सोमवार, 31 मार्च 2008

आया समय मासूमों को तराशने का....


डा. महेश परिमल
परीक्षाओं का दौर समाप्त हो गया. अब बच्चे खाली हो गए. जो धनिक वर्ग से हैं, उन्होंने तो पहले से ही अपने यात्रा विवरण तैयार कर लिए हाेंगे, कई लोग तो निकल भी पड़े होंगे, यात्रा के लिए कहीं ठंडे स्थानों पर. पर जो सामान्य वर्ग के हैं, वे क्या करें. पढ़ाई से कुछ महीने के लिए मुक्ति मिल गई. अब क्या करें. अतएव अब बच्चे अपने साथियों के साथ खेलने में ही काफी समय व्यतीत कर रहे हैं. पास-पड़ोस में जाना, आसपास के बाग-बगीचों में जाना, ये क्रियाकलाप अब रोज ही होने लगे हैं.
उस दिन पड़ोस के बच्चे मेरे घर आ गए. शैतानी तो बच्चों का जन्म सिध्द अधिकार है. यह सोचकर सभी हमारे घर पर ही खेलने लगे. बाहर तेज धूप के कारण निकला नहीं जा रहा था, सो सबने मिलकर घर के अंदर ही क्रिकेट खेलने का मन बना लिया. धीरे-धीरे ही सही, पर क्रिकेट जमने लगा. इस बीच एक बच्चे ने जो छक्का मारा कि बॉल सीधे टीवी पर लगी. टीवी फूट गया. अब बच्चों की तो बोलती ही बंद हो गई. शाम को जब हम दोनों ऑफिस से लौटे, तो पता चला कि हमारा टीवी नाकाम हो गया है. पहले तो हमने अपने बच्चों से पूछा. उन्होंने अपनी गलती स्वीकारी और यह वचन दिया कि अब कभी घर के अंदर क्रिकेट नहीं खेलेंगे. फिर हमने पड़ोसी के बच्चों से बात की. कोई हल नहीं निकला. बाद में जिस बच्चे के छक्के से टीवी फूटा था, उससे बात की. उसका कहना था कि उसने तो धीरे से ही मारा था, पर बॉल तेज थी, इसलिए वह सीधे टीवी पर पड़ी. तब हमने उससे पूछा- बेटे, क्या तुमने अपने घर के अंदर कभी क्रिकेट खेला है? उसने ना में उ?ार दिया. तब हमने उससे पूछा कि क्या कभी तुम्हारे हाथ से घर की कोई खास चीज टूटी है. इस बार भी उसने ना में ही उ?ार दिया. तब मैंने उससे कहा कि अब पहले अपने घर का टीवी तोड़कर आओ, फिर मेरे घर का टीवी तोड़ना. उसके बाद से उन बच्चों का घर आना ही बंद हो गया. ऐसा ही होता है. बच्चे अपने पिता का मोबाइल तो छूते तक नहीं, पर दूसरों के घरों में जाकर वहाँ के लोगों का मोबाइल लेकर गेम खेलना शुरू कर देते हैं. यह नहीं हो पाया, तो उनका कंप्यूटर ही चालू कर लिया और लगे गेम खेलने. बच्चे तो सामने वाले की पीड़ा नहीं समझते, यह ठीक है, पर क्या उनके पालक इसे समझने की कोशिश करते हैं?
ऐसा ही होता है पडाेसी अपने बच्चों को दूसरों के घरों में भेजकर दोपहर की नींद का आनंद लेते हैं, या फिर टीवी देखने में मशगूल हो जाते हैं. उन्हें चिंता ही नहीं रहती कि बच्चे दूसरों के घरों में जाकर आखिर कर क्या रहे हैं. जिन घरों में माता-पिता दोनों ही काम पर जाते हाें, उन घरों की स्थिति काफी विकट हो जाती है. उन घरों के बच्चे साथ पाने के लिए पड़ोसियों के बच्चों को अपने घर में आने देते हैं. जहाँ बच्चे जमा हुए कि शैतानियाँ शुरू. फिर तो घर में रखी चीजें टूटती-फूटती ही रहती हैं. कभी अपने ही बच्चों से तो कभी पड़ोस के बच्चों से. अपने बच्चों से फिर भी कुछ कहा जा सकता है, पर पड़ोस के बच्चों से क्या कहा जाए?
यह एक आम समस्या है, जिससे आज पालक जूझ रहे हैं. इसका समाधान तो यही है कि अपने बच्चों को नियंत्रण में रखा जाए, पर कैसे? हमने तो अपने बच्चों को यही संस्कार दिए कि दूसरों के घरों में जाकर संयम बरता जाए, फिर चाहे वह व्यवहार में हो या फिर खेल में. पर दूसरों के बच्चों को अपने घर में हमारी अनुपस्थिति में घर पर आना कैसे रोका जाए? इसका आशय यही है कि बच्चे जो अपने घर में नहीं कर पाते, अक्सर वे दूसरों के घरों में करते हैं. पड़ोसी के बच्चे चूँकि अपने घर में शैतानियों का प्रदर्शन कम ही करते हैं, अतएव उन्हें यह विश्वास भी नहीं हो सकता कि उनका बच्चा किसी के घर जाकर उनका टीवी तोड़ सकता है. उनके लिए तो उनका बच्चा सबसे सीधा बच्चा है, जो कभी शैतानी नहीं करता. उनकी इस धारणा को झुठलाया भी नहीं जा सकता. अपने बच्चों के बारे में धारणा बनाने में पालकों से अच्छा हितैषी भला कौन होता है.


ये परीक्षा के बाद की एक गंभीर समस्या है. जो बच्चे अपने घर पर शैतानियाँ नहीं कर पाते, वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन बाहर करते हैं. कभी किसी पार्क में खेलते हुए उनकी बॉल पास के किसी घर में गिरती है, कभी खिड़की का शीशा तोड़ती है, कभी किसी को चोट पहुँचाती है. इन दिनों उनके व्यवहार में एक उच्छृंखलता देखी जा सकती है. माना कि ये मौसम उनके खेल का है, शरारत का है, मौज-मस्ती का है, लेकिन इसे पालकों की लापरवाही का मौसम तो कतई नहीं कहा जा सकता. इतना कहा जा सकता है कि वे इन दिनों बच्चों के प्रति थोड़े से उदार अवश्य हो जाते हैं. बच्चे उनकी इसी उदारता का लाभ उठाते हैं, जो उनकी शरारतों के रूप में सामने आती है.
यदि इसका समाधान तलाशने की कोशिश की जाए, तो यह बात सामने आती है कि आखिर बच्चे इन छुट्टियों में करें क्या? बच्चों का टाइम-टेबल उनकी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यदि पालक स्वयं ही तैयार करें, तो इस दिशा में एक अच्छा कदम माना जा सकता है. पालक स्वयं परखें कि उनका बच्चा किस कार्य में अधिक दिलचस्पी दिखाता है. उसकी इस रुचि के अनुसार उसे किसी क्लास में भेजा जा सकता है. जहाँ वह अपनी रुचि को एक नया आकार देगा. हम सब जानते हैं कि बच्चा कितना भी शैतान क्यों न हो, उसमें कुछ तो ऐसा होता ही है, जिससे वह थोड़ा सा अलग होता है. पालक बस उसकी इसी विशेषता को ध्यान में रखें और उसे कहीं व्यस्त कर दें.
बच्चा यदि रोज ही कहीं खेलने जा रहा है, तो उस पर नजर रखें. वह क्या करता है, कहाँ जाता है, उसके मित्र कैसे हैं, किस तरह का खेल खेल रहे हैं, कहीं कोई उन्हें भरमा तो नहीं रहा है, जहाँ उसका समय अधिक गुजर रहा है, उससे किसी को कोई आप?ाि तो नहीं है? उसकी तमाम गतिविधियों पर उससे रोज ही चर्चा करें, ताकि बच्चे को इस बात का थोड़ा सा ही सही पर पालक का डर रहे. घर में यदि बड़ी होती बिटिया है,तो उसका विशेष ध्यान रखें. कोशिश करें कि उसका दोपहर का समय घर पर ही गुजरे. यदि वह बाहर जाती है, तो उसके पहनावे पर विशेष ध्यान दें.
टीवी और कंप्यूटर आज की खास जरूरतें हैं, इसके बिना प्रगति की बात तो हो ही नहीं सकती. पर यही समय है, जब बच्चों को पाठयक्रम की किताबों से दूर होकर ऐसी किताबों की ओर उन्मुख किया जाए, जो उसे नैतिक ज्ञान दे. केवल ज्ञान ही नहीं, जो उसकी कल्पनाओं को इंद्रधनुषी रंग दे. आज की कंप्यूटराइज्ड दुनिया में बच्चे तो क्या बड़े भी कल्पनाओं की दुनिया से बहुत दूर होते जा रहे हैं, बड़ों को तो बदला नहीं जा सकता, पर बच्चों को तो बदलने की शुरुआत की जा सकती है. बच्चों को कॉमिक्स का संसार दें, जिससे वे कविता, कहानी, नाटक, चित्रकला आदि अनेक विधाओं से रु-ब-रु हो सकें. ये वह संसार है, जहाँ बच्चों की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं. आज वे कल्पना करना ही भूल गए हैं. उनकी कल्पनाओं को साकार रूप देते टीवी और कंप्यूटर जो आ गए हैं.
बच्चे कल के भविष्य हैं, उन्हें कल्पना करने का अवसर तो दें, फिर देखो उनकी कल्पनाएँ कहाँ किस तरह से सुदूर क्षेत्रों तक जाती है. पालक उन्हें आज की वायवीय दुनिया से दूर ले जाकर सच के धरातल पर भी टिकने का मौका दें, उनके काँधों को इतना मजबूत बना दें कि कल उन पर देश, समाज और परिवार का बोझ आ जाए, तो उसे वे सँभाल सकें. वायवीय संसार देकर उनके कांधों को कमजोर न बनाएँ, नहीं तो कल हमारा समाज ही बिना सहारे का हो जाएगा.
डा. महेश परिमल

शनिवार, 29 मार्च 2008

भ्रम की दुनिया से बाहर आएँ


डा. महेश परिमल
आजकल परीक्षाओं का मौसम चल रहा है. बच्चों के तो परिणाम भी निकल आए हैं. कई बच्चे अगले शिक्षा सत्र की पढ़ाई में भी जुट गए होंगे. जिज्ञासावश किसी भी बच्चे से उसका रिजल्ट पूछ लीजिए. वह बताएगा कि वह तो क्लास में फर्स्ट या सेकेण्ड आया है. हर बच्चा अपनी इस उपलब्धि को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का आदी हो गया है. इसके लिए वह नहीं, बल्कि उनके पालक दोषी होते हैं. वे ही बच्चे को समझाईश देते हैं कि वह सच न बताए. जो वे कह रहे हैं, वही बताए. यहीं से शुरू होती है एक झूठ की दुनिया, फरेब की दुनिया या फिर भ्रम या मुगालते की दुनिया.
एक अंजीब दुनिया है भ्रम की. हर कोई इसमें रहना चाहता है. इससे निकलना याने एक ऐसी ंजिदगी को कुबूलना, जो उन्हें पसंद नहीं. वैसे कई लोग इस दुनिया में ताउम्र रह लेते हैं. उन्हें कोई ंफर्क नहीं पड़ता कि लोग उन्हें क्या समझेंगे? इसकी वजह यही है कि वे सच्चाई से दूर भागते हैं. सच की कल्पना उनके लिए किसी भयावह ंजिदगी जीने जैसी है. हमारे आसपास ऐसे कई लोग मिल जाएँगे, जिन्हें यदि एक बार भी सच का आईना दिखा दिया जाए, तो वे विचलित हो जाते हैं.
एक बार एक मित्र के यहाँ जाना हुआ. वहाँ उनके पड़ोसी का पुत्र आया हुआ था. जिज्ञासावश नाम पूछा, फिर उसकी परीक्षा के परिणाम ही पूछ लिया. तब उसने बताया कि वह क्लॉस में फर्स्ट आया है. संयोगवश वह बच्चा जिस स्कूल में पढ़ता था, उसी स्कूल के एक बच्चे से कुछ दिन बाद मुलाकात हुई, तब उसने बताया कि उनकी क्लॉस में फर्स्ट तो वह बालक नहीं आया है, जो मित्र के पड़ोस में रहता है. यह तो बाद में पता चला कि मित्र के पड़ोस में रहने वाला बच्चा क्लॉस में चौथा आया था, उसके पालक ने ही उस बच्चे से यह कह दिया था, कि कोई पूछे तो कह देना कि वह फर्स्ट आया है.
ऐसा अक्सर होता है. लोग मुगालते की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं, वे सोचते है कि हम बहुत ऊपर आ गए, पर यह वास्तविकता नहीं है. उस पालक ने अपने बच्चे को मुगालते की तीन सीढ़ियाँ चढ़ा दीं, पर वे यह भूल गए कि उन्होंने उस मासूम को एक ऐसी दुनिया दिखा दी, जो सच के धरातल पर नहीं, बल्कि उसे झूठ की लिजलिजी जमीन पर खड़ा कर दिया है. किसी भी परिचित को यदि आप बताएँ कि आप किस संस्था से जुड़े हैं, तब निश्चित ही वह अपरिचित व्यक्ति आपसे आपके बॉस का छोटा-सा नाम लेकर कहेगा-कभी वह मेरे साथ काम करता था. उसके आड़े वक्त पर मैंने उसकी काफी मदद की थी. यह तो तय है कि हम उसकी ये बात अपने बॉस से कह नहीं सकते. पर कभी चर्चा में यह बात सामने आ गई, तो बॉस इसे तुरंत नकार देंगे, इसके विपरीत यही कहेंगे कि उसकी कई बार उन्होंने मदद की थी.
वैसे भी भ्रम का मतलब मुगालता भी होता है. अपने को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कवि मानकर अपनी रचनाओं के नाम पर खण्डकाव्य सुनाने वाले कई लोग मिल जाएँगे. ऐसे लोग इसी दुनिया में रहें, तो ही बेहतर है, क्योंकि सच उनके लिए प्राणघातक है. वे इस सच को स्वीकार नहीं कर पाएँगे. ऐसों के लिए यही दुनिया ही ठीक है. ऐसा नहीं है कि वे इस सच से वाकिफ नहीं हैं. वे जानते सब-कुछ हैं, पर स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होते. ऐसे लोग केवल दया के पात्र हैं.
आजकल लोग भ्रम की इस दुनिया में अधिक ही जीने लगे हैं. आजकल कोई भी मिलेगा, तो यही कहेगा कि उनके बच्चे कंप्यूटर साइंस का कोर्स करके किसी दूसरी जगह पर एम.बी. या अन्य कोई नए-नए विषय पर डिप्लोमा कोर्स कर रहा है. हो सकता है, यह बात सही हो, पर क्या सभी के बच्चे ऐसा ही कर रहे हैं? ंजरा नौकरीपेशा बच्चे के पालक से कभी उसके वेतन के बारे में पूछो भला. एक तो बताएँगे नहीें, यदि बता भी दिया तो इतना अधिक बताएँगे कि जिसे स्वीकार करना मुश्किल होगा. इनका सच तब सामने आता है, जब उनके सामने कोई भारी मुसीबत आती है. तब वे अपनों से उधार माँगते दिखाई देते हैं.
तो यह है भ्रम की एक वायवीय दुनिया. जहाँ दुनिया भर के ऐश के सारे सामान हैं, पर सपनों में. यथार्थ की दुनिया में ये सब बेबस हैं. ये समाज में प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं, पर इन्हें यह सब नहीं मिलता, तो ये सब झूुठ का सहारा लेते हैं, ताकि इसी बहाने लोग उनकी इज्ज़त करें. इनके पास बातचीत का भी कोई विषय नहीं होता. अपने अच्छे दिनों की याद वे सदा तांजा रखते हैं. कभी उन्होंने कोई बड़ा काम किया था या किसी बड़े नेता या अधिकारी के साथ कुछ पल बिताए होंगे, वही उनके लिए एक उपलब्धि होती है. ंगलती से उनकी किसी ने प्रशंसा कर दी हो, ऐसे लोगों के लिए वही रामबाण होता है. जिससे वे हर मंर्ज का इलाज ढूँढ़ते हैं. इनकी पूरी दुनिया इन्हीं कुछ शब्दों और घटनाओं पर टिकी होती है.
आजकल कोई सच की दुनिया में जीना ही नहीं चाहता. किसी के सपने छोटे नहीं हैं. सभी के पास बड़े-बड़े सपने हैं, पर उसे पूरा करने का माद्दा नहीं है. सपने देखना बड़ी बात है, इसे अवश्य देखना चाहिए, पर इसे पूरा करने का संकल्प भी तो होना चाहिए. संकल्प का वह जुनून लोगों में दिखाई नहीं देता. इसलिए आज समाज में 'फेंकने वालों' की संख्या लगातार बढ़ रही है. आज हम भी उसी का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं. न चाहकर भी हमें भी इसी झूठ का सहारा लेना पड़ता है. क्योंकि सच बोलेंगे, तो हँसी का पात्र बनेंगे या फिर समाज में उपेक्षित रह जाएँगे.
यह एक विकट समस्या है. इससे बचा भी नहीं जा सकता. न तो हम हँसी के पात्र बनना चाहते हैं और न ही समाज में उपेक्षित होना चाहते हैं. घर के मुख्य दरवाजे पर एक कीमती परदा लगा दिया है, ताकि भीतर की असलियत लोगों से दूर रहे. पर उस दिन क्या होगा, जब यह महँगा परदा भी जवाब दे जाएगा? इसे जानने की कोशिश की है कभी किसी ने?
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

