शनिवार, 30 जनवरी 2010

गांधीजी का अंतिम दिन


पी के लहरी
आज से ठीक 61 वर्ष पूर्व 30 जनवरी 1948, शुक्रवार का दिन हमारे इतिहास में एक अविस्मरणीय दिन है। भारत के पुनरुत्थान एवं जनजागृति के लिए जिन्होंने 33 वर्षों तक अथक परिश्रम कर विश्व इतिहास में एक गौरवशाली कार्य किया। अपनी व्यूहरचना से जिन्होंने समाज से सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय का मूल मंत्र लेकर एक प्राचीन सभ्यता को पुनर्जीवित किया, ऐसे युगपुरुष के जीवन का आज अंतिम दिन था। निर्लिप्त भाव से जिन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सर्वधर्म समभाव और शारीरिक श्रम को महत्वपूर्ण बनाया था, जिनकी ईश्वर में गहरी आस्था थी, जिन्होंने सत्य की खोज के लिए सतत बैचेनी महसूस की थी, ऐसे वृद्ध को लोगों ने 'बापू' के प्यारे संबोधन से या 'महात्मा' के आदरपूर्ण पद से सुशोभित किया था। ऐसे युगपुरुष को विश्व गांधीजी के नाम से पहचानता था। यह व्यक्ति अनेक रूप में अनोखा था। श्री जिन्ना के लिए वे एक धूर्त और कपटी नेता थे। श्री अंबेडकर गांधीजी का सम्मान तो करते ही थे, किंतु साथ ही उनके प्रति संदेह भाव भी था। अनेक मुस्लिमों को वे खुदा के नेक दिल बंदे लगते थे, तो अनेक हिंदुओं को वे कृष्ण के अवतार लगते थे। कांग्रेस पार्टी की सदस्यता की चार आने की फीस भरने में भी वे सबसे अलग रहे और जिस पार्टी के विघटन के लिए उन्होंने दस्तावेज तैयार किए थे, उस 'राष्ट्रीय महासभा' के 62 वर्ष के इतिहास में से 27 वर्ष तो केवल 'गांधी युग' के ही थे। राष्ट्रीय कांग्रेस को वे एक छोटी नहीं, किंतु एक बड़ी पार्टी के रूप में देखना चाहते थे। ऐसी पार्टी जो सभ्य समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हो। साथ ही विशाल जनाधार के लिए आंदोलन भी करती हो, राष्ट्रीय कांग्रेस को ऐसी पार्टी बनाने का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया। देश की जनता की नब्ज पकड़ने में वे पारंगत थे। भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों को व्यावहारिक रूप से अमल में लाने के लिए उन्होंने स्वयं के साथ असंख्य प्रयोग किए थे। उनका जीवन आईने की तरह साफ था। वे परंपरा में विश्वास रखते थे, साथ ही धर्म और समाज की अनेक रूढ़ियों को जड़ से उखाड़ने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा भी रखते थे। राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन के लिए सत्याग्रह, असहयोग, स्वदेशी आंदोलन, उपवास, पद यात्रा और अनेक रचनात्मक कार्यों द्वारा कठिन लगने वाले कार्यों के भी सफल परिणाम प्राप्त किए थे।
20 सदी के सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में वे जन-जन में लोकप्रिय थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' का संबोधन दिया। कविवर रवींद्रनाथ ने उनमें भारत की आत्मा और सामान्य जन के साथ एकरूप हो जाने वाले साधारण इंसान की छवि देखी। व्यस्त समय में से या जेल में मिले फुरसत के लम्हों से, गंभीर चर्चा के बीच या आपसी बातचीत में यह व्यक्ति हँसने और हँसाने का अवसर चुरा ही लेता था। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि यह सद्गुण उन्हें ईश्वर से उपहार में नहीं मिले थे, बल्कि लंबे समय की आराधना के साथ सजग होकर अनुशासन, संयम और समर्पण की भावना से इन गुणों का विकास हुआ था। असाधारण व्यक्तित्व के धनी गांधीजी ने हमेशा कहते थे कि उन्हें जो भी कुछ प्राप्त किया है, वह कोई भी व्यक्ति निष्ठापूर्वक किए गए प्रयत्नों से अवश्य प्राप्त कर सकता है।
30 जनवरी 1948 का दिन गांधीजी के लिए हमेशा की तरह व्यस्तता से भरा था। प्रात: 3.30 को उठकर उन्होंने अपने साथियों मनु बेन, आभा बेन और बृजकृष्ण को उठाया। दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर 3.45 बजे प्रार्थना में लीन हुए। घने अंधकार और कँपकँपाने वाली ठंड के बीच उन्होंने कार्य शुरू किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दस्तावेज को पुन: पढ़कर उसमें उचित संशोधन कर कार्य पूर्ण किया। 4.45 बजे गरम पानी के साथ नींबू और शहद का सेवन किया। एक घंटे बाद संतरे का रस पीकर वे पत्र-व्यवहार की फाइल देखते रहे। चार दिन पहले सरदार पटेल द्वारा भेजा गया एक पत्र वे अकथनीय वेदना के साथ पढ़ते रहे। जिसमें अपने और नेहरु के आपसी मतभेद और मौलाना के साथ विवाद के कारण उन्होंने इस्तीफा देने के लिए गांधीजी से अनुमति माँगी थी। सेवाग्राम के लिए पत्र भेजने की सूचना वे किसी को दे रहे थे, उस वक्त मनुबेन ने पूछा कि यदि दूसरी फरवरी को सेवाग्राम जाना होगा, तो किशोर लाल मशरुवाला को लिखा गया पत्र न भेजकर उनसे मुलाकात ही कर लेंगे और पत्र दे देंगे। महात्मा का जवाब था ''भविष्य किसने देखा है? सेवाग्राम जाना तय करेंगे, तो इसकी सूचना शाम की प्रार्थना सभा में सभी को देंगे।'' उपवास से आई कमजोरी को दूर करने के लिए उन्होंने आधे घंटे की नींद ली और खाँसी रोकने के लिए गुड़-लौंग की गोली खाई। लगातार खाँसी आने के कारण मनु बेन ने दवा लेने की बात की, तो उन्होंने जवाब दिया ''ऐसी दवा की क्या आवश्यकता? राम-नाम और प्रार्थना में विश्वास कम हो गया है क्या?''
सुबह सात बजे से उनसे भेंट करने वाले लोग आने लगे। राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरु और प्यारेलाल आदि के साथ चर्चा की। मालिश, स्नान, बंगला भाषा का अभ्यास आदि कार्य पूरे कर सुबह साढ़े नौ बजे टमाटर, नारंगी, अदरक और गाजर का मिश्रित जूस पीया। उपवास के बाद अभी दूसरा आहार लेना शुरू नहीं किया था। दक्षिण अफ्रीका के सहयोगी मित्र रुस्तम सोराबजी सपरिवार आए और उनके साथ अतीत के स्मरणों में खो गए। थकान के कारण फिर आधे घंटे लेट गए। जागने पर उन्हें स्फूर्ति महसूस हुई। उपवास के बाद पहली बार बिना किसी के सहारे चले तो मनु बेन ने मजाक किया ''बापू, आज आप अकेले चल रहे हैं, तो कुछ अलग लग रहे हैं।'' गांधीजी ने जवाब दिया ''टैगोर ने गाया है, वैसे ही मुझे अकेले ही जाना है।'' दोपहर को दिल्ली में एक अस्पताल और अनाथ आश्रम की स्थापना के लिए डॉक्टरों से चर्चा की और मिलने आए मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल के साथ चर्चा कर सेवाग्राम जाने की इच्छा व्यक्त की। अपने प्रिय सचिव स्व. महादेव देसाई के जीवन चरित्र और डायरी के प्रकाशन के लिए नरहरि परिख की बीमारी को ध्यान में रखते हुए चंद्रशंकर शुक्ल को यह जवाबदारी सौंपना तय किया। दोपहर को ठंड की गुनगुनी धूप में नोआखली से लाया हुआ बाँस का टोप पहनकर पेट पर मिट्टी की पट्टी बाँधकर आराम कर रहे थे, उस समय नाथूराम गोडसे चुपचाप पूरे स्थान का निरीक्षण कर वहाँ से चला गया था।
दोपहर को मुलाकात का सिलसिला फिर शुरू हुआ। दिल्ली के कुछ दृष्टिहीन लोग आवास की माँग को लेकर उनके पास आए। शेरसिंह और बबलू राम चौधरी हरिजनों की दुर्दशा के लिए बात करने आए। सिंध से आचार्य मलकानी और चोइथराम गिडवानी वहाँ की स्थिति का वर्णन करने आए। श्री चांदवानी पंजाब में सिखों में भड़के आक्रोश और हिंसा के समाचार लाए। श्री लंका के नेता डॉ. डिसिल्वा अपनी पुत्री के साथ आए। उन्होंने 14 फरवरी को श्री लंका की मुक्ति का संदेश दिया। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक और फे्रंच फोटोग्राफर ने फोटो एलबम उन्हें उपहार में दी। 'टाइस' मैगजीन के मार्गरेट बर्क व्हाइट से मुलाकात की और श्री महराज सिंह ने एक विशाल सम्मेलन के आयोजन के लिए उनसे सलाह ली।
शाम सवा चार बजे सरदार पटेल इस्तीफे के संबंध में सौराष्ट्र के राजनैतिक प्रसंगों पर चर्चा के लिए उनसे मिलने आए। सरदार पटेल के साथ खूब तन्मयता से बातचीत की, लेकिन बातचीत के दौरान उन्होंने चरखा चलाना जारी रखा। शाम का भोजन पूरा हो, इसका भी ध्यान रखा। इसके बाद भी शाम 5 बजे प्रार्थना का समय हो रहा था, लेकिन उनकी बातचीत पूरी नहीं हो पाई थी। मनु बेन और आभा बेन ने प्रार्थना में जाने के लिए संकेत किया। जिसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। इसके बाद सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन ने हिम्मत करके समय की पाबंदी की ओर उनका ध्यान दिलाया, तो गांधीजी तेजी से उठ गए। देर होने से नाराज हुए गांधीजी ने अपनी लाठी समान लाड़ली मनु-आभा से नाराजगी व्यक्त की। प्रार्थना सभा में प्रवेश करते समय उन्होंने मौन धारण कर रखा था और मनु-आभा के कंधों का सहारा लेकर तेज गति से चलते हुए गांधीजी को रास्ता देने के लिए लोग एक तरफ हट जाते थे। कुछ लोग नमस्कार की मुद्रा में गांधीजी दर्शन कर कृतार्थ भाव अनुभव करते थे।
प्रार्थना के लिए जाते समय रास्ते में अचानक एक आदमी सैनिक की वर्दी में उनके सामने आकर खड़ा हो गया। उसके और गांधीजी के बीच मात्र तीन कदम का फासला था। तब उसने नीचे झुककर प्रणाम की मुद्रा में सहजता से हाथ झुकाया और कहा ''नमस्ते गांधीजी'' मनु बेन ने उसे रास्ते से हट जाने के लिए कहा कि तुरंत ही उसने बलपूर्वक मनुबेन को गिरा दिया। उसके दो हाथों के बीच रखी काले रंग की सात बोर की बेरेटा पिस्तौल में से तीन धमाकों के साथ तीन गोलियाँ निकलीं, जो महात्मा गांधी के श्वेत वस्त्र को लहुलुहान कर गई। वंदन की मुद्रा में झुका उनका शरीर धीरे-धीरे आभा बेन की तरफ ढहता गया। गोडसे की तीन गोलियों का तीन अक्षर का उनका प्रतिभाव था ''हे राम!'' उस समय उनकी कमर पर लटकी घड़ी में शाम के 5 बजकर 17 मिनट हो रहे थे। 30 जनवरी 1948 के सूर्यास्त के साथ पंडित नेहरु को लगा कि हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है। चारों ओर अंधकार व्याप्त है। लेकिन दूसरे ही क्षण सत्य प्रकट हुआ और नेहरु ने कहा ''मेरा कहना गलत है, हजारों वर्षों के अंत होने तक यह प्रकाश दिखता ही रहेगा और अनगिनत लोगों को सांत्वना देता रहेगा।'' सरदार पटेल ने कहा ''आज का दिन हमारे लिए शर्म, ग्लानि और दु:ख से भरा है। जिस पागल युवक ने यह सोचकर बापू की हत्या की होगी कि उसके इस कार्य से गांधीजी के उदात्त कार्य रुक जाएँगे, तो उसकी यह मान्यता पूरी तरह से गलत साबित होगी। गांधीजी हमारे हृदय में जीवित हैं और उनके अमर वचन हमें सदैव राह दिखाते रहेंगे।''
विश्व के कोने-कोने से श्रद्धांजलि का प्रवाह बह रहा था। इनमें अनेक जानी-मानी हस्तियाँ थीं, तो सामान्य लोग भी थे। सभी की भावना एक ही थी। ब्रिटिश सम्राट, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली, पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल, फ्रांस के प्रधानमंत्री दविदोल, स्टेफर्ड क्रिप्स, जनरल स्मट्स और प्रसिद्ध उपन्यासकार पर्ल बक ने श्रद्धांजलि दी। अनेक देशों के कई अज्ञात व्यक्त्यिों ने एक दिन का उपवास रखकर श्रद्धांजलि देना तय किया। फ्रांस के समाजवादी नेता लियो ब्लूम ने सामान्य विश्व नागरिक की भावनाओं को अपने शब्दों में प्रस्तुत किया ''मैंने गांधी को देखा नहीं था, मुझे उनकी भाषा नहीं आती, मैंने उनके देश में कदम भी नहीं रखा है, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मानो कोई अत्यंत करीबी रिश्तेदार को खोया है।'' संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने शोक संदेश में कहा ''गांधीजी गरीब से गरीब, निराश्रित और सर्वहारा वर्गों के सहारा थे।'' ब्रिटिश नाटककार जार्ज बर्नाड शॉ ने अपनी बात व्यंग्यात्मक रूप से कही ''संसार में 'अच्छा' आदमी बनना कितना खतरनाक है!'' श्री जिन्ना ने इस समय भी अपनी चिर-परिचित शैली में कहा ''गांधीजी हिंदू जाति के महान लोगों में से एक थे।''
महात्मा गांधी की मृतदेह के समीप गायी जाने वाली सर्वधर्म प्रार्थना के दो अंश उनके जीवन और मृत्यु के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर रहे थे। अलीगढ़ के ख्वाजा अब्दुल मजीद ने कुरान-ए-शरीफ की आयतें पढ़ीं- ''हे ईमानदारों, सब्र और खामोशी के साथ खुदा की मदद माँगो, खुदा की इबादत करते हुए मरने वाले को मरा हुआ न समझो। वे जिंदा हैं8च, जिसे आप नहीं समझ सकते। वक्त से पहले और खुदा की मर्जी के बगैर कोई नहीं मर सकता।'' हिंदू धर्म ग्रंथ गीता में भी यही बात कही गई है कि हर प्राणी जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। अत: इसका दु:ख नहीं मनाना चाहिए। गांधीजी ने कहा था ''हमारी प्रजा सदियों से गुलामी में सड़ रही है, इस सड़ाँध से उपजने वाली गंदगी आज हमारे सामने बिखरी पड़ी है, जिसे हमें साफ करना है। इसके लिए पूरा जीवन भी कम है। हमारी शिक्षा यदि अलग तरीके से हुई होती, तो हम यूँ हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे होते। जब तक हम अपने काम से निराश हुए बिना उसमें पूरी तरह से लिप्त रहेंगे, तभी हमारा संघर्ष हमें नए युग के भारत में ले जाएगा।''

मेरा जीवन, मेरी वाणी बाकी सभी तो केवल है पानी
जिसमें सत्य की जय-जयकार, मेरा जीवन वही निशानी


उमाशंकर जोशी

जय हिंद

पी के लहरी

बुधवार, 27 जनवरी 2010

थ्री इडियट्स की इन बातों पर गौर किया आपने?


