शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

राग से दूर हो सकते हैं रोग

भारती परिमल
स्वर लहरियों को हम सबके जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, इसे हम भले ही न समझते हों, पर सच यह है कि ये स्वर लहरियाँ जब भी हवा में गूँजती हैं, तब संगीत की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला या संगीत का कुछ भी न समझने वाला व्यक्ति झूम उठता है. जानते हैं इसकी वजह? ये स्वर लहरियाँ हमारे भीतर के रोग को दूर करने में बहुत सहायक है. कई चिकित्सकों ने भी इसे माना है दवा, दुआ के बाद ये राग ही हें, जो रोग को दूर करने में सक्षम हैं.
णहर मनुष्य को अपने जीेवन में कभी न कभी किसी न किसी रोग का सामना करना पड़ता ही है. बुखार, मधुमेह, एसीडीटी, डिप्रेशन, चर्म रोग, अस्थमा, नेत्र रोग आदि ऐसे रोग हैं, जिनसे अक्सर लोगों का पाला पड़ता रहता है. आपको आश्चर्य होगा कि इस तरह के रोग संगीत से जुड़े लोगों को कम ही होते हैं, क्योंकि संगीत में वह जादू है, जो कई रोगों को ठीक करने में सहायक होता है. नए शोध बताते हैं कि कई राग ऐसे हैं, जिन्हें सुनने से ही रोग दूर हो जाते हैं.
बचपन में अक्सर माँ की लोरी सुनकर सोने वाले बड़े होकर भी यह नहीं जान पाते कि लोरी सुनते हुए उन्हें आखिर नींद क्यों आ जाती थी. शायद इसमें भी कोई राग छिपा हो. पर सच तो यह है कि संगीत के रागों का असर केवल इंसान ही नहीं, बल्कि पशुओं और पेड़-पौधों पर भी होता है. अक्सर अखबारों में पढ़ा होगा कि गाय का दूध निकालते समय यदि संगीत का वातावरण हो, तो वह अपेक्षा से अधिक दूध देती है. यही हाल पेड़-पौधों का भी है, वे भी संगीत के असर से तेजी से बढ़ते हैं और कुछ अन्य विशेषताएँ लिए हुए होते हैं.
यह बात अलग है कि कुछ लोग तो शास्त्रीय संगीत में ऐसे डूबे होते हैं कि वे उससे अलग हो ही नहीं सकते. आज की युवा पीढ़ी तो कानफोड़ू संगीत में डूबी हुई है, पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें फिल्मी गीत अच्छे लगते हैं. अब अगर यह कहा जाए कि कुछ फिल्मी गीत के केसैट या सीडी घर पर ही रखें, तो कई रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है. ये भले ही फिल्मी गीत हैं, पर शास्त्रीय संगीत पर आधारित होने के कारण इनमें रोग को दूर करने का सामर्थ्य है.
पुरानी हिंदी फिल्मों के गीत इतने मधुर होते थे कि उसे सुनकर लोग आज भी झूम उठते हैं. 1960-80 के दो दशकों के गीत वास्तव में दिल को सुकून देने वाले हैं. संगीत का मन और शरीर पर क्या असर होता है, इस विषय पर शोध करने वाले विशेषज्ञ कहते हैं कि जो गीत आज के बच्चों को भी अच्छे लगते हैं, वे गीत शास्त्रीय राग पर आधारित कर्ण प्रिय सुगम संगीत है. शास्त्रीय संगीत के विशेषज्ञों के अनुसार शास्त्रीय राग में सुर की जमावट विशेषकर इस प्रकार करने में आई है कि यह मन के विविध केंद्रों को कम-अधिक अनुपात में बाँधे रखते हैं. परिणामस्वरूप मस्तिष्क के विकार को राग सुनकर ठीक किया जा सकता है. मन और मस्तिष्क के विकार को दूर करने में संगीत के राग मुख्य भूमिका निभाते हैं.
यूरोप-अमेरिका के विशेषज्ञों के ध्यान में ये बात आई, तब से वे सुर का मस्तिष्क पर होने वाले असर की जाँच करने में लगे हुए हैं. इस तरह से विकसित हो रही है म्युजिक थेरेपी, जो विविध राग के उपयोग से अनेक रोग मिटाने के प्रयोग कर रहे हैं. ऐसे दर्जनों प्रयोग सफल भी हो चुके हैं. अब आते हैं उन सुरों पर जो रोग को ठीक करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं- अब जैसे किसी को बुखार आ रहा हो, तो वह राग मालकौस या राग वसंत बहार पर आधारित गीत सुने, तो उसका बुखार कम हो सकता है. मालकौस राग पर आधारित फिल्म 'बैजूबावरा' का गीत 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' गीत में बुखार कम करने का सामर्थ्य है. बारिश में खूब भीगने वाले लोग अक्सर चर्म रोग के शिकार होते हैं, उससे शरीर में खुजली होती है. यदि ये लोग राग मेघ-मल्हार और देसराग पर आधारित गीत सुनें, तो उन्हें खुजली से राहत मिलती है. देसराग पर आधारित गीत है 'चली कौन से देश गुजरिया, तू सज-धज के' , राग मल्हार का गीत है- 'बोले रे पपिहरा'. इसी तरह मेघ राग पर आधारित गीत है- 'कहाँ से आए बदरा, घुलता जाए कजरा'.
किस रोग पर किस राग का कौन सा गीत?
रोग राग गीत
बुखार मालकौस मन तडपत हरि दर्शन को..
चर्म रोग देस चली कौन से देश गुजरिया..
मल्हार बोले रे पपिहरा..
मेघ कहाँ से आए बदरा
एसिडीटी कलावती कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा
मधुमेह जयजयवंती जब रात है ऐसी मतवाली, फिर सुबह का
जौनपुरी मेरी याद में तुम न ऑंसू बहाना..
मानसिक तनाव ललित एक शहंशाह ने बनवा के हँसी ताजमहल..
नंद तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा
नंद ये वादा करो चाँद के सामने
घबराहट अहीर-भैरव पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई
हृदय रोग भैरवी सुनो छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी
भैरवी तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा
शिवरंजनी जाने कहाँ गए वो दिन
अस्थमा यमन वो जब याद आए, बहुत याद आए
यमन एहसान तेरा होगा मुझ पर
नेत्ररोग बसंत बहार नैन से नैन काहे मिलाओ
तो देखा आपने, हम जो दिन भर रेडियो, टीवी पर गीत सुनते रहते हें, वे अनजाने में हमारे रोगों को किस तरह से ठीक करते हैं. ये गीत जानने के बाद आप शायद इन गीतों के लाभ से अनभिज्ञ नहीं होंगे. म्युजिम थेरेपी यदि सचमुच रोगों को ठीक करने लगे और लोग इसका भरपूर लाभ उठाएँ, तो वह दिन दूर नहीं, जब ऐसे केसैट और सीडियाँ बाजार में मिलेंगी, जिनसे विभिन्न रोग दूर होते हैं. तब उनमें फिल्मों के नाम नहीं लिखे होंगे, बल्कि रोगों के नाम लिखे होंगे. इसके लिए बस थोड़ा सा इंतजार करना पड़ेगा.
भारती परिमल

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

विटामिन का सस्ता खजाना गाजर

ठंड का मौसम, याने सेहत बनाने का मौसम। यही मौसम है, जब बाज़ार में सब्ज़ियाँ खूब आती हैं। सस्ती भी होती हैं। इन सब्ज़ियों में भरपूर विटामिन पाए जाते हैं। पर अगर हमें अपने शरीर को वर्ष भर निरोगी रखना है, तो हमें बाजारों में खूब बिकने वाली गाजर खूब खाना चाहिए। गाजर शरीर में कई तरह से लाभ पहुँचाने वाली सब्ज़ी है। इसके अलावा यह औषधीय गुणोें से भी भरपूर है।
कहा गया है कि शरीर में लौह तत्व बनते नहीं हैं। यह हमारी शुराक के माध्यम से शरीर में पहुँचते हैं। शरीर को कई आवश्यक पदार्थों की ज़रूरत है, इसमें से एक कैरोटीन। वैसे तो यह संतारा, टमाटर, पत्ता गोभी, मटर, पालक आदि में पाया जाता है। पर गाजर में इसका सबसे बड़ा स्रोत है। लौह तत्वों में लबालब होने के कारण गाजर शरीर में नया खून बनाने में सक्षम है, वहीं इसमें कैरोटीन अधिक होने से यकृत में विटामिन ए का निर्माण होता है।
गाजर एक ऐसा प्राकृतिक आहार है, जिसे कच्चा चबाकर तथा सब्ज़ी बनाकर खाया जाता है। शहरों में गाजर के जूस का प्रचलन ज्यादा है। दूसरी ओर इसका अचार, हलुवा भी लोग चाव से खाते हैं। ठंड की प्रार्टियों में गाजर का हलुवा तो महत्वपूर्ण डिश के रूप में होता है। यह दाम में सस्ती है, तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इसमें विटामिन नहीं हैं। यह पौष्टिक तत्वों से भरपूर एक ऐसा कंद है, जो शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा करता है। गाजर में बीटा कैरोटीन तो काफी अधिक मात्रा में पाया ही जाता है, साथ ही इसमें विटामिन ए, बी, सी, डी, एवं ई की भी भरपूर मात्रा विद्यमान रहती है।
आइए, अब देखें, हमारे वैज्ञानिकों को गाजर में क्या-क्या मिला ? उनकी विवेचना के अनुसार गाजर में प्रोटीन 1.2 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 9.5 प्रतिशत, वसा 0.3 प्रतिशत, जल 88.2 प्रतिशत, खनिज 0.6 प्रतिशत और शर्करा 10 प्रतिश पाई जाती है। यही नहीं इसके अलावा लौह तत्व 2.2 मिलीग्राम फास्फोरस 30 मिलीग्राम, गंधक 27 मिलीग्राम, तांबा 10.13 मिलीग्राम और पेक्टेन, एल्यूमिन आदि भी पाए जाते हैं। यह सभी तत्व शरीर के लिए आवश्यक भी हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका की सेंटर फॉर साइंस फॉर पब्लिक नेशनल हार्ट एवं लंग्स ने गाजर के रस का परीक्षण 22 हज़ार लोगों पर कियाह्न यह परीक्षण टांसिल, अल्सर, खून की खराबी, एपेंडीसाइटिस, कैंसर, एनीमिया, पथरी, एसीडिटी तथा ऑंतों के रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों पर किया गया। इससे चमत्कारिक परिणाम प्राप्त हुए। इससे प्रेरित होकर फ्रांस, जर्मनी तथा कई यूरोपीय देशों ने गाजर के रस का प्रयोग कई असाध्य बीमारियों के इलाज में किया है, जिसके अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं।
आप जानते हैं गाजर में इंसुलिन जैसे तत्व तथा टाकोकीलीन नामक हार्मोन पाया जाता है। मधुमेह याने डायबिडीज़ के रोगियों को जहाँ साधारण चीनी से हानि होती है, वहीं गाजर तथा चुकंदर से प्राप्त चीनी लाभदायक होती है। गाजर में एंटीसेप्टिक गुण भी हैं, जिससे शरीर में रोगाणुओं का प्रवेश रूकता है। घाव जल्दी भर जाते हैं। इसमें एक ऐसा क्षार है, जो भोजन को आसानी से पचाता है, साथ ही अम्लीयता दूर करता है।
इसके अलावा गाजर बुखार, मलेरिया आदि के कारण उत्पन्न कमज़ोरी को दूर करने या रक्त की कमी से पीड़ित लोगों के लिए घेंघा व रक्त विकारों में यह काफी उपयोगी है। गर्भवती महिलाओं के लिए गाजर का जूस अत्यंत लाभकारी है। जिन माताओं में दूध की कमी होती हैं, वे यदि नियमित रूप से गाजर का जूस पीयें और बच्चे को स्तनपान कराएँ, तो बच्चे का मानसिक विकास और बेहतर होता है। ऑंखों के लिए तो गाजर का सेवन बहुत आवश्यक है। इसमें जो विटामिन ई होता है, उससे बंध्यत्व दूर होता है। इसके अलावा मूत्र रोग, धातु की कमज़ोरी, नपुंसकता, कब्ज़, पित्त विकास आदि अनेक रोगों के नाश में सहायक है ये गाजर।
एक अमरीकी डॉक्टर एच.ई.क्रिश्नर ने अपनी पुस्तक ''लिव ऑन फूड जूसेस'' में गाजर से कैंसर दूर भगाने के अनेक दृष्टांत किए हैं। ख़ासकर रक्त कैंसर से पीड़ित रोगियों के लिए गाजर को काफी उपयोगी बताया है। गाजर वैसे तो वर्ष भर मिलती है, पर अक्टूबर से अप्रैल तक यह अधिक मात्रा में उपलब्ध रहती है। इसकी खेती मूली की तरह की जाती है। ठंड के दिनों में शरीर मे पानी की कमी को गाजर आसानी से पूरा करती है।
तो साथियों, जान लिया ना कि गाजर हमारे स्वास्थ्य के लिए कितनी उपयोगी है। यह महँगी भी नहीं मिलती, तो आप अब जब भी बाज़ार जाएँ तो कम से कम दो किलो गाजर अवश्य लाएँ। हलुआ बनाएँ, जूस पीएँ और सलाद के रूप में लें फिर देखिए, घर का एक-एक सदस्य आपको चहकता हुआ और मस्ती से भरा हुआ मिलेगा।
डॉ.महेश परिमल

अर्धनग्न नारी सड़क पर, नारी उत्पीड़न का बढ़ता दायरा

भारती परिमल
हाल ही में उच्च स्तर पर महिलाओं के उत्पीड़न की दो घटनाएँ सामने आईं, इससे ही स्पश्ट है कि साल में दो बार देवी की पूजा करने वाले पुरुश प्रधान देष में महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है।पहली घटना तो जाँबाज किरण बेदी की है, जिन्हें दिल्ली का पुलिस कमिष्नर नहीं बनाया गया। किरण बेदी हर दृश्टि से पुलिस कमिष्नर बनने के काबिल है। उपलब्धियों के नाम पर उनके पास ढेर सारी प्रतिभाएँ हैं, फिर भी उन्हें काबिल नहीं समझा गया। दूसरी घटना मध्यप्रदेष की डीआईजी अनुराधा षंकर सिंह की है, जिसने भोपाल में नक्सलियों के एक अड्डे पर छापा मारकर कई नक्सलियों को गिरफ्तार किया। इस मामले में पहले तो इस केस से जुड़े सभी लोगों को पुरस्कृत करने की निर्णय लिया गया था, किंतु बाद में यह निर्णय बदल दिया गया और अनुराधा षंकर सिंह को केवल प्रषंसा पत्र दिया गया। इस पर श्रीमती सिंह ने अपनी नाराजगी जताते हुए प्रषंसा पत्र गृह विभाग को वापस कर दिया। सोच लो, जब इतने बड़े स्तर पर महिलाओं के साथ इस प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है, तो सुदूर गाँवों में रहने वाली महिलाओं के साथ क्या होता होगा? गुजरात में जब एक विवाहिता ने ससुराल के अत्याचारों से तंग आकर पुलिस में रिपोर्ट करानी चाही, तब पुलिस ने उसकी रिपोर्ट लिखने से इंकार कर दिया। इसके बाद उसने वह रुख अपनाया, जिसे देखकर समाज का सर षर्म से झुक गया। अपनी माँगों को लेकर वह केवल अंतर्वस्त्रों में ही खुली सड़क पर निकल आई, और सबका ध्यान अपनी ओर आकृश्ट किया। बाद में उसने बताया कि इसके अलावा उसके पास ध्यानाकर्शक का कोई और विकल्प था ही नहीं।
हमारे देष में आज महिलाओं की स्थिति बहुत ही सोचनीय है।आष्चर्य इस बात का है कि हमारे किसी भी धर्म में ऐसा नहीं कहा गया है कि महिलाओं की उपेक्षा करनी चाहिए। सभी धर्म महिलाओं को पुरुश के समान अधिकार देने की बात करते हैं, पर सच्चाई इससे कोसों दूर है।आज भावी महिला को कोख में मार देने का चलन लगातार बढ़ रहा है। महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत लगातार कम होती जा रही है।महिला उत्पीड़न के रोज ही नए-नए मामले सामने आ रहे हैं। आष्चर्य की बात तो यह है कि इस उत्पीड़न में महिला की ही मुख्य भूमिका होती है। यानि कि नारी ही नारी की दुष्मन है। अब तो इस तरह की कोई भी घटना हमें विचलित नहीं करती। यह सीधे हमारे संवेदनाओं पर हमला है। एक तरफ भारतीय महिलाएँ अपनी गौरव-पताका विदेषों में फहरा रही हैं, तो दूसरी तरफ हर पल उत्पीड़न का षिकार हो रही है।समाज का यह दोहरा रूप केवल हमारे देष में ही देखा जा सकता है।
एक मुहावरा है '' न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी'', बेटी को कोख में ही मौत देने वाले षायद यही सोचकर इतना बड़ा कदम उठाते होंगे।ये नासमझ हैं, इन्हें कैसे समझाया जाए कि बाँसुरी की मीठी तान के लिए बाँस का उगना भी बहुत जरूरी है। आधुनिकता की राहों पर आगे बढ़ती महिला जब सफलता के षिखर को छूती है, तो हम उस पर गर्व करते हैं, किंतु इसके विपरीत जब पुरूश उत्पीड़न की षिकार हुई ये महिलाएँ अपने अधिकारों को लेकर या स्वयं पर हुए अत्याचार के विरोध में आवाज उठाती हैं, तो उस आवाज को रोकने की पूरी कोषिष की जाती है। उन्हें झूठा साबित कर दिया जाता है। पुरूश प्रधान समाज की कुंठित विचारधारा के आगे महिलाओं के स्वतंत्र विचार काफी बौने हैं। यही कारण है कि उनकी आधुनिक उपलब्धियाँ भी स्वयं उनके ही लिए घातक साबित हो रही हैं।
सफलता के नाम पर नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली महिलाओं की स्थिति हमारे भारत में अत्यंत दयनीय है। आज भारत में हर 54 मिनट पर किसी महिला के साथ दुश्कर्म, हर 26 मिनट पर छेड़छाड़ और हर 10 मिनट पर दहेज के लिए हत्या हो रही है। मोटे तौर पर कहें तो हर घंटे महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार हो रहा है। महिला उत्पीड़न के ये ऑंकड़े यही दर्षाते हैं कि हमारा समाज कितनी भी प्रगति कर ले, किंतु महिला अपना सब कुछ होम करने के बाद भी प्रगति की इस दौड़ में पीछे ही रहेगी।
अपने विकास की इस आधी-अधूरी यात्रा के लिए पुरूश वर्ग जितना जिम्मेदार है, उतनी ही महिला स्वयं भी जिम्मेदार है। समय के साथ आए बदलाव को महिला ने अपनी जरूरत के मुताबिक स्वीकार किया और जहाँ उसकी जरूरतें पूरी हुई, वह इस बदलाव से अलग हो गई। स्वयं की इस स्वार्थी विचारधारा ने ही उसे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया कि वह आधुनिकता की दौड़ में तो आगे बढ़ती गई किंतु फिर एकाएक पीछे धकेल दी गई।
आज समय बदल रहा है, सोच बदल रही है, समाज बदल रहा है, किंतु महिलाओं के प्रति पुरूश की सोच में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। आज जरूरत है इसी बदलाव की। महिलाओं ने अपना भाग्य पुरूशों के हाथों में सौंप दिया, नतीजा यह हुआ कि उसकी संख्या में ही निरन्तर कमी आती गई और प्रताड़ना का स्तर बढ़ता गया। चार लोगों के बीच सम्मान और प्रषंसा पाने वाली महिला अकेले में चीखती रही, चिल्लाती रही, पर उसकी आवाज सुनने वाला कोई न था। अपनी इस स्थिति के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। यदि उसे अपनी स्थिति सुधारनी है, तो अब समय आ गया है कि वह भीतर से मजबूत बने। सौंदर्य-रक्षा के लिए मंच पर आने वाली रूपसी को आत्मरक्षा के लिए आगे आना होगा। अपने पर होनेवाले अत्याचारों को मिटाने के लिए स्वयंसिध्दा के रूप में सामने आना होगा। तभी महिला आत्मरक्षा के साथ-साथ समाज व देष की भी रक्षा कर पाएगी। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का वक्त आ गया है।बहुत हो चुका, पुरुशों की गुलामी सहना।
पुरुशों की गुलामी से छूटने के लिए सबसे पहला कदम उसे अपने लिए ही उठाना होगा। षुरुआत खुद से ही करनी होगी। एक मासूम को जन्म लेने के पहले मार डालने में स्वयं नारी की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक माँ, एक डॉक्टर, एक नर्स, एक दाई, इन सभी के सहयोग से ही एक मासूम इस दुनिया को देखने के पहले ही दुनिया छोड़ चुकी होती है।जीवन का उजाला उससे हमेषा-हमेषा के लिए दूर हो जाता है।ये नारियाँ अपनी भूमिका को समझे। अधिक दूर जाने की आवष्यकता नहीं है, सबसे पहले तो उस माँ को ही यह सोचना है कि जो वह आज अपनी कोख में पलने वाली उस नन्हीं को मार डालने की सोच रही है, यदि ऐसा ही उसकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या आज यह स्थिति आती? धन के लिए अपना ईमान भी गिरवी रखने वाली उस डॉक्टर को भी सोचना होगा कि क्या वह सही कर रही है? एक मासूम कोख से डस्टबीन का रास्ता इन्हीं हाथों से पार कर लेती है और ये सब नारियाँ देखती रहती हैं। मासूम निगाहों ने कभी कुछ कहा? वह तो चली गई, पर उसे मौत के मुँह में धकेलने वाली यही नारियाँ यदि आज प्रताड़ित हो रही हैं, तो उसके लिए दोशी क्या केवल पुरुश ही है? सोचो, सोच की इस लहर को किनारे तक लाओ, तभी कुछ सुपरिणाम सामने आएँगे। नहीं तो चीखने चिल्लाने से कुछ नहीं होगा, प्रताड़ना का यह दौर चलता ही रहेगा। जिस दिन महिला उत्पीड़न के मामले में महिलाओं की गिरफ्तारी बंद हो जाएगी, उसी दिन से इस दिषा में कुछ नया होने की संभावनाएँ हैं। इस ओर एक कदम तो आगे बढ़ाओ, फिर देखो क्या होता है?
भारती परिमल

