शनिवार, 23 अप्रैल 2016
कहानी - माँ - कृष्णा वर्मा
कहानी का कुछ अंश...
कुर्सी पर बैठी मानवी परेशान चित्त सी अपने से ही बुड़बुड़ा रही थी। सास होती तो मैं समझ सकती कि उसे मेरी क्या परवाह है मगर माँ कब से ऐसी हो गई? माँ तो हमेशा ही मेरी छोटी से छोटी बात का ध्यान रखती रही है। आज माँ को हुआ क्या जो सुबह-सुबह घर से चली गई?
रसोईघर से भी आज सुबह-सुबह खटर-पटर की आवाज़ आ रही थी। मैं जागी-सोई सी अवस्था में सोच रही थी कि माँ आज इतनी सुबह क्या कर रही है। फिर सोचा शायद मंदिर जाने का मन कर आया हो क्योंकि पिछले कई हफ्तों से बीमार जो चल रही थी, मन भी तो उकता जाता है घर पड़े-पड़े। बस सोचते-सोचते फिर मेरी आँख लग गई।
तन्वी की तकलीफ़ की वज़ह से सो कहाँ पाई थी मैं रातभर। सुबह मेरी आँख खुलने में देर हो गई। उठते ही घर में देखा तो माँ थी नहीं सोचा अभी आती होगी मंदिर से। इंतज़ार करते-करते दोपहर हो गई माँ तो अभी लौटी ही नहीं। झुंझलाहट के साथ-साथ फिक्र भी होने लगी, माँ गई तो गई कहाँ। इतनी देर लगा दी, बैठ गई होगी किसी से बातें करने। क्या उसे नहीं पता पिछली तीन रातों से मैं तन्वी की तकलीफ़ की वज़ह से ठीक से सो नहीं पा रही। पूरे बदन पे लाल चकत्तों ने परेशान कर रखा है बच्ची को। कोई दवा भी तो असर नहीं कर रही। अच्छी आई भारत, आते ही गर्मी ने धर दबोचा। चार दिन ही हुए मुश्किल से आए और घेर लिया तकलीफ ने।
जब से माँ की बीमारी का सुना था बड़ा बेचैन था मन मिलने को। दिन-रात सोचती रहती थी कितनी बँधी हूँ यहाँ, अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों में। माँ अकेली कैसे अपना ध्यान रख पाती होगी बीमारी में। कैनेडा की जगह यदि पास के शहर में ब्याही होती मैं तो ज़रूरत पड़ने पर देख-भाल तो कर पाती। मृदुल को भी अमरीका ब्याह दिया। क्या पता था माँ को कि दोनों बेटियों को विदेश ब्याह कर जल्दी ही इतनी अकेली हो जाएगी। दो बरस पहले ही पापा का देहान्त अचानक दिल के दौरे से हो गया। जब से पापा नहीं रहे माँ ने जैसे दिल ही छोड़ दिया है और तबीयत भी ढीली ही रहने लगी है। आसान भी कहाँ होती है पिछली उम्र अकेले गुज़ारना? मैं भी क्या करती समय से देख-भाल करने कैसे आती? स्कूल की नौकरी है ही ऐसी - छुट्टियाँ भी तो जून में ही होती हैं। माँ से मिलने की तड़प ने कुछ सोचने ना दिया और छुट्टियाँ होते ही मैं तन्वी को लेकर कुछ दिनों के लिए भारत आ गई। ऐसा नहीं कि तन्वी पहले भारत आई ही नहीं, तीन बरस की थी जब पापा का देहान्त हुआ। सर्दी का मौसम था तो सब ठीक ही रहा था। तन्वी उस रोज़ दोपहर को आँगन में ना निकलती तो यह हालत ना होती। आँगन में माँ ने एक छोटा सा बगीचा लगा रखा है। रंग-बिरंगे फूलों पर उड़ती तितली को देखने के मोह ने तन्वी को धूप का एहसास ना होने दिया। उसे ख़ुश देखकर मैं भी ख़ुश थी, इस ओर ध्यान ही ना गया कि तन्वी पर ज़रा देर की धूप इस तरह से हावी हो जाएगी। बस उसी दिन से उसके बदन पर लाल चकत्ते हो गए, खुजली से परेशान ना वह रातभर सो पाती है ना मैं।
मन ही मन मानवी खीझ रही थी यदि माँ घर रहती तो तन्वी के पास बैठ जाती और मैं ज़रा सोकर सर का भारीपन तो कम कर लेती - पर कहाँ।
इतने में ही घर का ताला खुलने की आवाज़ आई तो वह भाग कर दरवाज़े की ओर पहुँची देखा तो माँ आ गई। खीझी तो पड़ी ही थी आते ही माँ पर बिगड़ने लगी कहाँ चली गईं थी तुम सुबह से ना कुछ कहा ना बताया। तुम्हें नहीं लगा कि मैं कितनी परेशान हो जाऊँगी। तुमने तो इतना भी ना सोचा कि ज़रा तन्वी का ख्याल ही रख लूँ ताकि मानवी कुछ देर आराम करले। मानवी गुस्से में बोलती चली जा रही थी।
थकी-मांदी माँ ने सहजता से कहा, "बेटा ज़रा भीतर तो आ जाने दे ज़रा साँस ले लूँ फिर जो चाहे कह लेना।"आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सच माँ अपनी भूख व्यथा कुछ नहीं देखती अपने बच्चों के खातिर ...हरपल जीते हैं उनके लिए तभी तो वह माँ कहलाती हैं ..
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