चुटकी भर सिंदूर


भारती परिमल
रात आधी से अधिक गुजर चुकी थी, मगर नीलू की ऑंखाें ने नींद से रिश्ता तोड़ दिया था. वह पलंग के पास की खिड़की खोलकर काली ऍंधेरी रात में तारों की चमक देख रही थी और सोच रही थी इस काली रात से कहीं अधिक काली इस जीवन की रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं. उसका एकाकी जीवन यूं ही बीत जाएगा. पलों का काफिला चला और बरसों में बदल गया और इन बरसों में सब कुछ बदल गया. उसकी हँसी, चंचलता, अल्हड़ता ... सब कुछ इस अकेलेपन की भेंट चढ़ गया.
नया शहर, नए लोग, नया संघर्ष और नई शुरुआत... और इन सभी के बीच एक अकेली पुरानी वह? कैसे जीए और किसके लिए जीए? लेकिन जीना तो होगा ही. खुद के लिए, खुद की यादों के लिए और खुद के सपनों के लिए. उस मासूम के लिए, जो उसके बगल में लेटा हुआ है. यह निर्दोष चेहरा उसकी यादों की एकमात्र धरोहर है. इस धरोहर के लिए तो उसे जीना ही होगा. हाँ, कैसे जीए यह एक अहम प्रश्न है.
यह प्रश्न आकाश के जाने के बाद से ही उसे मथता रहा है. आकाश का यूं एकाएक इस दुनिया से चले जाना, सात फेरों के समय सात जन्मों का साथ निभाने का वचन देने के बाद भी केवल चार साल में ही उसे संघर्ष के पथ पर अकेला छोड़ कर चले जाना और सहारे के रूप में भी इस मासूम का साथ, जो कि स्वयं सहारे को तरसता है. यह सब कुछ उसने ईश्वर की मर्जी समझ कर स्वीकार कर लिया. आकाश न सही, आकाश की याद ही सही, उसकी निशानी के रूप में नन्हा कुंतल तो है. वह इसी के साथ अपनी ंजिदगी गुजार देगी. जो सपने उसने और आकाश ने मिल कर देखे थे. कुंतल के लिए, उन्हीं सपनों को अब वह अकेले ही पूरा करेगी.
जहाँ सपने होते हैं, वहाँ साहस होता है और साहस के साथ येन-केन प्रकारेण ऐसी परिस्थितियाँ बनती हैं, जो मददरूप होती है. नीलू के साथ भी ऐसा ही हुआ. जीविका चलाने के लिए पैसों की उसे कमी न थी, बैंक बैलेंस, आकाश का प्रोविडेंट फंड सब कुछ था, किंतु बैठे बिठाए तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है, फिर यह तो मात्र एक-दो लाख का ही खेल था. यह तो खत्म हो ही जाएगा. इस दूरदर्शिता के साथ उसने नौकरी करने का विचार किया और घरवालों का प्रोत्साहन पाकर बैंक की परीक्षा का फार्म भरा.
नीलू के तेज दिमाग और कुछ कर दिखाने की चाहत ने उसे सफलता दिलाई और बैंक की सर्विस पाकर वह कुंतल के भविष्य को लेकर थोड़ी निश्चित हो गई. लेकिन यह निश्चिंतता कुछ महीने बाद ही उसे खलने लगी. ऑफिस में सह कर्मचारियों का उसके प्रति व्यवहार फूल पर मंडराते भौंरे की तरह था. यहाँ तक कि बॉस की निगाहें भी काम के समय उसकी देह पर टिकी होती थी. वह उनके कटाक्ष, उनकी निगाहें सभी कुछ जानते-समझते हुए भी चुपचाप अपने काम से काम रखती थी. क्योंकि वह जानती थी कि यदि घरवालों से वह इस विषय पर कुछ कहेगी तो वे उसका नौकरी करना बंद करवा देंगे और कहेंगे कि सब कुछ छोड़कर हमारे पास गाँव आ जाओ. वह कुंतल को शहरी माहौल में ही बड़ा करना चाहती थी. कुंतल केवल उसका ही नहीं आकाश का भी सपना था. फिर भला वह उसे कूपमंडूक कैसे बनाती? बस इसीलिए वह सहकर्मचारियों के अभद्र व्यवहार को भी नजरअंदाज करते हुए सर्विस किए जा रही थी.
नन्हा कुंतल अब क्लास वन में पहुँच गया था. इसी बीच उसका ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. बैंक के माहौल से व्यथित नीलू ने ट्रांसफर ऑर्डर पाते ही राहत की साँस ली. वह खुद इस माहौल से ऊब गई थी और बदलाव चाहती थी. आर्डर पाते ही उसने एक हफ्ते की छुट्टी ली और दूसरे शहर जाने की तैयारी में जुट गई. कुंतल भी नए शहर में जाने के नाम से चहक उठा. सब कुछ सहेजते समेटते एक हफ्ता बीत गया और वो कुंतल के साथ एक नए संघर्ष के लिए नए शहर में आ गई.
इसी नए शहर की यह पहली रात उसकी नींद ले भागी थी. तारों की अठखेलियों के बीच वह पूरे सात साल का सफर तय कर चुकी थी. इस बीच कुंतल ने करवट बदली, तो नीलू ने देखा कि उसका माथा पसीने से भीग गया है. उसने पंखे की स्पीड तेज की और सोने का प्रयास करने लगी. कल सुबह ऑफिस भी तो जाना है. इस अपार्टमेंट में एक चीज अच्छी लगी कि पास-पडोस अच्छा है. फिर खुद अच्छे तो सभी अच्छे. यह सोच कर उसने भी अपनेपन से मिसेस कपूर से बात की. उन्हें अपनी समस्या बताई कि मुझे कल ही ऑफिस ज्वाईन करना है और कुंतल का स्कूल चार दिन बाद खुलेगा. मिसेस कपूर ने भी उसी अपनेपन से कहा कि चिंता की कोई बात नहीं, कुछ घंटे मैं आपके बेटे को संभाल लूंगी. सुबह कुंतल को भी तैयार कर उनके घर छोड़ना है. यही सब सोचते हुए वह सोने का प्रयास करने लगी.

सुबह 9 बजे ही मिसेस कपूर कुंतल को लेने आ गई. कहा कि तुम आराम से तैयार हो जाओ, इसे मैं ले जा रही हूँ, घर पर कुछ मेहमान आए हैं, उनके बच्चों के साथ ये भी खेल लेगा और तुम निश्चिंत हो कर तैयार होकर जा सकती हो. वह उनके इस निश्छल स्वभाव के आगे मुस्करा दी. कुंतल के जाने के बाद वह तैयार होने लगी. पूरा तैयार होने के बाद वह कंधे पर पर्स लटकाए एक बार फिर अपने आपको निहारने आईने के पास खड़ी हुई. उसने अपने आप से कहा-नीलू, आज फिर से तुम्हारे जीवन संघर्ष की एक नई शुरुआत हो रही है. तुम्हें फिर एक नए वातावरण में अपने आपको ढालना है.
अपने आप से उसने यह बात कह तो दी, पर सोच में पड़ गई-क्या इतना आसान होता है अपने आपको नए वातावरण में ढालना? पिछले कई सालों से तो वह इसके लिए प्रयास किए जा रही है, और लगातार नाकाम हो रही है. लोगों की निगाहें, उनकी अभद्रता सहती चली आ रही है. उसकी सूनी माँग, कोरी बॉडर वाली साड़ी और काली बिंदी को घूरते लोग हमेशा उसे एक औरत समझकर मजा ही लूटते रहे हैं. एक ऐसी औरत, जो बेवा है.. अकेली है.. सुंदर है.. लाचार है.. और इसीलिए उनके टाइम पास की एक खास चीज है. शहर बदला है, पर लोग कहाँ बदले? यहाँ भी तो ऐसे ही लोगों का जमघट होगा. इन्हीं लोगों के बीच फिर से उसे उसी माहौल के साथ जीना होगा. जब तक इन बालों में सफेदी नहीं आ जाती, चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं पड़ जाती, मांसल देह शिथिल नहीं हो जाती, ये समाज की लालची निगाहें यूं ही उसे देखा करेगी. शहर बदलेंगे, पर लोग नहीं. उसे अपने आपको फिर से इसी वातावरण के लिए तैयार करना होगा. क्या वह कर पाएगी?
कुछ सोचते हुए उसने पर्स वापस पलंग पर रखा. अलमारी खोली और उसमें से आकाश की पसंद की गुलाबी साड़ी निकाली, जो उसने शादी के बाद हनीमून के समय पहनी थी और फिर कभी नहीं पहनी. वह भारी साड़ी पहन कर वह फिर से पुरानी नीलू लगने लगी. आईने में अपने आपको एक झलक देखने के बाद उसने फिर अलमारी से मंगलसूत्र निकाला और गले में डाल दिया. और अब बारी थी उस कवच की जो समाज के भेड़ियों से उसकी रक्षा करने में सहायक बने. उसने पल भर की भी देर न की और अपनी सूनी माँग चुटकी भर सिंदूर से भर दी. ड्रेसिंग टेबिल पर रखी आकाश की तस्वीर देख उसे यूं लगा- आज आकाश सचमुच मुस्करा रहा है. चुटकी भर सिंदूर उसकी माँग में सूरज की आभा सा चमक रहा था. (आरुणि फीचर्स)
भारती परिमल

गुरुवार, 27 मार्च 2008

लुप्त होते पक्षी, आबाद होते हम


डॉ. महेश परिमल
दॊ महीने बाद पर्यावरणा दिवस आएगा और चला भी जाएगा हम केवल उसे याद करके रह जाएँगे अधिक हुआ तॊ एक संकल्प ही ले लेंगे पेड़ॊं कॊ बचाने का बस इससे अधिक हम कुछ कर भी नहीं सकते हमें पता ही नहीं रहता कि हमें क्या करना चाहिए अच्छा सच सच बताना कि चिड़ियॊं की चहचहाट कैसी हॊती है कितने दिन हॊ गए उनकी आवाज कॊ सुने शायद याद नहीं आ रहा है ना ऎसा ही हॊता है हमारे सामने से प‌क्षियॊं की एक पीढ़ी ही लुप्त हॊ गई हमें पता ही नहीं चला आज हम भले ही आबाद हॊ रहे हॊं पर पक्षी हमारी आँखॊं के सामने बरबाद हॊ रहे है, हमें पता ही नहीं चला. पता चल भी नहीं सकता. क्योंकि हम हर रोज देख रहे हैं, दम तोड़ते पर्यावरण को. दरअसल हम पर्यावरण से अभी तक पूरी तरह से जुड़ नहीं पाए हैं, इसलिए दम तोड़ता पर्यावरण हमें उद्वेलित नहीं करता. बेशुमार पानी बहाना हम अपनी शान समझते हैं, खुशी हो या ंगम, हम शोर करने में पीछे नहीं रहते. हमें तो यह भी नहीं पता कि हम कितनी आवाज में बोलें कि सामने वाले को कोई परेशानी नहीं हो. किसी ट्रक का प्रेशर हार्न भी हमें विचलित नहीं करता. कभी जब अचानक बिजली गुल हो जाए, तब हमें कितनी शांति महसूस होती है, इसका अंदाजा लगाया कभी आपने? उस स्थिति को ध्यान में रखकर देखें, तो हमें पता चलेगा कि हम कितने शोर के आदि हो गए हैं.
खैर यह तो हुई उस शोर की बात, जो हमारी ही उपज है. पर क्या कभी किसी कांक्रीट के जंगल को ऊगते देखा है. हम किसी नई जगह जाकर घर बनाने की बात सोचते हैं, दलाल हमें उस स्थान पर ले जाकर बताता है कि यह जगह प्रकृति के एकदम करीब है, चारो ओर हरियाली है, यहाँ घर बनाकर आप महसूस करेंगे कि आप प्रकृति की गोद में बैठकर उसका स्नेह प्राप्त कर रहे हैं. आपने जमीन का एक टुकड़ा पसंद किया, यही है कांक्रीट के जंगल का बीज. ठीक है आपने उस स्थान पर घर बना लिया, कुछ वर्ष बाद वहाँ आप की तरह कई लोगों ने अपना घर बना लिया. पर उस जंगल के लोगों ने सोचा कि कितने घरों को उजाड़कर ये घर बन पाया है? मेरी बात आपको शायद ही समझ में आए. आओ इसे गंभीरता से सोचने की कोशिश करें.
चहचहाना शद्व से वाकिफ हैं आप? हाँ चिड़ियों के कलरव को चहचहाना कहते हैं. सच बताएँगे आप कितने दिन हो गए आपने चिड़ियों का चहचहाते नहीं सुना? अच्छा ये बताएँ कोयल की कू-कू सुनी है आपने इन दिनों? आपका उत्तर शायद ना में हो, या हो सकता है कि आपने कुछ दिन पहले ही परिवार के साथ आउटिंग पर निकले थे, तब बच्चों को बताया था कि सुनो ये जो आवाज आ रही है, वह कोयल की है और ये जो तुम सब चीं-चीं सुन रहे हो ना ये चिड़ियाएँ चहचहा रही हैं. तब शायद बच्चों को यह अनोखा लगा होगा. अब आपको तो याद होगा, पर निश्चित ही बच्चे उन ध्वनियों को भूल गए होंगे. वैसे अभी भी सुबह तो हमें चिड़ियों की चहचहाट सुनाई देती है, पर उस वक्त इतनी व्यस्तता रहती है कि कुछ भी ध्यान नहीं रहता. हमसे अधिक तो बच्चे व्यस्त होते हैं. मैं आपको बताऊँ, क्यों नहीं सुन पाते हम सब पक्षियों का कलरव? क्योंकि उनके हिस्से की जमीन पर ही तो आपने अपना आशियाना बना लिया है. दूसरों का आशियाना उजाड़कर अपना आशियाना बनाना, ये तो जगत की रीत है. आपने कोई गलत काम नहीं किया. आपने तो बस वही किया जो एक आदमी करता है. एक इंसान जो करता है, उसकी अपेक्षा तो आपसे नहीं की जा सकती.
खैर अब आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे देखते ही देखते पूरे एक हजार ग्यारह जातियों के पक्षी लुप्त हो रहे हैं. धीरे-धीरे जो हैं, वे भी लुप्त हो जाएँगे, तब हम कैसे बताएँगे कि कैसा होता है पक्षियों का कलरव! दक्षिण अफ्रीका के डर्बन में बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की परिषद् की बैठक हुई, जिसमें तीन सौ पक्षीविदों ने भाग लेकर विचार विमर्श किया और जो रिपोर्ट दी, वह चौंकाने वाली है. उनकी 70 पेज की रिपोर्ट में 'स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स बड्र्स 2004' के शीर्षक से बताया है कि वर्त्तमान में पक्षियों की दस हजार जातियाँ हैं, इसमें से 1211 जातियाँ लुप्त होने वाली हैं.
पृथ्वी पर अब तक पाँच महाप्रलय हो चुके हैं. प्रलय की यह प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती है. लेकिन अब छठा प्रलय शुरू हो चुका है. यह इंसान द्वारा उपज प्रलय होगा. इंसान ने अपने ही हाथों इस प्रलय को आमंत्रित किया है. ंजरा सोचें, एक भूखंड पर कितनों का आवास होता है. आप कहेंगे- बस दो-चार लोगों का. पर आप शायद भूल जाते हैं कि एक भूखंड पर दो-चार नहीं, बल्कि हजारों लोगों का वास होता है. एक भूखंड पर यदि दस पेड़ भी हों, तो उस पेड़ के पक्षी, उसकी छाँव पर पलने वाले हजारों बैक्टिरिया, कीड़े-मकोड़े ये सभी तो उसी पेड़ के आसरे होते हैं, इन्हें भूल गए आप! कितनी पीड़ा होती है, अपने बसेरे को छोड़कर जाने की, इसे समझना हो, तो गुजरात के उन भूकंप पीड़ितों से पूछो, जिन्हें रातो-रात अपना आवास छोड़कर ऐसे स्थान पर जाना पड़ा, जहाँ आबादी के नाम पर कुछ भी नहीं था. मात्र कुछ क्षणों में उनका बसेरा छूट गया. वे बसेरे से दूर होने की त्रासदायी पीड़ा झेलने लगे. हम भी अपने घर के लिए इन पक्षियों का बसेरा उजाड़ते हैं, उन बेजुबानों की पीड़ा समझने का प्रयास किया है किसी ने? अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, हरसूद के लोगों से ही जानी जा सकती है घर छोड़ने की पीड़ा.

