज्ञापन भी हो जाता है और कानूनी रूप से वे दोषी भी नहीं माने जाते। साँप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती, शायद इसी को कहते हैं।
अभी कुछ ही दिन पहले हमारे पंडित जी अपनी कन्या के लिए सुयोग्य वर ढूँढने के लिए निकले, उनका यह संकल्प था कि वर तो उसे ही चुनेंगे, जो युवक शराब का सेवन न करता हो। आश्चर्य इस बात का है कि पंडित जी के सारे प्रयास विफल साबित हुए, क्योंकि उन्हें अभी तक एक भी ऐसा युवक नहीं मिला, जो शराब का सेवन न करता हो। इसका आशय यही हुआ कि आज शराब का सेवन समाज में अनजाने में ही स्वीकार्य हो गया है। आज की पीढ़ी शराब के नशे में इतनी डूब गई है कि इसके बिना वे कुछ भी नया नहीं सोच सकते। आज शराब उनकी लाइफस्टाइल का एक हिस्सा बन गई है। गांधीजी ने अपनी दूरदर्शिता से यह समझ लिया था कि निश्चित रूप से देश को कोई चीज रसातल में ले जाएगी, तो वह होगी शराब। इसलिए उन्होंने जब स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी, उसमें शराब का कोई स्थान न था। गांधीजी के सपनों का भारत बनाने के लिए ही उन्हें ध्यान में रखते हुए स्वतंत्रता के बाद तमाम राज्यों में शराबबंदी की नीति लागू की गई। आज भी देश के सभी राज्यों में शराबबंदी विभाग है, पर यह विभाग केवल शराब के परमिट देने का ही काम करता है। और तो और गांधी के देश याने गुजरात में तो शराब बंदी केवल कागजों पर ही सिमट कर रह गई है।
शराब की नदियाँ बहने के दृश्य को याद करें, तो जब भारत ने 20-20 का मैच जीता था, तब देश के महानगरों से लेकर गाँव की गलियों में किस तरह से शराब के साथ जश्न मनाया गया था, यह हमें याद ही होगा। नए साल की अगवानी और पुराने साल की विदाई के समय तो जिस तरह से हर खुशी में शराब होती है, उससे तो यही लगता है कि भविष्य में नए साल की अगवानी बिना शराब के हो ही नहीं सकती। उस दिन बड़ी-बड़ी होटलों में जिस तरह से नशे में धुत्त लोग बेहूदा नृत्य करते हैं, उससे ही पता चल जाता है कि उनके लिए नया वर्ष नहीं, बल्कि शराब महत्वपूर्ण होती है। आज किसी भी समारोह में जाएँ, तो वहाँ अपनी खुशी का इजहार कोई हस्ती शेम्पेन की बोतल से झाग निकालकर ही करती दिखाई देगी। पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए, इस तरह से आज खुशी बताने का कोई भी कार्यक्रम उत्सव की तरह आयोजित होता है, फिर आयोजन चाहे किसी के जन्म दिन का हो, शादी का हो या फिर गणेश विसर्जन का हो, लोग बिना शराब के इसे नहीं मनाते। अब तो इसमें युवतियों और महिलाओं का समावेश हो गया है, इसलिए महफिल की रंगत ही बदल गई है।
जिस तरह से क्रिकेट का खेल हमें ऍंगरेजों से विरासत में मिला है, ठीक उसी तरह यह शराब के सेवन की आदत भी हमें उन्हीं से मिली है। अपनी खुशियों को जाहिर करने के लिए शेम्पेन की बोतल से झाग निकालना भी हमने ऍंगरेजों से ही सीखा है। शराब की नदियाँ देश में बहाने के लिए देश की शराब नीति और शराब उत्पादकों की चालाकी प्रमुख है। जब भी कहीं अपराध की खबर हो, तो उसमें यही बताया जाता है कि अपराधी ने अपराध करने के पहले खूब शराब पी, उसके बाद ही वह उस कार्य में सफल हो पाया। स्पष्ट है कि अपराध का नशे से गहरा वास्ता है। नशे से जीवन ही नहीं, परिवार, समाज और पूरा देश बरबाद होता है। यह जानते हुए भी हमारी सरकार ने राजस्व के कारण लोगों को खुलेआम शराब पीने की छूट दे रखी है। लोग पी रहे है और मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं।

देश का आर्थिक विकास तेजी से हो रहा है, उसी तेजी से बदल रहे हैं, जीवन मूल्य। अब लोगों के पास अनाप-शनाप धन की आवक हो रही है। सन् 2001 में हमारे देश में शेम्पेन की 3 हजार केरेट की बिक्री हुई थी, जो आज बढ़कर 20 हजार केरेट से अधिक हो गया है। आज देश भर में जितनी शराब बेची जाती है, उसका दस प्रतिशत तो केवल शेम्पेन के रूप में ही होता है। भारत के शहरों में इंडियन मेड फारेन लिकर की बिक्री में लगातार इजाफा हो रहा है। कुछ समाज तो ऐसे हैं, जहाँ ऐसा कोई युवक ही नहीं है, जो शराब पीता ही न हो। एक अंदाज के अनुसार भारत में शराब की बिक्री हर वर्ष 15 