बुधवार, 18 मई 2016
कैकेयी का पश्चाताप - मैथिलीशरण गुप्त
कविता काा अंश... “यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी स्वर को।
बैठी थी अचल तदापि असंख्यतरंगा,
वह सिन्हनी अब थी हहा गोमुखी गंगा।
“हाँ, जानकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुनलें तुमने स्वयम अभी यह माना।
यह सच है तो घर लौट चलो तुम भैय्या,
अपराधिन मैं हूँ तात्, तुम्हारी मैय्या।”
“यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र मैं खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमे सार, उसे सब चुन लो।
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊं?”
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमे भय, विस्मय और खेद भरती थी।
“क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अधीर, अभागे,
ये ज्वलित भाव थे स्वयं तुझे में जागे। पूरी कविता का आनंद लीजिए ऑडियो की मदद से...
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