बुधवार, 28 नवंबर 2007

फैशन की दौड़ में मौत का साया

डॉ. महेश परिमल
आज का दौर फैशन का दौर है। चाहे युवक हो या युवती, किशोर-किशोरियाँ यहाँ तक कि बच्चे भी इस फैशन की चकाचौंध से खुद को अलग नहीं कर पाते हैं। विशेषकर हमारे युवाओं पर तो फैशन का बुखार ऐसा चढ़ा है कि वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। युवतियों को लेकर हर युवक की पहली पसंद यही होती है कि उसकी गर्लफ्रेंड छरहरी हो, दुबली हो, मोटी तो कदापि न हो। युवक ही नहीं, बल्कि आजकल तो सभी की पसंद है छरहरी काया। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि अपनी काया को छरहरी बनाए रखने के लिए युवतियों को कितनी मशक्कत करनी पड़ती हैं। इस मशक्कत में केट वॉक पर चलने वाली युवतियाँ मौत का शिकार हो रही हैं। इससे यह स्पष्ट है कि जो ऑंखों को अच्छा लगे, वही सुंदर नहीं है, बल्कि सुंदरता तो बाह्य वस्तु है, इसका शरीर सेकोई संबंध नहीं। लेकिन फैशन की दुनिया इसे सही नहीं मानती। हाल ही में दो माँडल्स की मौत ने इसे महत्वपूर्ण बना दिया है कि छरहरी काया ही सब कुछ होती है।
ब्यूटीपार्लरों पर हजारों रुपए खर्च करने वाले ये युवा अपने खान-पान पर इतनी कंजूसी करते हैं कि इनका भोजन का खर्च तो विटामिन की गोलियों, जूस, सूप और उबले भोजन में ही समा जाता है। उस पर भी कई फैशनपरस्त तो ऐसे भी होते हैं कि केवल कच्ची सब्जियों के सहारे ही जिंदा रहते हैं और अपने शरीर को हर तरह से फिट बनाए रखते हैं। फैशन की दुनिया में शरीर की सुडौलता एक आवश्यक शर्त है। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली फैशन प्रतिस्पर्धा में कई मॉडल्स हिस्सा लेते हैं और केवल 'केट वॉक' के लिए ही स्टेज पर आने के लिए उन्हें अनेक शर्तो से होकर गुजरना होता है। स्लीम एन्ड ट्रीम होना पहली शर्त होने के बाद क्रमश: आकर्षक व्यक्तित्व एवं बौध्दिक ज्ञान को महत्व दिया जाता है। किंतु यह शरीर की सुडौलता किस तरह जाननेवा साबित हो रही है, इस ओर कम ही ध्यान दिया जाता है। वे मॉडल्स जो इस प्रतिस्पर्धा में हैं, वे तो इस ओर ध्यान देते ही नहीं, किंतु उनकी देखादेखी उनके नक्शेकदम पर चलने वाले युवा भी इस ओर ध्यान नहीं देते। उन्हें तो केवल अपने गु्रप के बीच अपनी एक अलग छवि बनानी है और इसके लिए वे अपने सामर्थ्य के अनुसार सभी कुछ कर गुजरते हैं।
एक तरफ भारत में आगामी मार्च महीने में फैशन वीक को लेकर जोरशोर से तैयारियाँ हो रही है और दूसरी तरफ मॉडल्स की शारीरिक सुडौलता के संबंध में उपजा विवाद भी जोर पकड़ रहा है। कारण साफ है- पिछले दो-तीन महीनों में पतली, लंबी-छरहरी बाँस जैसी तीन मॉडल्स की मृत्यु। यह एक सच्चाई है कि मॉडल्स के शरीर पर एक ग्राम भी चर्बी बढ़ती है, तो इसे दर्शक या प्रायोजित कंपनियाँ बर्दाश्त नहीं कर पातीं। इसीलिए यह मॉडल्स अपने शरीर पर चर्बी की एक सतह भी जमने नहीं देते हैं। रेम्प पर चलते समय मॉडल के पतले हाथ-पैर और पतला शरीर ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र होते हैं। इसीलिए फैशन उद्योग में छरहरी मॉडल्स को ही स्वीकार किया जाता है।
मॉडल यदि थोड़ी सी भी मोटी होती है, कि उसे कंपनी द्वारा 'रिजेक्ट' कर दिया जाता है। इसीलिए मॉडल अपनी शारीरिक सुडौलता का विशेष ध्यान रखती है और शरीर पर मोटापा नहीं आने देती। वर्षो से चली आ रही इस मान्यता या परिपाटी को स्पेन में आयोजित एक शो में तोडा गया। वहाँ सितम्बर में आयोजित एक फैशन शो में यह घोषणा की गई कि मॉडल पतली भले ही हो, किंतु वह तंदरुस्त होनी चाहिए। डायटिंग करके अपना वजन संतुलित करने वाली मॉडल्स के लिए यह एक प्रशंसनीय निर्णय था। लोगों ने भी इस बात को स्वीकार किया कि मॉडल्स तंदुरुस्त दिखनी चाहिए। सभी ने इस निर्णय का स्वागत किया। किंतु कड़े प्रतिस्पर्धात्मक दौर में किसी निर्णय का स्वागत करना अलग बात है और उसे गंभीरता पूर्वक अमल में लाना दूसरी बात है।
ब्राजील की मॉडल ऐना केरोलीना उम्र मात्र 21 वर्ष ही थी। 5 फीट 8 इंच लम्बी इस मॉडल का वजन मात्र 40 किलोग्राम था। वह नियमित रूप से डायटिंग करके अपने वजन को बढ़ने नहीं देती थी। नतीजा यह कि उसके शरीर के आंतरिक अंगों को आवश्यक मात्रा में पोषक तत्व नहीं मिल रहे थे, जिसके कारण अंतिम दिनों में उसके अंग सिकुड़ गए थे। ऐना केरोलीना की एकाएक मृत्यु होना मॉडलिंग की दुनिया में दूसरा केस है। इसके पहले उरुग्वे में फैशन वीक के दौरान 22 वर्षीय मॉडल लूसी रिमोस हार्ट अटैक के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई थीं। वो केवल द्रव पदार्थों पर रहकर डायटिंग करती थी। अपने शरीर का वजन बढ़ने से रोकने के लिए उसने केवल द्रव पदार्थो पर ही रहना शुरू कर दिया था।
ऐना केरोलीना ने भी लूसी की राह पर चलना शुरू किया और अपने दुबलेपन को बनाए रखने के लिए उसने भी केवल टमाटर और सेब का जूस का सहारा लिया। उसके साथ रहने वाली एक 30 वर्षीय मॉडल का कहना है कि ऐना कुछ भी नहीं खाती थी। उसे हमेशा चर्बी बढ़ जाने का भय लगा रहता था। इसीलिए वह बहुत मुश्किल से केवल एक चम्मच ही खा पाती थी। ऐना केरोलीना का इलाज करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि उसके शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं बचा था कि जिसके कारण दवा का असर हो सके। उसके शरीर के अंदरूनी अवयव कम पानी और कम भोजन के कारण संकुचित हो गए थे। जिस वजह से वह 'ऐनोरेक्सी' नामक रोग से पीड़ित थी। ऐना ने तुर्क, मेक्सिको और जापान में भी अपने शो किए थे। पेरिस में वह एक फोटो सेशन में भाग लेने वाली थी, किंतु उसके पहले ही वह मृत्यु का ग्रास बन गई।
ऐना केरोलीना की माँ का कहना है कि मॉडलिंग के क्षेत्र में शरीर पतला रखने की जद्दोजहद करती युवतियों के लिए ऐना की मृत्यु एक सबक है। मॉडलिंग के क्षेत्र में पतली-छरहरी काया का मोह त्यागने की आवश्यकता है। क्योंकि ऐसी मॉडल्स मानसिक रूप से व्यथित रहती हैं। वे हमेशा भ्रम की स्थिति में जीती हैं और अपने शरीर की देखरेख करने के तनाव में ही हर क्षण जीते-जीते मरती हैं।
मॉडलिंग के क्षेत्र में अपनी पहचान कायम करने के लिए, अपने आपको स्थापित करने के लिए अपने शरीर की आहुति देने वाली ये दो मॉडल्स अभी भी सबक के रूप में लोगों के सामने नहीं आई हैं, क्योंकि फैशन की दुनिया में अभी भी पतली और रूई के फाहे जैसी नाजुक युवतियों को ही हरी झंडी दी जाती है। फैशन शो के कर्ताधर्ता बार-बार यही कहते हैं कि हम दुबली-पतली न सही लेकिन तंदुरुस्त मॉडल को स्वीकार भी लें, किंतु तंदुरुस्त का अर्थ 'मोटी' से हो तो भला उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है। यहाँ 'मोटी' से आशय अंशमात्र भरावदार शरीर से है, जिसे कंपनियाँ स्वीकार नहीं करती ।
फैशन उद्योग के लोगों का मानना है कि तंदुरुस्त दिखने वाली युवतियों में ग्लैमर कम दिखाई देता है। पतली मॉडल्स जैसा आकर्षण उनमें नहीं होता। फैशन ऐजेंसियों की इस मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। दूसरी तरफ इस शो में भाग लेने वाली युवतियाँ भी इस ओर अपनी नकारात्मक सोच ही रखती हैं और तंदुरुस्ती को चरबी बढ़ने से तौलते हुए डायटिंग को ही सुडौेलता का एक मात्र उपाय मानती हैं।
शारीरिक सुंदरता एवं आकर्षण को लेकर वैचारिक मापदंड एवं मानसिकता को बदलना स्वयं मॉडल्स एवं आयोजकों के हाथ में है। फैशन शो में लाइट की चकाचौंध और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच रेम्प पर चलने वाली मॉडल भले ही स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा लगे, किंतु परदे के पीछे अपने आपको स्पर्धा में टिकाए रखने के लिए उनका जीवन कितना कितना स्पर्धात्मक एवं लाचारगी भरा होता है, इस बात को वह स्वयं ही अच्छी तरह से समझ सकती है। स्पर्धा में टिके रहने के लिए वह भूखी रहती है और शरीर की सुडौलता बनाए रखती है। धीरे-धीरे यही सुडौलता उन्हें मौत की ओर ले जाती है और वे कुछ नहीं कर पातीं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

बच्चों को समय से पहले बड़ा बना रहे हैं धारावाहिक

डॉ. महेश परिमल
उस दिन टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के धारावाहिकों की सूची देख रहा था, तब यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आजकल बच्चोें के लिए टीवी पर ऐसा कुछ भी देखने लायक नहीं है, जिससे उनके मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान भी बढ़े. आजकल जो कुछ भी बच्चों के नाम पर टीवी पर परोसा जा रहा है, उससे लगता है कि एक साजिश के तहत बच्चों को 'ग्लोबल इंडियन ' बनाया जा रहा है. यह एक खतरनाक सच्चाई है, जिसे आज के पालक भले ही समझें, पर सच तो यह है कि आगे चलकर यह निश्चित रूप से समाज के लिए एक पीड़ादायी स्थिति का निर्माण होगा, जिसमें बच्चे केवल बच्चे बनकर नहीं रह पाएँगे, बल्कि उनका व्यवहार ऐसा होगा, जिससे लगेगा कि वे समय से पहले ही बड़े हो गए हैं, उनका बचपन तो पहले ही मारा जा चुका है.
अब ंजरा बच्चों के उन धारावाहिक के नाम ही पढ़ लें,जो उन्हें भा रहे हैं. उस दिन एक बच्चे से उन धारावाहिकों के नाम सुने, वह बता रहा था कि उसे तो ड्रेगन फ्राम ओटावा, हाफ टिकट एक्सप्रेस, मिकी माऊस प्ले हाऊस, शीनचिन, गली-गली सिमसिम, मैड (म्युजिक, आर्ट, डांस), कार्टून नेटवर्क की दुनिया आदि धारावाहिक अच्छे लगते हैं. कभी आपको फुरसत मिले, तो इनमें से कोई एक धारावाहिक देखने की जहमत उठा लीजिए. आपको पता चल जाएगा कि विदेशी पृष्टभूमि पर आधारित इन धारावाहिकों के पात्र बोलते तो हिंदी ही हैं, पर कभी-कभी कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो उनके क्या पालकों के भी पल्ले नहीं पड़ता. ऐसे में लगता है कि ये सब क्या हो रहा है? क्या यह सब पालकों की मर्जी से हो रहा है या फिर अनजाने में ही सब कुछ हो रहा है और पालकों को पता ही नहीं है.
अधिक समय नहीं हुआ है, अभी दस वर्ष पहले ही बच्चों को सामने रखकर कई धारावाहिकों का प्रसारण विभिन्न चैनलों पर हो रहा था. पोटली बाबा की, अलीफ लैला, सिंदबाद की कहानियाँ, वेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, विक्रम और वेताल, तेनाली राम, कैप्टन व्योम, मालगुड़ी डेज, कैप्टन हाऊस, दादा-दादी की कहानियाँ, जंगल बुक पर आधारित मोगली का धारावाहिक ये सब ऐसे कार्यक्रम थे, जिनसे बच्चों को न केवल भारतीय संस्कृति से परिचित कराते थे, बल्कि काफी हद तक उसका पोषण भी करते थे. पर अब वह बात नहीं रही. अब तो सारे कार्यक्रमों पर व्यावसायिकता हावी हो गई है. अब तो बच्चों को वह सब कुछ दिखाया जा रहा है, जिससे केवल कंपनियों को ही लाभ हो. बच्चे क्या चाहते हैं, इसे जानने की फुरसत किसी के पास नहीं है. जो बड़े चाहते हैं, बच्चे वही देख रहे हैं.
बच्चों के धारावाहिकों के संबंध में इंडियन चिल्ड्रंस सोसायटी की चेयरमेन नफीसा अली का कहना है कि आजकल बच्चों को धारावाहिकों के रूप में जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह कमोबेश अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों के डब संस्करण हैं. यह एक चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि इन कार्यक्रमों की सांस्कृतिक भूमिका हमारे देश के बच्चों की सामान्य समझ से मेल नहीं खाती. दूसरी ओर यू टीवी की वाइज प्रेसीडेंट मनीषा सिंह कहती हैं कि हम यदि कोई कार्यक्रम आयात करते हैं,तो उसमें से भारतीय संस्कृति और सामाजिक स्तर पर उचित न लगने वाले भाग को हम काट देते हैं. लेकिन उनका यह दावा कितना उचित है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी बच्चे इन धारावाहिकों से वह सब कुछ सीख रहे हैं, जिसे उन्हें कुछ वर्ष बाद जानना है. आज बच्चों को बड़ों की बातें धारावाहिकों के माध्यम से बताई जा रही हैं. बच्चे इसे देखकर समय से पहले ही बड़ों की बातें न केवल समझ रहे हैं, बल्कि उसे अमल में भी ला रहे हैं.
अभी तक बच्चों के लिए कोई ऐसा चैनल तैयार नहीं किया गया है, जिससे भारतीय संस्कृति का पोषण होता हो. इस दिशा में पोगो के माध्यम से दिन भर बच्चोें से जुड़ी जानकारियों का प्रसारण होता रहता है, पर उसमें काफी कुछ आयातित और भारतीय संस्कृति से अलहदा होता है. कहीं-कहीं हल्की सी झलक अवश्य मिलती है, पर उसे ऊँट के मँह में जीरा ही कहा जा सकता है. बच्चों पर आज के धारावाहिक किस तरह से हावी हो रहे हैं, यह तो बच्चों के व्यवहार से ही पता चलता है. आज उनके आदर्श बदल गए हैं. अब वे सामान्य बच्चों से हटकर सोचते हैं. पर उनकी सोच के पीछे अपराध की एक दुनिया होती है. आज कई बच्चे इन्हीं धारावाहिकों से प्रेरणा लेकर अपने विचार को गलत दिशा दे रहे हैं.
बचपन में पढ़ी गई गीजू भाई की बाल कहानियाँ और चीनी लेखिका का बच्चों की मानसिकता को लेकर किया गया सफल प्रयास तोतो चान आज पुस्तकालयों में धूल खा रहीं हैं. बच्चों की कल्पनाशीलता में इन कहानियों के पात्र नहीं उभरते. चाँद पर रहती परियों के बजाए अब उनके मस्तिष्क को अंतरिक्ष की दुनिया में ले जाने वाले आयातित धारावाहिकों के पात्र प्रभावित करने लगे हैं. ऐसे में आवश्यकता है ऐसे धारावाहिकों की, जो बच्चों को उनके वास्तविक संसार से परिचित कराए, उनके बचपन को सींचे, उनकी कल्पनाओं को ऊँची उड़ान दे और उनकी कोमल भावनाओं को एक ऐसा आकार दे, जिससे वे वास्तव में बच्चे बनकर बच्चों का जीवन जी सकें. क्या है हमारी सरकार में ऐसा साहस? यदि इस दिशा में सरकार ही एक कदम बढ़ाए, तो एक नहीं गुलजार, अमोल पालेकर, सईद मिर्जा, सई परांजपे जैसी कई हस्तियाँ सामने आ जाएँगी और वे बनाएँगी बच्चों की ऐसी दुनिया, जिसमें बच्चे अपना भारतीय बचपन जी सकें.
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 26 नवंबर 2007