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। सन् 2007 में शराब की कुल बिक्री 15 करोड़ केरेट जितनी हुई। दूसरी ओर बीयर की बिक्री 13.7 करोड़ केरेट जितना हुआ। आश्चर्य इस बात का है कि बीयर को शराब में शामिल नहीं किया जाता, इसलिए लोग इसे निरापद मानकर इसका खूब सेवन करते हैं। आजकल जिस तरह से प्रतिस्पर्धा चल रही है, उसमें आज के युवा इतने खप गए हैं कि 12 से 16 घंटे तक जी-तोड़ मेहनत के बाद वे थककर बीयर का सहारा लेते हैं। धीरे-धीरे यह उनकी आदत में शामिल हो जाता है। फिर आज तो यह एक फैशन के रूप में सामने आ रहा है। आज की युवा पीढ़ी तनाव के दौर से गुजर रही है। आय बढ़ गई है, नौकरी पर खतरा हमेशा मँडराते रहता है, दूसरी कंपनियों से स्पर्धा लगातार जारी है, इस स्थिति में शराब और सिगरेट आसानी से उनसे जुड़ जाती है। युवा जब ये दोनों से बुरी तरह से जकड़ जाता है, तब ड्र्रग्स जैसी चीजें उसे आसानी से अपनी गिरफ्त में ले लेती है। आज के युवा वाइन और व्हीस्की के बदले वोदका और रम के प्रति अधिक आकर्षित होती है। ये दोनों महँगी है, लेकिन अधिक नशा प्रदान करती है। शराब उत्पादकों का मानना है कि आज 60 प्रतिशत जनसंख्या 25 साल से कम युवाओं की है, इसमें वे युवतियाँ भी शामिल हैं, जो बड़े-बड़े सपने लेकर साधारण परिवार से आती हैं, अधिक धन इन्हें ललचाता है और वे और अधिक धन की लालच में व्यसनी बन जाती हैं, ऐसी युवतियाँ ही युवकों की बरबादी का कारण बनती हैं।
शराब कंपनियाँ चुनाव के दौरान करोड़ों रुपए का चंदा देती है, जिससे राजनीतिज्ञ इनके हाथ की कठपुतली बनकर रह जाते हैं। शराब कंपनियों पर हमेशा मेहरबान रहने वाले ये राजनीतिज्ञ कभी नहीं चाहते कि लोग शराब पीना छोड़ दें। आश्चर्य इस बात का है कि शराब पीने वाले शराब को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हैं, फिर भी वे इससे बाज नहीं आते हैं। शराब कंपनियाँ अपने उत्पाद को बेचने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाती है, जिसके चंगुल में लोग आ ही जाते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों में एक्जीक्यूटिव बिजनेस पार्टियों में मुफ्त की शराब खूब पीते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो महँगी शराब मुफ्त में नहीं पी सकते, वे हाई सोसायटी की पार्टियों में गेट के रूप में घुस जाते हैं। कहना न होगा कि जिस तेजी से देश का आर्थिक विकास हो रहा है, उसी तेजी से लोग व्यसनी बनते जा रहे हैं। कहीं कहीं तो व्यसनी होना शिष्टाचार का प्रतीक माना जाता है। कई बार तो ऐसे लोग जो शराब नहीं पीते, उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है।
शराब के साथ एक बात और है, पहला तो अपने बचपन के मित्र से भी महत्वपूर्ण होता है, टेबल का मित्र याने साथ-साथ शराब पीने वाला साथी, दूसरी बात यह है कि व्यक्ति जब तक शराब नहीं पीता, तब तक उसे कई पिलाने वाले मिल जाएँगे, पर जब वह इसका आदी हो जाता है, तो कोई नहीं पिलाता। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी गरीब के घर का चूल्हा नहीं जलता, तो उसे शराब के लिए तो उधारी देने के लिए कई हाथ सामने आ जाएँगे, पर दाल-आटे के लिए कोई उधारी देने के लिए तैयार नहीं होता। यह शराब और उसे पीने वालों का गणित है, जिसे हर कोई समझ नहीं सकता। अब तो पत्रकारों को शराब मुफ्त में मिल ही जाती है, कई कंपनियों के एक्जीक्यूटिव भी बिजनेस पार्टियों में मुफ्त की शराब के आदी होने लगे हैं। कुछ व्यवसायों में तो शराब का होना अतिआवश्यक है। विदेश से आने वाली महँगी से महँगी शराब आजकल लोग इतनी आसानी से खरीदते हैं, मानों सब्जी बाजार में जाकर सब्जी खरीद रहे हों। मोएट नाम की विदेशी कंपनी ने हाल ही में ग्लेंमोरंगी नाम की दुर्लभ स्कॉच व्हीस्की की मात्र 100 बोतलें ही भारत आयात की, इसकी एक बोतल की कीमत 18 हजार 400 रुपए थी, आपको आश्यर्च होगा कि ये सारी बोतलें एक ही दिन में बिक गईं। इसी तरह डीएजीओ नाम की मल्टीनेशनल कंपनी की मास्टर स्ट्रोक नाम की व्हीस्की के 100 दिन में एक लाख केरेट बिक गए। इस तरह से शराब बेचने और पीने-पिलाने का सिलसिला जो हमारे देश में बेतहाशा शुरू हो गया है, सच मानो, अब यह रुकने वाला नहीं है।
