शनिवार, 14 मार्च 2009
जब हमने प्यार करने की ठानी...
अनुज खरे को लोग भले ही बहुत कम लोग जानते हों, पर सच तो यह है कि वे बहुत ही अच्छे व्यंग्यकार हैं। उससे भी अच्छे इंसान भी हैं। व्यवहार में गंभीर किंतु कलम बहुत ही पैनी है। पत्रकार होने का पूरा लाभ उठाते हैं और हालात का बारीकी से अध्ययन कर उसे व्यंग्य के माध्यम से उतारते हैं। उनके व्यंग्य में जो प्रहार है, वह दरअसल समाज की सच्ची तस्वीर है, जिसे हम चाहकर भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं। लेकिन सच है, स्वीकारना ही पड़ेगा। इससे आप अलग नहीं हो सकते। प्रस्तुत व्यंग्य एकदम ही ताजा है। आप ही पढ़ें और हालात को समझने का प्रयास करें, भले ही छोटा सा प्रयास हो....
डॉ. महेश परिमल
जब हमने प्यार करने की ठानी...
अनुज खरे
अंतत: हमने प्यार करने की ठान ली। ठानने की देर थी कि चारों ओर दुंदुभियां बजने लगीं, आकाश मार्ग से पुष्पवर्षा का क्रम शुरू हो गया। नक्षत्र-सितारे तत्काल ही जगह बदलने लगे। कहीं किसी घर में किसी कोमलांगी ने धीरे से चेहरे से लट हटाकर 'हिश्श' कहा। इन पारलौकिक घटनाओं के स्टॉक सीन के बाद देसी किस्म का पहली-पहली बार बलियेनुमा बैकग्राउंड सांग विद म्यूजिक ट्रेक शुरू हो गया। अतएव, सारांश में निष्कर्ष ये कि कोई महान घटना कहीं घट गई। चूंकि हमने प्यार की ठानी है अत: घटना में ऑर्डिनरी एलीमेंट तो बचता ही नहीं है। तो प्यार का मामला फाइनल होते ही तत्काल प्रारब्ध के वशीभूत मित्रनुमा सलाहकारों की व्यवस्था सुयोग्य अवसर जान उपस्थित होने लगी। बात किसी ऐरे-गैरे की होती तो कोई और बात थी चूंकि बात हमारी थी अत: आसान न थी। मामला मंत्रणा के स्तर पर पहुंच गया, तत्काल ही मोहल्ले से लेकर कस्बे तक के उपलब्ध ऑप्शनों पर गौर किया जाने लगा। भौगोलिक दूरी-वाहन, पेट्रोल के आर्थिक कारक, बाप-भाई के सामरिक-रणनीतिक आदि पहलुओं के आधार पर सच्चे प्यार की खोज शुरू हो गई।
पहले ऑप्शन अर्थात् फूलकुमारी पर गौर हुआ। भयंकर विमर्श के बाद पाया गया कि उसकी कंचा शक्ल के आगे मैं एकदम 'ढिबरी' सा दिखू्ंगा। एक ने तो इससे भी आगे बढ़कर शादी के बाद की भी भविष्यवाणी कर डाली - साले ये हमारे उसके आगे फूलगोभी की सब्जी में भटे से लगेंगे। जब उसे साइकल पर बिठाकर कहीं छोड़ने जाएंगे तो लगेगा कि ' ड्राइवर मैमसाब को कहीं छोड़ने ले जा रहा है।' अर्थात् बिना हमारी च्वाइस जाने उसे विकल्प को खारिज कर दिया गया। हमने कुछ कहने की कोशिश की तो जवाब मिला ''अबे हम करवाएंगे, हम तुम्हारा प्यार- सबसे धांसू लड़की से तुम्हारा टांका जोडेंग़े, तुम तो छिपकली के जैसे मुंह बंद करके दीवार से चिमटे बैठे रहो।'' मित्र मंडली के बहुमत के आगे हम कह ही नहीं पाए की- सालो हमने ठानी है हमारी ही नहीं सुन रहे हो। उल्टे उन लोगों ने हमारी चौकीदारी के लिए एक-एक की डयूटी लगा दी की कि कहीं हम कोई नादानी न कर बैठें। हालांकि बताया तो ये गया कि ऐसी हालत में न जाने कब क्या हो जाए तो एक साथ रहेगा तो हालत संभली रहेगी। जबकि हमारी इच्छा तो ये हो रही थी कि एक-एक को टांग से बांधकर साइकिल से तीन-तीन किलोमीटर तक घसीट दूं, फिर इन मोटे-तगड़े दोस्तों और मरियल सी अपनी साइकल को देखकर हमने इस खयाल को आते ही दबोचकर मार दिया। चेहरे पर आइडिए के आने से आई चमक को देखकर एक ने तो कह भी दिया '' देखो कैसी