बुधवार, 13 अप्रैल 2016
कविता - जवान पिता बूढ़े हो जाते हैं...
जवान पिता बूढ़े हो जाते हैं..
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हर साल सर के बाल कम हो जाते हैं
बचे बालों में और भी चांदी पाते हैं
चेहरे पे झुर्रियां बढ़ जाती हैं
रीसेंट पासपोर्ट साइज़ फोटो में कितना अलग नज़र आते हैं
"कहाँ पहले जैसी बात" कहते जाते हैं
देखते ही देखते, जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं.....
सुबह की सैर में चक्कर खा जाते हैं
मौहल्ले को पता पर हमसे छुपाते हैं
प्रतिदिन अपनी खुराक घटाते हैं
तबियत ठीक है, फ़ोन पे बताते हैं
ढीली पतलून को टाइट करवाते हैं
देखते ही देखते, जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
किसी का देहांत सुन घबराते हैं
और परहेजो की संख्यां बढ़ाते हैं
हमारे मोटापे पे, हिदायतों के ढेर लगाते हैं
तंदुरुस्ती हज़ार नियामत, हर दफे बताते हैं
"रोज की वर्जिश" के फायदे गिनाते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
हर साल शौक से बैंक जाते हैं
अपने जिन्दा होने का सबूत दे कितना हर्षाते है
जरा सी बड़ी पेंशन पर फूले नहीं समाते हैं
एक नई "मियादी जमा" करके आते हैं
अपने लिए नहीं, हमारे लिए ही बचाते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
चीज़े रख कर अब अक्सर भूल जाते हैं
उन्हें ढूँढने में सारा घर सर पे उठाते हैं
और मां को पहले की ही तरह हड़काते हैं
पर उससे अलग भी नहीं रह पाते हैं
एक ही किस्से को कितनी बार दोहराते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
चश्मे से भी अब
ठीक से नहीं देख पाते हैं
ब्लड प्रेशर की दवा लेने में
आनाकानी मचाते हैं
एलोपैथी के साइड इफ़ेक्ट बताते हैं
योग और आयुर्वेद की ही रट लगाते हैं
अपने ऑपरेशन को और आगे टलवाते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
उड़द की दाल अब नहीं पचा पाते हैं
लौकी, तुरई और धुली मूंग ही अधिकतर खाते हैं
दांतों में अटके खाने को तिल्ली से खुजलाते हैं
पर डेंटिस्ट के पास कभी नहीं जाते हैं
काम चल तो रहा है की ही धुन लगाते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
हर त्यौहार पर हमारे आने की बाट जोहते जाते हैं
अपने पुराने घर को नई दुल्हन सा चमकाते हैं
हमारी पसंदीदा चीजों के ढेर लगाते हैं
हर छोटे-बड़ी फरमाईश पूरी करने के लिए
फ़ौरन ही बाजार दौडे चले जाते हैं
पोते-पोतियों से मिल कितने आंसू टपकाते हैं
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं....
हर पिता को समर्पितं इस कविता का आनंद ऑडियो के माध्यम से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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