डॉ. महेश परिमल
देश आज
मुश्किल हालात से गुजर रहा है। लोग महंगाई की मार से जूझ रहे हैं। महंगाई पर काबू
पाने के लिए सरकार गंभीर नहीं दिख रही है। यदि थोड़ी सी भी गंभीर होती, तो चीन के आर्थिक तंत्र के टूटने का पूरा फायदा उठाती। समझ में
नहीं आ रहा है कि जितने जल्दी ‘जीका’ वायरस को काबू में लाया गया, उतनी
जल्दी मंदी के वायरस को काबू में करने के लिए कोई कोशिश नहीं की जा रही है। आखिर
ऐसा क्या हे कि सरकार अपने निर्णय आने वाले चुनाव को ध्यान में रखकर ही क्या लेते
है? देश का आर्थिक तंत्र डांवाडोल हो रहा है। नेता-मंत्री आपस में ही बयानबायी में उलझे हैं। सरकार भी वही गलती कर
रही है, जो पिछली सरकार ने की थी। उस समय भी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जेसे आर्थिक विशेषज्ञ होने के बाद भी वित्तमंत्री
चिंदम्बरम उनकी सलाह नहीं लेते थे, ठीक
उसी तरह आज प्रधानमंत्री के साये की तरह रहने वाले अरुण जेटली भी किसी की नहीं सुन
रहे हैं। इसके बाद भी यह चर्चा है कि उनके स्थान पर किसी और को लाया जाए, ताकि देश का आर्थिक तंत्र कुछ मजबूत बन सके। उनके स्थान की पूर्ति
कौन करेगा,
यह अभी भविष्य के गर्त में है।
जब चीन का
आर्थिक तंत्र फिसला,
तब भारत की हालत खराब होगी, यह तय था,
उसी समय यदि इस दिशा में सख्त कदम उठा लिए जाते, तो आज मंदी की स्थिति नहीं होती। पर सरकार को अपने बहुमत का गर्व
था, इसलिए वह सख्त कदम नहीं उठा पाई। शेयर बाजार के जानकार कहते थे कि
शेयर बाजार की तेजी भ्रामक है, परंतु इसे लोग मानने को
तैयार नहीं थे। हर कोई लेवाली के मूड में था। शेयर बाजार की तेजी को देखकर उससे
कमाने के लिए निवेशकों ने खूब धन लगाया, पर
अब उनके रोन की बारी है। लगातार टूटते बाजार से निवेशक भ्रम के कुहासे से बाहर आ
गए हें। शेयर बाजार में निवेश आग से खेलने जैसा हो गया है। पिछले 15 दिनों में करोड़ों रुपए पानी में बह गए हैं। बाहर से खूबसूरत दिखने
वाला चित्र इतना भयानक रूप धारण कर लेगा, किसी
ने नहीं सोचा था।
क्रूड आयल
के दाम बेतहाशा गिरे,
डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ, बैंकों का घाटा बढ़ते जा रहा है, विश्व
बाजार जब नरम होता है,
तो उस स्थिति में भारत का लचर शेयर बाजार टिका
हुआ है, इसे चमत्कार ही कहा जाएगा। जिन्होंने अपनी फिक्स डिपाजिट तोड़कर उस
राशि को शेयर बाजार में लगाया, वे अब पछता रहे हैं। यह
स्थिति सेबी के लिए चुनौतीपूर्ण है। पर बाजार यदि 800-800 पाइंट टूटता है, तो उसका कारण सेबी भी न
समझ पाए, इससे दुर्भाग्यजनक स्थिति और क्या होगी? आज रुपए के मुकाबले डॉलर 70 की
दिशा में आगे बढ़ रहा है। लोगों को याद होगा कि जब नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार कर
रहे थे, तब वे डॉ.
मनमोहन सिंह का मजाब उड़ाते हुए कहते थे कि
वित्तमंत्री पी.
