सोमवार, 23 मई 2022

हरियाला संस्कार



18 मई 2022 को जनसत्ता में प्रकाशित


 

बुधवार, 18 मई 2022

ब्रह्मास्त्र के रूप में उभरता बुलडोजर



इन दिनों देश में बुलडोजर संस्कृति का लगातार विस्तार हो रहा है। यह संस्कृति अब राज्यों की सीमाएं तोड़ने लगी हैं। एक सख्त कदम उठाने की ओर संकेत देने वाली यह संस्कृति कुछ लोगों को भा रही है, तो कुछ लोगों के लिए आंख की किरकिरी बन गई है। बरसों से अवैध रूप से बनी आलीशान इमारतों को देखते हुए ईर्ष्या होती थी, उसे ही जमींदोज होते देखना बड़ा सुकूनभरा लम्हा रहा। कई स्थानों पर इस बुलडोजर ने इमारतें जमींदोज कर वहां बागीचे बना दिए। अब उस बागीचे में बच्चों की किलकारियां गूंजती हैं। अच्छा लगता है यह सब देखकर। दूसरी ओर अवैध रूप से शान से इमारतें खड़ी करने वाले अब दहशत में हैं। बरसों तक उनका राज चलता रहा, एक पल में ही उनकी दुनिया ही बदल गई। लोगों तक यह संदेश पहुंचा कि बुरे दिन की शुरुआत ऐसे ही होती है। इसलिए कभी किसी का बुरा मत करो। बुलडोजर संस्कृति पनपने का एक कारण देश के नेता ही हैं, जो अपनी काली कमाई को इस तरह से सफेद करने में लगे हुए हैं। अवैध काम करने वालों पर हमेशा नेताओं का वरदहस्त होता है, तभी वे अवैध कामों को अंजाम दे पाते हेैं।

हमारे देश में बहुत की कम ऐसे नेता हैं, जिन्हें लोग सम्मान की दूष्टि से देखते हैं। कई नेता तो अपनी आदतों के कारण विभिन्न नामों से याद किए जाते हैं। लोगों ने नेताओं को कई नाम दे रखे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि अब नेता भी कुछ विशेष नामों से बुलाए जाने लगे हैं। बुलडोजर बाबा, बुलडोजर मामा, बुलडोजर दादा। इस तरह से कुछ नेताओं के नए नाम उभरे हैं। बुलडोजर होने को तो एक मशीन ही है, पर आज यह विपक्ष के नेताओं की किरकिरी बना हुआ है। संभव है इस बार यह बुलडोजर किसी न किसी दल का चुनाव चिह्न बन जाए। अब तो किसी नेता के मुंह से बुलडोजर शब्द का निकलना ही विवाद को जन्म देने लगा है। यहां तक कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन अपनी भारत यात्रा के दौरान गुजरात के दाहोद में जेसीबी बुलडोजर में क्या बैठ गए, लोगों ने उन्हें भी लपेट लिया। वे भी ट्रोल का शिकार हो गए। उधर दिल्ली में ऐसा पहली बार हुआ कि बुलडोजर की कार्यवाही को रोकने के लिए अदालत को दो बार स्टे ऑर्डर देना पड़ा। भारतीय राजनीति में पहली बार बुलडोजर इतना हावी दिखाई दिया। विपक्ष के लिए यह बुलडोजर आंख की किरकिरी बन गया है। क्योंकि जिसके भी खिलाफ बुलडोजेर का इस्तेमाल किया गया है, वह किसी न किसी रूप से विपक्षी दलों से सम्बद्ध है। ऐसे में कुछ भी कहना यानी एक नए विवाद को जन्म देना है। एक तरह से यह एक टॉकिंग पाइंट बन गया है।