शराब का समीकरण बहुत ही पेचीदा है, कई लोग तो इसे केवल पिलाने में ही अपना स्वार्थ खोजते हैं। कई लोग पार्टियाँ ही इसलिए करते हैं, क्योंकि उसमें शराब बहती है। कई लोग रहस्य खुलवाने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं, कई लोग पिलाना अपनी शान समझते हैं, कई लोग अपना गम भूलने के लिए इसका सहारा लेते हैं, कई लोग इसे तनाव दूर करने का संसाधन समझते हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इसे पीने के लिए कोई उचित कारण नहीं है। खुशी और गम में बराबर इसका सेवन होता है। कई लोग इसे ही जिंदगी मानकर पीते हैं और अपनी जीवन यात्रा बीच में ही पूरी कर लेते हैं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

बीमारी से भी खतरनाक है एड्स का सच


डॉ. महेश परिमल
क्या आप बता सकते हैं कि हमारे देश में कितने लोग एड्स के साथ जीते हैं और कितने लोग एड्स पर जीते हैं? बात थोड़ी अटपटी लगेगी, किंतु इसे समझ लेने के बाद आपको लगेगा कि सचमुच हम सब किस तरह से एक सोची-समझी साजिश के तहत छले जा रहे हैं। हमें इसका हल्का सा अहसास भी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसे अभी तक हमारी सरकार ने भी सही ढंग से नहीं समझा है। समझने में काफी वक्त लगेगा पर सच तो यही है कि विदेशी बाजार हमें बहुत ही धीमा जहर दे रहा है और हम सब इसे अनजाने में ही ग्रहण भी कर रहे हैं।
शायद आपको पता न हो कि एचआईवी याने एड्स के बारे में जागृति फैलाने के लिए हमारे देश की स्वयं सेवी संस्थाओं को कितनी धनराशि प्राप्त हो रही है। इसी धनराशि को देखकर ही कई नई संस्थाएँ तैयार होती हैं, एक-दो रिपोर्ट देती हैं और धन मिलने के बाद बंद भी हो जाती हैं। आप कहेंगे कि अच्छा ही तो है कि लोग एड्स जैसी भयानक बीमारी के प्रति जागरूक तो बन रहे हैं, उसमें किसका अहित है? आपकी बात सच हो सकती है, पर यह भी सच है कि आज हमारे देश में एड्स से अधिक मौतें तो मलेरिया से होती हैं, टी.बी. से होती है। हमारे देश में प्रति मिनट एक मौत टी.बी. से होती है। याने यह बीमारी एक वर्ष में 5 लाख लोगों को अपने आगोश में ले लेती है, हमारे देश में सात करोड़ लोग हृदय रोग से और 3.2 करोड़ लोग डायबिटीस से ग्रस्त हैं, इस रोग से हर वर्ष हजारों मौतें होती हैं, तो दूसरी ओर एड्स से एक वर्ष में केवल 10 हजार मौतें ही होती हैं। फिर एड्स को लेकर ही इतनी अधिक सावधानी क्यों बरती जा रही है? देश में हर वर्ष 22 लाख लोग टी.बी. जैसे संक्रामक रोग की चपेट में आते हैं, फिर टी.बी. को लेकर इतना प्रचार-प्रसार क्यों नहीं होता? हमारे ही देश में हर वर्ष 10 लाख बच्चे अतिसार के कारण मौत का शिकार होते हैं, इसका इलाज काफी सस्ता भी है और इसे घर में ही नमक, शक्कर और पानी से बनाया जा सकता है, पर इसका भी उतना अधिक प्रचार क्यों नहीं हो पाता? दूसरी ओर एड्स से बचाव को लेकर हम अक्सर ही अखबारों में लेख पढ़ते ही रहते हैं, टीवी पर विज्ञापन भी देखते रहते हैं। यहाँ तक कि हम एड्स दिवस भी मनाते हैं। पर कभी टीबी, अतिसार या फिर अन्य रोगों के लिए सरकार इतनी चिंतित दिखाई देती है भला? आखिर एड्स के लिए ही इतनी जागरूकता की क्यों आवश्यकता पड़ी? आइए इस सच की पड़ताल करें-
सन् 2000 के बाद केंद्र सरकार ने एड्स जैसी बीमारी से लड़ने के लिए कुल 3,054 करोड़ रुपए खर्च किए हैं, तो मलेरिया की रोकथाम के लिए पिछले 7 साल में 1,160 करोड़ रुपए ही खर्च किए हैं, देखा जाए तो यह राशि एड्स की तुलना में बहुत ही कम है। केंद्र सरकार द्वारा दी गई राशि में से कितनी राशि एड्स के इलाज के लिए मरीजों को दी गई है और कितनी राशि सरकारी अधिकारी हजम कर गए हैं, यह एक शोध का विषय है। एड्स की रोकथाम के लिए केंद्र सरकार जितनी राशि खर्च करती है, उससे कई गुना अधिक धनराशि तो हमारे देश में डॉलर के रूप में विदेशों से आती है। यह राशि तमाम स्वयं सेवी संस्थाओं को प्राप्त होती है, जो कथित रूप से एड्स की जागरूकता के लिए काम करती है। अभी तक इन संस्थाओं को कितनी रकम प्राप्त हुई ?