गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

कालाधन बना सरकार की दुविधा

डॉ. महेश परिमल
विदेशों में जमा कालेधन पर सरकार की नीयत साफ नहीं लगती। कालेधन पर सरकार ने ऐसा हौवा खड़ा किया है, मानो जिसका खाता विदेश के किसी बैंक में हो, वह अपराधी है। बात ऐसी बिलकुल भी नहीं है। विदेशी बैंकों में खाता होना अपराध नहीं है, बल्कि बिना टैक्स के विदेशी बैंकों में धन जमा कराया है, तो यह अपराध है। पहले सरकार ने कहा था कि वह स्विस बैंकों में धन जमा कराने वाले 31 नामों को उजागर करेगी, बाद में उसने केवल 8 नाम ही जाहिर किए। इससे उसकी नीयत का ही पता चलता है। अब वह कह रही है कि वह धीरे-धीरे नामों को जाहिर करेगी। इससे साफ है कि वह नहीं चाहती कि उनके किसी समर्थक का नाम जाहिर हो। इस पर कांग्रेस ने दृढ़ता से कहा है कि सरकार को नाम जाहिर करना हो, तो दावे के साथ करे। नाम जाहिर करने के नाम पर भयादोहन न करे। इसके पहले भी लोकसभा चुनाव के दौरान के दौरान नरेंद्र मोदी गरज रहे थे कि वे 100 दिन के अंदर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत ले आएंगे। बाद में सरकार ने यू टर्न लेते हुए यह कहा कि कितने ही देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते के अनुसार नामों को जाहिर नहीं किया जा सकता। तब प्रजा में काफी ऊहापोह मच गई। इससे सरकार नाम जाहिर करने के लिए आगे आई। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि जिन्हें काला धन प्राप्त करना आता है, वे उसे खपाना भी जानते हैं। ऐसे लोगों के पास चार्टर्ड एकाउंटेंट की पूरी फौज होती है, जो लोग काले धन को ठिकाने लगाने के गुर जानते हैं। प्रजा तो यही चाहती है कि किसी भी तरह से देश का लूटा हुआ माल देश में आ जाए।
स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक के एक भूतपूर्व कर्मचारी ने 2006 में बैंक के डाटा की चोरी कर फ्रेंच सरकार को बेच दिया था। इस डाटा में स्विस बैंक के 628 भारतीय खाताधारकों के नाम भी थे। सन् 2011 में फ्रांस की सरकार ने भारत सरकार को यह सूची सौंपी थी। उसमें कई कांग्रेसी एवं यूपीए के नेताओं के नाम होने के कारण सूची को जाहिर नहीं किया गया। तब यूपीए सरकार ने यह बहाना बनाया था कि सन् 1994 में भारत ने स्विस सरकार से यह समझौता किया था कि उनकी बैंकों के भारतीय खाताधारकों के नाम जाहिर नहीं किए जाएंगे। स्विस बैंक की तरह यूरोप में भी लिफ्टेनस्टीन की एलजीटी बैंक के 26 भारतीय खाताधारकों के नाम भी जर्मन सरकार द्वारा भारत को सौंपे गए थे। इन 26 में से 18 खाताधारकों के खिलाफ भारतीय कानून के तहत कार्यवाही की गई थी। इन नामों को सुप्रीमकोर्ट को भी दिया गया था। तब भी यह प्रश्न उठा था कि सरकार बाकी नामों को क्यों जाहिर नहीं कर रही है। आखिर उन्हें किस आधार पर संरक्षण दिया जा रहा है। केंद्र में एनडीए सरकार सत्ता पर काबिज हुई, तो उसके हाथ में विदेशी बैंकों के 628 में से 26 भारतीय खाताधारकों के नाम और उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त हो गई थी। पर सरकार ने उन नामों की घोषणा करने में टालमटोल की। इसका कारण था कि भाजपा के साथ संबंध रखने वाले कितने ही उद्योगपतियों के नाम उसमें शामिल थे। आखिर सुप्रीमकोर्ट ने जुलाई 2011 में एक आदेश में केंद्र सरकार से कहा था कि वे सारे नाम जाहिर करे। पर यूपीए सरकार एक के बाद एक नए बहाने बताकर नामों को जाहिर करने से बचती रही। अब एनडीए सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से यह विनती की है कि वह 2011 के आदेश में थोड़ा बदलाव करे, ताकि नामों को जाहिर करने में उसे परेशानी न हो। करचोरों को सजा से बचाने में यूपीए और एनडीए सरकार एक जैसी साबित हुई है।
इधर यह कहा जा रहा है कि विकीलिक्स ने धमाका करते हुए कितने ही भारतीयों के नाम जाहिर किए हैं, जिनके खाते विदेशी बैंकों में हैं। ये सभी स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक में खातेदार हैं। नामों करे गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि इसके पर्याप्त सुबूत नहीं थे। फ्रांस की सरकार के पास से केंद्र सरकार को जो 628 नाम मिले थे, उसकी जांच करते समय यह खयाल आया कि 628 में से केवल 418 के ना के आगे सरनेम मिल रहे हैं। इन्हें नोटिस भेजा जाता, इसके पहले इनमें से 136 ने यह स्वीकार कर लिया कि हमारे खाते उक्त बंक में हैं। केंद्र सरकार 136 में से 50 की जानकारी स्विस बैंक के अधिकारियों को जांच के लिए भेजी है। यूपीए की तरह एनडीए की विलंब नीति से यह शंका उत्पन्न होती है कि कहीं सरकार कर चोरों को संरक्षण तो नहीं दे रही है। यह बाबा रामदेव की बात मानें, तो उनके अनुसार भारत का 60 लाख करोड़ रुपया काला धन है। अभी जो एचएसबीसी बैंक के 628 खाताधारकों की बात चल रही है, उसमें स्विस अधिकारियों के मुताबिक करीब 14 हजार करोड़ रुपए का कालाधन है। सवाल यह उठता है कि बाकी का काला धन कहां है? उसे भारत वापस लाने के लिए क्या नरेंद्र मोदी सरकार किस तरह के कड़े कदम उठा रही हैं? यह जानने का अधिकार प्रजा को है। यदि खाताधारकों में नेताओं के नाम हैं, तो उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने से सरकार की विश्वसनीयता बढ़ेगी। प्रजा को सरकार के तर्क और सुप्रीमकोर्ट की लताड़ से कोई मतलब नहीं है, वह तो यही चाहती है कि देश का काला धन देश में वापस आ जाए, बस।
स्विस बैंकों में देश का काला धन रखने वाले लोगों की सूची बाहर करने की बात पर सरकार अब फंस गई है। पहले उसने 13 नाम जाहिर करने की बात की थी, पर बाद में केवल 3 नाम ही जाहिर किए थे। इससे सरकार की फजीहत हुई। उसके पास कोर्ट ने भी सरकार से यही कहा कि वह खाताधारकों की सूची अदालत को सौंपे। वास्तव में सरकार पसोपेश में है। विदेशी बैंकों में केवल नेताओं के ही खाते नहीं हैं, बल्कि कई कापरेरेट कंपनियों के नाम भी हैं। डाबर कंपनी के प्रदीप बर्मन का नाम जाहिर होते ही डाबर के शेयरों की कीमत 9 प्रतिशत घट गई। सरकार को इस तरह की दिक्कतों के लिए भी तैयार रहना होगा। जैसे-जैसे नाम जाहिर होते जाएंगे, वैसे-वैसे देश की राजनीति करवट लेने लगेगी। देश में आजकल गलत लोगों का साथ देने के लिए कई लोग तैयार है। आसाराम जेल में हैं, पर उनके समर्थकों का विश्वास अभी भी कायम है। इसी तरह यदि लालू यादव का नाम आ जाए, तो उनके समर्थक इसकी आक्रामक प्रतिक्रिया देंगे, यह भी तय है। इसलिए सरकार को यह कदम सोच-समझकर उठाना होगा। अब सरकार को भी यह समझ में आ गया है कि चुनाव में जो वादे किए जाएं, उसे पूरा करने में कितनी दिक्कत होती है। 100 दिन में कालाधन लाने का दावा करने वाली सरकार अब अपने ही जाल में उलझ गई है।
सरकार ने कोर्ट को तीन सीलबंद लिफाफे सौंपे हैं। इनमें से पहले लिफाफे में दूसरे देशों के साथ हुई संधि के कागजात हैं। दूसरे लिफाफे में विदेशी खाताधारकों के नाम हैं, जबकि तीसरे लिफाफे में जांच की स्टेटस रिपोर्ट है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इसमें साल 2006 तक की एंट्री है। इसकी वजह यह है कि स्विस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि ये इनपुट्स चोरी की जानकारी के आधार पर हासिल किए गए हैं। खाताधारकों की लिस्ट में सबसे ज्यादा रकम वाला अकाउंट 1.8 करोड़ डॉलर वाला है, जो देश के दो नामी उद्योगपतियों के नाम से है। इस लिस्ट में सबसे ज्यादा नाम मेहता और पटेल सरनेम के साथ हैं। 
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

