शनिवार, 28 मार्च 2009

अतिथि भिक्षुक भव:


डॉ. महेश परिमल
शीर्षक निश्चित रूप से आपको चौंका सकता है। पर सच यही है कि आज अतिथि हमारे लिए चाहे कुछ और हो, पर देवता तो है ही नहीं। उसकी स्थिति किसी भिखारी से कम नहीं होती। आप कहेंगे, ये भी कोई बात हुई। अतिथि भला हमारे लिए भिखारी कैसे हो सकता है? हमारे देश की यह परंपरा है कि अतिथि को देवता की तरह पूजना चाहिए। इसे एक जुमला ही कहा जाएगा, क्योंकि आज अतिथि किसी परेशानी से कम नहीं है। पर यहाँ तो बात ही दूसरी है। शादी का मौसम आ गया है। लोगों का अतिथियों से सामना होने लगा है। कई लोग अतिथियों से परेशान भी हो जाते होंगे। पर कई लोग ऐसे भी हैं, जिनके हृदय में अतिथियों के लिए सम्मान होने के बाद भी आधुनिक परंपराओं से इतने जकड़े हुए हैं कि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। इसके लिए आपको वह घटना अवश्य बतानी पड़ेगी, जिसमें एक पत्र पाते ही एक मित्र के पैरों तले जमीन खिसक गई। हुआ यूँ कि बेटी की शादी की तैयारियाँ पूरे जोर-शोर के साथ चल रही थी। बेटी का पिता भी खुशी-खुशी सारे काम-काज देख रहा था। अचानक उसके हाथ में एक व्यक्ति एक कोरियर पत्र दे गया। पत्र देखकर वह बहुत ही खुश हुआ। ये तो मेरे बचपन के दोस्त का पत्र है। देखें, क्या लिख रहा है? आएगा तो अवश्य, पर शादी से पहले पत्र की आवश्यकता क्यों पड़ी? इन जिज्ञासाओं के साथ उसने पत्र खोला। पढ़ा और निढाल होकर पास ही एक कुर्सी पर बैठ गया। लोग चिंतित हो गए। भाग-दौड़ थम गई। लोग दौड़े-दौड़े आए, आखिर क्या हो गया? बेटी भी दौड़ती चली आई। उसने पिता को देखा। उनका चेहरा एकदम ही निस्तेज हो गया था। अवश्य ही कोई बुरी खबर आई है। पिता को पानी पिलाकर सांत्वना देने की कोशिश की गई। जिज्ञासावश बेटी ने पिता के हाथ में रखा पत्र पढ़ लिया, जो इस प्रकार था-
''तुम्हारी बेटी, नहीं, मेरी बेटी की शादी है, आऊँगा अवश्य आऊँगा। ऐसा कभी हो भी सकता है, भला मैं अपने परिवार के साथ न आऊँ। पर मेरे भाई, अगर तुमने शादी में बुफे सिस्टम रखा है, तो हमें माफ करना, क्योंकि भिखारी की तरह कतार में खड़े होकर भोजन करना हम इंसानों को शोभा नहीं देता। इस तरह से तुम हमारा सम्मान नहीं, अपमान ही करोगे। तुम मुझे सबके सामने दो थप्पड़ मार दोगे, तो इसे मैं तुम्हारा प्यार समझूँगा, पर लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करना मुझे ही नहीं, मेरे परिवार वालों को भी गवारा नहीं है, इसलिए क्षमा करना भाई, हम नहीं आ सकते।''
एक-एक करके सभी ने पत्र पढ़ा। सभी के चेहरे की हवाइयाँ उड़ी हुई थी। बात गलत तो नहीं थी, पर उस पर अमल कैसे किया जाए? अब तो सब-कुछ हो चुका है। बुफे तो होना ही है। आखिर ऐसा क्या है, इस सिस्टम में, जिस पर आज हम चर्चा करेंगे। ारा याद कर लो, किसी भी पार्टी का वह दृश्य। दूल्हा-दुल्हन एक बड़े से हॉल में सजे-धजे सबको अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं। लोग आ रहे हैं, फिर वहाँ पहुँचने लगे हैं, जहाँ भोजन की व्यवस्था है। छोटी-सी जगह, क्षमता से अधिक लोग। लखपति ही नहीं, करोड़पति भी एक प्लेट लिए कतार में खड़ा है। कई जगह तो मारा-मारी की स्थिति है। लोग टूट पड़े हैं। बच्चों और बुजुर्गों के लिए कोई अलग से व्यवस्था नहीं। वे भी खड़े-खड़े भोजन कर रहे हैं। कुर्सियों की संख्या अपेक्षाकृत कम। कुल मिलाकर अफरा-तफरी का दृश्य। जिसमें कोई संतुष्ट नहीं है। सभी इसे व्यवस्था को दोष दे रहे हैं और भोजन कर रहे हैं। क्या इसे गिद्ध भोज की संज्ञा नहीं दी जा सकती? जो बलशाली है, वह भरपेट भोजन कर पाएगा। आपने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा कि पहली बार जब हम भोजन लेते हैं, तब सीधे हाथ से लेते हैं, पर दूसरी बार सारी सामग्री बाएँ हाथ से लेते हैं। क्या यह हमारी सभ्यता है?
मेरी बात कुछ-कुछ समझ में आ रही होगी। आपको बता दूँ कि बुफे डीनर के जन्म के पीछे मूलरूप से मानव की लोभवृत्ति है। यजमान चाहता है कि यहाँ आकर लोग कम खाएँ और बातें अधिक करें। मेहमान कम खाएँ, क्या यह भारतीय परंपरा है? संस्कार यजमान चाहता है कि मेरे यहाँ जो भी मेहमान आए, वह भोजन से पूरी तरह से तृप्त होकर जाए। इसके पीछै यही भावना है कि पहले हमारी यहाँ अतिथि को भोजन के लिए काफी मनुहार की जाती थी। लोग आग्रह कर-करके भोजन कराते थे। इसके पीछे उनकी भावना गलत नहीं थी। जिन्हें याद होगा, वे ये भी याद कर लें, कि भोजन के दौरान किस तरह से घर के बड़े-बुजुर्ग आकर मनुहार करते थे और पूछते थे कि भोजन कैसा बना है? कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई है? कितना अच्छा लगता था। अब इस बुफे डिनर में कहीं दिखती है मनुहार? किसने भोजन ग्रहण किया, किसने नहीं, इसकी जानकारी तो यजमान को कतई नहीं होती। वे तो केवल आवभगत में ही लगे रहते हैं। केटरिंग वाले को ठेका दे दिया है, वही देखेगा?
क्या घर में किसी मेहमान के आने पर हम उसे कहते हैं कि किचन में सब-कुछ रखा है, टेबल पर प्लेट पड़ी है, आपको जो अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लें। कोई भी स्वाभिमानी अतिथि इस तरह के व्यवहार को अपना अपमान ही समझेगा। इस तरह से बुफे डिनर में तो अतिथि का इससे भी अधिक अपमान होता है, इस पर कभी ध्यान दिया किसी ने? अपने बचपन के मित्र को भोजन के लिए लाइन पर खड़ा होते देखना किसे अच्छा लगता है? इस पर भला किसी ने सोचा? बुफे डिनर लेना हमारी संस्कृति में तो किसी तरह फीट नहीं बैठता। इससे चिकित्सा शास्त्र और धर्म के कितने नियम भंग होते हैं, इस पर किसी ने विचार किया? आर्य संस्कृति के अनुसार खड़े-खड़े तो भोजन कतई नहीं किया जाना चाहिए, खड़े-खड़े तो पशु ही भोजन करते हैं। चिकित्सा शास्त्र का मानना है कि आहार ग्रहण करने का श्रेष्ठ आसन पालथी मारकर बैठना ही सुखासन है। टेबल-कुर्सी पर बैठकर भोजन करने से वह ठीक से पचता नहीं है। इन हालात में जिन्हें हमने अपने यहाँ भोजन के लिए बुलाया है,उन्हें खड़े-खड़े भोजन कराकर हम उसकी अवहेलना ही तो कर रहे हैं। इस तरह की अवहेलना अब एक परंपरा का रूप ले चुकी है। इसका विरोध करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है।
आयुर्वेद कहता है कि भोजन के बाद पानी पीना ही नहीं चाहिए। उसे विष माना गया है। बुफे डिनर या लंच में भोजन के अंत में ही पानी मिलता है, तो क्या हम अतिथि को विष नहीं दे रहे हैं? जैन धर्म के अनुसार थाली धोकर वह पानी पी लेना चाहिए, ताकि जीव हिंसा के पाप से बचा जा सके। बुफे में जब थाली ही नहीं, तो फिर कैसा पाप? इस सिस्टम में यजमान की यह इच्छा ही नहीं होती कि मेहमान अधिक से अधिक भोजन ग्रहण करें। उसकी तो यही इच्छा होती है कि मेहमान कम से कम खाए। जब इस सिस्टम की जड़ों में ही कंजूसी है, तो फिर काहे का मेहमानवाजी। बंद करो ये ढकोसले! वैसे इस परंपरा को खत्म होने में काफी समय लगेगा। क्योंकि इस में लिप्त होकर जो यहाँ आकर एक बार भिखारी बन गया, वह चाहता है कि जिसने उसे भिखारी बनाया, आखिर वह भी तो कभी भिखारी बने। इसलिए वह भी अपने यहाँ बूफे डिनर की व्यवस्था करता है और शान से देखता है अपने यहाँ आए लोगों को, जिन्हें उसने भिखारी बनाया। बदले की परंपरा के कारण यह सब चल रहा है। आवश्यकता है ठोस कदमों की, जो इंसान के भीतर से उठें।
मुझे यह समझ में नहीं आता कि स्कूल के डोनेशन के खिलाफ एक होने वाले पालक इस बुफे डिनर के नाम पर एक क्यों नहीं हो पाते? इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते। क्यों नहीं, शादी से पहले यजमान को पत्र लिखते कि हमारा यदि सम्मान करने की दिल से इच्छा हो, तो बुफे लंच या डिनर मत रखना। अन्यथा हम नहीं आएँगे। कोई एक तो शुरुआत करे, फिर देखो, एक गलत परंपरा किस तरह से दम तोड़ती है? संभव है फिर हम नीचे पालथी मारकर बैठे हो, हमारे सामने एक चौकी पर बड़ी थाल पर विभिन्न भोय सामग्री रखी हो और मनुहार के साथ घर के बड़े-बुजुर्ग हमें प्यार से भोजन करा रहे हों, हम तृप्त होकर वहाँ से उठ रहे हों। क्या इस तरह का दृश्य हमारी आज की पीढ़ी देख पाएगी भला?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

हाशिए पर पहुंँचे देश के तीन महान नेता


डॉ. महेश परिमल
आज राजनीति का परिदृश्य बदल गया है। नेताओं ने समय के साथ चलना शुरू कर दिया है। अब तो वे भी कंप्यूटर और लेपटॉप की बात करने लगे हैं। वे यह अच्छी तरह से समझते हैं कि यदि आज की पीढ़ी को लुभाना है, तो नई तकनीकों का सहारा लेना ही होगा। इसके बाद भी यह तय नहीं है कि उनकी छबि साफ और शफ्फाक होगी। अब राजनीति भी एक मुश्किल राह हो गई है। न जाने कब कौन कहाँ हाशिए पर चला जाए, कहा नहीं जा सकता। राजनीति किसी को रिटायर नहीं करती, पर लोग कब इससे दूर चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता। कभी अपने कांधों पर पूरा देश उठाने वाले आज स्वयं अपने पैरों से चल भी नहीं पा रहे हैं। दो कदम चलने के लिए उन्हें लोगों के सहारे की जरूरत पड़ने लगी है।
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यहाँ उन तीन नेताओं का जिक्र जरूरी है, जो इन दिनों हाशिए पर हैं। इन्हें सुनने के लिए लोग घंटों खड़े रहते थे। उनकी बातें ध्यान से सुनते थे और उस पर विचार भी करते थे। इनमें से एक ने प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया है, दूसरे ने प्रधानमंत्री पद ठुकराया है और तीसरे प्रधानमंत्री पद तक तो नहीं पहुँच पाए,पर रक्षा मंत्री के पद को अवश्य सुशोभित किया। इनके नाम हैं अटल बिहारी वाजपेयी, योति बसु और जार्ज फर्नाण्डीस। अटल जी की हालत हाल ही में एक बार फिर बिगड़ गई थी, वे अब स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। योति बसु भी एकदम निष्क्रिय हैं। जार्ज फर्नाण्डीस भी अशक्त हो गए हैं। बिना सहारे उनसे चला भी नहीं जा रहा है। एक समय ऐसा भी था, जब इनमें अद्भुत कार्य क्षमता थी। इनके काम करने की क्षमता से कई युवा नेता भी हतप्रभ रह जाते थे। इनकी इमेज इतनी साफ-सुथरी थी कि पूरी पार्टी को अपने कांधों पर लेकर चलते थे। इनके भाषण इतने ओजस्वी हुआ करते थे कि सत्तारूढ़ दल की हालत पतली हो जाती थी। जहाँ भी अटल जी की सभा होती, निश्चित रूप से वह कांग्रेस का वोट खींच लाने का काम करती। इसीलिए अटल जी की सभा के बाद कई दिग्गज नेता वहाँ पहुँचते और उन्हें तमाम दलीलों को झूठा साबित करने की पुरजोर कोशिश करते। जार्ज फर्नाण्डीस की एक आवाज से उद्योगपति ढीले पड़ जाते। योति बसु की पश्चिम बंगाल में ऐसी धाक थी कि भाजपा या कांग्रेस को एंट्री ही नहीं मिल पाती। वामपंथियों की सबसे बड़ी ताकत पश्चिम बंगाल में ही थी। ये तीनोें प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करें, ऐसे पक्के राजनीतिज्ञ थे। इन तीनों ने धन से अधिक महत्व राष्ट्रहित को दिया। अपने सिद्धांतों के कारण कई बार इन्होंने सत्ता के सिंहासन को लात मारी है।
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जब केंद्र में जनता दल का शासन था, तब ऐसे समीकरण बने थे कि योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के काफी करीब हो गए थे। सब कुछ तय हो गया था, जब योति बसु ने पार्टी से पूछा तो पार्टी के सदस्यों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार करने को कहा। योति बसु ने बिना किसी देर के प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया और पार्टी के निर्णय को सर्वोपरि बताया। ऐसा ही कुछ जार्ज फर्नाण्डीस के मामले में भी हुआ, प्रतिपक्षी दल एक हुए, तो उनके सामने एक ही प्रश्न था कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? तब सभी ने उस समय के 'हाट केक' जार्ज फर्नाण्डीस का नाम सामने किया। जार्ज का नेटवर्क इतना बड़ा था कि कोई नेता उनकी बराबरी में नहीं आता था। जब जार्ज का नाम प्रधानमंत्री पद की दौड में आगे आया, तो दूसरे ही दिन उन्होंने पत्रकार वार्ता में कहा ''आई एम नाट इन द रेश'', दूसरे दिन कई अखबारों की यह हेडलाइंस थी ''आई एम नाट इन द रेश''। वाजपेयी सरकार के समय जार्ज रक्षा मंत्री बने थे। खादी का सफेद पायजामा, बिना इस्तरी का कुरता, खींचकर कोहनी तक लाई गई बाँह, काली डंडी का चश्मा और बेतरतीब बाल, यह उनकी खासियत थी। जब वे लेबर यूनियन में सक्रिय थे, तब वे अपने कांधे पर लटकता हुआ झोला रखते थे। अटल जी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार किया और एक स्थिर सरकार भी दी।
यहाँ आश्चर्य की बात यह है कि इन तीनों राजनीतिज्ञों ने राजनीति को फुल टाइम जॉब बनाया था। आज की राजनेता इनके सामने बिलकुल ही बौने नजर आते हैं। इतने अशक्त होने के बाद भी जार्ज बिहार में लालू की दाल नहीं गलने देते। लालू ने बिहार में हीरो बनने की काफी कोशिशें की, पर हर बार जार्ज उन पर भारी पड़ जाते हैं। उक्त तीनों राजनीतिज्ञों के पास अनुभवों का खजाना है। यही नहीं उनके सीने में देश के कई रहस्य छिपे हुए हैं। राजनीति के कई उतार-चढ़ाव और धूप-छाँव के दिन इन्होंने देखे हैं। कई बार अपमान सहकर भी इन्होंने अपने सधे कदमों से राजनीति के स्तर को ऊँचा उठाया है। आज ये तीनों राजनेताओं को चलने-फिरने के लिए सहारे की जरूरत पड़ती है। राजनीति की नब्ज को पहचानते हुए अच्छी यह तरह से जानते हैं कि बिना क्षेत्रीय दलों के राजनीति करना मुश्किल है। उनसे बिना जोड़-तोड़ किए देश की राजनीति सही दिशा पर नहीं चल पाएगी। इन तीनों के अनुभवों का लाभ राजनीतिक दल उठाएँ, इससे अच्छी बात कोई और हो ही नहीं सकती। विवादास्पद बयानों से दूर रहकर इन्होंने जो राजनीति की है, वह आज के नेताओं के लिए एक सबक है।
आज कितने नेताओं के लिए ये नेता आदर्श हैं? चुनाव की तलवार लटक रही है, आज नेता रंग और भेष बदलकर अपने मतदाताओं के पास जाने के लिए तैयार हैं, पर कितने नेता ऐसे हैं, जिन्हें अपने मतदाता पर पूरा विश्वास है? कितने नेता हैं, जो ईमानदारी से देश सेवा को अपना सच्चा धर्म समझते हैं? कितने नेता हैं, जिन्होंने अपनी तमाम सम्पत्तियों का ईमानदारी से खुलासा किया है? अरे छोड़ो, एक नेता भी बता दें, जो बिना सुरक्षा के अपने मतदाताओं के सामने पहुँच पाए? इस तरह के कई प्रश्न अनसुलझे हैं, जिसे इस बार चुनाव में हमें सुलझाने हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 23 मार्च 2009