है, इसकी जानकारी नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन याने नार्को को भी नहीं मालूम। एड्स के सामने लड़ने का दावा करने वाली तमाम संस्थाओं के प्राप्त धन का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो फाइव स्टॉर होटलों में कांफ्रेंस करने और हवाई जहाज में विदेशी के टूर करने में ही खर्च हो जाता है। इन संस्थाओं के पास गाँवों में जाकर एड्स के खिलाफ जन जागरूकता फैलाने वाले कार्र्यकत्ता नहीं होते, पर थोड़ी-बहुत ऍंगरेजी जानने वाला और बढ़िया प्रोजक्ट रिपोर्ट बनाने वाले कुशल लोग होते हैं, जिससे विदेशी धन प्राप्त किया जा सके। इनकी रिपोर्ट में यही दर्शाया जाता है कि भारत में एड्स रोगी लगातार बढ़ रहे हैं, इसका इलाज आवश्यक है। ये इसकी इतनी भयावह तस्वीर पेश करते हैं कि विदेशी दवा कंपनी को अपने काम का अंजाम देने में आसानी हो जाती है। इसके बाद शुरू होता है, उन दवा कंपनियों का काम, जो एड्स की दवा बनाती हैं। ये कंपनियाँ पहले तो उन रिपोर्टो को जाहिर करती हैं कि देश में एड्स तेजी से फैल रहा है, यदि इसकी तुरंत रोकथाम न की गई तो यह महामारी के रूप में फैल सकती है। अब ये दवा कंपनियाँ पहले तो देश में मुफ्त में रक्त परीक्षण शिविर का आयोजन करती हैं, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि देश में कितने लोग एचआईवी से ग्रस्त लोग रहते हैं। इसके बाद ये अपनी दवाओं को बाजार में लाती हैं। ये मल्टीनेशनल कंपनियाँ पहले उन एचआईवी ग्रस्त लोगों को पकड़ती हैं, जिन्हें घोषित रूप से एचआईवीग्रस्त मान लिया गया है। डॉक्टर इन्हें एंटी रिट्रोवाइलर थेरेपी लेने की सलाह देते हैं। फर्र्स्ट लाइन एंटी रिट्रोवाइलर थेरेपी के नाम से पहचानी जाने वाली ये दवाएँ बाजार में 8 हजार रुपए में मिलती है। अभी एक लाख 25 हजार लोगों को यह दवाएँ मुफ्त में बाँटी जा रही हैं। मुफ्त में मिलने वाली इन दवाओं का नुकसान यह है कि इससे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है। इसके बाद शुरू होती है कंपनियों की पैंतरेबाजी। पहले चरण की दवा तो मुफ्त में मिल गई और शरीर में उसका रिएक्शन भी शुरू हो गया। अब दूसरे चरण की दवा लेना आवश्यक है। गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों को तो यह दवा भी सरकार की तरफ से मुफ्त में मिल जाती है, पर दूसरों को नहीं। दूसरों को यह दवाएँ काफी महँगी मिलती है। उसके बाद तीसरे चरण की दवा तो और भी महँगी होती है। इस तरह से यह सिलसिला एक बार शुरू होता है, तो फिर रुकने का नाम नहीं लेता। मरीज को जीवनभर ये दवाएँ लेनी होती हैं। इस तरह से दवाओं का विक्रय शुरू हो जाता है और कंपनियों का लाभ भी।
यह कतई आवश्यक नहीं है कि जिन्हें एचआईवी पॉजीटिव है, वे एड्स रोगी ही हैं। यह भी साबित हो चुका है कि मात्र कुछ सावधानियों के चलते ऐसे लोग लम्बी आयु भी प्राप्त करते हैं। फिर भी ऐसे लोगों के साथ भेदभाव बरता जा रहा है। फलस्वरूप लाखों लोगों का जीवन ही दूभर हो गया है। ऐसे में कई लोग आत्महत्या का भी सहारा ले लेते हैं। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं चिकित्सक, जो मरीज को डराते हैं और अपनी कमाई करते हैं। इन्हें अपनी महँगी दवाएँ बेचकर फार्मास्यूटिकल कंपनियाँ अरबों रुपए कमा रहीं हैं। देखा जाए तो मलेरिया, अतिसार, मधुमेह आदि को गरीबों की बीमारी मान लिया गया है, इसलिए इसके बचाव या इलाज पर इतना अधिक बल नहीं दिया जाता। एड्स के ?प्रचार-प्रसार में सरकार का भले ही लाभ न हो, पर मल्टीनेशनल कंपनियों को लाभ ही लाभ है, इसलिए इस पर इतना अधिक ध्यान देकर खर्च किया जाता है। अरबों की कमाई कर ये कंपनियाँ करोड़ों रुपए गैर सरकारी संस्थाओं को दान में दे देती है, ताकि वह अपनी रिपोर्टों में इस बीमारी की भयावह तस्वीरें पेश करे और अपना उल्लू सीधा करे।
इस तरह से हम सब छले जा रहे हैं मल्टीनेशनल कंपनियों की सोची-समझी साजिश के तहत। आश्चर्य यह है कि इसका भान किसी को भी नहीं है, न सरकार को और न ही चिकित्सकों को और न ही हमें। ये कैसा मायाजाल है, जिसमें हम फँसते ही चले जा रहे हैं?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

शहरी शोर में गुम होती श्मशान की खामोशी ...