छोटी-सी गुड़िया के बड़े-बड़े नखरे

डॉ. महेश परिमल
बच्चों का गुड़ियों से विशेष लगाव होता है। बाल मनोविज्ञान कहता है कि गुड्डे और गुड़िया बच्चों के संसार में अपना अलग महत्व रखते हैं, बच्चे उन्हें अपने पास रखकर खुशी का अनुभव करते हैं, यह बच्चों के एकाकीपन को हरते हैं। बच्चे उनसे बातें करते हुए कल्पनाओं का एक अनूठा संसार बनाते हैं। कभी आपने सुनी है अपनी बिटिया की बातें, जो वह अपनी गुड़िया से करती है? आपके पास शायद इसके लिए समय ही नहीं होगा। आपका काम गुड़िया ला देने तक ही था, अब वह कैसी है और बिटिया उससे क्या-क्या बातें करती है, ये तो वही जाने।
जो पालक अपने बच्चों से दूर रहते हैं, वे इतने दूर होते हैं कि वे कभी अपने बच्चों के अनूठे संसार के साथी नहीं बन सकते। आगे चलकर उनका यह अनूठा संसार इतना विस्तृत हो जाता है कि उनमें केवल वही आ पाते हैं, जो उनके बचपन के साथी होते हैं। इसमें आजकल के माता-पिता तो कदापि नहीं होते। होते हैं केवल वही, जो उन्हें अपना मानते हैं, उनसे प्यार करते हैं या फिर उनकी गुड़िया को अच्छे लगते हैं। आज की भागम-भाग वाली जिंदगी में यह कहाँ? यह तो एक सपना ही है, जिसे केवल बच्चे ही देखते हैं।
मेरी दस साल की बिटिया ने उस दिन अपनी माँ पूछ लिया- माँ, यह तो बताओ कि ये गुड़िया इतनी छोटी-सी होने के बाद भी इतनी बड़ी क्यों दिखती है? बिटिया के लिए गुड़िया के बड़े होने का आशय उसकी ऊँचाई नहीं, बल्कि गुड़िया के शरीर का उभार था। उसकी गुड़िया निश्चित रूप से छोटी थी, पर चेहरे मोहरे से वह काफी बड़ी लग रही थी। बिटिया ने इसे ताड़ लिया और प्रश्न पूछकर माँ को निरुत्तर कर दिया। शायद आपसे भी आपकी बिटिया ने यह प्रश्न किया हो, पर आपको तो यह याद भी नहीं होगा। आओ, बिटिया के प्रश्न का हल ढूँढा जाए।
आज यदि हम गुड़िया के बाजार में चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि बच्चों की इन चीजों पर व्यावसायिकता का रंग चढ़ गया है। आज बाजार में मिलने वाली गुड़ियाएँ खेलने के लिए कम और शो-केस में रखने के लिए अधिक होती है। मुश्किल तब होती है, जब देखा-देखी में खरीदी गई गुड़िया की तरह सजने के लिए बिटिया तंग करती है, तो क्या उसकी यह इच्छा भी पूरी की जाए। चलो यह इच्छा पूरी कर दी जाए, पर यह क्या आवश्यक है कि अब वह इस तरह की कोई फरमाइश करेगी ही नहीं?
बच्चों का जमाना आज भी नहीं बदला। पहले भी बिटिया सात समंदर पार से गुडिया लाने की फरमाइश पापा से करती थी और आज भी नन्हीं बिटिया दूसरे शहर गए पापा से गुड़िया लेकर आने की जिद करती है, किंतु अब बिटिया की इस मनुहार से पापा असमंजस में पड़ जाते हैं कि उसके लिए क्या लेकर आए। वह इसलिए कि इस समय बाजार में जिस आकार-प्रकार की गुड़ियाएँ मिल रही हैं, वह खेलने की कम देखने की ज्यादा है। ये गुड़ियाएँ माता-पिता के मन में वितृष्णा के भाव जगाती हैं। इन्हें लेने से पहले माता-पिता अनेक बार इस संबंध में विचार करते हैं और फिर अपनी लाडली की जिद के आगे हार कर, न चाहते हुए भी ये 'मॉडल पीस' घर में आ ही जाता है।
हाल ही में 'बार्बी' डॉल का नया रूप 'विंक्स क्लब' के नाम से बाजार में आया है। इस ग्रुप में सात सदस्य हैं- स्टेला, फ्लोरा, मुसा, टेक्ना, ब्रेन्डॉन, आइसी और लायला। इन सभी की हेयर-स्टाइल, ड्रेस डिजाइन और शरीर का आकार सभी कुछ इतना आकर्षक है कि एकदम से यह बच्चों और बड़ों पर हावी हो जाते हैं। बाल-मन इन्हेें अपने खिलौनों के संसार में शामिल करना चाहता है, किंतु इनकी आसमान छूती किंमतें माता-पिता को बहाने बनाने को विवश कर देती हैं। इस ग्रुप की किसी गुड़िया की किंमत 749 रुपए है, तो किसी की 899 रुपए। यदि छोटे आकार की बार्बी ली जाए, तो नई आई प्रिसेंस बार्बी की किंमत 599 रुपए है। बड़े आकार की प्रिसेंस बार्बी आपको 3999 रुपए में आराम से मिल जाएगी। हाँ, यह तो रही सिर्फ बार्बी की किंमत। इनके साथ मिलने वाली ऐसेसरीज की किंमत तो अलग से तय है। केवल बच्चों की खुशी के लिए और अपने स्टेटस को बनाए रखने के लिए पडाेसी की देखा-देखी खिलौने लेते माता-पिता भी अब विचार करने लगे हैं कि इन्हें बच्चों के संसार का हिस्सा बनाया जाए या नहीं?
मनोवैज्ञानिक डॉ. काकोली रॉय का तो स्पष्ट कहना है कि अब मिलने वाली गुड़ियाओं का रूप-रंग खेलने के लिए रहे ही नहीं। न ही इनका उददेश्य खेलना रहा है। चूंकि यह एक ह्यूमन फिगर होता है, इसलिए इसका उपयोग भले न हो, पर गलत उपयोग तो अवश्य होगा। शेप और कट के कारण ये गुडियाएँ बच्चों के कोमल मन पर बुरा प्रभाव डालती हैं। वे कहती हैं कि आज जो खिलौने आ रहे हैं, उनका बच्चों की वास्तविक जिंदगी से सीधा जुड़ाव दिखाई देता है। काल्पनिक खेलों का महत्व कम हो गया है। पहले के खिलौने बच्चों को एक सृजन संसार देते थे, वे काल्पनिक लोक में विचरण करते थे, उनके भीतर सकारात्मकता जागती थी, किंतु अब ये सभी चीजें गायब हो गई हैं। रह गई है, तो केवल वास्तविकता, जो कि कम उम्र में ही बच्चों पर अपना अधिकार जमा लेती है और बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं।
वास्तविकता की चकाचाैंध से भरे इस बाजार में निश्चित तौर पर फायदा तो विदेशी कंपनियों का ही होता है, क्योंकि वे हजारों का मुनाफा कमाती हैं, लेकिन भारतीय बच्चों के मानस पर अनजाने में ही वे किस तरह से अपना खेल खेल रही हैं, इस ओर माता-पिता का ध्यान अभी नहीं गया है।
आज की गुड़िया में ममतामयी और स्नेहिल भाव ढूँढे नहीं मिलता। इसके बदले उनमें दिखती है सेक्स अपील। छोटी सी गुड़िया के उरोजों के उभार, पतली कमर, घुटनों से ऊपर तक का स्कर्ट, भड़कीला मेकअप और तीखे नाक-नक्श ये सभी चीजें बच्चों को एक मायावी संसार में ले जाते हैं, जहाँ जाकर उनकी सोच को विराम नहीं मिलता। उपरोक्त चीजों की तलाश में ये गुड़ियाएँ अनजाने में ही बच्चों का रोल मॉडल बनती जा रही हैं। बच्चे अपने साथियों में भी इन्हीं की छवि तलाशते हैं। ऐसे में पढ़ाई से मन उचटना स्वाभाविक है।
हाट बाजार में मिलने वाली मिट्टी और प्लास्टिक की गुड़िया के दिन लद गए। अब बाजार में इन्हीं बार्बी डॉल का बोलबाला है। ग्रामीण बच्चों के लिए भी बार्बी शब्द अजाना नहीं रहा। केबल के माध्यम से पसरती विदेशी संस्कृति की झलक अब गाँवों में भी देखने को मिल रही है। इस चकाचौंध में बाल-मन की मनोभावनाएँ दब कर रह गई हैं। उन्हें समझने का कोई सार्थक प्रयास हमारे समाज में नहीं हो रहा है। बच्चे बिगड़ रहे हैं, यह सभी जानते हैं, पर बच्चे क्यों बिगड़ रहे हैं यह कोई नहीं जानता। क्या आप जानते हैं?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 24 नवंबर 2007

समय की चादर पर अपनों को बिठाएँ...

डा. महेश परिमल
मानव के पास पूरा जीवन होता है, पर उसके पास अपने लिए ही समय नहीं होता. आज की इस दौड़ती-भागती ंजिंदगी में इंसान के पास सब-कुछ है, पर समय ही नहीं है. जब उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है, तो फिर अपनों के लिए कहाँ से समय होगा? यह आज के जीवन का यथार्थ है. आजकल सबसे अधिक चर्चा कैरियर और सफलता की ही होती है. सफल होने के लिए प्रबंधन का विशेष पाठयक्रम होता है. इसमें यही बताया जाता है कि सफलता प्राप्त करने में सबसे बड़ा योगदान है समय का. समय का प्रबंधन किस तरह बखूबी किया जाए, यही आज की सबसे बड़ी जरुरत है. 'टाइम एंड टाइड, वेट फॉर नन' समय और समुद्र की पूर्ति किसी की राह नहीं देखती. यह कहावत हम सब बरसों से सुन रहे हैं. यह बात बिलकुल सच है, यदि आप समय को बरबाद करेंगे, तो समय आपको बरबाद कर देगा. ऐसा बार-बार हमें कहा जाता है.
सवाल यह उठता है कि समय की बरबादी का आशय क्या है? समय की बरबादी का अर्थ है, प्रमुख काम को छोड़कर ऐसे काम करना, जिसकी उस समय किसी भी तरह आवश्यकता नहीं है. इसे ंजरा दूसरे तरीके से समझा जाए. परीक्षा के समय यदि बालक अपनी छुट्टियाँ कैसे बिताई जाए, इसकी योजना बनाए, या फिर अगले वर्ष का क्या कोर्स होगा, इस पर विचार करे, या फिर पूरा सयम ऐसे निरर्थक कामों में गुजार दे, जिसके बारे में थोड़ी देर बाद ही हिसाब न दिया जा सके. तो इसे कहते हैं समय की बरबादी. परीक्षा के समय सबसे बड़ी प्राथमिकता पढ़ाई की होती है. पढ़ाई करना उस विशेष समय की जरुरत है, बाकी काम परिणाम पर निर्भर हैं.
आज इंसान के पास न तो अपने लिए समय है और न ही अपनों के लिए. यही आजकल के मुख्य विवादों का एक बहुत बड़ा कारण है. हाल ही में अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ने संबंधों पर एक सर्वेक्षण किया, इसमें मुख्य सर्वेक्षण पति-पत्नी के संबंधों, तलाक और दाम्पत्य जीवन पर था. इसमें यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि तलाक की मुख्य कारण था समय. एक युवती ने बताया था कि मुझे मेरे पति से दूसरी कोई शिकायत नहीं थी, बस यही बात थी कि सब कुछ होते हुए भी उनके पास मेरे लिए समय नहीं था. पति से मिलने के लिए यदि पत्नी को एपाइंमेंट लेना पड़े, यह स्थिति उनके लिए बहुत ही घातक है.
बच्चों के विकास के लिए हुए अध्ययन में भी यही बात सामने आई कि बच्चों के लिए अपनी जीवन को दाँव पर लगाने वाले पालकों के पास बच्चों के लिए ही समय नहीं था. अध्ययन के अनुसार जो पालक अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय निकालते थे, उनके बच्चे पढ़ने में काफी तेज थे. इसके विपरीत जिन पालकों के पास अपने बच्चों के लिए ंजरा भी समय नहीं था, उनके बच्चे पढ़ाई में फिसड्डी पाए गए. जो बच्चे पढ़ाई में तेज थे, वे अपने व्यवहार में भी कुशल थे. जिन बच्चों में अपने पालकों के लिए शिकायत थी, वे बच्चे हमेशा दुविधा में पाए गए. दुविधा की यह स्थिति काफी चिंताजनक होती है. इस स्थिति में बच्चे अपनी दिशा से भटक जाते हैं.
समय की बात जब भी होती है, तब प्राथमिकता की बात की जाती है. जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है? प्राथमिकता तय करने में इंसान अपनों को भूलने लगा है. प्राथमिकता में से यदि परिवार को घटा दिया जाए, तो शायद कैरियर में कामयाबी तो मिल जाएगी, पर सुकून नहीं मिलेगा. एक दार्शनिक से एक व्यक्ति ने पूछा- इंसान को सबसे अधिक संतोष कब होता है? तब दार्शनिक ने कहा- मैं सुखी हूँ, यह अनुभूति ही मानव के लिए सबसे बड़ा संतोष है. इंसान सबसे अधिक समय शिकायत करने में ही लगा देता है. इस संसार में सभी को कुछ न कुछ शिकायत है. हर कोई किसी ने किसी समस्या का समाधान ढूँढ़ने में लगा है. जिज्ञासाएँ तो अनेक हैं, पर उसे शांत करने करने का कोई उपाय नहीं है. अगर उपाय उसके सामने आए भी तो इंसान उससे संतुष्ट नहीं.
इंसान के लिए सबसे बड़ा सुकून यह है कि कोई अपना उससे आकर कहे कि तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो. मैं हूँ ना. प्यार से बोले गए ये वाक्य कितने भीतर जाकर सुकून देते हैं, इसका अंदाजा बहुत कम लोगों को होगा. मैं एकदम अकेला हूँ, यह सोच इंसान को बिलकुल निराश कर देती है. इसी नैराश्य में कोई अपना सांत्वना देता है, तो बहुत बड़ा बोझ कम होता है. शब्दों की अपनी दुनिया है, इससे इंसान को कई बार इतना आत्मबल मिलता है कि वह ऊँचे पहाड़ लाँघने में भी देर नहीं करता. बस उसे यह पता रहे कि उसके साथ कोई न कोई है, वह अकेला कदापि नहीं है. पर प्यार के इन शब्दों को पाने के लिए क्या हमारे पास सचमुच इतना समय है? कोई व्यक्ति जब अपने हालात को बयाँ करता है, तो लोग यही कहते हैं कि ये तो फुरसतिया है, इसके पास अपने दु:ख बताने के सिवाय कोई काम नहीं है. हमारे पास तो इतना समय ही नहीं है कि इसके दु:ख सुनें. इस व्यक्ति के पास जाकर कोई उसका दु:ख भर सुन ले, मेरा विश्वास है कि उसे इससे काफी खुशी मिलेगी.
कई बार किसी के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती. बस थोड़ा सा समय निकालने की जरुरत होती है. यह हमेशा याद रखे कि एक इंसान को दूसरे इंसान से केवल कुछ वक्त की जरुरत होती है. किसी अपनों के ऑंसू पोंछने या किसी की पीठ थपथपाने के लिए यदि आपके पास समय नहीं है, तो दो पल का समय निकालकर विचार करें कि आप कहीं कोई भूल तो नहीं कर रहे हैं? मात्र दु:ख में ही नहीं, बल्कि सुख में भी अपनों की आवश्यकता होती है. कई बार ऐसा होता है कि दु:ख के समय तो सभी दौड़कर आते हैं, लेकिन सुख के समय कोई नहीं आता. इसी समय अपनों का साथ न मिलने से इंसान अकेला हो जाता है. एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि इंसान को दु:ख के समय जितनी अपनों की जरुरत होती है,उतनी ही सुख के समय भी होती है. किसी की सफलता पर उसे बधाई देने जाना और किसी के मरणोपरांत उसके परिजनों को सांत्वना देने जाना, दोनों ही महत्वपूर्ण है. दु:ख के समय इंसान अकेलापन ही चाहता है, पर सुख के समय वह अपने पास अपनों की चाहत रखता है.
इस स्थिति का सामना भारतवासियों से कहीं अधिक परदेश में रहने वाले भारतीय करते हैं. अमेरिका से आने वाले एक भारतीय का कहना था कि वहाँ सब कुछ है, पर कोई अपना नहीं है. काफी समय तो काम में निकल जाता है, पर फुरसत के समय उदासी घेर लेतीे है. मेरा कोई नहीं है, यह वेदना मानव को सबसे अधिक सालने वाली होती है. कई लोग अपनी जीवन संध्या में यह विचार करते हैं कि पूरा जीवन निकल गया, पर हम अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाए. आज जब वास्तव में हमें अपनों की आवश्यकता है, तब हमारे पास अकेलेपन के सिवाय कुछ भी नहीं है. इसी समय उन्हें लगता है कि जब हमने ही किसी को समय नहीं दिया, तो हमें कौन समय देगा? कोई हमारे लिए क्या करेगा, यह सोचने के बजाए यह सोचना चाहिए कि हमें क्या करना चाहिए? एक जगह स्वेट मार्डेन ने कहा है कि लोग यह कहने से नहीं चूकते कि समय चला गया, पर वास्तविकता यह है कि समय तो वहीं रहता है, केवल इंसान ही चला जाता है. समय मूल्यवान है, यह बात शत-प्रतिशत सच है, पर कई बार ऐसा होता है कि हमारा समय हमारे स्वयं के लिए मूल्यवान नहीं होता, किंतु किसी और के लिए इसकी कीमत कहीं अधिक होती है. जो इसे नहीं समझते, उन्हें कई बार इसकी काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है.
आप स्वयं विचार करें कि क्या आपके पास अपनों के लिए समय है? यदि नहीं है, तो यह मान ही लें कि आप भी अपने नहीं हैं. याने आप स्वयं को ही धोखा दे रहे हैं. ऐसे में अकबर इलाहाबादी याद आते हैं- सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा. इतना याद रखें कि एक पतंगे का जीवन कितना होता है, बस थोड़ी सी उम्र में ही वह पूरा जीवन जी लेता है. क्या हम उस पतंगे से भी गए बीते हैं. यह मत देखो कि एक ंजिंदगी में कितने पल होते हैं, बल्कि देखना यह चाहिए कि एक पल में कितनी ंजिंदगी होती है. ंजिंदगी छोटी हो, पर पूरी हो. लम्बी और अधूरी ंजिंदगी भला किस काम की? समय की चादर पर अपनों को बिठाएँ, फिर देखो जिंदगी और जिंदगी की धार......
डा. महेश परिमल