मैं नास्तिक क्यों हूँ


यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है. इस लेख में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है. यहाँ इस लेख का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है.)
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प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी.
प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है.
उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है.
लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी.
यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना.
यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है.
जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.
एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला.
लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ.
मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.
हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.
जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?
कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.
कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.
कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.
नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.
और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?
सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.
एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.
तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?
फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?
मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?
सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है.
ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?
इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?
तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.
मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.
उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.
फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.
कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.
और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.
और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.
तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.
मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.
उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.
लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार.
आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.
केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है.
लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?
तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.
मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.
मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?
क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो.
किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता.
वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.
उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.
मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?
और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?
यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.
जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो.
वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.
मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें.
आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे.
जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं.
चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.
अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं.
वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं.
यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं.
कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो.
सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा. यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.
कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो.
और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है.
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?
जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है.
उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं.
स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?
मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.
अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.
कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.
यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.
राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.
अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.
जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए.
जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.
इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है.
वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.
समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.
इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.
मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.
मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.
मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.
देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.
जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.
स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.
(यह लेख 80 के दशक में राजकमल प्रकाशन ने भी हिंदी में छापा.)

हमारी मार्गदर्शक बन गई उनकी रचनाएं: अमिताभ बच्चन



पिताश्री हरिवंशराय बच्चन की साहित्यिक विरासत को संजोने की दिशा में क्या योजनाएं हैं?
हम तो बहुत कुछ करना चाहते हैं। बहुत से कार्यक्रमों की योजनाएं हैं। बहुत से लोगों से मुलाकात भी की है मैंने। हम चाहते हैं कि एक ऐसी संस्था खुले जहां पर लोग रिसर्च कर सकें। यह संस्था दिल्ली में हो या उत्तर प्रदेश में हो। हमलोग उम्मीद करते हैं कि आने वाले वर्षो में इसे सबके सामने प्रस्तुत कर सकेंगे।
आप उनके साथ कवि सम्मेलनों में जाते थे। आप ने उनके प्रति श्रोताओं के उत्साह को करीब से देखा है। आज आप स्वयं लोकप्रिय अभिनेता हैं। आप के प्रति दर्शकों का उत्साह देखते ही बनता है। दोनों संदर्भो के उत्साहों की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन हम जानना चाहेंगे कि आप इन्हें किस रूप में व्यक्त करेंगे?
सबसे पहले तो पिता के रूप में हमेशा काफी याद किया है। क्योंकि वो अक्सर मुझे अपने साथ ले जाया करते थे। उनका वो रूप भी मैंने देखा है। जिस तरह का उत्साह और जितनी तादाद में लोग रात-रात भर लोग उन्हें सुनते थे, ऐसा तो मैंने इधर कभी देखा नहीं। लेकिन वो जो एक समां बनता था बाबूजी के कवि सम्मेलनों का वो अद्भुत होता था। दिन भर बाबूजी दफ्तर में काम करते थे उसके बाद रात में कहीं कवि सम्मेलन होता था। यह जरूरी नहीं कि हम जिस शहर में थे उसी शहर में कवि सम्मेलन हो। पास के शहरों में भी होता था। कभी गाडी से जाना होता था, कभी ट्रेन से जाना पडता था। रात को जाना वहां, पूरी रात कवि सम्मेलन में पाठ करना। अलस्सुबह वापस आना और फिर काम पर चले जाना, इस तरह का संघर्ष था उनका। उनके साथ कवि सम्मेलन में जो समय बीतता था, वो अद्भुत था।
अपने प्रति दर्शकों का उत्साह और उनके प्रति श्रोताओं के उत्साह के बारे में क्या कहेंगे?
दोनों अलग-अलग हैं। मुझे तो लोग भूल गए हैं। एक-दो साल में पूरी तरह भूल जाएंगे। बाबूजी को तो हजारों साल तक याद रखेंगे, क्योंकि उन्होंने साहित्य रचा है।
क्या कभी आपकी इच्छा होती है कि आप कवि सम्मेलनों या साहित्यिक गोष्ठियों में श्रोता की तरह जाएं या कभी अपने आवास पर ऐसे सम्मेलन या गोष्ठी का आयोजन करें?
कई बार गया हूं मैं और अपने घर पर भी आयोजन किया है।
अपने पिता के समकालीन या मित्र साहित्यकारों में किन व्यक्तियों को आपने करीब से जाना और समझा?
जब हम छोटे थे तो जितने भी उनके करीब थे, उनके साथ हमारा संपर्क रहता था। चाहे वो पंत जी हों या दिनकर जी हों और जितने भी उनके समकालीन थे, सब के साथ काफी भेंट होती थी, मुलाकात रहती थी। फिर सब अलग-अलग दिशाओं में चले गए। हम भी अपने काम में व्यस्त हो गए। ज्यादा संपर्क नहीं रहा.. लेकिन कहीं न कही उनके साथ संपर्क रहा, जब कभी मिलना-जुलना होता तो अच्छी तरह मिले।
सुमित्रानंदन पंत जी ने आपका और आपके भाई का नाम क्रमश: अमिताभ और अजिताभ रखा। क्या पंत जी की कुछ स्मृतियां बांटना चाहेंगे?
पंत जी जब भी इलाहाबाद आते थे तो हमारे घर ही रहते थे। फिर जब हम दिल्ली चले गए। जब भी वो दिल्ली आते थे तो हमारे घर पर ही रहते थे। बहुत ही शांत स्वभाव था उनका उनके लंबे बाल हमेशा याद आते हैं। उस समय तो हम छोटे थे और उनके साथ समय बिताना खाने की मेज पर कुछ साहित्यिक बातों की चर्चा होती थी, जीवन की चर्चा होती थी और एक साहित्यिक वातावरण बना रहता था। वे बहुत ही शांत और साधारण व्यक्ति थे।
बच्चन जी ने आत्मकथा में लिखा है - मेरे मन की नारी मेरे बडे लडके को मिली है उनके इस निरीक्षण को आप कैसे व्यक्त करेंगे?
अब ये तो मैं नहीं बता पाऊंगा। ये उनका दृष्टिकोण था। पता नहीं उनका दृष्टिकोण क्या था, ये मैं नहीं कह सकता हूं। लेकिन मैं केवल इतने में ही खुश हूं कि यदि वो ऐसा सोचते हैं तो मैं अपने-आपको भाग्यशाली समझता हूं। उनके मन में जो भी मेरे प्रति या परिवार के प्रति आशायें थीं यदि मैं उन्हें पूरा कर पाया हूं तो इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं।
उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि अमित को अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए। उनके शब्द हैं, अमित का जीवन अभी भी इतना रोचक, वैविध्यपूर्ण, बहुआयामी और अनुभव समृद्ध है - आगे और भी होने की पूरी संभावना लिए कि अगर उन्होंने कभी लेखनी उठाई तो शायद मेरी भविष्यवाणी मृषा न सिद्ध हो। उन्होंने आप को भेंट की गयी प्रति में लिखा था, प्यारे बेटे अमित को, जो मुझे विश्वास है, जब अपनी आत्मकथा लिखेगा तो लोग मेरी आत्मकथा भूल जाएंगे? पिता की इस भविष्यवाणी को आप सिद्ध करेंगे न?
मुझमें इतनी क्षमता है नहीं कि मैं इसे सिद्ध करूं। उनका ऐसा कहना पुत्र के प्रति उनका बडप्पन है । लेकिन एक तो मैं आत्मकथा लिखने वाला नहीं हूं। और यदि कभी लिखता तो जो बाबूजी ने लिखा है,उसके साथ कभी तुलना हो ही नहीं सकती। क्योंकि बाबूजी ने जो लिखा है, आज लोग ऐसा कहते हैं कि उनका जो गद्य है वो पद्य से ज्यादा बेहतर है। खास तौर से आत्मकथा। उनके साथ अपनी तुलना करना गलत होगा।
ब्लॉग के जरिए आपके प्रशंसक दैनंदिन जीवन के साथ ही आपके दर्शन, विचार और मनोभाव से भी परिचित हो रहे हैं। ब्लॉग में आप के जीवन के अंश बिखरे रूप में आ रहे हैं। क्या हम इसे आपकी आत्मकथा की पूर्वपीठिका मान सकते हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं। आधुनिक काल में ब्लॉग एक ऐसा माध्यम मिल गया है, जिसमें अपने चाहने वालों से अपने प्रशंसकों के साथ मैं व्यक्तिगत रूप से वार्तालाप कर सकूं। हमारे जीवन में ऐसे अवसर कम ही मिलते हैं। और क्योंकि ये एक ऐसा माध्यम है जिससे कि मुझे किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं है, चाहे वो कोई पत्रकार हों या कोई अखबार हो या कोई सेक्रेट्री हो या मित्रगण हो तो मुझे अच्छा लगता है कि मैं जितनी जल्दी हो, उनसे ये कनेक्शन प्राप्त कर लेता हूं। ये मुझे अच्छा लगता है। फिर जिस तरह से दो व्यक्ति शाम को मिलते हैं, चाय पीते हुए कुछ बतियाते हैं, उस तरह से मैं प्रतिदिन शाम को बैठकर कुछ समय जो मेरे साथ बीता या कोई ऐसी याददाश्त मेरे मन में या कोई ऐसा अनुभव हुआ या बाबूजी के साथ बिताया कोई पल हो, मां जी के साथ बिताया क्षण हो, अपने सहपाठियों के साथ बिताया वक्त हो, कलाकारों के साथ काम के क्षेत्र में बिताया अवसर हो, उनका मैं कभी-कभी वर्णन कर देता हूं। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं होगा कि ये मेरी आत्मकथा की पूर्वपीठिका है। ये केवल एक सुविधा मिल गई है।
आप के ब्लॉग को पढ कर कोई चाहे तो आपकी जीवनी लिख सकता है। पिछले एक साल का सिलसिलेवार और ब्यौरेवार वर्णन कर सकता है।
हां, लेकिन ऐसा मान लेना कि यही सब कुछ होता है मेरे जीवन में तो गलत होगा।
पिता की किन कृतियों का अवलोकन आप नियमित तौर पर करते हैं? उनकी कौन सी पुस्तक हमेशा आप के साथ रहती है?
हमारे साथ पूरी रचनावली उनकी रहती है। प्रतिदिन तो मैं उसे नहीं पढता हूं, लेकिन हमारे साथ रहती है। कहीं भी जाऊं,मैं उन्हें निश्चित रूप से साथ ले जाता हूं और यदा-कदा उनकी आत्मकथा पढता हूं, उनकी कवितायें पढता हूं और जीवन का रहस्य, जीवन का दुख-सुख सब कुछ मुझे उसमें मिलता है। और उसमें बडी सांत्वना मिलती है मुझे। कई प्रश्नों का उत्तर जो कि हमारे उम्र के लोगों या हम जो कम उम्र के लोग हैं उनके जीवन में कई बार आते रहते हैं। उनकी रचनाएं हमारे लिए एक तरह से मार्गदर्शक बन गयी हैं ।
आप ने ब्लॉग के एक पोस्ट में लिखा है कि पिता की रचनाओं में आपको शांति, धैर्य, व्याख्या, उत्तर और जिज्ञासा मिलती है। इनके बारे में थोडे विस्तार से बताएं?
जितना भी उन्होंने अनुभव किया अपने जीवन में, वो किसी आम इंसान के जीवन से कम या ज्यादा तो है नहीं। जो भी उनकी अपनी जीवनी है या जो आपबीती है उनकी। उसमें संसार के जितने भी उतार-चढाव है, सब के ऊपर उन्होंने लिखा है और उनका क्या नजरिया रहा है। तो वो एक बहुत अच्छा उदाहरण बन जाता है हमारे लिए। हम उसका पालन करते हैं।
पिछली बार अभिषेक से जब मैंने यही सवाल पूछा था तो उन्होंने बताया था कि आप ने आत्मकथा पढने की सलाह दी थी और कहा था कि उसमें हर एक पृष्ठ पर कोई न कोई एक सबक है।
किसी भी पन्ने को खोल लीजिए कहीं न कहीं आपको कुछ ऐसा मिलेगा। लेखन के तौर पर, जो लोग भाषा सीख रहे हों या जिनकी भाषा अच्छी न हो, उसमें आपको बहुत ऐसी चीजें मिलती हैं। और जीवन का रहस्य, जीवन की जो समस्याएं हैं, जीवन की जो कठिनाईयां हैं या उसके ऊपर कोई एक बहस हो या उनकी विचारधारा हो ये पढकर बहुत अच्छा लगता है।
आप ने अपने ब्लॉग पर पचास से अधिक दिनों की पोस्ट में किसी न किसी रूप में पिता जी का उल्लेख किया है। पिता की स्मृतियों का ऐसा जीवंत व्यवहार दुर्लभ है। उनके शब्दों से किस रूप में संबल मिलता है?
देखिए ये एक आम इंसान जो है, वो प्रतिदिन इसी खोज में रहता है कि ये जो रहस्यमय जीवन है, इसकी कैसी उपलब्धियां होंगी? क्या विचारधारा होगी। बहुत से प्रश्न उठते उसके मन में। क्योंकि प्रतिदिन हमारे और आपके मन में कुछ न कुछ ऐसा बीतता है, जिसका कभी-कभी हमारे पास उत्तर नहीं होता। यदि हमें कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए जिसमें ढूंढते ही हमें वो उत्तर प्राप्त हो जाए तो फिर हमारे लिए वो भगवान रूप ही होता। मैं ऐसा मानता हूं कि हम अपने जीवन में, जब हमलोग बडे हो रहे थे या आपके जीवन में भी है, किसी भी आम इंसान के जीवन में ऐसा ही होता है जब हम किसी समस्या में होते हैं, जब कठिनाई में होते हैं तो सबसे पहले कहां जाते हैं? सबसे पहले अपने माता-पिता के पास जाते हैं। कि आज मेरे साथ ये हो गया। क्या करना चाहिए? तो माता-पिता एक मार्ग दिखाते हैं। मार्गदर्शक बन जाते हैं। उनकी बातें हमेशा याद रहती हैं। क्योंकि जाने-अनजाने में आप चाहे पुस्तकें पढ लीजिए, विद्वान बन जाइए, लेकिन कहीं न कहीं जो माता-पिता की बातें होती हैं वो हमेशा हमें याद रहती हैं। क्यों याद बनी रहती है, क्या वजह है इसकी, ये तो मैं नहीं बता सकता, बहरहाल वो बनी रहती हैं। वही याद आती रहती हैं। जब कभी भी हमारे सामने कोई समस्या आती है या कोई ऐसी दुविधा में हम पड जाते हैं तो तुरंत ध्यान मां-बाबूजी की तरफ जाता है और हम सोचते हैं कि यदि वो यहां होते और हम उनके पास जाते तो उनसे क्या उत्तर मिलता। उसी के अनुसार हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं। क्या उन्हें ये ठीक लगता?
पिता जी की आखिरी चिंताएं क्या थीं? समाज और साहित्य के प्रति वे किस रूप में सोचते थे?
इस पर ज्यादा कुछ अलग से उन्होंने कुछ नहीं बताया। सामान्य बातें होती थीं, देश-समाज को लेकर बातें होती थीं। साहित्यकारों से अवश्य वे साहित्य पर बातें करते थे, जिस तरह की कविता लिखी जा रही थी। जिस तरह से उनका स्तर गिर रहा था, उस पर वे बोलते थे।
दशद्वार से सोपान तक के बाद उन्होंने अपनी आत्मकथा को आगे नहीं बढाया। क्या बाद की जीवन यात्रा न लिखने के कारण के बारे में उन्होंने कुछ बताया था?
उनका एक ध्येय था कि मैं यहां तक लिखूंगा और इसके बाद नहीं लिखूंगा। उनसे हमने इस बारे में कभी पूछा नहीं और न कभी उन्होंने कुछ बताया।
आप के जीवन को उनके आत्मकथा के विस्तार के रूप में देखा जाता है।
ये तो मैं नहीं कह सकता। अगर उनके जीवन को देखा जाए तो बहुत ही विचित्र बात नजर आती है। तकरीबन 60-65 वर्षो तक एक लेखक [बच्चन जी] लिखता रहा। आम तौर पर लेखक दस-बारह साल लिखते हैं। उसके बाद लिखते नहीं या खत्म हो जाते हैं। एक शख्स लगातार 60-65 सालों तक लिखता रहा । यह अपने आप में एक उपलब्धि है।
घोर निराशा के क्षणों में आपने एक बार उनसे पूछ दिया था, आपने हमें पैदा क्यों किया? इस पर उन्होंने नयी लीक कविता लिखी थी। इस प्रसंग को पिता-पुत्र के रिश्तों के संदर्भ में आज किस रूप में आप समझाएंगे?
पहले तो मेरे पुत्र को मुझ से ये प्रश्न पूछना पडेगा, फिर मैं कुछ कह पाऊंगा। अभी तक उन्होंने पूछा नहीं। और ऐसी उम्मीद नहीं है कि वो मुझ से आकर पूछेंगे। वो अपने काम में लग गए हैं। एक उत्साह है उनके मन में। वे प्रसन्न हैं। लेकिन यदि वो मुझसे पूछते तो मैं उनको बाबूजी की कविता पढा देता।
इस प्रसंग को लेकर कभी व्यथा होती है मन में?
बिल्कुल होती है। बाबूजी के सामने कभी आंख उठा कर हमने बात नहीं की थी। और अचानक ऐसा प्रश्न पूछ देना। प्रत्येक नौजवान के जीवन में ऐसा समय आता है, जब जीवन से, समस्याओं से, काम से, अपने आप से निराश होकर हम ऐसे सवाल कर बैठते हैं। हम सब के जीवन में ऐसा समय आता है।
बच्चन जी ने लिखा है कि मेरे पुस्तकालय में आग लग जाए तो मैं बुद्धचर्या, भगवद्गीता, गीत गोविंद, कालिदास ग्रंथावली, रामचरित मानस, बाइबिल [न्यू टेस्टामेंट], कम्पलीट शेक्सपियर, पोएटिकल वर्क्स ऑफ ईट्स, दीवाने गालिब, रोबाइयत उमर खैयाम दो की और गुंजाइश बनी तो वार एंड पीस और जां क्रिस्तोफ लेकर भागूंगा। क्या ऐसी कुछ पुस्तकों की सूची आपने भी सोच रखी है?
मैं तो उनकी रचनावली लेकर भागूंगा।
-[अजय ब्रह्मात्मज]