कुछ चिंतन

हमारी वनश्री
वनश्री का आशय होता है वनलक्ष्मी यानी वन संपदा। किसी भी देश के वन हों, सभी वन संपदा से परिपूर्ण होते हैं। ऐसा कोई वन होता ही नहीं, जहाँ वन संपदा न हो। वन का दूसरा आशय हरियाली भी है। भला किसे अच्छी नहीं लगती, हरी-हरी वसुंधरा, यहाँ से वहाँ तक हरितिमा की फैली हुई चादर, आँखों को राहत देने वाले लुभावने दृश्य। जब भी हम प्रकृति के संग होते हैं, एक अजीब सी राहत महसूस करते हैं। हमें ऐसा लगता है, जैसे हम प्रकृति की गोद में हैं। जहाँ वह हमें माँ की तरह दुलार कर रही है। प्रकृति की इस रंगत को वनों से सहारा दिया है। जहाँ वन होंगे, वहाँ भूमि का कटाव नहीं होगा। वहाँ सघन पेड़ होंगे। यही सघन पेड़ बादलों को लुभाते हैं और बारिश के लिए लालायित करते हैं। इसलिए यह पर्यावरण बचाना है, तो वनों को संरक्षित रखना होगा। वन सुरक्षित रहेंगे, तभी हमारी वन संपदाएँ भी सुरक्षित रहेंगी। वन संपदाओं पर ही मानव स्वास्थ्य निर्भर है।
वनों से हमें शुद्ध वायु ही नहीं, बल्कि कई जड़ी-बूटियाँ भी प्राप्त होती हैं। पूरा आयुर्वेद वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों पर आश्रित है। हमारे देश के वनों में वन संपदा के रूप में प्रचूर मात्रा में जड़ी-बूटियाँ हैं। इसी से हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती है।् हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वनों में वायु होती है, यही वायु हमारी आयु में वृद्धि करती है। आज लोगों को स्वच्छ वायु ही नही मिल रही है, ऐसे में वन हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो जाते हैं। वन संपदा का संरक्षण एक समस्या है, क्योंकि लगातार घटते वन क्षेत्रों के कारण वन संपदा का भी दोहन हो रहा है। वनों को लेकर हमारी आवश्यकताएँ बढ़ रहीं हैं, इसलिए वन संपदा की रक्षा के लिए अधिक से अधिक पौधरोपण करना आज की महती आवश्यकता है। वन रहेंगे, तभी मानव जीवन संभव है। बिना वनों के मानव जीवन की कल्पना करना बेमानी है। दोनों ही परस्पर निर्भर हैं। वनों को लेकर अब हमारी चिंता बढ़ी है। सरकार ने भी इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। वन नीति के सख्ती से अमल में लाए जाने के कारण बन संपदा के दोहन पर रोक लगी है। यही नहीं औषधीय पौधों के संरक्षण और नए पौधे उगाने की दिशा में भी सार्थक प्रयास हो रहे हैं।
दुनिया भर में जंगलों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने वाली नई तकनीक से पता चलता है कि भविष्य में वनों की हालत को लेकर जो चिंता जताई गई है, स्थिति उतनी भी ख़राब नज़र नहीं आती है। शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने कहा है कि उन्होंने जंगलों की पहचान के बारे में जो अध्ययन किया है उससे पता चलता है कि दुनिया भर में वनों की कमी वाली स्थिति से बेहतरी की तरफ अब कोई पड़ाव नजर आने वाला है। इस अध्ययन में दुनिया भर में लकड़ियों के भंडार और वन संपदा का अनुमान लगाने की कोशिश की गई है यानी अध्ययन में सिफऱ् उस इलाक़ों का अध्ययन भर ही नहीं किया गया जो पेड़ों से ढँके हुए हैं। इस अध्ययन के परिणाम अमरीकी पत्रिका प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकैडेमी ऑफ़ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।
वनों को लेकर हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। वन से हम जब भी कुद लें, तो उसे कुछ देने के बारे में भी सोचें। निश्चित रूप से वन को हम जो कुछ भी देंगे, वह दोगना होकर हमें मिलेगा। तपती गर्मी में किसी घने पेड़ की छाया मानव को जो राहत देती है, वह किसी संपदा से कम नहीं होती। वनों के आसपास निवास करने वाले आदिवासी वनों पर ही आश्रित होते हैं। कई मामलों में ये वन की रक्षा भी करते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान होता है। अपना घरेलू इलाज वे वनों से प्राप्त औषधियों से ही कर लेते है।
अंत में यही कि जिस तरह से हम लक्ष्मी को लुभाने का यथासंभव प्रयास करते हैं। ठीक उसी तरह हमें हमारी वनश्री को भी बचाए रखने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।  वनों को नष्ट करने की हर कोशिश को नाकाम करें। तभी बच पाएगी हमारी वनश्री।