बुलडोजर का इस्तेमाल पहले समृद्ध किसान किया करते थे। अब यह अवैध निर्माण को ढहाने के काम में आने लगा है। अब तो जो नेता जितना अधिक बुलडोजर का इस्तेमाल करता है, वह उतना ही अधिक लोकप्रिय भी होने लगा है। नेताओं के लिए यह एक तरह से ब्रह्मास्त्र के रूप में जाने जाना लगा है। सबसे पहले बुलडोजर का उपयोग रेत और पत्थरों को रास्ते से हटाने के लिए किया गया। उसके बाद इसका विस्तार होने लगा। अब यह निर्माण कार्यों, खनिज कार्यों, तालाब गहरीकरण, नहर निर्माण के लिए इस्तेमाल में आने लगा है। लेकिन अब इसका दावानल रूप सामने आने लगा है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इसका इस्तेमाल अवैध रूप से बनी हुई इमारतों के लिए किया। तब से पूरे देश में असामाजिक तत्वों में हाहाकार मच गया है। इसके बाद मध्यप्रदेश और बिहार में इसका इस्तेमाल पूरी सूझबूझ के साथ किया जाने लगा। यहां भी पहले तो सरकार पर आरोप-प्रत्यारोप लगे, उसके बाद बुलडोजर के अस्तित्व को सभी ने स्वीकार कर लिया। अब यह अवैध निर्माण एवं सरकारी जमीन पर कब्जा करने वाले रसूखदारों के खिलाफ  एक रामबाण साबित हो रहा है।

अब लगे हाथ बुलडोजर का इतिहास भी जान लें। जेम्स कमिंग्स और जे अर्ले ने 1923 में सबसे पहले केन्सास में इसका उपयोग पहली बार किया था। उन्होंने एक ट्रेक्टर के आगे बड़ी-सी आरीनुमा ब्लेड लगा दी। इससे मिट्टी को एक तरफ किया जाता था। तब उसके इस पेटेंट का नाम अटैचमेंट फॉर ट्रेक्टर्स दिया गया। उस समय बुलडोजर के लिए टायर व्हील का उपयोग किया गया। अब तो बुलडोजर युद्धक टैंक की तरह आने लगे हैं, जो चेन की सहायता से आगे बढ़ते हैं। सन 1800 में पिस्तौल में इस्तेमाल की जाने वाली लम्बी केलिबर को भी बुलडोजर्स कहा जाता था। इससे लोगों को धमकाने का काम किया जाता था। अब तो आधुनिक खेती का पर्याय बन गया है बुलडोजर। इसी का दूसरा रूप थ्रेशर है, जो खेतों से फसलों को कुछ ही देर में काट देता है। उसके बाद फसल के दाने-दाने अलग हो जाते हैं। ट्रेक्टर की तरह अब बुलडोजर को किराए पर लिया जा सकता है। इससे मानव रोजगार भी प्रभावित हुआ है। संभव है ताकत के प्रतीक इस बुलडोजर को अब कोई भी दल अपना चुनाव चिह्न बना सकता है।

अवैध निर्माण कार्यों को तोड़े जाने पर लोग अब भले ही योगी जी को याद किया जाने लगा है, पर लोग गोविंद खैरनार को नहीं भूले होंगे, जिसने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार के खिलाफ अपना परचम लहराया था। उसने पवार के बेटे की होटल पर बुलडोजर चला दिया था। तब उसके काफी प्रशंसा हुई थी। किरण बेदी को भी हम नहीं भूल सकते, जिसने दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पार्क किए हुए वाहन को टो कर दिया था। लेकिन इस बार हमें बुलडोजर के जिस रूप का दर्शन योगी जी ने करवाया है, वह सबसे अलग है। यह बुलडोजर जीपीएस टेक्नालॉजी से सुसज्जित है। सरकारी जमीन पर अवैध रूप से बने निर्माण कार्यों पर बुलडोजर चलाकर योगी जी एक सख्त मुख्यमंत्री के रूप में उभरे हैं। एक तरह से उन्होंने सभी असामाजिक तत्वों को हिलाकर रख दिया है। इस बुलडोजर शब्द ने इतनी अधिक लोकप्रियता बटोरी है कि निकट भविष्य में बनने वाले किसी राजनीतिक दल का नाम ही बुलडोजर हो सकता है।