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

२२ मार्च को है विश्व जल दिवस



विश्व जल दिवस

ऎसे बचाया जा सकता है जल

गुरुवार, 19 मार्च 2009

स्विस बैंकों में भारत के एक अरब करोड़ रुपए


डॉ. महेश परिमल
क्या आप जानते हैं कि स्विट्जरलैंड की बैंकों में भारत के नेताओं एवं उद्योगपतियों के कितने रुपए जमा हैं? आपको शायद विश्वास नहीं होगा, क्योंकि यह राशि इतनी बड़ी है कि हम पर जितना विदेशी कर्ज है, उसे हम एक बार नहीं, बल्कि 13 बार भुगतान कर सकते हैं। जी हाँ स्विस बैंकों में भारत के कुल एक अरब करोड़ रुपए जमा हैं। इस राशि को यदि भारत के गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले 45 करोड़ लोगों में बाँट दिया जाए, तो हर इंसान लखपति हो जाए। अन्य बैंकें जहाँ जमा राशि पर ब्याज देती हैं, वहीं स्विस बैंकें धन को सुरक्षित रखने के लिए जमाकर्ता से धन लेती हैं। आज हमारे पास सूचना का अधिकार है, तो क्या हम यह जानने का अधिकार नहीं रखते कि हमारे देश का कितना धन स्विस बैंकों में जमा है? क्या यह धन हमारे देश में वापस नहीं आ सकता? अवश्य आ सकता है। क्योंकि अभी नाइजीरिया यह लड़ाई जीत चुका है। नाइजीरिया के राष्ट्रपति सानी अबाचा ने अपनी प्रजा को लूटकर स्विस बैंक में कुल 33 करोड़ अमेरिकन डॉलर जमा कराए थे। अबाचा को पदभ्रष्ट करके वहाँ के शासकों ने स्विस बैंकों से राष्ट्र का धन वापस लाने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ी। अंतत: वे सफल हुए और स्विस बैंकों से धन मिल गया। जब नाइजीरिया के शासकों ने ऐसा सोच लिया, तो हमारे शासक ऐसा क्यों नहीं सोच सकते?
देश में अब चुनाव की पदचाप सुनाई देने लगी है, तब हमारे द्वार पर आने वाले वोट के भिखारी से हमें पूछना चाहिए कि स्विस बैंकों में हमारा कितना धन जमा है और उसे सुरक्षित रखने के लिए कितना धन देना पड़ रहा है? निश्चित रूप से यह धन भ्रष्टाचार और दो नम्बर का है। यह धन किस प्रकार उन्हें प्राप्त हुआ, यह हम सभी जानते हैं। तो फिर क्यों न हम इस चुनाव में उन्हें बता दें कि जब हमें वोट देने का अधिकार है, तो यह पूछने का भी अधिकार होना चाहिए कि हमारे देश का धन आखिर स्विस बैंकों में क्यों जा रहा है? वह धन हमारे देश की बैंकों में क्यों नहीं रखा जा सकता?
चुनाव के ठीक पहले आम आदमी की जरूरतों का ध्यान रखने वाली तमाम सरकारें कई वादे करती हैं, लेकिन यह सब दिखावा मात्र ही होता है। एक समय ऐसा था, जब लोग अपने घरों में देवी-देवताओं की तस्वीरों के साथ गांधीजी, नेहरु जी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, आजाद आदि सपूतों की तस्वीरें रखा करते थे। यही नहीं,उन तस्वीरों के आगे शीश नवाते थे। पर आज हमारे बीच ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जिसके आगे सर अपने आप झुक जाए। मुम्बई में आतंकवादियों के हमले के बाद लोगों ने नेताओं पर काफी गुस्सा उतारा था। प्रजा की नाराजगी साफ झलकती थी। प्रजा के आक्रोश को देखते हुए नेताओं की बोलती ही बंद हो गई थी। आज यदि प्रजा के हाथ में पॉवर आ जाए, तो वह इन नेताओं का क्या हश्र करेगी, यह वह खुद नहीं जानती।
यह हमारा कमजोर लोकतंत्र ही है, जिसमें हमें किसी को चुनने का तो अधिकार है, किंतु उसे वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। वोट देते ही हमारा उस नेता से संबंध टूट जाता है। वह हमारा आदमी होकर भी वीआईपी होता है। आम आदमी का प्रतिनिधि विशेष क्यों हो जाता है, यह प्रश्न आजादी के 60 वर्षों बाद भी अनुत्तरित है। एक ऍंगरेजी मैगजीन में एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया, जिसमें यह बताया गया कि आज लोगों को नेता बिलकुल भी नहीं सुहाते। उस समय तो लोग उन्हें बहुत ही धिक्कारते हैं,जब उनके आगमन पर शहर के रास्तों पर यातायात बंद कर दिया जाता है। इस सर्वेक्षण में भारत के 5 महानगरों से कुल 1022 नागरिकों प्रश्न पूछे गए थे। इनमें 46 प्रतिशत महिलाएँ भी थीं। इस सर्वे में भाग लेने वालों में से 79 प्रतिशत नागरिकों ने आज के नेताओं को धिक्कारा था। 84 प्रतिशत लोगों का मानना था कि नेता जो वादे करते हैं, उस पर उन्हें विश्वास नहीं है, क्योंकि वे कभी पूरे नहीं होते। 76 प्रतिशत लोगों का कहना था कि इन नेताओं के कारण हमारा लोकतंत्र बदनाम हो रहा है। 64 प्रतिशत मानते हैं कि ईमानदार आदमी राजनीति में कभी सफल नहीं हो सकता। 66 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपनी संतानों को भूलकर भी राजनीति में जाने की सलाह नहीं देंगे। इसके बाद भी हमारे देश की प्रजा लाचार है कि उन्हें साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनना है।
एनडीए के भूतपूर्व अध्यक्ष जार्ज फर्नाण्डीस ने कुछ समय पहले एक रहस्योद्धाटन किया था कि जब वे रक्षा मंत्री थे, तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें बोफोर्स की फाइल को हाथ लगाने से भी मना कर दिया था। कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर एनडीए सत्ता पर आ गई। इसके बाद वह आसानी से बोफोर्स के सच से प्रजा को वाकिफ करा सकती थी, पर अपने 6 वर्ष के कार्यकाल में वह ऐसा नहीं कर पाई। इसका मतलब यही हुआ कि कांग्रेस के पास भी भाजपा नेताओं की पोल पट्टी है, जिसे वह जब चाहे, खोल सकती है। इसलिए सत्ता पर कोई भी काबिज हो, सब परस्पर सहयोग करते हुए अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। हमारे देश की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि यहाँ जितनी भ्रष्ट सत्तारूढ़ पार्टी है, उतनी ही भ्रष्ट विरोधी पार्टी है। इसलिए सत्ता पर कोई भी रहे, एक-दूसरे की बुराइयों को छिपाने का भरपूर प्रयास होता ही रहता है। हमारी इसी कमजोरी का लाभ विदेशी ताकतें उठाती रहती हैं। उन्होंने अरबों डॉलर देकर हमारे नेताओं को खरीद लिया है। यही वह धन है, जो आज स्विस बैंकों में जमा है।
स्विस बैंकों से धन वापस निकालने की तीन शतर्ें हैं पहला क्या वह धन आतंकवादी गतिविधियों को चलाने के लिए जमा किया गया है? दूसरा क्या वह धन मादक द्रव्यों के धंधे से प्राप्त किया गया है और तीसरा क्या वह धन देश के कानून को भंग करके प्राप्त किया गया है? इसमें से तीसरा कारण है, जिससे हम स्विस बैंकों में जमा भारत का धन वापस ले सकते हैं, क्योंकि हमारे नेताओं ने कानून को भंग करके ही वह धन प्राप्त किया है। हमारे खून-पसीने की कमाई को इन नेताओं ने अपनी बपौती समझकर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, उसका इस्तेमाल हमारे ही देश की भलाई में होना चाहिए। पर क्या यह संभव है?
आज नेताओं में जो धन को विदेशी बैंकों में जमा करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसके पीछे हमारे देश का कमजोर आयकर कानून है। इसी आयकर से बचने के लिए ही तो ये नेता, अधिकारी और सभी भ्रष्ट लोग अपने धन को काले धन के रूप में रखते हैं। यदि आयकर कानून को लचीला बना दिया जाए, तो इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। अभी हमारे देश में 10 लाख करोड़ रुपए काले धन के रूप में प्रचलित है। इस दिशा में कोई भी पार्टी कानून बनाने की जहमत नहीं उठाएगी। क्योंकि यदि किसी पार्टी ने इस दिशा में जरा भी हरकत की, तो विदेशी कंपनियाँ उसे सत्ताच्युत कर देंगी। ये कंपनियाँ हमारे नेताओं को अपनी ऊँगलियों पर नचा रही हैं। यदि प्रजा जागरूक हो जाती है और नेताओं को इस बात के लिए विवश कर सकती है कि वह स्विस बैंकों में जमा भारतीय धन को वापस ले आएँ, तो ही हम सब सही अर्थों में आजाद देश के नागरिक माने जाएँगे। इस धन के देश में आ जाने से न तो हमें किसी से भीख माँगने की आवश्यकता होगी और न ही हमारा देश पिछड़ा होगा, इस धन की बदौलत भारत का नाम पूरे विश्व में एक विकसित देश के रूप में गूँजेंगा। आज इस देश को शक्तिशाली और ईमानदारी नेतृत्व की आवश्यकता है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 17 मार्च 2009