चिदम्बरम की उम्र की तुलना रुपया कर रहा है। तब
उनकी बात पर लोग तालियां बजाते थे। आज वही लोग नरेंद्र मोदी की तरफ आशा भरी
निगाहों से देख रहे हैं।
वित्तमंत्री, आरबीआई गवर्नर, वित्त सचिव आदि कमजोर
आर्थिक तंत्र से नहीं डरने का आश्वासन दे रहे हैं, पर सामने मंदी का रेला खड़ा है, उससे
कोई इंकार भी नहीं कर रहा है। इस वास्तविकता से आज हर कोई वाकिफ है। इसे नजरअंदाज
नहीं किया जा सकता। सरकार ने बैंकों एक तरह से खुली छूट दे रखी है। बैंकों के
मुनाफे में घाटे की तरफ रिजर्व बैंक का ध्यान नहीं गया था। सरकार स्टार्ट अप के
लिए उद्योगपतियों को जो लोन देना चाहती है, वह
योजना भी घोटालेबाज बैंकों के हाथ में है। ये बैंकें लोन लेने वालों को बार-बार चक्कर लगवाने में माहिर हैं। दस लाख रुपए का लोन सरलता से बिना
ब्याज के देने की योजना है,
ऐसा चित्र उपस्थित किया जा रहा है, पर यह लोगों को दूसरे ही रास्ते पर ले जाने की बात थी। लोने लेने
वाले के पास कोलेटोरल सिक्योरिटी नहीं मांगी जाएगी, परंतु यदि वह आज आवेदन करे, तो
उसे 24 घंटे के अंदर लोन मिल जाएगा, ऐसा
कभी नहीं हो पाएगा। प्रधानमंत्री को यह तो खयाल आ ही गया होगा कि उन्हें कई
मोर्चों पर लड़ाई लड़नी है। लोगों की आशाओं पर खरा उतरना है।
अरुण जेटली
के पास शुरू में तीन मंत्रालय थे, उनके खिलाफ अरविंद
केजरीवाल ने मानो मोर्चा ही खोल दिया। वे जेटली को लगातार परेशान करते रहे। उन पर
मानहानि का मुकदमा तक दायर कर दिया, इसलिए
जेटली ने देश की खराब होती आर्थिक स्थिति की ओर ध्यान नहीं दिया। अब तो हालत यह है
कि देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होने का आरोप भी किसी पर नहीं लगाया जा सकता। अब तो
गांधी परिवार पर भी ऊंगली उठाने की स्थिति में नहीं है यह सरकार। मोदी सरकार को
डेढ़ साल हो गए हैं। अब यदि आर्थिक रूप देश कमजोर हो रहा है, तो इसकी जवाबदारी सरकार की खुद की है। महंगाई कम नहीं की जा सकती।
अब तो पूरा आर्थिक तंत्र ही बरबादी के कगार पर खड़ा हो गया है। अंदर ही अंदर यह
चर्चा है कि सरकार वित्त मंत्री को बदलकर उनके स्थान पर किसी नए आर्थिक विशेषज्ञ
को लाना चाह रही है। यहां भी मोदी सरकार ने पिछली सरकार की तरह ही काम किया है।
यूपीए सरकार के समय भी मनमोहन सिंह जैसे आर्थिक विशेषज्ञ होने के बाद भी पी. चिदम्बरम उनसे सलाह नहीं लेते थे। जिस तरह से चिदम्बरम एरोगेंट थे, ठीक उसी तरह जेटली भी एरोगेंट हैं। आज भले ही जेटली मोदी के राइट
हेंउ हों, पर सच तो यही है कि उनकी करीबी ही देश को आज इस मुहाने पर ले आई
है। अब तो समय आ गया है कि देश का आर्थिक तंत्र बचाए रखने के लिए सख्त से सख्त कदम
उठाने ही होंगे। यदि इसमें जरा भी देर हुई, तो
लोग किसी को भी माफ करने की स्थिति में नहीं होंगे।
डॉ. महेश परिमल
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सरकार, प्रगति और ई-गवर्नेंस " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपने लिखा...
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 04/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 262 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।