सोमवार, 25 अप्रैल 2016
कहानी - एक विलक्षण चित्रकार - भूपेंद्र कुमार दवे
कहानी का कुछ अंश...
मैं एक हाथ में लाठी लिये ज़मीन को टटोलता और दूसरे हाथ को फेंसिंग दीवार पर सरकाता जा रहा था। मुझे फेंसिंग दीवार का अंत ही नज़र नहीं आ रहा था। शायद इस ओर फाटक था ही नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि फाटक के आते ही कोई खतरनाक कुत्ता भोंकने लगेगा या फिर कोई चौकीदार गाली देता हुआ दौड़ पड़ेगा। मकान शायद किसी पैसेवाले का था तभी तो इतनी लम्बी फेंसिंग वॉल ने मकान को घेर रखा था।
पर चीन की दीवार का भी कहीं अंत होता है। मेरा हाथ जैसे ही लोहे के फाटक पर पड़ा तो कोई दहाड़ा, "कौन है?" मैं ठिठक गया। भारी जूते चलते हुए फाटक के करीब आये और कुछ दूरी पर थम गये। फिर मुझे आदेश हुआ, "आगे जाओ।"
मैं यूँ ही कुछ देर फाटक पर बनी लोहे की नक्काशी पर हाथ फेरता खड़ा रहा। आवाज़ फिर थर्रायी, "सुना नहीं। बहरा है क्या? भाग यहाँ से।"
मैं हटने ही वाला था कि मुझे सुनायी पड़ा, "कौन है?" इस समय आवाज़ किसी महिला की थी।
ई भिखारी है," चौकीदार ने उत्तर दिया था।
"उसे रोको। इतने दिनों बाद कोई तो इस घर पर आया है। उसे खाली हाथ मत जाने दो। यह लो। ये पैसे उसे दे देना।" कुछ रुक वह फिर बोल पड़ी, "तुम उसे रोको। पैसे मैं ख़ुद जाकर दे देती हूँ।"
मुझे उस महिला के पैरों की आवाज़ पास आती सुनाई पड़ी। पर वह शायद कुछ दूरी पर आकर ठिठक गई और मुझे देखकर बोली, "आप तो विनोद हैं। है ना। मुझे देखो और पहचानो। बताओ मैं कौन हूँ?"
मैं अचंभित हो उठा। आवाज़ चाहे कितनी भी बदल जाये और समय के गर्त में छिप जाये पर वह स्मृतियों की दीवारों से प्रतिध्वनित होकर जब प्रगट होती है तो उससे वही स्वर लहरियाँ उत्पन्न होती हैं जो वर्षों पूर्व आपको गुदगुदाती रही थीं। मैं पहचान गया और बोल उठा, "हो ना हो, तुम विभा हो। तुम्हारी आवाज़ मुझे बता रही है।"
"पर तुमने अपनी यह कैसी हालत बना रखी है विनोद? आओ, अंदर चले आओ," वह कुछ और पास आकर बोली।
मुझे फाटक का कुंदा टटोलते देख वह बोली, "अरे! यह क्या! तुम्हें दिखाई नहीं देता।" यह कह वह आगे बढ़ी और मेरा हाथ पकड़कर मुझे अंदर ले आयी।
मैं अपनी लाठी लिये कुछ कदम आगे रख ही पाया था कि चौकीदार चिल्लाया, "साँप"।
विभा ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और धीमे से बोली, "लाठी पीछे कर लो। आगे साँप है।"
मुझे साँप की एक फुफकार सुनाई दी।
"लो, वह चला गया। इस बगीचे में वह यूँ ही घूमता रहता है," विभा ने कहा और हम आगे बढ़े।
कुछ कदम चलने पर मेरा हाथ सीढ़ी की रेलिंग पर पड़ा। मैं रुक गया। रेलिंग पर ब्रेल लिपि में छः लिखा था। विभा ने मुझे बताया कि इसका मतलब है कि आगे छः पायदान हैं। मैं जब आखरी पायदान पर पहुँचा तो पाया कि वहाँ रेलिंग पर ब्रेल लिपि में लिखा था कि बाँयी ओर दस डिग्री पर बारह कदम आगे दरवाज़ा था। मैं उसे दरवाज़े की तरफ खुद-ब-खुद चल पड़ा। दरवाज़े की बाँयी तरफ की दीवार पर नक्शा-सा बना था, जो ब्रेल लिपि में बता रहा था कि अंदर कमरे में कहाँ, कितनी दूरी पर सोफा, टेबल आदि रखे थे। मैंने कौतुहलवश विभा से पूछ ही लिया, "क्या तुम्हें मालूम था कि जब कभी मैं यहाँ आऊँगा तो मैं अपनी दृष्टि खो चुका होऊँगा या फिर तुम्हें किसी और अंधे के यहाँ आने का इंतज़ार था?"
इस प्रश्न से विभा के चेहरे पर क्या रेखायें उभरी, मैं देख न सका था, पर उसने उत्तर सहज भाव में ही दिया था, "यह तुम सोचो और समझो।" मैं चुपचाप कमरे में दाखिल हो अंदाज़ लगाकर सोफे पर बैठ गया। मेरे पीछे विभा ने कमरे के अंदर आते ही प्रश्न किया, "अच्छा, पहले ये बताओ कि क्या लोगे -- गरम या ठंडा?"
"मैं एक भिखारी हूँ। एक भिखारी क पास यह अधिकार ही नहीं होता कि वह अपनी पसंद को ज़ाहिर कर भीख माँगे। मेरे ख्याल से तुम भी यह अच्छी तरह जानती हो" मैंने कहा। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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