काल और देश की सीमा से परे ओमपुरी


जन्मदिन- 18 अक्टूबर, 1950
जन्मस्थान- अंबाला,पंजाब
कद- 5 फुट 10 इंच
ओमपुरी भारतीय सिनेमा के कालजयी अभिनेताओं की सूची में शुमार हैं। उनके अभिनय का हर अंदाज दर्शकों को प्रभावित करता है। रूपहले पर्दे पर जब, उनका हंसता-मुस्कुराता चेहरा दिखता है तो दर्शकों को भी अपनी खुशियों का अहसास होता है और उनके दर्द में दर्शक भी दु:खी होते हैं।
ओमपुरी हिंदी फिल्मी दर्शकों के चहेते हैं। उनके अभिनय का हर अंदाज दर्शकों को भाता है। हिंदी फिल्मों में लगभग चार दशकों तक अपनी प्रभावी उपस्थिति से दर्शकों का आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं ओमपुरी। नई पीढ़ी के अभिनेताओं की मौजूदगी में भी अपने परिपक्व अभिनय की छाप छोड़ रहे ओमपुरी के अभिनय के प्रशंसक केवल भारत तक ही सीमित नहीं हैं। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे दिग्गज निर्देशकों के प्रिय ओमपुरी नई पीढ़ी के अभिनेताओं के प्रेरणा-स्रोत हैं। उनके सान्निध्य में कई युवा अभिनेताओं ने अपनी अभिनय-प्रतिभा को निखारा है, संवारा है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय का औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ओमपुरी ने हिंदी फिल्मों का रूख किया। घासीराम कोतवाल में वे पहली बार हिंदी फिल्मी दर्शकों से रू-ब-रू हुए। घासीराम की संवेदनशील भूमिका में अपनी अभिनय-क्षमता का प्रभावी परिचय ओमपुरी ने दिया और धीरे-धीरे वे मुख्य धारा की फिल्मों से अलग समानांतर फिल्मों के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता के रूप में उभरने लगे। उनकी छवि धीर-गंभीर अभिनेता की बन गई। प्रयोगात्मक सिनेमा के दौर में ओमपुरी का अभिनय दर्शकों को खूब भाने लगा। भवनी भवई,स्पर्श,मंडी,आक्रोश,शोध जैसी फिल्मों में ओमपुरी के सधे हुए अभिनय का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोला, पर उनके फिल्मी सफर में मील का पत्थर साबित हुई, अर्द्धसत्य। अर्द्धसत्य में युवा,जुझारू और आंदोलनकारी पुलिस ऑफिसर की भूमिका में वे बेहद जंचे।
धीरे-धीरे ओमपुरी समानांतर सिनेमा की जरूरत बन गए। समानांतर सिनेमा जगत में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ-साथ ओमपुरी ने मुख्य धारा की फिल्मों का भी रूख किया। कभी नायक कभी खलनायक तो कभी चरित्र अभिनेता और हास्य अभिनेता के रूप में वे हर दर्शक वर्ग से रू-ब-रू हुए। धीरे-धीरे ओमपुरी के अभिनय के विविध रंगों से दर्शकों को परिचित होने का मौका मिला। जाने दो भी यारो में उन्होंने अपने हल्के-फुल्के अंदाज से दर्शकों को खूब हंसाया तो, सनी देओल अभिनीत नरसिम्हा में सूरज नारायण सिंह की नकारात्मक भूमिका में भी वे खूब जंचे। यदि उन्होंने द्रोहकाल और धारावी जैसी गंभीर फिल्में की तो डिस्को डांसर और गुप्त जैसी कमर्शियल फिल्मों में भी अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करायी। दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके ओमपुरी हिंदी फिल्मों की उन गिने-चुने अभिनेताओं की सूची में शामिल हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनायी है। ईस्ट इज ईस्ट,सिटी ऑफ ब्वॉय,वुल्फ,द घोस्ट एंड डार्कनेस जैसी हॉलीवुड फिल्मों में भी उन्होंने अपने उम्दा अभिनय की छाप छोड़ी है। जीवन के उनसठ वसंत देख चुके ओमपुरी आज भी हिंदी फिल्मों में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। फर्क, बस इतना है कि इन दिनों वे नायक या खलनायक नहीं बल्कि, चरित्र या हास्य अभिनेता के रूप में हिंदी फिल्मों दर्शकों से रू-ब-रू हो रहे हैं। चाची 420,हेरा फेरी,मेरे बाप पहले आप,मालामाल विकली में ओमपुरी हंसती-गुदगुदाती भूमिकाओं में दिखे तो शूट ऑन साइट,महारथी,देव और हालिया रिलीज दिल्ली 6 में चरित्र अभिनेता के रूप में वे दर्शकों से रू-ब-रू हुए।
काल और देश की सीमा से परे किसी सामान्य व्यक्ति की तरह दिखने वाले इस असाधारण अभिनेता के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग है जिसमें आम दर्शकों से लेकर शीर्ष के अभिनेता भी हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी ओमपुरी के अभिनय में ताजगी है,ऊर्जा है। उम्मीद है,आने वाले कई वर्षो तक इस सम्मानित दिग्गज अभिनेता की उपस्थिति से हिंदी फिल्मों का आकर्षण बढ़ता रहेगा और अभिनेताओं की कई और नई पीढि़यां ओमपुरी के सान्निध्य से लाभान्वित होती रहेगी।

कैरियर की मुख्य फिल्में
वर्ष-फिल्म-चरित्र
1976-घासीराम कोतवाल-घासीराम
1978-अरविंद देसाई की अजीब दास्तां-मािर्क्सस्ट
1978-भूख-कोलोनल
1979-सांच को आंच नहीं
1979-शायद
1980-अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है-मधु
1980-आक्रोश-भीखू
1980-भवनी भवाई-मानव भगत
1980-स्पर्श-दूबे
1981-शोध-सुरेन्द्र
1981-सद्गति-दुखी
1981-कलयुग-भवानी पांडे
1982-विजेता-अरविंद
1982-आरोहण-हरि मोंडल
1982-गांधी-नहारी
1983-मंडी-राम गोपाल
1983-चोख-जदुनाथ
1983-जाने भी दो यारो-आहूजा
1983-अर्द्धसत्य-अनंत वेलांकर
1983-डिस्को डांसर-डेविड ब्राउन
1984-पार-रामनरेश
1984-तरंग-नामदेव
1984-गिद्ध-बसया
1984-होली-प्रिंसिपल पांडे
1984-पार्टी-अविनाश
1984-मांटी मांगे खून-दुर्जन
1984-दुनिया-वासुदेव
1984-रावण-सामंत
1984-राम की गंगा-लालू
1985-मिर्च मसाला-चौकीदार अबु मिया
1985-बहू की आवाज-जसवंत श्रीवास्तव
1985-जमाना-श्यामलाल
1986-न्यू देल्ही टाइम्स-अजय सिंह
1986-लांग दा लश्कारा-दीतू
1987-मरते दम तक-दौलत
1987-सुष्मन-रामलालू
1988-हम फरिश्ते नहीं-गोपी
1988-एक ही मकसद-डॉक्टर रामकुमार वर्मा
1989-इलाका-भीमा
1990-घायल-जो डिसूजा
1990-दिशा-परशुराम सर्पत
1991-पत्थर-रेशम सिंह
1991-नरसिम्हा-सूरज नारायण सिंह
1991-मीना बाजार-एक्टर
1992-अंगार-परवेज हुसैन
1992-धारावी-राज किरन
1992-कर्म योद्धा-सब इंस्पेक्टर पटवर्द्धन
1992-करेंट-वेलू
1992-सिटी ऑफ जॉय-हजारी पल
1992-जख्मी सिपाही-ओम चौधरी
1993-तर्पन-जस्सू
1994-त्रिया चरित्र
1994-द्रोहकाल-अभय सिंह
1994-पतंग-मथुरा
1995-कर्तव्य-गुलाम रसूल
1995-टार्गेट-राम भरोसा
1995-आतंक ही आतंक-शरद जोशी
1996-प्रेम ग्रंथ-बालीराम
1996-कृष्णा-अमर प्रभाकर
1996-माचिस-सनातन
1996-घातक-सचदेव
1996-राम और श्याम-सूर्य प्रताप
1997-आस्था-अमर
1997-भाई-सत्यप्रकाश
1997-गुप्त-उधम सिंह
1997-मृत्युदंड-रामबरन
1997-जोर-शाह आलम
1997-जमीर-जयचंद मारवा
1998-चाची चार सौ बीस-बन्वारी लाल
1998-चाइना गेट-कृष्णकांत
1998-विनाशक-अब्दुल रहमान
1998-प्यार तो होना ही था-इंस्पेक्टर खान
1999-खूबसूरत-दिलीप चौधरी
2000-दुल्हन हम ले जाएंगे-भोला नाथ
2000-पुकार-कोलोनल हुसैन
2000-हे राम-गोयल
2000-हेरा फेरी-खारक सिंह
2000-कुंवारा-बलराज सिंह
2000-कुरूक्षेत्र-बाबुराव देशमुख
2001-बॉलीवुड कॉलिंग-सुब्रमण्यम
2001-फर्ज-अर्जुन सिंह
2001-जहरीला-अरूण देव
2001-इंडियन-जोगिंदर सिंह
2001-दीवानापन-सूरज के पिता
2002-पिता-ठाकुर अवध नारायण सिंह
2002-क्रांति-कृष्णकांत
2002-प्यार दीवाना होता है-डॉक्टर पुरी
2002-मर्डर-आकाश गुप्ता
2002-शरारत-डीसीपी भोंसले
2002-चोर मचाए शोर-डीसीपी पांडे
2002-आवारा पागल दीवाना-माफिया डॉन
2003-आपको पहले भी कहीं देखा है-सैम
2003-काश आप हमारे होते-यशवंत राज मनकोटिया
2003-मकबूल-इंस्पेक्टर पंडित
2003-चुपके से-कासिम खान
2003-कगार-सब इंस्पेक्टर गोखले
2003-धूप-सुरेश कुमार
2004-युवा-प्रसेनजीत भट्टाचार्य
2004-आन-कमिश्नर खुराना
2004-देव-तेजिंदर खोंसला
2004-लक्ष्य-सुबेदार प्रीतम सिंह
2004-क्यों हो गया ना-मिस्टर खन्ना
2004-किसना-जुमन मासूम किश्ती
2005-मुंबई एक्सप्रेस-एसीपी एस पी राव
2005-क्योंकि-डॉक्टर खुराना
2005-दीवाने हुए पागल-साइंटिस्ट खुराना
2006-रंग दे बसंती-अमन उल्लाह खान
2006-मालामाल विकली-बलवंत
2006-चुप चुप के-प्रभात सिंह
2006-डॉन-विशाल मलिक
2006-बाबुल-बलवंत
2007-बुड्ढा मर गया-विद्युत बाबा
2007-विक्टोरिया नंबर 203-राणा
2007-ढोल-त्रिपाठी
2008-मेरे बाप पहले आप-माधव माथुर
2008-किस्मत कनेक्शन-हैरी गिल
2008-सिंह इज किंग-रंगीला
2008-मुखबिर-राठौड़
2008-महारथी-ए सी पी गोखले
2008-शूट ऑन साइट-जुनैद
2009-बिल्लू-दामचंद
2009-दिल्ली 6-मदन गोपाल
आने वाली फिल्में-जिहाद,वांटेड डेड एंड अलाइव,लंदन ड्रीम्स,डॉन 2।
-सौम्या अपराजिता