पानी को पानीदार रखें
देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी। मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति पानी बांटने वाली पनिहारिन नहीं है। तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचR पढ़ते हैं। अरब सागर से कैसे भाप बनती है, कितनी बड़ी मात्रा में वह ‘नौतपा’ के दिनों में कैसे आती है, कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम से, पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती हैं, हमारा साधारण किसान भी जानता है। ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था में प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती। फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है। अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति पर, नदियों पर थोप देते हैं।
जल संकट प्राय: गर्मियों में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है। ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचोड़ते मिल जाएंगे। इस बीच कुछ हज़ार करोड़ रुपए खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं। वाटरशेड डेवलपमेंट अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सूखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है। इसमें 100 पैसा डालेंगे तो 100 पैसा निकाल सकेंगे। लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवल निकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सज़ा देगी। आज यह सज़ा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा में मिलने लगी है। पानी अभी भी हमारे लिए राशन जितना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है, लेकिन जब यही पानी पेट्रोल से भी महँगा मिलेगा, तब शायद हमें समझ में आएगा कि सचमुच यह पानी को हमारे चेहरे का पानी उतारने वाला सिद्ध हुआ। हमारे देखते-देखते ही पानी निजी हाथों में पहुँचने लगा। पानी का निजीकरण पहले यह बात हम सपने में भी नहीं सोच पाते थे, लेकिन आज जब सड़कों के किनारे पानी की खाली बोतलें, पॉलीथीन आदि देखते हैं, तब समझ में आता है कि यह पानी तो सचमुच कितना महँगा हो रहा है।
यह सच है कि पानी का उत्पादन कतई संभव नहीं है। कोई भी उत्पादन कार्य बिना पानी के संभव नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की आवश्यकता बनी रहती है। पानी को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्षा जल को रोकना। इसे रोकने के लिए पेड़ों का होना अतिआवश्यक है। जब पेड़ ही नहीं होंगे, तब पानी जमीन पर ठहर ही नहीं पाएगा। अधिक से अधिक पेड़ों का होना यानी पानी को रोककर रखना है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों ने जो विरासत के रूप में हमें नदी, नाले, तालाब और कुएँ दिए हैं, उन्हीं का रखरखाब यदि थोड़ी समझदारी के साथ हो, तो कोई कारण नहीं है कि पानी न ठहर पाए।
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा। मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।

वृक्ष बोलते हैं
सर जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्ष में भी जान होती है, वे भी सुख-दु:ख और संवेदनाओं को समझते हैं। यह भी तय हो गया कि वृक्ष इंसानों की भाषा समझते हैं। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो गया है कि मानव यदि रोज अपने बगीचे के पेड़-पौधों में पानी डालते हुए उनसे अच्छी-अच्छी, प्यारी-प्यारी बातें करे, तो वे उसकी बात मानते हैं। बस यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि वृक्ष बोलते हैं। यह सिद्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि खामोशी की कोई आवाज नहीं होती। वृक्ष जो कुछ भी सोचते हैं, उसे हम तक पहुँचाने की पूरी कोशिश भी करते हैं। हम ही हैं, जो वृक्ष की भाषा नहीं समझ पाते। यहाँ आकर मानव पंगु बन जाता है कि जब वृक्ष हमारी भाष समझते हैं, तो मानव उनकी भाषा क्यों नहीं समझ पाता?
कभी किसी एकांत में या फिर जंगल में जाकर सुनो, एकांत का संगीत, इसी संगीत में कहीं आवाज आएगी कि कोई कुछ बोल रहा है। आवाज की गहराई पर जाकर पता चलेगा कि अरे! ये तो वृक्ष की आवाज है। कुछ समय तक लगातार इस तरह का प्रयोग जारी रहा, तब आप वृक्ष की आवाज पहचानने लग जाएँगे। तब आपको पता चलेगा कि वृक्ष आजकल दु:खी हैं। कई बार हमने पेड़ से लगातार पानी रिसते देखा होगा। लोग कहते हैं कि पेड़ रो रहा है। इसके वैज्ञानिक कारण जो भी हो, पर जब हम यह जानते हैं कि पेड़ों में जान होती है, तो फिर उनकी सारी प्रक्रियाएँ भी मानव की तरह होंगी। इसलिए जब पेड़ बोलते हैं, तब हमें उनसे बातें करनी चाहिए। आज यदि हम उनकी भाषा समझने लग जाएँ, तो उनकी पीड़ाओं को शब्द दे पाएँगे।
पेड़ उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं, जो प्रकृति प्रेमी होते हैं। क्योंकि यही तो हैं, जिनसे पेड़ बचे हुए हैं। पौधरोपण एक यज्ञ है, पेड़ों की संख्या बढ़ाने का। जो इस यज्ञ को करता है, वही वास्तव में पेड़ों का सच्च साथी है। अपने साथियों की लगातार कम होती संख्या से आजकल वृक्ष द़:खी हैं। देखते ही देखते उनके सामने से सागौन, बबूल, शीशम, देवदार, चीड़, आम आदि के पेड़ गायब हो गए। कुछ तो रातों-रात कट गए, कुछ बेमौते मारे गए। इनके दु:ख का कारण यही है। आलीशान घरों, हवेलियों में बनने वाले फर्नीचर के रूप में ये पेड़ ही हैं, जो हमारे सामने विभिन्न आकार में होते हैं।  कभी कुर्सी, कभी डायनिंग टेबल, कभी पलंग, कभी दीवान आदि रूप होते हैं, इन्हीं पेड़ों के। कभी हवाओं के साथ मस्ती से झूमने वाले आज यही पेड़ बंद कमरों में खामोश जिंदगी बिता रहे हैं।
यह मानव की भूख ही है, जो पेड़ों को इस तरह से बरबादी के कगार पर खड़े कर रही है। वृक्ष आज हमसे यही कह रहे हैं कि हमें मत काटो। हम आपको प्राणवायु देते हैं। यह प्राणवायु मानव कभी बना नहीं सकता। हम पर ही निर्भर है आपका जीवन। हम नहीं रहेंगे, तो खतरे में पड़ जाएगा मानव जीवन। हम जब मानव से कुछ नहीं लेते, तब फिर मानव हमारा नाश क्यों करना चाहता है? थोड़ी-सी सुख-शांति के लिए मानव हमारा ही नाश कर रहा है। हमारा उद्देश्य ही है मानव जीवन के लिए काम आना। पर आज मानव तेजी से हमारा ही नाश कर रहा है। इसे मानव ही रोक पाएगा। यदि उसमें वसुधवकुटुम्बकम् की भावना है, तो उसे हमारा संरक्षण करना ही होगा। इस तरह से वह हमारा नहीं अपना ही संरक्षण करेगा। हम मानव जाति के दुश्मन नहीं है, हमारी रक्षा से मानव की रक्षा है।
डॉ. महेश परिमल

फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख 


फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार
        डॉ. महेश परिमल
सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा प्राप्त 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कारण दिए हैं, वह देश की न्याय व्यवस्था पर ऊंगली उठाता है। कोर्ट ने यह कहा है कि फांसी की सजा में अधिक समय नहीं लगाया जाना चाहिए। यह सच है कि फांसी देने में वक्त नहीं लगाया जाना चाहिए, पर आखिर इतना अधिक समय क्यों लगता है? इस पर भी विचार होना चाहिए। फांसी जैसी गंभीर सजा के लिए भी हमारे यहां कोई टाइम लाइन नहीं है। तारीख पर तारीख के बाद भी बरसों तक मामला लटका रहता है। आखिर मामला लटका क्यों रहता है? इस पर सरकार भले ही जवाब न दे पाए, पर सच तो यह है कि इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ राजनीति का है। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले को भी राजनैतिक दृष्टि से देखा जा रहा है।
दयायाचिका रद्द होने के 14 दिनों बाद फांसी दे देनी चाहिए। सजा देने में देर नहीं होनी चाहिए। इस तर्क के साथ देश की बड़ी अदालत ने फांसी की सजा पाए 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। ये 15 कैदी और उसके परिजन सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से राहत की सांस ले रहे होंगे। इसके सहारे वे कैदी भी बच जाएंगे, जिन्हें फांसी की सजा मुकर्रर हुई है। पर सच्ची बात यही है कि फांसी की सजा में देर नहीं होनी चाहिए। इसके लिए तयशुदा कानून है या नहीं? यदि है, तो उस पर अमल क्यों नहीं हो रहा है? जिन 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला गया है, इसके आधार पर देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा भी उम्रकैद में तब्दील हो सकती है। खालिस्तान की मांग को लेकर देविंदर ने कार को बम से उड़ा दिया था। इस बम विस्फोट में 11 लोगों की मौत हो गई थी। यदि भुल्लर को फांसी दी जाती है, तो पंजाब में हिंसा फैलेगी, वैसी ही हिंसा जो अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर में हुई थी। यही कारण है कि भुल्लर की फांसी की सजा को मुल्तवी रखा गया था। सुप्रीमकोर्ट के फैसले को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन लोगों में यही धारणा है कि चुनाव आ रहे हैं, इसलिए भुल्लर की फांसी को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया है। इस फैसले से आगामी चुनाव में पंजाब में कांग्रेस को निश्चित रूप से फायद होगा। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में तमिलनाड़ु की राजनीति आड़े आ रही थी।
राजीव गांधी के हत्यारे मुरुगन, संथानम और पेरारिवलन को फांसी की तारीख मुकर्रर हो भी गई थी। वह तारीख थी 9 सितम्बर 2011। यह दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था, क्योंकि राष्ट्रपति ने इनकी दया याचिका भी रद्द कर दी थी। फोंसी के दस दिन पहले ही तमिलनाड़ु विधनसभा में ऐसा विधेयक लाया गया, जिसमें तीनों की दया याचिका पर पुनर्विचार करने का प्रावधान था। इस विधेयक के कारण तीनों की सजा को आठ सप्ताह के लिए मुल्तवी कर दी गई। इसके बाद यह मामला आज भी लटका हुआ है। राजीव गांधी की हत्या के 23 वर्ष पहले 21 मई 1991 को पेरुम्बदूर में एक चुनावी सभा में की गई थी। उस समय मानव बम बनी धन्नू ने राजीव गांधी को हार पहनाने के बहाने उन तक पहुंची, धमाका हुआ और राजीव गांधी समेत अनेक लोग मारे गए। इस घटना क्रम को अंजाम दिया लिट्टे ने। आज 23 वर्ष बाद भी इस मामले में न्याय प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई है। बल्कि जेल में एक लव स्टोरी सामने आ गई। राजीव गांधी की हत्या के आरोपी मुरुगन और नलिनी ने जेल में रहने के दौरान ही शादी कर ली। इसके बाद नलिनी ने एक बच्ची को जन्म दिया। बच्ची के जन्म के बाद नलिनी ने फांसी की सजा माफ कर उसे उम्रकैद में तब्दील कर दी गई। नलिनी की सजा माफ करने के लिए सोनिया गांधी ने खुद सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, किसी को पता न चले, इसलिए प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात की।
राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा देने के फैसले को सुप्रीमकोर्ट ने भी मंजूर किया। इसके बाद राष्ट्रपति के पास इनकी दया याचिका पहुंची। इस याचिका  राष्ट्रपति भवन में पूरे 11 वर्ष तक दबाए रखा गया। यदि इस पर विचार हो जाता, तो उसके 14 दिन बाद फांसी की सजा दे दी जाती। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर राष्ट्रपति भवन में दया याचिका को कितने समय तक लम्बित रखा जा सकता है? अभी भी वहां न जाने कितनी दया याचिकाएं पड़ी हैं, जिन्हें राष्ट्रपति के फैसले का इंतजार है। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में भी राजनीति ही आड़े आ रही है। अब इन्हें भी फांसी की सजा से मुक्ति मिल जाएगी। इसके पीछे यही राजनीति है कि इससे कांग्रेस को तमिलनाड़ु में फायदा होगा। वहां कांग्रेस करुणानिधि की डीएमके के साथ अब तक चुनाव लड़ती आ रही है। श्रीलंका के मामले पर डीएमके ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। अब वहां  मुख्यमंत्री जयललिता की पार्टी एआईडीएमके, करुणानिधि की डीएमके और कांग्रेस के बीच टक्कर होगी। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दी जाती है, तो तमिल नाराज हो जाएंगे, इससे कांग्रेस की हार होगी। यही कारण है कि हमारे देश में फांसी की सजा पर भी राजनीति होती है और मामले लटक जाते हैं। आज भी 400 लोग अभी भी सजा का इंतजार कर रहे हैं। 2001 से 2012 तक 1560 लोगों को फांसी दी जा चुकी है। इनमें से 395 उत्तर प्रदेश के हैं, 144 बिहार और 106 लोग तमिलनाड़ु से हैं।
हमारे देश में आखिरी बार 9 फरवरी 2013 को संसद पर हमला करने के आरोप में अफजल गुरु को दी गई थी। इसके पहले 21 नवम्बर 2012 को मुम्बई पर हमला करने वाले एकमात्र जीवित आरोपी अजमल कसाब को फांसी दी गई थी। अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी की सजा दी गई थी, उस पर एक युवती से बलात्कार के बाद हत्या का आरोप था। पिछले आठ वर्षो में कई अदालतों ने फांसी की सजा सुनाई है, इन सबका क्या होगा? क्या इन्हें फांसी होगी? यह सवाल आज भी सबके सामने खड़ा है। अदालत ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ गुनाहगार को फांसी देना उचित नहीं। हकीकत यह है कि फांसी की सजा सुनने के बाद ही व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है। यदि उसमें विलम्ब हुआ, तो वह बुरी तरह से अवसाद से घिर जाता है। उसे हमेशा फांसी का फंदा ही दिखाई देता है। जिन 15 लोगों की फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील हुई है, उन्होंने मौत के साये में अपने दिन गुजारे हैं। तारीख तय होने के बाद अंतिम क्षणों में फांसी की सजा के कुछ समय पहले सजा न होने देने के मामले केवल हमारे देश में ही देखने में आते हैं। आखिर एक गुनाहगार को कब तक ऐसे ही बिना निर्णय के जेल की सलाखों के पीछे रखा जाएगा? गुनाहगारों को यदि इसी तरह न्याय प्रक्रिया की लापरवाही या राजनीति के कारण बचाया जाता रहा, तो अपराध कम तो होंगे ही नहीं। इसमें और भी इजाफा होगा। अपराधी से अपराधी की तरह ही निपटना चाहिए, इसमें यदि राजनीति का समावेश हो जाता है, तो इससे देश का कानून ही शर्मिदा होता है।
  डॉ. महेश परिमल