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों पूरे देश ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ धूम मचा रही है। फिल्म में अनेक गंभीर बातों को हँसी-मजाक के बीच बताया गया है। इसलिए कई लोगों ने इस पर सरलता से ध्यान नहीं दिया। इमोशन और कॉमेडी के रोलर फास्टर में ऐसा होना स्वाभाविक है।
फिल्म में कई दृश्य हृदय को छूते हैं। मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना इस तरह से बुना गया है कि वे सीधे चोट करती हैं। कई बार तो हृदय के तार झंकृत होने लगते हैं। कलाकार दर्शक से सीधे संवाद करते दिखते हैं। कई दृश्य गुदगुदाते हैं, तो कई हमें मथने लगते हैं। व्यवस्था पर चोट इस तरह से की गई है कि वह सीधे दिल में उतरती है। तब भीतर बैठा इंसान सोचने लगता है कि सचमुच बच्चों को वही बनाया जाना चाहिए, जैसा वह बनना चाहता है। तब समझ में आता है कि बच्चों पर शिक्षा से अधिक बोझ तो हमारी अपेक्षाओं का ही है। शिक्षा का बोझ तो वह सहन कर ही रहा है, पर अपेक्षाओं का बोझ उसे लगातार बौना बना रहा है।
फिल्म में बताया गया है कि परीक्षा के समय विद्यार्थी सुधर जाते हैं। कोई गाय को घास खिलाता है, कोई भगवान को प्रसाद चढ़ाता है, कोई लड़कियों को कभी न छेड़ने की कसम खाता है, कोई भगवान का जाप करने लगता है। हमारी मानसिकता भी इन विद्यार्थियों जैसी है। भले परीक्षा में अंकों के लिए नहीं, वरन् जिंदगी की छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए भी हम ऐसा ही करते हैं। पर हमने कभी सोचा है कि ऊपरवाला (केवल इस व्याख्या में सभी धर्मो का समावेश किया जा सकता है) इतना ही घमंडी होता, तो हमारे द्वारा की जाने वाली पूजा-पाठ, जाप या स्तुति से ही खुश हो जाता, तो वे इंसान नहीं, बल्कि रोबोट बनाते। जो २४ घंटे केवल उसे याद करने में ही लगाते। जिसके ऐश्वर्य का कोई पार नहीं, उसे हम केवल दस रुपए के एक नारियल से ही खुश करने चले हैं। क्या वे इस नारियल या हमारी स्तुति के भूखे हैं? इसका जवाब शायद ना हो, परन्तु हाँ भी नहीं हो सकता।
इसी तरह फिल्म में दूसरा प्रहार हमारी मानसिकता पर है। शिक्षक दिवस पर जब साइलेंसर स्टेज से बोलना शुरू करता है। तब बोमन इरानी उसे रोकना चाहते हैं। पर शिक्षा मंत्री उनका हाथ पकड़कर रोक देते हैं। तब तक वे साइलेंसर की बातों का खूब मजा लेते हैं। पर जब साइलेंसर मंत्रियों के खिलाफ बोलना शुरू करता है, तब शिक्षा मंत्री नाराज हो जाते हैं। हमारे राजनेता ऐसे ही हैं, जब तक दूसरों पर कीचड़ उछलते रहता है, तब तक वे कुछ नहीं कहते, बल्कि मजे लेते हैं। बात जब स्वयं पर आती है, तब सारा दोष दूसरों पर डालते दिखाई देते हैं। हम राजनेताओं को क्यों दोष दें, हम भी किसी से कम नहीं हैं। किसी भी मामले पर हम भी ऐसा ही करते हैं। दूसरे पर बीतती है, तब हम तमाशा देखते हैं। वही विपदा हम पर आती है, तो हम आकाश सिर पर उठा लेते हैं। हम अपेक्षा करते हैं कि कोई हमारी सहायता के लिए आगे आए। आखिर दूसरों के लिए भी हम तो पराए ही हैं।
तीसरा महत्वपूर्ण प्रहार फिल्म के शुरू से अंत तक है, जिसमें दो दोस्त अपने एक जिगरी दोस्त को ढँूढ़ने निकलते हैं। हमने कभी शांत बैठकर विार किया है कि आज हमारे तमाम मित्र क्या कर रहे हैं? जिसकी बाइक पर बैठकर कॉलेज जाते थे, जिसके घर जाकर पढ़ते थे, चुपके-चुपके उसके साथ सिगरेट पीते थे। यह भी संभव है कि किसी मित्र हो हमने वेलेंटाइन डे पर प्रपोज करने के लिए उत्साहित किया हो। या फिर उसे हिम्मत दी हो। इसके बाद भी वह प्रपोज करने में विफल हो जाता हो। वह युवती आज कहाँ है, किस हालत में है, शायद उसकी शादी हो गई हो, संभव है माँ भी बन चुकी हो।
कॉलेज छोड़ने के बाद क्या हम एक बार भी वहाँ गए हैं? वहाँ के किसी उत्सव में शामिल हुए हैं? हमेशा सम्पर्क में रहने का वचन तो दे दिया, पर क्या उसका पालन कर पाए? जिंदगी में धन के पीछे भागने में ही इतना वक्त गुÊार गया कि अपने मित्रों को ही भूल गए? फिल्म में फरहान और राजू तो अपने दोस्त रणछोड़ दास श्यामल दास चांचड़ को खोजने निकल ही गए, पर आपने अपने किस मित्र के लिए इस तरह की जहमत उठाई? आज अपने मित्रों की जानकारी के लिए कई तरह के संसाधन आ गए हैं। ट्विटर,द आरकूट या फेसबुक जैसी अनेक वेबसाइट्स हैं, जहाँ जाकर आप अपने मित्रों को ढ़ँढ सकते हैं। जब आप इस लेख को पढ़ रहे हैं, तब किसकी राह देखनी है, सर्च करो और तलाश लो अपने मित्रों को। फिर उन सबसे मिलने का कार्यक्रम तैयार करो। फिर देखना कैसे-कैसे जुमले सामने आते हैं। अबे! तू तो पूरा चांद हो गया। उसको तो देखो, कितना दुबला-पतला था, अब कितना मोटू हो गया है। अरे, उसका बेटा तो उससे भी बड़ा दिखता है। साले को कितनी खूबसूरत बीवी मिली है। सोचो कितना सुखद होगा वह माहौल, जहाँ केवल हँसी-मजाक होंगे। संभवत: कोई पल रुला देने वाला भी हो सकता है। जिसमें उस उत्सव में केवल किसी मित्र की पत्नी ही अपने बच्चों के साथ आई होगी। फिर भी दिल के तार खुशी से झूम उठेंगे। तो क्यों न एक कोशिश की जाए, अपनों से मिलने की।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 25 जनवरी 2010

तीनों कालखंडों में इतिहास रचने वाला दोआबा

कभी धन्ना सेठ का इलाका कहलाने वाले गंगा,यमुना के मध्य बसे कौशाम्बी के दोआबा में आज गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी ने भले ही अपना स्थाई ठिकाना बना लिया हो लेकिन तीनों काल खण्डों में इतिहास रचकर यह उत्तर प्रदेश के मानचित्र पर खास मुकाम रख रहा है। दोआबा क्षेत्र समकालीन भारतीय इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। इतिहास का कोई भी दौर हो, कौशाम्बी ने अपनी अमिट छाप छोडी है। यहां चारो तरफ फैले सबूत इसकी ऐतिहासिकता एवं पौराणिकता की गवाही देते हैं।
पुराणों के अनुसार वैदिक काल में राजा दक्ष के यज्ञ में बिना बुलाए गई सती ने जब अपने पति भगवान शंकर का अपमान मायके में देखा तो व्यथित होकर अपने प्राण त्याग दिए। इस अनहोनी की जानकारी होने पर शंकर सृष्टि के संहारक के रूप में सामने आ गए। उन्होंने सती का मृत शरीर लिया और उड़ चले आकाश मार्ग पर। भगवान विष्णु ने त्रिपुरारी को रोकने के लिए सुदर्शन चक्र का सहारा लिया, जिसने सती के शरीर के 51 टुकडे किए। इसमें से एक अंग यहां कडा में गिरा और यह स्थान शक्तिपीठ कहलाया जो शीतला मां के नाम से विख्यात हुआ। ऐसी मान्यता है कि चेचक से पीडित कोई व्यक्ति यदि उनके दर्शन को आता है तो उसे इससे निजात मिलती है। इसीलिए यहां हजारों लोग प्रतिदिन मां के दर्शन के लिए आते हैं। जैन काल में जैनियों के चौथे तीर्थकर भगवान पद्मप्रभु ने यमुना के सुरभ्य तट पर जन्म लिया। पभोषा के पौराणिक पहाड पर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इसी जगह पर जैन धर्म को मजबूत करने के लिए उन्होंने संदेश दिए। जैनियों के तीर्थकर भगवान महावीर ने भी इस पवित्र धरती पर कदम रखा। वह कौशाम्बी स्थित पभोषा की ख्याति सुनकर यहां आए। कौशाम्बी की ही पवित्र धरती पर जैन गणिनी चंद्रना ने खुद भूखे रह
कर उन्हें आहार दिया। इसके बाद ही चंदना इतिहास के पन्नों में अमर हो गई। चंदना-महावीर के इस मिलन का गवाह आज भी कौशाम्बी-पभोषा का पवित्र क्षेत्र है। महाभारत युध्द के बाद श्रीकृष्ण अंतिम दिनों में वह कौशाम्बी आए। यहीं एक बहेलिए के तीर का शिकार होकर वह गोलोकवासी हुए। कौशाम्बी का प्राचीन जैन मंदिर इस पूरी घटनाक्रम की गवाही दे रहा है।
बौध्द काल में षोडस महाजन पदों में से एक कौशाम्बी को धनिकों की नगरी कहा जाता था। इतिहासकारों का कहना है कि प्रसिध्द धन्नासेठ कौशाम्बी के ही निवासी थे। तब यमुना नदी के सहारे ही पूरा व्यापार होता था। कौशाम्बी में बौध्द धर्म का बोलबाला था। भगवान बुध्द श्रावस्ती से कई बार चतुर्मास गुजारने के लिए कौशाम्बी आए। घोषिता राम एवं कुकक्टा राम नाम के दो व्यापारियों ने उनके ठहरने के लिए यहां विहार बनवाना था। इस पवित्र क्षेत्र में भगवान बुध्द ने कई स्थानों पर अपनी यादगार छोडी है। कौशाम्बी के बारे में सम्राट अशोक ने भी सुन रखा था। कलिंग युध्द के बाद जब अशोक को हिंसा से नफरत हो गई तो उसने कौशाम्बी को ही ठिकाना बनाया। उन्होंने यहीं से अहिंसा का संदेश देना शुर किया। सम्राट अशोक ने कौशाम्बी में अशोक स्तम्भ का निर्माण कराया। बौध्द काल में ही कौशाम्बी एक सुविकसित नगरी थी । उत्खनन में इस बात के प्रमाण मिल चुके हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता के बाद अगर देश में कहीं नगरीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं तो वह केवल कौशाम्बी है। महराज उद्यन की चर्चा के बगैर कौशाम्बी का इतिहास अधूरा है। बौध्द काल के बाद महराज का राजपाठ चारो तरफ फैला था। गढवा का किला उद्यन के वैभव की गवाही दे रहा है। कौशाम्बी ने अगर वैदिक काल में अपनी सशक्त पहचान दर्ज की है तो मध्यकाल का इतिहास और भी वैभवशाली है। कडा का इतिहास मध्यकाल के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। कडा की धरती को विद्रोह के लिए सबसे अनुकूल माना जाता था। खिलजी वंश के दौरान कडा का इतिहास उभरकर सामने आता है। देश की सल्तनत पर बैठे जलालुद्दीन खिलजी ने अपने भतीजे अलाउद्दीन को कडा की सूबेदारी सौंपी थी । तब कडा एक वैभवशाली सूबा हुआ करता था। अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत सहित देश के कई सूबों पर जीत दर्ज की। इससे खुश होकर जलालुद्दीन खिलजी अपने भतीजे को मुबारकबाद देने गंगा नदी के रास्ते कडा आया। देश पर राज करने की हसरत पाले बैठे अलाउद्दीन ने यहीं चाल चली। उसने बीच गंगा में नाव पर जलालुद्दीन का सिर काट लिया था । वह स्थान आज भी ताजमल्लाहन के नाम से जाना जाता है। इससे पहले एवं बाद में कडा की धरती विद्रोहों का केन्द्र रही। अफगान सरदारों एवं देश की सल्तनत के बीच यहां अनेको युध्द हुए। इसका प्रमाण पूरे क्षेत्र में फैली कब्रें आज भी दे रही हैं। मुगल काल में विद्रोहों को दबाने के लिए कडा के किले से आगरा तक मुगल रोड बनवाई गई। इसके निशान आज भी कौशाम्बी से लेकर आगरा तक मिलते हैं। अकबर ने कडा के आसपास अपने सिपहसालारों को आबाद किया था। उनके नाम से तमाम गांव बसे। इनका वजूद आज भी फतेहशाह का पुरवा, ननसेनी, सिपाह, इस्लामइलपुर, कमालपुर, अलीपुरजीता एवं फरीदपुर आदि के रूरप में मिलते हैं। कन्नौज के राजा जयचंद ने कडा में गंगा नदी के किनारे मिट्टी का ऐसा किला बनवाया जिसके निशान आज भी पूरे जीवंत रप में मिलते हैं। इसी दौर में मुगल शहजादा दारा शिकोह ने औरंगजेब के कहर से बचने के लिए दारानगर में पनाह ली। औरंगजेब को इसका पता चल गया । उसक ी सेना आने से पहले ही दारा वहां से भाग निकला। उसके नाम से दारानगर आज भी बसा है। इसी दौरान संत मलूकदास एवं ख्वाजा खडक शाह जैसी शख्सियतों ने कडा में दस्तक दी। इन दोनों संतों के संदेश एवं निशान आज भी पूरे जहां को अलौकिक कर रहे हैं। आधुनिक काल में स्वतंत्रता संग्राम में भी दोआबा के सपूतों ने अपनी जान की बाजी लगा दी। मंहगांव की धरती से निकले मौलवी लियाकत अली ने इलाहाबाद में महीनों तक गोरी फौज को घुसने तक नहीं दिया। उन्होंने लम्बे समय तक इलाहाबाद पर शासन किया। देश भक्ति की भावना का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि दारानगर में एक दर्जन से अधिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इन लोगों ने देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी इन्हीं उपलब्धियों के कारण कौशाम्बी आज भी प्रदेश के मानचित्र में अपनी पहचान बनाए हुए है।

