शुक्रवार, 6 मार्च 2009
लेखक की तरह मरने का ख्वाब पाले बैठा हूं: लीलाधर मंडल
हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई ने साहित्य में एक सुदीर्घ यात्रा तय की है। घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज, क्षमायाचना एवं काल बांका तिरछा के अलावा उनका कविता चयन कवि ने कहा हाल ही में प्रकाशित हुआ है। दिल का किस्सा में उनके गद्य और एक कवि के आत्मसंघर्ष की महीन आवाज सुन पडती है तो कविता का तिर्यक से उनके भीतर के काव्यास्वादक और आलोचक की शख्सियत से मुलाकात होती है। पिछले ही दिनों प्रकाशित डायरी दाना पानी उनके जीवन, उनकी रचना-प्रक्रिया और संघर्ष-भरे दिनों का रोजनामचा है। मंडलोई की शख्सियत के कई और पहलू हैं। अंडमान में अपनी तैनाती के दौरान उन्होंने आदिवासियों की लोककथाओं का संग्रह किया। अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में विश्वसनीय जानकारियों वाले लेख लिखे। उन्होंने हिंदी के अनेक सुपरिचित लेखकों, कलाकारों पर फिल्में बनायी हैं। लंबे अरसे से दूरदर्शन से संबद्ध रहे मंडलोई इन दिनों आकाशवाणी में उप महानिदेशक हैं। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ अंश-
[मंडलोई जी, अभी हाल में प्रकाशित बचपन की पाठशाला में जो दृश्य और चित्र आपने उकेरे हैं, भेदभाव के इस वातावरण के विरुद्ध मन के स्लेट पर किस तरह की इबारतें उभरती थीं?]
मेरी एक कविता है- दुख से प्यार करो जीत होगी। इसमें छिपा है लडने का अमर नुस्खा। सो बचपन की स्मृतियों के भेदभाव को लेकर जो लगभग सनातन सत्य है यदि उसकी कंडीशनिंग में फंस जाते तो लडने की शक्ति एकायामी हो जाती। हमारे साथ हुए भेदभाव को लेकर यदि हम कंडीशंड हो जाते तो जीवन भर उथलेपन से बाहर निकलने का रास्ता बंद हो जाता। मुझे मां की एक कहावत सदैव याद आती है- छै मइना की नई, बारा मईना की सोच के चलने हे। इस कहावत को मैंने सदा याद रखा।
[दानापानी में आपने फरेबकारी से भरे हुए जीवन की यादें दर्ज की हैं। किन दिनों की यादें हैं ये?]
ये यादें दिल्ली की हैं। उन तीन सालों की जब मैं नौकरी से बाहर था। यादें काव्यमय हैं। गुमनामी, पीडा और अपमान का दौर था। अपने को पहचानने का, तकलीफों से भरे समय को पाटने का। उस समय मैंने लोहे का स्वाद जैसी प्रिय कविता लिखी। दिल का किस्सा जैसी किताब और मगर एक आवाज जैसा संग्रह। उन दिनों को याद करता हूं तो फजल ताबिश की पंक्तियों की ताकत का पता चलता है- शर्म ऐसी भी कहां की शर्म है। दिल का किस्सा है तो कहना चाहिए। सो यह डायरी भी दिल का किस्सा ही है।
[मंडीहाउस के शिखर से दिल्ली की दुनिया बडी रोमांचक लगती है। कभी सोचा था, इस जगह से दिल्ली को निहारने का सुख मिलेगा?]
मैं एक लेखक की तरह मरने का ख्वाब पाले बैठा हूं और आप मुझे दलदली शिखर की तरफ खींच रहे हैं। माफ करें। इस भाषा को मैं भीतर बाहर दोनों जगह से जानता हूं। मीडिया में पहली पायदान से यहां तक की यात्रा में एक ही सिद्धांत पर चला हूं कि नौकरी मन लगाकर करो और उसे एक कपडे की तरह घर की किसी खूंटी पर रोज टांग दो और अपने कारीगर रूप में लौट जाओ। फिर लिखना, पढना या नाचना-गाना। बेडियों में बंधने की मजबूरी मैंने कभी नहीं पाली। दुनिया बडी है और महत्वपूर्ण। बकौल कैफी आजमी, मुझे भी लगता है- इक यही सोजेनिहां कुल मेरा सरमाया है।
[कहते हैं आलोचना में पस्ती का आलम है। पर इसमें व्याप्त गत्यवरोध का तोडने के प्रयत्न ही कहां हुए हैं। यहां तो उडती हुई पतंगों को काटने की व्यग्रता रहती है। कायदे से कविता की आत्मा में प्रवेश करने वाले आलोचक कितने हैं। इसके लिए आलोचक आगे ही आते तो क्यों न ऐसी शुरुआत कवियों में से ही कोई करे?]
