शनिवार, 30 अप्रैल 2016
कहानी - नव अवतार - भूपेन्द्र कुमार दवे
कहानी का कुछ अंश...
हम पाँच बूढ़े मंदिर के सामने बने चबूतरे पर सूर्योदय होते ही जमा हो जाते थे। जो पहले आता, वह मंदिर की घंटी बजाता। उस दिन सतीश शर्मा ने आकर घंटी बजाई थी सो कहने लगे कि आज उन्होंने भगवान को जगाने का काम किया था। पर उनकी इस मजाक को सभी ने गंभीरता से ले लिया और बहस भगवान के जागने के महत्व पर टिक गई।
पांड़ेजी ने चिंता जताई कि और कितने अधर्म के बाद भगवान अवतार लेंगे? एक तरह से उन्होंने भगवान के जागरण को अवतार से जोड़ दिया था।
मिश्राजी ने कहा, ‘इस युग में तो उनके अवतरित होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि अणुबम पटके जाने के दिन ही अधर्म पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था।’
‘इस विज्ञान के युग में तो उनके अवतार लेकर आने से भी कुछ नहीं होने का।’ तिवारीजी ने बहस में नया मोड़ लाने की कोशिश की।
पर शर्माजी के धार्मिक-संस्कृति में फले-फूले विचार इससे सहमत नहीं हो सके। वे कहने लगे कि भगवान ने समय-समय पर मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन आदि विचित्र अवतार लिये हैं और आज वे हर व्यक्ति के जीवन में इसी तरह का एक विचित्र अवतार लेकर प्रकट होते रहते हैं ताकि हरेक मनुष्य अपने निर्धारित पुण्यपथ पर बेझिझक आगे बढ़ता चले।
शर्माजी ने कहा कि उन्हें भी भगवान ने पथभ्रमित होने से बचाया था --- विश्व विकलांग दिवस पर --- एक अपंग बालक के रूप में अवतरित होकर। इस अवतार की कथा उसी के शब्दों में सुनना बेहतर होगा।
उन्होंने कहा, ‘वह 3 दिसम्बर, विश्व विकलांग दिवस था। उस दिन को मैं भूल नहीं पा रहा हूँ जब मैंने बैंक के अंदर पैर रखा था। उस समय मैं आम आदमियों की तरह एकदम सामान्य था। मुझे बैंक से पैसे निकालने थे। मात्र दो हजार। मुझे कुछ ज्यादा की जरुरत थी पर मेरा बैंक-बैलेंस कह रहा था कि मैं इससे अधिक नहीं निकाल सकता था। मैं लाचार था, पर जैसे ही मैं बैंक से बाहर आ ही रहा था कि मेरी नजर एक वृद्ध पर पड़ी। उसने शायद बड़ी रकम निकाली थी और अपने काँपते हाथें से पैसों की गड्डी एक काले बैग में रख रहा था। न जाने क्यों मेरे कदम बेंक से बाहर आते ही ठिठक गये, उस वृद्ध के इंतजार में।
वह बाहर आया और अपनी गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी चल पड़ी। मैं फूर्ती से आगे बढ़ा और अपना स्कूटर ले उसके पीछे लग गया। शहर के एक सूनसान छोर पर जाकर उसकी गाड़ी रुकी। मैंने एक पेड़ के पास अपना स्कूटर रोका। वृद्ध अपने घर में चला गया और गाड़ी का ड्राइवर गैराज में गाड़ी रख दरवाजे पर ही चाभी झुलाता बैठ गया।
शाम ढलने लगी। धुधंलका छाने लगा। पर ड्राइवर बैठा रहा। शायद उसे आदेश था कि अंधेरा होने तक रुके। मैं अपने अंदर झुँझलाहट महसूस कर रहा था। मैं अपने अंदर की ताकत को शनैः शनैः कमजोर होता देखने लगा था। पर आज सोचता हूँ कि वह कमजोरी नहीं थी बल्कि वह ताकत थी जो ईश्वर अंतिम समय तक मनुष्य को देता जाता है ताकि वह उसी पथ पर कायम रहे जिसपर चलने ईश्वर ने उसे दुनिया में भेजा है।
तभी अचानक ड्राइवर उठकर दरवाजे के अंदर गया और तुरंत ही बाहर आ गया। जैसे ही वह फाटक के बाहर आया, मेरे अंदर के शैतान ने मुझे उकसाया। तभी ईश्वरने मुझे रोकने एक अंतिम प्रयास किया। घनघोर बादलों की फौज ने अचानक आकाश को घेर लिया और बिजली तेजी से कोंधने लगी। बारिश की उग्रता इतनी थी कि मैं तत्क्षण भींग गया। मुझे लौट पड़ना था। पर मैंने दौड़ लगाई और वृद्ध के दरवाजे पर जाकर काॅल बेल दबाई। ‘कौन है?’ एक धीमी आवाज दरवाजे की सुराख से बाहर झाँकने लगी। मैंने फिर घंटी दबाई। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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