डा. महेश परिमल
बाल सखा की मृत्यु पर श्मशान जाने का अवसर मिला. वहाँ लोगों की बातें सुनीं. ऐसा लगा मानो सभी जीवन के अध्यात्म से गहरे तक जुड़े हैं. कई लोग तो वैराग्य की भी बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि सचमुच ये लोग जीवन को कितना बेहतर समझते हैं. काश सभी मानव जीवन को इसी दृष्टि से देखें और अपने जीवन को सँवारने का प्रयास करें. मेरी इस सोच को कुछ दिनों बाद ही विराम लग गया. मैंने देखा कि जीवन की गहराई को समझने वाले वे ही ध्ञलोग जीवन की आपाधापी में इतने उलझ गए हैं कि उनके पास पल भर का भी समय नहीं है. उन्हें पता ही नहीं है कि जिस मृत व्यक्ति को लेकर वे श्मशान गए थे, उसका परिवार आज दर-दर की ठोकरें खाने को विवश है. परोपकार की बातें समय के साथ हवा में हवा हो गई. जिस मृत व्यक्ति को वे श्मशान में जला आए, वास्तव में वह जीवित ही रहा, बल्कि एक शव को जलाने में सहभागी बनने वालों के मस्तिष्क से उस व्यक्ति को भूल जाना ही वास्तव में उसकी मौत है. एक इंसान की मौत का आशय यह कतई नहीं कि वह मर गया. जिस क्षण वह लोगों की स्मृति से लुप्त हो गया, वास्तव में उसकी मौत उसी दिन होती है.
अधिकतर व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो जीवन के विषय में विचार करने की बात को सदैव टालते हैं. उनका कहना यह होता है कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है. जीवन जैसे विषय को लेकर सोचने के लिए गहरी समझ का उनके पास पूरी तरह से अभाव होता है. वे लोग केवल खाना-पीना, मौज-मस्ती, शरीर और मन की वासना को ही जीवन जीने का मूल उद्देश्य मानते हैं और इसी की पूर्ति के लिए बेहोश होकर भौतिक सुख का आनंद लेते हैं, यहाँ तक कि मृत्यु के सामने भी वे बेहोश होकर ही जाते हैं. विचार और चिंतन से दूर हो कर अनेक लोगों का जीवन समाप्त हो जाता है. इस पर सोने पे सुहागा ये कि उन्हें इस बात की कोई पीड़ा, अफसोस या जीवन के रहस्य को न समझ पाने का, मनुष्य होने का पूर्ण लाभ न उठा पाने का कोई विषाद भी नहीं होता. ऐसे लोगों को हमारे धर्मग्रंथों में मनुष्य रूप में पशु की संज्ञा दी गई है. मनुष्य का देह प्राप्त कर लेने मात्र से मानव नहीं बना जा सकता. मनुष्य से मानव बनने तक में या आदमी से इंसान बनने में एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है. जीवन के रहस्य को जानना पड़ता है, उसकी गहराई में डूबना होता है, तभी जीवन का अर्थ, मृत्यु का बोध और मनुष्य देह की सार्थकता का अनुभव होता है.
मानव की जो विशेषता है, मानव जन्म का जो महत्व है, उसका एक कारण उसे मिली विचारशीलता है. ईश्वर ने यह विशेषता मानव को छोड़कर किसी पशु-पक्षी को नहीं दी है. उसके बाद भी मनुष्य अपनी इस विचार-चिंतन की शक्ति का सही उपयोग नहीं करता और केवल जीवन सागर में ऊपर ही ऊपर तैरता हुआ पार लग जाता है.
मनुष्य के जीवन का अधिकांश भाग बेहोशी में ही बीतता है. ऑंख खुली हो इसका अर्थ ये नहीं कि वो जाग गया है. शरीर में गति हो इससे यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि मनुष्य जीवित है, क्योंकि इस अवस्था में भी मनुष्य के चिंतन में एक विराट स्वप्न चलता रहता है. मनुष्य नए-नए सपने देखने में ही अपनी पूरी ंजिंदगी गुजार देता है. नींद में ही स्वप्न चलता रहता है और एक स्वप्न ् पूरा होकर दूसरा स्वप्न ् शुरू हो जाता है. इसी स्वप् में मनुष्य रिश्ते बनाता है, संबंधों की डोर बाँधता है. मेरा-तेरा के मायाजाल में फँसता है, लड़ाई-झगड़ा करता है, दर्प-घमंड में अपना सर ऊँचा करता है और फिर एक दिन वही सर चिंता और विषाद में डूब कर नीचा हो जाता है. एक समय ऐसा भी आता है कि बाकी का जीवन रो-रोकर पूरा होता है.

आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों मनुष्य जीवन सागर के उथले पानी में ही मौजों की थप-थप के साथ पूरा जीवन गुजार देता है? नींद से जागना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. मनुष्य रात होते ही बिस्तर में जाता है और सुबह होते ही उस बिस्तर को छोड़कर, रात में देखे गए स्वप्न को भूलकर काम में लग जाता है, ऐसा दैनिक क्रिया-कलापों में शामिल है, लेकिन यहाँ बात हो रही है शरीर और मन के जागरण से अलग आध्यात्मिक जागरण की. अध्यात्म की ओर अग्रसर होना ही सच्चा जागरण है. यह केवल ऑंखों का खुलापन नहीं मन का खुलापन है.
मनुष्य के भीतर के इस अध्यात्म ज्ञान को जगाने का, उसकी नींद को तोड़ने के प्रसंग इस संसार में नित्य बनते ही रहते है उसके बाद भी कोई विरला ही होता है, जो इन प्रसंगाें से प्रेरणा लेकर जागता है. सच्चा मनुष्य वही है, जो पेड़ से गिरते पत्तों से भी शिक्षा ले और जाग जाए. मिट्टी के घड़े को टूटते देख कर ही संभल जाए. किंतु ऐसे प्रखर बुध्दिमान प्राणी बहुत कम देखने को मिलते हैं.
