शुक्रवार, 13 मई 2016
पिता के पत्र पुत्री के नाम - 4
लेख के बारे में... हम बतला चुके हैं कि शुरू में छोटे-छोटे समुद्री जानवर और पानी में होनेवाले पौधे दुनिया की जानदार चीजों में थे। वे सिर्फ पानी में ही रह सकते थे और अगर किसी वजह से बाहर निकल आते और उन्हें पानी न मिलता तो जरूर मर जाते होंगे। जैसे आज भी मछलियाँ सूखें में आने से मर जाती हैं। लेकिन उस जमाने में आजकल से कहीं ज्यादा समुद्र और दलदल रहे होंगे। वे मछलियाँ और दूसरे पानी के जानवर जिनकी खाल जरा चिमड़ी थी, सूखी जमीन पर दूसरों से कुछ ज्यादा देर तक जी सकते होंगे। क्योंकि उन्हें सूखने में देर लगती थी। इसलिए नर्म मछलियाँ और उन्हीं की तरह के दूसरे जानवर धीरे-धीरे कम होते गए क्योंकि सूखी जमीन पर जिंदा रहना उनके लिए मुश्किल था और जिनकी खाल ज्यादा सख्त थी वे बढ़ते गए। सोचो, कितनी अजीब बात है! इसका यह मतलब है कि जानवर धीरे-धीरे अपने को आस-पास की चीजों के अनुकूल बना लेते हैं। तुमने लंदन के अजायबघर में देखा था कि जाड़ों में और ठंडे देशों में जहाँ बहुतायत से बर्फ गिरती है चिड़ियाँ और जानवर बर्फ की तरह सफेद हो जाते हैं। गरम देशों में जहाँ हरियाली और दरख्त बहुत होते हैं वे हरे या किसी दूसरे चमकदार रंग के हो जाते हैं। इसका यह मतलब है कि वे अपने को उसी तरह का बना लेते हैं जैसे उनके आसपास की चीजें हों। उनका रंग इसलिए बदल जाता है कि वे अपने को दुश्मनों से बचा सकें, क्योंकि अगर उनका रंग आस-पास की चीजों से मिल जाए तो वे आसानी से दिखाई न देंगे। सर्द मुल्कों में उनकी खाल पर बाल निकल आते हैं जिससे वे गर्म रह सकें। इसीलिए चीते का रंग पीला और धारीदार होता है, उस धूप की तरह, जो दरख्तों से हो कर जंगल में आती है। वह घने जंगल में मुश्किल से दिखाई देता है।
इस अजीब बात का जानना बहुत जरूरी है। जानवर अपने रंग-ढंग को आसपास की चीजों से मिला देते हैं। यह बात नहीं है कि जानवर अपने को बदलने की कोशिश करते हों; लेकिन जो अपने को बदल कर आसपास की चीजों से मिला देते हैं उनको जिंदा रहना ज्यादा आसान हो जाता है। उनकी तादाद बढ़ने लगती है, दूसरों की नहीं बढ़ती। इससे बहुत-सी बातें समझ में आ जाती हैं। इससे यह मालूम हो जाता है कि नीचे दरजे के जानवर धीरे-धीरे ऊँचे दरजों में पहुँचते हैं और मुमकिन है कि लाखों बरसों के बाद आदमी हो जाते हैं। हम ये तब्दीलियाँ, जो हमारे चारों तरफ होती रहती हैं, देख नहीं सकते, क्योंकि वे बहुत धीरे-धीरे होती हैं और हमारी जिंदगी कम होती है। लेकिन प्रकृति अपना काम करती रहती है और चीजों को बदलती और सुधारती रहती है। वह न तो कभी रुकती है और न आराम करती है। इसके आगे की कहानी जानिए ऑडियो के माध्यम से...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें