गुरुवार, 19 मई 2016
पिता के पत्र पुत्री के नाम - 7
तरह-तरह की कौमें क्योंकर बनीं... लेख के बारे में...अपने पिछले खत में मैंने नए पत्थर-युग के आदमियों का जिक्र किया था जो खासकर झीलों के बीच में मकानों में रहते थे। उन लोगों ने बहुत-सी बातों में बड़ी तरक्की कर ली थी। उन्होंने खेती करने का तरीका निकाला। वे खाना पकाना जानते थे और यह भी जानते थे कि जानवरों को पाल कर कैसे काम लिया जा सकता है। ये बातें कई हजार वर्ष पुरानी हैं और हमें उनका हाल बहुत कम मालूम है लेकिन शायद आज दुनिया में आदमियों की जितनी कौमें हैं उनमें से अकसर उन्हीं नए पत्थर-युग के आदमियों की सन्तान हैं। यह तो तुम जानती ही हो कि आज-कल दुनिया में गोरे, काले, पीले, भूरे सभी रंगों के आदमी हैं। लेकिन सच्ची बात तो यह है कि आदमियों की कौमों को इन्हीं चार हिस्सों में बाँट देना आसान नहीं है। कौमों में ऐसा मेल-जोल हो गया है कि उनमें से बहुतों के बारे में यह बतलाना कि वह किस कौम में से हैं बहुत मुश्किल है। वैज्ञानिक लोग आदमियों के सिरों को नापकर कभी-कभी उनकी कौम का पता लगा लेते हैं, और भी ऐसे कई तरीके हैं जिनसे इस बात का पता चल सकता है।
अब सवाल यह होता है कि ये तरह-तरह की कौमें कैसे पैदा हुईं? अगर सब बस एक ही कौम के हैं तो उनमें आज इतना फर्क क्यों है? जर्मन और हब्शी में कितना फर्क है! एक गोरा है और दूसरा बिल्कुल काला। जर्मन के बाल हल्के रंग के और लंबे होते हैं मगर हब्शी के बाल काले, छोटे और घुँघराले होते हैं। चीनी को देखो तो वह इन दोनों से अलग हैं। तो यह बतलाना बहुत मुश्किल है कि यह फर्क क्योंकर पैदा हो गया, हाँ इसके कुछ कारण हमें मालूम हैं। मैं तुम्हें पहले ही बतला चुका हूँ कि ज्यों-ज्यों जानवरों का रंग-ढंग आसपास की चीजों के मुताबिक होता गया उनमें धीरे-धीरे तब्दीलियाँ पैदा होती गईं। हो सकता है कि जर्मन और हब्शी अलग-अलग कौमों से पैदा हुए हों लेकिन किसी न किसी जमाने में उनके पुरखे एक ही रहे होंगे। उनमें जो फर्क पैदा हुआ उसकी वजह या तो यह हो सकती है कि उन्हें अपना रहन-सहन अपने पास पड़ोस की चीजों के मुताबिक बनाना पड़ा या यह कि बाज जानवरों की तरह कुछ जातियों ने औरों से ज्यादा आसानी के साथ अपना रहन-सहन बदल दिया हो।
मैं तुमको इसकी एक मिसाल देता हूँ। जो आदमी उत्तर के ठंडे और बर्फीले मुल्कों में रहता है उसमें सर्दी बरदाश्त करने की ताकत पैदा हो जाती है। इस जमाने में भी इस्कीमो जातिवाले उत्तर के बर्फीले मैदानों में रहते हैं और वहाँ की भयानक सर्दी बरदाश्त करते हैं। अगर वे हमारे जैसे गर्म मुल्क में आऍं तो शायद जीते ही न रह सकें। और चूँकि वे दुनिया के और हिस्सों से अलग हैं और उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उन्हें दुनिया की उतनी बातें नहीं मालूम हुईं जितनी और हिस्सों के रहनेवाले जानते हैं। जो लोग अफ्रीका या विषुवत-रेखा के पास रहते हैं, जहाँ बड़ी सख्त गर्मी पड़ती है, इस गर्मी के आदी हो जाते हैं। इसी तेज़ धूप के सबब से उनका रंग काला हो जाता है। यह तो तुमने देखा ही है कि अगर तुम समुद्र के किनारे या कहीं और देर तक धूप में बैठो तो तुम्हारा चेहरा साँवला हो जाता है। अगर चंद हफ्तों तक धूप खाने से आदमी कुछ काला पड़ जाता है तो वह आदमी कितना काला होगा जिसे हमेशा धूप ही में रहना पड़ता है। तो फिर जो लोग सैकड़ों वर्षों तक गर्म मुल्कों में रहें और वहाँ रहते उनकी कई पीढ़ियाँ गुजर जाऍं उनके काले हो जाने में क्या ताज्जुब है। तुमने हिंदुस्तानी किसानों को दोपहरी की धूप में खेतों में काम करते देखा है। वे गरीबी की वजह से न ज्यादा कपड़े पहन सकते हैं, न पहनते हैं। उनकी सारी देह धूप में खुली रहती है और इसी तरह उनकी पूरी उम्र गुजर जाती है। फिर वे क्यों न काले हो जाऍं। इसके आगे की जानकारी प्राप्त कीजिए ऑडियो के माध्यम से...
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दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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