अब लोगों की आस ही यह बुलडोजर है। इससे अपेक्षाएं भी बढ़ने लगी हैं। लोग चाहते हैं कि अब यह बुलडोजर हमारे नेताओं को मिलने वाली तमाम सुविधाओं पर भी चले। कुछ भी काम न करने वाले ये नेता देशभक्ति की आड़ में जिस तरह से मुफ्त का माल खा रहे हैं, उस पर इस बुलडोजर को चलना ही चाहिए। अब देशभक्ति की परिभाषा बदल गई है। सीमा पर तैनात सैनिक ही देशभक्त नहीं होता। एक किसान फसल ऊगाकर, एक सब्जी वाला सब्जी बेचकर, एक मोची जूते सिलकर, एक डॉक्टर इलाज कर, एक नौकरीपेशा अपनी नौकरी कर, एक अधिकारी अपने अधिकार का उपयोग कर जिस तरह से देश की सेवा कर रहा है, ठीक उसी तरह से ये नेता भी देश सेवा ही कर रहे हैं। फिर इन्हें इतनी अधिक सुविधाएं क्यों मिल रही हैं? जब इन नेताओं की पेंशन सुविधाओं पर बुलडोजर चलेगा, तब वास्तव में यह बुलडोजर हम सबके लिए हितकारी होगा। तब हम इसे एक विध्वंसकारी के रूप में नहीं देखेंगे। तब यह हमारा अपना साथी होगा। इन्हीं शुभ भावनाओं के साथ......

डॉ. महेश परिमल


शनिवार, 7 मई 2022

ध्वनि प्रदूषण की अनदेखी के खतरे



 

..जब शब्द साथ छोड़ देंगे

डॉ. महेश परिमल

शोर एक विचलन है। यह मानसिक स्थिति को बुरी तरह से प्रभावित करता है। अधिक शोर के बीच रहने वाले लोग चिड़चिड़े स्वभाव के होते हैं। ऐसे लोग आक्रामक भी हो सकते हैं। शोर से कभी शांति नहीं मिल सकती, इसे गांठ बांधकर रख लें। शोर हमें व्यथित कर सकता है, विचलित कर सकता है, पर कभी भीतर की शांति प्रदान नहीं कर सकता। शोर का मुद्दा धार्मिक कतई नहीं है, यह एक सामाजिक मुद्दा है। शोर के खिलाफ आंदोलन होना चाहिए। तेज आवाज वाले यंत्रों को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देना चाहिए। डीजे और प्रेशर हार्न का उत्पादन ही बंद कर देना चाहिए। यदि अभी नहीं संभले, तो भावी पीढ़ी न तो अपने बच्चों की आवाज सुन पाएगी, न ही परिंदों की चहचहात को महसूस कर पाएगी। एक अंधेरी दुनिया में होंगे, हम सब, जहां सभी खामोश होंगे।

आजकल पूरे देश में लाउडस्पीकर को लेकर राजनीति हावी हो गई है। वास्तव में यह मामला शोर को होना था, पर इसे राजनीति का रंग दे दिया गया है। यदि शोर के खिलाफ आंदोलन चलाया गया होता, तो यह देश को एक नई दिशा देता। पर राजनीति के कारण भले ही यह मामला तूल पकड़ ले, पर मूल मुद्दे से भटक जाएगा। हम यदि शोर के खिलाफ शोर करते हैं, तो यह अनुचित होगा। पर शोर के खिलाफ अपनी खामोश मुहिम चलाएंगे, तो शायद यह बेहतर होगा। पर देश में खामोश मुहिम का कोई अर्थ ही नहीं है। इसलिए शोर के खिलाफ किया गया आंदोलन भी एक शोर में बदल जाता है। ऐसा ही इस मामले में हुआ है। महाराष्ट्र में लाउडस्पीकर विवाद को लेकर मामला उलझ गया है। राज ठाकरे ने एक बार फिर एक पत्र जारी कर लोगों से कहा है कि जिन स्थानों से अजान की आवाज लाउडस्पीकरों से आएगी, उसके खिलाफ वे हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे। वे इसे एक सामाजिक मुद्दा बता रहे हैं। उन्होंने कहा है कि हम देश की शांति भंग नहीं करना चाहते, पर लाउडस्पीकर के मामले पर ध्यान नहीं दिया गया, तो हम अपने बयान पर अडिग रहेंगे।