शनिवार, 23 जनवरी 2010

क्रांतिकारियों के पथप्रदर्शक रासबिहारी बोस



देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले क्रांतिकारियों का जब जिक्र होगा, महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने न केवल देश में कई क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि विदेश में रहकर भी वह देश को आजादी दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे । दिल्ली में वायसराय लार्ड चार्ल्स हाडग पर बम फेंकने की योजना बनाने, गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। हालांकि देश को आजाद करने के लिए किए गए उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाए लेकिन इससे स्वतंत्रता संग्राम में निभाई गई उनकी भूमिका का महत्व कम नहीं हो जाता है। रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1886 को बंगाल प्रांत में बर्दवान के सुबालदह गांव में हुआ। उन्होंने अपनी शिक्षा चंदननगर में हासिल की, जहां उनके पिता विनोदबिहारी बोस नियुक्त थे। रासबिहारी बोस बचपन से ही देश की आजादी का सपना देखा करते थे और क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। प्रारंभ में रासबिहारी बोस ने देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम किया। उसी दौरान उनका क्रांतिकारी जतिन मुखर्जी के अगुवाई वाले युगातंर के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड गए। बाद में वह श्री अरविंदो के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रांत,वर्तमान में उत्तर प्रदेश, और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रांतिकारियों के करीब आए। दिल्ली में वायसराय लार्ड हाडग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसंत कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया । इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गई और वह बचने के लिए रात में रेलगाडी से देहरादून भाग गए और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो । अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा भी बुलाई, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा की । ऐसे में कौन संदेह कर सकता था कि इस हमले की साजिश रचने और उसे अंजाम देने में प्रमुख निभाने वाला उनके सामने ही मौजूद है। 1913 में बंगाल में बाढ राहत कार्यों के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क में आए, जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया। रासबिहारी बोस इसके बाद दोगुने उत्साह के साथ फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन में लग गए । देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने प्रथम विश्व युध्द के दौरान गदर की योजना बनाई 1 फरवरी,1915 में अनेक भरोसेमंद क्रांतिकारियों की सेना में घुसपैठ कराने की कोशिश की गई। युगांतर के नेताओं का विचार था कि यूरोप में युध्द होने के कारण चूंकि अभी अधिकतर सैनिक देश से बाहर
गए हुए हैं, इसलिए बाकी को आसानी से हराया जा सकता है लेकिन यह कोशिश नाकाम रही और कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया । ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकडने की कोशिश की लेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढे और भागकर 1915 में जापान पहुंच गए, जहां उन्होंने कई वर्ष निर्वासन में बिताए । जापान में भी रासबिहारी बोस चुप नहीं बैठे और वहां के अपने जापानी क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए प्रयास करते रहे। ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी हचान और रिहाइश बदलते रहे । 1916 में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिध्द पैन,एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और 1923 में वहां के नागरिक बन गए। जापान में वह पत्रकार और लेखक के रूप में रहने लगे। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खडा करने और देश की आजादी के आंदोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की भूमिका अहम रही। उन्होंने 28 मार्च 1942 को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया। 22 जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया ।जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चों पर कई भारतीय युध्दबंदियों को पकडा था। इन युध्दबंदियों को इंडियन इंडीपेंडेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी,आईएनए, का सैनिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आईएनए का गठन रासबिहारी बोस की इंडियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में 1 सितम्बर 1942 को किया गया। बोस ने एक झंडे का भी चयन किया, जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झंडे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के सुर्पुद किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा । बाद में इसी ढांचे पर
सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनएस का पुनर्गठन किया ।

देश को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की आस लिए 21 जनवरी 1945 को अपने वतन से मीलों दूर यह परवाना आजादी की शमां पर निसार हो गया। उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें ,आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत किया था। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खडा करने और देश की आजादी के आंदोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की भूमिका अहम रही। उन्होंने 28 मार्च 1942 को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया। 22 जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया । जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चों पर कई भारतीय युध्दबंदियों को पकडा था। इन युध्दबंदियों को इंडियन इंडीपेंडेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी,आईएनए, का सैनिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आईएनए का गठन रासबिहारी बोस की इंडियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में । सितम्बर 1942 को किया गया। बोस ने एक झंडे का भी चयन किया, जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झंडे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के सुर्पुद किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा । बाद में इसी ढांचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनएस का पुनर्गठन किया ।
देश को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की आस लिए 21 जनवरी 1945 को अपने वतन से मीलों दूर यह परवाना आजादी की शमां पर निसार हो गया। उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें ,आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत किया था।
अजय कुमार विश्वकर्मा

बुधवार, 20 जनवरी 2010

वसंत.. वसंत.. कहाँ हो तुम


डॉ महेश परिमल
अभी तो पूरे देश में कड़ाके की ठंड पड़ रही है। लगता है इस बार वसंत जल्‍दी आ गया। बस कुछ ही दिनों की बात है, जब हमें लगेगा कि हवाओं में एक अजीब सी मादकता है। मन में उमंगें कुलांचे मार रही है। कुछ नया करने की इच्‍छा हो रही है। तब समझो, हमारे द्वार पर वसंत ने दस्‍तक दी है। इसे ही दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि अभी-अभी ठंड ने गर्मी का चुम्बन लिया है.. समझ गया बस वसंत आने वाला है। पर वसंत है कहाँ? वह तो खो गया है, सीमेंट और कांक्रीट के जंगल में। अब प्रकृति के रंग भी बदलने लगे हैं। लोग तो और भी तेज़ी से बदलने लगे हैं। अब तो उन्हें वसंत के आगमन का नहीं, बल्कि ‘वेलेंटाइन डे’ का इंतजार रहता है। उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि वसंत कब आया और कब गया। उनके लिए तो वसंत आज भी खोया हुआ है। कहाँ खो गया है वसंत? क्या सचमुच खो गया है, तो हम क्यों उसके खोने पर आँसू बहा रहे हैं, क्या उसे ढूँढ़ने नहीं जा सकते। क्या पता हमें वह मिल ही जाए? न भी मिले, तो क्या, कुछ देर तक प्रकृति के साथ रह लेंगे, उसे भी निहार लेंगे, अब वक़्त ही कहाँ मिलता है, प्रकृति के संग रहने का। तो चलते हैं, वसंत को तलाशने। सबसे पहले तो यह जान लें कि हमें किसकी तलाश है? ‘मोस्ट वांटेड’ चेहरे भी आजकल अच्छे से याद रखने पड़ते हैं। तो फिर यह तो हमारा प्यारा वसंत है, जो इसके पहले हर साल हमारे शहर ही नहीं, हमारे देश में आता था। इस बार समझ नहीं आता कि अभी तक क्यों नहीं आया, ये वसंत। आपने कभी देखा है हमारे वसंत को? आपको भी याद नहीं। अब कैसे करें उसकी पहचान। कोई बताए भला, कैसा होता है, यह वसंत? क्या मिट्टी की गाड़ी की नायिका वसंतसेना की तरह प्राचीन नायिका है या आज की बिपाशा बसु या मल्लिका शेरावत की तरह है। कोई बता दे भला। चलो उस बुज़ुर्ग से पूछते हैं, शायद वे बता पाएँ। अरे.. यह तो कहते हैं कि मेरे जीवन का वसंत तो तब ही चला गया, जब उसे उसके बेटों ने धक्के देकर घर से निकाल दिया। ये क्या बताएँगे, इनके जीवन का वसंत तो चला गया। चलो उस वसंत भाई से पूछते हैं, आखिर कुछ सोच-समझकर ही रखा होगा माता-पिता ने उनका नाम। लो ये भी गए काम से, ये तो घड़ीसाज वसंत भाई निकले, जो कहते हैं कि जब से इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ बाज़ार में आई हैं, इनका तो वसंत ही चला गया। अब क्या करें। चलो इस वसंत विहार सोसायटी में चलते हैं, यहाँ तो मिलना ही चाहिए हमारे वसंत को। कांक्रीट के इस जंगल के कोलाहल में बदबूदार गटर, धुआँ-धूल और कचरों का ढेर है, यहाँ कहाँ मिलेगा हमारा वसंत। यहाँ तो केवल शोर है, बस शोर। भागो यहाँ से.. ये आ रहीं हैं वासंती। ये जरूर बताएगी वसंत के बारे में। लो इनकी भी शिकायत है कि जब से लोगों के घरों में कपड़े धोने की मशीन और वैक्यूम क्लीनर आ गया है, हमारा तो वसंत चला ही गया। अब कहाँ मिलेगा हमें हमारा वसंत? चलो ंिहंदी के प्राध्यापक डॉ. प्रेम त्रिपाठी से पूछते हैं, वे तो उसका हुलिया बता ही देंगे। लो ये तो शुरू हो गए, वह भ्रमर का गुंजन, वह कोयल की कूक, वह शरीर की सुडौलता, वह कमर का कसाव, वह विरही प्रियतम और उन्माद में डूबी प्रेयसी, वह घटादार वृक्ष और महकते फूलों के गुच्छे, वह बहते झरने और गीत गाती लहरें, वह छलकते रंग और आनंद का मौसम, बस मन मयूर हो उठता है और मैं झूमने लगता हूँ।

हो गई ना दुविधा। इन्होंने तो हमारे वसंत का ऐसा वर्णन किया कि हम यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि वसंत को किस रूप में देखें? सब गड्ड-मड्ड कर दिया त्रिपाठी सर ने। चलो अँगरेज़ी साहित्य के लेक्चरर यजदानी सर से पूछते हैं, शायद उनका वसंत हमारे वसंत से मेल खाता हो? अरे ये सर तो उसे ‘स्प्रिंग सीजन’ बता रहे हैं। कहाँ मिलेगा यह ‘स्प्रिंग सीजन’ ? थक गए भाई, थोड़ी चाय पी लें, तब आगे बढ़ें। अरे इस होटल के ‘मीनू’ में किसी ‘स्ंिप्रग रोल्स’ का ज़िक्र है, शायद उसी में हमें दिख जाए वसंत। गए काम से ! ये तो नूडल्स हैं। क्या इसे ही कहते हैं वसंत?
अब तो हार गए, इस वसंत महाशय को ढँूढ़ते-ढँूढ़ते। न जाने कहाँ, किस रूप में होगा ये वसंत। हम तो नई पीढ़ी के हैं, हमें तो मालूम ही नहीं है, कैसा होता है यह वसंत। वसंत को पद्माकर ने देखा है और केशवदास ने भी। कैसे दिख गया इन्हें बगरो वसंत? कहाँ देख लिया इन्होंने इस वसंत महाशय को? अब नहीं रहा जाता हमसे, हम तो थक गए। ये तो नहीं मिले, अलबत्ता पाँव की जकड़न जरूर वसंत की परिभाषा बता देगी। अचानक भीतर से आवाज़ आई, लगा कहीं दूर से कोई कह रहा है..
कौन कहता है कि वसंत खो गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हें तरह-तरह के वसंत से परिचय कराता हँू। ये देखो कॉलेज कैम्पस। यहाँ जुगनुओं की तरह यौवन का मेला लगा है। मैं पूछता हूँ क्या ये सभी प्रकृति के पुष्प नहीं हैं? इन्हें भी वसंत के मस्त झोकों ने अभी-अभी आकर छुआ है। यौवन का वसंत। इसकी छुअनमात्र से इनके चेहरे पर निखार आ गया है। देख रहे हो इनकी अदाएँ, ये शोखी, ये चंचलता? वसंत केवल पहाड़ों, झरनों और बागों में ही आता है, ऐसा किसने कहा? कभी भरी दोपहरी में किसी फिल्म का शो खत्म होने पर सिनेमाघर के आसपास का नजारा देखा है? वहाँ तो वसंत होता ही है, स्नेक्स खाते हुए, भुट्टे खाते हुए, चाट खाते हुए, पेस्ट्री खाते हुए। मालूम है, नहीं भाया वसंत का यह रूप आपको। तो चलो, स्कूल की छुट्टी होने वाली है, वहाँ दिखाता हूँ आपको वसंत, देखोगे तो दंग रह जाओगे, वसंत का यह रूप देखकर। वो देखो.. छुट्टी की घंटी बजी और टूट पड़ा सब्र का बाँध। कैसा भागा आ रहा है ये मासूम और अल्हड़ बचपन। पीठ पर बस्ता लिए ये बच्चे जब सड़क पर चलते हैं, तब पूरी की पूरी सड़क एक बगीचा नजर आती है और हर बच्च एक फूल। क्या इन फूलों पर नहीं दिखता आपको वसंत?
कभी किसी ग्रींिटंग कार्ड की दुकान पर खड़े होकर देखा है, इठलाती युवतियाँ हमेशा सुंदर फूलों, बाग-बगीचों और हरियाली वाले कार्ड ही पसंद करती हैं। ऐसा नहीं लगता है कि इनके भीतर भी कोई वसंत है, जो इस पसंद के रूप में बाहर आ रहा है। ऐश्वर्यशाली लोगों के घरों में तो वाल पेंटिंग के रूप में हरियाला वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है। ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है, हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस ज़रा-सा दुबक गया है और हमारी आँखों से ओझल हो गया है। अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूँढ़े, तो उसे देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हाँ यही है वसंत, जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूँढ़ रहे थे। वसंत जीवन का संगीत है, ताज़गी की चहक और सौंदर्य की खनक है, परिवर्तन की पुकार और रंग उल्लास का साक्षात्कार है। जहाँ कहीं ऐसी अनुभूति होती है, वसंत वहीं है। वसंत कहीं नहीं खोया है। मेरे और आपके अंदर समाया वसंत अभी भी अपना उजाला, ताज़गी, सौंदर्य पूरी ऊर्जा के साथ चारों ओर फैला रहा है। बस खो गई है वसंत को परखने वाली हमारी नज़र। अब तो मिल गया ना हमारे ही भीतर हमारा वसंत। तो विचारों को भी यहीं मिलता है बस अंत।
डॉ महेश परिमल

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

साधो यह हिजड़ों का गाँव



गिरीश पंकज


साधो यह हिजड़ों का गाँव-1
व्यंग्य-पद-

(1)

साधो यह हिजड़ों का गाँव।
कोयल चुप है, कौवे हिट हैं, करते काँव-काँव बस काँव।
सच कहने से बेहतर है तुम, बैठो जा कर शीतल छाँव।
नंगों की बस्ती में आखिर, कैसे जीतोगे तुम दाँव।
बचकर रहना नदी में कीचड़, फँस जाएगी जर्जर नाँव।
अच्छा है परदेस निकल लो, वहीं मिलेगी तुमको ठाँव।


चलने दो बस ठकुरसुहाती।
सच मत बोलो फट जाती है...साहब, भैयाजी की छाती।
जिनके दुराचरण पर जनता, हरदम मंगल गीत सुनाती ।
उसको नमन सभी करते हैं, जिनके हिस्से कुरसी आती।
खुद्दारी के पाठ पढ़ो मत, इससे जिनगी ना चल पाती।
अगर मलाई चाहो खाना, दिखना चौखट पर दिन-राती।

यह मेरा भगवान नहीं है।
मंदिर में दिखते सवर्ण सब, दलितों का स्थान नहीं है।
जितने पापी उतने पूजक, साधक का सम्मान नहीं है।
झूठे को वर, सच्चे को भी, यह तो कोई विधान नहीं है।
समदर्शी का क्या है मतलब, जब तक न्याय महान नहीं है ।
रिश्वत देते हैं दाता को, क्या उसका अपमान नहीं है ।

व्यंग्य -पद

साधो नौकर तो नौकर है।
चूहे को बिल्ली का डर है, नेता को दिल्ली का डर है।
आईएएस और आईपीएस? इन सबका भी झुकता सर है।
वो भी नौकर ये भी नौकर, कहाँ कोई सुरखाबी पर है।
इक नौकर गाड़ी में चलता, इक पैदल जाता दफ्तर है।
गर्व न करना सूट-बूट का, कुछ दिन का बस ये चक्कर है।

सच्चा जीवन सबसे बेहतर।
जैसे बाहर तुम दिखते हो, वैसा ही बस रहना भीतर।
हो अन्याय कहीं तो बेशक, चीखो थोड़ी-सी हिम्मत कर।
रचना अच्छी, जीवन गंदा, ऐसे में लगते हो जोकर।
आया था बेदाग मुसाफिर, जाना है बेदाग संभल कर।
पद-पैसा किस पे इतराए, मिल-जुल रे तू सबसे हँसकर।

याचक होना बहुत जरूरी।
बेचो खु़द को चौखट-चौखट, कहाँ की श्रद्धा और सबूरी?
देखो कौन सफल है अब तो, नंगे-लुच्चे, छप्पनछूरी।
अगर चाहिए सच्चा सुख तो, रहे न चाहत की मजबूरी।
जब तक जीवन तब तक आखिर, हुई वासना किसकी पूरी।
बिना याचना कुछ ना मिलता, बनी अगर प्रभुता से दूरी।