सोमवार, 16 मार्च 2009

भारत के लिए बंगलादेश पाकिस्तान से अधिक खतरनाक



डॉ. महेश परिमल

हम सभी एक बार फिर चुनावी दंगल के मुहाने पर आकर खड़े हो गए हैं। हमारे सामने वही चिरपरिचित चेहरे आएँगे, एक तरह से याचक बनकर। केवल वोट की खातिर, वे कुछ समय के लिए हमारे सब-कुछ होना चाहेंगे। वे हमसे हमारी तकलीफें पूछेंगे, हमारी परेशानियाँ जानना चाहेंगे। हम केवल मोहल्ले की गंदगी, महँगाई, नेतागिरी, गुंडागर्दी आदि समस्याओं को बताएँगे, जिसे आमूल-चूल रूप से दूर करने का भरपूर आश्वासन हमें मिलेगा। हम कुछ समय के लिए खुश हो जाएँगे। मतदान करते ही हम फिर वही आम नागरिक बन जाएँगे और जिसे हमने अपना कीमती मत दिया है, वह बन जाएगा वीआईपी। यानी वेरी इंपाटर्ेंट परसन। कोई बता सकता है कि ये आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी क्यों होता है?
आज हम केवल अपने आसपास की समस्याओं को हीे सबसे बड़ी समस्या मानते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हमारे आसपास ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिसे एक बहुत ही बड़े स्तर पर अनदेखा किया जा रहा है। उन्हीं के कारण हमारी कई समस्याएँ लगातार बढ़ रही हैं। एक साजिश के तहत सब-कुछ हो रहा है, हमें इसका हल्का गुमान भी नहीं है। आपको मालूम है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान नहीं, बल्कि बंगलादेश की आबादी हर साल कम हो रही है। उनकी मतदाता सूची में हर बार लाखों मतदाता गायब हो जाते हैं। आखिर कहाँ जाते हैं वे लोग। क्या वे सब मर जाते हैं, मार दिए जाते हैं, या फिर वे भारत आ जाते हैं? आपने बिलकुल सही समझा, जी हाँ वे सभी भारत आ जाते हैं। 1971 से इन बंगलादेशियों का जिस तरह से आना हुआ है, वह अभी भी जारी है। यही कारण है कि आज हमारे देश में करोड़ों बंगलादेशी आकर रह रहे हैं, हर तरह की सुविधाएँ पा रहे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि ये किसी तरह का टैक्स नहीं पटाते, फिर भी भारत के नागरिक माने जाते हैं। क्यों न इस बार हम हमारे नेताओं से यह जानना चाहें कि क्या हमारा देश एक बड़ा अनाथालय है, जहाँ हम बरसों तक विदेशियों को पालकर रख रहे हैं? हमारा देश इतना अधिक धन-सम्पदा से परिपूर्ण तो नहीं कि दूसरों को बरसों तक पाल सके। हमारे देश में वैसे भी आबादी का नियंत्रण नहीं है, फिर दूसरे देशों के लोगों को पनाह देकर हम क्या साबित करना चाहते हैं?
14 जुलाई 2004 को संसद में गृह रायमंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि हाल में हमारे देश में कम से कम एक करोड, 20 लाख, 53 हजार 950 बंगलादेशी असंवैधानिक रूप से बसे हुए हैं। इसमें से 50 लाख तो केवल असम में ही रह रहे हैं। सबसे अधिक चिंतनीय तो यह है कि असम में 50 लाख का ऑंकड़ा 1991 के दिसम्बर की जनसंख्या के अनुसार थी। संसद में यह जानकारी 2004 में दी गई, इसका आशय यह हुआ कि गृह विभाग के पास भी सही ऑंकड़े नहीं थे। सन् 1971 में भारत ने पाकिस्तान के तत्कालीन जनरल याह्या खान और उसकी राक्षसी सैनिकों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए पाकिस्तान के साथ युध्द किया। इसके बाद बंगलादेश का जन्म हुआ। इस पुण्य कार्य के बदले में भारत को धन्यवाद के रूप में मिले 20 लाख से अधिक बंगलादेशी शरणार्थी। उस समय हमारी सरकार ने उक्त शरणार्थ्ाियों के नाम पर कई तरह के टैक्स लिए। हमारे ही धन की बदौलत वे शरणार्थी आज भी यही बसे हुए हैं, वे अपने देश नहीं गए। आज वे हमारी सरकार को किसी तरह का टैक्स नहीं देते, पर भारतीय नागरिक बन बैठे हैं। क्या यह उचित है?
भूतपूर्व चुनाव आयुक्त तिरुनेल्लई नारायण अय्यर शेषन ने 1994 में न्यूयार्क टाइम्स से एक साक्षात्कार में कहा था 'आज भी अकेले असम में दस लाख से अधिक बंगलादेशी गैरकानूनी रूप से रह रहे हैं।' टोरंटो यूनिवर्सिटी और अमेरिकन एकेडमी ऑफ आट्र्स एंड साइंस द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वास्तव में भारत में कुल दो करोड़ बंगालदेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। इसे सही साबित किया है, स्वयं बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने। हालांकि उन्होंने इसे कुछ अलग ही तरीके से पेश किया है, जो भी हो, पर यह सच्चाई भी समझने लायक है। बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने 1994 की 7 अक्टूबर को अपने देश के मतदाताओं की संख्या 4 करोड़, 60 लाख,16 हजार 178 बताई। 1991 की मतदाता सूची में इसकी तुलना में 61लाख, 65 हजार, 567 मतदाता अधिक थे। 5 वर्ष में ये 61 लाख मतदाता आखिर कहाँ गए? इस सवाल का जवाब कुछ हद तक इस तरह से दिया जा सकता है कि खुद बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने अपने मतदाता सूची में से 20 लाख मतदाताओं के नाम यह कहकर निकाल दिए कि ये सभी लम्बे समय से देश से बाहर हैं। दिलचस्प बात यह है कि जिन बंगलाभाषी मतदाताओं के नाम निरस्त हुए, उसमें से किसी ने भी अपना नाम फिर से मतदाता सूची में जोड़ने का प्रयास नहीं किया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इन सभी को अपने वतन से अधिक भारत में सुरक्षा और रोजगार मिल रहे थे। कोलकाता से प्रकाशित आनंद बाजार के 28 मई 1996 के अंक में दी गई जानकारी के अनुसार बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने इस डर से दूसरे 12 लाख मतदाताओं के नाम सूची में से निकाल दिए कि भारत में बसने वाला कोई बंगला नागरिक अपना नाम जोड़ने की कोशिश भी न करे।
अब एक और दिलचस्प बात। यूनो की एक समीक्षा में बताया गया है कि 1991 में बंगलादेश की आबादी 11 करोड़ , 80 लाख होनी चाहिए थी, किंतु बंगलादेश ने जनगणना में अपनी जनसंख्या 10 करोड़, 80 लाख बताई। तो बाकी के एक करोड़ लोग कहाँ गए? सन 1951 में जब भारत और पाकिस्तान पूरी तरह से अलग हो गए, उसके बाद बंगलादेश में हिंदू, इसाई आदि अल्पसंख्यकों की संख्या 22 प्रतिशत थी। जो 1995 में घटकर मात्र 10 प्रतिशत हो गई। या तो ये सब देश छोड़कर चले गए या फिर इन्हें खत्म कर दिया गया। 1991 में बंगलादेश की एक रिपोर्ट के अनुसार 5 लाख 'बिहारी मुस्लिमों' का देश में कहीं अता-पता नहीं था। आखिर कहाँ गए ये सब? इन तमाम सवालों का जवाब इस चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से पूछा जाना चाहिए। क्या हम यह जानकारी 'सूचना के अधिकार' के अंतर्गत प्राप्त कर जगजाहिर नहीं कर सकते? इसमें हमारा क्या दोष? केवल और केवल वोट की राजनीति के कारण हमारे देश की आर्थ्ािक व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट करने की साजिश होती रहे और हम सब चुपचाप खामोश बैठे रहें। बरसों से यह सब हो रहा है, हम पर वे शरणार्थी के रूप में लाद दिए गए। हम सब उन्हें ढो रहे हैं, उन्हें शरण दे रहे हैं। बदले में हमें क्या मिला? भूख, गरीबी, लाचारी और आतंकवाद। जी हाँ आज असम में जो स्थिति है उसकी वजह यही बंगलादेशी ही हैं। आज हमारे देश में इनके कारण अपराध बढ़ रहे हैं, इसकी ओर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। आखिर ये किस वजह से भारत के नागरिक हैं? बिना टैक्स दिए क्या कोई बरसों तक पूरी सुविधा प्राप्त करे और भारत का नागरिक बन बैठे। यह भला कहाँ का न्याय है?
इस बार तो हमें केवल यही सोचना है कि ये शरणार्थी आखिर कब अपने देश जाएँगे? क्यों हमारी सरकारें इन्हें पाले हुए है? इतने करोड़ लोग हमारे देश से चले जाएँगे, तो हमारा भी भला ही होगा। हमारे ही देश की सहायता से बना एक छोटा-सा देश आज हमारे लिए ही संकट बन रहा है? यह तो पाकिस्तान से भी अधिक खतरनाक है। अगर स्थिति को अभी से नहीं सँभाला गया, तो 2015 तक देश में ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी कि असम में बंगलादेश के मुस्लिमों की सरकार बन जाएगी, उसके मुख्यमंत्री भी मूल बंगलादेश के ही होंगे। तब कोई सरकार इस स्थिति का मुकाबला नहीं कर पाएगी। यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 14 मार्च 2009

जब हमने प्यार करने की ठानी...


अनुज खरे को लोग भले ही बहुत कम लोग जानते हों, पर सच तो यह है कि वे बहुत ही अच्छे व्यंग्यकार हैं। उससे भी अच्छे इंसान भी हैं। व्यवहार में गंभीर किंतु कलम बहुत ही पैनी है। पत्रकार होने का पूरा लाभ उठाते हैं और हालात का बारीकी से अध्ययन कर उसे व्यंग्य के माध्यम से उतारते हैं। उनके व्यंग्य में जो प्रहार है, वह दरअसल समाज की सच्ची तस्वीर है, जिसे हम चाहकर भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं। लेकिन सच है, स्वीकारना ही पड़ेगा। इससे आप अलग नहीं हो सकते। प्रस्तुत व्यंग्य एकदम ही ताजा है। आप ही पढ़ें और हालात को समझने का प्रयास करें, भले ही छोटा सा प्रयास हो....
डॉ. महेश परिमल
जब हमने प्यार करने की ठानी...

