शुक्रवार, 14 मार्च 2008
कुछ कहना चाहती है प़कृति
डा. महेश परिमल
चेरापूँजी में जल संकट,मुम्बई में ठंड दक्षिणी ध्रुव में घास उगी, अरब में हिमपात.... ये सब क्या हो रहा है? लगता है अब पूरा भूगोल ही नए सिरे से लिखा जाएगा. इन्हीं खबरों के बीच याद आ गया पिछले साल ही फ्रांस में 'हीट वेब' याने लू चली थी, जिससे बुजुर्ग़ काफी परेशान हुए थे. आखिर इसे क्या कहें? क्या खेल खेल रही है प्रकृति हमसे? कहीं हम सब प्रलय के करीब तो नहीं? वैसे भी भविष्यवाणी यही हुई है कि अब छठा प्रलय आने वाला है और यह प्रलय इंसान की करतूतों की वजह से ही आएगा. भविष्यवाणी भले ही गलत साबित हो, पर यह बिलकुल सच है कि इंसान लगातार प्रकृति से छेड़छाड़ करता आ रहा है, आज हम सब उसी छेड़छाड़ का परिणाम भुगत रहे हैं.
यह सबको मालूम है कि प्रकृति को अपना संतुलन बनाए रखना अच्छी तरह आता है. हमारे पुराण भी यही कहते हैं कि जब भी कहीं अति होगी, समझो विनाश तय है. इंसान ने प्रकृति के साथ इतनी अधिक अति की है कि वह बिफर उठी है. प्रकृति का बिफरना इसी तरह तांडव के रूप में सामने आता है. अब तो वही होगा, जिसकी लोगों ने कल्पना ही नहीं की होगी, क्योंकि प्रकृति अब करवट लेने लगी है. अब तो ऐसी पीढ़ी सामने आने लगी है, जिसका जंगल से कोई वास्ता नहीं है. ये पीढ़ी है आज की भागते रहने वाली पीढ़ी. जिसे प्रकृति से कोई मतलब नहीं. केवल फॉस्ट फूड पर जिंदा रहने की कोशिश करती यह पीढ़ी कुछ समझना ही नहीं चाहती. बुजुर्ग जो पेड़ लगा गए, उसी के सहारे आज पीढ़ी जिंदा है. वरना जंगल तो केवल सिनरी में ही रह जाते.
आज कोई भी समुद्री किनारा सुरक्षित नहीं है. चारों ओर फैली गंदगी, आलीशान भवन, आसपास पेडाें का नामोनिशान नहीं, ये सब लक्षण हैं, अपनी विपत्ति बुलाने के . मानव द्वारा की जाने वाली विनाश लीला के आगे प्रकृति की लीला बहुत ही छोटी है. इतना अवश्य है कि मानव ने जो क्षति कई वर्षों में पहुँचाई, प्रकृति ने वह कुछ क्षणों में ही पहुँचा दी है. इस पर यदि मानव गर्व करे कि उसने प्रकृति को जीत लिया, तो यह उसकी नासमझी ही होगी.
पृथ्वी पर अब तक पाँच महाप्रलय हो चुके हैं. प्रलय की यह प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती है. लेकिन अब छठा प्रलय शुरू हो चुका है. यह इंसान द्वारा उपज प्रलय का एक छोटा सा नमूना है. इंसान ने अपने ही हाथों इस प्रलय को आमंत्रित किया है. ंजरा सोचें, एक भूखंड पर कितनों का आवास होता है. आप कहेंगे- बस दो-चार लोगों का. पर आप शायद भूल जाते हैं कि एक भूखंड पर दो-चार नहीं, बल्कि हजारों लोगों का वास होता है. एक भूखंड पर यदि दस पेड़ भी हों, तो उस पेड़ के पक्षी, उसकी छाँव पर पलने वाले हजारों बैक्टिरिया, कीड़े-मकोड़े ये सभी तो उसी पेड़ के आसरे होते हैं, इन्हें भूल गए आप! कितनी पीड़ा होती है, अपने बसेरे को छोड़कर जाने की, इसे समझना हो, तो उन भूकंप पीड़ितों से पूछो, जिन्हें रातों-रात अपना आवास छोड़कर ऐसे स्थान पर जाना पड़ा, जहाँ आबादी के नाम पर कुछ भी नहीं था. मात्र कुछ क्षणों में उनका बसेरा छूट गया. वे बसेरे से दूर होने की त्रासदायी पीड़ा झेलने लगे. हम भी अपने घर के लिए इन पक्षियों का बसेरा उजाड़ते हैं, उन बेजुबानों की पीड़ा समझने का प्रयास किया है किसी ने?
अब तक जो प्रलय हुए, उनमें ग्लोबलवार्मिंग, ग्लोबलकूलिंग, आकाश में से उल्कापिंडों के कारण, ज्वालामुखी के विस्फोटों या सुपरनोवा के नाम से जानी जाती तारों के टूटने की घटना से फैलती विकिरण ऊर्जा को बहुत बड़ा कारण माना जाता रहा है. किंतु वर्त्तमान में तो जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट होने, मानव प्रवृत्ति से प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने, ओजोन की परत का लगातार क्षय होना, विश्व के बढ़ते तापमान से ग्रीन हाउस के असर के कारणों में लगातार वृद्धि, जंगलों का नाश होना, जमीन और पानी के हानिकारक प्रदूषण होना जैसे अनेक कारण जवाबदार हैं. इन सबके लिए इंसान खुद जिम्मेदार है.
खैर अब आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे देखते ही देखते पूरे एक हजार ग्यारह जातियों के पक्षी लुप्त हो रहे हैं. जो शेष हैं, वे भी लुप्त हो जाएँगे, तब हम कैसे बताएँगे कि कैसा होता है पक्षियों का कलरव! दक्षिण अफ्रीका के डर्बन में बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की परिषद् की बैठक हुई, जिसमें तीन सौ पक्षीविदों ने भाग लेकर विचार विमर्श किया और जो रिपोर्ट दी, वह चौंकाने वाली है. उनकी 70 पेज की रिपोर्ट में 'स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स बड्र्स 2004' के शीर्षक से बताया है कि वर्त्तमान में पक्षियों की दस हजार जातियाँ हैं, इसमें से 1211 जातियाँ लुप्त होने वाली हैं.
ये बात हुूई पक्षियों की, पर सच तो यह है कि इंसानों की हालत इससे कमतर बिलकुल नहीं है. मेरा विश्वास है कि जो जितना अधिक प्रकृति से जुड़ेगा, प्रकृति से बात करेगा, प्रकृति के साथ रहेगा, वह उतना ही संवेदनशील होगा. वह समझ पाएगा प्रकृति की भाषा. अंडमान-निकोबार के उन आदिवासियों की तरह, जिन्होंने मिट्टी, पानी, पक्षियों की आवाजों से पृथ्वी की हलचल को समझा और वे भाग निकले, अपनी जान बचाने के लिए. अभी-अभी यह जानकारी मिली है कि अंडमान की पाँच जातियाँ ओंगी, जारवा, शॉम्पनी, सेंटीनली और ग्रेट अंडमानींज. वैज्ञानिकों का कहना है इस जनजाति को यह ज्ञान अपने पुरखों से विरासत के रूप में मिला है. यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि आज तक उस ज्ञान को हम कलमबध्द नहीं कर पाए. करोड़ों रुपए खर्च केरके यदि कच्छ में सुनामी वार्निंग सिस्टम स्थापित किया जाएगा, लेकिन यदि उन आदिवासियों से ही वह ज्ञान प्राप्त कर लिया जाए, तो क्या बुरा है?
प्रकृति हमसे बातें करना चाहती है. वह हमें दुलारना चाहती है, अपनी गोद में खिलाना चाहती है. उसने हमें क्या नहीं दिया, वर्षों से वह हमारी सेवा कर रही है, लेकिन हमने उसे क्या दिया? कांक्रीट के ेजंगल, विषैली हवा, बिगड्ा हुआ पर्यावरण, प्रदूषित नदी-नाले, मैदानी इलाके ये सब आज हम प्रकृति को दे रहे हैं. अब हमें प्रकृति कुछ दे रही है, तो हमें पीड़ा नहीं होनी चाहिए.
डा. महेश परिमल
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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