? डॉ. महेश परिमल
किसी को ठिकाने लगाना, यह एक मुहावरा हो सकता है, पर सच तो यह है कि यह बहुत ही मुष्किल काम है। दुनिया में हर रोज सैकड़ों मौतें होती हैं, कुछ प्रकृति के नियम के अनुसार, तो कुछ प्रकृति के विरुध्द जाकर मौतें होती हैं, जिस तरह से मौतों का होना एक सच है, उसी तरह लाषों का ठिकाने लगना भी एक षाष्वत सत्य है। कुछ लाषें तो ठिकाने लगकर भी ठिकाने नहीं लग पाती हैं, तो लाषों को तुरंत ही ठिकाना मिल जाता है। इतना कहना का आषय यही है कि लाषों को ठिकाना ऐसे ही नहीं मिल जाता। उन्हें ठिकाने लगाने का काम जटायु के वंषज करते हैं। आज भी जब कभी हम आसमान पर गिध्द के झुंड दखते हैं, तो समझ जाते हैं कि कहीं कोई मृतदेह है, जिसका भोज वे सब मिलकर कर रहे हैं। पर अब ऐसा दृष्य कभी-कभी ही दिखाई देता है, क्योंकि आज जटायु के उन वंषजों के हाल बुरे हैं। अब तो उनकी लाषें को ही ठिकाने लगाना ही मुष्किल हो गया है। हमारी ऑंखों के सामने ही जटायु के वंषज विलुप्त होते जा रहे हैं, हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। हममें से ही एक डॉक्टर विभु प्रकाष के अथक प्रयासों से इस प्रजाति के अंडों को सहेजकर रखा गया, अब उसमें से बच्चे आ गए हैं और वे खुषी-खुषी बढ़ रहे हैं, यह हम सबके लिए आषा की किरण बनकर आए हैं।
हाल ही में स्वास्थ्य विभाग के एक सर्वेक्षण में बताया गया कि पिछले साल उत्तर भारत में 20 हजार से अधिक कुत्ते अचानक ही पागल हो गए, इन कुत्तों ने करीब एक लाख लोगों को काटा, परिणामस्वरूप् हजारों मौतें हो गई। वैसे भी हमारे देष में रेबीज के इंजेक्षन की कमी है, इसलिए सारे मरीजों को नहीं बचाया जा सका। कई लोग अनाम मौतें मर गए। पर किसी के ध्यान में यह नहीं आया कि अचानक ही इतने सारे कुत्ते पागल कैसे हो गए ? बाद में पता लगा कि कुत्तों के अचानक पागल होने का कारण यह था कि सभीे मिलकर किसी लावारिस लाष को ठिकाने लगाने के लिए भोज में षामिल हुए थे। भला कुत्ते ये काम क्यों करेंगे? वजह साफ थी कि यह काम गिध्द करते थे, पर जब वे ही नहीं रहे, तो फिर यह काम भला कौन करेगा? सो कुत्तों ने भोज किया और पागल हो गए।
किसी गाँव में किसी किसान का बैल मर जाए, या किसी की भैंस मर जाए, तो उसे जंगल में ऐसे ही फेंक दिया जाता है। बहुत ही दूरदृष्टि रखने वाले गिध्द को इसकी जानकारी सबसे पहले मिलती है। मृतदेह को देखने के बाद ये गिध्द बहुत ऊपर जाकर एक विषेष प्रकार की ध्वनि निकालते हैं, इससे आसपास के ही नहीं, बल्कि बहुत दूर के गिध्दों को पता चल जाता है कि कहीं कोई मृतदेह है, जिसे ठिकाने लगाना है। बस थोड़ी ही देर में लाष ठिकाने लग जाती है। इससे यह कहा जा सकता है कि प्रकृति ने गिध्द को पर्यावरण का रक्षक बनाकर हमारे पास भेजा है, जो मृतदेहों को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं। पर्यावरण के ये रक्षक ही आज हमारे समाज से सफाचट होने लगे हैं।
गिध्दों की संख्या में लगातार कमी आ रही है, इसकी जानकारी सबसे पहले तो पारसियों के माध्यम से पर्यावरणविदों को मिली। पारसियों में यह परम्परा है कि मृतदेह को वे न तो दफनाते हैं और न ही जलाते हैं। वे मृतदेहों को जाली लगे विषेष प्रकार के कुएँ में रख देते हैं, जिसे 'टॉवर ऑफ साइलेंस' या 'दोखमाना' कहा जाता है। इससे होता यह है कि गिध्द उस मृतदेह को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं। मुम्बई, सूरत, उदवाड़ा, नवसारी, अहमदाबाद आदि षहरों में इस तरह के स्थान हैं। पर इन स्थानों में गिध्द कम आने लगे, इससे उन्हें आषंका हुई कि गिध्दों की संख्या में अचानक कमी किस तरह से आई। तब उन्होंने इसकी सूचना पर्यावरणविदों एवं अन्य वैज्ञानिकों को दी।