अनुज खरे
अंतत: हमने प्यार करने की ठान ली। ठानने की देर थी कि चारों ओर दुंदुभियां बजने लगीं, आकाश मार्ग से पुष्पवर्षा का क्रम शुरू हो गया। नक्षत्र-सितारे तत्काल ही जगह बदलने लगे। कहीं किसी घर में किसी कोमलांगी ने धीरे से चेहरे से लट हटाकर 'हिश्श' कहा। इन पारलौकिक घटनाओं के स्टॉक सीन के बाद देसी किस्म का पहली-पहली बार बलियेनुमा बैकग्राउंड सांग विद म्यूजिक ट्रेक शुरू हो गया। अतएव, सारांश में निष्कर्ष ये कि कोई महान घटना कहीं घट गई। चूंकि हमने प्यार की ठानी है अत: घटना में ऑर्डिनरी एलीमेंट तो बचता ही नहीं है। तो प्यार का मामला फाइनल होते ही तत्काल प्रारब्ध के वशीभूत मित्रनुमा सलाहकारों की व्यवस्था सुयोग्य अवसर जान उपस्थित होने लगी। बात किसी ऐरे-गैरे की होती तो कोई और बात थी चूंकि बात हमारी थी अत: आसान न थी। मामला मंत्रणा के स्तर पर पहुंच गया, तत्काल ही मोहल्ले से लेकर कस्बे तक के उपलब्ध ऑप्शनों पर गौर किया जाने लगा। भौगोलिक दूरी-वाहन, पेट्रोल के आर्थिक कारक, बाप-भाई के सामरिक-रणनीतिक आदि पहलुओं के आधार पर सच्चे प्यार की खोज शुरू हो गई।
पहले ऑप्शन अर्थात् फूलकुमारी पर गौर हुआ। भयंकर विमर्श के बाद पाया गया कि उसकी कंचा शक्ल के आगे मैं एकदम 'ढिबरी' सा दिखू्ंगा। एक ने तो इससे भी आगे बढ़कर शादी के बाद की भी भविष्यवाणी कर डाली - साले ये हमारे उसके आगे फूलगोभी की सब्जी में भटे से लगेंगे। जब उसे साइकल पर बिठाकर कहीं छोड़ने जाएंगे तो लगेगा कि ' ड्राइवर मैमसाब को कहीं छोड़ने ले जा रहा है।' अर्थात् बिना हमारी च्वाइस जाने उसे विकल्प को खारिज कर दिया गया। हमने कुछ कहने की कोशिश की तो जवाब मिला ''अबे हम करवाएंगे, हम तुम्हारा प्यार- सबसे धांसू लड़की से तुम्हारा टांका जोडेंग़े, तुम तो छिपकली के जैसे मुंह बंद करके दीवार से चिमटे बैठे रहो।'' मित्र मंडली के बहुमत के आगे हम कह ही नहीं पाए की- सालो हमने ठानी है हमारी ही नहीं सुन रहे हो। उल्टे उन लोगों ने हमारी चौकीदारी के लिए एक-एक की डयूटी लगा दी की कि कहीं हम कोई नादानी न कर बैठें। हालांकि बताया तो ये गया कि ऐसी हालत में न जाने कब क्या हो जाए तो एक साथ रहेगा तो हालत संभली रहेगी। जबकि हमारी इच्छा तो ये हो रही थी कि एक-एक को टांग से बांधकर साइकिल से तीन-तीन किलोमीटर तक घसीट दूं, फिर इन मोटे-तगड़े दोस्तों और मरियल सी अपनी साइकल को देखकर हमने इस खयाल को आते ही दबोचकर मार दिया। चेहरे पर आइडिए के आने से आई चमक को देखकर एक ने तो कह भी दिया '' देखो कैसी मुस्की मार रहा है, हम ई की चिंता में किलपे जा रहे हैं, जै सारो गुरुघंटालई है।'' हालांकि दूसरे ऑप्शन के रूप में फिर मीराबेन का नाम प्रस्तावित हुआ, जो भयंकर चीख-पुकार, छिछालेदर, देख लुंगानुमा घमकियों, कॉलर पर हाथ डालूंनुमा कुछ प्रयासों के बीच वीरगति को प्राप्त हुआ। प्रस्ताव पर अंतिम टिप्पणी के रूप में घुटा-घुटा सा सुना गया कि 'बेन' से शादी करके उसका 'भाई ' बनेगा क्या? इसी बीच दूसरा जोरदार तर्क भी मार्केट में आ गिरा कि मीराबेन पहले ही से आजाद भाई से कुछ याराना किस्म के 'समझौते'से अनुबंधित हैं, और चूंकि आजाद गुंडई प्रवृति के आवारा किस्म की वृत्ति के 'भाई' हैं, अत: इस ऑप्शन में कुछ ठुकाई पिटाई के विकल्प उपस्थित हैं। जिनके संबंध में निष्कर्षत: सहमति बनी की यदि इन विकल्पों को हल करने का प्रयास किया जाना है तो वह सिर्फ मुझे ही करना होगा। कई अन्योन्याश्रित कारणों से मित्रवृंद उस सहकारी आयोजन में सहभागी नहीं बन पाएगा। अस्तु, उस प्रस्ताव पर राष्ट्रपति का जेबी वीटो मानकर चर्चा न करने की सहमति बन गई। इसके पश्चात् अगले नाम के रूप में पुलिस लाइन वाले मित्र ने कमलाबाई का नाम आगे रखा जिस पर 'भितरघात -विश्वासघात-धोखेबाजी' जैसे कई नयन संकेतों के मध्य प्रस्ताव के विश्लेषण के स्थान पर यह परिणाम आया कि पूर्व में प्रस्तावक का प्रस्ताव 'उन्होंने' स्वीकार न कर किसी अन्य से पींगें बढा ली थीं, जिसके परिणाम स्वरूप वे हमें बीच में डालकर मामला 'त्रिकोणीय' बनाना चाहते थे। अन्य मित्रों द्वारा उनकी अत्यंत भर्त्सना की गई जिसे उन्होंने अत्यंत निस्पृह भाव से पीक के साथ नाली में उगल दिया। मुंहपोंछ कर वे फिर प्रस्ताव मंडल में 'ब्लैकलिस्ट ' होने की अनुभूति से परे ठसकर शामिल हो गए। मामला अब गंभीर विमर्श के स्तर पर पहुंचने लगा था। पहले जो मित्र दबी-दबी सी आवाजें निकाल रहे थे वे अब गुरूतर दायित्व के अंतर्गत आसंदी पर उचक-उचक कर बैठने लगे, आवाजों में भी गजब की गहराई और मोटाई भरने लगे। अब चूंकि मामला था हमारा और हमने पहली बार ठानी थी सो, उनका दायित्व काफी बढ़ गया था। जिसके अनुरूप ही वे गंभीर विकल्पों लाने वाले थे। मुंह को टेढ़ा-मेढ़ा सा बनाकर उन्होंने एक मिनट में चंपादेवी का नाम प्रस्तावित किया, फिर अगले तीन मिनट में वे उनकी निजी विशेषताएं , पांच मिनट तक उसकी आजाद ख्याली के किस्से, सात मिनट तक उसकी पारिवारिक स्थिति तथा घर के चारों ओर उपस्थित स्थैतिक विवरणों पर गए। इन संपूर्ण क्रियाकलापों के बाद वे इस बात पर आए कि यह जोड़ी भली-भांति उपर्युक्त, पारिस्थितिक आधार पर लफड़ारहित, सामरिक आधार पर निष्कंटक, स्वभावगत आधार पर एक दूजे के लिएनुमा और प्यार करने के लिए सर्वथा प्रस्तुतायमान दृष्टव्य है। अत: देर न की जाकर इसे सांसदों का वेतन बढाने वाला प्रस्ताव मानकर तत्काल ध्वनि मत से स्वीकार कर लिया जाए, बल्कि सामूहिक रूप से हमारी ओर बधाई प्रस्ताव भी पारित कर खसका दिया जाए। इससे पहले की प्रस्ताव पर ध्वनिमत जैसा कुछ शुरू होता, ताक-झांक के एक्सपर्ट और दूसरों के घरों में लवलेटर फेंकने के लिए की जाने वाली कमांडो किस्म की कार्रवाई के विशेषज्ञ एक मित्र ने एकल सांसद पार्टी तरह विरोध में मुंह खोल दिया कि उस लड़की को तो उन्होंने कल्लू किरानेवाले को सौदे की लिस्ट के साथ लवलेटर देते देखा है। फिर वो लड़की रोज ही वहां से गोली-गट्टा, इमलियां-चना ना जाने क्या-क्या उठाकर खाती है। एक दिन तो कल्लू की नजर बचाकर उसके गल्ले में हाथ भी मार रही थी। उसके खयाल तो इतने खुले हैं कि स्कूल के बस्ते तक में चाक-डस्टर दूसरों के पेंसिल, मैडम का नाक पूंछा रूमाल तक भरकर ले आती है। तुम्हारी नजर बचाकर कभी किसी दूसरे के घर में कूद गई तो कहीं के नहीं रहोगे--। खैर, इतने विकराल विवरण के बाद इस पर कहीं से सहमति के हाथ न उठ सके।
फिर इन्हीं कमांडो किस्म के मित्र ने हमारा चुसे आम सा चेहरा देखकर एक नाम बिना आसंदी की सहमति के उछाल दिया। ''रानो कैसी रहेगी, कुछ पगली सी है लेकिन उसके दिल में सबके लिए प्यार है अभी परसों ही घर का पूरा खाना उठाकर बाहर कुत्तों डाल आई थी, इतनी ईमानदार है कि गली से गुजरने वाले हर आदमी को जितना तेज पत्थर मारती है अपने बाप पर भी उसी रफ्तार फेंकती है। बल्कि गालियां भी चुन-चुनकर देती है। एक बार तो उनके ऊपर कुल्ला तक कर चुकी है। भोली तो इतनी है एक का दुख देखकर उसके साथ भागने तक को तैयार हो गई थी।'' फिर क्या हुआ पूछे जाने पर बताया गया कि बाद में वो लड़का बेवफा निकला और उनके घर आने-जाने के क्रम में छोटी बहन को लेकर फरार हो गया था, बेचारी ये तो आज भी उसके साथ भगने को तैयार है। जब हमने उन्हें बताया कि साले तुम हमारे दोस्त हो कि दुश्मन तब उन्होंने शर्माते हुए जानकारी दी थी कि उसकी छोटी बहन को लेकर भगने वाले 'देवतुल्य' व्यक्ति वे ही हैं। वे तो उसका ऋण उतारना चाहते हैं, और फालतू की सारी चीजें ऐसे ही समय ही तो काम आती हैं, उन्होंने बताया- तुम तो पुराने सामान टाइप के तो पड़े हो इसमें तुम्हारा भी भला है। और तो और उनका मानना था कि रानो तक मुझसे प्यार करके मुझ पर एहसान ही करती।
जब ऐसी सारी मंत्रणा के बाद मैंने जमकर प्रतिवाद जताया कि सालो, सारे टूटे-फूटे, जंग खाए पुराने सामान को मुझे ही चैंपा जा रहा है, तब मंत्रणा की कार्यप्रणाली में परिवर्तन दिखा। एक उपसमिति का भी तत्काल गठन हो गया। फिर एक बार चीख-पुकार, दावे-प्रतिदावे, घूरने आदि का जोर गर्म हो गया। सारा प्रकरण चल ही रहा था कि नीचे से हमारे मकान मालिक पूरे सीन में एंट्री की और मुझे कोने में ले जाकर बताया कि भैइया, एक-दो दिन में कहीं ओर कमरा खोज लो, वहीं ये मजमा जमाओ, भले ही इस महीने का किराया मत देना, लेकिन एक-दो दिन में निकल लेना। जब उक्त आशय की घोषणा मैंने मंत्रणा समिति में की तो वहां का माहौल बदल गया। प्यार के ऑप्शन तलाशने की चिंता किराए का कमरा तलाशने में बदल गई। दो दिन पश्चात् जो अंतिम मींटिंग हुई उसमें बताया गया कि अभी तुम्हारा मकान नहीं मिला है, जब मिल जाएगा तब कमेटी दोबारा ऑप्शनों पर गौर करेगी, तब तक तुम्हारे प्यार की ठानने का प्रण पोस्टपोन अवस्था में ही रहेगा, समझे। सो, अब मैं उनके रहमो-करम पर हूं। मकान मिलेगा तो फिर वहां मजमा जमेगा, फिर खोज शुरू होगी। मेरा क्या मैं तो उस क्षण को कोस रहा हूं जिसमें मैंने प्यार करने की ठानी थी और एक मकान यानी एक अदद किराए के कमरे तक से बेदखल हो गया। आपका क्या सोचना है, मैंने क्यों ठानी थी प्यार करने की ?
अनुज खरे

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

काश, सोम दा की बात सच हो जाए....


डॉ. महेश परिमल
हाल ही में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी बंगला देश गए और वहाँ के सांसदों को संसद की गरिमा को बनाए रखने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए और क्या-क्या नहीं किया जाना चाहिए, यह समझाया। जाने के पहले यही सोम दा हमारे देश के सांसदों को बुरी तरह से लताड़ा। बहुत सी बद्दुआएँ भी दीं। उनका तो यह भी कहना है कि ये सांसद जनता को मूर्ख बना रहे हैं। इन्हें तो संसद में पहुँचना ही नहीं चाहिए। ऐसे लोग देश के साथ धोखा कर रहे हैं। इसके पूर्व भी सोम दा समय-समय पर सांसदों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते रहे हैं। उनकी दृष्टि में आज के सांसद पूरी तरह से लापरवाह हैं। उन्हें उनकी बिलकुल भी चिंता नहीं है, जिन्होंने अपना कीमती वोट देकर संसद में भेजा है। सोम दा की पीड़ा को समझा जा सकता है। उन्होंने वह दौर देखा है, जब सांसद पूरी तरह से जनता के प्रति निष्ठावान होते थे। कम से कम खर्च कर वे सदैव जनता के हित में ही सोचते थे, साथ ही संसद की गरिमा को बनाए रखने में अपना योगदान देते थे। आज स्थिति एकदम ही विपरीत है। ऐसे में यदि वे कहते हैं कि ऐसे सांसदों को जनता ही सबक सिखाएगी, तो उनका कहना बिलकुल भी गलत नहीं है।
सचमुच भारतीय सांसद आज एक प्रश्न चिह्न के रूप में हमारे सामने हैं। आज हम सब लोकसभा चुनाव के मुहाने पर हैं। कुछ समय बाद यही सांसद आम आदमी बनकर हमारे सामने याचक के रूप में आएँगे। हमारे पास एक सुनहरा अवसर है। ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए हम यदि कृतसंकल्पित हो जाएँ, तो संसद की गरिमा की रक्षा करने वाले ऐसे सांसदों को हम अपना प्रतिनिधि चुनकर भेज सकते हैं। लेकिन आज ईमानदार तो राजनीति में आना ही नहीं चाहते। वे खूब देख चुके हैं कि आज ईमानदार इंसान कहीं नहीं चल पाता। राजनीति में तो किसी भी तरह से भी नहीं। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए लोग इस क्षेत्र में आते हैं। वोट माँगने के लिए आम आदमी बनते हैं और वोट पाते ही वीआईपी बन जाते हैं। हमें मूर्ख बनाकर वे चले जाते हैं, पूरे 5 वर्षों के लिए।
संसद में हमारे सामने लड़ने वाले, अपशब्दों का प्रयोग करने वाले, माइक और कर्ुस्ाियाँ फेंकने वाले ये सांसद भले ही किसी बात पर एकमत न हों, पर जब भी सांसदों के वेतन-भत्तों को बढ़ाने का विधेयक आता है, तो एकजुट होकर उसे पारित करने में ारा भी देर नहीं करते। जनता के हित में बनने वाले जब कई विधेयक फोरम के अभाव में लटक जाते हैं, वहीं इनकी सुविधाएँ बढ़ाने वाला बिल कब और कैसे पारित हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसे स्वार्थ नहीं तो और क्या कहा जाए? अपने आप को जनता का सच्चा प्रतिनिधि कहने वाले ये कितने सुविधाभोगी और बेईमान हैं, यह तो इनके आचरण से ही पता चल जाता है। सरकार की तरफ से इतनी अधिक सुविधाएँ मिलने के बाद भी वे न तो टेलीफोन बिल समय पर भुगतान करते हैं, न आवास का किराया देते हैं और न ही बिजली बिल का भुगतान करते हैं। गलत आचरण इनकी रग-रग में बसा होता है। किसी की इात करना ये जानते ही नहीं। ऐसे में हम इन्हें कैसे बनाएँ अपना प्रतिनिधि?
आज कोई भी पार्टी यह दावे के साथ नहीं कह सकती कि उनके सभी सांसद ईमानदार हैं। उन पर किसी तरह का मुकदमा नहीं चला है। या फिर उनके किसी भी सांसद ने अपराध में जेल यात्रा न की हो। इसका आशय तो यही हुआ कि सांसद होने के पहले हमारे प्रतिनिधि को अपराधी होना आवश्यक है। आज अपराध और राजनीति परस्पर पूरक बन गए हैं। हत्या का आरोपी मुख्यमंत्री भी बन सकता है, दूसरी और अपराधी सांसद की जेल से रिहाई किसी उत्सव से कम नहीं होती। ऐसे में कैसे मिले, ईमानदार प्रतिनिधि? टिकट भी जब इन्हें मिलते हैं, तो बाहुबल के अलावा धन ही अधिक काम आता है। यदि कोई सांसद निर्दलीय जीत जाए, तो समझो उसके पौ-बारह। वह अपनी निष्ठा को लाखों नहीं, करोड़ों में बेचने के लिए तैयार हो जाता है।
संसद की आचार संहिता से किसी तरह का भी वास्ता न रखने वाले ये सांसद क्या जानें कि संसद का अपमान कितना बड़ा राजद्रोह है? संयम को तो ये जानते तक नहीं। संसद चलने के दौरान एक-एक पल भी कीमती होता है। पर इन्हें तो अपने स्वार्थ की पड़ी होती है। देश को लूटने वाले ये सांसद न केवल जनता के साथ, बल्कि देश के साथ भी गद्दारी कर रहे हैं। बहुत ही व्यथित होकर सोमनाथ चटर्जी ने इन्हें एक तरह से श्राप ही दिया है। ईश्वर करे, उनका यह श्राप फलित हो जाए। पर ऐसा होगा नहीं, हमारे सामने मजबूरी है, साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनने की। जब तक इसका तीसरा विकल्प 'इनमें से कोई नहीं' हमारे सामने नहीं आता, तब तक हमें ऐसे ही अपराधी, मुँहफट, बेईमान, सांसदों को झेलना ही पड़ेगा। अब ारा इन्हें मिलने वाली सुविधाओं पर एक नजर डाल लें:-