गिरीश पंकज

शनिवार, 16 जनवरी 2010

बना रहे ये विश्‍वास


मनोज कुमार
भारतीय स्त्रियों के चरित्र पर विश्वास जताते हुए अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि भारतीय नारी पर संदेह नहीं किया जा सकता है। वे अपने खिलाफ बलात्कार का मामला यूंह ी दर्ज नहीं कराती हैं। अदालत ने यह टिप्पणी कर भारतीय स्त्री के गौरव को द्विगुणित किया है और कहना न होगा कि इससे भारतीय समाज का सिर गर्व से ऊंचा उठा है। भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को सनातन काल से सर्वोपरि माना गया है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में तब स ेअब तक पूजा जाता रहा है। यकिनन समय के बदलाव के साथ सोच में परिवर्तन आया है और समाज स्त्रियों को नयी भूमिका में देख रहा है। कल तक घर की चहारदीवारी के भीतर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने वाली स्त्री आज आफिसों में अपने दायित्वों को निभा रही हैं। उनकी नयी जिम्मेदारियों के साथ उनके पहनावे में भी परिवर्तन आया है और महज पहनावा को ही यह मान लिया गया कि स्त्री बदल गयी है। उसके चरित्र पर अकारण लांछन लगाया जाने लगा। एक मामला पत्रकारिता की एक छात्रा के साथ पिछले दिनों सामने आया था। यह सब कुछ कुछ मानसिक रूप से बीमार लोगों की करतूतें हैं। स्त्री आज भी अपनी उसी भूमिका में है और इसका विस्तार ही माना जाना चाहिए।बाजार के नये रूप ने जरूर स्त्री को वस्तु बनाकर प्रदर्शन किया है और इसमें कुछ हद तक स्त्री भी दोषी हैं। उनके लिये पूरा आसमान खुला हुआ है और तब उन्हें किसी किस्म के समझौते की जरूरत नहीं होना चाहिए। हमारा
मानना है कि यह सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे भी कोई मामला होगा। स्त्रियों के साथ ज्यादती पहले भी हो रही थी और अब भी हो रही है, इस बात से भला कौन इंकार करेगा। स्त्री को दबाने और कुचलने का सर्वाधिक पीड़ादायक यातना है तो उसके साथ बलात्कार करना। इसमें भी आरोपी बच निकलते थे लेकिन अदालत ने यह कह कर स्त्री का सम्मान बढ़ाया है कि उसने कह दिया, यह ीपर्याप्त है। हम सभी को उम्मीद करना चाहिए कि भारतीय स्त्री भी अपने पक्ष में दिये गये इस सम्मान को कायम रखने में आगे रहेगी और पापी पुरूष अब अपने दानवी रूपप र काबू पा सकेंगे। नये साल में भारतीय स्त्रियों को न केवल अदालत की बल्कि पूरे समाज की ओर से शुभकामनाएं हैं।
मनोज कुमार

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

मेरी ६०० वीं पोस्‍ट: आज का विषय पर्यावरण


स्वास्थ्य की कीमत पर धनोपार्जन, कितना उचित?
डॉ. महेश परिमल
एक उद्योगपति की पत्नी बीमार हो गई। हर जगह उसका इलाज करवाया, पर कोई फायदा नहीं हुआ। उद्योगपति पत्नी को खूब चाहता था, पत्नी भी उसे खूब चाहती थी। अंतत: डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। स्थिति यह आ गई कि उद्योगपति कहने लगा कि चाहे कितना भी खर्च हो, पर मेरी पत्नी को बचा लो। एक दिन में एक करोड़ रुपए भी खर्च होते हैं, तो मैं वह खर्च करने को तैयार हूँ। लेकिन कुछ न हो सका। अंतत: उद्योगपति की पत्नी का देहांत हो गया।
ये इंसान भी कितना मूर्ख है, पहले तो संपत्ति जमा करने के लिए हर तरह के उपाय करता है। इस दौरान यह भी समझ नहीं पाता कि वह क्या कर रहा है? वह प्रकृति से छेड़छाड़ करता रहता है। पेड़ कटवाता है। पानी बेकार बहाता है। प्रदूषण को प्रश्रय देता है। कुल मिलाकर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाला हर काम करता है। उसके बाद जब यह नुकसान अपना असर दिखाने लगता है, तब वह अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान देने लगता है। ङ्क्षकतु तब तक काफी देर हो चुकी होती है। तब स्वास्थ्य भी सँभल नहीं पाता। आखिर होता वही है, किसी अपने का पास से चुपचाप गुजर जाना। अपने स्वास्थ्य की कीमत पर वह संपत्ति जमा करता है। आगे चलकर यही संपत्ति उसे कोई काम नहीं आती।
आज मुंबई के लोगों से बात करके देख लें। किसी के पास समय नहीं है। हर कोई दौलत के पीछे भागा जा रहा है। मानसिक शांति क्या होती है, यह तो वे जानते ही नहीं। बस धन कमाना ही पहली और अंतिम प्राथमिकता रह जाती है। जीवन में धन ही सब कुछ नहीं होता। यह बात अब अमीर देश समझ रहे हैं। कोपेनहेगन में इसी बात की चिंता प्रकट की गई थी कि विश्व में बढ़ रहे प्रदूषण को दूर करने के लिए कितना धन खर्च किया जाए? इस पर रोक किस तरह से लगाई जाए? क्या इसे कम नहीं किया जा सकता? आदि प्रश्न जिस तेजी से उछले, उससे ही दोगुनी तेजी से लुप्त भी हो गए। कोपेनहेगन में किसी बात पर कोई राजी नहीं हो पाया। इतना खर्च करके किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सका। यह अखरने वाली बात है। इसे ही यदि पहले समझ लिया गया होता, तो शायद आज ये स्थिति नहीं आती। पर किया क्या जा सकता है।
आज इंसानों में भी यही देखा जा रहा है। एक हरियाली वाली जगह पर अपना आशियाना बनाता है। कुछ दिनों बाद वहाँ की हरियाली विदा ले लेती है, बस जाते हैं, कांक्रीट के जंगल। ढूँढते रह जाओगे हरियाली को। वह नहीं मिलेगी। हर कोई चाहता तो यही है कि वह हरियाली के बीच रहे। पर इस हरियाली को बनाए रखने के लिए वह ऐसा कुछ नहीं कर पाता, जिससे हरियाली बची रहे। एक पेड़ की छाँव कितना सुकून देती है, इसे जंगल में जाकर नहीं समझा जा सकता। इसे तो तब समझा जाएगा, जब मीलों लंबे रेगिस्तान की ययात्रा करने के बाद कहीं कोई घना पेड़ मिल जाए। यदि वहाँ एक कुआँ हो, तो क्या बात है? बस पानी पीयो और उसी छाँव में आराम करो। देखो, कितना सुकूल मिलता है। जिसने भी यह अनुभव किया है, वही इसे बेहतर समझ सकता है। वही इस पीढ़ी को भी समझा सकता है कि पेड़ हमारे लिए कितने लाभप्रद हैं।
एक बार पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र मिल गए। उन्होंने मॉल संस्कृति पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि इस पीढ़ी से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि शहर के बीचों-बीच स्थित तालाब के स्थान पर मॉल बनाकर वे समाज के लिए तो एक अच्छा कार्य कर रहे हैं, पर क्या वे बता सकते हैं कि वह तालाब जो पानी संग्रह करता था, तो उसका काम कौन करेगा? क्या मॉल बनाने वाली पीढ़ी के पास ऐसा कोई उपाय है, जिससे वे बता सकें कि तालाब के स्थान पर मॉल बनाकर पानी संग्रहण किस तरह से किया जाएगा? यह पीढ़ी तालाब के स्थान पर मॉल बनाना तो जानती है, पर पानी संरक्षण के बारे में कुछ नहीं जानती। शहरों से तालाब कम हो रहे हैं और बड़े से बड़ मॉल बन रहे हैँ। हम इसी में खुश हैं कि हमें मॉल में कई अत्याधुनिक चीजें एक ही स्थान पर मिल रही हैं। पानी हमसे दूर चले जाएगा, तो हरियाली हमारे पास रहने वाली नहीं है। यदि आप हरियाली को चाहते हैं, तो पानी से प्यार करना सीखना होगा। एक बूँद पानी का मोल शरीर के खून जितना है। पानी बेकार बह रहा है, तो यह समझो कि हमारे शरीर का खून बेकार बह रहा है। खून बाद में बन जाएगा, पर पानी हम बना नहीं सकते। यह तो हमे प्रकृति से ही मिलेगा। हमें इसका संरक्षण करना होगा। तभी पानी हमारे पास रह पाएगा? अन्यथा अभी तो वह धरती के ५० मीटर अंदर है, हालात यही रहे, तो वह और भी नीचे चला जाएगा, जहाँ तक किसी की पहुँच नहीं हो पाएगी। यह हमारी अत्याधुनिक मशीनें वहाँ तक पहुँच भी गई, तो पानी की लागत इतनी अधिक होगी कि वह हमें हमारी नानी याद दिला देगा।
हिंदू शास्त्र की सभी विधियाँ और नीति-नियम मानव के स्वास्थ्य को लेकर ही तैयार किए गए हैं। शरीर स्वस्थ रहेगा, तभी मन स्वस्थ रहेगा। यदि मन स्वस्थ रहा, तो मानव का मनोबल स्वस्थ रहेगा। शरीर का रक्त संचार निर्विघ्न हाता रहेगा, तो रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति में वृद्धि होगी। इसी गणित का अनुसरण करते हुए उत्तरी ध्रुव की चुंबकीय शक्ति का असर मानव के शरीर पर पडऩे के कारण यह तय किया गया है कि रात को सोते समय मनुष्य का सर दक्षिण दिशा मेें होना चाहिए, ताकि शरीर के खून में शामिल लौह तत्व उत्तरी ध्रुव की चुंबकीय शक्ति को खून के संचार के लिए सरल बना सके। ऐसे छोटे-छोटे अनेक नियम शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ही बनाए गए हैं। किंतु शहर के भागम-भाग जीवन जीते हुए लोग ऐसा न कर पाने के लिए विवश हैं। वे सोचते हैं कि अभी धनोपार्जन कर लें, फिर स्वास्थ्य की ओर ध्यान देंगे। अब इंसान को इस समझ से कैसे बाहर निकाला जाए?
पहले हमारा देश कृषि प्रधान देश था, पर अब उद्योग प्रधान देश बन गया है। उद्योग-धंधों को सरकार की तरफ से संरक्षण मिल रहा है। इन उद्योगों का रसायनयुक्त पानी धरती के पानी को प्रदूषित कर रहा है। एक उद्योग यदि हजारों को रोजगार दे रहा है, तो लाखों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ भी कर रहा है। इसे सरकार नहीं समझ पा रही है। सरकारों का हर कदम उद्योगपतियों को लुभाने का होता है। ऐसे में आम आदमी का स्वास्थ लगातार बिगड़ता जा रहा है। लोभी नेताओं के जाल में फँसकर सामान्य नागरिक आज महँगाई से जूझ रहे हैं। पानी की समस्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। इन परिस्थितियों में मानव को अपने ही अस्तित्व का संकट नजर आने लगा है। अपने आप को बचाने के लिए शरीर को स्वस्थ्य रखना बहुत ही आवश्यक है। पर इस सामाजिक, सांस्कृतिक और सरकारी प्रदूषण से कैसे बचा जाए? जब से शहरीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, तब से परिस्थितियाँ और भी अधिक विकट हो गई है। तमाम कारखानों का रसायनयुक्त पानी आखिर कहाँ जा रहा है, यह जानने की फुरसत किसी को भी नहीं है। सैकड़ों एकड़ जमीन नष्ट हो गई है। पर्यावरण की रक्षा नहीं कर पाने के कारण वह आज अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहा है। पर्यावरण को आज भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। आखिर कब समझेगा इसे मानव?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

जनप्रतिनिधियों ने फिर किया शर्मसार


अशोक त्रिपाठी
लोकतंत्र में नेताओं अर्थात् जनप्रतिनिधियों की स्वार्थपरता के किस्से तो आम हो चुके हैं। विशेष रूप से चुनाव के समय जनता इसका एहसास भी दिलाती है और पूछती है कि अब दोबारा इस गांव में कब होगा आगमन, उन्हें पुराने वादे भी याद दिलाये जाते हैं और स्वार्थी नेता इन चुभते नश्तरों को बेशर्मी की हंसी के साथ बर्दाश्त कर लेते हैं।
अभी गत 8 जनवरी को ऐसे ही जनप्रतिनिधियों ने संवेदनहीनता की हद ही पार कर दी। यह घटना तमिलनाडु की है और वहां की सत्तारूढ़ द्रमुक के दो मंत्री अपने काफिले के साथ जा रहे थे लेकिन एक घायल दरोगा को किसी ने भी अस्पताल पहुंचाने की जरूरत नहीं समझी। बाद में जब तक उस बहादुर सब इंस्पेक्टर को अस्पताल पहुचांया जाता, तब तक उसकी जान जा चुकी थी। मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता दी है तो शायद मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि अपने मंत्रियों से जवाब तलब करें लेकिन जनप्रतिनिधि इतना खूबसूरत बहाना करेंगे कि जनता यह कहने पर मजबूर हो जायेगी कि वे बेचारे क्या कर सकते थे..। इसी बहाने उसकी मौत होनी थी। तमिलनाडु के तिरुनेलविली जिले में राज्य पुलिस का एक सबइंस्पेक्टर वेट्रिवल, जिसने चंदन तस्कर और आतंक के पर्याय बन चुके वीरप्पन को सन् 2006 में गोली का निशाना बनाया था, गत सात जनवरी की शाम मोटरसाइकिल से जा रहे थे। वह हेल्मेट लगाये था और ऐसा उसने यातायात नियमों का पालन करने के लिये किया था, वरना कई पुलिस वाले शहर से बाहर तो दूर शहर के अंदर भी पुलिस कैप के ऊपर हेल्मेट नहीं लगाते हैं। बहरहाल सब इंस्पेक्टर वेट्रिवल के लिये यही हेल्मेट मौत का कारण बन गया। वरना उसकी जान बच जाती। इसका एक कारण यह था कि वहीं का एक दरोगा, जिसका नाम शिव सुब्रमण्यम है, उससे परिवार के ही लोगों का झगड़ा चल रहा है और पता चला कि सुब्रमण्यम् की हत्या के लिये कुछ बदमाशों को सुपारी दी गयी थी। हेल्मेट की वजह से बदमाश दरोगा सुब्रमण्यम के धोखे में दरोगा वेट्रिवल को गोली मारकर भाग गये। निश्चित रूप से यह दरोगा वेट्रिवल का दुर्भाग्य था अथवा बुरे ग्रहों का प्रभाव कि वे किसी और के बदले गोलियों का शिकार हुए लेकिन इस घटना के बाद का जो वाक्या है, वह बेहद शर्मनाक रहा और जनप्रतिनिधियों की छवि पर कलंक लगाने वाला भी। बदमाशों की गोली से घायल दरोगा वेट्रिवल सड़क पर गिरकर छटपटा रहे थे। उसी दौरान राज्य के स्वास्थ्य मंत्री एम-आर- के पन्नीरी से लवम और युवा एवं खेलमंत्री मोहिदीन खान का काफिला वहां से गुजरा। इन मंत्रियों के साथ जिलाधिकारी समेत विभिन्न अधिकारी भी थे। काफिले में एम्बुलेंस भी रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं। बताते हैं घायल दरोगा वेट्रिवल मदद के लिये चीख रहा था। मंत्रियों का काफिला वहां थोड़ी देर के लिये ठहरा लेकिन पता नहीं उस जांबाज दरोगा की जान से बढ़कर उन्हें कौन सा काम था जो घायल वेट्रिवल को पहले अस्पताल पहुंचाना जरूरी नहीं समझा। जिलाधिकारी समेत अन्य अधिकारियों को भी इंसानियत या तो दिखी नहीं अथवा राजनेताओं की चाटुकारिता के आगे उनके हाथ बंध गये। बहरहाल, नेताओं और जिले के वरिष्ठतम अधिकारी के कर्तव्यहीन बनने से एक जांबाज दरोगा की जान चली गयी, समय से उसको इलाज नहीं मिल पाया।
यही नौकरशाही जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा में अपनी जान की परवाह नहीं करती है। हमला होने पर पहले वह गोली खाती है, बाद में नेता तक आंच पहुंचती है। अभी पता चला है कि आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर की हेलीकाप्टर दुर्घटना में मौत के मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग की गयी क्योंकि कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि इस हादसे के पीछे अम्बानी बंधुओं ने किसी भी साजिश से साफ इंकार करते हुए उसे अपने विरोधियों की चाल बताया है। जनप्रतिनिधि अपने मामले में तो इतनी सावधानी बरत रहे हैं तो नौकरशाही के प्रति उनकी घोर उपेक्षा के लिये भी सवाल-जवाब किया जाना चाहिए। दरोगा वेट्रिवल की शहादत व्यर्थ नहीं जाना चाहिए।
अशोक त्रिपाठी