कहाँ गए जटायु के वंषज: खतरे में हैं पर्यावरण के रक्षक

? डॉ. महेश परिमल
किसी को ठिकाने लगाना, यह एक मुहावरा हो सकता है, पर सच तो यह है कि यह बहुत ही मुष्किल काम है। दुनिया में हर रोज सैकड़ों मौतें होती हैं, कुछ प्रकृति के नियम के अनुसार, तो कुछ प्रकृति के विरुध्द जाकर मौतें होती हैं, जिस तरह से मौतों का होना एक सच है, उसी तरह लाषों का ठिकाने लगना भी एक षाष्वत सत्य है। कुछ लाषें तो ठिकाने लगकर भी ठिकाने नहीं लग पाती हैं, तो लाषों को तुरंत ही ठिकाना मिल जाता है। इतना कहना का आषय यही है कि लाषों को ठिकाना ऐसे ही नहीं मिल जाता। उन्हें ठिकाने लगाने का काम जटायु के वंषज करते हैं। आज भी जब कभी हम आसमान पर गिध्द के झुंड दखते हैं, तो समझ जाते हैं कि कहीं कोई मृतदेह है, जिसका भोज वे सब मिलकर कर रहे हैं। पर अब ऐसा दृष्य कभी-कभी ही दिखाई देता है, क्योंकि आज जटायु के उन वंषजों के हाल बुरे हैं। अब तो उनकी लाषें को ही ठिकाने लगाना ही मुष्किल हो गया है। हमारी ऑंखों के सामने ही जटायु के वंषज विलुप्त होते जा रहे हैं, हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। हममें से ही एक डॉक्टर विभु प्रकाष के अथक प्रयासों से इस प्रजाति के अंडों को सहेजकर रखा गया, अब उसमें से बच्चे आ गए हैं और वे खुषी-खुषी बढ़ रहे हैं, यह हम सबके लिए आषा की किरण बनकर आए हैं।
हाल ही में स्वास्थ्य विभाग के एक सर्वेक्षण में बताया गया कि पिछले साल उत्तर भारत में 20 हजार से अधिक कुत्ते अचानक ही पागल हो गए, इन कुत्तों ने करीब एक लाख लोगों को काटा, परिणामस्वरूप् हजारों मौतें हो गई। वैसे भी हमारे देष में रेबीज के इंजेक्षन की कमी है, इसलिए सारे मरीजों को नहीं बचाया जा सका। कई लोग अनाम मौतें मर गए। पर किसी के ध्यान में यह नहीं आया कि अचानक ही इतने सारे कुत्ते पागल कैसे हो गए ? बाद में पता लगा कि कुत्तों के अचानक पागल होने का कारण यह था कि सभीे मिलकर किसी लावारिस लाष को ठिकाने लगाने के लिए भोज में षामिल हुए थे। भला कुत्ते ये काम क्यों करेंगे? वजह साफ थी कि यह काम गिध्द करते थे, पर जब वे ही नहीं रहे, तो फिर यह काम भला कौन करेगा? सो कुत्तों ने भोज किया और पागल हो गए।
किसी गाँव में किसी किसान का बैल मर जाए, या किसी की भैंस मर जाए, तो उसे जंगल में ऐसे ही फेंक दिया जाता है। बहुत ही दूरदृष्टि रखने वाले गिध्द को इसकी जानकारी सबसे पहले मिलती है। मृतदेह को देखने के बाद ये गिध्द बहुत ऊपर जाकर एक विषेष प्रकार की ध्वनि निकालते हैं, इससे आसपास के ही नहीं, बल्कि बहुत दूर के गिध्दों को पता चल जाता है कि कहीं कोई मृतदेह है, जिसे ठिकाने लगाना है। बस थोड़ी ही देर में लाष ठिकाने लग जाती है। इससे यह कहा जा सकता है कि प्रकृति ने गिध्द को पर्यावरण का रक्षक बनाकर हमारे पास भेजा है, जो मृतदेहों को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं। पर्यावरण के ये रक्षक ही आज हमारे समाज से सफाचट होने लगे हैं।
गिध्दों की संख्या में लगातार कमी आ रही है, इसकी जानकारी सबसे पहले तो पारसियों के माध्यम से पर्यावरणविदों को मिली। पारसियों में यह परम्परा है कि मृतदेह को वे न तो दफनाते हैं और न ही जलाते हैं। वे मृतदेहों को जाली लगे विषेष प्रकार के कुएँ में रख देते हैं, जिसे 'टॉवर ऑफ साइलेंस' या 'दोखमाना' कहा जाता है। इससे होता यह है कि गिध्द उस मृतदेह को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं। मुम्बई, सूरत, उदवाड़ा, नवसारी, अहमदाबाद आदि षहरों में इस तरह के स्थान हैं। पर इन स्थानों में गिध्द कम आने लगे, इससे उन्हें आषंका हुई कि गिध्दों की संख्या में अचानक कमी किस तरह से आई। तब उन्होंने इसकी सूचना पर्यावरणविदों एवं अन्य वैज्ञानिकों को दी।
गिध्दों की संख्या लगातार तेजी से कम होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि पषुओं को एक प्रकार का इंजेक्षन दिया जाता है, जिसका नाम है 'डाइक्लोफिनेक', यह एक दर्द निवारक दवाई है, जो पषुओं में सूजन कम करने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है। विदेषों में इसके स्थान पर ' मेलॉक्सिकेम' का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह हमारे देष में भी यह दवा आ गई है, किंतु इसकी कीमत अपेक्षाकृत दोगुनी होने के कारण इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री ने 'डाइक्लोफिनेक' के इस्तेमाल पर दो वर्ष पूर्व ही कहा था कि इस दवा का इस्तेमाल छह माह के अंदर ही बंद कर दिया जाए। इसके बाद भी यह दवा हमारे देष में खुले आम बिक रही है। अब आएँ कि यह दवा गिध्दों को किस तरह से प्रभावित कर रही है। हमारे गाँवों में जब भी किसी जानवर की मौत इलाज के दौरान हो जाती है, तब उसे यूँ ही जंगल में फेंक दिया जाता है। इसकी गंध गिध्दों को मिल जाती है और अनजाने में ही यह 'डाइक्लोफिनेक' उनके षरीर में प्रवेष कर जाती है। दो दिन बाद ही उन गिध्दों की मौत हो जाती है, क्योंकि उक्त दवा से गिध्दों की किडनी काम करना बंद कर देती है। 'मेलॉक्सिकेम' के इस्तेमाल से गिध्दों को कोई नुकसान नहीं होता। लेकिन 'मेलॉक्सिकेम' महँगी होने के कारण लोग उसे नहीं खरीदते और अनजाने में ही गिध्दों की मौत का कारण बन जाते हैं। इस दवा का असर यह होता है कि गिध्द तड़प-तड़प जान दे देते हैं। आष्चर्य इस बात का है कि प्रधानमंत्री के आदेष के बाद भी यह दवा भारतीय बाजारों में खुले आम बिक रही है।
गिध्दों की संख्या कम होने के कारण आज पषुओं के मृतदेहों सड़कर दुर्गन्ध फेलाते हैं। फिर उसमें से टीबी, एंथ्रेक्स आदि रोग फैलाने वाले विषाणु पैदा होते हैं। ये विषाणु मानव षरीर में घुसकर अन्य कई रोग पैदा करते हैं। केवल कुछ गिध्द जिस मृतदेह को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं, वही आज संख्या में कम होने के कारण हमारी ही मौत का कारण बन रहे हैं, इसका गुमान हमें अभी तो नहीं, पर निष्चित रूप से कुछ समय बाद ही पता चलेगा।
जब हमारे देष में कड़ाके की ठंडी पड़ती है, तब कुछ यायावर पक्षियों का आगमन होता है, इनमें से गिध्द की कुछ प्रजातियाँ भी षामिल होती हैं। जब इन पक्षियों का यहाँ से जाना हुआ, तब इंग्लैण्ड की 'रॉयल सोसायटी फॉर द प्रोटेक्षन ऑफ बड्र्स' और 'बड्र्स लाइफ इंटरनेषनल' जैसी संस्थाओं का ध्यान इस ओर गया। 1999 में इन संस्थाओं ने भारत सरकार का ध्यान इस दिषा में दिलाया। लेकिन इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। भारत सरकार की इस उदासीनता को देखते हुए ब्रिटिष सरकार ने गिध्दों के संरक्षण के लिए डेढ़ लाख पाउण्ड की सहायता की। इस राषि से हरियाणा की पिंजोर ब्रिडिंग सेंटर में पक्षी विषेषज्ञों ने गिध्दों के संरक्षण और उसकी वंषवृद्धि के लिए काम षुरू किया। लगातार काम के सकारात्मक परिणाम सामने आए। वैज्ञानिकों को विष्वास था कि उनके भगीरथ प्रयासों का असर कुछ वर्षों बाद ही दिखाई देगा, किंतु प्रकृति को मनुष्यों पर दया आर् गई। पिछले साल ही एक मादा गिध्द ने एक अंडा दिया, जिसकी खूब देखभाल की गई। इससे कुछ गिध्दों का जन्म हुआ। यह एक सुखद संयोग है कि गिध्दों की संख्या को बढ़ाने में यह प्रयास एक मील का पत्थर साबित हुआ है।
हमारे आसपास न जाने कितने पक्षी ऐसे हैं, जो प्रकृति की गोद में ही रहकर अपनी वंषवृद्धि करते हैं। गिध्द भी इसी स्वभाव का पक्षी है। वह बंधनावस्था में अपना संववन नहीं करते। पर पक्षी वैज्ञानिकों का संरक्षण्ा पाकर गिध्दों ने वंष परम्परा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। ब्रिडिंग सेंटर के प्रभारी डॉ. विभु प्रकाष का इस संबंध मे कहना है कि मादा गिध्द ने अंडे दिए, इसका आषय यही हुआ कि हमने उनकी वंषवृद्धि के लिए अनुकूल वातारण सेंटर में ही उपलब्ध कराए। इससे यह कहा जा सकता है कि भविष्य में हम गिध्दों की संख्या बढ़ाने में अपना योगदान दे सकते हैं।
डा. विभु प्रकाष के प्रयास सफल हों, यह केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के पक्षीविदों की इच्छा है। यदि ऐसा संभव होता है, तो निकट भविष्य में सुखद परिणाम सामने आएँगे, ऐसी आषा की जा सकती है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

खेल जारी है मौत के सौदागरों का..
डा. महेश परिमल
ंजहर, जहर, ंजहर पानी में ंजहर, दूध में ंजहर, अनाज में ंजहर, हवा में ंजहर, यहाँ तक कि दवा में भी ंजहर. आज जीवन का ऐसा कोई भी खाद्य या पेय पदार्थ नहीं बचा, जिसमें ंजहर न हो. मौत के सौदागरों ने इस क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा, अब यह क्षेत्र भी मौत बेचने वाले सौदागरों के शिकंजे में फँस गया है. सारे कानून इनके सामने बौने साबित होते हैं. इसका प्रमाण है कि आज तक किसी भी दवा कंपनी के मालिक को संजा नहीं हुई. भले ही उसके खिलाफ कितनी ही मौतों का मामला हो.
इंसान यदि ंजहर का सेवन कर भी लेता है, तो बच जाता है, इस खुशी में जब वह मिठाई बाँटता है, तब मिठाई विषाक्त हो जाती है. ये हाल हैं, आज मिठाइयों और दवाओं के. मिठाइयों के बारे में यही कहा जा सकता है कि एक निश्चित समय बाद वह विषाक्त हो जाती है, पर दवाओं की कौन कहे, जिसमें जीवन देने के बजाए जीवन लेने की शक्ति छिपी हो. आज हमारे देश में ऐसी सैकड़ों दवाएँ हैं जो, विदेशों में प्रतिबंधित हैं, पर यहाँ खुले आम मिल रही हैं. अगर आपको यह पता चल जाए कि जो भोजन आप ले रहे हैं, उसमें किस मसाले में किसकी मिलावट की गई है, तो आप को आश्चर्य होगा, संभव है आप उस चीज से तौबा कर लें, पर कब तक? वह ंजहर तो आपकी रगो में इस कदर समा गया है कि आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. खुले आम मिलावट की चींजें बिक रहीं हैं, पर आम नागरिक कुछ कर नहीं सकता. कुछ ने अपनी जागरुकता का परिचय दिया भी, लेकिन हुआ वही, जो होना था. मिलावटी माल बेचने वाले पर तो कोई कार्रवाई नहीं हुई, पर जिस जागरुक उपभोक्ता ने शिकायत की, उसे बेवजह काफी परेशान होना पड़ा. एक सामूहिक जागरुकता की आवश्यकता है, जिससे पूरे समाज में हलचल मच जाए, पर यह सामूहिक जागरुकता आएगी कहाँ से?
आज हालत यह है कि थोड़ा सा सरदर्द हुआ कि नहीं, आम आदमी पहुँच जाता है, मेडिकल स्टोर और कोई बढ़िया सा पेन किलर देने की माँग करता है. याद करें, कुछ वर्ष पहले नावेलजीन नाम की एक दवा आती थी, जो अब विदेशों में प्रतिबंधित है. जानते हैं क्यों? क्योंकि उसके लगातार सेवन से इंसान के बोनमेरो को नुकसान होता था. इससे बच्चों में जानलेवा बीमारी ल्यूकेमिया (रक्त कैंसर) की शिकायत मिल रही थी. यही नावेलजीन अब भी बन रही है, पर दूसरी दवा कंपनियाँ इसे दूसरे नाम से बना रही हैं. दूसरी दवा है 'सींजाप्राइड' नाम की है, जो सींजा और सीसप्राइड ब्रांड नाम की थी. यह दवा गैस और कव्ज दूर करने के लिए थी, किंतु इससे हृदय की धड़कन अनियमित हो जाती थी. 'ड्रोप्रिडोल' नामक दवा भी हृदय की धड़कन को अनियमित करती थी, इस दवा का सेवन लोग अपना डिप्रेशन दूर करने के लिए करते थे. इसका ब्रांड नाम 'ड्रोपेरोल' था, यह भी अब विदेशों में प्रतिबंधित है. पतले दस्त के लिए उपयोग में लाई जाने वाली दवा 'फ्यूरा ंजोलिडोन' कैंसर की घातक बीमारी के कारण अब विदेशों में प्रतिबंधित कर दी गई है. 'नीमे मेसुलाइट' नामक दवा 'नाइंज और निमुलीड' ब्रांड के नाम से बनती थी. उसे भी बुखार उतारने और पेन किलर के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, किंतु इसका दुष्प्रभाव यह होता था कि इंसान का लीवर काम करना बंद कर देता था. इसे भी अब विदेशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है. बैक्टिरिया को मारने वाली एक दवा क्रीम 'नाइट्रोफुरांजोन' से बनती थी, इससे भी कैंसर का खतरा होने के कारण विदेशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है. टी.वी. पर सर्दी और कफ दूर करने वाले 'विक्स एक्शन 500' और 'डी-कोल्ड' का विज्ञापन दिखाया जाता है, जानते हैं इसे विदेशों में क्यों प्रतिबंधित कर दिया गया? क्योंकि इसमें 'फेनिलप्रोपेनोलेमाइन' नामक दवा का इस्तेमाल होता था. जिससे हृदयाघात की शिकायतें मिल रहीं थीं. आपको आश्चर्य होगा कि उपरोक्त सारी दवाएँ विदेशों में प्रतिबंधित हैं, किंतु हमारे देश में अब भी बनती है और आसानी से मिल जाती हैं.
आज ऐसा हो रहा है कि डाक्टरों द्वारा बताई गई दवाओं को लम्बे समय तक लेने के बाद भी जब कोई फायदा नहीं होता, तब मरीज उनसे पूछता है कि रोग ठीक क्यों नहीं हो रहा है? तब डाक्टर उसे गोलमोल जवाब दे देता है. वास्तव में मरीज उन दवाओं के 'साइड इफैक्ट' से ग्रस्त हो जाता है. अपनी इस भूल को डाक्टर किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करता, बल्कि कई अन्य दवाएँ लिखकर दे देता है और यह आश्वासन देता है कि इससे निश्चित रूप से लाभ होगा. अंत में होता यह है कि मरीज मृत्यु को प्राप्त होता है और डाक्टर फिर दूसरे मरीज को वही दवाएँ देना शुरू कर देता है.
ये तो हुई दवाओं की बात. आपको याद है पानी में विषाणु की बात हम सब सुनते रहे हैं, फलस्वरूप हमारे देश में 'मिनरल वॉटर' का प्रचलन बढ़ गया. कुछ समय पहले ही इसी 'मिनरल वॉटर' में शरीर को हानि पहुँचाने वाले तत्व पाए गए, काफी हो-हल्ला हुआ, पर कुछ दिनों बाद सब शांत हो गया. 'मिनरल वॉटर' का इस्तेमाल आज भी शुध्द पेयजल के रूप में खुले आम हो रहा है.
हमारे देश में आज कुछ भी शुध्द नहीं मिल रहा है. पॉलिथीन खाने वाली गाय का दूध कभी शुध्द हो सकता है किसी ने सोचा है भला? यही हाल घी, तेल, सव्जी-भाजी, अनाज, दालें आदि का है. आप जानते हैं कि चना दाल, उड़द दाल, तुवर या अरहर दाल में हानिकारक तत्व मिलाए जाते हैं. चने की दाल में मक्के का आटा, दाल और चावल को चमकीला बनाने के लिए रंगों का इस्तेमाल किया जाता है, जो शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है. दूध और उससे बनी मिठाई में पोस्टर कलर, सोडा, शैम्पू, स्टार्च मिलाए जाते हैं. इसके अलावा मावे में कपड़ा रँगने का रंग और सिंथेटिक दूध मिलाया जाता है. सव्जी-भाजी को पकाने के लिए रासायनिक इंजेक्शन का प्रयोग होता है. उसे रासायनिक पावडर में रखा जाता है. गोभी को सफेद और चमकदार रखने के लिए सिल्वर नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है. बैंगन को चमकीला बनाने के लिए उसे मेलाथियान से भीगे कपड़े से पोंछा जाता है. इसी तरह दूसरी फलों को पकाने के लिए ताम्बे और सीसे के पावडर का प्रयोग किया जाता है. इसे जानने के लिए कभी आप 'कोल्ड स्टोरेज' का दौरा कर वहाँ की गतिविधियों को समझने का प्रयास करें, तो सब कुछ आसानी से समझ में आ जाएगा.
मिर्च के पावडर में ईंट का बारीक चूरा, सौंफ और साबूत धनिए में हरा रंग, हल्दी में लेड क्रोमेट और पीली मिट्टी, धनिया पावडर में गंधक मिलाया जाता है. आज तक किसी को मिलावट के आरोप में सजा नहीं हुई, इसका आशय यही है कि हमारे यहाँ इस संबंध में बनाए गए कानून काफी लचीले हैं. इस दिशा में कभी सख्ती नहीं हुई, सरकार की इसी कमजोरी का लाभ मिलावटखोर बरसों से उठा रहे हैं. सामान्य नागरिक इसी दुष्चक्र में फँसते जा रहे हैं, न चाहते हुए भी उन्हें मिलावट का ंजहर अपने भीतर लेना पउ रहा है. इससे बीमारी तो बढ़ ही रही है, पर मौत भी कम नहीं हो रही है. पर मौत के सौदागर कब ठहरने वाले हैं, वे नित नए प्रयोग कर रहे हैं और मौत बाँट रहे हैं. सरकार भी इनके सामने बेबस है.
होने को हमारे देश में खाद्य नियंत्रक जैसा एक विभाग भी है, पर उसकी कार्यशैली किसी से छिपी नहीं है. इस विभाग की सक्रियता कभी देखने को नहीं मिली, यदि कभी इस विभाग ने सक्रिय होना भी चाहा, तो उस पर लगाम कस दी गई है. इतएव यह भी सरकार की तरह विवश और पंगु बनकर रह गया है. समय आ गया है कि अब यदि सामूहिक जागरुकता का परिचय नहीं दिया गया, तो मौत के ये सौदागर किसी को भी नहीं छोड़ेंगे, ये तो वे सौदागर हैं, जो इंसान के लाश बनने के बाद उसके अंगों की बोल भी बोली लगा दें. अतएव एक प्रयास हो जाए, तो संभव है मिलावटखोर सरेआम बेइज्जत हों और दवाओं के नाम से ंजहर बेचने वालों के पीछे पूरी भीड़ दौड लगाए, तभी हम समझेंगे कि हाँ एकता में ताकत है. पर यह ताकत कब आएगी, इसका जवाब किसी विद्वान या ज्योतिषी या भविष्यवक्ता के पास भी नहीं होगा.
एक तथ्य
क्या आप जानते हैं कि पूरे विश्व की सरकार को अपनी ऊँगली में नचाने वालों में सबसे ऊपर कौन हैं? वे हैं शस्त्र उत्पादक, उसके बाद नम्बर आता है फार्मा कंपनियों का. जो विभिन्न दवाएँ बनाती हैं. सरकार पर इनका वर्चस्व इतना अधिक हे कि ये चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं. सरकार बदलना इनके बाएँ हाथ का खेल है. ये दवा कंपनियाँ पत्रकारों और लेखकों को अपने प्रभाव में लेकर दवाओं के विक्रय के लिए लालायित करने वाले आलेख तैयार करवाती हैं. एड्स, वियाग्रा आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. अब तक एड़स के प्रचार में दुनिया के देशों ने खरबों रुपए बरबाद कर दिए हें, पर इसकी तुलना में यह रोग किसी को हुआ है, इसके बहुत ही कम प्रमाण मिले हैं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यदि वास्तव में एड्स इतनी ही खतरनाक बीमारी है, तो प्रचार के बजाए उस रोग के अनुसंधान और शोध पर रुपए खर्च किए जाते, तो हालात कुछ दूसरे ही होते. यह उन दवा कंपनियों का एक षडयंत्र ही है, जिसके झाँसे में कई सरकारें आ गई.
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

शब्द-यात्रा 3

डॉ. महेश परिमल

सीना और छाती
एक दिन समाचारपत्रों में पढ़ा कि 'अमुक मुद्दे पर केंद्रीय सरकार के विभिन्न दलों में मतैक्य होने के कारण मामले को सुलझाया न जा सका।' समझ में नहीं आता कि जब सभी दल किसी विषय पर एकमत हो गए हों, तो मामला क्यों नहीं सुलझा?
दरअसल 'मतैक्य' का अर्थ गलत लगाया गया है। मतैक्य का अर्थ होता है- मतों की समानता (दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक ही राय का होना) अधिकांश लोग मतैक्य का अर्थ मतों से भिन्नता मानते हैं। यह हमारी समझ का फेर है, इसलिए उपरोक्त त्रुटि हो गई।
इसी तरह एक शब्द है 'सामर्थ्य' जिसका अर्थ होता है- शक्ति, बल, क्षमता। अधिकांश लोग इसका प्रयोग स्त्रीलिंग के रूप में करते हुए 'मेरी सामर्थ्य' कहते और लिखते भी हैं, जो गलत है। वास्तव में यह शब्द पुल्लिंग है और इसका प्रयोग 'मेरा सामर्थ्य' या 'मेरे समार्थ्यनुसार' होना चाहिए।
अब आते हैं सीना और छाती शब्द की ओर। सभी इसका अर्थ जानते हैं, पर विशेषकर इन शब्दों के प्रयोग में चूक जाते हैं। चूँकि मुहावरों में उक्त शब्दों में भेद नहीं किया गया है। इसलिए सामान्य जीवन में भी लोग इसका खुलकर प्रयोग करते हैं, उक्त शब्दों को अँगरेजी में अलग-अलग माना है। 'चेस्ट' याने सीना और 'ब्रेस्ट' याने छाती।
पुरुषों के जिस भाग को 'सीना' कहते हैं, स्त्रियों के उसी भाग को 'छाती' कहते हैं। माँ अपने बच्चे को छाती से लगाकर दूध पिलाती है, सीने से लगाकर नहीं। रोता हुआ बच्चा अपने पिता के सीने से लग जाएगा, छाती से नहीं।
मुश्किल तब होती है, जब अखबारों एवं टी.वी. के समाचारों में दोनों शब्दों को एक मानकर प्रयोग किया जाता है। पुरुष भी किसी को ललकारते हुए कहते हैं- हम जो भी करेंगे, छाती ठोंककर करेंगे। दरअसल उस वक्त उनके दिमाग में मुहावरा 'छाती ठोककर' होता है। पुरुष अपने 'सीने' को 'छाती' कहें, तो स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। यह तो अपनी-अपनी समझ है, पर कोई इसे समझकर भी न समझे, उसे क्या कहा जाए?