वेतन 12 हजार रुपए प्रतिमाह
निर्वाचन क्षेत्र खर्च 10 हजार रुपए प्रतिमाह
कार्यालय खर्च 14 हजार रुपए प्रतिमाह
यात्रा में रियायत 8 रुपए प्रतिकिलोमीटर यानी यदि वे केरल से दिल्ली आना-जाना करते हैं, तो इन्हें 48 हजार रुपए की रियायत मिलेगी।
दैनिक भत्ता 500 रुपए।
पूरे भारत में ट्रेन में एसी फर्स्ट क्लास में जितनी चाहे यात्रा कर सकते हैं।
एक वर्ष में विमान के बिजिनेस क्लास में पत्नी या पीए को लेकर वर्ष में 40 बार यात्रा कर सकते हैं।
दिल्ली के एमपी हाउस में नि:शुल्क आवास।
घर के 50 हजार यूनिट तक बिजली मुफ्त
एक लाख 70 हजार लोकल कॉल मुफ्त
इस तरह से एक सांसद (जो कम पढ़ा-लिखा है) पर सरकार हर महीने 2.66 लाख रुपए खर्च करती है। इस तरह से 5 वर्ष में कुल खर्च होता है एक करोड़ 60 लाख रुपए।
आप स्वयं ही समझ सकते है कि इस तरह से देश के कुल 534 सांसदों के पीछे 5 वर्ष में करीब 855 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अपने खर्च में कटौती करें। क्या यह संभव है?
सांसदों को मिलने वाली इतनी विपुल राशि भी उन्हें कम लगती है। इसके बाद भी यही शिकायत मिलती है कि उन्होंने बिजली बिल, टेलिफोन बिल आदि जमा नहीं किए हैं। सांसदों की इस स्थिति को देखते हुए हाल ही में जब एक प्रोफेसर ने चुनाव लड़ा, उनके जीत जाने पर जब उनसे कहा गया कि आपको प्रोफेसर पद या सांसद पद में से किसी को चुनना पड़ेगा, तो डन्होनें सांसदी ठुकराते हुए पुन: प्रोफेसर पद स्वीकार कर लिया।
26 फरवरी को लोकसभा के सत्र का अंतिम दिन था। इस दिन पता चला कि इतने सारे सांसदों में 15 सांसद ऐसे थे, जिन्होंने पिछले 5 वर्षों में एक बार भी अपना मुँह नहीं खोला। इसमें एक ओर मानव तस्करी के आरोप में पकड़े गए गुजरात दाहोद के बाबूभाई कटारा हैं, तो दूसरी ओर फिल्मों में अपने संवाद में भारी-भरकम शब्द बोलने वाले बीकानेर के सांसद धमर्ेंद्र भी हैं। इन्हें लगा ही नहीं कि उनके क्षेत्र में भी कोई समस्या है। छत्तीसगढ़ से बलिराम कश्यप और सोहन पोटाई भी इन्हीं सांसदों की सूची में हैं। लगता है सरकारी सुविधाओं ने इनकी बोलती ही बंद कर दी है। अगर इन्हें सुविधाएँ कम मिलती, तो निश्चित रूप से इन्हें लगता कि हमें कुछ बोलना चाहिए। सुविधाओं के ढ़ेर पर बैठे लोगों को यही लगता है कि जब हमें कोई परेशानी नहीं है, तो फिर हमारे क्षेत्र के लोगों को क्या परेशानी हो सकती है।
इस बार चुनाव के दौरान आपके सामने जब सांसद वोट माँगने आए, तब उनसे यह अवश्य पूछा जाएगा कि आखिर इतनी सुविधाओं के बाद वे बेईमान क्यों हैं?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 12 मार्च 2009

देश का पहला हिन्दी भाषा लैब मध्यप्रदेश में



सागर [मप्र]। मध्यप्रदेश के डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में देश का अपनी तरह का पहला हिन्दी भाषा का लैब खोला जाएगा। यह जानकारी विश्वविद्यालय के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत मिलने वाले अनुदानों के लिए पेश किए गए प्रस्तावों की जांच के लिए सागर आए विश्वविद्यालय अनुदान विभाग की समिति के संयोजक व चंडीगढ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. आर.सी. सोबती ने पत्रकारों से चर्चा के दौरान दी। प्रो.साबती ने मध्यप्रदेश के पहले केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने वाले डा. हरिसिंह गौर विवि में इंस्टीट्यूट आफ वूमेन स्टडीज व मानवाधिकार से जुडे पाठ्यक्रमों को शुरू किए जाने को आवश्यक बताया। उन्होंने विवि में लडकियों के लिए नए सर्व सुविधायुक्त छात्रावास, परिवहन की सुविधा व स्वास्थ्य केंद्र की सुविधाएं उपलब्ध कराने पर जोर दिया। दसवीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्वविद्यालय को मिले अनुदान की राशि के उपयोग को संतोषजनक बताते हुए यूजीसी समिति के साथ आए यूजीसी के ही उपसचिव एस. जिलानी ने कहा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्वविद्यालय को सभी विभागों के लिए पर्याप्त अनुदान दिया जाएगा। जिलानी ने बताया कि यूजीसी ऐसी समिति देश भर के विश्वविद्यालयों में हर पांच साल में एक बार भेजता है, जिससे विश्वविद्यालय की विकासात्मक, बुनियादी ढांचे के विस्तार व शैक्षणिक गतिविधियों के सुधार से संबंधित प्रस्तावों की जांच कर अनुदान मुहैया कराया जा सके। गौरतलब है कि दो दिनों के दौरे पर 16 फरवरी को सागर आई यूजीसी की टीम ने डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के सभी विभागों व गैर शैक्षणिक संस्थानों का दौरा किया। इस दौरान समिति के समक्ष विश्वविद्यालय के सभी विभागों की ओर से करीब 1148 करोड के प्रस्ताव पेश किए गए। समिति के ही अन्य सदस्य अमृतसर के गुरु नानक विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के प्रोफेसर आर.के. बेदी ने बताया कि सभी देशी व विदेशी भाषाओं के अध्ययन की सुविधा एक ही छत के नीचे मुहैया कराने के लिए सागर विश्वविद्यालय में स्कूल आफ लैंग्वेज स्थापित किए जाने का भी प्रस्ताव है। डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी कलाओं के विभाग दृश्य एवं श्रव्य विभाग की उपलब्धियों को शानदार बताते हुए समिति के सदस्य व हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के प्रोफेसर के. मधुसूदन रेड्डी ने कहा कि इस विभाग के लिए बेहतर सुविधाएं दिलाने के लिए पर्याप्त राशि मुहैया कराई जाएगी।

मंगलवार, 10 मार्च 2009

तिलक हॊली मनाएँ भाई चारा बढ़ाएँ

सभी साथियॊं कॊ हॊली की अशेष शुभकामनाएँ




सभी साथियॊं कॊ हॊली की अशेष शुभकामनाएँ

तिलक हॊली मनाएँ भाई चारा बढ़ाएँ
डॉ महेश परिमल

सोमवार, 9 मार्च 2009

क्या जवाब है सीबीआई के पास



नीरज नैयर
शुक्र है निठारी कांड का हश्र बाकी मामलों जैसा नहीं हुआ. निठारी के नरपिशाचों को अदालत ने सजा-ए-मौत सुनाकर चार साल से न्याय की आस में टकटकी लगाए बैठे पीड़ितों के कभी न भरने वाले जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया है. लेकिन इस फैसले से केंद्रीय जांच एजेंसी एक बार फिर सवालों में घिर गई है.
हालांकि सीबीआई ने खुद ही पंढेर और उसके नौकर कोहली को मौत की सजा देने की पैरवी की थी लेकिन शुरू में उसने जिस तरह से पंढेर को बचाने के प्रयास किए वो जांच एजेंसी की कार्यशैली और उसकी निष्पक्षता की कलई खोलने के लिए काफी है. निठारी कांड 29 दिसंबर, 2006 को उजागर हुआ था. रेप और हत्या के इस केस में पहले यूपी पुलिस ने जांच शुरू की. बाद में सरकार ने काफी फजीहत के बाद यह केस जनवरी, 2007 में सीबीआई के हवाले कर दिया. इस मामले में कुल 19 एफआईआर दर्ज की गई थी. शुरू में तो सीबीआई की तफ्तीश से लग रहा था कि जल्द ही सबकुछ सामने आ जाएगा मगर ऐसा नहीं हुआ. मामला खिंचता गया और लोग इंतजार करते रहे. निठारी कांड का हश्र भी अन्य मामलों जैसा होता अगर पीड़ित परिवार जांच एजेंसी की कार्यप्रणाली के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाते. पंढेर रसूख वाला व्यक्ति है. शायद सीबीआई इसी रसूख के दबाव में आकर उसे बचाती चली गई. आरोपत्रों में से उसके नाम काट दिए गये. कहा गया कि पंढ़ेर पूरे मामले से अंजान है. सारा खेल उसके नौकर ने ही रचा और धड़ाधड़ साजिशों को अंजाम देता गया. अब Hkला यह कैसे मुमकिन है कि नौकर घर में बलात्कार करे, हत्याएं करे और शवों के अंगों का सेवन करे और मालिक को इसकी कानों-कान खबर न हो. सीबीआई का तर्क था कि पंढ़ेर देश से बाहर था.
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब केंद्रीय जांच एजेंसी की जांच पर संदेह प्रकट हुआ हो. ऐसे मामलों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है. कई मामले तो दश्कों तक चलते के बाद भी बेनतीजा फाइलों में बंद पड़े हैं. नोएडा के बहुचर्चित आरुषी-हेमराज मर्डर केस में ही सीबीआई ने कैसे काम किया ये सबके सामने आ चुका है. उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह से जल्दबाजी में गलत तार जोड़ते-जोड़ते मामले को गलत दिशा में मोड़ दिया था सीबीआई भी कुछ वैसा ही करती नजर आई. जिन लोगों को उसने दोषी बताया वो कोर्ट से बरी हो गये. इतने लंबे वक्त में जांच एजेंसी इतने भी सबूत नहीं जुटा पाई कि अपने निर्णय की अदालत में हिफाजत करवा सके.
ण सीबीआई अब भी अंधेरे में हाथ-पांव मार रही है. 16 मई 2008 को हुई इस घटना में सीबीआई ने यह निष्कर्ष निकाला कि आरुषि के पिता डॉक्टर तलवार के खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं. सीबीआई को सबूतों के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है और वारदात में इस्तेमाल हथियार तक उसे नहीं पाया है. किडनी रैकेट मामले की जांच भी सीबीआई को मिली थी. सीबीआई की जांच की दिशा भी वही रही जो पुलिस की थी. सीबीआई इस मामले में डॉक्टर अमित सहित अन्य के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर चुकी है और मामला अदालत में पेंडिंग है. एसीपी राजवीर सिंह मर्डर केस भी सीबीआई के हवाले किया गया और उस मामले की जांच के बाद सीबीआई चार्जशीट दाखिल कर चुकी है.
इसमें भी कोई खास सफलता नहीं मिल सकी है. सीबीआई हमेशा से असरदार हस्तियों से जुड़े मामले में नाकाम ही रही है. ताज कॉरीडोर से लेकर मुलायम सिंह के आय से अधिक संपत्ति के मामलों में जांच एजेंसी को सर्वोच्च न्यायालय तक से फटकार सुनने को मिली है. ताजमहल के पास बन रहे कॉरीड़ोर के करोड़ों रुपए के घपले के केस में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का बचाने के आरोप जांच एजेंसी पर लगे. पहले खुद सीबीआई की तरफ से कहा गया कि गया कि मायावती के खिलाफ पर्याप्त सबूत मौजूद हैं लेकिन थोड़े वक्त बाद उसने यह कहकर सबको हिला दिया कि बसपा सुप्रीमो के खिलाफ जांच आगे बढ़ाने का कोई फायदा नहीं उसने इस मामले को बंद करने तक की सिफारिश कर डाली. ऐसे ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को आय से अधिक संपत्ति के केस में सीबीआई ने जमकर रियायत दी. उनके क्लीन चिट देने तक की नौबत आ पहुंची थी.
इस मामले में भी अदालत ने सीबीआई को जमकर फटकार लगाई. दरअसल केंद्रीय जांच एजेंसी सही मायनों में किसी काम की नहीं बची है. उसका राजनीतिकरण हो चुका है. अधिकारी भी क्राइम केस से ज्यादा किसी मंत्री की निजी जिंदगी की तहकीकात करने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं. केंद्र में आने वाली हर सरकार जांच एजेंसी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती रही है. मुलायम सिंह के मामले में भी वही हुआ. जब तक मुलायम कांग्रेस के करीबी थी केस फाइलों में दबा रहा मगर जैसे ही उन्होंने बागी तेवर दिखाए जांच तेज हो गई. हालात ये हो चले हैं कि अगर सीबीआई किसी केस की तफ्तीश अपने हाथ में लेती है तो लोग कहने लगते हैं, अब तो हो गई जांच. सीबीआई जैसी संस्था के प्रति इस तरह की सोच यह साबित करने के लिए काफी है कि जांच एजेंसी पर अब किसी को Hkरोसा नहीं.