बुधवार, 13 जनवरी 2010

एक रानी. जो आदेश नहीं मानने पर कटवा देती थी नाक

इतिहास में कर्णावती नाम की दो रानियों का उल्लेख मिलता है । इनमें एक चित्तौड के शासक राणा संग्राम सिंह. राणा सांगा. की पत्नी थी. जिन्होंने अपने राज्य को गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के हमले से बचाने के लिए मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी जबकि दूसरी उत्तराखंड के गढवाल की शासिका थीं. जिनका ..नाक काटने वाली रानी.. के नाम से उल्लेख मिलता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति की नाक कटवा देती थीं । गढवाल की इस रानी के बारे में इतिहास में दर्ज है कि उसने अपनी राजनीतिक सूझबूझ और पराक्रम से मुगल सेना के छक्के छुडा दिए थे । हालांकि रानी कर्णावती के जन्म. मायके आदि के बारे में जानकारी नहीं मिलती है लेकिन यह निश्चित है कि उनका जन्म किसी उच्च कुल में हुआ था। रानी कर्णावती का विवाह गढवाल के राजकुमार महीपति शाह के साथ हुआ था. जो अपनी पराक्रम गाथाओं से बाद में महाराजा. गर्वभंजन महीपति शाह. के नाम से प्रसिध्द हुए । जुलाई. 1631 में अल्मोडा के युध्द में महीपति शाह के मारे जाने के बाद उनके पुत्र पृथ्वीपति शाह का सात साल की उम्र में राजतिलक कर दिया गया लेकिन उसके वयस्क होने तक पूरा राजकाज रानी कर्णावती ने संभाला। इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह पवार राजमाता कर्णावती के विषय में लिखते हैं...वह अपनी विलक्षण बुध्दि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए प्रसिध्द थीं। अपने पुत्र के नाबालिग होने के कारण वह कर्तव्यवश जन्मभूमि गढवाल के हित के लिए अपने पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और बडे धैर्य और साहस के साथ उन्होंने पृथ्वीपति शाह के संरक्षक के रूप में राज्यभार संभाला। रानी कर्णावती ने राजकाज संभालने के बाद अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुद्यढ किया। गढवाल के प्राचीन ग्रंथों और गीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा निमत बावलियों. तालाबों , कुओं आदि का वर्णन आता है।
रानी कर्णावती ने निर्माण कार्यो के अलावा गढवाली सेना को भी पुनर्गठित एवं संगठित किया। मुख्य सेनाध्यक्ष माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में सेना को सुव्यवस्थित करने में उन्हें अच्छी सफलता मिली। इतिहासकारों के अनुसार दोस्तबेग मुगल नाम का एक मुसलमान सेनानायक महाराजा महीपति शाह के ाासनकाल से उनकी सेना में नियुक्त था। राजमाता ने उसके परामर्श से विशेष लाभ उठाना प्रारंभ किया और संभवत: उसी की सलाह पर उन्होंने विद्रोहियों तथा आतताईयों को कठोर दण्ड देना शुरु किया तथा अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वालों की नाक कटवा देने की प्रथा डाली। इसी कारण वह नाक काटने वाली रानी के नाम से जानी गयी। इसे ऐतिहासिक संयोग ही कहा जा सकता है कि 1634 में बदरीनाथ धाम की यात्रा के दौरान छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की गढवाल के श्रीनगर में सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट हुई। इन दो महापुरषों की यह भेंट बडी महत्वपूर्ण थी क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य था ,मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति प्राप्त करके हिन्दू धर्म की रक्षा करना। इतिहासकार कैप्टन पंवार लिखते हैं, देवदूत के रप समर्थ गुरु स्वामी रामदास 1634 में श्रीनगर गढवाल पधारे और रानी कर्णावती को उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त किया। समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भू , खंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मार्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके। इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया पूज्य गुरुदेव , इस पुनीत कर्तव्य के लिये हम गढवाली सदैव कमर कसे हुए उपस्थित हैं।
रानी कर्णावती के शासन के समय दिल्ली के तख्त पर मुगल सम्राट शाहजहां आसीन थे। महीपति शाह के शासनकाल में मुगल सेना गढवाल विजय के बारे में सोचती भी नहीं थी लेकिन जब वह युध्द में मारे गए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब मुगल शासकों ने सोचा कि उनसे शासन छीनना सरल होगा। शाहजहां को समर्थ गुरु रामदास और गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से सलाह मशविरा करने की खबर लग गयी थी। नजाबत खां नाम के एक मुगल सरदार को गढवाल पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी गयी और वह 1635 में एक विशाल सेना लेकर आक्रमण के लिये आया। उसके साथ पैदल सैनिकों के अलावा घुडसवार सैनिक भी थे । सिरभौर के राजा मान्धाता प्रकाश ने उसकी सैनिक सहायता भी की। इसलिये शुरुआती प्रयास में ही मुगल सेना ने दूनघाटी के शेरगढ, ननारगढ , सतूरगढ आदि केन्द्रों पर अधिकार करने के साथ ही कालसी तथा बैरागढ को भी गढवाली सेनाओं से छीन लिया और उन्हें सिरभौर के राजा को सौंपकर वह गढवाल के मुख्य भू , भाग पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगी।
रानी कर्णावती ने मुगल आक्रमण की खबर पाते ही राजधानी श्रीनगर की ओर प्रस्थान किया और अपने सिपहसलारों से परामर्श किया। तब तक नजाबत खां के नेतृत्व में मुगल सेना दून ने घाटी को रौंदती हुए और वहां के कई किलों पर अधिकार करने के बाद हरिद्वार से चण्डीघाट पर नदी को पार करके उसके पूर्वी किनारों से आगे बढती हुए और सलाण के इलाके , नीला , मोहरी कुमाऊं , लक्ष्मण झूला और मोहन नट्टी के मार्ग से श्रीनगर की ओर बढने की तैयारियां शुरु कर दी। ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा। उन्होंने नजाबत खां के पास संदेश भेजा कि वह बादशाह की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार है और यदि उन्हें दो हफ्ते की मोहलत दी जाये तो वह उन्हें दस लाख रुपये भेंट स्वरुप दे सकती हैं। नजाबत खां ने दो सप्ताह की अवधि मंजूर कर ली और मुगल सेना को आगे बढने से रोक दिया। रानी रपये भेजने में बहाने और विलंब करने लगीं। बार बार धमकियां देने और प्रयत्न करने पर डेढ माह बीत जाने के बाद नजाबत खां को बडी मुश्किल से रानी से केवल एक लाख रपये मिल सके। डेढ महीने तक रपयों के इंतजार में शाही सेना की रसद समाप्त हो गयी। नजदीक कोई गांव या नगर न होने से मुगल सेना को खाद्य सामग्री मिलने की कोई संभावना भी नहीं थी। इस अनुभवहीन सरदार ने अब तक लगातार विजय प्राप्त करने के गर्व से इस संकट से बचने की कोई तरकीब नहीं सोची थी। खान पान का सामान इतना घट गया कि मुगल सैनिक भूखों मरने लगे। गढवालियों ने सब मार्ग बंद कर दिये , इसलिये जो भी मुगल सैनिक दूर स्थित ग्राम, नगरों में रसद लाने के लिये जाता था उसे वह लूट लेते थे। सेना में भीषण ज्वर फैल गया जिससे सैनिक बडी संख्या में मरने लगे। ज्वर और भूख से व्याकुल शत्रु सेना को गढवाली सैनिकों ने घेर लिया। युध्द में शाही सेना के अनेक सैनिक मारे गये और लगभग सभी के घोडे और युध्द सामग्री छीन ली गयी। निरपाय होकर नजाबत खां नींद से जागा और अपने प्राण तथा नाक की रक्षा के लिये जंगलों के रास्ते से मैदान की ओर भागा । उसके अधिकतर सैनिक नककटवा रानी के चंगुल से बचने के लिये पैदल ही भाग गये। इस पराजय से क्षुब्ध होकर शाहजहां ने नजाबत खां का मनस छीन लिया। इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया। गढवाल की उस नककटवा रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया। रानी कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रप में 1640 तक शासनरढ रहने के प्रमाण मिलते हैं लेकिन यह अधिक संभव है कि युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया होगा और अपना बाकी जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रप में बिताया होगा।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

खलनायकी का पर्याय बन गए अमरीश पुरी


उन अभिनेताओं में सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा. जिन्होंने अपनी कड़क आवाज. रोबदार भाव.भंगिमाओं और अभिनय की विशेष शैली से खलनायकी को एक नया अंदाज दिया और उसे लोकप्रियता के ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया। लगभग चालीस वर्ष की उम्र में रुपहले परदे की ओर रख करने के बाद अमरीश पुरी ने लगभग तीन दशक के कैरियर में 250 फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखाया। मिस्टर इंडिया में उनका किरदार मोगैम्बो तो कुछ इस तरह उनके नाम से जुड़ गया था कि आज भी लोग उनकी उस भूमिका को याद करते हुए बरबस कह उठत। हैं ''मोगैम्बो खुश हुआ'' वर्तमान दौर में अनेक कलाकार किसी अभिनय प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लेकर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत करते हैं लेकिन अपन। आप में अभिनय का चलता. फिरता प्रशिक्षण संस्थान होन। के बावजूद अमरीश पुरी हमेशा रंगमंच से जुडे रहे। मुम्बई के पृथ्वी आर्ट थिएटर की तो वह एक अलग पहचान बन गए थे। अमरीश पुरी ने पचास के दशक में हिमाचल प्रदेश के शिमला से स्नातक की उपाधि लेने के बाद मुम्बई का रख किया। उस समय उनके बड़े भाई मदनपुरी हिन्दी फिल्म में खलनायक के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके थे। अमरीश पुरी 1954 में अपने पहले स्क्रीन टेस्ट में सफल नहीं हुए। उसके बाद उन्होंने कुछ दिनों तक श्रम मंत्रालय में नौकरी की और साथ ही सत्यदेव दुबे के नाटकों में अपने अभिनय का कमाल भी दिखाते रहे। बाद में वह पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर में कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। चालीस वर्ष की उम्र तक पहुंचने के बाद फिल्मी कलाकार परिपक्व होत। है जबकि अमरीश पुरी ने अपने जीवन के 40वें वसंत से अपने फिल्मी जीवन की शुरुआत। वर्ष 1971 में उन्होंने फिल्म रेशमा और शेरा से खलनायक के रप में अपने कै रियर की शुरूआत की लेकिन वह इस फिल्म से दर्शकों के बीच अपनी पहचान नहीं बना सके। मशहूर बैनर बाम्ब। टॉकीज में कदम रखने के बाद उन्हें बड़े बड़े बैनर की फिल्में मिलनी शुरू हो गई। अमरीश पुरी ने खलनायकी को ही अपन। कैरियर का आधार बनाया।इन फिल्मों में श्याम बेनेगल की कलात्मक फिल्में जैसे निशांत, 1975, मंथन 1976, भूमिका 1977, कलयुग 1980, और मंडी 1983, जैसी सुपरहिट फिल्में भी शामिल है जिनमें उन्होंने नसीरूद्दीन शाह स्मिता पाटिल और शबाना आजमी जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया और अपनी अदाकारी का जौहर दिखाकर अपना सिक्का जमाने में कामयाब हुए। इस दौरान उन्होंने अपना कभी नहीं भुलाया जा सकने वाला किरदार गोविन्द निहलानी की 1983 में प्रदशत कलात्मक फिल्म अर्ध्दसत्य में निभाया। इस फिल्म में उनके सामने कला फिल्मों के दिग्गज अभिनेता ओमपुरी थे। बरहराल, धीरे धीरे उनके कैरियर की गाड़ी बढ़ती गई और उन्होंने कुर्बानी 1980 नसीब 1981 विधाता 1982, हीरो 1983, अंधाकानून 1983, कुली 1983, दुनिया 1984, मेरी जंग 1985, और सल्तनत 1986, और जंगबाज 1986 जैसी कई सफल फिल्मों के जरिए दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई। वर्ष 1987 में उनके कैरियर में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। वर्ष।987 में अपनी पिछली फिल्म. 'मासूम' की सफलता से उत्साहित शेखर कपूर बच्चों पर केन्द्रित एक और फिल्म बनाना चाहते थे जो .इनविजबल मैन. पर आधारित थी। इस फिल्म में नायक के रूप में अनिल कपूर का चयन हो चुका था जबकि कहानी की मांग को देखते हुए खलनायक के रूप में ऐसे कलाकार की मांग थी जो फिल्मी पर्दे पर बहुत ही बुरा लगे इस किरदार के लिए निर्देशक ने अमरीश पुरी का चुनाव किया जो फिल्म की सफलता के बाद सही साबित हुआ। इस फिल्म में उनके किरदार का नाम था. मौगेम्बो.और यही नाम इस फिल्म के बाद उनकी पहचान बन गया। इस फिल्म के बाद उनकी तुलना फिल्म शोले में अमजद खान द्वारा निभाए गए किरदार गब्बर सिंह से की गई। इस फिल्म में उनका संवाद मौगेम्बो खुश हुआ इतना लोकप्रिय हुआ कि सिनेदर्शक उसे शायद ही कभी भूल पाएं। भारतीय मूल के कलाकारों को विदेशी फिल्मों में काम करन। का मौका नहीं मिल पाता है . लेकिन अमरीश पुरी ने जुरैसिक पार्क जैसी ब्लाक बस्टर फिल्म के निर्माता स्टीवन स्पीलबर्ग की मशहूर फिल्म इंडियाना जोंस एंड द टेंपल आफ डूम में खलनायक के रूप में माँ काली के भक्त का किरदार निभाया। इस किरदार ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई और इसके बाद उन्हें हॉलीवुड से कई प्रस्ताव मिल। जिन्हें उन्होन। स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि हालीवुड में भारतीय मूल के कलाकारों को नीचा दिखाया जाता है। यह बात अक्सर देखन। में आती है कि फिल्मी पर्दे पर क्रूर दिखने वाला खलनायक वास्तविक जीवन में इसके उलट होता है और यही बात अमरीश पुरी में भी थी। निजी जीवन में अत्यंत कोमल हृदय अमरीश पुरी ने गंगा जमुना सरस्वती1988, शहंशाह 1988, दयावान 1988, सूर्या 1989, रामलखन 1989, त्रिदेव 1989, जादूगर 1989, बंटवारा 1989, किशन कन्हैया 1990, घायल 1990, आज का अर्जुन 1990, सौदागर 1991, अजूबा 1991, फूल और कांटें 1991, दीवाना 1992, दामिनी 1993, गदश 1993 और करण अर्जुन1995 जैसी सफल फिल्मो में अपना एक अलग समां बांधे रखा। अमरीश पुरी ने अपने अभिनय को एकरपता से बचाने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में स्थापित करन। के लिए अपनी भूमिकाओं में परिवर्तन भी किया। इस क्रम में वर्ष 1995 में प्रदशत यश चोपड़ा की सुपरहिट फिल्म. दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में उन्होनें फिल्म अभिनेत्री काजोल के पिता की रोबदार भूमिका निभाई। यह फिल्म बालीवुड के इतिहास में सबसे ज्यादा लगभग 10 वर्ष लगातार एक ही सिनेमा हाल में चलने वाली फिल्म बनी। अमरीश पुरी को मेरी जंग 1985, घातक 1996 और विरासत 1997 फिल्मों में जानदार अभिनय के लिए फिल्म फेयर के पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा उन्होंने कोयला 1997, परदेस 1997, चाईना गेट 1998, चाची 420, 1998, ताल 1999, गदर 2001, मुझसे शादी करोगी 2004 एतराज 2004 हलचल 2004 और किसना 2005 जैसी कई फिल्मों के जरिए सिनेदर्शकों को अपनी ओर खींचे रखा। खलनायक की भूमिका के निखार में नायक की प्रतिभा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसी कारण महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमरीश पुरी के निभाए किरदार अधिक प्रभावी रहे। उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ रेशमा और शेरा ईमान धर्म, दोस्ताना, नसीब, शक्ति, अंधाकानून, कुली, शहंशाह, गंगा जमुना सरस्वती, जादूगर, अजूबा, आज का अर्जुन, लाल बादशाह, हिन्दुस्तान की कसम, मोहब्बत, लक्ष्य और देव जैसी अनेक कामयाब फिल्मों में काम किया। पंजाब के छोटे से गांव नौशेरां में वर्ष 1932 को जन्में अमरीश पुरी ने 73 वर्ष की आयु में 12 जनवरी 2005 को अंतिम सांस ली।
प्रेम कुमार

सोमवार, 11 जनवरी 2010

ख्यातनाम शिक्षा मंदिर: नाम बड़े और दर्शन छोटे


डॉ. महेश परिमल
शिक्षा के नाम पर हमारी सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, इसके बाद भी शिक्षा के स्तर पर कोई उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। दूसरी ओर सरकार पर हावी शिक्षा माफिया की हालत तो और भी बदतर है। आज निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है। यहाँ तक की चंदे के नाम पर लाखों रुपए वसूलने वाली महानगरों की कई शालाओं की हालत इतनी खराब है कि कुछ कहना ही मुश्किल है। इसका पता तो तब चला, जब देश के आईटी उद्योग में उच्च स्थान रखने वाली विप्रो कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के लिए एक अभियान चलाया।
इस कंपनी ने एजुकेशनल इनिशिएटिप्स नाम की एक गैर सरकारी संस्था के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में देश के पाँच महानगरों की 142 प्रतिष्ठित शालाओं के 32 हजार विद्याथर््िायों को अपने संरक्षण में लिया। ये सभी शालाएँ ऐसी थीं, जहाँ डोनेशन के नाम पर पालकों से लाखों रुपए वसूले जाते हैं। इन शालाओं के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड की परीक्षा में मेरिट लिस्ट में आते हैं। सभी शाालाएँ अँगरेजी माध्यम की थीं। इन शालाओं में करोड़पतियों की संतानें शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। विप्रो ने जब इन शालाओं के विद्याथर््िायों की अँगरेजी, गणित और विज्ञान की परीक्षा ली गई, तब यह सामने आया कि ये सारे बच्चे केवल रटने के कारण ही परीक्षा में अपना स्थान बनाते थे। बुद्धि का उपयोग कर शिक्षा प्राप्त करने में इनकी कोई रुचि नहीं थी। कहाँ तो विप्रो कंपनी अपनी शिक्षा में सुधार के लिए सर्वेक्षण करने निकली थी और कहाँ इस तरह की चौंकाने वाली जानकारी मिली।
हमें दूर से जो पहाड़ बहुत ही खूबसूरत नजर आते हैं, वास्तव में वे वैसे होते नहीं हैं। ठीक इसी तरह अधिक डोनेशन लेने वाली न जाने कितनी शालाएँ महानगरों में ऐसी हैं, जिनका नाम तो बहुत है, पर अंदर से पोलमपोल है। वहाँ के विद्यार्थी भले ही वातानुकूलित कमरों में बैठकर पढ़ते हों, साथ ही सभी कक्षाओं में इंटरनेट कनेक्शन हों, वहाँ कंप्यूटर लेबोरेटरी हो, परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करते हों, पर यह सब रटंत विद्या का कमाल है। वास्तव में यहाँ के विद्याथर््िायों को इस तरह की कोई शिक्षा नहीं दी जाती, जिससे उसका आत्मिक विकास हो। सुविधाओं से विद्याथर््िायों की पढ़ाई की गुणवत्ता सुधरती है, इसे महानगरों की ये शालाएँ झुठलाती हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिसिएटिव्स संस्था का उद्देश्य प्रतिष्ठित स्कूलों में शिक्षण की गुणवत्ता कितनी सुधरी है, इस पर शोध करना था, पर यहाँ तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला।
आज की प्रतिष्ठित स्कूलों के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड में 90 प्रतिशत या उससे भी अधिक अंक हासिल करते हैं, इससे शिक्षक और पालक अतिप्रसन्न हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनके स्कूल का शिक्षण अन्य स्कूलों की अपेक्षा बेहतर है। जो विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक लाता है, उसका यह आशय कतई नहीं है कि वह उस विषय की गहराई से जानकारी रखता है। विषय की पूरी समझ और उसकी उपयोगिता प्राप्त किए बिना ही रटंत विद्या से वे अपने विषय में अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर लेते हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिशिएटिव्स की ओर से आयोजित परीक्षा में 142 शालाओं के 32 हजार विद्याथर््िायों ने भाग लिया। इस परीक्षा का उद्देश्य यही था कि विद्याथर््िायों की समझशक्ति, तर्कशक्ति, बुद्धिशक्ति और मौलिकता से विचारने की शक्ति की जाँच की जाए। इस परीक्षा के जो चौंकाने वाले परिणाम सामने आए और चार महानगरों की प्रतिष्ठित कहलाने वाली स्कूलों के अधिकांश विद्यार्थी अनुत्तीर्ण घोषित किए गए।
विप्रो कंपनी ने इस सर्वेक्षण में यह चालाकी की कि सभी प्रश्नों को घुमा फिराकर पूछा जाए। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिसमें दिमाग लगता है, वह सवाल किस तरह से हल किए जाते हैं। विद्याथर््िायों को तो टेस्ट बुक या गाइड का ही सहारा था, जिसमें सीधे-सादे प्रश्नों के उत्तर भी सीधे तरीके से दिए जाते हैं। इसी कारण इन स्कूलों के तेजस्वी बच्चों को विप्रो के गुगली सवालों के उत्तर देने में नानी याद आ गई और वे बोल्ड हो गए। एक सवाल की बानगी देखें :- एक फीट की स्केल पर एक पेंसिल रखी गई, इस पेंसिल का बायाँ सिरा एक सेंटीमीटर के निशान पर था और दायाँ सिरा 6 सेंटीमीटर पर था। विद्याथर््िायों को इस पेंसिल की लम्बाई निकालनी थी। इस सवाल का जवाब केवल 11 प्रतिशत विद्याथर््िायों ने ही सही दिए, अधिकांश विद्याथर््िायों ने पेंसिल की लम्बाई 6 सेंटीमीटर बताई।
इसी तरह विज्ञान के विद्याथर््िायों को भी भरमाया गया। उनसे शुद्ध भाप का केमिकल फार्मूला पूछा गया। इस सवाल का जवाब देने में 63 प्रतिशत विद्यार्थी गच्चा खा गए। मात्र 37 प्रतिशत विद्यार्थी ही इस सवाल का समझ पाए। 51 प्रतिशत विद्याथर््िायों का यह कहना था कि भाप का कोई केमिमल फार्मूला होता ही नहीं। इन स्कूलों के विद्यार्थी विज्ञान को भी बिना समझे पढ़ रहे हैं, यह इसका सुबूत था। इस सर्वेक्षण ने कई राजनीतिज्ञों, शिक्षाशास्त्रीयों, समाजशास्त्रियों और पालकों के होश उड़ा दिए। सर्वेक्षण के दस्तावेज हमारी शिक्षा पद्धति में खामियों को उजागर करते हैं।
1. आजकल शालाओं में सच्ची परीक्षा नहीं ली जा रही है। विद्याथर््िायों को रटंत विद्या से दूर करे और उनकी समझ को बढ़ाए, ऐसे प्रश्न नहीं पूछे जा रहे हैं। इन प्रतिष्ठित स्कूलों में बच्चों को रट़्टू तोता बनाकर रख दिया है।
2. विद्यार्थी यह मानते हैं कि आज उन्हें जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसका जीवन में कोई अर्थ नहीं है, इसलिए इसे तो रटकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए वे रटने को अधिक प्राथमिकता देते हैं। विद्याथर््िायों को दी जाने वाली शिक्षा का जीवन में किस तरह से अधिक से अधिक उपयोग में लाया जाए, यह नहीं बताया जा रहा है। इसलिए विद्यार्थी भी केवल रटने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
3. आज स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, वह न्यू थ्योरीकल नॉलेज होता है। किसी भी विषय में विद्याथर््िायों को कोई ज्ञान नहीं दिया जाता। विज्ञान जैसे विषय को भी प्रयोगशाला के बजाए ब्लेकबोर्ड पर समझाया जा रहा है। भूगोल को पढ़़ाने के लिए शाला की तरफ से किसी प्रवास का आयोजन नहीं किया जाता है। इतिहास पढ़ाने के लिए किसी तरह के नाटक का मंचन नहीं किया जाता। फलस्वरूप विद्यार्थी उत्तीर्ण होने के लिए रटंत विद्या का सहारा लेते हैं। इससे उनके मस्तिष्क में दोहरा भार पड़ता है और वे मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं। इससे उनका बौद्धिक विकास रुक जाता है।
4. इस सर्वेक्षण ने बोर्ड द्वारा ली जाने वाली तमाम परीक्षाओं की पोल खोलकर रख दी है। जो विद्यार्थी इन परीक्षाओं में 90 प्रतिशत अंक लाते थे, वे अँगरेजी, विज्ञान और गणित की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। इस कारण यही है कि ये विद्यार्थी गाइड पढ़कर और उसे रटकर ही परीक्षा पास कर लेते थे। इन परीक्षाओं में विद्याथर््िायों की रटंत विद्या प्रतिभा की कसौटी होती थी। उनके ज्ञान के कौशल की परीक्षा नहीं होती थी।
इन सर्वेक्षणों के आधार पर मुम्बई के होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन के प्रोफेसर डॉ. के सुब्रमण्यम का कहना था कि इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन प्रतिष्ठित शालाओं में जिस तरह से शिक्षा दी जा रही है, वह संतोषकारक नहीं है। विद्यार्थी अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं कर रहे हैं। कुछ दोष तो शिक्षा पद्धति का भी है, जिसमें विद्याथर््िायों की समझ बढ़े, उनके विचारों को गति मिले, उनके विश्लेषण की क्षमता बढ़े, ऐसा कोई प्रयास इस पद्धति में दिखाई नहीं देता। अधिक अंक पाने के लिए अधिक दबाव से ऐसे हालात बन रहे हैं। शिक्षा का सही उद्देश्य पाठ्यक्रम पूरा करना नहीं, बल्कि बच्चों को ज्ञान देना होना चाहिए। क्या हमारे शिक्षाशास्त्री शिक्षा की कोई ऐसी पद्धति विकसित कर सकते हैं, जिसमें बच्चे की बुद्धि और प्रतिभा का समुचित विकास हो?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 9 जनवरी 2010

भारतीय संगीत को सात समुंदर पार ले जाने वाले रहमान


भारतीय सिनेमा जगत मे ए आर रहमान को सर्वाधिक प्रयोगवादी और प्रतिभाशाली संगीतकार में शुमार किया जाता है। उन्होंने भारतीय सिनेमा संगीत को अंतराष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाई है। छह जनवरी १९६७ को तमिलनाडु में जन्में रहमान का रूझान बचपन के दिनो से हीं संगीत की ओर था। उनके पिता आर के शेखर मलयालम फिल्मों के लिए संगीत दिया करते थे। रहमान भी अपने पिता की तरह ही संगीतकार बनना ाहते थे। संगीत के प्रति रहमान के बढ़ते रूझान को देख उनके पिता ने उन्हे इस राह पर चलने के लिए प्रेरित किया और उन्हें संगीत की शिक्षा देने लगे । ङ्क्षसथेसाइजर और हारमोनियम पर संगीत का रियाज करने वाले रहमान की की बोर्ड पर उंगलियां ऐसा कमाल करती तो सुनने वाले मुग्ध रह जाते कि इतना छोटा बच्चा इतनी मधुर धुन कैसे बना सकता है। उस समय रहमान की उम्र महज छह वर्ष की थी। एक बार उनके घर में उनके पिता के एक मित्र आए और जब उन्होंने रहमान की बनाई धुन सुनी तो सहसा उन्हे विश्वास नही हुआ उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्होंने हारमोनियम के ऊपर कपड़ा रख दिया और रहमान से धुन निकालने के लिए कहा। हारमोनियम पर रखे कपड़े के बावजूद रहमान की उंगलियां बोर्ड पर थिरक उठी और उस धुन को सुन वह चकित रह गए।कुछ दिनो के बाद रहमान ने एक बैंड की नींव रखी जिसका नाम था नेमेसीस एवेन्यू वह इस बैंड में ङ्क्षसथेनाइजर पियानो गिटार और हारमोनियम आदि बजाते थे। अपने संगीत के शुरूआती दौर से ही रहमान को ङ्क्षसथेनाइजर ज्यादा अच्छा लगता था । उनका मानना था कि वह एक ऐसा वाद्य यंत्र है जिसमें संगीत और तकनीक का बेजोड़ मेल देखने को मिलता है। रहमान अभी संगीत सीख हीं रहे थे तो उनके सर से पिता का साया उठ गया लेकिन रहमान ने हिम्मत नही हारी और संगीत का रियाज जारी रखा। इस बीच रहमान ने मास्टर धनराज से संगीत की शिक्षा हासिल की और दक्षिण फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार इलैय राजा के समूह के लिए की बोर्ड बजाना शुरू कर दिया उस समय रहमान की उम्र महज ।१ वर्ष थी। इस दौरान रहमान ने कई बड़े एवं नामी संगीतकारों के साथ काम किया इसके बाद रहमान को लंदन के ट्रिनिटी कालेज आफ म्यूजिक में कालरशिप का मौका मिला जहां से उन्होंने वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक में स्नातक की डिग्री भी हासिल की। स्नातक की डिग्री लेने के बाद रहमान घर आ गए और उन्होंने अपने घर में हीं एक म्यूजिक स्टूडियों खोला और उसका नाम पंचाथम रिकार्ड इन रखा । इस दौरान रहमान लगभग एक साल तक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे और टीवी के लिए संगीत देने और ङ्क्षजगल बनाने का काम करते रहे। वर्ष १९९२ रहमान के सिने कैरियर का महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ। अचानक उनकी मुलाकात फिल्म निर्देशक मणि रत्नम से हुई। मणि उन दिनो फिल्म रोजा के निर्माण में व्यस्त थे और अपनी फिल्म के लिए संगीतकार की तलाश में थे। उन्होंने रहमान को अपनी फिल्म में संगीत देने की पेशकश की । कश्मीर आतंकवाद के विषय पर आधारित इस फिल्म में रहमान ने अपने सुपरहिट संगीत से श्रोताओं का दिल जीत लिया और इसके साथ हीं वह सर्वŸोष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए। इसके बाद रहमान ने पीछे मुड़कर क भी नहीं देखा और फिल्मों में अपने एक से बढकर एक एवं बेमिसाल संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद रहमान ने तिरूड़ा तिरूड़ा बांबे जैंटलमेैन इंडियन और कादलन आदि फिल्मों में भी सुपरहिट संगीत दिया और संगीत जगत में अपनी अलग पहचान बना ली । रहमान ने कर्नाटक संगीत शाीय संगीत और आधुनिक संगीत का मिश्रणकर श्रोताओं को एक अलग संगीत देने का प्रयास किया। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण वह श्रोताओं में बहुत लोकप्रिय हो गए। इसके बाद रहमान निर्माता निर्देशको की पहली पसंद बन गए और वे रहमान को अपनी फिल्म में संगीत देने के लिए पेशकश करने लगे। लेकिन रहमान ने केवल उन्हीं फिल्मों के लिए संगीत दिया जिनके लिए उन्हें महसूस हुआ कि हां इसमें कुछ बात है । वर्ष १९९७ में भारतीय स्वतंत्रता की ५० वीं वर्षगांठ पर उन्होंने स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ मिलकर वंदे मातरम यानी मां तुझे सलाम का निर्माण किया । इसके बाद वर्ष १९९९ में रहमान ने कॉरियोग्राफर शोभना प्रभुदेवा और उनके डांङ्क्षसग समूह के साथ मिलकर माइकल जैक्सन के माइकल जैक्सन एंड फ्रैंडस टूर के लिए म्युनिख जर्मनी में कार्यक्रम पेश किया। इसके बाद रहमान को म्यूजिक कान्सर्ट में भाग लेने के लिए विदेशो से भी प्रस्ताव आने लगे। उन्होंने पाश्चात्य संगीत के साथ साथ भारतीय शाीय संगीत के मिश्रण को लोगों के सामने रखना शुरू कर दिया था। ए आर रहमान को बतौर संगीतकार अब तक आठ बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है । वर्ष १९९५ में प्रदॢशत फिल्म रंगीला के लिए सबसे पहले उन्हें बतौर संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया ।इसके बाद वर्ष १९९८ में फिल्म दिल से वर्ष १९९९ में फिल्म ताल वर्ष २००० में फिल्म लगान वर्ष २००२ में फिल्म साथिया वर्ष २००६ में रंग दे बसंती वर्ष २००७ में फिल्म गुरू और वर्ष २००८ में जाने तू या जाने ना के लिए भी सर्वŸोष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। इन सबके साथ ही अपने उत्कृठ संगीत के लिए ए आर रहमान को चार बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें पद्यश्री से भी नवाजा जा चुका है। वर्ष १९९५ में उन्हें संगीत में योगदान के लिए मलेशियन अवार्ड भी मिल चुका है।इन सबके साथ ही विश्व संगीत में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष २००६ में उन्हें स्टैनफोर्ड यूनिवॢसटी में सम्मानित किया गया । रहमान के सिने कैरियर में एक नया अध्याय उस समय जुड़ गया जब ए आर रहमान ने फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर के लिए दो आस्कर पुरस्कार जीतकर नया इतिहास रच दिया। रहमान को ८१वें एकादमी अवार्ड समारोह में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
रहमान के सुपरहिट संगीतबद्ध गीतों में कुछ है रोजा जाने मन, रोजा, १९९२ तन्हा तन्हा यहां जीना, रंगीला १९९५, चल छइयां छइयां, दिल से १९९८, ताल से ताल मिला, ताल १९९९, के सरा सरा, पुकार २०००, पिया हाजी अली, फिजा २०००, मेहदी है रचने वाली, जुबैदा २०००, सुन मितवा, राधा कैसे ना जले, लगान २००१, चलो चले मितवा, नायक २००१, ओ हम दम सुनियो रे, साथिया २००२, ये तारा वो तारा ्स्वदेश २००४, खलबली है खलबली, रंग दे बसंती २००६, बरसो रे मेघा मेघा, गुरू २००७, है गुजारिश, गजनी २००८, मसकली मसकली दिल्ली ६ २००९ आदि ।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