यदि हम अपने आत्मिक ज्ञानचक्षु खुले रखें तो जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते है जो 'अलार्म' का काम करते हैं. ऐसे प्रसंग हमें सोते से जगाते हैं, न केवल जगाते हैं, बल्कि हमारी ओढ़ी हुई चादर खींच कर हमें चिकोटी काटते हुए उठाते हैं. ऐसा कब होता है? हकीकत में ऐसा होता है किसी अपने और बेहद अपने की मृत्यु पर. मृत्यु के साथ ही एक स्वप्न टूटता है. यह कोई छोटा-मोटा प्रहार नहीं है. जीवन का शाश्वत सत्य मृत्यु इस सजीव प्राणी को भीतर तक आहत कर देती है. मृत्यु विविध रंग-रूप में कई रिश्तों को अपने आगोश में लेती है. इकलौती संतान की मृत्यु, जवान बेटे या बेटी की मृत्यु, बरसों तक जीवन के हर क्षण में संघर्ष करते लाचार माता-पिता की मृत्यु, जीवन साथी की मृत्यु, अपने किसी प्रिय की मृत्यु ... ऐसे कई संबंधों की मृत्यु है, जो व्यक्ति को जड़ से हिलाकर रख देती है. दीदी कहकर बुलाने वाला कोई भाई मृत्यु का ग्रास बन जाता है, तो कलाई पर राखी बाँधने वाली कोई बहन सदा के लिए भाई से रूठ कर दूर चली जाती है, कोमल रिश्तों के बीच माँ की ममता तड़पती है, तो बाप का कलेजा फटता है. प्रिय की याद में प्रियतमा की ऑंखें भीगती हैं, तो कोई अपना ंगम ऑंखों की कोर में ही छुपा लेता है. ऐसी अनेक हृदय विदारक घटनाएँ घटती है, जिनमें हमारा किसी से कोई रिश्ता भी नहीं होता, पूरी तरह से अनजान होते हुए भी कुछ पल के लिए वह घटना ऐसा प्रभाव डालती है कि सिसकी होठों पर आ जाती है. कई दिनों तक वो घटना जागी ऑंखों का सपना बनी रहती है और होठों पर अपना अधिकार जमाए रखती है. किंतु ये सभी कोमल पल स्वयं को तोड़ने के लिए नहीं है. समझदार मनुष्य वह है, जो ऐसे क्षणों में आत्म चिंतन-मनन और ज्ञान की ओर अग्रसर हो. इसी क्षण का उपयोग स्वयं के लिए करना चाहिए. ऐसे हृदय विदारक क्षणों में स्मशान में जाकर जलती चिता को देखने का एक भी अवसर चूकना नहीं चाहिए. इस जलती चिता के साथ यदि हमारे भीतर से भी कहीं कुछ जल जाए, तो यही उस मृत व्यक्ति के लिए हमारी सच्ची श्रध्दांजलि होगी. हमारे भीतर का अहंकार जल जाए तभी हमें आत्मज्ञान होगा.
वास्तव में मृत्यु क्या है? मृत्यु के रहस्य को कोई नहीं जान पाया. हाँ इतना अवश्य है कि शरीर के भीतर से किसी वस्तु का चला जाना शरीर को मृत घोषित करता है, किंतु एक पूरे के पूरे आदमी की अस्मिता को कतई नहीं. वह तो हमारे भीतर, हमारी स्मृति में हमेशा जीवित रहता है. शारीरिक रूप से किसी का चले जाना मृत्यु बिल्कुल नहीं है. हाँ हमारे स्मृतिपटल से उसका विस्मृत हो जाना अवश्य मृत्यु है. जब तक वह व्यक्ति हमारे भीतर जीवित है,उससे प्रेरणा लो, उसके स्वप्नों को पूरा करो. क्योंकि वास्तव में मृत्यु किसी की नहीं है. भीतर से जो हारता है, वही मृत है.
एक चिंतक ने कहा है कि मंदिर को आबादी से कहीं दूर बनाना चाहिए,ताकि जब लोग मंदिर जाएँ, तो वहाँ की शांति को अपने भीतर समेट लें. इसी तरह श्मशान को शहर के बीचों-बीच होना चाहिए, ताकि जब भी कोई व्यक्ति वहाँ से गुंजरे, तो मृत देह की गंध उसे मनुष्यता की ओर ले आए. लेकिन आज सब-कुछ इसके विपरीत हो रहा है. मंदिर शहर के बीचों-बीच और श्मशान शहर से काफी दूर बनने लगे हैं. इसलिए मानव आज अपनी मानवता को भूलने लगा है. मंदिर में उसे अशांति मिलती है और श्मशान की नीरवता उसे मात्र कुछ क्षणों के लिए ही वैराग्य लाने में सफल होती है. श्मशान की शांति शहर तक आते-आते कहीं खो जाती है. शहर में प्रवेश करते ही मानव एक साधारण मानव बनकर रह जाता है. ऐसा मानव जिसके पास अपने कोई विचार नहीं, भावना नहीं, वह तो खाने के लिए जीवन जीता है और भोग-विलास में अपना जीवन गुजार देता है. एक पशु का जीवन जीकर वह यह समझने की भूल करता रहता है कि उसने मनुष्य का जीवन जिया. कहाँ गया वह विवेक, जो मानव को पशु से अलग करता है?
