गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

धूम मचाएगी विनोद राय की किताब

डॉ. महेश परिमल
जिन्होंने वाणिज्य विषय का अध्ययन किया है,उन्हें काम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (केग) नाम से अधिक परिचित नहीं होते। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि यह पद कितना पॉवरफुल है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। जिस तरह से टी.एन. शेषन के चुनाव आयुक्त बनने पर लोगों ने जाना कि देश में चुनाव आयोग भी कोई सत्ता होती है, जिसके पास अपरिमित सत्ता होती है। ठीक उसी तरह केग को भी लोगों ने 2008 में ही जाना। देश को तब पता चला कि इस देश में पिछले 150 साल से ऐसी भी कोई संस्था है, जिससे सरकार भी डरती है।  वाणिज्य विषय पढ़ने वाले छात्रों को भी इसके बारे में कम ही जानकारी होती है। पूरा काम एक ही र्ढे पर चल रहा था। सन् 2008 में जब नए केग प्रमुख की नियुक्ति की जानी थी, तब केंद्र सरकार में अपना दबदबा रखने वाले वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने अपने सेक्रेटरी के रूप में असाधारण क्षमता वाले विनोद राय को केग बनाने की सलाह दी, तो सरकार ने इसके लिए स्वीकृति भी दे दी। बस उसके बाद विनोद राय ने अपने कामों से बता दिया कि केग को बंदर समझकर सरकार उसे नचा नहीं सकती। केग के अधिकार इतने व्यापक हैं कि वह सरकार को भी हिला सकती है।
केग प्रमुख के रूप में सुप्रीम कोर्ट के जज के समकक्ष अधिकार रखने वाले इस अत्यंत महत्वपूर्ण पद के लिए सरकार अपने ही किसी खास वफादार अधिकारी को ही नियुक्त करती आई है। वित्त मंत्री के रूप में चिदम्बरम जब कभी परेशानी में होते, विनोद राय उनके तारणहार बन जाते। परिणामस्वरूप जब विनोद राय की नियुक्ति केग प्रमुख के रूप में की गई, तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब हुआ, जब विनोद राय ने ऐसे फैसले लिए, जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि वे सत्ता की बागडोर से नहीं, बल्कि संविधान से बंधे हुए हैं। केग में आकर राय ने इतिहास ही बदल दिया। उन्होंने यह तय किया कि सत्तारूढ़ दल का पिछलग्गू बनने से अच्छा है कि संविधान के प्रति निष्ठावान रहो। इसलिए इसे ही गाइडलाइन मानकर उन्होंने अपना काम शुरू किया। अब तक इस पद पर जो कोई भी होता, उसे वॉचडॉग ही समझा जाता था। केग, चुनाव आयोग, विजिलेंस कमिशन आदि संस्थाओं में नियुक्ति सरकार के वॉचडॉग के रूप में ही होती। पर सत्ता पर आते ही सरकार इन वॉचडॉग के गले पर पट्टा पहनाकर अपने पर्सनल डॉग की तरह रखती। 11 वें केग प्रमुख के रूप में आकर विनोद राय ने सबसे पहले कॉमनवेल्थ गेम के घोटाले को सामने लाया। इससे सरकार हिल उठी। इससे विनोद राय को लोग जानने लगे। सरकार को लगा कि नए-नए आए हैं, इसलिए शायद काम करने का उत्साह कुछ ज्यादा ही है। अभी भले ही वे कुछ घोटालों को सामने ला दें, फिर बाद में वही करेंगे, जो सरकार कहेगी। सरकार की इस धारणा को राय ने झूठा साबित कर दिया। इसके कुछ समय बाद अपनी 75 पृष्ठ की रिपोर्ट में 1.75 लाख करोड़ रुपए का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने लाया। इसके बाद तो नरेगा में धांधली, कोल ब्लॉक आवंटन, खाद पर सबसिडी घोटाला, सेना में हथियारों की खरीदी, गैस रिजर्व के आवंटन में पक्षपात आदि घोटाले भी एक के बाद एक सामने आने लगे। हर घोटाला सरकार को किसी झटके से कम नहीं लगता। ऐसे में विनोद राय पर यह आरोप लगाया गया कि वे अपना काम द्वेषपूर्ण तरीके से कर रहे हैं। पर हर कोई जानता था कि सरकार का यह आरोप मनगढंत है। क्योंकि जैसे-जैसे घोटालों की जांच होती गई, सरकार की पोल खुलने लगी। इससे हुआ यह कि सरकार के कुछ मंत्रियों को इस्तीफे देने पड़े और कुछ तिहाड़ जेल की शोभा बन गए।
