सोमवार, 16 मार्च 2009
भारत के लिए बंगलादेश पाकिस्तान से अधिक खतरनाक
डॉ. महेश परिमल
हम सभी एक बार फिर चुनावी दंगल के मुहाने पर आकर खड़े हो गए हैं। हमारे सामने वही चिरपरिचित चेहरे आएँगे, एक तरह से याचक बनकर। केवल वोट की खातिर, वे कुछ समय के लिए हमारे सब-कुछ होना चाहेंगे। वे हमसे हमारी तकलीफें पूछेंगे, हमारी परेशानियाँ जानना चाहेंगे। हम केवल मोहल्ले की गंदगी, महँगाई, नेतागिरी, गुंडागर्दी आदि समस्याओं को बताएँगे, जिसे आमूल-चूल रूप से दूर करने का भरपूर आश्वासन हमें मिलेगा। हम कुछ समय के लिए खुश हो जाएँगे। मतदान करते ही हम फिर वही आम नागरिक बन जाएँगे और जिसे हमने अपना कीमती मत दिया है, वह बन जाएगा वीआईपी। यानी वेरी इंपाटर्ेंट परसन। कोई बता सकता है कि ये आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी क्यों होता है?
आज हम केवल अपने आसपास की समस्याओं को हीे सबसे बड़ी समस्या मानते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हमारे आसपास ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिसे एक बहुत ही बड़े स्तर पर अनदेखा किया जा रहा है। उन्हीं के कारण हमारी कई समस्याएँ लगातार बढ़ रही हैं। एक साजिश के तहत सब-कुछ हो रहा है, हमें इसका हल्का गुमान भी नहीं है। आपको मालूम है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान नहीं, बल्कि बंगलादेश की आबादी हर साल कम हो रही है। उनकी मतदाता सूची में हर बार लाखों मतदाता गायब हो जाते हैं। आखिर कहाँ जाते हैं वे लोग। क्या वे सब मर जाते हैं, मार दिए जाते हैं, या फिर वे भारत आ जाते हैं? आपने बिलकुल सही समझा, जी हाँ वे सभी भारत आ जाते हैं। 1971 से इन बंगलादेशियों का जिस तरह से आना हुआ है, वह अभी भी जारी है। यही कारण है कि आज हमारे देश में करोड़ों बंगलादेशी आकर रह रहे हैं, हर तरह की सुविधाएँ पा रहे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि ये किसी तरह का टैक्स नहीं पटाते, फिर भी भारत के नागरिक माने जाते हैं। क्यों न इस बार हम हमारे नेताओं से यह जानना चाहें कि क्या हमारा देश एक बड़ा अनाथालय है, जहाँ हम बरसों तक विदेशियों को पालकर रख रहे हैं? हमारा देश इतना अधिक धन-सम्पदा से परिपूर्ण तो नहीं कि दूसरों को बरसों तक पाल सके। हमारे देश में वैसे भी आबादी का नियंत्रण नहीं है, फिर दूसरे देशों के लोगों को पनाह देकर हम क्या साबित करना चाहते हैं?
14 जुलाई 2004 को संसद में गृह रायमंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि हाल में हमारे देश में कम से कम एक करोड, 20 लाख, 53 हजार 950 बंगलादेशी असंवैधानिक रूप से बसे हुए हैं। इसमें से 50 लाख तो केवल असम में ही रह रहे हैं। सबसे अधिक चिंतनीय तो यह है कि असम में 50 लाख का ऑंकड़ा 1991 के दिसम्बर की जनसंख्या के अनुसार थी। संसद में यह जानकारी 2004 में दी गई, इसका आशय यह हुआ कि गृह विभाग के पास भी सही ऑंकड़े नहीं थे। सन् 1971 में भारत ने पाकिस्तान के तत्कालीन जनरल याह्या खान और उसकी राक्षसी सैनिकों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए पाकिस्तान के साथ युध्द किया। इसके बाद बंगलादेश का जन्म हुआ। इस पुण्य कार्य के बदले में भारत को धन्यवाद के रूप में मिले 20 लाख से अधिक बंगलादेशी शरणार्थी। उस समय हमारी सरकार ने उक्त शरणार्थ्ाियों के नाम पर कई तरह के टैक्स लिए। हमारे ही धन की बदौलत वे शरणार्थी आज भी यही बसे हुए हैं, वे अपने देश नहीं गए। आज वे हमारी सरकार को किसी तरह का टैक्स नहीं देते, पर भारतीय नागरिक बन बैठे हैं। क्या यह उचित है?