नंगा, नागा और नाग
नंगा, नागा और नाग ये तीनों शब्द अक्सर पढ़ने-सुनने में आते रहते हैं। दो वाक्य देखिए- 'भारत की पूर्वी सीमा पर नागाओं ने काफी ऊधम मचा रखा है'। दूसरा 'पहाड़ी नागाओं ने बड़ा ज़हर फैला दिया है'। इन दोनों वाक्यों में यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि ऊधम मचाने वाले 'नागाओं' और ज़हर फैलाने वाले 'नागाओं' में क्या अंतर है? आइए इनका विष्लेषण करें :- 'नंगा' साधारण शब्द है, जो 'नग्न' से बना है। यही नंगा ही आगे चलकर 'नागा' हुआ।
भारत की पूर्वी सीमा पर रहने वाले आदिवासी पहले नंगे ही रहते थे, फिर इनमें 'नागा' जाति भी होने लगी। 'नंगा' का रूप परिवर्तन 'नागा' हुआ। सभ्यता के साथ-साथ पूर्वी सीमा पर रहने वाले आदिवासी 'नंगो' में जागरूकता आई और वे स्वयं को 'नागा' कहने लगे। साधु-संन्यासियों में एक वर्ग ऐसा भी है, जो कुंभ के मेले में एकदम नंगे होकर स्नान करता हैं, परंतु सदा वस्त्र पहनता है। इस विशेष प्रकार की 'नग्नता' के कारण्ा इन्हें भी साधारण शब्द 'नंगा' से नहीं 'नागा'से पहचानते हैं। प्रसिध्द 'नाग वंश' के नाम से इनका कोई सरोकार नहीं। सर्प वाचक 'नाग' से इस जाति का कोई संबंध नहीं है।
उपरोक्त वाक्य पहाड़ी नागों ने बड़ा ज़हर फैला रखा है, में जो 'नागों' है वह सर्पवाचक 'नाग' से सम्बद्ध है। अब जब पृथक 'नागालैण्ड' की माँग उठ रही है, तो वह 'नागा' जाति के लोगों की माँग है, सर्प वाचक 'नागों' की नहीं। यह ध्यान रखा जाए कि उपरोक्त शब्दों के एकवचन और बहुवचन में ही उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। नाग और नागा, नागों और नागाओं। लेखन में यदि शुद्धता का ध्यान रखा जाए, तो इस गलती से बचा जा सकता है। बस संदर्भ का ध्यान रखा जाए, तो वाक्य अपने-आप ही स्पष्ट हो जाएगा।




आलाकमान
आजकल राजनीति से जुड़ा एक शब्द बार-बार सामने आ रहा है, वह है- 'आलाकमान'। अँगरेजी और अरबी शब्दों से बना यह एक शब्द देखा जाए तो स्त्रीलिंग है, पर आजकल यह पुल्लिंग के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। आइए पहले इसका विश्लेषण करें- 'आला' याने सबसे अच्छा, सर्वश्रेष्ठ, उत्तम, बढ़िया, ताक, ताखा, पजावा आदि। 'कमान' यह शब्द अँगरेजी के 'कमाण्ड' से बना है, जिसका आशय है- आदेश, हुक्म, फौजी डयूटी, आदेश देने वाला उच्चाधिकारी। लेकिन फारसी में 'कमान' का अर्थ है- धनुष, धनु, धन्व, धन्वा, तीर, चलाने का यंत्र।
हिंदी में 'आलाकमान' अँगरेजी में 'हाइकमान' के स्थान पर प्रयुक्त किया जा रहा है। जैसे- 'आजाद हिंद फौज' की कमान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सँभाली थी। 'कमान' स्त्रीलिंग है। पहले 'आलाकमान' का प्रयोग स्त्रीलिंग में होता था, क्योंकि 'आलाकमान' भले ही 'आला' हो पर है तो 'कमान' ही। अत: वह पुल्लिंग कैसे हो सकती है?
देखा जाए तो इस 'आलाकमान' के पुल्लिंग के पीछे पुरुषों का अहम् है, क्योंकि उच्चता, श्रेष्ठता को पाने वाली 'आलाकमान' स्त्री कैसे हो सकती है? हमारे आसपास ही ऐसे कई शब्द हैं, जिसमें पुरुषों का अहम् झलकता है। वे किसी भी रूप में नारी से अपने को कम नहीं समझना चाहते। यही कारण है कि आज 'अध्यक्ष' शब्द अधिक चलता है, जबकि इसी का स्त्रीलिंग शब्द 'अध्यक्षा' बिलकुल भी नहीं चलता। अब आप ही बताएँ कि 'राष्ट्रपति' शब्द में पुरुषों का ही आधिपत्य है, इसका स्त्रीलिंग क्यों प्रचलित नहीं हो पाया। यही टकराता है पुरुषों का दंभ।

कार्रवाई और कार्यवाही
हमारे लेखन में 'कार्रवाई और कार्यवाही' अक्सर हमें भ्रम में डालते हैं। क्या दोनों शब्दों का आशय एक है? क्या एक ही शब्द की ये दोनों वर्तनियाँ है? दरअसल हिंदी आज भी अँगरेजी की छाया से मुक्त नहीं हो पाई है, या ये कहें कि हम ही अनजाने में अँगरेजी के भूत को पकड़े हुए हैं। तभी तो मौका पड़ने पर वह हमसे कुछ ऐसा कुछ करवा लेता है कि उसका वर्चस्व बरकरार रहे।
'कार्रवाई और कार्यवाही' ये दोनों अलग-अलग अर्थ देने वाले शब्द है। एक समय था, जब उक्त दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में होता था। पिछले दो दशकों से दोनों शब्दों का प्रयोग अलग-अलग अर्थ में रूढ़ हो गया है। 'कार्रवाई' अँगरेजी के 'एक्षन' के लिए और 'कार्यवाही' किसी सभा या सम्मेलन की 'प्रोसीडिंग्स' के अर्थ में प्रयुक्त होना चाहिए।
जब किसी बैठक में हुए कार्य का विवरण लिखा जाता है, तो उस बैठक को 'कार्यवाही' कहते हैं और जब किसी भ्रष्ट कर्मचारी के खिलाफ कदम उठाया जाता है, तो उसे 'कार्रवाई' कहते हैं। विधानसभा की 'कार्यवाही' ठप्प हो गई क्योंकि अध्यक्ष ने अमुक मामले में दोषी पाए गए व्यक्तियों पर 'कार्रवाई' का आष्वासन नहीं दिया।
बृहत् हिंदी कोश में 'कार्यवाही' का आशय किसी सभा आदि में हुआ काम दिया गया है। इसके आगे इसकी अलग वर्तनी भी दी गई है, जो इस प्रकार है- 'काररवाई'। इसी तरह 'उर्दू-हिंदी शब्द कोश' में 'काररवाई' का अर्थ 'रूदाद, कार्यवाही, कार्य, काम' दिया गया है।
यदि आक्सफोर्ड प्रोग्रेसिव अँगरेजी-हिंदी कोश देखें तो उसमें 'एक्षन' का अर्थ है- गतिविधि, काम, क्रिया, व्यवहार, शक्ति या प्रभाव आदि को काम में लाना और 'प्रोसीडिंग्स' का आशय 'कार्रवाई' दिया गया है। अब जब हम दोनों शब्दों को अलग-अलग अर्थ में ले रहे हैं, तो 'कार्यवाही को कार्रवाई' क्यों लिखें? जब दोनों के अर्थ तय है, तो अपनी बुद्धि के अनुसार उसके अर्थ को दिमाग में बैठा लें, तो भविष्य में फिर प्रयोग के दौरान दोनों शब्दों का घालमेल नहीं होगा।


कोश, कोष और कोस
कोश, कोष और कोस, इन तीनों शब्दों को हम दैनिक जीवन में प्रयुक्त करते ही रहते हैं, पर इसका उच्चारण अलग-अलग होते हुए भी अधिकांश लोग एक जैसा उच्चारण करते हैं। आइए उक्त तीनों शब्दों की गहराई में चलें-
एक मुहावरा है- 'चार दिन चले अढ़ाई कोस' इसमें जो 'कोस' आया है, उसका आशय है 'दूरी की एक माप' जो लगभग दो मील के बराबर होती है। बातचीत में भी हम सरकारी योजनाओं को आम आदमी से 'कोसों' दूर बताते हैं। इसका आशय हुआ योजनाएँ बहुत दूर हैं।
अब आते हैं 'कोष' और 'कोश' पर। बृहत् हिंदी शब्दकोश में 'कोष' मिला तो सही, पर उसके आगे लिखा था, देखिए 'कोश' । इसका मतलब यह हुआ कि वर्तनी एक जैसी नहीं है, तो क्या हुआ अर्थ तो एक ही है। अब देखें 'कोष' किस तरह 'कोष' के करीब है और किस तरह से दूर है।
शब्दकोश में 'कोष' का आशय है- अंडा, गोलक (नेत्र कोष), पान पात्र, म्यान, धनागार, खजाना, सोना-चाँदी, संचित धन, शब्द कोष, लुगत, खोल, आवरण, रेशम का कोया, कटहल आदि का कोया, अंडकोश, कली, गुठली, पादुका (चप्पल) आदि है। इन अर्थो पर ध्यान दें, तो एक बात स्पष्ट होगी कि सभी अर्थ संचित वस्तु के आवरण की ओर अधिक झुके हुए हैं। अर्थात किसी वस्तु को सुरक्षित रखने के लिए प्रयुक्त किया गया आवरण्। अर्थात कोश का आशय हुआ सुरक्षा। उपरोक्त अर्थों में एक अर्थ है 'म्यान', अब यदि 'म्यान' को 'कोश' मान लें, तो उसमें रखी जाने वाली तलवार होगी 'कोष', 'कोश' में आकर 'कोष' सुरक्षित।
'कोष' में चूँकि 'ष है', इसलिए यह शब्द संस्कृतनिष्ठ है। 'कोष' अपने उच्चारण के कारण हिंदी से उच्चारण में भले ही लुप्तप्राय हो,, पर लेखन में यह 'कोष' के साथ मिलकर अलग अर्थ देने लगा है। अब ट्रेजरी को कोषालय तो कहेंगे, पर 'कोशालय' नहीं कहेंगे। समिति का 'कोषाध्यक्ष' होना गौरव की बात होगी, पर कोई भी 'कोशाध्यक्ष' नहीं बनना चाहेगा। दूसरी ओर तमाम 'शब्दकोशों' की सूची है, जो यह दर्शाती है कि 'कोश' में शब्द सम्पदा है और 'कोष' में धन सम्पदा।
लेखन में हम न तो कभी 'षेष' लिखते हैं और न ही 'षेश'। लेकिन शब्दकोश बताते हैं कि 'शश' का अर्थ है खरगोश और 'षष' का अर्थ छह। अब आप ही बताएँ 'श' और 'ष' के कारण 'कोश' और 'कोष' के बीच कितने 'कोस' की दूरी है?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 19 नवंबर 2007

शब्द-यात्रा'

डॉ. महेश परिमल

खूब और बहुत
भारतीय समाज में कई शब्द 'खूब' चलते हैं, इनकी संख्या भी 'बहुत है', फिर भी इन्हें 'काफ़ी' नहीं कहा जा सकता। खूब, बहुत, काफ़ी, ये तीन शब्द हम सभी रोज़मर्रा की जिंदगी में न जाने कितनी बार प्रयोग करते हैं। कभी-कभी एक शब्द दूसरे शब्द का स्थान ले लेता है, पर हम इस पर ध्यान नहीं देते।
पहली नज़र में उक्त तीनों शब्द पर्यायवाची लगते हैं। फलस्वरूप हम उसका प्रयोग भी कर लेते हैं, पर यदि हम इस पर गहराई से विचार करें, तो इनमें जहाँ काफ़ी समानताएँ हैं, वहीं अर्थ भिन्नता भी हैं। लोग वाक्यों में प्रयोग करते हैं - 'शिवाजी की खूब धाक जमी' यह वाक्य अशुध्द है, यहाँ पर 'खूब' के स्थान पर 'काफ़ी' होना था। इसी तरह 'इतना बहुत है', के स्थान पर 'इतना काफ़ी है' सही होगा। शब्दकोश में तीनों शब्दों का एक अर्थ काफ़ी, बहुत और खूब है।
आइए, इन शब्दों की गहराई में जाएँ- बृहत् हिंदी कोश के अनुसार 'बहुत' याने अधिक, ज्यादा (मात्रा या संख्या में) काफ़ी, पूरा, अधिक मात्रा में, ज्यादा, और 'काफ़ी' का मतलब है- किफ़ायत करने-पूरा पड़ने वाला, पूरा, पर्याप्त, बहुत और 'खूब' का आशय अच्छा, बढ़िया, सुंदर, अच्छी तरह, पूरी तरह, बहुत, साधु, वाह आदि। 'खूब' फारसी एवं 'काफ़ी' अरबी शब्द है।
उर्दू-हिंदी शब्दकोश में खूब का मतलब सुंदर, हसीन, उत्तम, उम्दा, स्वच्छ, साफ़, शुभदर्शन, खुशनुमा, शुभ, मुबारक और अव्यय में वाह! क्या खूब दिया हुआ है। इससे ही उक्त तीनों शब्दों में छिपे गूढ़ अर्थो का पता चलता है।
बातचीत में जब हम वाह! क्या खूब या खिलाड़ी के बेहतरीन प्रदर्शन को देखकर अनायास ही मुँह से निकल पड़ता है, 'बहुत खूब!' इस शब्द के दो अर्थ निकलते हैं, एक तो खिलाड़ी के खेल की प्रषंसा, दूसरा उसे इसी तरह के प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित करना। बच्चे जब अपने पापा की प्रशंसा करते हैं तो कहते हैं - 'मेरे पापा बहुत अच्छे हैं' उनके मुँह से यह सुनना हमें बहुत भला लगता है। उसमें दोष ढूँढना मूर्खता होगी, पर बड़े यदि यही वाक्य दोहराएँ तो सोचना पड़ता है। 'बहुत' का प्रयोग तब होगा जब हमें अपनी बात मात्रा या संख्या में कहनी हो। प्यार, स्नेह, अपनत्व, ममत्व की मात्रा नहीं होती।
इसी तरह जब 'खूब' का प्रयोग किया जाए, तो समझिए इसमें सौंदर्य की प्रशंसा, प्यार की प्रशंसा, मौसम की प्रशंसा की गई है। 'काफ़ी' में 'पर्याप्त' का भाव है। इसके लिए संस्कृत शब्द 'यथेष्ट' भी है। याने जितना चाहिए था उतना। यह भी मात्रा को दर्शाता है, पर इसमें संतोष के भाव के साथ एक सीमा भी है। अर्थात 'बहुत' और 'खूब' की अपेक्षा सीमा में इसमें विस्तार नहीं है, इसे मन के घेरे में बाँधा जा सकता है, पर 'बहुत' और 'खूब' सीमाहीन भी हैं।
इसके अलावा इनसे बने कुछ शब्द प्रयुक्त होते ही रहते हैं- बहुत-खूब, बहुत-कुछ, काफी-कुछ। इनमें 'बहुत-कुछ' और 'बहुत-खूब' में प्रशंसा का भाव है, लेकिन 'काफ़ी-कुछ' एक सीमा तक है। 'मैं छत्तीसगढ़ के 'काफ़ी-कुछ' इलाके से परिचित हूँ' अर्थात् उसने छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों को देखा है, फिर भी कुछ स्थान शेष रह गए हैं।
मुझे लगता है कि मैंने उक्त तीनों शब्दों के बारे में बहुत-कुछ, काफ़ी-कुछ कह दिया है, अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे खूब समझे या बहुत-खूब।


शतरंज की चाल
हम सभी जानते हैं कि 'शतरंज' का खेल भारत की ही देन है। कुछ लोग इस खेल को ईरान से निकला बताते हैं। जो निराधार है। इसका आरंभ बौध्दकाल में हुआ। प्राचीन काल से भारत में चतुरंगिणी सेना का उल्लेख मिलता है, अर्थात् सेना के चार अंग होते थे, पैदल, सवार, रथ और हाथी। ईरान में पहुँच कर इसका नाम 'चतरंग' हुआ, बाद में शतरंग, अरब वालों ने इसे शतरंग के रूप में अपनाया। इटली में इसका रूप बदलकर Seachi हुआ, जर्मनी में Sehach, फ्रांस में Rchess और इंग्लैंड में chess भारतीय भाषाओं में इसका रूप शतरंज ही रहा।
शतरंज का ही एक संशोधित रूप 'अतरंज' है। इसमें एक पक्ष का केवल राजा होता है। दूसरे पक्ष में केवल पैदल होते हैं। समस्या यह है कि आठों पैदल किस प्रकार विपक्ष के राजा का सामना करें। बहुत कुछ राजा के ढाई घर वाली चाल पर निर्भर करता है, जो एक ही बार मिलती है।
शतरंज का एक अन्य रूप है ' बीसिया', शतरंज में प्रत्येक पक्ष में 16 मोहरे होते हैं। बीसिया में 20-20 मोहरे होते हैं, दो अतिरिक्त पैदल और दो अतिरिक्त ऐसे मोहरे, जिनकी चाल घोड़े और मंत्री की चालों से मिलीजुली होती है। यह खेल सामान्य शषतरंज से कहीं अधिक जटिल किंतु रोचक होता है।
शतरंज के बहाने आज हमने कुछ नए शब्दों का परिचय कराया, इसमें आए शब्द 'चाल' पर ध्यान दीजिए। इसका अर्थ क्या-क्या होता है और क्या हो सकता है। यह एक ऐसा शब्द है, जो सामान्य जीवन में सदैव व्यवहार में लाया जाता है, किंतु संदर्भ के साथ इसका आशय बदल जाता है। नीचे इस शब्द को प्रयुक्त करते हुए कुछ वाक्य बनाए गए हैं, ज़रा ध्यान दीजिए और अर्थ जानने का प्रयास कीजिए :-
1. उसका 'चाल-चलन' अच्छा नहीं है।
2. वाह! क्या 'चाल' है।
3. तुम्हारी 'चाल' मैं समझ रहा हूँ।
4 तुम किस 'चाल' में रहते हो।
5. तुम्हारे स्कूटर के पहिए में 'चाल' आ गई है।
6. मैंने 'चाल' चल दी, अब तुम्हारी बारी।
7. सोहन उसकी 'चाल' में फँस गया।
शतरंज में चलने वाली चाल को 'कि' कहते हैं। इस खेल की गहराई में जाएँ, तो हम पाएँगे कि 'शह और मात' के इस खेल में 'शह' को ही 'किश्त' कहते हैं। यह 'किश्त' है, इसे 'किस्त' कदापि न समझें। 'किस्त' का आशय होगा - न्याय, इंसाफ, भाग, अंश, हिस्सा, खंड, टुकड़ा, अदायगी का एक जुज़ और 'किस्त' का आशय होगा - कृषि, खेती, शतरंज की 'शह'। 'काश्तकार' में यही किष्त है, क्योंकि फ़ारसी में 'काष्त' का आशय है - कृषि, काष्तकारी, खेती, खेत की भूमि।
शतरंज से शुरू होकर हमारी यह शब्द यात्रा 'चाल' से गुजरकर 'किष्त और किस्त' में जाकर खत्म होती है। तो आप ही बताएँ कि यह किसकी 'चाल' है?