अब तक जो प्रलय हुए, उनमें ग्लोबलवार्मिंग, ग्लोबलकूलिंग, आकाश में से उल्कापिंडों के कारण, ज्वालामुखी के विस्फोटों या सुपरनोवा के नाम से जानी जाती तारों के टूटने की घटना से फैलती विकिरण ऊर्जा को बहुत बड़ा कारण माना जाता रहा है. किंतु वर्त्तमान में तो जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट होने, मानव प्रवृत्ति से प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने, ओजोन की परत का लगातार क्षय होना, विश्व के बढ़ते तापमान से ग्रीन हाउस के असर के कारणों में लगातार वृद्धि, जंगलों की नाश होना, जमीन और पानी के हानिकारक प्रदूषण होना जैसे अनेक कारण जवाबदार हैं. इन सबके लिए इंसान खुद जिम्मेदार है.
पिछले चार वर्षों में पर्यावरण की हालत इतनी खराब हुई कि पक्षियों पर यह अपना प्रभाव डालने लगी है. इसलिए अब पक्षी भटकने लगे हैं. अब तक उनके दुश्मन उनसे शक्तिशाली जानवर या पक्षी थे, पर अब इंसान भी इसमें शामिल हो गया. अब वे कहाँ जाएँ. उनसे बलशाली पक्षी या जानवर भी उन्हीं हालात में जी रहे हैं, इंसान उनका भी दुश्मन हो गया, अतएव वे अपना जीवन बचाने के लिए अपने से कम बलशाली लोगों को मारने लगे. इस तरह से इंसान ने ही प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
इस तरह से इंसानी भूख के कारण पक्षी ही नहीं, छोटे-छोटे जीव जंतु भी उसका ग्रास बनने लगे हैं. ऐसे में कहाँ हो उनका बसेरा? इसलिए पक्षियों की कई जातियाँ या तो लुप्त हो गईं हैं, या फिर विलुप्ति के कगार पर हैं. यही हाल रहा तो हम अब न तो हमिंग बर्ड की सुरीली तान सुन पाएँगे और न ही कोयल की कू-कू. आप कल्पना ही कर सकते हैं, कैसा होगा बिना पक्षियों का संसार? न चिड़ियों की चहचहाट, न कौवे की काँव-काँव. फिर किसे बुलाओगे अपने पितरों को याद करते हुए. क्योंकि तब आपकी मुंडेर पर नहीं बैठेंगे कागा....
(डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 26 मार्च 2008

भाभी के हाथ की रोटियाँ


गुजराती कहानी

स्व. केशवजी जयराम राठौड़
बरसों पहले की बात यानि कि सतयुग, द्वापर या त्रेता युग की यह बात नहीं, इसी कलयुग की 75-100 वर्ष पहले की ही यह बात है.
दो भाई. बड़े का नाम रामजी और छोटे का नाम जयराम. बिहार के चक्रधरपुर के घने जंगलों में, दोनों भाई कडिया का काम करते. मुझे शायद आज की पीढ़ी को कडिया का अर्थ भी समझाना होगा. आज के समान ऑर्डर दिया और ईंट का ढेर लग जाए, ऐसा वो जमाना न था. पत्थरों के ऊँचे टीलों में से हथौडे-छैनी की मदद से पत्थर निकाले जाते और फिर उन पत्थरों को आकार दे कर उनसे सड़क या रेलवे के पुल बनाने का काम किया जाता, मकान बनाए जाते. ऐसे पत्थरों को आकार देना और फिर उन्हें मकान या पुल बनाने के लिए उपयोग करने वाले कारीगरों को कडिया कहा जाता. ये दोनों भाई ऐसे ही कारीगर थे. मूल वतन कच्छ छोड़कर 9-9 वर्षों से ऐसे जंगलों में पसीना बहाकर दो पैसे कमाते थे.
एक जगह काम पूरा होता कि बँजारों की तरह 10-12 भाईयों की टुकड़ी दूसरी जगह काम खोजने निकल पड़ती. दोनों भाईयों की पत्नियाँ कच्छ में ही सासु माँ की सेवा और छोटी-मोटी मजदूरी कर घरखर्च निकालने की जद्दोजहद करतीं. 8-10 वर्षों से उन्होने अपने-अपने पति के चेहरे भी नहीं देखे हैं.
आसपास के गाँवों में कोई परदेस से आता, तो रैया माँ लकड़ी टेकते हुए उस गाँव में पहुँचती और पूछती- बेटे, मेरे रामजी और जेराम के कोई समाचार? उस बेचारी की नंजर में तो परदेस 70-75 गाँव दूर कोई मुल्क था, जहाँ उसके जिगर के टुकड़े पेट काट परिश्रम कर रहे थे.
कभी जवाब मिलता - माँ, हम तो उस जगह काम नहीं करते, हम तो दूसरी जगह काम करते हैं.
- रामजी और जेराम काम करते हैं, वह कितनी दूर है?
- हम जहाँ काम करते हैं, वहाँ से पाँच दिन का रास्ता होता है.
- ओ बाप रे ! ऐसा कहते हुए बूढ़ी अम्माँ लाठी टेकते हुए वापस आ जाती.
कभी कोई ऐसा भी मिल जाता, जो चक्रधरपुर के जंगलों में ही काम करता.
- हाँ, माँ. दोनों भाई हम जहाँ काम करते हैं, उससे थोड़ी ही दूरी पर काम करते हैं. दोनों का ही काम अच्छा चल रहा है. दो पैसे मिल जाते हैं. और उस बूढ़ी ऑंखों में खुशी चमक उठती. जाकर वे दोनों बहूओं को खबर देती.
दोनों भाई अपने हाथों से रोटियाँ बना कर खाते. टूटे-फूटे खपरैलों और घासफूस की बनी झोंपड़ी और ऐसी ही उनकी हाथ से बनाई रोटियाँ! एक दिन बड़े भाई ने कहा- जयराम, अब तो काफी वर्ष हो गए हमें हाथ से रोटियाँ बना कर खाते हुए, भगवान ने दो पैसे दिए भी हैं, तो देश जा कर बहू को ले आ. बहू के हाथों की रोटियाँ खाएँ. कब तक अपने हाथों से ही रोटियाँ बनाएँगे?
रामजी और जयराम, अर्थात् राम-लखन की जोड़ी. सभी इन भाईयों के बीच का स्नेह, ईमानदारी की मजदूरी और सच्चाई देखते और कहते - ईश्वर ने इन दोनों भाईयों के रूप में राम-लखन बन कर फिर इस धरती पर जन्म लिया है.
रामजी की बात सुनकर जयराम ने कहा - ठीक है भैया, आप कहो उस दिन यहाँ से निकलूँ.
- कल ही रवाना हो जा.
- ठीक है, मैं कल ही जाता हूँ.
इस तरह जयराम कच्छ आया. कितने वर्षों में? 9 वर्ष में!! गाँव की सरहद पर पहुँचते ही स्नेहीयों, संबंधियों और पुराने मित्रों को मिलते हुए, बुजुर्गों के आशीर्वाद लेते हुए 3-4 घंटे में वह अपने घर पहुँचा, तब रैया माँ ने बेटे को अपने हृदय से लगा लिया. भाभी ने भी दौड़ कर देवर की अगुआई की. एक जोड़ी ऑंख (पत्नी) घँघट की आड़ से उसे देखने का असफल प्रयास ही करती रह गई. (मैं आपको यहाँ फिर से एक बार बता दूँ कि यह बात है आज से करीब 100 वर्ष पुरानी, जब पति-पत्नी का बुजुर्गों के सामने मिलना तो दूर, देखने से ही मर्यादा का उल्लंघन होता था)
जब रैया माँ को इस बात का पता चला कि जयराम, बाहर बरामदे में ही सो रहा है, तब तक तीन दिन बीत चुके थे. तब उन्होंने महसूस किया कि बेटा बहुत शर्मिला है. चौथे दिन उन्होंने जयराम से कहा कि बाहर बरामदे में रात-दिन पड़ा रहता है, तो जाकर अपने कमरे में सो ना! इस तरह जयराम ने 9 वर्ष में अपने गाँव आकर भी तीन दिन बाद अपनी पत्नी का मुँह देखा. थोड़ा विचार कीजिए, लखी की दशा क्या हुई होगी? पति 9 साल बाद घर आया है, उसके बाद भी घर में रहते हुए भी चार दिन बाद उसका चेहरा देखा! आज इस संयम और बुजुर्गों की मर्यादा को मूर्खता कहा जाता है!
रात को पति की बगल में समाई लखी ने पूछा- ऐसी शरम कैसी? 9 वर्ष में अपने घर आए, उसके बाद भी अपने कमरे तक आने में चार दिन लगा दिए?
- मैं तो कमरे में नहीं आया, तू भी तो घर से बाहर न निकली. घँघट से अपना चेहरा नहीं दिखाया?
और फिर सारे गिले-शिकवे भूल कर दोनों एकदूसरे में समा गए. ऐसा आनंद का क्षण कि स्वर्ग के देवताओं को भीर् ईष्या हो जाए.
सात दिन बाद जयराम ने माँ से कहा- माँ, बड़े भैया ने मुझे भाभी को लेने भेजा है. जो हाँ कहो, तो भाभी को लेकर कल परदेस को रवाना हो जाऊँ.
इतनी जल्दी, 9 वर्ष में तो तू आया है और अभी तो 9 दिन भी पूरे नहीं हुए हैं?
- मेरे बिना भैया को बहुत तकलीफ होती होगी. सारा दिन सुबह से शाम काम ही काम! फिर घर आने के बाद रोटियाँ टीपना. जो सहमति दो, तो अपने हाथों की रोटियाँ बंद कर अब भाभी के हाथों की रोटियाँ खाएँ.
माँ ने आग्रह कर बेटे को चार दिन और रोका, पर लखी की हालत तो देखने लायक थी. भाभी को ले जाओगे, यह तो ठीक है, पर मैं ने क्या गलती की है? 9-9 वर्षों से राह देख रही हूँ कि आज आएँगे, कल आएँगे.. ऐसा करते हुए बरसों बीत गए. अब तो जाने की भी जल्दी कर रहे हो!
- पगली, तू नहीं समझेगी. तू मेरे साथ आएगी, तो यहाँ माँ की सेवा कौन करेगा? माँ को अकेला छोड़ कर जाया जा सकता है क्या?

लखी का खून सूख गया. मुँह से एक शद्व न निकला, जयराम ने फिर उसे अपनी तरफ खींच लिया, कहा- देख, अब दो पैसे कमा रहे हैं, काम अच्छा चल रहा है, अभी भाभी को ले जाता हूँ, दो-तीन सालों में वापस आकर तुझे और माँ को भी ले जाऊँगा. सभी के खर्च एक साथ कैसे उठाऊँ?
लखी का मन भर आया. उसकी जेठानी भची की ऑंखें भी भर आई, जब अपने सर पर पोटली रखकर वह देवर के साथ परदेस को रवाना हुई, सास-बहू ने बहती ऑंखों से दोनों को विदाई दी.
सातवें दिन 'वह परदेस' आया, जहाँ सभी काम करते थे. शाम चार बजे नौ-दस झोपड़ियों वाले गाँव में दोनों आ पहुँचे. भाभी ने झोपड़ी के अंदर जाकर देखा- ऐसा लगा मानो इस घर में इंसान नहीं, कोई और ही रहता हो. सारी चीजें अस्त-व्यस्त. एक ओर मैले-फटे कपड़ों का ढेर चूहों का इंतजार कर रहा था, दूसरी ओर एक कोने में काई जमी हुई मटकी पड़ी हुई थी, दो-तीन थाली, एक गंजी, मिट्टी का तवा, दो-तीन कपड़े की गुदड़ियाँ, यही था गृहस्थी का सामान.
बाहर आकर भाभी ने जयराम को झूले जैसी चारपाई पर लेटा देखा, उसके खर्राटों की आवाज सुनकर भाभी को लगा-भले सोये. बेचारा थक गया है. जर्जर चारपाई पर जयराम ऐसे सोया था, मानो डनलप के गद्दे पर आराम से सोया हुआ हो. भाभी घर में चली गई, इसके बाद शुरू हो गई, गृहस्थी को जमाने की जद्दोजहद. भाभी ने पहले तो घर का हुलिया बदलने के लिए सामान को व्यवस्थित किया. बरतन को माँज कर चमकाया. कहीं से सूई-धागा ढूँढ़कर फटे कपड़ों को सिला.
जयराम की ऑंख खुली, तब तक दिन ढल चुका था. 'आज तो बहुत नींद आई' कहते हुए ऍंगड़ाई लेता हुआ वह खड़ा हुआ कि दूर से आठ-नौ मंजदूरों को आते देखा. सबसे आगे शान से उसके बड़े भाई रामजी चले आ रहे थे. भाई को देखते ही जयराम ने पुकार लगाई 'भा....ई....'
रामजी ने भाई की पुकार सुनी, तुरंत ही उन्होंने अपने कदम तेज किए और करीब दौड़ते हुए छोटे भाई को गले से लगा लिया. साथ के मंजदूरों ने भाइयों के इस मिलन को राम-भरत मिलाप की संज्ञा दी. लोग गद्गद् हो गए. जयराम ने अपने आप को भाई की जकड़ से मुक्त कराते हुए बड़े भाई का चरणस्पर्श किया.
-माँ कैसी है जयराम?
-बहुत अच्छी हैं भैया. मुझे तो ऐसा लग रहा था कि माँ कमजोर हो गई होंगी,लेकिन अभी तो उनका शरीर अच्छा है.
-लगता है दोनों बहुओं ने माँ की अच्छी सेवा की है.
-सच कह रहे हो भैया. माँ भी ठीक ऐसा ही कह रही थी.
-और अपने सामने वाले लधा महराज?
- वो तो गए भैया. दो साल पहले ही निकल लिए.
-क्या कहा? दो साल पहले ही निकल गए. यहाँ तो किसी को पता ही नहीं है. रामजी ने नि:श्वास लेते हुए कहा.
फिर पूछा-अच्छा, ये बताओ, जीवन दादा कैसे हैं? वो तो हैं ना, या फिर वो भी निकल लिए.
-भैया अभी दस वर्ष तक दादा जाने वाले नहीं हैं.
-अच्छा..अच्छा. गाँव में ऐसे आठ-दस बुजुर्ग हों,तो गाँव की एक तरह से रखवाली हो जाती है.
-और भैया, वो लधी माँ भी गईं. समय पर उनके बेटे भी नहीं पहुँच पाए, गाँव वालों ने ही मिलकर सब निबटाया.
'हाय राम' रामजी के मुँह से अनायास ही निकल गया. कितनों के मरने की खबर लेकर आया है तू? इसके बाद बातों का सिलसिला काफी समय तक चलता रहा. रामजी भाई अपने छोटे भाई से गाँव के एक-एक व्यक्ति का हालचाल जानते रहे. बहुत देर बाद जयराम ने कहा- भैया, आपने सबके समाचार तो पूछ लिए, पर मेरी भाभी का समाचार नहीं पूछा?
रामजी को हँसी आ गई. थोड़ी देर बाद बोला- पगले, तेरी भाभी तो बहुत खुश होगी. उसके बारे में क्या पूछूँ?
-क्यों पूछा नहीं जा सकता क्या?
-पागल, तेरी भाभी को यदि कुछ हुआ होता, तो तू मेरे पूछे बगैर ही बता देता. तूने उसके बारे में कुछ नहीं बताया, तो मैं समझ गया कि वह तो ठीक होगी ही.
जयराम को हँसी आ गई. जोर से उसने आवाज लगाई- 'भाभी....! देखो तो सही, कौन आया है?'
अब अचंभित होने की बारी रामजी की थी. क्या कहा तूने- भाभी?
-हाँ, भाभी, मेरी भाभी. जयराम ने दृढता से कहा.
दरवाजे पर देखा, तो हाथ में झाड़ू लिए हुए भाभी खड़ी थी.
-भाभी, मेरे भाई के पैर तो छुओ! नौ वर्ष बाद मिल रहे हो!
पर रामजी के आगे तो पूरी दुनिया ही घूमने लगी. भाभी? तेरी भाभी यहाँ कहाँ से?
-ये सामने ही देखो ना भैया!
जयराम हँसता ही रहा और भाभी झाड़ू एक तरफ रखते हुए दोनों भाइयों की ओर बढ़ी.
-क्या कहा था और क्या कर आया?
रामजी मन ही मन अपनी पत्नी को देखते ही रह गया. भची अपने पति की चरणधूलि सर पर लगाने के लिए आगे बढ़ी. यह देखकर रामजी ने अपने पाँव पीछे खींच लिए. सामने देखा तो उसका छोटा भाई अपनी हँसी को रोकने का प्रयास कर रहा था.
एकाएक रामजी गुस्से से लाल-पीला हो गया. गरजकर बोला- जयराम, यह तूने क्या किया? तुझे तेरी भाभी को लेने के लिए किसने भेजा था? मैंने नहीं कहा था कि बहू को लेकर आ! अपनी भाभी को लेकर क्यों आया?
भची भाभी तो सकते में आ गई. दो घंटे पहले ही तो वह आई थी. अभी तो केवल पति का चेहरा ही देख पाई कि अचानक यह क्या हो गया? हतप्रभ होकर वह कभी पति की तरफ तो कभी देवर की तरफ देखती ही रह गई. उधर जयराम तो हंसी के मारे लोट-पोट होता रहा. भाई के गुस्से की मानो उसे परवाह ही नहीं थी.
हँसते-हँसते उसने भैया को जवाब दिया- भाई, नौ बरसों में आपको अपनी बहू के (मेरी पत्नी के) हाथ की रोटियाँ खाने का मन हुआ, तो मुझे भी मेरी भाभी के हाथों की रोटियाँ खाने का मन नहीं होता? मैं तो आपसे छोटा हूँ ! पहले आपकी इच्छा पूरी करुँ कि मेरी? अपनी भाभी को लाकर उनके हाथ की गरम-गरम रोटियाँ खाने की मैंने अपनी इच्छा पूरी की है, तो इसमें नाराज होने की कौन सी बात है? पहले इच्छा छोटे भाई की या बड़े भाई की?
भची को अब समझ में आया. जयराम उनके करीब आया. भाभी का हाथ पकड़कर वह बड़े भाई के पास आया और कहने लगा- भाभी एक बार फिर से भैया के चरणों की धूल लो, और उसका टीका मेरे माथे पर लगाओ, आज मैं धन्य हो गया.
और उसके बाद रामजी ने जयराम को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. दोनों भाइयों के इस अनोखे मिलन को देखकर किसी कोर् ईष्या न हो, इसलिए सूरज ने भी अपनी ऑंखें बंद कर धरती पर अंधेरे की चादर बिछा दी.
भाषांतर- भारती परिमल

मंगलवार, 25 मार्च 2008

डाक टिकटों से जुड़े नैतिक मूल्य..