जहर परोसती पाठ्य पुस्तकें


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों पाठ्यपुस्तकों में कुछ ऐसा लिखा जा रहा है, जिससे बच्चे दिग्भ्रमित हो रहे हैं। उन्हें पालकों ने अब तो जो भी बताया, पाठ्यपुस्तकें उसे गलत बता रही हैं। बालपन में इस तरह की दिग्भ्रमण की स्थिति उनके मानसिक विकास को प्रभावित करती है। सरकार बदलने के साथ ही पाठ्यपुस्तकों में भी बदलाव लाया जाता है। पुस्तकों में यह बताया जाता है कि किन विद्वानों ने इसे तैयार करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया है। पर किताबें जब बाहर आती हैं, तब ऐसा नहीं लगता है कि ये किताबें विद्वानों की नजर से भी गुजरी हैं। किताबों का लेखन एक अलग ही विषय है, पर जब उसे बच्चों को पढ़ाया जाता है, तब उसमें निहित गलत जानकारी बच्चों के बालसुलभ मन में विकृतियां पैदा करती हैं। हाल ही में यह खबर आई है कि पश्चिम बंगाल में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है कि खुदीराम बोस आतंकवादी थे। बंगाल की पावन भूमि, जिसे रत्न प्रसविनी भी कहा जा सकता है, वहां के क्रांतिकारी को यदि आतंकवादी बताया जाए, तो यह पूरी बंगाल की विद्वता पर सवाल खड़े करता है। विद्वानों की भूमि से इस तरह का संदेश जा रहा है, यह देश के लिए खतरनाक है, साथ ही बच्चों के भविष्य के लिए उउसे भी अधिक खतरनाक है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूरे भारत में पाठ्यपुस्तकों की संरचना विदेशी एजेंसियों की गाइड लाइन के अनुसार तैयार होती है। अंग्रेज भारत से चले गए, पर हमारी शिक्षा आज भी उनकी गुलाम है। इसका उदाहरण यही है कि हमने आज तक ऐसी शिक्षा नीति ही तैयार नहीं की, जिससे युवा आत्मनिर्भर बनें। यही कारण है कि आज नेशनल काउंसिल फॉर एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) नाम की सरकारी एजेंसी द्वारा पहली से बारहवीं कक्षा के लिए जो पाठ्य पुस्तकें तैयार की गई हैं, उसमें यह पढ़ाया जा रहा है:-
-भगवान महावीर 12 वर्ष तक जंगल में भटकते रहे, इस दौरान उन्होंने कभी स्नान भी नहीं किया और न ही अपने कपड़े बदले।
-सिखों के गुरु तेगबहादुर आतंकवादी थे और लूटपाट करते थे।
-श्रीराम और श्रीकृष्ण हिंदुओं की कथाओं के हीरो हैं, इनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
-सिखों के गुरु गोविंद सिंह मुगलों के दरबार में मुजरा करते थे।
-औरंगजेब जिंदाबाबा (पीर) था।
-लोकमान्य तिलक, बिपीन चंद्र पॉल, वीर सावकरकर, लाला लाजपतराय और अरविंद घोष चरमपंथी नेता थे।
-मां दुर्गा तामसिक प्रवृत्ति की देवी थी, वे शराब के नशे में चूर रहती थी, इसलिए उनकी आंखें हमेशा रक्तरंजित रहती थीं।
-प्राचीन काल में भारत की स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था, वे धार्मिक क्रियाओं में भी शामिल नहीं हो सकती थीं।
- आर्य भारत के मूल निवासी नहीं, पर मुस्लिम और ईसाई भी बाहर से आए हैं।
ये सभी बातें कपोल-कल्पित हैं और वह जैन, सिख और वैदिक धर्म के बाद भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रांतिकारियों के लिए भी अपमानजनक है। प्रसिद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय में आज की तारीख में भी विद्यार्थियों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें निम्नलिखित विकृत और कपोल-कल्पित बातों को भी पढ़ाया जाता है:-
-गांधीजी का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का कोई मनोवैज्ञानिक आधार नहीं था। रामराज्य के रूप में स्वराज्य की उनकी व्याख्या भारत के मुस्लिमों को उत्साहित नहीं कर पाई।
-सरदार पटेल आरएसएस का साथ देकर सांप्रदायिकता को बढ़ाने में शर्मनाक भूमिका निभाई थी।
-हनुमान एक छोटा सा वानर था, वह कामुक व्यक्ति था, लंका के घरों का शयन कक्ष देखा करता था।
- ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्री का स्नान कुत्ते के समान है।
-स्त्रियों का एक वस्तु समझा जाता था, उसे खरीदा जा सकता था और बेचा भी जा सकता था।
इस प्रकार की विकृत मानसिकता को दर्शाने वाले तथ्य असावधानीवश पाठच्यपुस्तकों में शामिल नहीं किए गए हैं, इसे जानबूझकर पाठच्यपुस्तकों में शामिल गया है। ताकि देश का भविष्य हमारे क्रांतिकारी नेताओं, महापुरुषों आदि के बारे में अपने विचार हल्के रखें। इससे वे अपने धर्म-संस्कृति से विमुख होकर दूसरे धर्मो की तरफ आकर्षित हो। मेकाले का भी यही उद्देश्य था कि उनकी पद्धति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने वाले हमेशा अंग्रेजों के गुलाम बनें रहें। वह सब कुछ इस तरह के विकृत तथ्यों वाली किताबों के माध्यम से ही हो सकता है। देश में जब अंग्रेजों का राज था, तब हमारी संस्कृति में सतियों की पूजा करना और बाल विवाह आम बात थी। इसके खिलाफ राजा राममोहन राय ने एक अभियान चलाया। उनके इसी अभियान के कारण ही लॉर्ड बेंटिक ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया। आज शालाओं में पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसमें राजा राममोहन राय की प्रशंसा की जा रही है, पर उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने की कोशिश् की थी, यह नहीं पढ़ाया जाता।
वेस्ट बंगाल में आठवीं कक्षा के बच्चे देश के लिए जान देने वाले नौजवानों को आतंकवादियों के रूप में देख रहे है। दरअसल आठवीं कक्षा की इतिहास की किताबों में खुदीराम बोस, प्रफुल्ला चाकी और जतींद्र मुखर्जी जैसे अमर शहीदों को रिवॉल्यूश्नरी टेररिज्म चैप्टर के अंदर जगह मिली है। अगर रिवॉल्यूश्नरी टेरेरिज्म पाठ को हिंदी में अनुवाद किया जाए तो यह क्रांतिकारी आतंकवाद कहलाता है. क्या कहना है इतिहासकारों का। पश्चिम बंगाल सरकार के इस कदम की देश के प्रमुख इतिहासकारों ने घोर भत्र्सना की है। इतिहासकारों के अनुसार यह तथ्य ब्रिटिश शासन के हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के प्रति रवैए को मान्यता देता है. गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन ने हिंदुस्तानी देशभक्तों को आतंकवादी कहा था. इसके साथ ही इतिहासकारों ने कहा है कि अगर खुदीराम बोस एक क्रांतिकारी आतंकवादी हैं तो राज्य सरकार सुभाषचंद्र बोस को सरकार किस शब्द से पुकारेंगे? इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को पाठ्यपुस्तकों में शब्दों का चुनाव काफी देख समझ कर करना चाहिए. यहां पर यह बात भी देखने लायक है कि ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के 10 महीने के अंदर ही हायर सेकेंडरी एजुकेशन के पाठच्यक्रम से कार्ल मार्क्‍स से संबंधित पाठ हटवा दिए थे। समझ में नहीं आता कि बात-बात पर ब्रेंकिंग न्यूज देने वाला  मीडिया इस बात को क्यों नही उठाता? इन विकृत तथ्यों का विरोध होना चाहिए। जन आंदोलन होने चाहिए, तभी हमारी भावी पीढ़ी बच पाएगी। अभी गुजरात की 42 हजार शालाओं में दीनानाथ बत्रा की 7 पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। जब इन किताबों की खरीदी हुई, तो कई लोगों को झटका लगा। वे यह प्रचार करने लगे कि यदि विद्यार्थियों ने इन किताबों को पढ़ा, तो वे अंधश्रद्धा और वहम के कायल हो जाएंगे। वास्तविकता यह है कि दीनानाथ बत्रा की किताबें भारतीय संस्कृति कितनी भव्य और महान है, बच्चे इसे पढ़कर अपने जीवन में किस तरह का बोधपाठ ले सकते हैं, इसका वर्णन बहुत ही सरल भाषा में किया गया है।
1947 में जब देश आजाद हुआ, तब से लेकर अब तक शालाओं में अंग्रेजों और उनके चमचों द्वारा तैयार किया गया इतिहास ही पढ़ाया गया है। यह इतिहास अनेक विकृतियों से भरा पड़ा है। कई बार पाठ्यपुस्तकों के गलत और विकृत तथ्य हमारे सामने आते हैं, पर कुछ दिनों बाद सब कुछ भूला दिया जाता है। आखिर इस दिशा में मीडिया सचेत क्यों नहीं होता। यह भी एक तरह का अपराध ही है, जो बच्चों में देश के प्रति नफरत  के बीज बो रहा है। यह सब कुछ एक सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। इस पर अंकुश आवश्यक है। अन्यथा संभव है बच्चों के मन में बचपन से ही देश के प्रति दुराग्रह फैल जाए और वह अपनी मातृभूमि को ही हर बात पर कोसने लगे?
डॉ. महेश परिमल