गुजरात और मध्यप्रदेश का 'राज़ीनामा'
कभी-कभी एक शब्द एक स्थान पर अपना सही अर्थ बताता है, किन्तु दूसरे स्थान पर वह अपने सही अर्थ से बहुत दूर का अर्थ देता है। अब राज़ीनामा शब्द को ही ले लें। मूल रूप से अरबी और फारसी का यह शब्द (राज़ीनामा:) हिंदी में संधि पत्र, सुलहनामा, मुकदमे के दोनों पक्षों में संधि का लिखित पत्र आदि को कहते हैं, पर यदि आप गुजरात या महाराष्ट्र चले जाएँ, तो वहाँ 'राज़ीनामा' का अर्थ होगा - इस्तीफा, त्यागपत्र। देखिए शब्द ने यात्रा की और दूसरे प्रांत में एक अलग ही अर्थ की चादर ओढ़ ली। इसी तरह गुजराती में सपांदक को 'तंत्री' कहते हैं, पर हिंदी में 'तंत्री' का अर्थ वीणा आदि में लगे तार, शरीर की नस, नाड़ी आदि को कहा जाता है। कहाँ राज़ीनामा बन गया, त्यागपत्र और 'तंत्री' बनकर 'संपादक' बन गया, वीणा में लगा हुआ तार और शरीर की नस।
शब्दों के इस तरह के आशय को पकड़ने के लिए हम कहीं और नहीं अतिप्राचीन भाषा संस्कृत में ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि उस भाषा में 'अभियुक्त' शब्द आदरणीय अर्थ में भी आता है, पर हिंदी में इसका अर्थ है- मुल्ज़िम, जिस पर कोई अपराध- अभियोग लगाया गया हो। आप ही बताएँ हिंदी में किसी आदरणीय के लिए 'अभियुक्त' कहना कैसा रहेगा?
उड़ीसा के ग्रामीण अंचलों में हम 'दूध' का प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि वहाँ 'दूध' का आशय 'स्तन से निकलने वाला दूध' होता है। हमें जिस दूध की आवश्यकता होती है, उसे वहाँ 'गोरस' कहा जाता है। इसलिए किसी भी नए स्थान पर हमें शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए, क्या पता किस शब्द का अर्थ वहाँ बदले हुए रूप में हो, या फिर प्रचलित ही न हो। गुजरात में ही 'मीठु' का आशय मिठाई से न होकर 'नमक' होता है। मीठेपन के सादृश्य में हम उसकी माँग कर बैठे, तो मुश्किल हो जाएगी।
अतएव भाषा की आवश्यकता, प्रकृति, प्रवाह और नागरिकों का ध्यान रखकर ही हमें शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। इसे अच्छी तरह से समझा गोस्वामी तुलसीदास ने। तभी तो उन्होंने 'रामचरित मानस; की रचना ऐसे देशज शब्दों से की, जो बोलियों में प्रचलित हैं। इसीलिए आज मानस की चौपाइयों पर साधारण शिक्षित ग्रामीण भी बड़ी आसानी से टीका कर लेता है।
हमारा गहन अध्ययन ही हमें बताता है कि शब्द कहाँ पर सशक्त है और कहाँ पर अशक्त?


शब्दों के उतार-चढ़ाव
आज हम एक घटना के माध्यम से शब्दों के उतार-चढ़ाव पर प्रकाश डालेंगे। हुआ यूँ कि अपने गर्दिश के दिनों में करीब 20-25 वर्ष पूर्व हिंदी व उर्दू के प्रसिद्ध् साहित्यकार एवं नाटककार उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने उत्तरप्रदेश के एक शहर में 'परचून' की दुकान खोल ली। मध्यप्रदेश में जिसे किराना दुकान कहते हैं। उसे ही उत्तर प्रदेश में परचून की दुकान कहते हैं। यह समाचार अखबारों में आया। बस तब से ही विवाद षुरू हो गया।
अखबारों ने कहीं-कहीं तो 'परचून' ही लिखा, पर किसी ने उसमें से 'पर' निकालकर 'चूना' कर दिया। अब वह चूने की दुकान हो गई। इस खबर का जब अँगरेजी में अनुवाद हुआ तो 'चूने' का अनुवाद किसी ने तो 'चूना' ही किया, पर किसी संपादक ने अतिरिक्त बुद्धि का परिचय देते हुए उसे 'लाइम' लिख दिया। और फिर इसी 'लाइम' को हिंदी अखबारों में 'नींबू' समझ लिया गया। अब वह नींबू की दुकान हो गई। कुछ संपादक ने और भी आगे बढ़कर सोचा कि अष्क जी अपनी दुकान में केवल नींबू ही क्यों रखेंगे? निश्चित ही वे सब्जियाँ भी बेचते होंगे। अतएव वह दुकान सब्जी की दुकान हो गई। किसी ने सोचा दुकान में नींबू के अलावा और फल जैसे संतरा, आम, सेव, केला आदि भी रखते होंगे। अतएव वह फलों की दुकान होगी। तो वह फलों की दुकान हो गई।
आप देखिए कहाँ 'परचून' और कहाँ फलों या सब्जी की दुकान। काफी समय तक लोग समझ ही नहीं पाए कि 'अश्क' जी ने आखिर दुकान किस की खोली है। अंतत: अश्क जी ने ही इसका खुलासा किया कि उनकी दुकान न तो नींबू की है न चूने की। वह तो परचून की दुकान है, जहाँ किराने का सामान मिलता है।
आज अश्क जी हमारे बीच नहीं हैं, पर शब्दों की निरंतर पूजा करने वाले उस साहित्यकार के साथ शब्दों ने ही ऐसा मजाक किया कि वे उससे आहत हो गए। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 17 नवंबर 2007

शब्द-यात्रा'

हमारे जीवन में कई बार ऐसे शब्द सामने आते हैं, जिसे हम अच्छी तरह से पहचानते तो हैं, पर उसे जानते नहीं। किसी को जानना अलग बात है और पहचानना अलग। यह आवश्यक नहीं कि जिन्हें हम पहचानते हों, उन्हें अच्छी तरह से जानते भी हों। जानना और पहचानना अलग-अलग क्रियाएँ हैं। ऐसे अनेक शब्द हैं, यदि उनके बारे में अच्छी तरह से जान लिया जाए, तो वह हमें खूब अच्छे लगते हैं। हमारा उन शब्दों से एक भावनात्मक रिश्ता कायम हो जाता है। इस 'शब्द-यात्रा' में हम आपको ऐसे ही शब्दों से परिचय कराएँगे, जो हमारे आसपास ही हैं, पर हम उन्हें ठीक से जानते नहीं हैं। तो चलें शब्द-यात्रा' पर.......


शब्द-यात्रा'
सँभलकर करें ''मत'' और ''न'' का प्रयोग
डॉ. महेश परिमल
आजकल अनुचित शब्दों के प्रयोग की एक गलत परंपरा शुरू हो गई है। मुश्किल तब होती है, जब वे इस तरह के शब्दों का प्रयोग सभी के सामने करते हैं। कई बार तो स्थिति हास्यास्पद भी हो जाती है। इसमें कई बार क्षेत्रीयता भी हावी होती है। क्षेत्रवाद की बात छोड़ दें, तब भी यह कहा जा सकता है कि अज्ञानतावश लोग इस तरह से गलत शब्दों का प्रयोग करते हैं और हँसी के पात्र बनते हैं। पर उनका यह गलत प्रयोग तब उन्हें और भी मुश्किल में डाल देता है, जब वे किसी साक्षात्कार में शामिल होते हैं। अपनी असफलता का दोष वे परिस्थितियों को देते हैं। जबकि गलती वे ही करते हैं, पर उनकी इस गलती की ओर कोई इशारा भी नहीं करता, इसलिए उन्हें पता ही नहीं चलता कि गलती कहाँ और कैसे हो गई?
अपनी बात उदाहरण के साथ कहूँगा, तो शायद अच्छी तरह से समझ में आ जाए :-
Ø यहाँ कोई मत आए।
Ø उस बच्चे से कह दो कि वह मत करे।
Ø जब ससुराल में तुम्हारी इज्जत नहीं है, तो मत जाओ वहाँ।
Ø मेरी बात से कहीं तुम बुरा मत मान जाना।
उपरोक्त वाक्यों में पहली बार में तो कोई गलती दिखाई ही नहीं देगी। किसी से भी पूछ लिया जाए, तो वह यही कहेगा कि उपरोक्त सभी वाक्य सही हैं। अब इस तरह के वाक्य ही साक्षात्कार में व्यक्ति के ज्ञान को गलत साबित करते हैं। आजकल लोग शब्दकोश से अपना नाता करीब-करीब तोड़ चुके हैं, इसलिए शब्दों का गलत प्रयोग और त्रुटिपूर्ण वर्तनी हमारे सामने आ रही है। अब उपरोक्त वाक्यों में गलती कहाँ है, यह बताना आवश्यक हो गया है।
उपरोक्त वाक्यों में जितनी बार ''मत'' शब्दों का प्रयोग हुआ है, उस स्थान पर ''न'' का प्रयोग किया जाना चाहिए। अब इसे थोड़ा-सा व्याकरण जोड़ दिया जाए, तो स्पष्ट होगा कि ''मत'' आज्ञार्थ रूप में प्रयुक्त होता है और ''न'' शिथिल आज्ञार्थ के रूप में प्रयुक्त होता है।
अब उपरोक्त वाक्यों को सही तरीके से पढ़ा जाए :-
Ø यहाँ कोई न आए।
Ø उस बच्चे से कह दो कि वह न करे।
Ø जब ससुराल में तुम्हारी इज्जत नहीं है, तो न जाओ वहाँ।
Ø मेरी बात से कहीं तुम बुरा न मान जाना।
''मत'' आज्ञार्थ में आता है, जैसे- तुम वहाँ मत जाओ। ''न'' शिथिल आज्ञार्थ में प्रयुक्त होता है, तथा ''नहीं'' निश्चयार्थ में। यदि ''शिथिल आज्ञार्थ'' को बदलकर ''सामान्य निश्चयार्थ'' बनाना हो तो,''न'' के बदले ''नहीं'' का प्रयोग होगा, साथ ही क्रिया के रूप भी बदलकर, उदाहरणार्थ ''खाऊँगा'' और ''मरूँगा'' कर देने की आवश्यकता पडेग़ी। इसे एक और उदाहरण से इस तरह से समझा जा सकता है-
Ø बस इतना जहर खाऊँ कि मैं मरूँ मत। इस वाक्य का सही रूप इस तरह होगा-
Ø बस इतना जहर खाऊँगा कि मैं मरूँ नहीं।
देखिए बात छोटी-सी है, पर कभी-कभी गलत अर्थ भी बताती है। अब यह एक छोटा-सा शब्द है, पर इसका प्रयोग यदि गलत हो, तो कभी-कभी शब्द का प्रयोग करने वाला हँसी का पात्र बन जाता है। इसलिए आप भी शब्दकोश से नाता जोड़ें और सही शब्दों को प्रयुक्त करने में देर मत करें, नहीं...नहीं, सही वाक्य होगा-देर न करें।



संस्कृत भाषाओं की माता नहीं
संस्कृत को हम सभी भाषाओं की जननी मानते हैं, अभी तक हमें ऐसा ही बताया जाता था, जो गलत है। संस्कृत के मातृ, पितृ, भ्राता, दौहित्र शब्द की वर्तनी को हम अँगरेजी भाषा के मदर, फादर, ब्रदर और डाटर से मिलाकर देखते हैं और यह सिध्द करने का प्रयास करते हैं कि ये शब्द संस्कृत के हैं और इसे अँगरेजी में इस तरह से लिखा गया है।
दरअसल हुआ यूँ कि मध्ययुग तक आते-आते जब लोगों का देश-देशांतर तथा उनकी भाषाओं से परिचय बढ़ा तो संसार की सारी भाषाओं को किसी एक भाषा से निकली सिध्द करने के लिए अर्थ तथा ध्वनि की दृष्टि से मिलते-जुलते शब्दों के बहुत से संग्रह बने। उस समय तक इस संबंध में कुछ निश्चित सिदधांत सिध्दांत तो थे नहीं, लोग अटकल से दो शब्दों के बाह्य रूप देखकर दोनों को एक शब्द से निकला मान बैठते थे।
अँगरेजी का नीअर शब्द भी इसी भ्रांति का षिकार हुआ है। रहीम की पंक्ति 'निंदक नियरे राखिए' के 'नियर' को हिंदी का शब्द मानकर इसकी तुलना अँगरेजी के 'निअर' से करते हैं, जो गलत है। अँगरेजी के 'नीअर' और भोजपुरी के नीयर, का अर्थ समीप है। इसका आषय यह कतई नहीं है कि दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति एक ही भाषा से हुई है।
उक्त दोनों शब्दों में ध्वनिसाम्य है। वस्तुत: भोजपुरी का 'नियर' या 'नियरा' संस्कृत शब्द 'निकट' से निकला है और अँगरेजी का 'नीअर' पुरानी नार्स के 'नेर' से। जहाँ इस प्रकार का साम्य मिले, उस भाषा या बोली की जननी भाषा में उस शब्द के समानार्थी शब्दों तथा उस शब्द की प्राप्त जीवनी को लेकर विचार करना चाहिए।
इससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत ही सभी भाषाओं की जननी नहीं है। हर भाषा का अपना अलग ही इतिहास है। सभी भाषाओं के स्रोत अलग-अलग हैं। भाषाओं में सहोदरपन हो सकता है, पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि दोनों भाषाओं का स्रोत एक ही हो।
डॉ. महेश परिमल
खाना और ख़ाना
दो मित्र रास्ते में मिले, दोनों ने परस्पर पूछा-किधर चले? एक ने कहा-ख़ाना खाने। दूसरे ने कहा-कारख़ाने। वे दोनों तो चले गए, पर तीसरा व्यक्ति जो उनकी बातें सुन रहा था, उसे बड़ा आष्चर्य हुआ, हँसी भी आई, वह सोचने लगा-भला, ये भी कोई बात हुई। कोई खाना खाए, यह तो समझ में आता है, पर कोई कार खाए! यह क्या संभव है? आइए उस व्यक्ति की उलझन दूर करने का प्रयास करें:-
सबसे पहले शब्द लें-'खाना' और 'ख़़ाना'। शब्द कोश के अनुसार सकर्मक क्रिया 'खाना' का आशय है, ठोस आहार को चबाकर निगलना, भक्षण करना, निगलना, हिंस्र पषुओं को मारकर भक्षण करना, चूसना, चबाना (पान, गड़ेरियाँ), चाट जाना (कीड़ों आदि का), खर्च करना, नष्ट करना, आदि। फ़ारसी शब्द 'ख़ाना' याने गृह, घर, आलम, डिबिया, केस, अलमारी, संदूक आदि का ख़ाना, रजिस्टर का ख़ाना, कागज या कपड़े पर रेखाओं से बना, विभाग, कोष्ठक, फ़ारसी में इसकी वर्तनी ख़ान: है। अब यह निश्चित रूप से जान लें कि 'खाना' हिंदी का शब्द है और 'ख़ाना' फ़ारसी का मात्र एक (.) नुक्ते में दोनों शब्दों का अर्थ ही बदल दिया। 'ख़ुदा' और 'जुदा' की तरह।
अब चलें 'कार' की ओर, यह शब्द फ़ारसी का है, जिसका अर्थ है कार्य, काम, उद्यम, पेशा, कला, फ़न, विषय, मुआमला, ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इसे 'कार' ही लिखें, 'क़ार' नहीं, क्योंकि 'क़ार' का अर्थ बर्फ, तुहिन, क़ीर, रील, तारकोल होता है। अब दोनों शब्दों को मिलाकर बने शब्द 'कारख़ाना' का अर्थ देख लिया जाए। 'कारख़ाना' का अर्थ हुआ वह स्थान जहाँ चीजें बनती हैं, शिल्पशाला, उद्योगशाला, कार्यालय यह शब्द भी फ़ारसी ।
शब्दों के उलझन में पड़ा तीसरा व्यक्ति हिंदी, उर्दू, फ़ारसी की थोड़ी समझ भी रखता होता, तो शायद उसकी उलझन तुरंत दूर हो जाती, पर केवल हिंदी के जानकार लोगों के लिए यह उलझन बनी रह सकती है। 'कारख़ाना' और 'खाना-खाना' में मूलभूत अंतर है कि खाना में नुक्ता नहीं है और 'ख़ाना' में है। 'खाना' का आशय हम 'भोजन' से लेते हैं। भोजन को ग्रहण करने की क्रिया 'खाना' कहलाती है, इसीलिए शब्द बना 'खाना-खाना' इसमें पहले वाला 'खाना' भोजन है और दूसरे वाला 'खाना' क्रिया है।
अब तो आप समझ गए होंगे कि रास्ते में दोनों मित्र का विपरीत दिशा में जाकर 'खाना-खाने' और 'कारखाने' का आशय क्या था?
डॉ. महेश परिमल
बातें घर-द्वार की
आज बातें होंगी घर-द्वार की। 'घर-द्वार' इन दो शब्दों में 'द्वार' का आशय तो 'दहलीज' है, पर 'घर' विस्तृत अर्थो में है। 'घर' शब्द 'गृह' से बना है। इसका अर्थ हिंदी में पूरे मकान से या उस भवन से, जिसमें निवास करते हैं, लिया जाता है। बंगला भाषा में 'घर' का आशय होता है 'बाड़ी'। 'पिसी बाड़ी' याने मौसी का घर। 'बाड़ी' 'बारी' का दूसरा रूप है। 'बासा' बंगाल में और 'डेरा' बिहार में रहने का स्थान बताने के लिए कहा जाता है। रहने की इमारत के लिए नहीं। कहीं से आकर किसी जगह में ठहर जाने, रह जाने को 'डेरा' डालना कहते हैं। नगर निगम का अमला जब अवैध रूप से बसाई गई झुग्गी बस्तियों में पहुँचता है, तब चेतावनी स्वरूप लोगों से 'डेरा-डंडा' उठा लेने की अपील करता है।
इसी 'डेरा-डंडा' को थोड़ा दार्शनिक अर्थ में सोचें तो 'रमना' शब्द सामने आता है। संस्कृत के 'रमण' से आया है यह शब्द। 'रमण' का आशय है 'खेल' या 'खेल करना'। जिस स्थान पर बैठकर या ठहर कर मन को विनोद मिलता हो वह स्थान होगा 'रमण करने लायक' याने 'रमणीय' रमन कराने वाला रमणीक। इसे रम्य भी कहते हैं। 'सुरम्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'रम्य' से हुई है। जब कोई कहे 'मेरा मन यहाँ 'रम' रहा है', तो इसका आशय यह हुआ यहाँ मुझे अच्छा लग रहा है। जब कोई कहता है कि आप कहाँ रमते हैं? तब यही समझा जाता है कि ठहरने का स्थान पूछ रहा है, उपरोक्त प्रश्न केवल साधुओं या सिध्द लोगों के साथ ही किया जाता है। 'ग्रह' शब्द 'गृह' से एकदम अलग है, इसमें कोई समानता नहीं है।
'मकान', 'गृह', 'घर', 'बसेरा', 'घरोंदा', 'गरीबख़ाना', 'दौलतख़ाना', ये सभी निवास स्थान का संकेत देते हैं, पर हमने कभी ध्यान दिया कि हम जहाँ रहते हैं, उस घर के कितने हिस्से हैं? कौन-सा हिस्सा कहाँ खत्म होता है और कहाँ से शुरू होता है। उस घर में जहाँ हम 'रमते' हैं, उस स्थान को अब घ्यान से देखें और निम्नांकित हिस्सों को समझने का प्रयास करें- चौपाल, चौतरा, चबूतरा, छज्जा, बरामदा, दर, दरीचा, मुंडेर, छत, सहन, ऑंगन, ज़ीना, कुर्सी, ताक़, आला, महराब, खंभा, कोठरी, परछत्ती, अटारी, दहलीज, चौखट, डयोढी, देहरी, कमान, हौज, चहबच्चा, दुछत्ती, बैठक, धंआरा, हाता, चहारदीवारी, फर्श, नींव, बुनियाद, चौकी, भोखा, मोहरी, नाली, तहख़ाना, किवाड़, सीढ़ी, खंड, माला, मंजिल, रोशनदान, तल्ला, मियानी, बरोठा, झरोखा, ओसारा, बंगला, कोठी, कोठा, तांड और खिड़की।
घर के इन हिस्सों को आपने जिस क्षण पहचान लिया सचमुच उस वक्त अपना घर 'घर' लगेगा।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

