मंगलवार, 24 मई 2016
धूप के दोहे - गोविन्द सेन
दोहों का अंश...
छाया की कीमत बड़ी, घटा धूप का भाव
सूरज अब करने लगा, दुर्जन-सा बर्ताव
लू-लपटों के सामने, प्राणी है लाचार
मानो ऐसे हाल में, पेड़ों का आभार
तेज धूप के ताप को, झेल न पाते लोग
आँखों पर होने लगा, चश्मे का उपयोग
हवा धूल के साथ हो, मचा रही है शोर
दोपहर कटखनी लगे, प्यारी लगती भोर
तेज धूप में जल रहा, देखो सारा गाँव
छाया बैठी सहमकर, पकड़ पेड़ के पाँव
वो गुनगुनी धूप थी, ये कटखनी धूप
धूप बिगाड़े रूप को, धूप निखारे रूप
जब से देखा धूप में, उसको नंगे पाँव
याद रही बस धूप ही, भूल गया मैं छाँव
इसका, उसका, आपका, झुलसा सबका रूप
पापड़ जैसी सेंकती, धरती को ये धूप
छाया को उदरस्थ कर, निश्चल लेटी धूप
भरी दुपहरी में पड़ी, धर अजगर का रूप
धरती से आकाश तक, धूप-धूप बस! धूप
सूख गए तालाब सब, सूख गए हैं कूप
सूरज देखो सिर चढ़ा, खूब बढ़ाए ताप
धूप चढ़ी बाजार में, झुलसेंगे हम-आप
तेज धूप को तज दिया, पकड़े बैठे छाँव
जलती सड़कें देखकर, कैसे उठते पाँव
इन दोहों का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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