अपराधियों की कठपुतली बन गए हैं राजनेता


मधुकर द्विवेदी
राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह से अपराधियों की घुसपैठ बढ़ती जा रही है या यूं कहें कि राजनीति का अपराधीकरण हो गया है, वह वाकई पूरे समाज के लिए गहन चिन्ता का विषय है। कुछ सालों पूर्व जब समाचार पत्रों में यह खबर प्रकाशित होती थी कि अमुक राजनैतिक दल ने किसी ऐसे व्यक्ति को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है अथवा उसे चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दिया है जिसका वास्ता आपराधिक दुनिया से है, तो उसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया होती थी परन्तु आज स्थिति यह है कि प्राय: सभी राजनैतिक दल एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं और राजनीति में आदर्श व सिद्धांत कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। राजनैतिक दलों में अपराधियों को चश्म-ए-नूर बनाने की होड़-सी लगी हुई है और राजनेता अपराधियों की कठपुतली बनकर उनके पीछे दुम हिलाते नजर आ रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो झारखंड की विधान सभा में ऐसे 31 विधायक चुनकर नहीं आ पाते, जिन पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। बानगी देखिए कि झारखंड मुक्ति मोर्चा, जिसके 18 विधायक चुनकर आए हैं, के 17 विधायक ऐसे हैं जिनके विरुद्ध विभिन्न प्रकार के आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। सिर्फ मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की पुत्रवधू सीता सोरेन ही एक मात्र ऐसी विधायक हैं, जिनके विरुद्ध कोई अपराध पंजीबद्ध नहीं है।
राजनीति में शुचिता की बात करने वाले उन मठाधीश राजनीतिज्ञों को भी अब कतई शर्म नहीं आती, जो मंचों अथवा टीवी चैनलों में यह कहते हुए अक्सर नजर आते हैं कि हमारी पार्टी आपराधिक छवि वालों को कतई टिकट नहीं देती। ऐसा बड़बोलापन सिर्फ दिखावटी होता है, सच्चाई से कोसों दूर। चुनाव के वक्त सारे राजनैतिक दल अपराधी व बाहुबली नेताओं के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। अपराधी टिकट हासिल करने के लिए नेता को भेंट-पूजा प्रस्तुत करता है और नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधी तत्वों, गुंडों-बदमाशों व असामाजिक तत्वों का सहारा लेता है। नेता चुनाव जीत जाता है तो वह जीत अपराधी के खाते में दर्ज हो जाती है और यदि अपराधी जीत जाता है तो वह भी नेता जी की ही जीत मानी जाती है। दरअसल, कुछ सालों पूर्व तक राजनीति के क्षेत्र में अपराधी तत्वों का समावेश यदा-कदा सुनाई पड़ता था। इक्की-दुक्की राजनैतिक पार्टियां ही गंदे क्रियाकलापों में लिप्त व अपराध कर्म में शामिल लोगों को अपने साथ रखती थीं। मतदाता गंदी छवि व कुख्यात उम्मीदवार को नकार देते थे। चाहे संसद हो या फिर विधानसभा, अपराधी प्रवृत्ति के लोग वहां पहुंचने से वंचित रह जाते थे, मगर शनै:-शनै: अपराधियों और राजनेताओं का गठजोड़ इतनी तेजी से मजबूत होता गया कि आपराधिक छवि के लोग संसद व विधानसभा के माननीय सदस्य बनने लगे। इस घातक तालमेल ने ऐसा गुल खिलाया कि प्राय: सभी राज्यों में अपराधी किस्म के तथाकथित नेता बहुतायत में राज्यों की विधान सभाओं में नजर आने लगे। पिछले कुछ सालों के दौरान ऐसे तत्वों ने अपनी जड़ें काफी मजबूत कर ली हैं। अब तो आलम यह है कि यदि किसी कारणवश आपराधिक छवि का दागी नेता अपनी पार्टी से टिकट हासिल नहीं कर पाता तो किसी अन्य राजनैतिक पार्टी से टिकट जुगाड़ने में उसे देर नहीं लगती। किसी वजह से वह अपनी पार्टी से निकाल दिया जाता है तो दूसरी पार्टी उसका स्वागत करने के लिए तैयार खड़ी रहती है। लब्बोलुआब यह कि आज राजनीति में अपराधी तत्वों की भरमार हो गई है, उनकी पौ बारह है, कोई भी राजनैतिक पार्टी इस बीमारी से मुक्त नहीं है। यदि ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब राजनीति का क्षेत्र अपराधी तत्वों का एक संगठित गिरोह नजर आएगा और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के भारत में चारों ओर हिंसा के पुरोधा ही नजर आएंगे। अपराधियों को गले का हार बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले ऐसे राजनीतिज्ञ मठाधीश आत्मचिंतन करें। अन्यथा सिद्धांतों की बात कहने वाले तथा राजनीति में आदर्शवाद का अलाप करने वाले राजनीतिज्ञों को भी एक तरह से अपराधी की ही श्रेणी में माना जाएगा क्योंकि उन्हीं की वजह से ही तो अपराधी राजनीति के क्षेत्र में शह पाते हैं।
मधुकर द्विवेदी

बुधवार, 6 जनवरी 2010

सम्‍मान के पीछे न भागने वाले जयदेव


आज पुण्यतिथि
हिन्दी फिल्म जगत में कई ऐसे महान संगीतकार हुए हैं जिनकी बनाई कर्णप्रिय समुधुर धुनों के लोग आज भी कायल हैं लेकिन किसी भी कीमत पर संगीत की श्रेष्‍ठता से समझौता नहीं करने की जिद के कारण वे केवल कुछ ही फिल्मों में अपनी लाजवाब धुनें दे पाए और चटपट धुनें बनाने के लिए जानी जाने वाली फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें वह श्रेय नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। ऐसे ही काबिल संगीतकारों में एक संगीतकार थे जयदेव । जयदेव वर्मा ने बेहद गिनी चुनी फिल्मों में संगीत दिया लेकिन उन्होंने जो भी धुनें बनाईं वे फिल्म चलने या नहीं चलने के बावजूद हिट रहीं। हम दोनों किनारे किनारे मुझे जीने दो दो बूंद पानी प्रेम परबत रेशमा और शेरा लैला मजनूं घरौंदा गमन आदि फिल्मों में दिए उनके लाजवाब संगीत को भला कौन भूल सकता है। जयदेव का जन्म ३ अगस्त १९१९ को लुधियाना में हुआ था । वह प्रारंभ में फिल्म स्टार बनना चाहते थे । १५ साल की उम्र में वह घर से भागकर मुम्बई तब बम्बई भी आए लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वाडिया फिल्म कंपनी की आठ फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम करने के बाद उनका मन उचाट हो गया और उन्होंने वापस लुधियाना जाकर प्रोफेसर बरकत राय से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। बाद में उन्होंने मुम्बई में भी कृष्णराव जावकर और जनार्दन जावकर से संगीत की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। इसी दौरान पिता की बीमारी की वजह से उनका कैरियर प्रभावित हुआ। उन्हें पिता की देखभाल के लिए वापस लुधियाना जाना पड़ा। जब उनके पिता का निधन हुआ तो उनके कंधों पर अपनी बहन की देखभाल की जिम्मेदारी आ पड़ी। बहन की शादी कराने के बाद उन्होंने फिर से अपने कैरियर की तरफ ध्यान देना शुर किया और वर्ष १९४३ में उन्होंने लखनऊ में विख्यात सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खान से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। उस्ताद अली अकबर खान ने नवकेतन की फिल्म आंधियां और हमसफर में जब संगीत देने का जिम्मा संभाला तब उन्होंने जयदेव को अपना सहायक बना लिया। नवकेतन की ही टैक्सी ड्राइवर फिल्म से वह संगीतकार सचिन देव वर्मन के सहायक बन गए लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से संगीत देने का जिम्मा चेतन आनन्द की फिल्म जोरू का भाई में मिला। इसके बाद उन्होंने चेतन आनन्द की एक और फिल्म अंजलि में भी संगीत दिया। हालांकि ये दोनों फिल्में कामयाब नहीं रहीं, लेकिन उनकी बनाई धुनों को काफी सराहना मिली। जयदेव का सितारा चमका नवकेतन की फिल्म हम दोनों से । इस फिल्म में उनका संगीतबद्ध हर गाना खूब लोकप्रिय हुआ फिर चाहे वह अभी न जाओ छोड़कर मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया हो या अल्लाह तेरो नाम। अल्लाह तेरो नाम की संगीत रचना इतनी मकबूल हुई कि लता मंगेशकर जब भी स्टेज पर जाती हैं तो इस भजन को गाना नहीं भूलतीं। कई स्कूलों में भी बच्चों से यह भजन गवाया जाता है। उनकी एक और बड़ी कामयाब फिल्म रही रेशमा और शेरा । इस फिल्म में राजस्थानी लोकधुनों पर आधारित उनका कर्णप्रिय संगीत आज भी ताजा बयार की तरह श्रोताओं को सुकून से भर देता है। जयदेव की ज्यादातर फिल्में जैसे आलाप किनारे किनारे अनकहीआदि फ्लाप रहीं लेकिन उनका संगीत हमेशा चला। जयदेव के संगीत की विशेषता थी कि वह शाीय राग रागिनियों और लोकधुनों का इस खूबसूरती से मिश्रण करते थे कि उनकी बनाई धुनें विशिष्ट बन जाती थीं। उदाहरण के लिए प्रेम परबत के गीत ये दिल और उनकी पनाहों के साए को ही लीजिए जिसमें उन्होंने पहाड़ी लोकधुन का इस्तेमाल करते हुए संतूर का इस खूबसूरती से प्रयोग किया है कि लगता है कि पहाड़ों से नदी बलखाती हुई बढ रही हो। जयदेव नई प्रतिभाओं को मौका देने में हमेशा आगे रहे। दिलराजकौर भूपेन्द्र रूना लैला पीनाज मसानी सुरेश वाडेकर आदि। नवोदित गायकों को उन्होंने प्रोत्साहित किया और अपनी फिल्मों में गायन के अनेक मौके दिए। लगभग तीन दशक के कैरियर में जयदेव ने सहायक और स्वतंत्र संगीतकार के रूप में लगभग ४५ फिल्मों में संगीत दिया। इनमें कुछ प्रमुख फिल्में हैं जोरू का भाई १९५५ समुद्री डाकू १९५६ अंजलि १९५७, हम दोनों, १९६१, किनारे किनारे, १९६३, मुझे जीने दो, १९६३, हमारे गम से मत खेलो, १९६७, सपना, १९६९, आषाढ का एक दिन, १९७१ दो बूंद पानी १९७१ एक थी रीटा १९७१ रेशमा और शेरा १९७१ संपूर्ण देव दर्शन १९७१ भारत दर्शन १९७२ भावना १९७२ मान जाइए १९७२ प्रेम परबत १९७३ आङ्क्षलगन १९७४ परिणय १९७४ एक हंस·का जोड़ा १९७५ फासला १९७६ आंदोलन १९७७ आलाप १९७७ घरौंदा १९७७ तुम्हारे लिए १९७८ दूरियां १९७९ गमन १९७९ अनकही १९८४ आदि। जयदेव ने गैर फिल्मी गीतों और गजलों को भी संगीत दिया जो काफी लोकप्रिय रहा। सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन की क्लासिक कृति मधुशाला को भी उन्होंने अपने सुरों से सजाया जिसे दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त गायक मन्नाडे ने स्वर दिया। जयदेव को उनकी उत्कृष्ट संगीत रचनाओं के लिए कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। उन्हें चार बार सुर ङ्क्षसगार संसद पुरस्कार मध्यप्रदेश सरकार का लता मंगेशकर पुरस्कार और रेशमा और शेरा गमन तथा अनकही के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल हुए। आजीवन अविवाहित रहे जयदेव का ६ जनवरी १९८७ को निधन हो गया।
अजय कुमार विश्वकर्मा