बच्चों के साथ हार कर भी देखें

डा. महेश परिमल
जीत की खुशी तो सभी मनाते हैं, पर कभी हार का जश्न मनाते देखा है किसी को? हमारी हार किसी को दो पल के लिए खुशी दे सकती है, तो क्या आप जीतना पसंद करेंगे? खासकर वह हार अपनों के बीच हो, अपनों के लिए हो.
हम बच्चों के साथ ऐसा ही होता है. हमारे पास संभावनाओं का अनंत आकाश है. हमारा आकाश इतना बड़ा है कि अनंत विचारों की पूरी श्रृंखला ही उसमेें समा सकती है. जब कोई बच्चा कहता है कि मेरा ये रॉकेट कितना तेंज भागता है. यदि उस वक्त कह दिया जाता है कि हाँ जानता हूँ, तब तो आपने हमारी तमाम संभावनाओं पर पानी ही फेर दिया. पर उस वक्त छोटा बनकर हमारे प्रश्न का उत्तर न देकर उल्टा प्रश्न करें, तुम ही बताओ, तुम्हारा रॉकेट कितना तेंज भागता है? फिर देखो हमारी उड़ान. हम ले जाएँगे अपने रचना संसार में, इतनी दूर-दूर तक ले जाएगा कि आप थक जाएँगे. यहाँ पर हमारे पालकों के धैर्य की परीक्षा होती है. हम बताएँगे कि रॉकेट कैसे बनता है, वह कैसे उड़ता है, वह किससे उड़ता है. उसका चालक कौन कैसा होता है. उसकी कॉकपिट कहाँ होती है. जब रॉकेट को ऊपर उड़ाना होता है, तब कौन-सा गेयर लगाया जाता है. उसके सामने डैश बोर्ड पर कौन-कौन से बटन होते हैं, उसके क्या-क्या उपयोग हैं. यह तो बडाें की जिज्ञासा पर निर्भर करता है कि वे कितना जानना चाहते हैं. आप थक जाएँगे, पर हमारी बातें खत्म नहीं होंगी.
बच्चे अनंत संभावनाओं का प्रकाश पुंज हैं. प्रारंभ में ऐसा लगता है कि बच्चे बड़ों से प्रकाशवान हैं, लेकिन होता ऐसा है कि बडे ही बच्चों से प्रकाशवान होते हैं. हममें ऊर्जा का अजस्र स्रोत छिपा होता है. लोग हमें सदैव छोटा ही समझते हैं, इसलिए हमसे हारना तो जानते ही नहीं. यह भी जानने की कोशिश नहीं की जाती कि ऊर्जा का स्रोत हमारे पास भी है. हम कुछ नहीं जानते, बड़ों का यह सोचना हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है. हमे लग जाते हैं, अपने अन्वेषण मेें. हमारा यह अन्वेषण खाली नहीं जाता है. हम येन-केन-प्रकारेण अपने लायक ज्ञान बटोर ही लेते हैं. यदि हममें कुछ जानने की दृढ़ इच्छाशक्ति है, तो हम किसी भी तरह से अपना ज्ञान बढ़ा लेते हैं.
अपने इस ज्ञान को हम बच्चे बाँटना चाहते हैं. कभी दोस्तों से तो कभी बड़ों से. दोस्तों से बाँटते समय तो हम केवल दोस्त ही रहते हैं, पर बड़ों से बाँटते समय हम कुछ और ही हो जाते हैं. चूँकि बड़े ही हमारे करीबी होते हैं, इसलिए हम उनसे कुछ ज्यादा ही खुले हुए होते हैं. इसीलिए जब हम पूछते हैं कि क्या आप यह जानते हैं? तो अच्छे पालक उस समय ना कह देते हैं. यह ना हमारे रचना-संसार के द्वार को खोल देता है. बस यहीं से शुरू हो जाती है हमारी ज्ञानवार्ता. आप जितना ना कहेंगे, उतना ही हम ज्ञानवान बनकर बताएँगे. हो सकता है, पहले हम ंगलत बताएँ. लेकिन इससे हमारी ज्ञानपिपासा का अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमने न जाने कहाँ-कहाँ से ज्ञान प्राप्त किया है. हम बताना चाहते हैं, अपने रचना-संसार में ले जाना चाहते हैं. कौन जाना चाहेगा हम बच्चों के रचना संसार में?
बच्चे कोमल मन का दर्पण होते हैं. बड़े उनमें अपनी साफ तस्वीर देख सकते हैं. इसके लिए निर्मल हृदय की आवश्यकता होती है. बड़ों का हृदय हमारी कोमल भावनाओं से मिल जाता है. यहीं जन्म होता है आपसी विश्वास और समझदारी का. हमेें समझने का प्रयास करें. माता-पिता का कर्त्तव्य बच्चे की परवरिश करना ही नहीं है, बल्कि उसे ज्ञानवान बनाना भी है. स्कूली शिक्षा से बच्चे को साक्षर तो बनाया जा सकता है, लेकिन ज्ञानवान नहीं बनाया जा सकता. बच्चा ज्ञानवान बनेगा बड़ों की कोशिशों से. उनके प्यार से, विश्वास से. यही प्यार और विश्वास भविष्य में हमारी पूँजी बन जाएगा और हम भी ज्ञानवान बनकर अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करेंगे.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

हमारी काहिली और उनके ऐश

डॉ. महेश परिमल
पहले जब मशीनें नहीं थीं, तब हम आज से अधिक सक्रिय थे. अल्सुबह उठकर दिन भर काम के बाद चौपाल पर बैठकर अपने बुंजुर्गों से बतिया भी लेते थे. उनके अनुभवों के संसार में विचर भी लेते थे. अपनी नासमझी को कुछ आकार दे लेते थे. भले अनपढ़ थे, पर पढ़े-लिखों के कान काटते में पीछे नहीं रहते थे. पुत्र को दुनियादारी समझा सकते थे. पुत्र भी हमारी इन खूबियों को बहुत अच्छे से जानता-समझता था. पर अब वह बात नहीं रही. अब यदि पुत्र हमारी बात नहीं मानता, इसका मतलब यही है कि वह भी यह अच्छे से जानता है कि हम अब तक लकीर के फकीर बने बैठे हैं. हम भी अब काहिल होते जा रहे हैं. अब वह यदि हमारी बात नहीं मानता, तो उसके पीछे उसकी यही सोच है कि हममें कुछ नया करने की चाहत ही खत्म हो गई है. हमसे नए विचारों ने नाता ही तोड़ लिया है. हम आधुनिक नहीं रहे, क्योंकि काहिली हमारे भीतर पसर रही है.
सचमुच आज हम दिनों-दिन काहिल होते जा रहे हैं. इतने काहिल कि आज हम अपना कोई काम भी ठीक से नहीं कर पा रहे हैं. परवशता हमारे रग-रग में समाती जा रही है. अपने कार्यालय जाकर काम कर लेना ही हम अपना सबसे बड़ा धर्म समझते हैं. उसके बाद घर आकर एक गिलास पानी लेना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. इसे काहिली की हद न कहें, तो और क्या कहें? अब न तो चौपाल है, न वे बुंजुर्ग. अब तो केवल परनिंदा है, और हैं षडयंत्र. यदि चौपाल है, तो वह भी आजकल इन कुरीतियों का मंच बनकर रह गया है.
उस दिन यात्रा के दौरान एक मंजेदार वाकया हुआ. ट्रेन में लोग मूंगफल्ली खा रहे थे और छिलके वहीं अपने पाँव के पास ही फेंक रहे थे. यही नहीं जो खिड़की के पास बैठे थे, वे भी छिलके बाहर फेंकने की जहमत नहीं उठा रहे थे. बातचीत का सिलसिला कश्मीर से कन्याकुमारी ही नहीें, बल्कि शिकागो से कनाडा, अमेरिका, जापान और भी न जाने कहाँ-कहाँ से गुंजरता रहा. आसपास के लोग भी बड़ी तन्मयता से उन महानुभावों का वार्तालाप सुन रहे थे. इतने में एक लड़का झाड़ू लेकर आया और वहाँ सफाई करने लगा. कुछ देर बाद पूरा कूपा साफ दिखने लगा. अपना काम खतम करके उसने लोगों से कुछ पैसे माँगे. लोगों ने गर्व से उस लड़के को कुछ सिक्के दिए. बातचीत का सिलसिला फिर जारी हो गया. टे्रन जब स्टेशन पर पहँची, तब सब यह देखकर हैरान थे कि उस लड़के ने वह सारा कचरा टे्रन के दरवाजे के पास रख छोड़ा था. अब लोग उस लड़के को भला-बुरा कहने लगे. वह लड़का वहाँ उपस्थित नहीं था, फिर भी लोग अपनी भड़ास निकाल रहे थे.
यह था हमारी काहिली का एक नमूना. ऐसी काहिली हम अक्सर दिखाते रहते हैं. घर में एक दिन सुबह-सुबह ही जब कामवाली बाई के न आने की सूचना मिले, तब देखो हमारी इस काहिली का प्रदर्शन. कोई काम हमसे ठीक से नहीं हो पाता. हर काम के लिए आश्रित रहने की आदत जो पड़ गई है. अगर अपने सारे काम स्वयं करने की आदत होती, तो शायद इस तरह की नौबत नहीं आती.
हम भीतर से टूट रहे हैं. इसका हमें अभी आभास भी नहीं हो पा रहा है. हमारे भीतर एक आलस्य जन्म लेने लगा है. हम आज खुद के नहीं हो पा रहे हैं. लोग हमें दूसरों को पहचानने को कहते हैं, पर आज हम स्वयं को नहीं जान पा रहे हैं. हमारे भीतर ही है, हमारा अकेलापन. इसे हम दिखाना तो नहीं चाहते, पर यह यदाकदा हमारे काम से सामने आ ही जाता है. बाहर हम कितना भी दिखावा करें. अभिमान करें, पर हम अपना वह स्वरूप नहीं दिखा पाते, जो हम दिखाना चाहते हैं. बहुत-बहुत अकेले हो गए हैं, हम सब. जिन छोटे-छोटे काम को करते हुए पहले हम गर्व महसूस करते थे, आज वही काम करने में हमें शर्म महसूस होती है. हमने अपने बचपन में न जाने कितनी बार कीचड़ से खेला होगा, पर आज हमारा बच्चा उसी कीचड़ में खेलता है, तो हम एक आशंका से सिहर उठते हैं, कहीं किसी बीमारी ने जकड़ लिया तो? कोई देख लेगा, तो क्या कहेगा और क्या समझेगा? यह धारणा हमें एक आवरण में ढँकना चाहती हैं. हम उसी आवरण में रहना चाहते हैं. यही आवरण एक मायावी संसार को जन्म देता है. जहाँ हम भीड़ में रहकर भी अकेले हैं. आज लोग अपने पुश्तैनी काम करने में शर्म महसूस करते हैं. किसान का बेटा खेती करने से जी चुराता है. बढ़ई का बेटा पिता के हुनर को आगे नहीं बढ़ाना चाहता. उसे कम से कम वेतन वाली नौकरी मंजूर है, पर अपना पुश्तैनी धंधा करना स्वीकार्य नहीं. दस पंद्रह एकड़ जमीन के स्वामी आज शहर जाकर नौकरी करना पसंद करते हैं. यह एक अजीब स्थिति है. नौकरी में अपनी पूरी ऊर्जा खपाकर समझ में आता है कि उन्होंने अपनी खेती का काम छोड़कर अच्छा नहीं किया. पर तब तक बहुत देर हो जाती है.
इसे ही हम काहिली कह रहे हैं. कोई जोखिम तो उठाना हमने सीखा ही नहीं. हमारी संवेदना मरने लगी है. खुद बिखर रहे हैं, पर समेटने का काम करना नहीं चाहते. बेकार की बातचीत में हमारा काफी बक्त निकल रहा है. चिंतन हमसे दूर होने लगा है. नए विचारों के सारे दरवाजों को हमने बंद कर रखा है. पुराने विचारों से इस तरह जकड़ गए हैं कि नए विचार आ ही नहीं रहे हैं. बढ़ई का बेटा अपने लिए महँगे फर्नीचर खरीदता है, उसे यह अच्छी तरह मालूम है कि उसमें क्या खामियाँ हैं, पर वह लाचार है, चाहकर भी वह उस कमी को पूरा नहीं कर पाता. उस खामी को भी वह दूसरों से दूर कराना चाहता है. कई ऐसे काम हैं, जो हम पहले तो बहुत अच्छे से करते थे, पर अब वहीं काम करने मेें हमें शर्म आती है. अगर कोई यह काम करना चाहे, तो हम खुशी से उसे वह काम करने देते हैं. निश्चित ही हमें उसका काम पसंद नहीं आता, पर क्या करें, उसे वैसे ही स्वीकारना हमारी मजबूरी है. उस काम का परिणाम जब सामने आता है, तब हमें पता चलता है कि हम ंगलत थे. पर अब क्या किया जा सकता है. काहिली तो दूर होने से रही. यही काहिली हमारी संतान को विरासत में मिलने लगी है. इस तरह से अपने बच्चों को काहिली के संस्कार दे रहे हैं, उस पर उनसे यह अपेक्षा करें कि वह मेधावी और तेजस्वी बने, यह कैसे संभव है?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 14 नवंबर 2007

मासूमों की बड़ी-बड़ी बातें

डा. महेश परिमल
आज मेरी बिटिया ने अपने स्कूल की एक घटना बताई. उसका कहना था कि उसकी क्लास में एक लड़के ने एक लड़की को 'आई लव यू' कहा और उसका चुम्मा ले लिया. पालक जरा ध्यान दें क्लास है पहली और बच्चों के हैं ये हाल. यह एक चेतावनी है हम सब पालकों के लिए. अगर आकाशीय मार्ग से होने वाली इस ज्ञान वर्षा को न रोका गया, तो संभव है संतान और भी छोटी उम्र में वह सब समझने लगे, जो आज बड़े भी नहीं समझ पा रहे हैं.
आज जिसे हम पैराटीचर के नाम से जानते हैं, वह भविष्य में निश्चित ही हमें तो नहीं, पर हमारे बच्चों को भटकाएगा ही, यह तय है. आज टी.वी. हमारे मनोरंजन का साधन है, पर यही मनोरंजन हमें बहुत ही जल्द हमारी औकात बता देगा. वैसे कुछ पालक इस खतरे को समझ रहे हैं, पर समझने के बाद भी कुछ न करने की स्थिति में हैं. दूसरी ओर बहुत से पालक ऐसे हैं, जो इस खतरे को जानना ही नहीं चाहते. मत जानें, उनकी बला से. पर जो जानना चाहते हैं, वे यह भी जान लें, बहुत जल्द यह हमें अपनी गिरफ्त में ले लेगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे.
आज खबरें ही नहीं, बल्कि ज्ञान भी भागने-दौड़ने लगा है. ज्ञान के किसी भी रास्ते को हम चाह कर भी नहीं रोक सकते. इसलिए यह समझना मूर्खता होगी कि हमारा बच्चा कुछ नहीं जानता-समझता. बच्चा कुछ नहीं जानता, यह हमारी गलतफहमी है. वह सब जानता है, केवल आप ही उसे नहीं जानते. वह हमसे ही सीख रहा है. हमारी एक-एक हरकत पर उसकी निगाह है. यही नहीं वह अपने टी.वी. को ही अपना सबसे प्यारा दोस्त समझता है. उसी से वह बहुत कुछ सीख रहा है. हम तो खुश हो लेते हैं कि चलो अच्छा हुआ इस बुध्दू बक्से से हमारा बच्चा कुछ तो सीख रहा है. आपकी यही सोच उसे क्या-क्या सीखा रही है, यह शायद आप नहीं जानते.
आपने कभी ध्यान दिया, घर में जितने नल नहीं है, उससे ज्यादा चैनल हैं. इसे शायद आप हँसी में उड़ा दें, पर यह सच है कि नलों से तो पानी ही आता है, जो हमारा जीवन है, इसमें पानी के सिवा और क्या आ सकता है? अधिक से अधिक गंदा पानी या फिर केंचुएँ. पर चैनलों में बहुत कुछ आ रहा है, और जो भी आ रहा है, वह आपके बच्चे की निगाह में है. अगर आप सामने नहीं है तो उनकी ऊँगलियाँ तय करती हैं कि उसे क्या देखना है. चैनलों से ऐसा ज्ञान आ रहा है, जिससे हमारा जीवन ही खतरे में पड़ सकता है. अब हमारी संवेदनाएँ मरने लगी है. कोई भी दुर्घटना अचरज में अवश्य डालती है, पर हमारी ऑंखें नहीं भिगोती. हम रोना ही भूल रहे हैं. कभी बच्चे को रोता देख भी लेते हैं, तो हमें गुस्सा आने लगता है. यही गुस्सा हमें उस मासूम से कुछ देर के लिए दूर कर देता है. यही दूरी बढ़ती रहती है. उस मासूम के अकेलेपन को यही बुध्दू बक्सा दूर करता है, तो क्यों न हो, वह उसका सच्चा दोस्त! वही दोस्त उसे ले जाता है, मायावी संसार में, जहाँ गरीबी होती ही नहीं. सब अमीर होते हैं. वे हजारों की बातें नहीं करते, बल्कि करोड़ों में खेलते हैं. वे रोमांस करते हैं, बड़ी-बड़ी होटलों में जाकर पैसा पानी की तरह बहाते हैं, खूबसूरत युवतियों के साथ डांस करते हैं और रात के ऍंधेरे में भाई को सुपारी देते हैं. यह सब उस मासूम का अकेलापन दूर करते हैं. उसे यही अच्छा लगता है. तब फिर क्यों न उसे वह अपना आदर्श माने? क्योंकि गरीबी तो उसने नहीं देखी या उसके पालक ने देखने की नौबत ही नहीं दी, तो भला वह क्या जाने कि गरीबी क्या होती है? वैसे भी अधिकांश लोगों का मानना है कि गरीबी का यह जीवन सदैव कष्ट ही देता है, उसे जानने की भी कोशिश क्यों की जाए?
इस मायावी दुनिया के संवाद उसे अच्छे लगते हैं, तभी तो वह उसे अपनी जिंदगी में उतार लेता है. छोटी उम्र में 'आई लव यू' कहने में उसे जरा भी संकोच नहीं होता. उस बच्चे ने वही कहा जो उसने घर में सुना या टी.वी. पर देखा-सुना. इसमें उनका कोई दोष भी नहीं. वेलेंटाइन डे ने उसे बता दिया है कि लाल गुलाब से क्या संदेश निकलता है, पीला गुलाब क्या कहता है और यदि काला गुलाब किसी लड़की को दिया जाए, तो लड़की की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या आप जानते हैं इन गुलाबों के रंगों का अर्थ? नहीं जानते ना, पर इतना तो बता दीजिए कि आप जब अपने बच्चे की उम्र के थे तो वेलेंटाइन डे को किस रूप में जानते थे? शायद आप यह भी नहीं जानते. आज यदि आपका बच्चा यह सब जानता है, तो आपको उस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए.
अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों के पालक ही नहीं, बल्कि उनके दोस्त भी बनें. इससे कई फायदे हैं. पालक बने रहने से हम उनसे दूर हो जाएँगे, उनके करीब जाने का सबसे आसान रास्ता यही है कि हम उन्हें अपना दोस्त मानें. इससे वे हमारे करीब होंगे और अपनी बातें हमें बताएँगे. यही समय है जब हजम उनके मन की बात जान सकते हैं. वे अपना ज्ञान ही नहीं, बल्कि अपना अज्ञान भी बताएंगे. इस वक्त हमने उन्हें जान लिया, तो कोई बात ही नहीं रह जाती कि हम उनके लिए कुछ न करें.
अब अधिक से अधिक चैनल के लिए अधिक रुपए लगने लगे हैं, तो क्यों न हम चुनिंदा चैनल ही देखें. तो क्यों न हम चुनिंदा चैनल ही देखें. जिससे मनोरंजन भी हो और ज्ञान भी बढ़े. यहाँ पालकों को समझना होगा कि वे जो कुछ भी करें, उससे मासूम के मन में किसी प्रकार की ग्रंथि न बन जाए. उससे खुलकर बातचीत करें. यह अनुकरण की अवस्था होती है. जैसा वह अपने से बड़ों को करता देखेगा, वैसा ही करने लगेगा. अतएव आपने जो कुड किया, वही आपका बच्चा आपके सामने करने लगे, तो आपको गुस्सा नहीं होना चाहिए, क्योंकि आपने जो कुछ किया, उसी का प्रतिरूप ही आपके सामने आया.
उनके कोमल हृदय पर सच्चाई की इबारत लिखें. उसके भीतर के बालपन को समझने की कोशिश करें. उसे सदैव बच्चा ही न समझें. अपना बचपन कभी उस पर थोपने की कोशिश न करें. उसकी भावनाओं को कभी कुचलने का प्रयास न करें. उसके बारे में जब भी सोचें, तो थोड़ी देर के लिए ही सही, पर बच्चा बनकर सोचें. तभी आपका बच्चा आपका बनकर रहेगा और भविष्य में एक-एक कदम पर आपके साथ चलने को तैयार होगा.
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

मासूम हाथों की बात....