अब हम यदि पूरे विश्व में लगातार बढ़ रहे ध्वनि प्रदूषण की तरफ नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि ध्वनि प्रदूषण का असर केवल इंसानों ही नहीं, बल्कि जानवरों एवं पेड़-पौधों पर भी पड़ रहा है। बड़े शहरों से लेकर सुदूर गांव भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। इससे इकोसिस्टम तक प्रभावित हो रहा है। अधिक शोर के कारण मेटाबालिज्म से संबंधित रोग, हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज का खतरा बढ़ गया है। इससे हृदयाघात का भी खतरा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार तेज और लगातार होने वाले शोर से यूरोप में हर साल 48 हजार लोग हृदय रोग के शिकार हो रहे हैं। इससे करीब 12 हजार लोग असमय ही मौत का शिकार हुए हैं।

जर्मन संघीय पर्यावरणए एजेंसी के शोर विशेषज्ञ थॉमस माइक कहते हैं कि अगर कोई फ्लैट या घर मुख्य सड़क पर हे, तो कम किराया देना पड़ता है। इसका मतलब यह है कि जिन लोगों की आय कम है, उनके शोर-शराबे वाली जगहों पर रहने की संभावना अधिक है। शोर के केवल इंसान ही नहीं, बल्कि जानवर भी प्रभावित हो रहे हैं। ध्वनि प्रदूषण के कारण सबसे ज्यादा पक्षी प्रभावित हो रहे हैं। वे अब ऊंचे स्वर में अपनी आवाज निकाल रहे हैं। सड़क किनारों के कीड़ों, टिड्डों और मेढकों की आवाज में भी बदलाव देखा गया है। इसके अलावा अनिद्रा, अति तनाव, उच्च रक्तचाप, चिन्ता तथा अन्य बहुत से स्वास्थ्य संबंधी विकार शोर-प्रदूषण से उत्पन्न हो सकते हैं। लगातार प्रबल ध्वनि के प्रभाव में रहने वाले व्यक्ति की सुनने की क्षमता अस्थायी अथवा स्थायी रूप से कम हो जाती है। अधिक शोर में रहने वाले लोगों में कुछ नए रोगों का भी पता चला है। इसमें प्रमुख है रात में देखने की क्षमता में कमी आना, रंगों की पहचानने में दिक्कत, नींद का नियमित न होना, जल्दी थकान आना और मानसिक विक्षोम का उत्पन्न होना।

आजकल युवा जिस तरह से डीजे की आवाज के साथ थिरक रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि भविष्य में वे थिरकने के काबिल ही नहीं होंगे। क्योंकि उन्हें कुछ भी सुनाई ही नहीं देगा। ध्वनि प्रदूषण को नजरअंदाज करने वाले युवाओं का भविष्य बहुत ही अंधकारमय है। वे न केवल बहरे हो सकते हैं, बल्कि उनकी याददाश्त एवं एकाग्रता में भी कमी आ सकती है। यही नहीं चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, नपुंसकता, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के भी शिकार हो सकते हैं। यही हाल रहा, तो भावी पीढ़ी एक ऐसी अंधेरी दुनिया में होगी, जहां संवेदनाएं नहीं होंगी। लोग बहरे होंगे, संवेदनाएं केवल आंखों में ही दिखाई देगी। उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होंगे। यदि कोई कुछ कहेगा, तो सामने वाला उसे सुन नहीं पाएगा। सोचो कैसा होगा वह पल?

डॉ. महेश परिमल


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