मुस्की मार रहा है, हम ई की चिंता में किलपे जा रहे हैं, जै सारो गुरुघंटालई है।'' हालांकि दूसरे ऑप्शन के रूप में फिर मीराबेन का नाम प्रस्तावित हुआ, जो भयंकर चीख-पुकार, छिछालेदर, देख लुंगानुमा घमकियों, कॉलर पर हाथ डालूंनुमा कुछ प्रयासों के बीच वीरगति को प्राप्त हुआ। प्रस्ताव पर अंतिम टिप्पणी के रूप में घुटा-घुटा सा सुना गया कि 'बेन' से शादी करके उसका 'भाई ' बनेगा क्या? इसी बीच दूसरा जोरदार तर्क भी मार्केट में आ गिरा कि मीराबेन पहले ही से आजाद भाई से कुछ याराना किस्म के 'समझौते'से अनुबंधित हैं, और चूंकि आजाद गुंडई प्रवृति के आवारा किस्म की वृत्ति के 'भाई' हैं, अत: इस ऑप्शन में कुछ ठुकाई पिटाई के विकल्प उपस्थित हैं। जिनके संबंध में निष्कर्षत: सहमति बनी की यदि इन विकल्पों को हल करने का प्रयास किया जाना है तो वह सिर्फ मुझे ही करना होगा। कई अन्योन्याश्रित कारणों से मित्रवृंद उस सहकारी आयोजन में सहभागी नहीं बन पाएगा। अस्तु, उस प्रस्ताव पर राष्ट्रपति का जेबी वीटो मानकर चर्चा न करने की सहमति बन गई। इसके पश्चात् अगले नाम के रूप में पुलिस लाइन वाले मित्र ने कमलाबाई का नाम आगे रखा जिस पर 'भितरघात -विश्वासघात-धोखेबाजी' जैसे कई नयन संकेतों के मध्य प्रस्ताव के विश्लेषण के स्थान पर यह परिणाम आया कि पूर्व में प्रस्तावक का प्रस्ताव 'उन्होंने' स्वीकार न कर किसी अन्य से पींगें बढा ली थीं, जिसके परिणाम स्वरूप वे हमें बीच में डालकर मामला 'त्रिकोणीय' बनाना चाहते थे। अन्य मित्रों द्वारा उनकी अत्यंत भर्त्सना की गई जिसे उन्होंने अत्यंत निस्पृह भाव से पीक के साथ नाली में उगल दिया। मुंहपोंछ कर वे फिर प्रस्ताव मंडल में 'ब्लैकलिस्ट ' होने की अनुभूति से परे ठसकर शामिल हो गए। मामला अब गंभीर विमर्श के स्तर पर पहुंचने लगा था। पहले जो मित्र दबी-दबी सी आवाजें निकाल रहे थे वे अब गुरूतर दायित्व के अंतर्गत आसंदी पर उचक-उचक कर बैठने लगे, आवाजों में भी गजब की गहराई और मोटाई भरने लगे। अब चूंकि मामला था हमारा और हमने पहली बार ठानी थी सो, उनका दायित्व काफी बढ़ गया था। जिसके अनुरूप ही वे गंभीर विकल्पों लाने वाले थे। मुंह को टेढ़ा-मेढ़ा सा बनाकर उन्होंने एक मिनट में चंपादेवी का नाम प्रस्तावित किया, फिर अगले तीन मिनट में वे उनकी निजी विशेषताएं , पांच मिनट तक उसकी आजाद ख्याली के किस्से, सात मिनट तक उसकी पारिवारिक स्थिति तथा घर के चारों ओर उपस्थित स्थैतिक विवरणों पर गए। इन संपूर्ण क्रियाकलापों के बाद वे इस बात पर आए कि यह जोड़ी भली-भांति उपर्युक्त, पारिस्थितिक आधार पर लफड़ारहित, सामरिक आधार पर निष्कंटक, स्वभावगत आधार पर एक दूजे के लिएनुमा और प्यार करने के लिए सर्वथा प्रस्तुतायमान दृष्टव्य है। अत: देर न की जाकर इसे सांसदों का वेतन बढाने वाला प्रस्ताव मानकर तत्काल ध्वनि मत से स्वीकार कर लिया जाए, बल्कि सामूहिक रूप से हमारी ओर बधाई प्रस्ताव भी पारित कर खसका दिया जाए। इससे पहले की प्रस्ताव पर ध्वनिमत जैसा कुछ शुरू होता, ताक-झांक के एक्सपर्ट और दूसरों के घरों में लवलेटर फेंकने के लिए की जाने वाली कमांडो किस्म की कार्रवाई के विशेषज्ञ एक मित्र ने एकल सांसद पार्टी तरह विरोध में मुंह खोल दिया कि उस लड़की को तो उन्होंने कल्लू किरानेवाले को सौदे की लिस्ट के साथ लवलेटर देते देखा है। फिर वो लड़की रोज ही वहां से गोली-गट्टा, इमलियां-चना ना जाने क्या-क्या उठाकर खाती है। एक दिन तो कल्लू की नजर बचाकर उसके गल्ले में हाथ भी मार रही थी। उसके खयाल तो इतने खुले हैं कि स्कूल के बस्ते तक में चाक-डस्टर दूसरों के पेंसिल, मैडम का नाक पूंछा रूमाल तक भरकर ले आती है। तुम्हारी नजर बचाकर कभी किसी दूसरे के घर में कूद गई तो कहीं के नहीं रहोगे--। खैर, इतने विकराल विवरण के बाद इस पर कहीं से सहमति के हाथ न उठ सके।