भूतपूर्व चुनाव आयुक्त तिरुनेल्लई नारायण अय्यर शेषन ने 1994 में न्यूयार्क टाइम्स से एक साक्षात्कार में कहा था 'आज भी अकेले असम में दस लाख से अधिक बंगलादेशी गैरकानूनी रूप से रह रहे हैं।' टोरंटो यूनिवर्सिटी और अमेरिकन एकेडमी ऑफ आट्र्स एंड साइंस द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वास्तव में भारत में कुल दो करोड़ बंगालदेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। इसे सही साबित किया है, स्वयं बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने। हालांकि उन्होंने इसे कुछ अलग ही तरीके से पेश किया है, जो भी हो, पर यह सच्चाई भी समझने लायक है। बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने 1994 की 7 अक्टूबर को अपने देश के मतदाताओं की संख्या 4 करोड़, 60 लाख,16 हजार 178 बताई। 1991 की मतदाता सूची में इसकी तुलना में 61लाख, 65 हजार, 567 मतदाता अधिक थे। 5 वर्ष में ये 61 लाख मतदाता आखिर कहाँ गए? इस सवाल का जवाब कुछ हद तक इस तरह से दिया जा सकता है कि खुद बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने अपने मतदाता सूची में से 20 लाख मतदाताओं के नाम यह कहकर निकाल दिए कि ये सभी लम्बे समय से देश से बाहर हैं। दिलचस्प बात यह है कि जिन बंगलाभाषी मतदाताओं के नाम निरस्त हुए, उसमें से किसी ने भी अपना नाम फिर से मतदाता सूची में जोड़ने का प्रयास नहीं किया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इन सभी को अपने वतन से अधिक भारत में सुरक्षा और रोजगार मिल रहे थे। कोलकाता से प्रकाशित आनंद बाजार के 28 मई 1996 के अंक में दी गई जानकारी के अनुसार बंगलादेश के चुनाव आयुक्त ने इस डर से दूसरे 12 लाख मतदाताओं के नाम सूची में से निकाल दिए कि भारत में बसने वाला कोई बंगला नागरिक अपना नाम जोड़ने की कोशिश भी न करे।
अब एक और दिलचस्प बात। यूनो की एक समीक्षा में बताया गया है कि 1991 में बंगलादेश की आबादी 11 करोड़ , 80 लाख होनी चाहिए थी, किंतु बंगलादेश ने जनगणना में अपनी जनसंख्या 10 करोड़, 80 लाख बताई। तो बाकी के एक करोड़ लोग कहाँ गए? सन 1951 में जब भारत और पाकिस्तान पूरी तरह से अलग हो गए, उसके बाद बंगलादेश में हिंदू, इसाई आदि अल्पसंख्यकों की संख्या 22 प्रतिशत थी। जो 1995 में घटकर मात्र 10 प्रतिशत हो गई। या तो ये सब देश छोड़कर चले गए या फिर इन्हें खत्म कर दिया गया। 1991 में बंगलादेश की एक रिपोर्ट के अनुसार 5 लाख 'बिहारी मुस्लिमों' का देश में कहीं अता-पता नहीं था। आखिर कहाँ गए ये सब? इन तमाम सवालों का जवाब इस चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से पूछा जाना चाहिए। क्या हम यह जानकारी 'सूचना के अधिकार' के अंतर्गत प्राप्त कर जगजाहिर नहीं कर सकते? इसमें हमारा क्या दोष? केवल और केवल वोट की राजनीति के कारण हमारे देश की आर्थ्ािक व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट करने की साजिश होती रहे और हम सब चुपचाप खामोश बैठे रहें। बरसों से यह सब हो रहा है, हम पर वे शरणार्थी के रूप में लाद दिए गए। हम सब उन्हें ढो रहे हैं, उन्हें शरण दे रहे हैं। बदले में हमें क्या मिला? भूख, गरीबी, लाचारी और आतंकवाद। जी हाँ आज असम में जो स्थिति है उसकी वजह यही बंगलादेशी ही हैं। आज हमारे देश में इनके कारण अपराध बढ़ रहे हैं, इसकी ओर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। आखिर ये किस वजह से भारत के नागरिक हैं? बिना टैक्स दिए क्या कोई बरसों तक पूरी सुविधा प्राप्त करे और भारत का नागरिक बन बैठे। यह भला कहाँ का न्याय है?
इस बार तो हमें केवल यही सोचना है कि ये शरणार्थी आखिर कब अपने देश जाएँगे? क्यों हमारी सरकारें इन्हें पाले हुए है? इतने करोड़ लोग हमारे देश से चले जाएँगे, तो हमारा भी भला ही होगा। हमारे ही देश की सहायता से बना एक छोटा-सा देश आज हमारे लिए ही संकट बन रहा है? यह तो पाकिस्तान से भी अधिक खतरनाक है। अगर स्थिति को अभी से नहीं सँभाला गया, तो 2015 तक देश में ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी कि असम में बंगलादेश के मुस्लिमों की सरकार बन जाएगी, उसके मुख्यमंत्री भी मूल बंगलादेश के ही होंगे। तब कोई सरकार इस स्थिति का मुकाबला नहीं कर पाएगी। यह तय है।
डॉ. महेश परिमल
लेबल:
आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
जो इसका जवाब देंगे वे साम्प्रदायिक कहलाएँगे।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती