डा. महेश परिमल
मानव के पास पूरा जीवन होता है, पर उसके पास अपने लिए ही समय नहीं होता. आज की इस दौड़ती-भागती ंजिंदगी में इंसान के पास सब-कुछ है, पर समय ही नहीं है. जब उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है, तो फिर अपनों के लिए कहाँ से समय होगा? यह आज के जीवन का यथार्थ है. आजकल सबसे अधिक चर्चा कैरियर और सफलता की ही होती है. सफल होने के लिए प्रबंधन का विशेष पाठयक्रम होता है. इसमें यही बताया जाता है कि सफलता प्राप्त करने में सबसे बड़ा योगदान है समय का. समय का प्रबंधन किस तरह बखूबी किया जाए, यही आज की सबसे बड़ी जरुरत है. 'टाइम एंड टाइड, वेट फॉर नन' समय और समुद्र की पूर्ति किसी की राह नहीं देखती. यह कहावत हम सब बरसों से सुन रहे हैं. यह बात बिलकुल सच है, यदि आप समय को बरबाद करेंगे, तो समय आपको बरबाद कर देगा. ऐसा बार-बार हमें कहा जाता है.
सवाल यह उठता है कि समय की बरबादी का आशय क्या है? समय की बरबादी का अर्थ है, प्रमुख काम को छोड़कर ऐसे काम करना, जिसकी उस समय किसी भी तरह आवश्यकता नहीं है. इसे ंजरा दूसरे तरीके से समझा जाए. परीक्षा के समय यदि बालक अपनी छुट्टियाँ कैसे बिताई जाए, इसकी योजना बनाए, या फिर अगले वर्ष का क्या कोर्स होगा, इस पर विचार करे, या फिर पूरा सयम ऐसे निरर्थक कामों में गुजार दे, जिसके बारे में थोड़ी देर बाद ही हिसाब न दिया जा सके. तो इसे कहते हैं समय की बरबादी. परीक्षा के समय सबसे बड़ी प्राथमिकता पढ़ाई की होती है. पढ़ाई करना उस विशेष समय की जरुरत है, बाकी काम परिणाम पर निर्भर हैं.
आज इंसान के पास न तो अपने लिए समय है और न ही अपनों के लिए. यही आजकल के मुख्य विवादों का एक बहुत बड़ा कारण है. हाल ही में अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ने संबंधों पर एक सर्वेक्षण किया, इसमें मुख्य सर्वेक्षण पति-पत्नी के संबंधों, तलाक और दाम्पत्य जीवन पर था. इसमें यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि तलाक की मुख्य कारण था समय. एक युवती ने बताया था कि मुझे मेरे पति से दूसरी कोई शिकायत नहीं थी, बस यही बात थी कि सब कुछ होते हुए भी उनके पास मेरे लिए समय नहीं था. पति से मिलने के लिए यदि पत्नी को एपाइंमेंट लेना पड़े, यह स्थिति उनके लिए बहुत ही घातक है.
बच्चों के विकास के लिए हुए अध्ययन में भी यही बात सामने आई कि बच्चों के लिए अपनी जीवन को दाँव पर लगाने वाले पालकों के पास बच्चों के लिए ही समय नहीं था. अध्ययन के अनुसार जो पालक अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय निकालते थे, उनके बच्चे पढ़ने में काफी तेज थे. इसके विपरीत जिन पालकों के पास अपने बच्चों के लिए ंजरा भी समय नहीं था, उनके बच्चे पढ़ाई में फिसड्डी पाए गए. जो बच्चे पढ़ाई में तेज थे, वे अपने व्यवहार में भी कुशल थे. जिन बच्चों में अपने पालकों के लिए शिकायत थी, वे बच्चे हमेशा दुविधा में पाए गए. दुविधा की यह स्थिति काफी चिंताजनक होती है. इस स्थिति में बच्चे अपनी दिशा से भटक जाते हैं.
समय की बात जब भी होती है, तब प्राथमिकता की बात की जाती है. जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है? प्राथमिकता तय करने में इंसान अपनों को भूलने लगा है. प्राथमिकता में से यदि परिवार को घटा दिया जाए, तो शायद कैरियर में कामयाबी तो मिल जाएगी, पर सुकून नहीं मिलेगा. एक दार्शनिक से एक व्यक्ति ने पूछा- इंसान को सबसे अधिक संतोष कब होता है? तब दार्शनिक ने कहा- मैं सुखी हूँ, यह अनुभूति ही मानव के लिए सबसे बड़ा संतोष है. इंसान सबसे अधिक समय शिकायत करने में ही लगा देता है. इस संसार में सभी को कुछ न कुछ शिकायत है. हर कोई किसी ने किसी समस्या का समाधान ढूँढ़ने में लगा है. जिज्ञासाएँ तो अनेक हैं, पर उसे शांत करने करने का कोई उपाय नहीं है. अगर उपाय उसके सामने आए भी तो इंसान उससे संतुष्ट नहीं.