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

कैदियों का आरामगाह याने भारतीय जेल


डॉ महेश परिमल
गुजरात में हुए फर्जी मुठभेड़ के आरोपी और पूर्व डीआईजी वंजारा और उसके साथियों को साबरमती जेल मे शाही सुविधाए मिल रही हैं। वे अपने परिवार के साथ घर का भोजन कर रहे हैं। उन्हें बढ़िया बिस्तर दिया गया है, मोबाइल फोन की सुविधाा तो वैसे भी हर छोटे से छोटे कैदी का प्राप्त है। आश्चर्य इस बात का है कि इसका खुलासा होने के बाद भी जेल प्रबंधान का कहना है कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है।
पर यह बात सामान्य आदमी के भी गले नहीं उतर रही है। ये सब तो हो ही रहा है, पर मधयप्रदेश की एक घटना ने जेल में व्याप्त कड़क और चुस्त व्यवस्था की पोल ही खोल कर रख दिया है। कैदियों के कब्जे में छह घंटे रही शहडोल जेल!यह खबर वाकई चौंकाने वाली है।खबर पढ़ने पर ही पता चला कि ऐसा दूसरी बार हुआ है। इधार कैदी जेल के अंदर उत्पात मचाते रहे और उधार प्रशासन जेल केबाहर कैदियों के शांत होने की आस में मूकदर्शक बना रहा। प्रशासन सोच रहा था कि किसी कैदी का हृदय पसीजे और वह दरवाजा खोल दे, ताकि पुलिस अंदर जाकर उन कैदियों पर काबू पा सके। वैसे यह सभी जानते हैं कि जेल में किस तरह के कानून चलते हैं।सरकार के तमाम कानून केवल ज़ेल की चहारदीवारी तक ही होते हैं, जेल के अंदर तो उनकी चलती है, जो रुतबेदार होते हैं। ये रुतबेदार कैदी भी हो सकते हैं और अफसर भी। हमारी भारतीय जेल तो साधाारण कैदियों को भी असाधाारण बनाने में सहायक होती हैं। पहले लोग जेल जाना गर्व समझते थे,क्योंकि वे किसी अपराधा के कारण नहीं,बल्कि देश को आजाद कराने के नाम पर जाते थे। लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं रही। अब तो चुनाव के लिए टिकट उसे ही मिलती है, जो जेल यात्राए कर चुका हो। सच कहा जाए तो 1894 में ऍगरेजों के बनाए हुए कानून ही अभी तक चल रहे हैं। इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है। आजकल भ्रष्टाचार के कथित आरोपों से नेता, अधिाकारी भी जेल की हवा खाने लगे हैं,लेकिन इनके लिए जेलतो किसी जलसाघर से कम नहीं है।ये लोग वहॉ आराम फरमाने के लिए जाने लगे हैं। हाल ही में जेलों में व्याप्त अव्यवस्थाओं के कई मामले सामने आए हैं।
अहमदाबाद की साबरमती जेल में मुलाकाती के रूप में एक पत्रकार अपने कैमरे वाले मोबाइल के साथ वहॉ तक जा पहुचा जहॉ तक कोई भी मुलाकाती नहीं पहुच पाता है। उसे वहॉ तक पहुॅचने में किसी तरह की परेशानी नहीं हुई।न तो वहॉ मुलाकातियों की किसी प्रकार की जॉच हो रही थी और न ही वहॉ किसी तरह का कैमरा लगा था।आश्चर्य की बात यह है कि जेल में मोबाइल फोन के लिए लगा जामर भी बंद था, इससे हुआ यह किउस पत्रकार ने जेल ही में अपने मित्र से बात भी कर ली। इसी तरह आगरा की जेल के डीआईजी ने मेरठ की जेल में छापा मारा, तो वहॉ काफी मारा-मारी हुई। इस घटना में 6 पुलिस अधिाकारी और 4 कैदी घायल हुए। यह कार्रवाई इसलिए की गई थी कि मेरठ की उक्त जेल में अनधिाकृत और प्रतिबंधिात चीजों की भरमार थी।इन्हीं चीजों को जब्त करने के लिए छापा मारा गया। इस घटना के बाद डीआईजी ने बताया कि जेल में यदि किसी तरह की अनधिाकृत या प्रतिबंधिात चीजें पहुॅचती हैं, तो उस काम में जेल से जुड़े लोगों की पूरी सहभागिता होती है। कैदी भी इस तरह की हरकत तब तक नहीं कर सकते, जब कि उन्हें जेल के ही उच्च अधिाकारियों का वरदहस्त प्राप्त न हो।मेरठ जेल में व्याप्त अराजकता की सूचना हमें गृह मंत्रालय से ही प्राप्त हो गई थी। उन्होंने बताया कि जेल में हम पर सैकड़ों कैदियों के दल ने लाठियों और पत्थरों से हमला किया गया। हम सब डर गए थे,क्योंकि हमें घेर लिया गया था।