नीरज नैयर

रविवार, 8 मार्च 2009



स्लम डॉग
दुनिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी धारावी की गरीबी और जिल्लत भरी जिंदगी पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर की झोली में सोमवार की सुबह जब एक के बाद एक 8 आस्कर अवार्ड गिरे, तो पूरा हिन्दुस्तान खुशी से झूम उठा, लेकिन इस खुशी को मनाते समय हर देशवासी का दिल दर्द से कराहा जरूर होगा। स्लम डॉग याने झुग्गियों के कुत्ते। हिन्दुस्तान के स्लम में रहने वाले लोगों के लिए इस शब्द के इस्तेमाल से यकीकन बहुतों का खून खौल उठा होगा।
यह फिल्म हमें कचोटती है, हमें आईना दिखाती है उस हिन्दुस्तान का, जिसकी दो तस्वीरें हैं। एक हिन्दुस्तान वह है, जहां हर हफ्ते अखबारों में दुनिया के सबसे अमीरों की लिस्ट में देश में बसने वाले मित्तल, अंबानी बंधुओं, टाटा, बिड़लाओं जैसे एक-दो प्रतिशत अरब-खरबपतियों का नाम छपता है। यह भी जिक्र होता है कि कैसे चांद पर मानव भेजने की तैयारी चल रही है, कैसे भारत चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में प्रसिध्दि पाता जा रहा है, कैसे यहां के आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थानों से निकलने वाले वैज्ञानिक, प्रबंधक दुनिया में अपनी प्रतिभा की धूम मचाए हुए हैं, कैसे हजारों लोग टाटा की नैनो को खरीदने लाइन लगाए खड़े हैं। इसी हिन्दुस्तान की दूसरी तस्वीर वह है , जहां वाकई में झुग्गी बस्तियों में घूमने वाले आवारा कुत्तों और वहां रहने वाले लोगों की जिंदगी में कोई खास फर्क नहीं होता। वह भी किसी के घर बर्तन मांजकर, इमारतों की तामीरी के काम में मजदूरी कर, हमारी आपकी फैलाई गंदगी को गटर, नालियों में घुसकर साफ करते हुए दिन भर कुत्ते की तरह गरियाए और लतियाए जाते हैं, तब कहीं दो वक्त की जुटा पाते हैं।
यह तस्वीर केवल मुंबई या दिल्ली जैसे महानगरों की नहीं, बल्कि हमारे शहर भोपाल की भी है। यहां भी 400 से यादा स्लम हैं, जिनमें लाखों लोग (डॉग्स) रहते हैं। यह भी उड़ना चाहते हैं, आसमान की दीवार पर कोई सुनहरी इबारत लिखना चाहते हैं, लेकिन सारे सपने दो जून की रोटी और जिंदगी को बचाने और उसे सहेजने की जद्दोजहद में दम तोड़ देते हैं। कभी कोई झुग्गियों को नासूर समझकर उखाड़ फेंकने के लिए आ खड़ा होता है, तो कोई इन्हीं झुग्गियों में छिपती, बचती अस्मत को अपने अश्लील इशारों से खरीदने की कोशिश करता है। किसी सुबह सड़क किनारे खड़े होकर इन्हीं झुग्गियों से निकलकर सरकारी स्कूल जाते मासूमों पर नजर डालें तो आपको पता चल जाएगा, कि कितने पैरों में आप आजादी के 61 साल बाद भी चप्पल नहीं पहना सके हैं। किसी सुबह आप शहर किसी चौराहे पर जाकर मजदूरों की नीलामी के लिए बोलियां लगते देखें, तो आपको पता लगेगा किसी गुलाम बनाने के लिए 2000 साल पहले के ग्रीक-रोमन काल और आज के अंदाज में कोई बहुत यादा फर्क नहीं आया है। अभी भी बड़ों की गंदगी को खुद गंदे होकर साफ करने वाले लोग इसी स्लम में रहते हैं।
आप इनकी गरीबी और बदहाली के लिए किस्मत को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि इस हाल के जिम्मेदार हम हैं, आप हैं, सरकार और उसके सिस्टम की है। इस शहर में गंदी बस्ती निर्मूलन मंडल बरसों से वजूद में रहा है, लेकिन गंदी बस्तियां कभी उजली बस्तियों में नहीं बदल पाईं। झुग्गी मुक्त आवास योजना भी झुग्गियों के लोगों को छत नहीं दे पाई। करोड़ों की रकम नेता-अफसरों और सिस्टम के पेट में चली गई। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के जमाने की 80 झुग्गी बस्तियां अब 400 से यादा हो गईं। लेकिन इन झुग्गियों से नेतागिरी चलाकर कई छुटभैये विधायक तक बन गए। ये वही नेता हैं, जिन्होंने बस्तियों में चिट फंड के नाम पर लाखों रुपए डकारे और बस्तियों को नशे के अड्डों में तब्दील किया। स्वास्थय और शिक्षा के लिए भी सरकारी योजनाओं की दवा, पुस्तकें और यहां तक की टाटपठ्टी तक इस काम से जुड़े लोग बेच खाते हैं।
शहर में यह स्लम डॉग्स भले ही अपना पेट न भर पाते हों ,लेकिन इनके पेट भरने और यहां की सेहत सुधारने, बच्चों की किस्मत संवारने के नाम पर तमाम स्वयं सेवी संस्थाएं देश-विदेश की संस्थाओं से करोड़ों रुपए जुगाड़कर हजम कर जाती है। हम यह नहीं कहते कि सभी संस्थाएं ऐसा करती हैं, लेकिन ऐसी संस्थाओं की बड़ी तादाद है, जिनका मकसद स्वयं की सेवा ही है।
डैनी बॉयल की यह फिल्म गरीबी की बदरंग तस्वीर दिखाकर हमें सरेआम नंगा कर देती हो, लेकिन यह उम्मीद भी जगाती है कि स्लम में रहने वाले लोगों की जिंदगी में ऊर्जा और प्रतिभा का अकूत भंडार होता है, जो वह प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते हुए पैदा होती है, यही उर्जा उनकी जरूरत भी है और मजबूरी भी। अगर सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं बेहद नेक इरादे कर झुग्गियों की जिंदगी संवारने और उनकी प्रतिबाओं को तराशने के काम में काम में जुट जाएं, तो इतने मिलिनेयर निकलेंगे कि कामयाबी के आस्कर से हमारा आपका सिर गर्व से हमेशा ऊंचा रह सकेगा।

शनिवार, 7 मार्च 2009

माँ


माँ,
मोम सी जलती रही
ताकि घर रोशन हो सके
और सब उस रोशन घर में बैठे
सुनहरे सपने बुना करते
परियों की कहानियाँ सुना करते
माँ की तपन से बेखबर
बात-बात से खुशियाँ चुना करते
और माँ जलती जाती
चुपचाप पिघलती जाती
मुर्गे की बांग से रात के सन्नाटे तक
बाजार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनों की दुनिया से घर की लीक तक
माँ खुद को भुलाकर बस माँ होती थी
बिन माँगी एक दुआ होती थी
माँ चक्कर घिरनी सी घुमती रही
खुद अनकही पर सबकी सुनती रही
पर जब वह उदास होती
एक बात बड़ी खास होती
वह बापू से दूर दूर रहती
पर बच्चों के और पास होती
माँ ने खुद खींची थी
एक लक्ष्मण रेखा अपने चारों ओर
इसलिए नहीं माँगा कभी सोने का हिरण,
कोई चमकती किरण
माँ को चाहिए था वो घर
जहाँ थे उनके नन्हें-नन्हें पर
जिनमें आसमाँ भरना था
हर सपना साकार बनाना था
पर जब सपने उड़ान भरने लगे
दुर्भाग्यवश धरा से ही डरने लगे
और माँ वक्त के थपेड़ाें से भक-भक कर जलने लगी
बूढ़ी हो गई वह भीतर से गलने लगी
जिस माँ ने आबाद किया था घर को
वहीं माँ उस घर को खलने लगी
उँगली पकड़कर जिनको चलना सिखाया
हर पग पर जिन्हें सँभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियाँ छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
ऑंखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हजार सितम झेलती थी पर
बच्चों की खातिर कुछ न बोलती थी
ऐसी मोम सी माँ
जलते-जलते बुझ गई
यक्ष प्रश्न कर गई
कि
एक माँ घर को सँभाल लेती है
सारा घर मिलकर भी माँ को सँभाल नहीं पाता
माँ के जीवन की संध्या को ही रोशनी क्यूं नहीं नसीब होती
जबकि माँ अपने बच्चों की हर पहर को रोशन करने के लिए
ता-उम्र ऑंधियों से लड़ा करती है
उनके सहारे की कद्र क्यूं नहीं हुआ करती
जबकि जब वह दूर चली जाती है
तो उनकी बहुत याद आती है
बहुत याद आती है।


रितु गोयल

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

लेखक की तरह मरने का ख्वाब पाले बैठा हूं: लीलाधर मंडल


हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई ने साहित्य में एक सुदीर्घ यात्रा तय की है। घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज, क्षमायाचना एवं काल बांका तिरछा के अलावा उनका कविता चयन कवि ने कहा हाल ही में प्रकाशित हुआ है। दिल का किस्सा में उनके गद्य और एक कवि के आत्मसंघर्ष की महीन आवाज सुन पडती है तो कविता का तिर्यक से उनके भीतर के काव्यास्वादक और आलोचक की शख्सियत से मुलाकात होती है। पिछले ही दिनों प्रकाशित डायरी दाना पानी उनके जीवन, उनकी रचना-प्रक्रिया और संघर्ष-भरे दिनों का रोजनामचा है। मंडलोई की शख्सियत के कई और पहलू हैं। अंडमान में अपनी तैनाती के दौरान उन्होंने आदिवासियों की लोककथाओं का संग्रह किया। अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में विश्वसनीय जानकारियों वाले लेख लिखे। उन्होंने हिंदी के अनेक सुपरिचित लेखकों, कलाकारों पर फिल्में बनायी हैं। लंबे अरसे से दूरदर्शन से संबद्ध रहे मंडलोई इन दिनों आकाशवाणी में उप महानिदेशक हैं। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ अंश-

[मंडलोई जी, अभी हाल में प्रकाशित बचपन की पाठशाला में जो दृश्य और चित्र आपने उकेरे हैं, भेदभाव के इस वातावरण के विरुद्ध मन के स्लेट पर किस तरह की इबारतें उभरती थीं?]

मेरी एक कविता है- दुख से प्यार करो जीत होगी। इसमें छिपा है लडने का अमर नुस्खा। सो बचपन की स्मृतियों के भेदभाव को लेकर जो लगभग सनातन सत्य है यदि उसकी कंडीशनिंग में फंस जाते तो लडने की शक्ति एकायामी हो जाती। हमारे साथ हुए भेदभाव को लेकर यदि हम कंडीशंड हो जाते तो जीवन भर उथलेपन से बाहर निकलने का रास्ता बंद हो जाता। मुझे मां की एक कहावत सदैव याद आती है- छै मइना की नई, बारा मईना की सोच के चलने हे। इस कहावत को मैंने सदा याद रखा।

[दानापानी में आपने फरेबकारी से भरे हुए जीवन की यादें दर्ज की हैं। किन दिनों की यादें हैं ये?]

ये यादें दिल्ली की हैं। उन तीन सालों की जब मैं नौकरी से बाहर था। यादें काव्यमय हैं। गुमनामी, पीडा और अपमान का दौर था। अपने को पहचानने का, तकलीफों से भरे समय को पाटने का। उस समय मैंने लोहे का स्वाद जैसी प्रिय कविता लिखी। दिल का किस्सा जैसी किताब और मगर एक आवाज जैसा संग्रह। उन दिनों को याद करता हूं तो फजल ताबिश की पंक्तियों की ताकत का पता चलता है- शर्म ऐसी भी कहां की शर्म है। दिल का किस्सा है तो कहना चाहिए। सो यह डायरी भी दिल का किस्सा ही है।

[मंडीहाउस के शिखर से दिल्ली की दुनिया बडी रोमांचक लगती है। कभी सोचा था, इस जगह से दिल्ली को निहारने का सुख मिलेगा?]

मैं एक लेखक की तरह मरने का ख्वाब पाले बैठा हूं और आप मुझे दलदली शिखर की तरफ खींच रहे हैं। माफ करें। इस भाषा को मैं भीतर बाहर दोनों जगह से जानता हूं। मीडिया में पहली पायदान से यहां तक की यात्रा में एक ही सिद्धांत पर चला हूं कि नौकरी मन लगाकर करो और उसे एक कपडे की तरह घर की किसी खूंटी पर रोज टांग दो और अपने कारीगर रूप में लौट जाओ। फिर लिखना, पढना या नाचना-गाना। बेडियों में बंधने की मजबूरी मैंने कभी नहीं पाली। दुनिया बडी है और महत्वपूर्ण। बकौल कैफी आजमी, मुझे भी लगता है- इक यही सोजेनिहां कुल मेरा सरमाया है।

[कहते हैं आलोचना में पस्ती का आलम है। पर इसमें व्याप्त गत्यवरोध का तोडने के प्रयत्न ही कहां हुए हैं। यहां तो उडती हुई पतंगों को काटने की व्यग्रता रहती है। कायदे से कविता की आत्मा में प्रवेश करने वाले आलोचक कितने हैं। इसके लिए आलोचक आगे ही आते तो क्यों न ऐसी शुरुआत कवियों में से ही कोई करे?]

आलोचना तो बंधु, आलोचकों से रूठ गयी है। आज समीक्षाएं लिखी जाती हैं दबाव में और एक किताब बन जाती है। ऐसा आलोचकों ने किया तो कवियों के लिए भी रास्ते खुल गए। फिर एक बात और, यदि कवि कवियों पर लिखता है तो उस पर भी आपत्ति। यह आपत्ति कवियों की तरफ से पहले आती है।

[यह जो आलोचना में दूसरी और तीसरी परंपरा की खोज और उसके दावे हैं, उनमें आपका कितना यकीन है?]

दूसरी, तीसरी, चौथी परंपरा के शीर्षक में अनुकरण का भाव तो द्रष्टव्य है। इसमें साथ आने या लांघने का भाव भी दीखता है। अंतत: बात तो वही प्रमाणित होगी जिसे शमशेर कह गए हैं- बात बोलेगी हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही। और वह कुछ हद तक तो खुल गयी है, कुछ भविष्य में खुल जाएगी।

[मंडलोई जी, आइए, आपके पर्सनल एकाउंट की कुछ तलाशी ली जाए। साहित्य के अलावा किन-किन क्षेत्रों में दिलचस्पी है?]

खाना बनाने और खिलाने में मन रमता है। चिडियों को रोज दाना डालना अच्छा लगता है। संगीत और फिल्म में रुचि है। यात्रा और आवारगी में। उर्दू कविताएं खूब मजे से पढता हूं। अकेला होता हूं तो बुंदेली गीत गाना पसंद करता हूं।

[जब कभी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई, देर तक बैठ के तनहाई में रोया कोई- ऐसे हालात से कभी रूबरू होना पडा?]

मेरे मित्र जो बहुत बडे पुलिस अधिकारी बनकर सेवानिवृत्त हुए, उन्होंने कहा था, अगर मेरे साथ ऐसा होता तो यकीनन आत्महत्या कर लेता। लेकिन मैंने अंत तक संघर्ष किया, जीता और दाग को मिटाकर दम लिया। अगर रोता तो यह न कर पाता।

[मैंने एक कुबडे यथार्थ को दिया कंधा इस देश में- क्या इस कथन को कविता में आपके सौंदर्यबोध का घोषणापत्र माना जाए?]

चूंकि मनुष्य के अधिकारों की अवमानना मैंने बचपन से देखी है, अत: ऐसा किसी के साथ भी होता है, तो मेरी कविता अपनी तरह से उठ खडी होती है। इस संदर्भ में युन्तुशेंको की बात याद आती है- कविता तभी तक जीवित रहती है जब तक वह कवि के भीतर अंधेरों में धडकती है, उसके भीतर घात-प्रतिघात करती है।

[बोली-बानी में बुंदेली की धमक, चित्त में मावली रंगत और चाहने वालों से बेपनाह मुहब्बत-भीड में अलग से दिखने के लिए क्या योग-क्षेम करते हैं?]

अलग दिखना कविता और जीवन में बहुत मुश्किल है। मित्रों को अर्जित करना आसान काम नहीं। प्यार करने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बडा दिल चाहिए। इसके लिए आप आम आदमी-सा व्यवहार नहीं कर सकते। बने-बनाए रास्ते से अलग जोखिम के साथ चलना पडता है। शकेब जलाली की पंक्तियां इस संदर्भ में याद आती हैं- शकेब अपने तआरुफ के लिए यह बात काफी है, हम उससे बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए।

डॉ. ओम निश्चल

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