डा. महेश परिमल
डाक विभाग हमेशा मरणॊपरांत लॊगॊं कॊ सम्मान देने के लिए डाक टिकट जारी करता है सुना है अब मधुबाला भी हमें डाक टिकट पर दिखाई देंगी यह अच्छी बात है अब तक न जाने कितने महापुरुषॊं कॊ हमने डाक टिकटॊं पर देखा है. 8 वर्ष पूर्व हुए एक हवाई दुर्घटना में पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया का देहांत हो गया. उनकी स्मृति में पाँच रुपए का एक डाक टिकट जारी किया गया है. अभी-अभी पता चला कि प्रिंस चार्ल्स और केमिला पॉर्कर की शादी के अवसर पर ब्रिटेन में एक डाक टिकट जारी किया जाएगा. डाक टिकट जारी करना एक सम्मान की बात है. हमारे देश में महापुरुषों को श्रध्दांजलि देने का यह भी एक तरीका है. लेकिन यह सिक्के का केवल एक पहलू ही है.
कभी इसके दूसरे पहलू को जानने की कोशिश नहीं की गई है. यदि एक आम आदमी कभी डाकघर जाकर देखे कि डाक टिकटों की क्या दुर्दशा होती है, तो शायद वह कभी महापुरुषों के नाम पर जारी होने वाले डाक टिकट का समर्थन ही न करे. शायद आप मेरी बात नहीं समझ पाए होंगे. इसे ंजरा विस्तार से इस तरह से कहा जा सकता है. डाकघर में एक व्यक्ति एक लिफाफा लेकर आता है, डाक टिकट खरीदता है, एक कोने पर जाकर इधर-उधर देखता है, कहीं गोंद दिखाई नहीं देता, न ही पानी से भरी कोई प्याली ही दिखाई देती है. वह टिकट को अपनी जीभ से लगाता है और उसे लिफाफे पर चस्पा कर देता है. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टिकट पर किसका चित्र था. महात्मा गाँधी या सुभाष चंद्र बोस का. उसे तो टिकट लिफाफे पर चिपकाने से मतलब होता है और वह उसे अपनी तरह से चिपका ही देता है. महापुरुषों का इस तरह से खुले आम अपमान भला किसे भाता है. पर आज हर कोई ऐसा कर रहा है और हमारे देश में महापुरुषों के अपमान के लिए नित नए-नए डाक टिकट जारी किए जा रहे हैं.
डाकघर में एक और नजारा हमेशा देखने को मिलता है. उसे भी शायद एक अधिकारी भी गौर नहीं करता. डाकिया किस तरह से डाक टिकट पर उसके होने की मुहर लगाता चलता है. मानो डाक टिकट के साथ अपनी कोई पुरानी रंजिश निकाल रहा हो. हालांकि यह उसकी डयूटी का एक हिस्सा है, लेकिन इस तरह से हमारे देश के महापुरुषों का अपमान क्या हमें अच्छा लगता है?

हम सबकी अपनी-अपनी हथेली है और सबके अपने-अपने आसमाँ हैं, इसमें जितना बड़ा सच आ जाए, हम उसे सहजता के साथ स्वीकार कर लेते हैं. पर सच तो बहुत कड़वा होता है, बिलकुल नीम के पत्तों की तरह, जो कड़वे तो बहुत होते हैं, पर खून साफ करते हैं. हमें इस कड़वेपन को समझना है, क्योंकि समाज में आज बहुत ही कड़वापन आ गया है. सामाजिक प्राणियों का स्वाद बड़ा ही कसैला हो गया है. मुँह का स्वाद कसैला हो, तो ऑंखों का कहना ही क्या. आज ऑंखें जो कुछ देख रहीं हैं, वह सच नहीं है. सच तो वह है, जो छिपा हुआ है. यह सच डाक टिकट पर भी हो सकता है और जीभ को बार-बार छूकर नोट गिनते हुए लोगों को देखकर भी हो सकता है. आश्चर्य की बात यह है कि आज इस सच से हर कोई गाफिल है, उसे पता ही नहीें चलता कि कुछ गलत हो रहा है.
समय को चलने की आदत होती है. इसलिए समय के साथ सबको भुला दिया जाता है. महापुरुष न भुलाए जाएँ, शायद इसीलिए उन्हें याद रखने के लिए ये सारे उपक्रम किए जाते हैं. कभी किसी चौराहे के नाम से, किसी मार्ग के नाम से, बाग-बगीचों के नाम से और न हुआ तो किसी भवन के नाम से. पर क्या इनसे नाम जीवित रहते हैं भला? वह नाम जो दिलों में लिखे जाते हैं, वे कभी नहीं भुलाए जाते. पर आज किसे वक्त है, दिलों में नाम लिखने की? इसलिए इस आपाधापी में सब कुछ चल रहा है. बात केवल डाक टिकट जारी करने की नहीं है और न ही महापुरुषों के नामों को जीवित रखने की है. बात है उन नैतिक मूल्यों की, जो हमारी ऑंखों के सामने ही दम तोड़ रहे हैं. हर वस्तु अपनी परिभाषा बदल रही है. हर इंसान अपने होने का अर्थ खोज रहा है. ऐसे में भला जीवित रहकर क्या करेगी नैतिकता?
आज नैतिकता का पतन एक सामान्य बात हो गई है. अच्छे विचारों, व्यवहारों का पतझड़ यदि दिन में एक बार ऑंखों के सामने से न गुजरे, तो हम अपने आपको ही तलाशते रह जाते हैं कि भला किस दुनिया में हैं हम? हम इस बुरी और सरासर गलत मानी जाने वाली कोरी आदर्शवादिता के आदी हो गए हैं. अब जब हमारे सामने कुछ अच्छा होता है, तो हमें आश्चर्य होता है, इतना आश्चर्य की पल भर को तो हम दूसरों से नजरें बचाकर अपने आपको ही चिकोटी काटते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि हम ंजिदा भी हैं या नहीं. हमारे आसपास बसा बुराई का संसार, अभद्रता का वातावरण हमें हमारे होने का सुबूत देता है. परिवर्तन का यह धुऑं पूरी तरह से हमारी ऑंखों में भर गया है. इस धुएँ की एक के बाद एक जमती परतों के बीच भला कैसे पारदर्शी रह पाएँगे हमारे नैतिक मूल्य?
हम कब से गैस चूल्हे की आदी हो गए, किसी को पता चला? कब हमारे ही सामने से गुजर गई पगडंडी. देखते ही देखते चौपाल में सिमटा एक गाँव शहर बन गया, हमें खबर ही नहीं लगी. अब तो शहरी संस्कृति इस कदर हम पर हावी हो गई है कि हम स्वयं अपने आप को भूलने लगे हैं. ऐसे में हमारे सामने एक व्यक्ति अपने थूक से टिकट को लिफाफे पर चस्पा करे, तो हम कुछ नहीं कर सकते. आखिर यह किसका पतन है?
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 21 मार्च 2008

तब केवल ऑंखों में ही रह जाएगा पानी.. ..


डा. महेश परिमल
22 मार्च याने विश्व जल दिवस। केवल जल दिवस। पानी गवाँने का दिन या कह लें पानी बचाने का संकल्प करने का दिन। केवल कागजों में ही बच पाता है पानी। वरना धरती की छाती पर रोज ही हजारों सूराख हो रहे हैं, कोई देखने वाला नहीं है। सूरज ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। बस अब पानी के लिए हाहाकार होने में समय नहीं है। पर पानी अब है कहाँ? चेहरे का पानी तो कब का उतर गया। केवल ऑंखों में है, जो केवल दु:ख के समय ही निकल पाता है। पानी बरबाद करते हुए हमें यह जरा भी नही लगा कि हम पानी नहीं अपना खून बरबाद कर रहे हैं। खूब बहाया है पानी। खूब किया बरबाद पानी को, अब समय आ गया है, जब ये पानी ही आपको बरबाद कर देगा। सँभल जाओ मूर्खों, नहीं तो रोने के लिए ऑंसू भी नहीं बचेंगे।
यहाँ यह जानकारी दे दूँ कि विश्व के 1.4 अरब लोगों को पीने का शुध्द पानी नही मिल रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारी ंजिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है।
पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं, जिसे जानकर आपको लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा-सा भी पानी नहीं बचा। तथ्य इस प्रकार हैं :-
 मुम्बई में रोज वाहन धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है।
 दिल्ली, मुम्बई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वाल्व की खराबी के कारण रोज 17 से 44 प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है।
 ब्रह्मपुत्र नदी प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में डाल देती है।
 भारत मेें हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब 1529 मानव और 98 हजार पशुओं की मौत होती है।
 इजराइल में औसतन मात्र 10 सेंंटीमीटर वर्षा होती है, इस वर्षा से वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात कर सकता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है।
 पिछले 50 वर्षों में पानी के लिए 37 भीषण हत्याकांड हुए हैं।
 भारतीय नारी पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती है।
 पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है।
हमारी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है. इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है, जो खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में धु्रव प्रदेशों में है, अब बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुऑं, झरना और झीलों में है., जो पीने के लायक है. इस एक प्रतिशत पानी का 60 र्वा हिस्सा खेती और उद्योग कारखानों में खपत होता है. बाकी का 40 वाँ हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं. इसलिए याद रखें कि यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पाँच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है. बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देता है. इसके बाद मध्यम वर्ग भी कम नहीं है, वह भी नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद कर देता है. इस तरह से हमारे समाज में पानी बरबाद करने की जो राजसी प्रवृत्ति शुरू से रही है, उस पर अभी तक अंकुश रखने की दिशा में थोड़ी सी भी कोशिश नहीं हुई है. हकीकत में जब से देश आजाद हुआ है, तब से आज तक इस दिशा में कोई भी काम गंभीरता से नहीं हुआ है. हमारे राजनेताओं के चेहरे पर वह पानी था ही नहीं, जिससे वे इस पानी के लिए कुछ करते.
विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुध्द पानी नहीं मिल पाता है, ऐसे में प्रति वर्ष 6 अरब लीटर बोतल पैक पानी मनुष्य द्वारा पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। पानी का स्रोत कही जाने वाली नदियों में बढ़ते प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोजने में लगे हुए हैं, किंतु जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाएगी, तब तक अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है।
पृथ्वी का कुल विस्तार 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। उसमें से 36 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पानी से घिरा हुआ है। दुर्भाग्य यह है कि इसमें से पीने लायक पानी का क्षेत्र बहुत कम है। 97 प्रतिशत भाग तो समुद्र का है। बाकी के 3 प्रतिशत भाग पानी में से 2 प्रतिशत पर्वत और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं है। यदि इसमें से करीब 6 करोड़ घन किलोमीटर का बर्फ पिघल जाए, तो हमारे महासागरों का तल 80 मीटर बढ़ जाएगा, किंतु फिलहाल यह संभव नहीं। पृथ्वी से अलग यदि चंद्रमा की बात करें, तो चंद्रमा के ध्रुव प्रदेशों में 30 करोड़ टन पानी होने का अनुमान है।
पृथ्वी पर पैदा होने वाली सभी वनस्पतियाँ भी पानी जन्य है। आलू में और अन्नानस में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी है। पीने के लिए मानव को प्रतिदिन 3 लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी चाहिए। 1 लीटर गाय का दूध प्राप्त करने के लिए 800 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है। जबकि एक किलो गेहूँ उगाने के लिए 1 हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए 4 हजार लीटर पानी की आवश्यकता होतेी है। इस प्रकार भारत में 83 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन क्या है, हर तरफ निजीकरण की बात होने लगी। एक के बाद एक कई क्ष्ेत्र निजीकरण की भेंट चढ़ते गए। सबसे बड़ा झटका जल खेत्र के निजीकरण का मामला है। जब भारत में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया, तब कोई बहस नहीं हुई। देश के सामने इसे एक निर्विवाद तथ्य सम्पन्न कार्य की तरह परोसा गया था। बड़े पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया।नतीजा सबके सामने है। सरकारी तौर पर भी यह कबूला जा चुका है कि सुधर औंधे मुँह गिरे हैं और राष्ट्र को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात की जा रही है। हम महसूस करते हैं कि इस मुद्दे पर चुप बैठना मुनासिब नहीं। किसी भी बड़े निर्णय के पहले इस मुद्दे पर व्यपाक बहस होनी चाहिए।
समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया,तो संभव है पानी केवल हमारी ऑंखों में ही बच पाएगा। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हजारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हजारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब ही गायब हो रहे हैं, तो ऐसे में यह कैसे सोचा जाएगा कि हममें पानी बचाने की प्रबृत्ति जागेगी? हमारे चेहरे का पानी तो उतर गया है, मरने के लिए अब चुल्लू भर पानी भी नहीं बचा, अब तो शर्म से चेहरा भी पानी-पानी नहीं होता, हमने बहुतों को पानी पिलाया,पर अब पानी हमें रुलाएगा, यह तय है। सोचो ह रोना कैसा होगा, जब हमारी ऑंखों में ही पानी नहीं रहेगा? वह दिन दूर नहीं, जब यह सब हमारी ऑंखों के सामने ही होगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे। यह हमारी विवशता का सबसे कू्रर दिन होगा, ईश्वर से यही कामना कि वह दिन कभी नहीं आए। पर आज पानी की बरबादी को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि धीमे कदमों से एक भयानक विपदा हमारे पास आ रही है, हम सब केवल उसका इंतजार ही कर सकते हैं।
(डा. महेश परिमल

गुरुवार, 20 मार्च 2008

हरीश परमार की बाल कविताएँ


होली 1
रंगरंगीली होली आई
रंगो की सौगात लाई
रंगों में ऐसे रंगे हैं बच्चे
कोई न पहचाना जाए
कौन राम है कौन रहीम
नजरें धोखा खा जाए
अपना फर्ज निभाने आई
सबका मेल कराने आई
रंगरंगीली होली आई
रंगो की सौगात लाई
बच्चोें की टोली निकली
हर मुहल्ले गली-गली
जाने-अनजाने हर चेहरे को
रंग देते हैं घड़ी-घड़ी
रंग अबीर-गुलाल से
मिट गई हर बुराई
रंगो की सौगात लाई।

होली 2
छोटी सी पिचकारी में
मैं रंग भरकर लाई हूँ
अभी रंगूँगी बारी-बारी
मैं यह बतलाने आई हूँ।
पहले पापा तुम्हें रंगूँगी
पीला हरा होली का रंग
तुम जितना करते हो प्यार
मैं डालूँगी उतना रंग।
नहीं डरूँगी मैं तो मम्मी
तेरी फटकार से
आज तुम्हें रंग दूँगी मैं
रंग अबीर गुलाल से।
छिप न जाना राजा भैया
जरा सामने आ जाना
होली के प्यारे रंगों का
तुम भी तोहफा लेते जाना।
बदले में फिर रंग देना
मम्मी, पापा, भैया मुझको
दे जाएगा खुशियां सारी
होली का त्यौहार हमको।

होली 3
रंगरंगीली होली आई
रंगो की सौगात लाई
रंगों में ऐसे रंगे हैं बच्चे
कोई न पहचाना जाए
कौन राम है कौन रहीम
नजरें धोखा खा जाए
अपना फर्ज निभाने आई
सबका मेल कराने आई
रंगरंगीली होली आई
रंगो की सौगात लाई
बच्चोें की टोली निकली
हर मुहल्ले गली-गली
जाने-अनजाने हर चेहरे को
रंग देते हैं घड़ी-घड़ी
रंग अबीर-गुलाल से
मिट गई हर बुराई
रंगो की सौगात लाई।


होली 4
तोता से मैना बोली-
तुम्हें मुबारक हो होली
कौन-सा रंग लगाऊँ बोलो
लाई हूँ रंगों की झोली॥
तोता बोले मैना से-
हरे रंग का हूँ जनम से
चोंच लाल है देखो मेरी
डालो ना कोई रंग कसम से॥
फिर कौए से मैना बोली-
तुम्हें मुबारक हो होली
कौआ बोला मैं हूँ काला
काला ही रहने दो मैना
रंग चढ़े ना मुझमें दूजा
होली खेलूँ मैं कभी ना॥
फिर मुर्गे से मैना बोली-
तुम्हें मुबारक हो होली
मुर्गा बोला मेरे पंख
रंग डाले हैं लोगों ने
कौन सा रंग लगाओगी
अब बोलो मेरे गालों में॥
फिर बगुले से मैना बोली-
तुम्हें मुबारक हो होली
बगुला बोला मैना रानी
खेलूँगा मैं भी होली
मेरे तन पर खाली कर दो
अपने रंगों की झोली॥
हरीश परमार