आलोचना तो बंधु, आलोचकों से रूठ गयी है। आज समीक्षाएं लिखी जाती हैं दबाव में और एक किताब बन जाती है। ऐसा आलोचकों ने किया तो कवियों के लिए भी रास्ते खुल गए। फिर एक बात और, यदि कवि कवियों पर लिखता है तो उस पर भी आपत्ति। यह आपत्ति कवियों की तरफ से पहले आती है।
[यह जो आलोचना में दूसरी और तीसरी परंपरा की खोज और उसके दावे हैं, उनमें आपका कितना यकीन है?]
दूसरी, तीसरी, चौथी परंपरा के शीर्षक में अनुकरण का भाव तो द्रष्टव्य है। इसमें साथ आने या लांघने का भाव भी दीखता है। अंतत: बात तो वही प्रमाणित होगी जिसे शमशेर कह गए हैं- बात बोलेगी हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही। और वह कुछ हद तक तो खुल गयी है, कुछ भविष्य में खुल जाएगी।
[मंडलोई जी, आइए, आपके पर्सनल एकाउंट की कुछ तलाशी ली जाए। साहित्य के अलावा किन-किन क्षेत्रों में दिलचस्पी है?]
खाना बनाने और खिलाने में मन रमता है। चिडियों को रोज दाना डालना अच्छा लगता है। संगीत और फिल्म में रुचि है। यात्रा और आवारगी में। उर्दू कविताएं खूब मजे से पढता हूं। अकेला होता हूं तो बुंदेली गीत गाना पसंद करता हूं।
[जब कभी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई, देर तक बैठ के तनहाई में रोया कोई- ऐसे हालात से कभी रूबरू होना पडा?]
मेरे मित्र जो बहुत बडे पुलिस अधिकारी बनकर सेवानिवृत्त हुए, उन्होंने कहा था, अगर मेरे साथ ऐसा होता तो यकीनन आत्महत्या कर लेता। लेकिन मैंने अंत तक संघर्ष किया, जीता और दाग को मिटाकर दम लिया। अगर रोता तो यह न कर पाता।
[मैंने एक कुबडे यथार्थ को दिया कंधा इस देश में- क्या इस कथन को कविता में आपके सौंदर्यबोध का घोषणापत्र माना जाए?]
चूंकि मनुष्य के अधिकारों की अवमानना मैंने बचपन से देखी है, अत: ऐसा किसी के साथ भी होता है, तो मेरी कविता अपनी तरह से उठ खडी होती है। इस संदर्भ में युन्तुशेंको की बात याद आती है- कविता तभी तक जीवित रहती है जब तक वह कवि के भीतर अंधेरों में धडकती है, उसके भीतर घात-प्रतिघात करती है।
[बोली-बानी में बुंदेली की धमक, चित्त में मावली रंगत और चाहने वालों से बेपनाह मुहब्बत-भीड में अलग से दिखने के लिए क्या योग-क्षेम करते हैं?]
अलग दिखना कविता और जीवन में बहुत मुश्किल है। मित्रों को अर्जित करना आसान काम नहीं। प्यार करने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बडा दिल चाहिए। इसके लिए आप आम आदमी-सा व्यवहार नहीं कर सकते। बने-बनाए रास्ते से अलग जोखिम के साथ चलना पडता है। शकेब जलाली की पंक्तियां इस संदर्भ में याद आती हैं- शकेब अपने तआरुफ के लिए यह बात काफी है, हम उससे बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए।
डॉ. ओम निश्चल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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अच्छा मगर लफ्फबाजी से भरा साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंकभी ऐसा ही ख्वाब शैलेश मटियानी ने भी पाला था लेकिन हमने उनके साथ क्या किया?
बेबाक इंटरव्यू।
जवाब देंहटाएं