नई ऊर्जा और सोच से लबालब आज के युवा

पिछले कुछ महीनों से देश की प्रगति में जिस तरह से बदलाव आया है, उसे देखकर लगता है कि समय ने एक नई करवट ली है। हरियाणा-महाराष्ट्र में हाल ही में हुए चुनाव का प्रतिशत बढ़ा है। अब लोग अपने मताधिकार को लेकर भी सचेत होने लगे हैं। पेट्रोल के दाम कम हुए हैं, डीजल के दाम कम होने वाले हैं। महंगाई दर पिछले 5 वर्षो में सबसे नीचे है। लोगों को ऐसा लग रहा है कि अब निश्चित रूप से अच्छे दिन आने वाले हैं। ऐसी सोच रखने वाले आज के युवा भी कुछ नए संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। देश का भविष्य युवाओं के हाथों में है। युवा देश की दिशा और दशा बदलने में सक्षम हैं।
बातें जब युवा की हो, तो सबसे पहले सवाल यह सामने आता है कि युवा माना किसे जाए। उम्र से या अनुभव है। मेरी दृष्टि में युवा वे हैं, जो युवा सोच रखते हैं। एक शतायु बुजुर्ग भी यदि बाधा दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त करते हैं, तो उन्हें युवा कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। इसलिए युवा देश का भविष्य तभी बदल सकते हैं, जब उनके पास नई सोच, नई ऊर्जा और नए विचार हों। इसे साबित करने के लिए उनमें एक जुनून भी हो, तभी उनकी सोच काम कर पाएगी। इसलिए परंपरावादी युवाओं के पास अपने निजी विचार नहीं होते। युवा का आशय यह भी है कि निरंतर नई ऊर्जा के साथ कुछ नया सोचते रहना। उनके आइडिया यदि किसी का जीवन बदल सकते हैं, तो इसे युवा शक्ति की सार्थकता कहा जाएगा। इसलिए जब यह कहा जाता है कि क्या देश की प्रगति या विकास में भारत के युवाओं के बढ़ते चरण कारगर साबित होंगे, तो इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि जी हाँ आज के युवाओं में वह बात है, जो देश को कुछ नया दे सकते हैं। आज देश के शीर्ष पदों को सुशोभित करने वाले लोग युवा सोच रखते हैं। चाहे वह मुकेश अंबानी हो, अनिल अंबानी हों, या फिर रतन टाटा, यह सूची काफी लम्बी हो सकती है। पर यक सभी युवा सोच के साथ ही आगे बढ़ रहे हैं।
हमारा देश युवा सोच रखने वालों का देश है। देश का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें युवाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित न किया हो। इसलिए यह कहा जा सकता है कि देश के विकास में हमारे युवा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

शीश न झुकाने की सजा


हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख
शीश न झुकाने की सजा
डॉ. महेश परिमल
कहते हें कि हार इंसान को कुछ न कुछ सबक सिखाती ही है। यदि इंसान अपनी हार से यह सबक सीख ले कि अब यह गलती नहीं दोहरानी है, तो बाकी के रास्ते आसान हो जाते हैं। इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई, पर कांग्रेस ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। इसके विपरीत वह ऐसी गलतियां करती जा रही है, जिससे यह साबित हो गया है कि उसके भीतर का दंभ अभी गया नहीं है। शशि थरुर से कांग्रेस ने केवल इसलिए प्रवक्ता पद छीन लिया, क्योंकि उन्होंने कुछ मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। शशि को शीश न नवाने की सजा मिली है, यह सभी जानते हैं। पर कांग्रेस इस बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं है, उसने कोई गलती की है। इसके पहले भी कांग्रेस के खिलाफ जिसने भी मुंह खोला, उसे दरकिनार कर दिया गया। अपनी इस गलती का कांग्रेस को अभी यह आभास नहीं है कि उसे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। पर सच तो यही है कि आज व्यक्ति केंद्रित कांग्रेस को यह बताने के लिए भी कोई नहीं बचा कि उसने कब, कहां, कौन सी गलती की है?
हाल ही में हुदहुद ने तमिलनाड़ु में तबाही मचाई। पूरी सतर्कता के बाद भी करीब 30 लोगों की मौत हो गई। टीवी माध्यमों के कारण सभी ने तबाही का लाइव प्रसारण देखा। इस बार हमारे मौसम विभाग की दाद देनी होगी कि उसने हुदहुद को लेकर जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सच साबित हुई। इस बार तो उसने नासा को भी पीछे छोड़ दिया। ठीक इसी तरह शशि थरुर को लेकर पूर्व में जो भी भविष्यवाणी की थी, वह भी सच साबित हुई। सभी कह रहे थे कि शशि को शीश न झुकाने की सजा मिलेगी या फिर मोदी प्रेम उन्हें अपने पद पर नहीं रहने देगा। हुआ भी वही। पत्नी सुनंदा पुष्कर की अकाल मौत के बाद शशि थरुर की दशा ठीक नहीं है। सुनंदा की मौत की फोरेंसिक रिपोर्ट कहती है कि उनकी मौत का कारण जहर है। इससे शशि सामाजिक रूप से बदनाम हो गए हैं। मोदी प्रेम के कारण वे वैसे ही बदनाम थे। दो बदनामी मिलकर एक बड़ी मुसीबत बन गई है। सुनंदा की शंकास्पद मौत के बाद ही कांग्रेस यदि शशि से प्रवक्ता पद छीन लेती तो उचित रहता। पर जैसे कांग्रेस की आदत बन गई है कि तुरंत निर्णय न लेना। पर जब पूरी नाव ही डूबने लगी, तो उसने मल्लाह से ही पतवार छीन ली। देर से लिया गया यह निर्णय कांग्रेस के लिए घाटे का सौदा साबित होगा, क्योंकि कांग्रेस के पास हाजिरजवाब देने वाले प्रवक्ताओं की कमी है। कांग्रेस जिस तरह के युवा चेहरे को सामने लाने का प्रयास कर रही है, उसमें शशि थरुर का नाम सबसे पहले आता है।
यदि इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनती, तो निश्चित रूप से शशि थरुर विदेश मंत्री बनते। शशि से न केवल सोनिया गांधी बल्कि राहुल गांधी भी प्रभावित थे। वे तो उनसे प्रवक्ता पद छीनना ही नहीं चाहते थे, पर मोदी भक्ति उन्हें भारी पड़ी। शशि बुद्धिवादी हैं, यही उनकी खासियत भी है और बुराई भी। कांग्रेस के अन्य प्रवक्ताओं की अपेक्षा वे अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। उनके विचार तर्कसम्मत होते हैं। ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से राजनीति में आगे आते हैं। यूपीए सरकार में जब शशि विदेश राज्य मंत्री थे, तब विदेश मंत्री के रूप में एस.एस. कृष्णा आसीन थे। ये दोनों उस समय सुर्खियों में आए, जब लोगों को पता चला कि इस समय वे जिस फाइव स्टार होटल में रह रहे हैं, उसका दैनिक किराया 20 हजार रुपए है। एक लम्बे विवाद के बाद दोनों को 5 स्टार होटल का रुम छोड़ना पड़ा। पहले दो विवाद कर चुके शशि की तीसरी पत्नी थी सुनंदा पुष्कर। दोनों की जोड़ी एक आदर्श युगल के रूप में देखी जाती थी। अचानक सुनंदा की मौत के बाद उन दोनों के बीच तनाव की बात सामने आ गई। कांग्रेस को शायद यह डर है कि सुनंदा की मौत जहर से हुई, तो इसके बाद शशि की धरपकड़ होगी। इससे कांग्रेस की ही बदनामी होगी, इसलिए उन्हें पहले ही कांग्रेस के प्रवक्ता पद से अलग कर दिया जाए। केवल शशि ही नहीं, बल्कि सुनंदा भी पहले मोदी की प्रशंसा कर चुकी थी। तब कांग्रेसियों ने शशि को घेरे में लिया था। सुनंदा की अचानक मौत से शशि एक बार फिर बदनाम हो गए। शशि का भविष्य इस समय भाजपा के हाथ में है। भाजपा के पास इस समय केरल में ऐसा कोई प्रभावी नेता नहीं है, जो वोट बटोर सके। उसकी नजर शशि पर है। इसलिए शशि पर कांग्रेस की टेढ़ी नजर से भाजपा खुश है। उसने शशि के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं, आज नहीं तो कल शशि को उसी रास्ते से भाजपा में आना ही है।
जब शशि थरुर से प्रवक्ता पद छीना गया, तो उन्होंने इस कदम को सर आंखों में लिया था। परंतु यह भी कहा था कि मुझे स्पष्टीकरण का मौका ही नहीं दिया गया। राजनीति के विशेषज्ञ मानते हैं कि उनके पास खामोश रहने के अलावा और कोई चारा ही नहीं है। जब भी गांधी परिवार किसी से नाराज होता है, तो उस समय खामोश रहने में ही सबकी भलाई होती है। यह शशि भी अच्छी तरह से जानते हें। सुनंदा की मौत का रहस्य अभी तक सुलझा नहीं है। यही रहस्य शशि को उलझन में डाल रहा है। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस फिर से अपने पांव पर खड़े होना चाहती है। वह संगठन में बदलाव करने वाली है। महाराष्ट्र में यदि वह अच्छा प्रदर्शन करती है, तो उसमें एक नया जोश देखने को मिलेगा। उधर हरियाणा में उसे हुड्डा पर भरोसा है। कांग्रेस हर हालत में थके-हारे कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा भरना चाहती है। पर महराष्ट्र में एनसीपी ने उसका खेल बिगाड़ दिया है। शशि से प्रवक्ता पद छीनकर कांग्रेस यह बताना चाहती है कि वह अभी भी सक्रिय है। उस पर त्वरित कार्रवाई न करने का आरोप लगाया जाता है, जो गलत है। वह यह साबित करना चाहती है कि शशि को सुनंदा के मामले को लेकर नहीं, बल्कि मोदी प्रेम के कारण हटाया है। अब सब कुछ महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के परिणाम पर निर्भर करता है कि कांग्रेस को अब क्या करना है? हमारे देश में आजकल जैसी राजनीति चल रही है, उसमें शशि थरुर जैसे लोगों को इस तरह की प्रतिक्रिया के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