बुधवार, 19 मार्च 2008

गिरते पत्तॊं का संदेश


भारती परिमल
दीपू एक नटखट बालक था। स्कूल में उसकी शरारतों से जहाँ श िक्षक परेशान रहते थे, तो घर में उसके आलसीपन और लापरवाही से मम्मी-पापा को भी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उसे सबसे ज्यादा मजा आता था, फूल-पक्तों को तोड़ने में और पौधों को उखाड़ फेंकने में। स्कूल में जब किसी दिन बच्चों को मैदान की या बगीचे की सफाई का काम सौंपा जाता, तो उस दिन तो दीपू के मजे हो जाते। वह पक्तों के साथ फूलोको भी तोड़ देता और कई छोटे-छोटे पौधों को तो जड़ सहित उखाड़ कर फिर से गमले में लगा देता। उसे फूलों की पंखुड़ियों को मसलना, पेड़ की शाखाओं को तोड़ना, चिड़िया के घोंसले को नष्ट करना ये सभी काम करने बहुत अच्छे लगते। उसके दोस्त भी उसकी शरारतों में उसके साथ शामिल होते। वे सभी मिल कर कोई न कोई ऐसी शरारत करते कि जिससे बेचारे मूक पेड़-पौधे और पक्षियों को परेशानी होती।
दिसम्बर की छुट्टियों में जब उन्हें स्कूल की तरफ से पिकनिक ले जाया गया, तो वहाँ दीपू और उसके सभी दोस्तों ने मिलकर बगीचे के बहुत सारे फूल तोड़ लिए और उन्हें बिखेर दिया। इतने से ही उन्हें संतोष न हुआ तो पेड़. पर चढ़कर चिड़िया का घोंसला भी नीचे गिरा दिया। बेचारी चिड़िया के चार अंडे फूट गए और वह चीं-ची करती चिल्लाती ही रह गई। शीना, मीना और उसकी सहेलियों ने उनकी शिकायत गेम्स टीचर से कर दी, फिर क्या था गेम्स टीचर ने उन्हें ऐसा डाँटा कि उनका पिकनिक का मजा ही जाता रहा।
एक दिन पापा ने उसे गमलों में पानी डालने के लिए कहा। उसे तो यह काम भाता ही नहीं था, सो उसने हाँ कह कर आदेश टाल दिया। बाद में जब पिता ने देखा कि सारे गमले सूखे ही सूखे हैं, तो उन्होंने दीपू से उसका कारण पूछा। दीपू ने फिर बहाना बनाया और कहने लगा कि मैं भूल गया था। ऐसा कहकर वह दूसरे काम में लग गया। उस दिन तो गमलों में पापा ने पानी डाल दिया। कुछ दिन बाद पापा ने सख्ती के साथ दीपू से कहा कि आज तुम्हें गमलों में पानी डालना ही है। ऐसा कह कर वे किसी काम से बाहर चले गए।
दीपू गमलों में पानी डालने लगा। पानी डालते हुए अचानक उसे शरारत सूझी- कुछ गमलों को तो उसने पानी से लबालब भर दिया और कुछ छोटे-छोटे पौधों को उखाड़ दिया। ऐसा करते हुए उसे बहुत अच्छा लगा। अपनी शरारत पर वह बहुत खुश था। फिर पापा की डाँट के डर से उसने उखाड़े हुए पौधों को फिर से गमले में ऐसे ही रख दिया। शाम को पापा ने पौधों की जो हालत देखी तो उन्हें दीपू की कारस्तानी का पता चला। उन्हें गुस्सा तो बहुत आया पर उन्होंने धैर्य से काम लिया। वे दीपू का स्वभाव जानते थे कि ये शरारती है, किंतु पेड़-पौधो के प्रति उसके मन में जरा भी दया भाव नहीं है, यह बात उन्हें दु:खी कर गई। उन्होंने दीपू के मन में पेड़-पौधों के प्रति प्यार जगाने का संकल्प लिया।
दूसरे दिन रविवार था। वे बाजार गए और एक सुंदर सा गुलाब का पौधा ले आए। इसे दीपू के हाथों में सौंपते हुए बोले- ये तुम्हारे लिए है। इसकी सारी जवाबदारी तुम्हारी है। इसे आज ही गमले में लगा दो और रोज सुबह-शाम इसमें पानी डालो। एक महीने बाद मैं तुमसे इस पोधे की प्रगति के बारे में पूछूँगा। मुझे वि6वास है, तुम इसकी अच्छी तरह देखभाल करोगे। ऐसा कहते हुए पापा ने दीपू के सर पर प्यार से हाथ फेरा। दीपू इस जवाबदारी से घबरा गया, पर पापा के प्यार और वि6वास के सामने कुछ कह न पाया। उसने इच्छा न होते हुए भी पौधे को गमले में लगा दिया।
बस यहाँ आकर दीपू का काम पूरा हो गया। उसने गमले को एक कोने में रख दिया और फिर स्वभाव के अनुसार उसे भूल गया। कभी याद भी आ जाता तो कल पानी डाल दूँगा ऐसा सोचता हुआ काम को टाल देता। इस तरह से एक महीना गुजर गया। इस दौरान दीपू के पापा ने भी उस पौधे की दुर्दशा देखी, पर चूँकि उन्होंने एक महीने बाद उस संबंध में बात करने को कहा था, इसलिए वे चुप रहे। एक दिन उन्होंने दीपू को अपने पास बुलाया और उस पौधे के बारे में पूछा। जब दीपू उन्हें कोई जवाब न दे पाया, तो वे उसे स्वयं ही गमले के पास ले गए। दीपू ने देखा- पौधा पूरी तरह से सूख चुका है, पत्ते सारे पीले पड़ चुके हैं। उसे यकीन हो गया अब तो पापा जरूर डाँटेंगे। वह उनकी डाँट से बचने का और अपनी सफाई देने का उपाय सोचने लगा। ऐसा करते हुए उसने चारों तरफ, ऊपर-नीचे निगाह दौड़ाई और उसे उपाय सूझ गया।
पापा ने जैसे ही उसकी लापरवाही को लेकर उसे डाँटना शुरू किया कि दीपू बोल पड़ा- पापा मेरा इसमें कोई दोष नहीं। सभी पेड़-पौधो की यही हालत है। ये पौधा ही नहीं आस-पास के सभी पौधे तो मुरझा रहे हैं, पत्ते पीले पड़ रहे हैं, वो देखिए उस पेड़ के तो पत्ते भी किस तरह से झड़ कर नीचे गिरे हुए हैं, बिना पक्तों का पेड़ कितना डरावना दिख रहा है। जब पेड़-पौधों की यही हालत होनी है, तो फिर भला इनकीदेखभाल का क्या मतलब?
पापा ने प्यार से समझाया- मेरे बेटे, सभी चीजों का कुछ न कुछ मतलब होता है। ये पतझड़ का मौसम है। इस मौसम में पेड़ से पुराने .पत्ते झड़ जाते हैं। ये मौसम पेड़-पौधों के लिए वस्त्र बदलने की तरह है। जिस तरह हम पुराने वस्त्र उतारकर नए वस्त्र पहनते हैं, उसी तरह प्रेंति भी इन पेड़ों को इस मौसम में नए वस्त्र धारण करने के लिए कहती है, सो उसके लिए पुराने पक्तों का झड़ना आव6यक है। इस परिवर्तन के द्वारा पेड़-पौधोपर नई कोंपल आती है और हमें शुद्ध प्राणवायु मिलती है। ये पौधे ही हैं जो हमें जीवन देते हैं। इनके बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है।
तुम पेड़ से पक्ताों का गिरना मत देखो, बल्कि इस मौसम के बाद आती हरियाली की आव6यकता को समझो। ये हरियाली हमारे लिए, संसार के सभी प्राणियों के लिए जरूरी है। पतझड़ आएगा, तभी सावन भी आएगा और सावनअपने साथ फिर हरियाली लाएगा। कल्पना करो यदि केवल पतझड़ ही रहे, तो धरती कितनी सूखी, पीली, खाली-खाली सी दिखाई देगी। ये धरती हरी-भरी रहे, इसीलिए पतझड़ आता है और पुराने पक्ताों को गिरा कर नई कोंपलेलाता है। इसलिए तुम भी केवल पतझड़ की बात न करो बल्कि उसके बाद आनेवाली हरियाली की तरफ कदम बढ़ाओ। ये पौधा जो आज सूख रहा है उसमें फिर से पानी डालो, उसकी पूरे मन से नियमित देखभाल करो, तो कुछ दिन बाद ही तुम्हें यह पौधा भी नई कोंपलो के साथ हरा-भरा मुस्काता दिखाई देगा। तुम्हारी मेहनत से इसमें नई कोंपले आएँगी और फूल खिलेंगे। तब तुम्हें अपनी मेहनत पर गर्व होगा। एक बार ऐसा करके तो देखो।
अपने भीतर के आलस और लापरवाही को पतझड़ के पुराने पों की तरह गिरा दो और फिर देखो तुम्हारी मेहनत और स्फूर्ति से जो हरियाली तुम्हारे जीवन में आएगी, वो तुम्हें एक अनोखी खुशी देगी।
आज पापा की बात दीपू की समझ में आ गई उसने उसी क्षण नई स्फूर्ति के साथ कदम बढ़ाया और सभी पौधों पर पानी डालना शुरू कर दिया। आज वह आलस से नहीं पूरे मन से पौधों को सींच रहा था और उन पौधों पर नई कोंपले आने का इंतजार कर रहा था।
भारती परिमल

मंगलवार, 18 मार्च 2008

कितनी सुरक्षित हैं हमारी सीमाएँ


डॉ. महेश परिमल
आए दिनों अखबारों की सर्ुख्ाियाँ बनती रहती हैं कि सीमा पार करते हुए सैकड़ों घुसपैठिए पकड़े गए। या फिर सीमा पार करने की कोशिश में कई लोगों को मार गिराया गया। क्या हमारे देश की सीमाएँ अधिक असुरक्षित हैं कि आए दिन वहाँ कुछ न कुछ होता ही रहता है? कहा जाता है कि जिस देश की सीमाएँ जितनी अधिक सुरक्षित होंगी, वह देश उतनी ही तेजी से विकास करता है। ऑंकड़ों के हिसाब से देखा जाए, तो हमारा देश प्रगति की राह मेंं तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसे यदि सच मान लिया जाए, तो इसे भी सच मानना होगा कि मात्र 500 से 1500 रुपए की रिश्वत देकर कोई भी हमारे देश की सीमा के भीतर आकर तबाही मचाकर आराम से ेजा सकता है।
पिछले दिनों मुम्बई पुलिस ने एक बांग्लादेशी घुसपैठिए को पकड़ा, जिसने बहुत सी चौंकाने वाली जानकारियाँ दी. उसने जो कुछ भी बताया, उसके हिसाब से बांग्लादेश, नेपाल या फिर पाकिस्तान की सीमा से भारत में घुसने की फीस मात्र 500 से 1500 रुपए है। रकम इतनी कम होने का कारण यही है कि घुसपैठिए इससे अधिक रकम हमारे जवानों को नहीं दे सकते। इसलिए इतनी रकम देकर कोई भी हमारे देश में आसानी से प्रवेश कर सकता है। केंद्र सरकार का कहना है कि मुम्बई में जो विस्फोट हुए उसकी जानकारी महाराष्ट्र सरकार को पहले ही दी जा चुकी थी। उधर महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर. पाटिल का कहना है कि ऐसी कोई पुष्ट जानकारी केंद्र सरकार द्वारा हमें नहीं दी गई है। उसे तो सामान्य चेतावनी ही समझा जा सकता है। सच जो भी हो, पर यह भी सच है कि हमारी सीमाएँ असुरँक्षित हो गई हैं।
देश में पुलिस ओर सैनिकों के अलावा अन्य सुरक्षा एजेंसियाँ हैं, जिनकी जवाबदारी इस तरह की घटनाओं के चलते बढ़ जाती है। जैसे कि सीमा सुरक्षा दल, भारत-तिब्बत सुरक्षा बल, स्टेट रिजर्व पुलिस, सेंट्रल रिजर्व पुलिस, केंद्रीय औद्यौगिक सुरक्षा बल, आर्म्ड प्रोविंशियल फोर्स, असम राइफल्स, सशस्त्र सीमा बल, नेशनल सिक्योरिटी गार्ड आदि-आदि। सरकारी फाइलों को खंगाल लें, अब तो हम सबको सूचना का अधिकार हर नागरिक के पास है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने पुलिस बल और शस्त्रों में खासी बढाेत्तरी की है। 1997 में केंद्रीय पुलिस संगठन में कुल 5 लाख 80 हजार जवान थे, जिसे बढ़ाकर 2005 में 7 लाख 13 हजार किया गया।
अर्ध सैनिक बल काफी समय से कह रहा है कि आतंकवादियों के पास हमसे अच्छे अत्याधुनिक हथियार और संदेश भेजने की मशीनरी है। यदि हमारे पास भी ऐसे ही हथियार और मशीनरी हो जाए, तो हम आतंकवादियों का सफाया करने में सक्षम हो सकते हैं। उनका कहना है कि आजकल आतंकवादी अपने कंप्यूटर पर एक कॉमन पासवर्ड रखते हैं, जिसमें वे एक ई-मेल टाइप करते हैं 'बच्चे की डिलीवरी हो गई, माँ सलामत है'। इसे वे किसी को भेजते नहीं है, बस कंप्यूटर मेें 'सेव' करते हैं। कॉमन पासवर्ड की मदद से दुनिया भर के आतंकवादियों को इसकी जानकारी मिल जाती है और उनका काम पूरा हो जाता है।
हकीकत यह है कि अर्ध सैनिक बलों को अत्याधुनिक संसाधनों से लैस करने के लिए केंद्र सरकार ने अपने बजट में 350 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। 1997- 98 में अर्ध सैनिक बलों के लिए बजट में 4486 करोड़ रुपए की बढ़ोत्तरी की गई। इसे 2006-2007 में बढ़ाकर 16 हजार 34 करोड़ रुपए कर दिया गया। इसके बाद ीाी हमारे अर्ध सैनिक बल आतंकवादियों की गतिविधियों का पता लगाने में विफल साबित हो रहे हैं। आखिर इस खतरनाक और जानलेवा विफलता का कारण क्या है? इसके दो मुख्य कारण हैं, इन कारणों के विश्लेषण के पहले यह जान लें कि अर्ध सैनिक बलों की लापरवाही के कारण किस तरह के गंभीर परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं।
लोकसभा में गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने पिछले दिनों एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि पिछले पाँच वर्षों में हमारे देश बाकायदा वीजा लेकर आने वाले 8 से 10 हजार पाकिस्तानी 'लापता' हैं, इसी तरह गैरकानूनी तरीके से देश में घुस आए बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र खासकर मुम्बई में कुल एक से डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी निवास कर रहे हैं। इसमें नेपालियों को शामिल नहीं किया गया है, इसके अलावा नशीले पदार्थों की तस्करी करने वाले नाइजीरियाई भी शामिल नहीं किए गए हैं। ऑंकड़े ही बताते हैं कि स्थिति कितनी खतरनाक है। जब तक इन लोगों पर अंकुश नहीं रखा जाएगा, तब तक आतंकवाद की घटनाएँ तो होती ही रहेंगी।
इसके अलावा घुसपैठियों के नाम पर सीमाओं से हमेशा दूसरे देश के लोग भारत आते ही रहते हैं। मात्र 500 से 1500 रुपए में सीमा में प्रवेश देने वाले अर्ध सैनिक बलों का सीमाओें पर तैनात होने का कोई अर्थ नहीं है। पिछले एक माह का अखबार देखा जाए, तो स्पष्ट होगा कि विभिन्न क्षेत्रों से करोड़ों रुपए की हेरोइन, कोकीन और अन्य मादक द्रव्यों की बरामदगी की गई है। इसका आशय यह हुआ कि अर्ध सैनिक बलों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सारी विदेशी ताकतों को प्रवेश सीमाओं से ही मिल रहा है। इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं अर्ध सैनिक बल। जब तक इनके भ्रष्ट कारनामों पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा, तब तक इस देश का भला संभव नहीं है। अभी भी हालात इतने बेकाबू नहीं हुए हैं, यदि समय रहते इस पर काबू पा लिया गया, तो ठीक है, अन्यथा हो यह सकता है कि हमारे देश का नाम भले ही हिंदुस्तान हो, पर इसी देश में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएँगे।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 15 मार्च 2008

यह है भोपाल !!



यह है भोपाल !!
हर शहर की अपनी एक तासीर होती है, वह शहर उसी में रचा-बसा होता है। लोग इसे अपनी तरह से जीते हैं और इस पर गर्व करते हैं। हर किसी को अपने शहर के बारे में बोलने का हक है। हर कोई इसे अपने नजरिए से देखता है। भोपाल सबसे अधिक गैस त्रासदी के लिए चर्चित रहा, पर इसके अलावा भी भोपाल की कई विशेषताएँ हैं, जिसे साहित्यकार बटुक चतुर्वेदी ने अपनी नजर से देखा, तो लिखा 'ये है भोपाल' तो आइए आप भी भोपाल के ताल में आकर डुबकी लगाएँ और बन जाएँ पक्के बन्ने खाँ भोपाली।
डॉ. महेश परिमल

यह है भोपाल !!

दिल फेंक दिन और नचनिया सी रात,
प्रोढ़ा सी साँझे और नवेली सी प्रात।
बदलती हवा रोज कितनों की चाल,
पानी की मत पूछो जाने-बवाल।
चढने को घाटी उतरने को ढाल,
हैं शर्मदारों को झीलें और ताल।
बंगले और कारें दिखाते कमाल,
धोती को फाड़े करें यह रुमाल।
ग्राहक है कम लेकिन यादा दलाल,
ऑंखों में होता हजम सारा माल।
हर आदमी खींचे बालों की खाल,
यह है भोपाल !!

हमको पहाड़ों ने सब ओर घेरा,
नागों के मध्य में जैसे सपेरा।
कुछ तो इन्हें देखकर काँपते हैं,
हम जैसे चढ़ते हुए हाँफते हैं।
शमला, ईदगाह विंध्य की बहनें,
महल, अटारी हैं जिनके गहने।
सतपुड़िया इनसे करें छेड़खानी,
मनुआ ने इन पर गुलेलें हैं तानी।
सुनते हैं रातों को होती मस्ती,
बस जाती इन पर तारों की बस्ती।
चकरा मत देख इसका जलाल,
यह है भोपाल !!

बेहद निराले यहाँ के हैं जामें,
झंगा है कुर्ते बंडे पाजामे।
वर्षों से जिसको मयस्सर न पानी,
कसी है बदन पर वही शेरवानी।
टेढ़ी है टोपी रुऑंदार काली,
ऑंखों में सुरमा, दाँतों में लाली।
कपड़ों के ऊपर पीकों के छींटे,
जर्दा ठुंसा जिससे बोली न हीटे।
दो टांग वालों की देखो जुगाली,
चाटे जो चूना पक्का भोपाली।
मरियल है ढाँचा अकड़ की है चाल,
यह है भोपाल !!

सबसे निराली यहाँ की है बोली,
कानों में जैसे मिसरी सी घोली।
कों खाँ पन्डाी कां जारीये हो,
सैनुमा से ई चले आरीये हो?
कों सेठजी कों जुलुम ढारीये हो,
फोकट का नइये जो खारीये हो।
कों वे ओ लड़के नईं सुनरीया है,
खामोखाँ कों टें टें कर रीया है।
देना खाँ बन्ने मियां चाय देना,
जर्दे के दो पान भी बाँध देना।
डरती है बोली से तलवार ढाल,
यह है भोपाल !!

किसी को है साई किसी को बधाई,
किसी की है ढोलक किसी ने बजाई।
बूढ़े ने दुकान यों ही सजाई,
सोलह बरस की ने कर ली सगाई।
इस पर पडाैसी ने फितरत दिखायी,
पिंजरे के संग-संग मैना भी उड़ायी।
छिड़ी सोमवारे में मुर्गा लड़ाई,
भड़भूँजा घाटी में कुतिया बियाई।
बेपर की लोगों ने ऐसी उड़ाई,
मोहल्ले मोहल्ले खुद गई खाई।
भरी राजधानी में होता धमाल,
यह है भोपाल !!

चौड़ी हैं गलियाँ मगर सड़कें तंग,
हर एक मोहल्ला दिखाता है रंग।
इतवारी माँजा चांदबड़ी पतंग,
बुधवारे का गाँजा चौक की भंग।
इब्राहीमपुरे में नजले का संग,
गिन्नौरी ढपले तलैया की चंग।
जहाँगीरी खाट शाजानी पलंग,
फतहगढ़ी तोप रेतघाटी सुरंग।
ईदगाह की कलियाँ शमला के भृंग,
छौले के सपेरे-लखेरी भुजंग।
शहर भर सरेआम ठोके हैं ताल,
यह है भोपाल !!

नामों की महिमा है बिलकुल अपार,
बसे हाथीखाने में हैं पत्रकार।
रहते हैं अपने बिरानों के खास,
मोहल्ले का नाम घोड़ा नक्कास।
प्रोफेसर कालोनी प्रोफेसर विहीन,
है गुलशन आलम मगर गम में लीन।
परी है ना बाजार फिर भी प्रसिध्द,
कमला पार्क में पड़े रहते गिध्द।
गलियाँ ही गलियाँ पर कहाता चौक,
काजीपुरा को है भजनों का शौक।
एक को पुकारो तो सौ बाबूलाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए हैं शायर ही शायर,
कुछ हैं छुपे तो कुछ हैं उजागर।
परेशान से जो मिलें यह सड़क पर,
समझिए कि आए हैं घर से भड़क कर।
पटियों पर बैठे करेंगे जुगाली,
शेरों की भरकर रखते दुनाली।
रोते हैं बच्चे कुढ़ती है बीवी,
मंजिल है इनकी मुशायरा टी.वी.।
शायरी पानी है शायरी भोजन,
शायरी इनका ओढ़न बिछावन।
नहीं इनका कोई पुरसाने हाल,
यह है भोपाल !!

सड़कों पर बैठे मवेशी मिलेंगे,
स्वदेशी मिलेंगे विदेशी मिलेंगे।
चोरी पकड़ने के कुत्ते मिलेंगे,
झाँसे मिलेंगे जी बुत्ते मिलेंगे।
गदहे मिलेंगे और भैंसे मिलेंगे,
पड़े या खड़े ऐसे वैसे मिलेंगे।
कुछ के गले बांधे पट्टे मिलेंगे,
उल्लूओं के पाले पट्ठे मिलेंगे।
फसली सियारों के बच्चे मिलेंगे,
असली झूठे या सच्चे मिलेंगे।
सड़कों पर बिकते मिल जाते खयाल,
यह है भोपाल !!

कथाकार कवि व्यंग्य लेखक धुरंधर,
आलोचक पाठक मंचीय कलंदर।
भीतर-बाहर से श्यामल या सुंदर,
सब है यहाँ राजधानी के अंदर।
कुछ है मुकद्दर के ऐसे सिकन्दर,
लिखते नहीं पर हैं दिखते निरंतर।
कुछ हैं महल और कुछ ध्वस्त खंडहर,
कुछ हैं समीरन तो कुछ हैं बवंडर।
कुछ हैं करेले तो कुछ हैं चुकन्दर,
कोई है साक्षात् माया-मछन्दर।
पुरस्कार पाने को फैलाए जाल,
यह है भोपाल !!

नाटक मिलेंगे जी बैले मिलेंगे,
बेवक्त होते झमेले मिलेंगे।
कला के तबेली-तबेले मिलेंगे,
बलाओं के नहले-दहले मिलेंगे।
जिससे न मिलना हो पहले मिलेंगे,
जिसको सिकुड़ना था फैले मिलेंगे।
सड़क घेरे अनगिन ठेले मिलेंगे,
मनुष्य के रूप में थैले मिलेंगे।
मटका सुराही औ धैले मिलेंगे,
गुरुओं को लुटते चेले मिलेंगे।
सही सोच वालों का बेहद अकाल,
यह है भोपाल !!

पहले यहाँ पर थीं अनगिन तलैयें,
जिनको पचा गये गधे या बिलैयें।
उगते थे जिनमें जमकर सिंघाड़े,
उग आए उनमें लोगों के बाड़े।
जो कुछ बची वे भी कुम्हला रही हैं,
मनुष्यों की ऑंखें उन्हें खा रही हैं।
छोटा ताल मैल हम सबका धोता,
उस पर भी अब खेल दिन रात होता।
बड़ा ताल अब भी बचाए है इजत,
मेरीन ड_्राईव की देता है लजत।
मरने वालों का यहाँ रखते ख्याल,
यह है भोपाल !!

कानों में घुँघरू बजाते वे ताँगे,
फिल्माई धुन गुनगुनाते वे ताँगे।
आदाब कर सिर झुकाते वे ताँगे,
जैराम कहते कहाते वे ताँगे।
परी से सजते सजाते वे ताँगे,
घंटी दिलों में बजाते वे ताँगे।
कहो तो अचानक कहाँ खो गए हैं,
हम उनसे महरूम क्यों हो गए हैं?
अब कौन हमको सुनाएगा किस्से,
देगा हमें कौन अब भोले घिस्से?
आदमी भी चलने लगा अब रवाल,
यह है भोपाल !!
जुम्मे से यादा जुमेरात प्यारी,
बारों से यादा चलती कल्हारी।
सैकड़ों होटल और सैकड़ों लॉज,
कोढ़ के ऊपर ही होती है खाज।
जायज नाजायज भट्टी के धँधे,
चुप बैठे देखें ऑंखों के ऍंधे।
तू भी हमारा है वह भी हमारा,
हमें क्या पता कौन ने हाथ मारा?
जोरदार होती है नूरा-कुश्ती,
खुली ऑंख देखिए कुनवा परस्ती।
सुबह से ही कुछ लोग होते निढाल,
यह है भोपाल !!

पानी के बम्बे बड़े रोतले हैं,
प्यासे हैं फिर भी खड़े हौसले हैं।
जब भी यह आते मरजी से आते,
मन होता रुकते, नहीं लौट जाते।
कहीं आते हैं तो जाते नहीं हैं,
जाते अगर फिर वे आते नहीं हैं।
सांपों के बच्चे कभी साथ लाते,
कभी केंचुए तक हमें हैं थमाते।
शिकायत किसी से होती बेमानी,
पिला रहा अमला परिषद को पानी।
बिन पानी वाला चलता है कुचाल
यह है भोपाल !!

लुटेरों का डंका पिटता यहाँ पर,
शराफत का बेटा लुटता यहाँ पर।
सच बोलने वाला मिटता यहाँ पर,
ईमान का दम भी घुटता यहाँ पर।
जीवित का जीवन सिमटता यहाँ पर,
निरीहों पर बादल फटता यहाँ पर।
हुनरमन्द छटियल छटता यहाँ पर,
इन्साफ का कद-सा घटता यहाँ पर।
चमचों को परसाद बँटता यहाँ पर,
ऍंधेरे में सौदा पटता यहाँ पर।
झूठों के घर में है सच्चाई मिसाल,
यह है भोपाल !!

शिक्षा की घर-घर में खुलती दुकानें,
ले जाएगी किस दिशा में न जाने?
ऍंगरेजी गिटपिट सिखाती निरन्तर,
सुनकर जिसको शरमाता बटलर।
सिखाती गले में उलझाना फँदा,
जमकर उगाहती फीस और चँदा।
हिंदी को लंगड़ा बनाने में माहिर,
किस्से कहानी, सभी को हैं जाहिर।
किसको है चिन्ता संस्कृति बचाए,
गुलामी के सारे धब्बे मिटाए।
गटरों में गिरते हैं नित नौनिहाल,
यह है भोपाल !!


जिधर भी देखिए हैं खड़े गैस पीड़ित,
कुछ अधमरे से तो कुछ मात्र जीवित।
करोड़ों की रकमें ले जा चुके हैं,
लाखों के दावे फिर आ चुके हैं।
आबादी से भी अधिक गैस पीड़ित,
भगवान जाने क्या है हकीकत।
लाखों की अरजी में कितने हैं फरजी,
नहीं जान पाते सरकारी तरजी।
खबरों दलाली की सब पढ़ रहे हैं,
इल्जाम हम तुम पर मढ़ रहे हैं।
कुछ लोग बस हो गए मालामाल,
यह है भोपाल !!

ढेरो मिलेंगे जी हाली-मवाली,
चमचे मिलेंगे और लोटे थाली।
असली मिलेंगे जी या लोग जाली,
बगिया को खा जाने वाले माली।
टोपी मिलेंगी तो लेती उछाली,
पहुंँच वाले टोपे खोमो-खयाली।
बीमारियाँ मुफ्त नाजों की पाली,
खालिस ही मिलती यहाँ पर दलाली।
जो काम करने न पाए दोनाली,
वह करदे अपनी भोपाली गाली।
जेबों में मिलते यहाँ इन्दरजाल,
यह है भोपाल !!

आटो दिखा सकते डिस्को या ब्रेक,
किसको पड़ी है जो करवाए चैक।
आते हैं इनकी सेवा में गरजी,
जावें ना जावें सब इनकी मरजी।
अक्सर सवारी को करतब दिखाते,
हर नए पखेरू को जमकर घुमाते।
किस्से कहानी छपा करते इनके,
पढ़ पढ़ कर स_जन रहते हैं पिनके।
पुलिस वाला जैसे इनका सखा है,
कहने को बाकी अब क्या रखा है।
दस पाँच रुपयों का कैसा मलाल,
यह है भोपाल !!

नई बस्तियाँ सब यहाँ नम्बरी है,
मरुस्थल की बाँहों में कादम्बरी है।
सफल खेल चलता यहाँ नम्बरों का,
चढ़ता है नित भाव ऊँचे वरों का।
बिना नम्बरों के भटकते यहाँ हैं,
पैंडूलमों से लटकते यहाँ हैं।
नम्बर सही है तो सब कुछ सही हैं,
नहीं तो मुकद्दर सड़ा-सा दही हैं।
बिना नम्बरों के खाते हैं धक्के,
फिरते लुढ़कते हुए हक्के-बक्के।
हर नम्बरी की होती टेढ़ी चाल,
यह है भोपाल !!


नई बस्तियों के पहनावे न्यारे,
सूट-बूट, टाई यहाँ शान मारें।
लड़के-लड़कियों में जींस औ पट्टा,
अभी भी पापुलर है सलवार दुपट्टा।
ऊँची से ऊँची सिलकन की साड़ी,
झुग्गी से लेकर महलों को प्यारी।
बुर्के इधर अब तो चलते नहीं हैं,
महकों से गुलशन किलकते यहीं हैं।
एक्शन जूतों का हल्ला ही हल्ला,
चप्पल औ सैंडल हैं माशा अल्ला।
जेबों को फैशन देती है खंगाल,
यह है भोपाल !!

नई बस्तियों के साहब और बाबू,
चपरासियों तक पर जिनका न काबू।
साहब से यादा मैडम की चलती,
कमरों में बासी कढ़ी भी उबलती।
ऑंखों पर मोटे पॉवर के चश्मे,
दिल भरके लौंडे दिखाते करिश्मे।
रोके नहीं रुकती छुट्टा मवेशी,
चर जाती बगिया होती ना पेशी।
बेहद सफाई से पटते हैं सौदे,
मिलते पियक्कड़जी सड़कों पर औंधे।
पैसा और पॉवर की बेढंग चाल,
यह है भोपाल !!

वल्लभ भवन की हैं चालें निराली,
टेबल भरी किंतु कुर्सी है खाली।
मरजी पर इसकी कमिश्नर कलेक्टर,
जिसकी भी चाहें खिंचवा दे पिक्चर।
बजती ही रहती है फोनों की घंटी,
अच्छे-अच्छों की फँस जाती अंटी।
चारों तरफ देता सर-सर सुनाई,
फाइलें करती हैं दिन भर धुनाई।
चपरासी, बाबू, ऑफिसर, मिनिस्टर,
सबको देता है चक्कर पर चक्कर।
पता क्या किसे कब यह करदे हलाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए हैं कुर्सी ही कुर्सी,
ऊपर भी कुर्सी नीचे भी कुर्सी।
आजू में कुर्सी बाजू में कुर्सी,
बांटो में और तराजू में कुर्सी।
कुर्सी के ऊपर दिखती है कुर्सी,
भीतर औ बाहर बिकती है कुर्सी।
इजत है कुर्सी आदर है कुर्सी,
किसी की मदर या फादर है कुर्सी।
कुर्सी दिलाती सलामें है फर्शी,
कुर्सी की खुशबू महकती इतर-सी।
कभी कुर्सी होती जी का जंजाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए बस निगम ही निगम है,
जेबों में सब कायदे और नियम है।
कुछ को पता ही नहीं क्यों बने हैं,
तम्बू जमूरों के फिर भी तने हैं।
कुछ के दिवाले ही हिटे हुए हैं,
कुछ लोग इनको चीटे हुए हैं।
साहब की गाड़ी फाइल के घोड़े,
मन्सूबे बाँधे लम्बे और चौड़े।
बस दौड़ते ही रहते हैं निशदिन,
दौरे और भत्ते बनाते टनाटन।
ऊपर से लाल बत्तियों का जमाल,
यह है भोपाल !!

दो तीन और चार पहियों के वाहन,
जिधर देखिए दौड़ते हैं दनादन।
भोंपू बजा या गूँजाते अलगोंजे,
भागे चले आते लादकर बोझे।
कभी कोई करता मिलता है भंगड़ा,
कभी कोई मिलता सरे राह लंगड़ा।
कुछ तो पसर जाते हैं बीच रस्ते,
कुछ दौड़ते बस पाने को भत्ते।
कुछ से शनि राहु ही रूठे हुए हैं,
कुछ काले धंधों में डूबे हुए हैं।
किसको पता अब कितना पोलम्पाल,
यह है भोपाल !!