फिर इन्हीं कमांडो किस्म के मित्र ने हमारा चुसे आम सा चेहरा देखकर एक नाम बिना आसंदी की सहमति के उछाल दिया। ''रानो कैसी रहेगी, कुछ पगली सी है लेकिन उसके दिल में सबके लिए प्यार है अभी परसों ही घर का पूरा खाना उठाकर बाहर कुत्तों डाल आई थी, इतनी ईमानदार है कि गली से गुजरने वाले हर आदमी को जितना तेज पत्थर मारती है अपने बाप पर भी उसी रफ्तार फेंकती है। बल्कि गालियां भी चुन-चुनकर देती है। एक बार तो उनके ऊपर कुल्ला तक कर चुकी है। भोली तो इतनी है एक का दुख देखकर उसके साथ भागने तक को तैयार हो गई थी।'' फिर क्या हुआ पूछे जाने पर बताया गया कि बाद में वो लड़का बेवफा निकला और उनके घर आने-जाने के क्रम में छोटी बहन को लेकर फरार हो गया था, बेचारी ये तो आज भी उसके साथ भगने को तैयार है। जब हमने उन्हें बताया कि साले तुम हमारे दोस्त हो कि दुश्मन तब उन्होंने शर्माते हुए जानकारी दी थी कि उसकी छोटी बहन को लेकर भगने वाले 'देवतुल्य' व्यक्ति वे ही हैं। वे तो उसका ऋण उतारना चाहते हैं, और फालतू की सारी चीजें ऐसे ही समय ही तो काम आती हैं, उन्होंने बताया- तुम तो पुराने सामान टाइप के तो पड़े हो इसमें तुम्हारा भी भला है। और तो और उनका मानना था कि रानो तक मुझसे प्यार करके मुझ पर एहसान ही करती।
जब ऐसी सारी मंत्रणा के बाद मैंने जमकर प्रतिवाद जताया कि सालो, सारे टूटे-फूटे, जंग खाए पुराने सामान को मुझे ही चैंपा जा रहा है, तब मंत्रणा की कार्यप्रणाली में परिवर्तन दिखा। एक उपसमिति का भी तत्काल गठन हो गया। फिर एक बार चीख-पुकार, दावे-प्रतिदावे, घूरने आदि का जोर गर्म हो गया। सारा प्रकरण चल ही रहा था कि नीचे से हमारे मकान मालिक पूरे सीन में एंट्री की और मुझे कोने में ले जाकर बताया कि भैइया, एक-दो दिन में कहीं ओर कमरा खोज लो, वहीं ये मजमा जमाओ, भले ही इस महीने का किराया मत देना, लेकिन एक-दो दिन में निकल लेना। जब उक्त आशय की घोषणा मैंने मंत्रणा समिति में की तो वहां का माहौल बदल गया। प्यार के ऑप्शन तलाशने की चिंता किराए का कमरा तलाशने में बदल गई। दो दिन पश्चात् जो अंतिम मींटिंग हुई उसमें बताया गया कि अभी तुम्हारा मकान नहीं मिला है, जब मिल जाएगा तब कमेटी दोबारा ऑप्शनों पर गौर करेगी, तब तक तुम्हारे प्यार की ठानने का प्रण पोस्टपोन अवस्था में ही रहेगा, समझे। सो, अब मैं उनके रहमो-करम पर हूं। मकान मिलेगा तो फिर वहां मजमा जमेगा, फिर खोज शुरू होगी। मेरा क्या मैं तो उस क्षण को कोस रहा हूं जिसमें मैंने प्यार करने की ठानी थी और एक मकान यानी एक अदद किराए के कमरे तक से बेदखल हो गया। आपका क्या सोचना है, मैंने क्यों ठानी थी प्यार करने की ?
अनुज खरे
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व्यंग्य
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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