सोमवार, 11 अप्रैल 2016
कहानी - समयरेखा - अंजू शर्मा
कहानी का कुछ अंश...
कभी-कभी लगता है हम दोनों एक समय-रेखा पर खड़े हैं। मैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस पर। मैं हर कदम पर एक साल गिनते हुए अनिरुद्ध की ओर बढ़ रही हूँ और वे एक-एक कदम गिनते हुए मेरी दिशा की ओर लौट रहे हैं। ठीक दस कदमों के बाद हम दोनों साथ खड़े हैं, कही कोई फर्क नहीं अब, न समय का और न ही आयु का। इस खेल का मैं मन ही मन भरपूर आनंद लेती हूँ। काश कि असल जीवन में भी ये फर्क ऐसे ही दस कदमों में खत्म हो जाता। पर मैं तो जाने कब से चले जा रही हूँ और ये फर्क है कि मिटता ही नहीं, कभी-कभी बीस साल का यह फासला इतना लंबा प्रतीत होता है कि लगता है मेरा पूरा जन्म इस फासले को तय करने में ही बीत जाएगा।
मार्था शरारत से मुस्कुरातें हुए बताती है, मार्क ट्वेन ने कहा था - "उम्र कोई विषय होने की बजाए दिमाग की उपज है। अगर आप इस पर ज्यादा सोचते हैं तो यह मायने भी नहीं रखती।" मैं खिल-खिलाकर हँस देती हूँ, हँसी के उजले फूल पूरे कमरे में बिखर जाते हैं। मार्था भी न, गोर्की की एक कहानी के पात्र निकोलाई पेत्रोविच की तरह जाने कहाँ-कहाँ से ऐसे कोट ढूँढ़ लाती है। शायद यही वे क्षण होते हैं जब मैं खुलकर हँसती हूँ। घर में तो हमेशा एक अजीब-सी चुप्पी छाई रहती है। उस चुप्पी के आवरण में मेरी उम्र जैसे कुछ और बढ़ जाती है। तब मैं और मेरी मुस्कान दोनों जैसे मुरझा से जाते हैं।
पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोई रहने वाली मैं अपनी हम उम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी हूँ और पैंतालीस की उम्र में अनिरुद्ध कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैं। अपनी किताबों पर बात करते हुए वे अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब वे मुझे बेहद करीब लगते हैं। उनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में ये फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता है। मुझे लगता है जब वो मेरे साथ होते हैं तब हम, हम होते हैं, उम्र के उन सालों का अंतर तो मुझे लोगों के चेहरों, विद्रूप मुस्कानों और माँ की चिंताओं में ही नजर आता है। उफ्फ, मैं चाहती हूँ ये चेहरे ओझल हो जाएँ, मैं नजर घुमाकर इनकी जद से दूर निकल जाती हूँ पर माँ...!!!
बचपन में माँ ने किताबों से दोस्ती करा दी थी। माँ की पीएचडी और मेरा प्राइमरी स्कूल, किताबों का साथ हम दोनों को घेरे लेता। माँ अपने स्कूल से लौटते ही मुझे खाना खिलाकर अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और मुझे भी कोई कहानियों की किताब थमा देती। किताबों ने ही अनिरुद्ध से मिलाया था। लाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते, एक संदर्भ पर दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देते। मेरे शोध में मुझे जो मदद चाहिए थी वह उनसे मिली। फिर पता ही नहीं चला कब वे मेरी दुनिया में प्रवेश पा गए, जहाँ मैं थी, सपने थे, किताबें थी, अब अनिरुद्ध थे उनसे जुड़ी तमाम फैंटेसियाँ भी थी। वो लाइब्रेरी में मुझे किसी पन्ने को थामे कुछ समझा रहे होते और मैं उनके काँधे पर सर रखे एक पहाड़ी सड़क पर धीमे-धीमे चल रही होती। अब मैं सोते-जागते हर पल अनिरुद्ध साथ रहने को मजबूर थी। मेरे कल्पनालोक का विस्तार मेरी नींदों के क्षेत्र में भी अतिक्रमण कर चुका था। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लें...
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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