यहाँ गुल खिलाती वहाँ गुल खिलाती,
यहाँ झुग्गियों की फसल लहलहाती।
यही तो मिठाई औ तुरसी दिलाती,
यही तो गद्दियाँ और कुर्सी दिलाती।
झुग्गी बनाती है झुग्गी मिटाती,
झुग्गी बहुत सारे सौदे पटाती।
झुग्गी यहाँ खूब चन्दे दिलाती,
जल्सा जुलूसों को बन्दे दिलाती।
अंधे धंधे और फँदे दिलाती,
सस्ते से सस्ते परिंदे दिलाती।
बनवाओ झुग्गी बनो मालामाल,
यह है भोपाल !!

जब से यहाँ आ गया है ये टीवी,
पागल से हो गए हैं बच्चे बीवी।
दिन भर इससे ही चिपके हुए हैं,
बिसरा के सब कुछ इसी के हुए हैं।
लालायित कई इसमें मुखड़ा दिखाने,
हैं व्यग्र कुछ अपनी किस्मत खुलाने।
लीलाएँ अद्भुत होती है इसमें,
अक्लें और शक्लें बिकती है इसमें।
कुछ इसको कहते हैं बुद्धू बक्सा,
संस्कृति का इसने पोता है नक्शा।
करता रहता पैदा नई नित खुजाल,
यह है भोपाल !!

खेलों में भी है शहर यह मशहूर,
बूढ़े बच्चे जवान सब इसमें चूर।
साहित्यकारों को पि्रय है कबड्डी,
खींचे हैं टाँगे चटके है हड्डी।
राजनीतिज्ञों का प्यारा है खो-खो,
जिसमें दिखाते हैं करतब अनेकों।
हर कोई खो देने तत्पर खड़ा है,
आसंदियों को खतरा बड़ा है।
कल्चर में हॉकी यहाँ पर घुसी है,
नहीं चाहिए था वहाँ पर ठुँसी है।
किरकिट का हर क्षेत्र में फैला जाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए बस खुला है अखाड़ा,
ढाबों का बजता यहाँ पर नगाड़ा।
कला का अखाड़ा-बला का अखाड़ा,
अदब के ढला औ चला का अखाड़ा।
दलों का अखाड़ा-बलों का अखाड़ा,
मच्छरों और खटमलों का अखाड़ा।
लुटों का अखाड़ा-पिटों का अखाड़ा,
गोटों की माफिक फिटों का अखाड़ा।
इसका अखाड़ा या उसका अखाड़ा,
करता ही रहता है सबका कबाड़ा।
उस्ताद रखते हैं पट्ठों का खयाल,
यह है भोपाल !!

रोगी से यादा दिखे हैं चिकित्सक,
फीसों को रहते जो यादा उत्सुक।
देते हैं नरसिंग-होमों को सेवा,
सेवा के बदले मनमानी मेवा।
नामी चिकित्सक के सैंकड़ो नखरे,
संभव है मौके पर आके पसरे।
कुछ रोगियों को है लगती शनीचर,
हो जाते आकर यहाँ वे फटीचर।
अब तो सिफारिश भी देती न काम,
फटी जेब वालों का रक्षक है राम।
रुकने पर पे्रक्टिस होता है बवाल,
यह है भोपाल !!

समाचार पत्रों का मेला लगा है,
लेकिन ना खबरों का कोई सगा है।
हर सूत्र अपने रंगों में रँगा है,
हमारे तुम्हारे काँधे टँगा है।
एड्सों के रस में जो भी पगा है,
पतंग सा वह ही अधर में थिगा है।
कहीं कोई सोया तो कोई जगा है,
बारहों महीने यहाँ रत-जगा है।
सत्ता-सुराही से जो जा लगा है,
लगता है उसका मुकद्दर जगा है।
कलम का है जौहर, कलम का धमाल,
यह है भोपाल !!

खाना औ पीना लेना औ देना,
चलता निरंतर दिन हो या रैना।
भूखे-प्यासों को मिलती न चैना,
बेकार तरसे हैं खाने चबैना।
उठाईगीरों को रबड़ी या छैना,
मेहनतकशों को बस भूखा रहना।
पिंजरों में बेबस पड़ी बंद मैना,
मिट्ठू जी बोलें रटवायें बैना।
चिड़ियों के घर में बाजों का रहना,
वाह रे भोपाल तेरा क्या कहना।
मुर्दो की भी लोग खींचे है खाल,
यह है भोपाल !!

बैठे चौराहे-चौराहे पुतले,
होते हमें देख बेचारे दुबले।
कभी देखकर ये भोपाली हरकत,
होते हैं आतुर सिखाते शराफत।
इात किसी बहन-बेटी की लुटती,
भीतर ही भीतर दम इनकी घुटती।
लखकर लुटेरे उबलते हैं अक्सर,
ऑंसू बहाते विवशता में फँसकर।
सच्चाई ईमान सबका सफाया,
यही सब दिखाने यहाँ था बिठाया?
शहीदों की आत्मा लेती उबाल,
यह है भोपाल !!

भोपाली गुण हम कहाँ तक बखाने,
सुंदर बनाने की कायम दुकानें।
फिरते हैं चेहरे चढ़ाकर मुलम्मा,
युवती सी लगती बच्चों की अम्मा।
फैशन ही फैशन न दाना न पानी,
पतंग की जगह सिर्फ ठड्डा कमानी।
बूढ़ों की गलती, गलती पर गलती,
आग की संगत में हंडी पिघलती।
होता जवानी का हुड़दंग भारी,
कहीं पर नगद तो कहीं पर उधारी।
गंजे पा नाखून यहाँ है निहाल,
यह है भोपाल !!

चाँदी के जूते बहुत चल रहे हैं,
जमकर ऍंधेरे में गुल खिल रहे हैं।
रेतों में देखों कमल खिल रहे हैं,
किस्मत में लिक्खे मजे मिल रहे हैं।
टोपी औ जूते गले मिल रहे हैं,
मिट्टी के माधो के सिर हिल रहे हैं।
भुक्खड़ की माफिक सभी पिल रहे हैं,
जिन्दों की खातिर कफन सिल रहे हैं।
शातिर से शातिर यहाँ पल रहे हैं,
डर से शरीफों के दिल हिल रहे हैं।
कल के कंधीरे हैं अब मालामाल,
यह है भोपाल !!

जादूगर जमकर दिखाते हैं खेल,
पानी बिके बनकर मिट्टी का तेल।
मिट्टी को आटा बनाकर खिला दे,
इस्पि्रट को इंग्लिश बनाकर पिला दे।
किलो को घटा दें ये सैंकड़ों ग्राम,
दिलाए ये साँसों को पूर्ण विराम।
बाँधे किसी भी गले में ये पट्टा,
हवा न लगे और लौटा दे फट्टा।
देखते देखते खिसका दे कुर्सी,
जादू के बल पर हो मातम-पुरसी।
पड़े हैं एक से एक ऊँचे बेताल,
यह है भोपाल !!

घपले या टाले-घुटाले मिलेंगे,
अपने परायों के पाले मिलेंगे।
बिना चाबी वाले ताले मिलेंगे,
विरोधी गले हाथ डाले मिलेंगे।
सत्य की ऑंखों में जाले मिलेंगे,
खुबसूरत हीले हवाले मिलेंगे।
मन भी मिलेंगे तो काले मिलेंगे,
नगद फारमूले मसाले मिलेंगे।
गले में अटकते निवाले मिलेंगे,
अपनों से निकले दिवाले मिलेंगे।
अंगुली उठे कोई, है किसकी मजाल,
यह है भोपाल !!

नित नए धरने औ रैली यहाँ है,
अखाडाें की बालू फैली यहाँ है।
नई काम करने की शैली यहाँ है,
सिफारिश के पहले थैली यहाँ है।
माँगने को भिक्षा हथेली यहाँ है,
हवालों की पाली हवेली यहाँ है।
भूखों की मारी तवेली यहाँ है,
गुरुओं की झोली में चेली यहाँ है।
बुङ्ढों की बाजू में नवेली यहाँ है,
सच्चाई मैली कुचैली यहाँ है।
एम.ए. पी.एच-डी मिलता है हम्माल,
यह है भोपाल !!

हिल जाते पढ़कर दिल्ली औ पटना,
पत्रों में छपी जो भोपाली घटना।
चाकू तमंचों का खुलकर निपटना,
लुटेरों का जमकर चैनें झपटना।
नगर वाहनों का लीकों से हटना,
आटो का चलते चलते पलटना।
नियम कायदों का मिनटों में लुटना,
जेबों में सब मामलों का सुलटना।
जूतों में खुलकर दालों का बँटना,
नंगों के घर में माया का फटना।
जेबों में कानून बैगों में माल,
यह है भोपाल !!

खबरों से लगती जुर्मों की नगरी,
हर रोता कहता जुल्मों की नगरी।
सुनने से लगती कुकर्मों की नगरी,
नारों से है धतकर्मों की नगरी।
नंगों को है बेशर्मों की नगरी,
भजनों अजानों से धर्मों की नगरी।
लुच्चे लफंगों के कर्मों की नगरी,
आशिक मिजाजों को मर्मों की नगरी।
पीने-पिलाने को गरमों की नगरी,
असली या नकली फर्मों की नगरी।
इंसानियत का है भयानक अकाल,
यह है भोपाल !!

बड़े चुस्त दिखते यहाँ के सिपाही,
चौराहों सड़कों नगद वाह-वाही।
सब फारमूले हैं इनके अनोखे,
खाते नहीं ये किसी से भी धोखे।
हिंदी अंग्रेजी उर्दू में बोलें,
पल-पल में अपनी डायरियाँ खोलें।
मुल्ला मौलवी हो या कोइर्ण पंडा,
सहमते सभी देख हाथों में डंडा।
रहें बन्द करने सबको यह तत्पर,
नहीं खोलता मुँह कोई भी पिटकर।
खड़े करते रहते स्वयं ही बवाल,
यह है भोपाल !!

यहाँ एक भारत भवन भी है होता,
फनकार जिसमें लगाते हैं गोता।
दुनिया में होते बस इसके चर्चे,
मत पूछो इसके कितने हैं खर्चे?
कलाकार-कवि खूब आते यहाँ हैं,
मस्ती में आ डूब जाते यहाँ हैं।
दर्शक की लगती नाराजी इससे,
सड़क तक चले आए हैं इसके किस्से।
कटती यहाँ सिर्फ अपनों की चाँदी,
कलाएँ यहाँ सब विशेषों की बाँदी।
कईयों को घुसने का अब तक मलाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए है नेता ही नेता,
हर रोग की यह दवा सबको देता।
हवा तक में झंडे यह गाड़ देता,
रेती से यह तेल तक काढ़ लेता।
चप्पू बिना भी यह नैया चलाता,
लतियल मरखनी हो गैया लगाता।
फटे में सदा अपनी उलझाता टाँगे,
यह मरते दम तक करता है माँगें।
दे देकर भाषण न थकता जरा भी,
लाखों का होता नेता मरा भी।
ला सकता पल भर में नेता भूचाल,
यह है भोपाल !!

उतराते फिरते मंत्री ही मंत्री,
रक्षा में इनकी संत्री ही संत्री।
घेरे में रहते चेले या चाँटी,
चमचों को रेवड़ी बाँटी न बाँटी।
झंडी लगी कार में बैठे घूमें,
तारीफें ताली सुनसुन कर झूमें।
रखते हैं ये पीए पीएस सुलझे,
निपटाएँ क्षण में केसों को उलझे।
आश्वासन इनकी जेबों में रहते,
करते नहीं मात्र कहते ही कहते।
भूतपूर्व होकर रहते बेहाल,
यह है भोपाल !!

मिलता बैरागढ़ में हर माल थोक,
देशी विदेशी हो या बिलकुल फोक।
ठस्से से चलती माँगे की गाड़ी,
यहाँ आते दुनिया भर के कबाड़ी।
चमचम चमाचम से चौंधती ऑंखे,
ग्राहक की कुब्बत ऑंखे ही ऑंके।
लाखों के सौदे जुबानी जुबानी,
सयाने यहाँ आ माँगे है पानी।
इधर सा व्यापारी होता न दूजा,
हर देवता की होती यहाँ पूजा।
काया और माया यहाँ की विशाल,
यह है भोपाल !!

पिपलानी भरकर ऑंखों में पानी,
गोविंदपुरा से है कहती कहानी।
मत लाना मुँह पर भीतर की बातें,
खाना पड़ेंगी समर्थों की लातें।
लोगों मशीनों में घुट छन रही है,
बाहर ही बाहर रकम बन रही है।
बँगले औ कोठी तने जा रहे हैं,
कालिख में साहब सने जा रहे हैं।
धुऑं धूल बदबू प्रदूषण अटाले,
किसको पड़ी है जो रोके पनाले?
अपनों की अपने गलाते हैं दाल,
यह है भोपाल !!

चोरी और सीना जोरी यहाँ है,
मछली फँसाने की डोरी यहाँ है।
काली कलूटी या गोरी यहाँ है,
जोरी के संग बराजोरी यहाँ है।
फूटी मटकिया या कोरी यहाँ है,
छोरों के ड_्रेस में छोरी यहाँ है।
पापड़ के ऊपर कचोरी यहाँ है,
बढ़ चढ़ के बस मुफ्तखोरी यहाँ है।
ईदें मोहब्बत में बोरी यहाँ है,
रंगों गुलालों की होरी यहाँ है।
ताली फटकारों का हर ओर जाल,
यह है भोपाल !!

उधर जा रही है इधर आ रही है,
ठसाठस मिनी बस चली आ रही है।
कुछों की जरूरत भली आ रही है,
कुछों की मुसीबत टली जा रही है।
छकड़े का कोइर्_र् मजा ला रही है,
कोई सवारी को दहला रही है।
कोई टेप पर गीत सुनवा रही है,
बिछुड़े हुओं को मिलवा रही है।
टक्कर या ठूंसा लगा आ रही है,
किसी का दिया सा बुझा जा रही है।
बचना कहीं पहुँचा न दे ससुराल,
यह है भोपाल !!

डिगरियाँ लादे से पुंगे मिलेंगे,
पढ़े या अनपढ़ से लुंगे मिलेंगे।
शरीफों सरीखे लफंगे मिलेंगे,
हवा में विचरते शुतंगे मिलेंगे।
सूट और बूट में नंगे मिलेंगे,
गंजों के हाथों में कंघे मिलेंगे।
सही हाथ-पैर के पंगे मिलेेंगे,
भले आदमी संग बेढंगे मिलेंगे।
चाकू छुरियों संग मलंगे मिलेंगे,
पेशेन्ट घोड़े से चंगे मिलेंगे।
चमकती तलवार उछलती है ढाल,
यह है भोपाल !!

आशिक मिजाजी के झ्रडे गड़े हैं,
जिधर दृष्टि डालो उधर ही खड़े हैं।
कुछ गर्ल्स कालेज पर आ खड़े हैं,
कुछ गर्ल्स स्कूलों पर आ अड़े हैं।
कुछ अपने वाहन से करते पीछा,
कुछ भोगते इसका बढ़िया नतीजा।
बसों में भी यह मिल जाते अचानक,
अश्लील कसते हैं फिकरे भयानक।
सीटी बजाते या करते इशारे,
आशिक मिल जाते दफ्तर के द्वारे।
रोड रोमियो ठाढ़े करते बवाल,
यह है भोपाल !!

जिसे देखिए वह चला आ रहा है,
बुरा या कि कोई भला आ रहा है।
सड़ा या बुसा या गला आ रहा है,
लुटता या पिटता चला आ रहा है।
आशिक या फिर दिलजला आ रहा है,
सपनों या ख्यालों में ढला आ रहा है।
कभी लगता कि जलजला आ रहा है,
या फिर कोई बलबला आ रहा है।
कभी नर्म फुग्गा फूला आ रहा है,
सौदों का बस सिलसिला आ रहा है।
यहाँ आते जाते दिखाते कमाल,
यह है भोपाल !!

