बुधवार, 11 मई 2016
कहानी - खुदा की कसम - सआदत हसन मंटो
कहानी का अंश... उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैंपों के कैंप भरे पड़े थे जिनमें मिसाल के तौर पर तिल धरने के लिए वाकई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें लोग ठुसे जा रहे थे। गल्ला नाकाफी है , सेहत की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं , बीमारियां फैल रही हैं , इसका होश किसको था ! एक अफरा – तफरी का वातावरण था।
सन 48 का आरंभ था। संभवत मार्च का महीना था। इधर और उधर दोनों तरफ रजाकारों के जरिए से अपहृत औरतों और बच्चों की बरामदगी का प्रशंसनीय काम शुरू हो चुका था। सैकड़ों मर्द , औरतें , लडके और लड़कियां इस नेक काम में हिस्सा ले रहे थे। मैं जब उनको काम में लगे देखता तो मुझे बड़ी आश्चर्यजनक खुशी हासिल होती। यानी खुद इंसान इंसान की बुराइयों के आसार मिटाने की कोशिश में लगा हुआ था। जो अस्मतें लुट चुकी थीं , उनको और अधिक लूट – खसोट से बचाना चाहता था – किसलिए ?
इसलिए उसका दामन और अधिक धब्बों और दागों से भरपूर न हो ? इसलिए कि वह जल्दी – जल्दी अपनी खून से लिथड़ी उंगलियां चाट ले और अपने जैसे पुरुषों के साथ दस्तरखान पर बैठकर रोटी खाए ? इसलिए कि वह इंसानियत का सुई – धागा लेकर , जब एक – दूसरे आंखें बंद किए हैं , अस्मतों के चाक रफू कर दे। कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन उन रज़ाकारों की जद्दोजहद फिर काबिले कद्र मालूम होती थी। उनको सैकड़ों मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। हजारों बखेड़े उन्हें उठाने पड़ते थे , क्योंकि जिन्होंने औरतें और लड़कियां उठाई थीं , अस्थिर थे। आज इधर कल उधर। अभी इस मोहल्ले में , कल उस मोहल्ले में। और फिर आसपास के आदमी उनकी मदद नहीं करते थे। अजीब अजीब दास्तानें सुनने में आती थीं।
एक संपर्क अधिकारी ने मुझे बताया कि सहारनपुर
में दो लड़कियों ने पाकिस्तान में अपने मां – बाप के पास जाने से इनकार कर दिया। दूसरे ने बताया कि जब जालंधर में जबर्दस्ती हमने एक लड़की को निकाला तो काबिज के सारे खानदान ने उसे यूं अलविदा कही जैसे वह उनकी बहू है और किसी दूर – दराज सफर पर जा रही है। कई लड़कियों ने मां – बाप के खौफ से रास्ते में आत्महत्या कर ली। कुछ सदमे से पागल हो चुकी थीं , कुछ ऐसी भी थी जिन्हें शराब की लत पड़ चुकी थी। उनको प्यास लगती तो पानी की बजाय शराब मांगती और नंगी – नंगी गालियां बकतीं। मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के बारे में सोचता तो मेरे मन में सिर्फ फूले हुए पेट उभरते। इन पेटों का क्या होगा ? उनमें जो कुछ भरा है , उसका मालिक कौन बने , पाकिस्तान या हिंदुस्तान ? और वह नौ महीने की बारवरदारी , उसकी उज्रत पाकिस्तान अदा करेगा या हिंदुस्तान ? क्या यह सब जालिम फितरत या कुदरत के बहीखाते में दर्ज होगा ? मगर क्या इसमें कोई पन्ना खाली रह गया है ?
बरामद औरतें आ रही थीं , बरामद औरतें जा रही थीं। मैं सोचता था ये औरतें भगाई हुईं क्यों कहलाई जाती थीं ? इन्हें अपहृत कब किया गया है ? अपहरण तो बड़ा रोमैंटिक काम है जिसमें मर्द और औरतें दोनों शामिल होते हैं। वह एक ऐसी खाई है जिसको फांदने से पहले दोनों रूहों के सारे तार झनझना उठते हैं। लेकिन यह अगवा कैसा है कि एक निहत्थी को पक़ड़ कर कोठरी में कैद कर लिया ?
लेकिन वह जमाना ऐसा था कि तर्क – वितर्क और फलसफा बेकार चीजें थीं। उन दिनों जिस तरह लोग गर्मियों में भी दरवाजे और खिड़कियां बंद कर सोते थे , इसी तरह मैंने भी अपने दिल – दिमाग में सब खिड़कियां दरवाजे बंद कर लिये थे। हालांकि उन्हें खुला रखने की ज्यादा जरूरत उस वक्त थी , लेकिन मैं क्या करता। मुझे कुछ सूझता नहीं था। बरामद औरतें आ रही थीं। बरामद औरतें जा रही थीं। यह आवागमन जारी था , तमाम तिजारती विशेषताओं के साथ। और पत्रकार , कहानीकार और शायर अपनी कलम उठाए शिकार में व्यस्त थे। लेकिन कहानियों और नजमों का एक बहाव था जो उमड़ा चला आ रहा था। कलमों के कदम उखड़ – उखड़ जाते थे। इतने सैद थे कि सब बौखला गए थे। एक संपर्क अधिकारी मुझसे मिला। कहने लगा , तुम क्यों गुमसुम रहते हो ? मैंने कोई जवाब न दिया। उसने मुझे एक दास्तान सुनाई।
अपहृत औरतों की तलाश में हम मारे – मारे
फिरते हैं। एक शहर से दूसरे शहर, एक गांव से दूसरे गांव, फिर तीसरे गांव फिर चौथे। गली – गली, मोहल्ले – मोहल्ले, कूचे – कूचे। बड़ी मुश्किलों से लक्ष्य मोती हाथ आता है।
मैंने दिल में कहा , कैसे मोती … मोती , नकली या असली ?
तुम्हें मालूम नहीं हमें कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है , लेकिन मैं तुम्हें एक बात बताने वाला था। हम बॉर्डर के इस पार सैकड़ों फेरे कर चुके हैं। अजीब बात है कि मैंने हर फेरे में एक बुढ़िया को देखा। एक मुसलमान बुढ़िया को – अधेड़ उम्र की थी। पहली बार मैंने उसे जालंधर में देखा था – परेशान , खाली दिमाग , वीरान आंखें , गर्द व गुबार से अटे हुए बाल , फटे हुए कपड़े। उसे तन का होश था न मन का। लेकिन उसकी निगाहों से यह जाहिर था कि किसी को ढूंढ रही है। मुझे बहन ने बताया कि यह औरत सदमे के कारण पागल हो गई है। पटियाला की रहने वाली है। इसकी इकलौती लड़की थी जो इसे नहीं मिलती। हमने बहुत जतन किए हैं उसे ढूंढने के लिए मगर नाकाम रहे हैं। शायद दंगों में मारी गई है , मगर यह बुढ़िया नहीं मानती। दूसरी बार मैंने उस पगली को सहारनपुर के बस अड्डे पर देखा। उसकी हालत पहले से कहीं ज्यादा खराब और जर्जर थी। उसके होठों पर मोटी मोटी पपड़ियां जमी थीं। बाल साधुओं के से बने थे। मैंने उससे बातचीत की और चाहा कि वह अपनी व्यर्थ तलाश छोड़ दे। चुनांचे मैंने इस मतलब से बहुत पत्थरदिल बनकर कहा , माई तेरी लड़की कत्ल कर दी गई थी। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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