धूम मचाएगी विनोद राय की किताब

डॉ. महेश परिमल
जिन्होंने वाणिज्य विषय का अध्ययन किया है,उन्हें काम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (केग) नाम से अधिक परिचित नहीं होते। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि यह पद कितना पॉवरफुल है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। जिस तरह से टी.एन. शेषन के चुनाव आयुक्त बनने पर लोगों ने जाना कि देश में चुनाव आयोग भी कोई सत्ता होती है, जिसके पास अपरिमित सत्ता होती है। ठीक उसी तरह केग को भी लोगों ने 2008 में ही जाना। देश को तब पता चला कि इस देश में पिछले 150 साल से ऐसी भी कोई संस्था है, जिससे सरकार भी डरती है।  वाणिज्य विषय पढ़ने वाले छात्रों को भी इसके बारे में कम ही जानकारी होती है। पूरा काम एक ही र्ढे पर चल रहा था। सन् 2008 में जब नए केग प्रमुख की नियुक्ति की जानी थी, तब केंद्र सरकार में अपना दबदबा रखने वाले वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने अपने सेक्रेटरी के रूप में असाधारण क्षमता वाले विनोद राय को केग बनाने की सलाह दी, तो सरकार ने इसके लिए स्वीकृति भी दे दी। बस उसके बाद विनोद राय ने अपने कामों से बता दिया कि केग को बंदर समझकर सरकार उसे नचा नहीं सकती। केग के अधिकार इतने व्यापक हैं कि वह सरकार को भी हिला सकती है।
केग प्रमुख के रूप में सुप्रीम कोर्ट के जज के समकक्ष अधिकार रखने वाले इस अत्यंत महत्वपूर्ण पद के लिए सरकार अपने ही किसी खास वफादार अधिकारी को ही नियुक्त करती आई है। वित्त मंत्री के रूप में चिदम्बरम जब कभी परेशानी में होते, विनोद राय उनके तारणहार बन जाते। परिणामस्वरूप जब विनोद राय की नियुक्ति केग प्रमुख के रूप में की गई, तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब हुआ, जब विनोद राय ने ऐसे फैसले लिए, जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि वे सत्ता की बागडोर से नहीं, बल्कि संविधान से बंधे हुए हैं। केग में आकर राय ने इतिहास ही बदल दिया। उन्होंने यह तय किया कि सत्तारूढ़ दल का पिछलग्गू बनने से अच्छा है कि संविधान के प्रति निष्ठावान रहो। इसलिए इसे ही गाइडलाइन मानकर उन्होंने अपना काम शुरू किया। अब तक इस पद पर जो कोई भी होता, उसे वॉचडॉग ही समझा जाता था। केग, चुनाव आयोग, विजिलेंस कमिशन आदि संस्थाओं में नियुक्ति सरकार के वॉचडॉग के रूप में ही होती। पर सत्ता पर आते ही सरकार इन वॉचडॉग के गले पर पट्टा पहनाकर अपने पर्सनल डॉग की तरह रखती। 11 वें केग प्रमुख के रूप में आकर विनोद राय ने सबसे पहले कॉमनवेल्थ गेम के घोटाले को सामने लाया। इससे सरकार हिल उठी। इससे विनोद राय को लोग जानने लगे। सरकार को लगा कि नए-नए आए हैं, इसलिए शायद काम करने का उत्साह कुछ ज्यादा ही है। अभी भले ही वे कुछ घोटालों को सामने ला दें, फिर बाद में वही करेंगे, जो सरकार कहेगी। सरकार की इस धारणा को राय ने झूठा साबित कर दिया। इसके कुछ समय बाद अपनी 75 पृष्ठ की रिपोर्ट में 1.75 लाख करोड़ रुपए का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने लाया। इसके बाद तो नरेगा में धांधली, कोल ब्लॉक आवंटन, खाद पर सबसिडी घोटाला, सेना में हथियारों की खरीदी, गैस रिजर्व के आवंटन में पक्षपात आदि घोटाले भी एक के बाद एक सामने आने लगे। हर घोटाला सरकार को किसी झटके से कम नहीं लगता। ऐसे में विनोद राय पर यह आरोप लगाया गया कि वे अपना काम द्वेषपूर्ण तरीके से कर रहे हैं। पर हर कोई जानता था कि सरकार का यह आरोप मनगढंत है। क्योंकि जैसे-जैसे घोटालों की जांच होती गई, सरकार की पोल खुलने लगी। इससे हुआ यह कि सरकार के कुछ मंत्रियों को इस्तीफे देने पड़े और कुछ तिहाड़ जेल की शोभा बन गए।
इतना ही नहीं, अपने पद पर रहते हुए विनोद राय जब विदेश गए, तो वहां अपने भाषण में उन्होंने यह भी जाहिर कर दिया कि सरकार केग को केवल अपना मुनीम बनाकर रखना चाहती है। इस पर सरकार के दो जाँबाज नेता दिग्विजय और मनीष तिवारी ने राय पर यह आरोप लगा दिया कि वे मर्यादा की सीमा लांघ रहे हैं। अपने कार्यकाल के दौरान विनोद राय ने यह विश्वास दिला दिया कि केग भी गलती करने वाली सरकार के कान मरोड़ सकती है। उसके बाद सरकार ने विवादास्पद अधिकारी शशिकांत शर्मा को राय के स्थान पर नियुक्त कर दिया। वे कुछ कर पाते, इसके पहले ही अपने घोटालों के कारण सरकार ही चली गई। अभी तक नई सरकार ने ऐसा कुछ किया ही नहीं है, जिससे शर्मा कुछ कर सकें। उन्हें अभी समय लगेगा। विनोद राय केग प्रमुख नहीं रहे, तो क्या हुआ। अपने केग के अनुभव को संजोकर वे अपनी किताब लेकर आ रहे हैं। नॉट जस्ट अन एकाउंट: द डायरी ऑफ द नेशंस कांसियश कीपर। नाम के अनुरूप किताब से राय यह साबित करना चाहते हैं कि केग सरकारी हिसाब रखने वाली मुनीम जैसी संस्था नहीं है, इसके अलावा भी बहुत कुछ है।
हमें यह याद रखना होगा कि केग के पॉवरफुल होने का कारण विनोद राय ही थे। केग की स्थापना हुई, तब से उसके पास जो अधिकार हैं, उसमें किसी प्रकार की बढ़ोत्तरी विनोद राय के कार्यकाल में नहीं हुई। परंतु राय के पहले तो अधिकांश केग अधिकारी सरकार के इशारे पर ही चलते आए थे। इसी कारण अपरिमित सत्ता होने के बाद भी केग का असरकारक उपयोग नहीं हुआ। राय ने सारे कानूनी प्रावधानों का सही रूप में इस्तेमाल किया, इससे लोगों को केग की असली क्षमता के दर्शन हुए। पुस्तक तो अब बाजार में आएगी, परंतु मार्केटिंग के रूप में किताब के कुछ चटपटे प्रकरण जाहिर कर दिए गए हैं। इन जाहिर प्रकरणों में विनोद राय द्वारा दिए गए साक्षात्कार में यह बताया गया है कि यूपीए सरकार किस तरह से काम करती थी। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होने के बाद भी कोई भी साधारण सा सांसद उन पर दबाव डालता था।
विनोद राय का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में आर्मी से जुड़े परिवार में हुआ। पिता सेना में होने के कारण घर में सदैव अनुशासन दिखाई देता, यही अनुशासन विनोद राय के काम में दिखाई देने लगा। पिता का तबादला होते रहता, इसलिए राय की पढ़ाई कई स्थानों में हुई। जब वे स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे, तो एक समय ऐसा भी था, जब गर्मी की छुट्टियों में बोर्डिग स्कूल खाली हो जाता, पर वे अकेले ही वहां अपना खाना स्वयं बनाकर रहते थे। स्कूल में वे क्रिकेट टीम के केप्टन थे और सबसे अधिक अनुशासित विद्यार्थी के रूप में उनकी गिनती होती। नागरिकों की सम्पत्ति का हिसाब किस तरह से रखा जाए, यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विनोद राय से सीखना पड़ा। पर राय दिल्ली में मनमोहन सिंह के विद्यार्थी भी रह चुके हैं। राय दिल्ली यूनिवर्सिटी की दिल्ली स्कूल ऑफ इकानामिक्स में पढ़ते थे, तब अर्थशास्त्र के अध्यापक के रूप में मनमोहन सिंह उन्हें पढ़ाते थे। 1972 में आईएएस हुए,तब उनके सहपाठी रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर सुब्बाराव सहित कई अधिकारी थे। राय की पहली पोस्टिंग भी सुदूर नागालैंड में हुई थी। वे जब वहां पदस्थ थे, तब नक्सलियों ने नागालैंड के कलेक्टर की हत्या कर उनकी लाश ऐसे स्थान पर फेंक दी थी, जहां जाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। पर राय ने अकेले ही वहां जाकर कलेक्टर की लाश को लेकर आए। लाश लाने के लिए जाते समय उनके ड्राइवर ने भी जाने से मना कर दिया था। 1990 में उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद गीता नामक एक विधवा से उन्होंने दूसरी शादी की। कुछ समय बाद उसका भी देहांत हो गया। टेनिस खेलने का शौक रखने वाले विनोद राय को जब अवकाश मिलता है, तो वे पोलो या फिर क्रिकेट देखना पसंद करते हैं। पर्वतारोहण उनका शौक है। पर केग प्रमुख होने के दौरान उन्होंने पर्वतों की चढ़ाई नहीं की, बल्कि सरकार को ही गिराने में अहम भूमिका निभाई। भारत सरकार के ऑडिटर होने के अलावा वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की अंतरराष्ट्रीय ऑडिटरों की समिति के चेयरमेन भी थे। उनकी यह किताब की प्रतीक्षा भारत के अलावा संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारियों को भी है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

महँगी पड़ती ऑनलाइन शॉपिंग

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


 हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

यहॉं लोग मरने जाते हैं


 

21 सितम्‍बर 2014 के दैनिक भास्‍कर के रविवारीय अंक रसरंग के पेज चार पर प्रकाशित मेरा आलेख

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