जिधर देखिए फैलती राजधानी,
डुबलों को बस ठेलती राजधानी।
जेल औ कफस झेलती राजधानी,
खतरों से नित खेलती राजधानी।
अपनों से ही डैलती राजधानी,
मुफत दंड से पेलती राजधानी।
बगीचों बसी छैल सी राजधानी,
वनों में गुमी गैल सी राजधानी।
कोल्हू जुते बैल सी राजधानी,
मन में बसे मैल सी राजधानी।
कितने ही आते हैं होने खुशाल,
यह है भोपाल !!
श्री बटुक चतुर्वेदी

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

कुछ कहना चाहती है प़कृति


डा. महेश परिमल
चेरापूँजी में जल संकट,मुम्बई में ठंड दक्षिणी ध्रुव में घास उगी, अरब में हिमपात.... ये सब क्या हो रहा है? लगता है अब पूरा भूगोल ही नए सिरे से लिखा जाएगा. इन्हीं खबरों के बीच याद आ गया पिछले साल ही फ्रांस में 'हीट वेब' याने लू चली थी, जिससे बुजुर्ग़ काफी परेशान हुए थे. आखिर इसे क्या कहें? क्या खेल खेल रही है प्रकृति हमसे? कहीं हम सब प्रलय के करीब तो नहीं? वैसे भी भविष्यवाणी यही हुई है कि अब छठा प्रलय आने वाला है और यह प्रलय इंसान की करतूतों की वजह से ही आएगा. भविष्यवाणी भले ही गलत साबित हो, पर यह बिलकुल सच है कि इंसान लगातार प्रकृति से छेड़छाड़ करता आ रहा है, आज हम सब उसी छेड़छाड़ का परिणाम भुगत रहे हैं.
यह सबको मालूम है कि प्रकृति को अपना संतुलन बनाए रखना अच्छी तरह आता है. हमारे पुराण भी यही कहते हैं कि जब भी कहीं अति होगी, समझो विनाश तय है. इंसान ने प्रकृति के साथ इतनी अधिक अति की है कि वह बिफर उठी है. प्रकृति का बिफरना इसी तरह तांडव के रूप में सामने आता है. अब तो वही होगा, जिसकी लोगों ने कल्पना ही नहीं की होगी, क्योंकि प्रकृति अब करवट लेने लगी है. अब तो ऐसी पीढ़ी सामने आने लगी है, जिसका जंगल से कोई वास्ता नहीं है. ये पीढ़ी है आज की भागते रहने वाली पीढ़ी. जिसे प्रकृति से कोई मतलब नहीं. केवल फॉस्ट फूड पर जिंदा रहने की कोशिश करती यह पीढ़ी कुछ समझना ही नहीं चाहती. बुजुर्ग जो पेड़ लगा गए, उसी के सहारे आज पीढ़ी जिंदा है. वरना जंगल तो केवल सिनरी में ही रह जाते.
आज कोई भी समुद्री किनारा सुरक्षित नहीं है. चारों ओर फैली गंदगी, आलीशान भवन, आसपास पेडाें का नामोनिशान नहीं, ये सब लक्षण हैं, अपनी विपत्ति बुलाने के . मानव द्वारा की जाने वाली विनाश लीला के आगे प्रकृति की लीला बहुत ही छोटी है. इतना अवश्य है कि मानव ने जो क्षति कई वर्षों में पहुँचाई, प्रकृति ने वह कुछ क्षणों में ही पहुँचा दी है. इस पर यदि मानव गर्व करे कि उसने प्रकृति को जीत लिया, तो यह उसकी नासमझी ही होगी.
पृथ्वी पर अब तक पाँच महाप्रलय हो चुके हैं. प्रलय की यह प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती है. लेकिन अब छठा प्रलय शुरू हो चुका है. यह इंसान द्वारा उपज प्रलय का एक छोटा सा नमूना है. इंसान ने अपने ही हाथों इस प्रलय को आमंत्रित किया है. ंजरा सोचें, एक भूखंड पर कितनों का आवास होता है. आप कहेंगे- बस दो-चार लोगों का. पर आप शायद भूल जाते हैं कि एक भूखंड पर दो-चार नहीं, बल्कि हजारों लोगों का वास होता है. एक भूखंड पर यदि दस पेड़ भी हों, तो उस पेड़ के पक्षी, उसकी छाँव पर पलने वाले हजारों बैक्टिरिया, कीड़े-मकोड़े ये सभी तो उसी पेड़ के आसरे होते हैं, इन्हें भूल गए आप! कितनी पीड़ा होती है, अपने बसेरे को छोड़कर जाने की, इसे समझना हो, तो उन भूकंप पीड़ितों से पूछो, जिन्हें रातों-रात अपना आवास छोड़कर ऐसे स्थान पर जाना पड़ा, जहाँ आबादी के नाम पर कुछ भी नहीं था. मात्र कुछ क्षणों में उनका बसेरा छूट गया. वे बसेरे से दूर होने की त्रासदायी पीड़ा झेलने लगे. हम भी अपने घर के लिए इन पक्षियों का बसेरा उजाड़ते हैं, उन बेजुबानों की पीड़ा समझने का प्रयास किया है किसी ने?
अब तक जो प्रलय हुए, उनमें ग्लोबलवार्मिंग, ग्लोबलकूलिंग, आकाश में से उल्कापिंडों के कारण, ज्वालामुखी के विस्फोटों या सुपरनोवा के नाम से जानी जाती तारों के टूटने की घटना से फैलती विकिरण ऊर्जा को बहुत बड़ा कारण माना जाता रहा है. किंतु वर्त्तमान में तो जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट होने, मानव प्रवृत्ति से प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने, ओजोन की परत का लगातार क्षय होना, विश्व के बढ़ते तापमान से ग्रीन हाउस के असर के कारणों में लगातार वृद्धि, जंगलों का नाश होना, जमीन और पानी के हानिकारक प्रदूषण होना जैसे अनेक कारण जवाबदार हैं. इन सबके लिए इंसान खुद जिम्मेदार है.
खैर अब आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे देखते ही देखते पूरे एक हजार ग्यारह जातियों के पक्षी लुप्त हो रहे हैं. जो शेष हैं, वे भी लुप्त हो जाएँगे, तब हम कैसे बताएँगे कि कैसा होता है पक्षियों का कलरव! दक्षिण अफ्रीका के डर्बन में बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की परिषद् की बैठक हुई, जिसमें तीन सौ पक्षीविदों ने भाग लेकर विचार विमर्श किया और जो रिपोर्ट दी, वह चौंकाने वाली है. उनकी 70 पेज की रिपोर्ट में 'स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स बड्र्स 2004' के शीर्षक से बताया है कि वर्त्तमान में पक्षियों की दस हजार जातियाँ हैं, इसमें से 1211 जातियाँ लुप्त होने वाली हैं.

ये बात हुूई पक्षियों की, पर सच तो यह है कि इंसानों की हालत इससे कमतर बिलकुल नहीं है. मेरा विश्वास है कि जो जितना अधिक प्रकृति से जुड़ेगा, प्रकृति से बात करेगा, प्रकृति के साथ रहेगा, वह उतना ही संवेदनशील होगा. वह समझ पाएगा प्रकृति की भाषा. अंडमान-निकोबार के उन आदिवासियों की तरह, जिन्होंने मिट्टी, पानी, पक्षियों की आवाजों से पृथ्वी की हलचल को समझा और वे भाग निकले, अपनी जान बचाने के लिए. अभी-अभी यह जानकारी मिली है कि अंडमान की पाँच जातियाँ ओंगी, जारवा, शॉम्पनी, सेंटीनली और ग्रेट अंडमानींज. वैज्ञानिकों का कहना है इस जनजाति को यह ज्ञान अपने पुरखों से विरासत के रूप में मिला है. यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि आज तक उस ज्ञान को हम कलमबध्द नहीं कर पाए. करोड़ों रुपए खर्च केरके यदि कच्छ में सुनामी वार्निंग सिस्टम स्थापित किया जाएगा, लेकिन यदि उन आदिवासियों से ही वह ज्ञान प्राप्त कर लिया जाए, तो क्या बुरा है?
प्रकृति हमसे बातें करना चाहती है. वह हमें दुलारना चाहती है, अपनी गोद में खिलाना चाहती है. उसने हमें क्या नहीं दिया, वर्षों से वह हमारी सेवा कर रही है, लेकिन हमने उसे क्या दिया? कांक्रीट के ेजंगल, विषैली हवा, बिगड्ा हुआ पर्यावरण, प्रदूषित नदी-नाले, मैदानी इलाके ये सब आज हम प्रकृति को दे रहे हैं. अब हमें प्रकृति कुछ दे रही है, तो हमें पीड़ा नहीं होनी चाहिए.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 13 मार्च 2008

फैशन की दौड़ में मौत का साया


डॉ. महेश परिमल
आज का दौर फैशन का दौर है। चाहे युवक हो या युवती, किशोर-किशोरियाँ यहाँ तक कि बच्चे भी इस फैशन की चकाचौंध से खुद को अलग नहीं कर पाते हैं। विशेषकर हमारे युवाओं पर तो फैशन का बुखार ऐसा चढ़ा है कि वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। युवतियों को लेकर हर युवक की पहली पसंद यही होती है कि उसकी गर्लफ्रेंड छरहरी हो, दुबली हो, मोटी तो कदापि न हो। युवक ही नहीं, बल्कि आजकल तो सभी की पसंद है छरहरी काया। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि अपनी काया को छरहरी बनाए रखने के लिए युवतियों को कितनी मशक्कत करनी पड़ती हैं। इस मशक्कत में केट वॉक पर चलने वाली युवतियाँ मौत का शिकार हो रही हैं। इससे यह स्पष्ट है कि जो ऑंखों को अच्छा लगे, वही सुंदर नहीं है, बल्कि सुंदरता तो बाह्य वस्तु है, इसका शरीर सेकोई संबंध नहीं। लेकिन फैशन की दुनिया इसे सही नहीं मानती। हाल ही में दो माँडल्स की मौत ने इसे महत्वपूर्ण बना दिया है कि छरहरी काया ही सब कुछ होती है।
ब्यूटीपार्लरों पर हजारों रुपए खर्च करने वाले ये युवा अपने खान-पान पर इतनी कंजूसी करते हैं कि इनका भोजन का खर्च तो विटामिन की गोलियों, जूस, सूप और उबले भोजन में ही समा जाता है। उस पर भी कई फैशनपरस्त तो ऐसे भी होते हैं कि केवल कच्ची सब्जियों के सहारे ही जिंदा रहते हैं और अपने शरीर को हर तरह से फिट बनाए रखते हैं। फैशन की दुनिया में शरीर की सुडौलता एक आवश्यक शर्त है। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली फैशन प्रतिस्पर्धा में कई मॉडल्स हिस्सा लेते हैं और केवल 'केट वॉक' के लिए ही स्टेज पर आने के लिए उन्हें अनेक शर्तो से होकर गुजरना होता है। स्लीम एन्ड ट्रीम होना पहली शर्त होने के बाद क्रमश: आकर्षक व्यक्तित्व एवं बौध्दिक ज्ञान को महत्व दिया जाता है। किंतु यह शरीर की सुडौलता किस तरह जाननेवा साबित हो रही है, इस ओर कम ही ध्यान दिया जाता है। वे मॉडल्स जो इस प्रतिस्पर्धा में हैं, वे तो इस ओर ध्यान देते ही नहीं, किंतु उनकी देखादेखी उनके नक्शेकदम पर चलने वाले युवा भी इस ओर ध्यान नहीं देते। उन्हें तो केवल अपने गु्रप के बीच अपनी एक अलग छवि बनानी है और इसके लिए वे अपने सामर्थ्य के अनुसार सभी कुछ कर गुजरते हैं।
एक तरफ भारत में आगामी मार्च महीने में फैशन वीक को लेकर जोरशोर से तैयारियाँ हो रही है और दूसरी तरफ मॉडल्स की शारीरिक सुडौलता के संबंध में उपजा विवाद भी जोर पकड़ रहा है। कारण साफ है- पिछले दो-तीन महीनों में पतली, लंबी-छरहरी बाँस जैसी तीन मॉडल्स की मृत्यु। यह एक सच्चाई है कि मॉडल्स के शरीर पर एक ग्राम भी चर्बी बढ़ती है, तो इसे दर्शक या प्रायोजित कंपनियाँ बर्दाश्त नहीं कर पातीं। इसीलिए यह मॉडल्स अपने शरीर पर चर्बी की एक सतह भी जमने नहीं देते हैं। रेम्प पर चलते समय मॉडल के पतले हाथ-पैर और पतला शरीर ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र होते हैं। इसीलिए फैशन उद्योग में छरहरी मॉडल्स को ही स्वीकार किया जाता है।
मॉडल यदि थोड़ी सी भी मोटी होती है, कि उसे कंपनी द्वारा 'रिजेक्ट' कर दिया जाता है। इसीलिए मॉडल अपनी शारीरिक सुडौलता का विशेष ध्यान रखती है और शरीर पर मोटापा नहीं आने देती। वर्षो से चली आ रही इस मान्यता या परिपाटी को स्पेन में आयोजित एक शो में तोडा गया। वहाँ सितम्बर में आयोजित एक फैशन शो में यह घोषणा की गई कि मॉडल पतली भले ही हो, किंतु वह तंदरुस्त होनी चाहिए। डायटिंग करके अपना वजन संतुलित करने वाली मॉडल्स के लिए यह एक प्रशंसनीय निर्णय था। लोगों ने भी इस बात को स्वीकार किया कि मॉडल्स तंदुरुस्त दिखनी चाहिए। सभी ने इस निर्णय का स्वागत किया। किंतु कड़े प्रतिस्पर्धात्मक दौर में किसी निर्णय का स्वागत करना अलग बात है और उसे गंभीरता पूर्वक अमल में लाना दूसरी बात है।
ब्राजील की मॉडल ऐना केरोलीना उम्र मात्र 21 वर्ष ही थी। 5 फीट 8 इंच लम्बी इस मॉडल का वजन मात्र 40 किलोग्राम था। वह नियमित रूप से डायटिंग करके अपने वजन को बढ़ने नहीं देती थी। नतीजा यह कि उसके शरीर के आंतरिक अंगों को आवश्यक मात्रा में पोषक तत्व नहीं मिल रहे थे, जिसके कारण अंतिम दिनों में उसके अंग सिकुड़ गए थे। ऐना केरोलीना की एकाएक मृत्यु होना मॉडलिंग की दुनिया में दूसरा केस है। इसके पहले उरुग्वे में फैशन वीक के दौरान 22 वर्षीय मॉडल लूसी रिमोस हार्ट अटैक के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई थीं। वो केवल द्रव पदार्थों पर रहकर डायटिंग करती थी। अपने शरीर का वजन बढ़ने से रोकने के लिए उसने केवल द्रव पदार्थो पर ही रहना शुरू कर दिया था।
ऐना केरोलीना ने भी लूसी की राह पर चलना शुरू किया और अपने दुबलेपन को बनाए रखने के लिए उसने भी केवल टमाटर और सेब का जूस का सहारा लिया। उसके साथ रहने वाली एक 30 वर्षीय मॉडल का कहना है कि ऐना कुछ भी नहीं खाती थी। उसे हमेशा चर्बी बढ़ जाने का भय लगा रहता था। इसीलिए वह बहुत मुश्किल से केवल एक चम्मच ही खा पाती थी। ऐना केरोलीना का इलाज करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि उसके शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं बचा था कि जिसके कारण दवा का असर हो सके। उसके शरीर के अंदरूनी अवयव कम पानी और कम भोजन के कारण संकुचित हो गए थे। जिस वजह से वह 'ऐनोरेक्सी' नामक रोग से पीड़ित थी। ऐना ने तुर्क, मेक्सिको और जापान में भी अपने शो किए थे। पेरिस में वह एक फोटो सेशन में भाग लेने वाली थी, किंतु उसके पहले ही वह मृत्यु का ग्रास बन गई।
ऐना केरोलीना की माँ का कहना है कि मॉडलिंग के क्षेत्र में शरीर पतला रखने की जद्दोजहद करती युवतियों के लिए ऐना की मृत्यु एक सबक है। मॉडलिंग के क्षेत्र में पतली-छरहरी काया का मोह त्यागने की आवश्यकता है। क्योंकि ऐसी मॉडल्स मानसिक रूप से व्यथित रहती हैं। वे हमेशा भ्रम की स्थिति में जीती हैं और अपने शरीर की देखरेख करने के तनाव में ही हर क्षण जीते-जीते मरती हैं।
मॉडलिंग के क्षेत्र में अपनी पहचान कायम करने के लिए, अपने आपको स्थापित करने के लिए अपने शरीर की आहुति देने वाली ये दो मॉडल्स अभी भी सबक के रूप में लोगों के सामने नहीं आई हैं, क्योंकि फैशन की दुनिया में अभी भी पतली और रूई के फाहे जैसी नाजुक युवतियों को ही हरी झंडी दी जाती है। फैशन शो के कर्ताधर्ता बार-बार यही कहते हैं कि हम दुबली-पतली न सही लेकिन तंदुरुस्त मॉडल को स्वीकार भी लें, किंतु तंदुरुस्त का अर्थ 'मोटी' से हो तो भला उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है। यहाँ 'मोटी' से आशय अंशमात्र भरावदार शरीर से है, जिसे कंपनियाँ स्वीकार नहीं करती ।
फैशन उद्योग के लोगों का मानना है कि तंदुरुस्त दिखने वाली युवतियों में ग्लैमर कम दिखाई देता है। पतली मॉडल्स जैसा आकर्षण उनमें नहीं होता। फैशन ऐजेंसियों की इस मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। दूसरी तरफ इस शो में भाग लेने वाली युवतियाँ भी इस ओर अपनी नकारात्मक सोच ही रखती हैं और तंदुरुस्ती को चरबी बढ़ने से तौलते हुए डायटिंग को ही सुडौेलता का एक मात्र उपाय मानती हैं।
शारीरिक सुंदरता एवं आकर्षण को लेकर वैचारिक मापदंड एवं मानसिकता को बदलना स्वयं मॉडल्स एवं आयोजकों के हाथ में है। फैशन शो में लाइट की चकाचौंध और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच रेम्प पर चलने वाली मॉडल भले ही स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा लगे, किंतु परदे के पीछे अपने आपको स्पर्धा में टिकाए रखने के लिए उनका जीवन कितना कितना स्पर्धात्मक एवं लाचारगी भरा होता है, इस बात को वह स्वयं ही अच्छी तरह से समझ सकती है। स्पर्धा में टिके रहने के लिए वह भूखी रहती है और शरीर की सुडौलता बनाए रखती है। धीरे-धीरे यही सुडौलता उन्हें मौत की ओर ले जाती है और वे कुछ नहीं कर पातीं।
डॉ. महेश परिमल

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