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

आवाज दे कहां है दुनिया मेरी जवां है


हिन्दी सिनेमा जगत में नूरजहां को एक ऐसी पार्श्वगायिका और अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अपनी दिलकश आवाज और अभिनय से लगभग चार दशक तक श्रोताओं के दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। 21 सितंबर 1926 को पंजाब के छोटे से शहर कसुर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जब अल्लाह वासी उर्फ नूरजहां का जन्म हुआ तो उनके रोने की आवाज सुन उनकी बुआ ने कहा, इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय है। यह आगे चलकर पार्श्वगायिका बनेगी। नूरजहां के माता पिता थिएटर में काम किया करते थे साथ हीं उनकी रूचि संगीत में भी थी। घर का माहौल संगीतमय होने के कारण नूरजहां का रूझान भी संगीत की ओर हो गया और वह गायिका बनने के सपने देखने लगी। उनकी माता ने नूरजहां के मन मे संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया तथा उनके लिए संगीत की व्यवस्था घर पर ही कर दी। नूरजहां ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा कजनबाई और शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद गुलाम मोहम्मद तथा उस्ताद बड़े गुलाम अली खां से ली थी। वर्ष 1930 में नूरजहां को इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी एक मूक फिल्म, हिन्द के तारे, में काम करने का मौका मिला। इसके कुछ समय के बाद उनका परिवार पंजाब से कोलकाता चला आया। इस दौरान उन्हें करीब 11 मूक फिल्मों मे अभिनय करने का मौका मिला। वर्ष 1931 तक नूरजहां ने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली थी। वर्ष 1932 में प्रदशत फिल्म, शशि पुन्नु, नूरजहां के सिने कैरियर की पहली टॉकी फिल्म थी। इस दौरान उन्होंने कोहिनूर यूनाईटेड आटस्ट के बैनर तले बनी कुछ फिल्मों मे काम किया। कोलकाता मे उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता पंचोली से हुई। पंचोली को नूरजहां मे फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने उसे अपनी नई फिल्म, गुल ए बकावली, लिए चुन लिया। इस फिल्म के लिए नूरजहां ने अपना पहला गाना, साला जवानियां माने और पिंजरे दे विच रिकार्ड कराया। लगभग तीन वर्ष तक कोलकाता रहने के बाद नूरजहां वापस लाहौर चली गई। वहां उनकी मुलाकात मशहूर संगीतकार जी. ए.चिश्ती . से हुई जो स्टेज प्रोग्राम में संगीत दिया करते थे। उन्होने नूरजहां से स्टेज पर गाने की पेशकश की जिसके एवज में उन्होंने नूरजहां को प्रति गाने साढ़े सात आने दिए। साढे सात आने उन दिनों अच्छी खासी रकम मानी जाती थी। वर्ष 1939 मे निमत पंचोली की संगीतमय फिल्म, गुल ए बकावली, फिल्म की सफलता के बाद नूरजहां फिल्म इंडस्ट्री में सुखिर्यो मे आ गई। इसके बाद वर्ष 1942 में पंचोली की हीं निमत फिल्म, खानदान, की सफलता के बाद वह बतौर अभिनेत्री फिल्म इंडस्ट्री में स्थाापित हो गई। फिल्म खानदान, में उन पर फिल्माया गाना, कौन सी बदली में मेरा चांद है आजा, श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय भी हुआ। इस फिल्म की सफलता के बाद नूरजहां ने फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन से निकाह कर लिया और इसके बाद वह मुंबई आ गई। इस बीच नूरजहां ने शौकत हुसैन की निर्देशित और नौकर. जुगनू 1943 जैसी फिल्मों मे अभिनय किया। नूरजहां अपनी आवाज मे नित्य नए प्रयोग किया करती थी। अपनी इन खूबियों की वजह से वह ठुमरी गायकी की महारानी कहलाने लगी। इस दौरान उनकी दुहाई 1943. दोस्त 1944. बड़ी मां. और विलेज गर्ल. 1945 जैसी कामयाब फिल्में प्रदशत हुई। इन फिल्मों मे उनकी आवाज का जादू श्रोताओ के सर चढकर बोला। इस तरह नूरजहां मुंबइयां फिल्म इंडस्ट्री में मल्लिका.ए.तरन्नुम कही जाने लगी।
वर्ष 1945 में नूरजहां की एक और फिल्म, जीनत, भी प्रदशत हुई। इस फिल्म का एक कव्वाली, आहें ना भरी शिकवें ना किए, कुछ भी ना जुवां से काम लिया, श्रोताओं के बीच बहुत लोकप्रिय हुई। नूरजहां को निर्माता निर्देशक महबूब खान की 1946 मे प्रदशत फिल्म अनमोल घड़ी मे काम करने का मौका मिला। महान संगीतकार नौशाद के निर्देशन में उनके गाए गीत, आवाज दे कहां है. आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे. जवां है मोहब्बत. श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। वर्ष 1947 में भारत विभाजन के बाद नूरजहां ने पाकिस्तान जाने का निश्चय कर लिया। फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने जब नूरजहां से भारत में ही रहने की पेशकश की तो नूरजहां ने कहा, मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाउंगी।, पाकिस्तान जाने के बाद भी नूरजहां ने फिल्मों मे काम करना जारी रखा। लगभग तीन वर्ष तक पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री मे खुद को स्थापित करने के बाद नूरजहां ने फिल्म, चैनवे, का निर्माण और निर्देशन किया। इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर खासी कमाई की। इसके बाद र् 1952 में प्रदशत फिल्म, दुपट्टा, ने फिल्म, चैनवे, के बाक्स आफिस रिकार्ड को भी तोड़ दिया। फिल्म इस फिल्म मे नूरजहां की आवाज मे सजे गीत श्रोताओं के बीच इस कदर लोकप्रिय हुए कि न .न. सिर्फ इसने पाकिस्तान में बल्कि पूरे भारत में भी इसने धूम मचा दी। आल इंडिया रेडियो से लेकर रेडियो सिलोन पर नूरजहां की आवाज का जादू श्रोताओं पर छाया रहा।
इस बीच नूरजहां ने गुलनार 1953. फतेखान 1955. लख्ते जिगर 1956. इंतेजार. 1956. अनारकली. 1958. परदेसियां. 1959. कोयल और ्1959 मिर्जा गालिब. 1961 जैसी फिल्मों मे अभिनय से दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। वर्ष 1963 में उन्होंने ने अभिनय की दुनिया से विदाई ले ली। वर्ष 1966 में नूरजहां पाकिस्तान सरकार द्वारा, तमगा ए इम्तियाज, सम्मान से नवाजी गई। वर्ष 1982 में इंडिया टाकी के गोल्डेन जुबली समारोह मे उन्होंने को भारत आने को न्योता मिला। तब श्रोताओं की मांग पर नूरजहां ने, आवाज दे कहां है दुनिया मेरी जवां है, गीत पेश किया और उसके दर्द को हर दिल ने महसूस किया। वर्ष 1996 में नूरजहां आवाज की दुनिया से भी जुदा हो गई। वर्ष 1996 में प्रदशत एक पंजाबी फिल्म, सखी बादशाह, में नूरजहां ने अपना अंतिम गाना, कि दम दा भरोसा गाया। उन्होंने ने अपने संपूर्ण फिल्मी कैरियर में लगभग एक हजार गाने गाए। हिन्दी फिल्मों के अलावा नूरजहां ने पंजाबी. उर्दू और सिंधी फिल्मों में भी अपनी आवाज से श्रोताओं को मदहोश किया। लगभग तीन चार दशक तक अपनी दिलकश आवाज से श्रोताओं को मदहोश करने वाली नूरजहां 23 दिसंबर 2000 इस दुनिया से रुखसत हो गई।

सोमवार, 4 जनवरी 2010

तो फिरोजाबाद की चूड़ियां ढूंढ़ते रह जाओगे


मनोज कुमार
आज से कोई 30-35 बरस पहले मेरी बड़ी भाभी पायल को महिलाओं के लिये बेड़ियां कहती थी। तब मुझे इस बात का अंदाज नहीं था कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर उनकी उस बात का अहसास अब होगा। आज जब महिलाओं को चूड़ियों से परे होते
हुए, माथे से बिंदिया लगाने से बचते हुए और मांग में सिंदूर भरने से परहेज करते हुए देखता हुआ तो मेरी भाभी मुझे याद आ जाती हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो कल तक नारी के श्रृंगार की वस्तुएं थी, जिसमें स्त्रियां अपना सौभाग्य देखती थीं, आज उनके लिये बंधन हो गया है। उनके लुक को खराब करने लगा है। इस मुद्दे को विस्तार के साथ देखना होगा। यहां मैं जिस
चूड़ी, बिंदी और सिंदूर की बात कर रहा हूं, उसका सीधा वास्ता तो स्त्रियों से है किन्तु इससे भी बड़ा वास्ता बाजार से है। फिरोजाबाद का नाम भारत के कोने कोने में जाना जाता है तो इसलिये कि वहां किसम किसम की चूड़ियां बनती हैं। शायद बिंदी और सिंदूर बनाने का काम भी होता होगा। इस बारे में मेरी जानकारी थोड़ी कम है। जब स्त्रियां श्रृंगार की इन महत्वपूर्ण वस्तुओं का त्याग करना आरंभ कर देंगी तो फिरोजाबाद के कारखाने मर जाएंगे। एक दो नहींे सैकड़ों परिवारों के समक्ष भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। भारत में जिस तरह कई प्राचीन लघु और गृह उद्योग खत्म होते रहे हैं, वैसे ही एक और लघु और गृह उद्योग खामोषी से मर जाएगा। बिलकुल उसी तरह जिस तरह पावरलूम खत्म होते जा रहे हैं, जिस तरह भोपाल का जरी उद्योग सांसें गिन रहा है। आधुनिक मषीनें कपड़े बुन रही हैं और महंगे लेदर के पर्स।क्या चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागने से स्त्री आजाद हो जाएगी? क्या वह श्रृंगार की इन वस्तुओं का उपयोग नहीं करेगी तो उसकी षान पर कोई फर्क पड़ जाएगा, षायद
नहीं। इसे और विस्तार से देखना होगा कि किस तरह हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था को चैपट करने के लिये खेल खेला जा रहा है। भारतीय स्त्रियों के साथ ही भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं को भी भेंट चढ़ाया जा रहा है। बदलते समय के साथ स्त्री की दुनिया को विस्तार मिला है। कल तक चैके चूल्हे में सिमटी स्त्रियां आज हमकदम बन कर चल रही हैं। हालांकि मेरी मान्यता यह है कि स्त्री कभी पराधीन थी ही नहीं। भारतीय षास्त्रों का अध्ययन करेें तो सहज ही पता चल जाता है कि कोई भी घर स्त्री के बिना अधूरा है। समय की जरूरत के अनुरूप भारतीय स्त्री ने अपना चेहरा प्रस्तुत किया है। कभी वह अपने दुष्मनों का संहार करने के लिये दुर्गा बन जाती है तो कभी ममता लुटाने के लिये वह गंगा बनकर निस्वार्थ बहती रहती है। अपने घर और परिवार की उन्नति के लिये स्त्री ही लक्ष्मी का रूप् है। इसके बावजूद यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि स्त्रियों का दमन हुआ है। उन्हें हाशिए पर रखने की कोशिश की गई है। ऐसे में स्त्री को स्वतंत्रता मिली है, मिल रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन क्या किसी संस्कृति और परम्परा की बलि चढ़ाकर? किसी बाजार की षर्त को मानकर? इसका जवाब षायद नहीं में होगा लेकिन यहां मौन रह कर बाजार की हर षर्त को मंजूर किया जा रहा है।कथित विकास ने हमारे सोचने की ताकत को कम कर दिया है और भीड़ में हम खोने के लिये मजबूर हो गये हैं। हम यह भी नहीं सोच पा रहे हैं कि जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं वह रास्ता हमारे लिये ही बंद हो रहा है। चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागकर हम अपने आपको आधुनिक बन जाने का सुख तो पा रहे हैं लेकिन इन छोटी छोटी चीजों को छोड़ कर जाने कितने पेट को भूखे सोने के लिये मजबूर कर रहे हैं, इसका आपको अंदाज है? षायद नहीं। दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के लिये क्या हमारा चरित्र जिम्मेदार नहीं है?

देश की अर्थव्यवस्था को चैपट करने में हमारा योगदान नहीं है? फौरीतौर पर बात भले ही समझ न आये क्योंकि इस समय हम आधुनिकता की आंधी की गिरफ्त में हैं लेकिन इसे समझने की जरूरत होगी।मानव श्रम को हम कैसे बेकार और बेबस बना रहे हैं, इस संदर्भ में स्टेषन पर खड़े कुलियों को देखकर अंदाज लगाया जा सकता है। कल तक ये कुली हमारा बोझ उठाकर अपने कंधों पर रखे बोझ को कम कर लेते थे आज वे अपने ही बोझ तले दब रहे हैं। बड़ी नामी कंपनियों ने आधुनिक
किस्म के सूटकेस तैयार कर दिये। अब खुद ही कुली बन जाओं और अपना सामान खुद खींचते हुए मंजिल तय कर लो। जिस स्टेषन पर कुलियों की संख्या कभी दस और बीस हुआ करती थी, वहां अब गिने चुने ही मिलेंगे क्योंकि यात्रियों की सूरत में कुलियों की तादात इतनी बढ़ गयी है कि अब वास्तविक कुलियों की जरूरत नहीं रही। कल्पना कीजिये कि आपके बोझ को कंधे पर ढोते इन कुलियों के घरों के चैके-चूल्हे जलते थे और अब इनके दिल। वक्त अभी भी है। बस समझने की जरूरत है कि चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागने से आधुनिकता नहीं आयेगी और न खुद के सूटकेस खींचने से अमीरी। सोच बदलने की जरूरत है और यह बदली हुई सोच कई परिवारों को दो वक्त का खाना दे पायेगी। संस्कृति और परम्परा की रक्षा भी हम कर पाएंगे लेकिन तभी जब हमारी सोच बदल जाए।
मनोज कुमार

शनिवार, 2 जनवरी 2010

नया साल


- हरिशंकर परसाई
साधो, बीता साल गुज़र गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदाई करें तो तुम्हें दुख देने वाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।
साधो, मैं कैसे कहूँ कि यह वर्ष तुम्हें सुख दे। सुख देनेवाला न वर्ष है, न मैं हूँ और न ईश्वर है। सुख और दुख देनेवाले दूसरे हैं। मैं कहूँ कि तुम्हें सुख हो। ईश्वर भी मेरी बात मानकर अच्छी फसल दे! मगर फसल आते ही व्यापारी अनाज दबा दें और कीमतें बढ़ा दें तो तुम्हें सुख नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे सुख की कामना व्यर्थ है।
साधो, तुम्हें याद होगा कि नए साल के आरंभ में भी मैंने तुम्हें शुभकामना दी थी। मगर पूरा साल तुम्हारे लिए दुख में बीता। हर महीने कीमतें बढ़ती गईं। तुम चीख-पुकार करते थे तो सरकार व्यापारियों को धमकी दे देती थी। ज़्यादा शोर मचाओ तो दो-चार व्यापारी गिरफ्तार कर लेते हैं। अब तो तुम्हारा पेट भर गया होगा। साधो, वह पता नहीं कौन-सा आर्थिक नियम है कि ज्यों-ज्यों व्यापारी गिरफ्तार होते गए, त्यों-त्यों कीमतें बढ़ती गईं। मुझे तो ऐसा लगता है, मुनाफ़ाख़ोर को गिरफ्तार करना एक पाप है। इसी पाप के कारण कीमतें बढ़ीं।
साधो, मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है। पिछले साल एक सरकारी कर्मचारी के लिए मैंने सुख की कामना की थी। नतीजा यह हुआ कि वह घूस खाने लगा। उसे मेरी इच्छा पूरी करनी थी और घूस खाए बिना कोई सरकारी कर्मचारी सुखी हो नहीं सकता। साधो, साल-भर तो वह सुखी रहा मगर दिसंबर में गिरफ्तार हो गया। एक विद्यार्थी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो, तो उसने फर्स्ट क्लास पाने के लिए परीक्षा में नकल कर ली। एक नेता से मैंने कह दिया था कि इस वर्ष आपका जीवन सुखमय हो, तो वह संस्था का पैसा खा गया।
साधो, एक ईमानदार व्यापारी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो तो वह उसी दिन से मुनाफ़ाखोरी करने लगा। एक पत्रकार के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त की तो वह 'ब्लैकमेलिंग' करने लगा। एक लेखक से मैंने कह दिया कि नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदाई हो तो वह लिखना छोड़कर रेडियो पर नौकर हो गया। एक पहलवान से मैंने कह दिया कि बहादुर तुम्हारा नया साल सुखमय हो तो वह जुए का फड़ चलाने लगा। एक अध्यापक को मैंने शुभकामना दी तो वह पैसे लेकर लड़कों को पास कराने लगा। एक नवयुवती के लिए सुख कामना की तो वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक एम.एल.ए. के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त कर दी तो वह पुलिस से मिलकर घूस खाने लगा।
साधो, मुझे तुम्हें नए वर्ष की शुभकामना देने में इसीलिए डर लगता है। एक तो ईमानदार आदमी को सुख देना किसी के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर तक के नहीं। मेरे कह देने से कुछ नहीं होगा। अगर मेरी शुभकामना सही होना ही है, तो तुम साधुपन छोड़कर न जाने क्या-क्या करने लगेंगे। तुम गांजा-शराब का चोर-व्यापार करने लगोगे। आश्रम में गांजा पिलाओगे और जुआ खिलाओगे। लड़कियाँ भगाकर बेचोगे। तुम चोरी करने लगोगे। तुम कोई संस्था खोलकर चंदा खाने लगोगे। साधो, सीधे रास्ते से इस व्यवस्था में कोई सुखी नहीं होता। तुम टेढ़े रास्ते अपनाकर सुखी होने लगोगे। साधो, इसी डर से मैं तुम्हें नए वर्ष के लिए कोई शुभकामना नहीं देता। कहीं तुम सुखी होने की कोशिश मत करने लगना।
- हरिशंकर परसाई

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