डा. महेश परिमल
शमशेर की एक कविता है, 'कब आएँगे हाथों के दिन'. आज हाथों के दिन तो हमारे करीब हों या न हों, पर मासूम हाथों के दिन अभी तक लद नहीं पाएँ हैं, वे आज भी शिवाकाशी में पटाखों से झुलसते हैं, खड़िया मिट्टी का काम करते हुए अपने हाथों को गला रहे हैं, बीड़ी बनाते हुए तम्बाखू की जहरीली गंध को अपने नथूनों में पाल रहे हैं या फिर नरम कालीन बनाते हुए अपने हाथों को कठोर कर रहे हैं. उनकी साँसों या तो बारुदी गंध समाई हुई है या फिर महीन रेशे के रूप में मासूम फेफड पर जम रही है.
शायद आपने कभी नहीं सोचा होगा कि शिक्षक को जब भी अपनी कोई बात समझानी होती है, तब चॉक का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी ओर कभी कहीं भी कोई खुशी का अवसर आता है, तब लोग पटाखे चलाकर अपनी खुशियाँ जाहिर करते हैं. दीप पर्व पर तो यह पूरे देश मे खुले रूप में दिखाई देता है, पर क्या कभी किसी ने सोचा कि इसके पीछे कई नन्हे हाथों का कमाल है. ये वही नन्हे हाथ हैं, जिनकी ऑंखों में एक सपना पलता है, कुछ करने का, पढ़ने और आगे बढ़ने का, लेकिन रोटी के संघर्ष में उनकी ऑंखों में पलने वाले सपने धुँधले हो गए हैं. छोटी उम्र में ही अपने अभिभावकों को अपने होने की कीमत अदा करते हैं. सरकारी भाषा में इन्हें बाल श्रमिक कहा जाता है. बाल श्रमिक या बाल मंजदूर यानि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे अपनी आजीतिका चलाने के लिए स्वयं या अपने माता-पिता के साथ काम पर जाते हैं या काम करते हैं.
बाल श्रमिकों के नाम पर चाहे कितनी भी योजनाएँ बनें या कितनी भी घोषणाएँ हों, लेकिन कुछ हो नहीं पाता. हाँ सरकारी ऑंकड़ों पर निश्चित ही कुछ ऐसा हो जाता है, जिससे लगे कि हाँ हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या में कमी आई है. लेकिन देखा जाए, तो हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है. भारत के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में साढ़े चार करोड़ से लेकर करीब ग्यारह करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं. इस संख्या को देखते हुए शासन द्वारा बाल श्रम को रोकने के लिए जहाँ कानूनी प्रावधान किए गए हैं, वहीं ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए सुविधाएँ उपल?ध कराने हेतु ठोस पहल के रूप में बाल श्रमिक शालाओं की भी स्थापना की गई है.
अब यह बहुत कम लोग जानते हैं कि बाल श्रमिकों के लिए प्रारंभ की गई शालाएँ कैसी चल रही हैं. जब शिक्षकों की फौज होने के बाद भी सरकारी शालाओं की स्थिति दयनीय है,तो बाल श्रमिकों के लिए स्थापित की गई शालाओं की क्या स्थिति होगी, इसे बताने की जरूरत नहीं है. होने को तो कई विभागों में एक श्रम विभाग भी है, पर वहाँ किसी श्रमिक का एक आवेदन कितने वर्षों तक फाइलों में कैद रहता है, इसे भी बताने की आवश्यकता नहीं है. कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने निश्चित ही इस दिशा में कुछ ठोस कार्य किए हैं, पर उनके कार्य 'ऊँट के मुँह में जीरा' के समान हैं.
खतरनाक उद्योग एवं कानूनी प्रावधान
कुछ उद्योगों एवं कार्यों को खतरनाक श्रेणी में रखा गया है. इन उद्योगों में बच्चों का संलग्न होना अनुचित और विनियमन अधिनियम 1986 के अधीन निषिध्द है. ऐसे उद्योगों की संख्या लगभग 51 है. इसमें बीड़ी बनाना, कालीन बुनना, सीमेंट का निर्माण, कपड़ा छपाई व रँगाई, आतिशबाजी, विस्फोटक, माचिस का निर्माण, अभ्रक (माइका) का कढ़ाई और खंड करना, चपड़ी-लाख का निर्माण, साबुन का निर्माण, चमड़े और ऊन की सफाई, भवन निर्माण, स्लेट-पेंसिल का निर्माण, संगमरमर या काँच से बने उत्पाद का निर्माण, ंजहरीली घातु और पदार्थ जैसे मरक्यूरी, क्रोमियम, एस्बेस्टस से निर्माण प्रक्रिया कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 2 (ग घ) में परिभाषित घातक प्रक्रिया और धारा 1 के अंतर्गत बनाए गए नियमों में परिभाषित खतरनाक प्रक्रिया कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 2 (डी) (4) के अंतर्गत परिभाषित मुद्रण, काजू का छिलने और अन्य प्रक्रिया, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग में टाँका लगाने की प्रक्रिया, अगरब?ाी निर्माण, ऑटो मोबाइल मरम्मत आदि अन्य घातक उद्योग हैं. बाल श्रमिकों की समस्त परिस्थितियों को देखते हुए केंद्रीय सरकार द्वारा पारित बाल श्रम (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 पूरे देश में लागू है. इस नियम के अनुसार जो हानिकारक और असुरक्षित उद्योग एवं प्रक्रियाएँ हैं, उनमें बच्चों को लगाना पूर्णत: वर्जित है, इस नियम का उल्लंघन करने वाले को दो वर्ष तक का कारावास एवं 20 हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है. जिन उद्योगों में हानिकारक प्रक्रियाएँ नहीं हैं, उनमें यदि बाल श्रमिक का नियोजन किया जाता है, तो उसे दिन भर में 6 घंटे से अधिक काम पर नहीं लगाया जा सकता तथा उसे साप्ताहिक अवकाश दिया जाना जरूरी है.
श्रम विभाग का दायित्व- श्रम विभाग के अधिकारियों का यह र्क?ाव्य है कि वे यह देखें रेल्वे स्टेशन आदि जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बोर्ड लगाकर यह प्रदर्शन किया गया है कि नहीं कि ऐसे स्थानों पर बच्चों को कार्य पर लगाया जाना पूर्णत: वर्जित है. भारत अधिनियम की धारा 39 (ड) में उल्लेख है कि शासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं एवं बच्चों की शारीरिक दशा का दुरुपयोग करने वाले रोजगारों से उन्हें दूर रखा जाए.
आज हम सब देख रहे हैं कि हमारा स्कूटर यदि खराब हो जाए, तो मेकेनिक के पहले उसे एक छोटा सा लड़क़ा देखता है, वही अपने उस्ताद को बताता है कि स्कूटर में क्या खराबी है. होटल में हमारे सामने नाश्ता भले ही कोई दूसरा लाए, पर पानी लाने और जूठी प्लेट उठाने के लिए एक बालक अवश्य होगा. चाहे साइकिल दुकान हो, होटल हो, मेकैनिक हो, या फिर छोटे-छोटे उद्योगों में लगे इन मासूमों को हर समय झिड़की या मार पड़ते रहती है. सरकारी नियमों का खुले आम उल्लंघन हो रहा है और सरकार केवल नियम कायदों की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ रही है.
सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय
घातक काम धंघों में लगे बच्चों को वहाँ से निकालकर बाल श्रमिक शालाओं में उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए व्यवस्था करने संबंधी निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय 10 दिसम्बर 1996 में दिया. इन निर्देशों में स्पष्ट कहा गया है कि एसे घातक कार्यों में लगे हुए सभी बच्चों का सर्वेक्षण किया जाए. इसके पश्चात् प्रति बच्चे के लिए 20 हजार रुपए उसके नियोजक से वसूल किए जाएँ, तथा ऐसी राशि से एक निधि निर्मित की जाए. बाल श्रमिक के अभिभावक को रोंजगार सुलभ कराने की जिम्मेदारी राज्य शासन को सौंपी गई है. यदि शासन इन्हें रोंजगार नहीं दिला पाए, तो ऐसी परिस्थितियों में प्रति बच्चे के लिए पाँच हजार रुपए के हिसाब से राशि उक्त निधि में शासन द्वारा मिलाई जाए. इस राशि से प्राप्त ?याज से बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाए.
हम सभी देख रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का किस तरह खुलेआम उल्लंघन हो रहा है. शासन के ठीक नाक के नीचे बच्चे आज भी होटलों और कारखानों में काम कर रहे हैं. जहाँ वे अपना बचपन भूल गए हैं. पढ़ने की उम्र में ही ये कमाने लगे हैं. इन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि बचपन के खेल कौन-कौन से हैं. अपनी मासूम ऑंखों के साथ स्कूल यूनिफार्म में सजे बच्चों को स्कूल जाते हुए ये केवल सिसककर ही रह जाते हैं. इनकी ऑंखों में पलने वाला सपना वहीं मर जाता है, जब वे अपने काम पर निकलते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश आज भी धूल खाते किसी फाइल में दबे पड़े हैं और उधर बिका हुआ बपचन न जाने कितनी गर्द को अपनी साँसों में ले रहा है.
केवल कानून की दुहाई देने और सरकार का मुँह ताकने से ही कुछ नहीं होगा. इसके लिए जनजागरुकता अतिआवश्यक है. हम न तो स्वयं ही अपने घरों में किसी मासूम को काम पर लगाएँ और न ही किसी अन्य के घर मासूम को काम पर रखने की सिफारिश करें. बच्चों से काम न लेने की शुरुआत खुद से ही करनी होगी. इस दिशा में उद्योगपति और समाजसेवी संस्थाएँ आगे आकर शासन से यथासंभव सहायता प्राप्त कर इस कार्य में अपना हाथ बँटाएँ. इस दिशा में भारत सरकार की राष्ट्रीय बाल श्रम (निर्मूलन) योजना के अंतर्गत बाल श्रमिक शालाओं का संचालन एक उदाहरण हो सकता है. ये शालाएँ अच्छे से संचालित हो, यही समाज का मकसद होना चाहिए. नहीं तो मासूम सपने मासूमी ऑंखों में ही पलकर वहीं खत्म हो जाएँगे. हमारे सामने ही एक बच्चा काम करते-करते थककर चूर हो जाएगा, शायद हमारे ही सामने अपना दम तोड़ दे, तो भी हमारी संवेदना नहीं जागेगी. क्योंकि हमने ही तो इसी तरह अपनी संवेदनाओं को मारने का एक उपक्रम किया है.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 12 नवंबर 2007

गरीब के अभिनय से लाखों की कमाई

डॉ. महेश परिमल
इस बार दीपावली के अवसर पर दूरदर्शन ने दिखाई फिल्म बागवान, इस फिल्म को देखने के बाद लगा कि क्या गरीबी के अभिनय से लाखों कमाए जा सकते हैं? ऐसा हो भी सकता है? शायद नहीं, पर यह सच है, जो आज हमारे आसपास बिखरा पड़ा है और हम इस सच से जी-चुरा रहे हैं. सबसे पहले आते हैं हम गरीब पर. यह गरीब कौन है? वैसे देखा जाए, तो कोई अमीर नहीं है. हर अमीर की डोर गरीबी से जुड़ी होती है. यदि यह कहें कि गरीबी की कोख से ही अमीरी का जन्म होता है, तो गलत नहीं होगा. जब तक गरीब हैं, अमीर रहेंगे ही. गरीबों के द्वारा बनाए गए महलों में अमीर रहते हैं. सम्पन्न देशों में रहने वालों की दृष्टि में गरीब वह है, जिसके पास अच्छा बंगला नहीं, जिसके पास कार नहीं है, या फिर जिसके यहाँ फ्रिज नहीं. या फिर जिनका ड्राइवर गंदा है, वह गरीब है. वहाँ तो जिन गरीबों को रोटी नहीं मिलती, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि वे ब्रेड खाएँ. पर हमारे यहाँ के गरीब कुछ दूसरे प्रकार हैं. हमें तो यह बताया गया है कि दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी जिसके पास रोटी खाने के लिए पैसे नहीं बचते हों, वह गरीब है. शायद यही है गरीबी!
हम इस गरीबी से भी आगे बढ़ते हैं. क्या वह वास्तव में गरीब है? नहीं वह दिन भर मेहनत कर कुछ सूखी रोटी खाकर आराम से सो तो जाता है, या फिर अपने बच्चों से हँस-बोल लेता है. उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान होती है. वह तो गरीब नहीं हो सकता. तो फिर गरीब है कौन? माँगने वाला हर वह इंसान गरीब है, जो देता है, वह अमीर. दी जाने वाली वस्तु दुआ ही क्यों न हो. इसके अलावा भूखे के सामने भोजन करने वाला ंगरीब है. परंपराओं में जीने वाला वह इंसान भी गरीब है, जो अपनी युवा बिटिया का ब्याह नहीं कर सकता. गरीब तो वह भी है, जो हमेशा कुछ पाने की लालसा में जीता है. हमारे सामने कई तरह के गरीब आ सकते हैं. फिर भी वास्तविक गरीब को हम नहीं जान सकते.
फिल्म बागवान में हमारा करोड़पति महानायक एक ंगरीब की भूमिका निभा रहा है. करोड़पति होकर ंगरीब होने की भूमिका निभाना बहुत बड़ी बात है. उसने यह चुनौती स्वीकारी. उसने गरीबी का जो अभिनय किया, उससे उसे लाखों रुपए मिले होंगे. पर इस चित्र में वह ंगरीब कहीं नहीं है, जो वास्तव में गरीब है. यह कैसी गरीबी है? एक गरीब का अभिनय करके एक करोड़पति लाखों कमाता है, वह वह गरीब वही का वहीं रहता है. गरीब गरीबी में जी कर अपने लिए तो न सही पर अपने बच्चों के लिए भी कुछ नहीं कर पाता है और ये कथित रूप से बने हुए अमीर गरीब का अभिनय करके लाखों कमा जाते है. मतलब यही कि ताकत अभिनय में है, गरीबी में नहीं. पर ये अभिनय एक ंगरीब क्यों नहीं कर पाता? वह तो अपनी गरीबी का भी अभिनय नहीं कर पाता. इसके बाद भी उसे अमीरी का अभिनय करने को कहा जाए, तो वह अमीरी का भी अभिनय नहीं कर पाएगा. कैसी विडम्बना है, हमारे देश की? अब यहाँ सत्ता का ही नहीं, बल्कि अभिनय की भी तूती बोलती है.
असली जिंदगी जीना और अभिनय करना दोनों अलग-अलग बात हो सकती है, पर क्या गरीब को यह जानने का हक नहीं है कि उसकी ंजिंदगी का अभिनय किसी को लखपति कैसे बना सकता है, पर उसकी ंजिंदगी की रात में सुबह नहीं आती? आखिर क्या बात है? वह ंजिंदगी जीकर सिसकता है, दूसरी ओर उसकी ंजिंदगी का अभिनय किसी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है. उसकी ईमानदारी तो अब भी उसके पास है. उसने तो नहीं बेची अपनी ईमानदारी. जिसने अपनी ईमानदारी बेचकर बेईमानी खरीद ली, वह तो सुखी होने का नाटक ही नहीं कर रहा है, बल्कि उसके पास ऐश्वर्य की सारी सुख-सुविधाए है. फिर भी वह सुखी नहीं है, तो क्या वह गरीब है?
ऐसा क्यों होता है, आइए इसका विश्लेषण करें. गरीब अपनी गरीबी में ही अमीरी का पूरा मंजा ले लेता है. अपने परिवार के साथ सूखी रोटी खाकर ही थोड़ा-बहुत हँस बोल लेता है. कभी मेहनत का वाजिब दाम मिल गया, तो पत्नी और बच्चों को मेला या बांजार ले जाता है. उस दिन वह रोजमर्रा की चींजों के अलावा कुछ और खरीद लेता है. मसलन बच्चे के लिए खिलौने और पत्नी के लिए बिंदी या सस्ती सी साड़ी. इस तरह से वह अपने छोटे से परिवार को खुश कर देता है. उसकी खुशी बँट जाती है, कुछ हिस्सों में. टुकड़ों-टुकड़ों पर मिली खुशी को वह जिंदगी के करीब ले जाता है. घर आकर वह खुद को किसी भी अमीर से कम नहीं समझता. टूटी खाट उसे किसी अमीर के बिस्तरे का सुख देती है और वह मंजे की नींद ले लेता है.
दूसरी ओर एक अमीर दिन भर की हाय-हाय करके धन तो खूब बटोर लेता है, पर उसके पास किसी के लिए थोड़ा-सा भी वक्त नहीं रहता. न अपने लिए, न अपने परिवार के लिए. कुछ और धन कमाने के चक्कर में वह रात में गद्देदार बिस्तर पर भी सो नहीं पाता, क्योंकि प्रकृति से प्राप्त नींद तो उससे कोसों दूर रहती है. इस तरह से धन की लालसा में वह न परिवार का रह पाता है और न ही अपना. जबकि यह तय है कि वह धन अपने परिवार के लिए ही कमा रहा होता है. इस स्थिति में वह एक गरीब का अभिनय बेहतर कर सकता है. क्योंकि अभी वह किसी गरीब की ही जिंदगी तो जी रहा है. अब भला अपने ही जीवन का अभिनय कौन नहीं कर सकता? अब प्रश्न यह उठता है कि वास्तविक गरीब कौन? जो गरीब है वह या जो अमीर है वह?
गरीब वह जो हमेशा कुछ न कुछ माँगता रहता है, अमीर वह जो हमेशा सच के धरातल पर जीते हुए अपने परिवार के ही बीच दु:ख को भी ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करता है. वह जानता है, ईश्वर उसे सुख देकर उससे उसकी शांति अवश्य छीन लेगा, इसलिए वह दु:ख में भी ईश्वर को याद करते हुए सुख से जीवन जीता है. शक्ति अभिनय में नहीं, उस लखपति की ंगरीबी में है, जो उसके बीते हुए क्षण को जीवंत बनाने में सहायक होती है.
गरीबी ओढ़ी हुई चादर है, जिसका फटा होना यह दर्शाता है कि नींद इस चादर को ओढ़कर भी आ जाएगी. क्योंकि उसे तो आना ही है. अमीरी में लिपटी हुई गरीबी भी होती है. एक बार सरोजनी नायडू ने महात्मा गाँधी से कहा था बापू आपको गरीब बनाए रखने के लिए हमे एक अमीर आदमी से अधिक खर्च करना पड़ता है. क्यों एक गरीब को जो सहजता से मिल जाती है, वह बापू को प्राप्त नहीं थी. उसके लिए वह सब लाया जाता था. ऐसे में खर्च तो स्वाभाविक ही है. क्या काम की ऐसी ंगरीबी? ओढ़ी हुई गरीबी से स्वीकार की गई, आत्मसात की हुई गरीबी अधिक सुख देती है.
एक गरीब को उसकी जिंदगी का एक-एक लमहा उसे सच के करीब ले जाता है. उस सच के पास जो मौत के करीब से होकर गुंजरता है. ंजिंदगी कितनी कराहती हुई क्यों न हो, मौत उसे मुस्कराती हुई मिलेगी, यह तय है. इसे वह गरीब बेहतर जानता है. इसलिए वह खुश है, अपनी ंगरीबी में अमीर बनकर.
डॉ. महेश परिमल

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