इंसान के लिए सबसे बड़ा सुकून यह है कि कोई अपना उससे आकर कहे कि तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो. मैं हूँ ना. प्यार से बोले गए ये वाक्य कितने भीतर जाकर सुकून देते हैं, इसका अंदाजा बहुत कम लोगों को होगा. मैं एकदम अकेला हूँ, यह सोच इंसान को बिलकुल निराश कर देती है. इसी नैराश्य में कोई अपना सांत्वना देता है, तो बहुत बड़ा बोझ कम होता है. शब्दों की अपनी दुनिया है, इससे इंसान को कई बार इतना आत्मबल मिलता है कि वह ऊँचे पहाड़ लाँघने में भी देर नहीं करता. बस उसे यह पता रहे कि उसके साथ कोई न कोई है, वह अकेला कदापि नहीं है. पर प्यार के इन शब्दों को पाने के लिए क्या हमारे पास सचमुच इतना समय है? कोई व्यक्ति जब अपने हालात को बयाँ करता है, तो लोग यही कहते हैं कि ये तो फुरसतिया है, इसके पास अपने दु:ख बताने के सिवाय कोई काम नहीं है. हमारे पास तो इतना समय ही नहीं है कि इसके दु:ख सुनें. इस व्यक्ति के पास जाकर कोई उसका दु:ख भर सुन ले, मेरा विश्वास है कि उसे इससे काफी खुशी मिलेगी.
कई बार किसी के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती. बस थोड़ा सा समय निकालने की जरुरत होती है. यह हमेशा याद रखे कि एक इंसान को दूसरे इंसान से केवल कुछ वक्त की जरुरत होती है. किसी अपनों के ऑंसू पोंछने या किसी की पीठ थपथपाने के लिए यदि आपके पास समय नहीं है, तो दो पल का समय निकालकर विचार करें कि आप कहीं कोई भूल तो नहीं कर रहे हैं? मात्र दु:ख में ही नहीं, बल्कि सुख में भी अपनों की आवश्यकता होती है. कई बार ऐसा होता है कि दु:ख के समय तो सभी दौड़कर आते हैं, लेकिन सुख के समय कोई नहीं आता. इसी समय अपनों का साथ न मिलने से इंसान अकेला हो जाता है. एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि इंसान को दु:ख के समय जितनी अपनों की जरुरत होती है,उतनी ही सुख के समय भी होती है. किसी की सफलता पर उसे बधाई देने जाना और किसी के मरणोपरांत उसके परिजनों को सांत्वना देने जाना, दोनों ही महत्वपूर्ण है. दु:ख के समय इंसान अकेलापन ही चाहता है, पर सुख के समय वह अपने पास अपनों की चाहत रखता है.
इस स्थिति का सामना भारतवासियों से कहीं अधिक परदेश में रहने वाले भारतीय करते हैं. अमेरिका से आने वाले एक भारतीय का कहना था कि वहाँ सब कुछ है, पर कोई अपना नहीं है. काफी समय तो काम में निकल जाता है, पर फुरसत के समय उदासी घेर लेतीे है. मेरा कोई नहीं है, यह वेदना मानव को सबसे अधिक सालने वाली होती है. कई लोग अपनी जीवन संध्या में यह विचार करते हैं कि पूरा जीवन निकल गया, पर हम अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाए. आज जब वास्तव में हमें अपनों की आवश्यकता है, तब हमारे पास अकेलेपन के सिवाय कुछ भी नहीं है. इसी समय उन्हें लगता है कि जब हमने ही किसी को समय नहीं दिया, तो हमें कौन समय देगा? कोई हमारे लिए क्या करेगा, यह सोचने के बजाए यह सोचना चाहिए कि हमें क्या करना चाहिए? एक जगह स्वेट मार्डेन ने कहा है कि लोग यह कहने से नहीं चूकते कि समय चला गया, पर वास्तविकता यह है कि समय तो वहीं रहता है, केवल इंसान ही चला जाता है. समय मूल्यवान है, यह बात शत-प्रतिशत सच है, पर कई बार ऐसा होता है कि हमारा समय हमारे स्वयं के लिए मूल्यवान नहीं होता, किंतु किसी और के लिए इसकी कीमत कहीं अधिक होती है. जो इसे नहीं समझते, उन्हें कई बार इसकी काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है.
आप स्वयं विचार करें कि क्या आपके पास अपनों के लिए समय है? यदि नहीं है, तो यह मान ही लें कि आप भी अपने नहीं हैं. याने आप स्वयं को ही धोखा दे रहे हैं. ऐसे में अकबर इलाहाबादी याद आते हैं- सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा. इतना याद रखें कि एक पतंगे का जीवन कितना होता है, बस थोड़ी सी उम्र में ही वह पूरा जीवन जी लेता है. क्या हम उस पतंगे से भी गए बीते हैं. यह मत देखो कि एक ंजिंदगी में कितने पल होते हैं, बल्कि देखना यह चाहिए कि एक पल में कितनी ंजिंदगी होती है. ंजिंदगी छोटी हो, पर पूरी हो. लम्बी और अधूरी ंजिंदगी भला किस काम की? समय की चादर पर अपनों को बिठाएँ, फिर देखो जिंदगी और जिंदगी की धार......
डा. महेश परिमल
शनिवार, 24 नवंबर 2007
समय की चादर पर अपनों को बिठाएँ...
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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