शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016
बाल कहानी - दंत परी की सीख
नन्हे राजू का एक दाँत गिर गया। दूसरा हिलने लगा और तीसरी में दर्द होने लगा। फिर भी उसका टाॅफी, चाॅकलेट, आइस्क्रीम खाना चालू रहा। आज परेषानी कुछ ज्यादा बढ़ गई थी। रह-रह कर दाँतमें एक टीस सी उठती थी। दर्द के मारे वह तड़प उठता था। न कुछ खाते बनता न कुछ पीते। यहाँ तक कि बात करने की भी इच्छा नहीं हो रही थी। केवल दोनों गालों पर हाथ रखकर वह कराह रहा था।
माँ की थपकियों और लोरी से बड़ी मुष्किल से उसे नींद आई, पर नींद में भी जीभ दाँतों के बीच चली जाती थी। इधर जीभ नींद में दांतों को ढूँढ रही थी, कि तभी दंतपरी आई।
दंतपरी ने प्यार से पुकारा- राजू।
- कौन हो तुम? - राजू ने पूछा।
- मैं हूँ परी।
- कौन सी परी?
- दंतपरी।
- तो तुम्हीं हो, जो मेरे दाँत ले गई हो?
- नहीं, तुम्हारे दाँत मैंने नहीं लिए। तुम्हारे दाँत तो च्यूइंगम, चाॅकलेट, टाॅफी, मिठाई, आईस्क्रीम ने ले लिए हैं। मैं तो तुम्हें दाँत देने आई हूँ।
- क्या? राजू खुष हो गया! क्या तुम मुझे दाँत देने आई हो? मेरे सारे गिरे हुए दाँतों को तुम मुझे वापस दे दोगी?
- हाँ, दे दूँगी। पर मेरी एक षर्त है।
- कैसी षर्त?
- तुम सिर्फ मीठा खाना ही पसंद करते हो। यह अच्छी बात नहीं है। तुम्हें मीठे के अलावा नमकीन, खट्टा, तीखा, कड़वा सभी कुछ खाना होगा।
- कड़वा भी.....?
- हाँ, षरीर और दाँत को सभी तरह के स्वाद की आवष्यकता होती है। अलग-अलग स्वाद से अलग-अलग तत्व मिलते हैं। केवल मीठे का स्वाद जीभ को ही नहीं, षरीर को भी नुकसान पहुँचाता है। बहुत से बच्चों के दाँत इसीलिए खराब हो जाते हैं, क्योंकि उनके दाँतों को पूरे तत्व नहीं मिल पाते हैं।
राजू को दंतपरी की बातें अच्छी नहीं लगीं। उसने कहा- दाँत देने आई हो, तो दाँत देती जाओ, मुझे तुम्हारे उपदेषों की आवष्यकता नहीं है।
-ठीक है, तो तुम इनमें से अपने दाँत ले लो, ऐसा कहते हुए दंतपरी ने राजू के सामने बहुत सारे दाँत बिखेर दिए।
अपने सामने बहुत सारे दाँत देखकर राजू की खुषी का ठिकाना न रहा। वह एक दाँत पसंद करता कि तुरंत उसे दूसरा दाँत पसंद आ जाता। दूसरा उठाता कि तीसरा पसंद आ जाता। इस तरह से वह भ्रम की दुनिया में पहुँच गया। असमंजस की स्थिति में वह कुछ नहीं कर पाया।
-ये किसके दाँत हैं? राजू ने पूछा।
ये दाँत खरगोष, चूहे, बंदर, बिल्ली, कुŸो, हाथी, भालू आदि के हैं। तुम्हें जो पसंद हो, ले लो।
-पर मुझे तो ये दाँत अच्छे नहीं लग रहे हैं।
-क्यों क्या हुआ, अभी तक तो बहुत अच्छे लग रहे थे यही दाँत?
-हाँ, तुम सही कह रही हो, दंतपरी। ये दाँत मुझे अच्छे तो लग रहे हैं, पर मेरे मुँह के अंदर ये दाँत जम नहीं रहे हैं। मुझे मुँह खोलने और बंद करने में परेषाानी हो रही है। मेरा चेहरा भी भद्दा लग रहा है। ऐसा कहते हुए उसने अपने आपको आइने में देखा।
-यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहती थी राजू। दाँत तो अनेक प्रकार के होते हैं, खरगोष, चूहे, बंदर, बिल्ली, कुŸो, हाथी, भालू आदि के अलावा प्रत्येक मनुष्य के दाँतो की बनावट अलग-अलग होती है। प्रकृति ने सभी के दाँतों की बनावट अलग-अलग की है, इसीलिए हमें किसी और के दाँत नहीं जमते।
राजू को लगा-परी ठीक कह रही है। परी ने उसे कई दाँत दिखाए, पर उसमें से कोई दाँत मुँह की खाली जगह पर जम नहीं पाया।
राजू ने परी को पुकारा- परी ओ परी! अब मैं क्या करुँ?
दंतपरी जाते-जाते कहती गई- राजू, जो हुआ, सो हुआ। अब नए दाँत आने दो, उन्हें सँभालकर रखना। केवल मीठा मत खाना।
नहीं खाऊँगा, नहीं खाऊँगा, अब मैं कभी मीठा नहीं खाऊँगा।
मम्मी ने प्यार से झिड़की देते हुए कहा- क्या बड़बड़ा रहे हो, राजू। उठो सुबह हो गई। चलो ब्रष करो। राजू तपाक से उठा और एक पल की देर किए बगैर ब्रष करने चला गया। माँ उसे आष्चर्य से देखती ही रह गई! इसी कहानी का आनंद सुनकर लीजिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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