इतना ही नहीं, अपने पद पर रहते हुए विनोद राय जब विदेश गए, तो वहां अपने भाषण में उन्होंने यह भी जाहिर कर दिया कि सरकार केग को केवल अपना मुनीम बनाकर रखना चाहती है। इस पर सरकार के दो जाँबाज नेता दिग्विजय और मनीष तिवारी ने राय पर यह आरोप लगा दिया कि वे मर्यादा की सीमा लांघ रहे हैं। अपने कार्यकाल के दौरान विनोद राय ने यह विश्वास दिला दिया कि केग भी गलती करने वाली सरकार के कान मरोड़ सकती है। उसके बाद सरकार ने विवादास्पद अधिकारी शशिकांत शर्मा को राय के स्थान पर नियुक्त कर दिया। वे कुछ कर पाते, इसके पहले ही अपने घोटालों के कारण सरकार ही चली गई। अभी तक नई सरकार ने ऐसा कुछ किया ही नहीं है, जिससे शर्मा कुछ कर सकें। उन्हें अभी समय लगेगा। विनोद राय केग प्रमुख नहीं रहे, तो क्या हुआ। अपने केग के अनुभव को संजोकर वे अपनी किताब लेकर आ रहे हैं। नॉट जस्ट अन एकाउंट: द डायरी ऑफ द नेशंस कांसियश कीपर। नाम के अनुरूप किताब से राय यह साबित करना चाहते हैं कि केग सरकारी हिसाब रखने वाली मुनीम जैसी संस्था नहीं है, इसके अलावा भी बहुत कुछ है।
हमें यह याद रखना होगा कि केग के पॉवरफुल होने का कारण विनोद राय ही थे। केग की स्थापना हुई, तब से उसके पास जो अधिकार हैं, उसमें किसी प्रकार की बढ़ोत्तरी विनोद राय के कार्यकाल में नहीं हुई। परंतु राय के पहले तो अधिकांश केग अधिकारी सरकार के इशारे पर ही चलते आए थे। इसी कारण अपरिमित सत्ता होने के बाद भी केग का असरकारक उपयोग नहीं हुआ। राय ने सारे कानूनी प्रावधानों का सही रूप में इस्तेमाल किया, इससे लोगों को केग की असली क्षमता के दर्शन हुए। पुस्तक तो अब बाजार में आएगी, परंतु मार्केटिंग के रूप में किताब के कुछ चटपटे प्रकरण जाहिर कर दिए गए हैं। इन जाहिर प्रकरणों में विनोद राय द्वारा दिए गए साक्षात्कार में यह बताया गया है कि यूपीए सरकार किस तरह से काम करती थी। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होने के बाद भी कोई भी साधारण सा सांसद उन पर दबाव डालता था।
विनोद राय का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में आर्मी से जुड़े परिवार में हुआ। पिता सेना में होने के कारण घर में सदैव अनुशासन दिखाई देता, यही अनुशासन विनोद राय के काम में दिखाई देने लगा। पिता का तबादला होते रहता, इसलिए राय की पढ़ाई कई स्थानों में हुई। जब वे स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे, तो एक समय ऐसा भी था, जब गर्मी की छुट्टियों में बोर्डिग स्कूल खाली हो जाता, पर वे अकेले ही वहां अपना खाना स्वयं बनाकर रहते थे। स्कूल में वे क्रिकेट टीम के केप्टन थे और सबसे अधिक अनुशासित विद्यार्थी के रूप में उनकी गिनती होती। नागरिकों की सम्पत्ति का हिसाब किस तरह से रखा जाए, यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विनोद राय से सीखना पड़ा। पर राय दिल्ली में मनमोहन सिंह के विद्यार्थी भी रह चुके हैं। राय दिल्ली यूनिवर्सिटी की दिल्ली स्कूल ऑफ इकानामिक्स में पढ़ते थे, तब अर्थशास्त्र के अध्यापक के रूप में मनमोहन सिंह उन्हें पढ़ाते थे। 1972 में आईएएस हुए,तब उनके सहपाठी रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर सुब्बाराव सहित कई अधिकारी थे। राय की पहली पोस्टिंग भी सुदूर नागालैंड में हुई थी। वे जब वहां पदस्थ थे, तब नक्सलियों ने नागालैंड के कलेक्टर की हत्या कर उनकी लाश ऐसे स्थान पर फेंक दी थी, जहां जाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। पर राय ने अकेले ही वहां जाकर कलेक्टर की लाश को लेकर आए। लाश लाने के लिए जाते समय उनके ड्राइवर ने भी जाने से मना कर दिया था। 1990 में उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद गीता नामक एक विधवा से उन्होंने दूसरी शादी की। कुछ समय बाद उसका भी देहांत हो गया। टेनिस खेलने का शौक रखने वाले विनोद राय को जब अवकाश मिलता है, तो वे पोलो या फिर क्रिकेट देखना पसंद करते हैं। पर्वतारोहण उनका शौक है। पर केग प्रमुख होने के दौरान उन्होंने पर्वतों की चढ़ाई नहीं की, बल्कि सरकार को ही गिराने में अहम भूमिका निभाई। भारत सरकार के ऑडिटर होने के अलावा वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की अंतरराष्ट्रीय ऑडिटरों की समिति के चेयरमेन भी थे। उनकी यह किताब की प्रतीक्षा भारत के अलावा संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारियों को भी है।
डॉ. महेश परिमल

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