हम सब बहुत ही मुश्किल से बच पाए।इस कार्रवाई में कई कैदियों के पास से मोबाइल फोन जैसी प्रतिबंधिात वस्तुए बरामदकी गई।डीआईजी ने अपने अनुभव बॉटते हुए बताया कि मेरठ के जेल सुपरिटेंडेंट पर यह आरोप है कि उन्होंने कैदियों को हम पर हमला करने के लिए उकसाया था, ताकि हमें जेल से प्रतिबंधिात वस्तुएॅ प्राप्त न हो सके। उधार इस मामले में मेरठ जेल के सुपरिटेंडेंट ने डीआईजी पर यह आरोप लगाया है कि उन्होंने हमसे रिश्वत माँगी। वैसे भी भारतीय जेलों की अव्यवस्था सर्वविदित है। मेरठ जेल की ही बात ले लें, वहॉ कुछ मुख्य सिगरेटें 20रुपए नग बेची जाती हैं।मनपसंद स्वादिष्ट भोजन 500 रुपए थाली, लोकल कॉल के लिए 20 रुपए और एसटीडी के लिए 100 रुपए लिए जाते हैं। इस जेल की क्षमता 700 कैदियों की है, किंतु यहॉ अभी तीन गुना अधिाक याने 1850 कैदी बंद हैं।यह तो हुई साधाारण कैदियों की बात, पर इसी जेल में महल जैसी सुविधााएॅ प्राप्त करने वाले नेता भी बंद हैं। उत्तर प्रदेश के एक ऐसे नेता भी यहीं के मेहमान हैं,जो एक हत्या के मामले में सजायाता हैं। इन्होंने अपने ही एक साथी की शादी की वर्षगॉठ मनाने के लिए जेल के अंदर ही एक शानदार पार्टी का आयोजन किया। इस बात की जानकारी जब मीडियाको हुई, तो उक्त नेता ने बड़े ही शांत होकर कहा कि कोई भी जन्म से अपराधा नहीं होता, हालात उसे अपराधा बनने के लिए विवश करते हैं। कैदी भी इंसान हैं, जब वे अपनों के बीच रहकर खुशियॉ मनाना चाहते हैं, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता। ये वही नेता हैं, जिन्होंने हाल ही में एक चुनावी सभा को जेल के भीतर से ही अपने मोबाइल के माधयम से संबोधिात किया था।अभी इस मामले की जॉच चल रही है। देश की जेलों में सैकड़ों ऐसे कैदी हैं, जिन्हें वहॉ ऐशो आराम की सारी सुविधााएॅ मुहैया हैं। इन जेलों से कैदियों के भागने की परंपराएॅ जारी हैं। इन जेलों से कैदी अगर भागते हैं, तो इसके पीछे केवल सॉठगॉठ ही नहीं,बल्कि बेशुमार धान की ताकत भी लगी होती है। अभी तक हमारे देश में एक भी जेल ऐसी नहीं है, जहॉ क्षमता के अनुसार ही कैदी हैं। सभी जेलें कैदियों से लबालब हैं।सुधाार की दिशा में नित नए प्रयोग करने वाली तिहाड़ जेल की क्षमता 4000 कैदियों की है, किंतु वहॉ अभी 12 हजार कैदी ठॅुसे पड़े हैं। आजादी के बाद भी अभी तक यह नियम नहीं बन पाया है कि किस तरह की जेल में किेतने कैदियों को रखा जाए। एक बार हमारे गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने अचानक ही जेल जाने का कार्यक्रम बनाया। वहॉ नशे में घुम एक कैदी ने उन्हें शराब ऑफर की, तब वे वहॉ की अव्यवस्था देखकर स्तब्धा रह गए। इस घटना के बाद सरकार ने जेल के दो अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया।पर इससे क्या होता है।वे अधिाकारी तो कुछ महीनों बाद फिर अपनी डयूटी पर लौटकर उसी तरह का काम करने लगते हैं। सन् 1980 में श्रीमती इंदिरा गॉधाी ने जेलों में अव्यवस्थाओं को दूर करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। 1983 में जब वे स्वयं एक राजनैतिक कैदी के रूप में तिहाड़ जेल पहॅुची, तो उन्हें अनुभव हुआ कि जेलों में किस तरह की अव्यवस्थाएॅ होती हैं। जेल व्यवस्था राज्य सरकार का मामला होने के बाद भी इंदिरा गॉधाी ने राष्टीय जेल की समीक्षा के लिए न्यायाधाीश ए एन मुल्ला के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया था।न्यायाधाीश मुल्ला नेकई सुझाव दिए, पर आज तक उसमें से कितने सुझावों को अमल में लाया गया,इसकी जानकारी किसी को नहीं है। तिहाड़ जेल के बारे में एक और जानकारी यह है कि प्रसिध्द ठग चार्ल्स शोभराज वहॉ बंद था, तब वहॉ के कई अधिाकारी उसके पुराने मित्र थे, कुछ तो सहपाठी भी थे।इसीलिए वह जेल से ही बिना किसी संकोचके नशीले पदार्थों की हेराफेरी का रैकेट चला रहा था। जब यह जानकारी बाहर आई, तो सभी चौंक गए।पर इस दिशा में सुधाार के नाम पर कुछ नहीं हुआ।
अंत में भारतीय जेलों के बारे में एक और आश्चर्यजनक बात यह है कि देश भर की जेलों में कुल 3 लाख 4 हजार 983 कैदियों में से सवा दो लाख याने 74 प्रतिशत विचाराधाीन कैदियों की सुनवाई तक नहीं हो पाई है। इनमें से कई तो निधर्ाारित सजा से अधिाक समय गुजार चुके हैं, पर इनके बारे में कोई फैसला नहीं हो पाया है। जेलों से क्षमता से 31 गुना अधिाक कैदियों से जेलें पूरम्पूर हैं, इन कैदियों की सुनवाई की तुरंत आवश्यकता है, पर इसे समझे कौन?यह एक गंभीर समस्या है,जिस पर धयान देने की महती आवश्यकता है।
डॉ महेश परिमल

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