गिध्दों की संख्या लगातार तेजी से कम होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि पषुओं को एक प्रकार का इंजेक्षन दिया जाता है, जिसका नाम है 'डाइक्लोफिनेक', यह एक दर्द निवारक दवाई है, जो पषुओं में सूजन कम करने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है। विदेषों में इसके स्थान पर ' मेलॉक्सिकेम' का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह हमारे देष में भी यह दवा आ गई है, किंतु इसकी कीमत अपेक्षाकृत दोगुनी होने के कारण इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री ने 'डाइक्लोफिनेक' के इस्तेमाल पर दो वर्ष पूर्व ही कहा था कि इस दवा का इस्तेमाल छह माह के अंदर ही बंद कर दिया जाए। इसके बाद भी यह दवा हमारे देष में खुले आम बिक रही है। अब आएँ कि यह दवा गिध्दों को किस तरह से प्रभावित कर रही है। हमारे गाँवों में जब भी किसी जानवर की मौत इलाज के दौरान हो जाती है, तब उसे यूँ ही जंगल में फेंक दिया जाता है। इसकी गंध गिध्दों को मिल जाती है और अनजाने में ही यह 'डाइक्लोफिनेक' उनके षरीर में प्रवेष कर जाती है। दो दिन बाद ही उन गिध्दों की मौत हो जाती है, क्योंकि उक्त दवा से गिध्दों की किडनी काम करना बंद कर देती है। 'मेलॉक्सिकेम' के इस्तेमाल से गिध्दों को कोई नुकसान नहीं होता। लेकिन 'मेलॉक्सिकेम' महँगी होने के कारण लोग उसे नहीं खरीदते और अनजाने में ही गिध्दों की मौत का कारण बन जाते हैं। इस दवा का असर यह होता है कि गिध्द तड़प-तड़प जान दे देते हैं। आष्चर्य इस बात का है कि प्रधानमंत्री के आदेष के बाद भी यह दवा भारतीय बाजारों में खुले आम बिक रही है।
गिध्दों की संख्या कम होने के कारण आज पषुओं के मृतदेहों सड़कर दुर्गन्ध फेलाते हैं। फिर उसमें से टीबी, एंथ्रेक्स आदि रोग फैलाने वाले विषाणु पैदा होते हैं। ये विषाणु मानव षरीर में घुसकर अन्य कई रोग पैदा करते हैं। केवल कुछ गिध्द जिस मृतदेह को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं, वही आज संख्या में कम होने के कारण हमारी ही मौत का कारण बन रहे हैं, इसका गुमान हमें अभी तो नहीं, पर निष्चित रूप से कुछ समय बाद ही पता चलेगा।
जब हमारे देष में कड़ाके की ठंडी पड़ती है, तब कुछ यायावर पक्षियों का आगमन होता है, इनमें से गिध्द की कुछ प्रजातियाँ भी षामिल होती हैं। जब इन पक्षियों का यहाँ से जाना हुआ, तब इंग्लैण्ड की 'रॉयल सोसायटी फॉर द प्रोटेक्षन ऑफ बड्र्स' और 'बड्र्स लाइफ इंटरनेषनल' जैसी संस्थाओं का ध्यान इस ओर गया। 1999 में इन संस्थाओं ने भारत सरकार का ध्यान इस दिषा में दिलाया। लेकिन इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। भारत सरकार की इस उदासीनता को देखते हुए ब्रिटिष सरकार ने गिध्दों के संरक्षण के लिए डेढ़ लाख पाउण्ड की सहायता की। इस राषि से हरियाणा की पिंजोर ब्रिडिंग सेंटर में पक्षी विषेषज्ञों ने गिध्दों के संरक्षण और उसकी वंषवृद्धि के लिए काम षुरू किया। लगातार काम के सकारात्मक परिणाम सामने आए। वैज्ञानिकों को विष्वास था कि उनके भगीरथ प्रयासों का असर कुछ वर्षों बाद ही दिखाई देगा, किंतु प्रकृति को मनुष्यों पर दया आर् गई। पिछले साल ही एक मादा गिध्द ने एक अंडा दिया, जिसकी खूब देखभाल की गई। इससे कुछ गिध्दों का जन्म हुआ। यह एक सुखद संयोग है कि गिध्दों की संख्या को बढ़ाने में यह प्रयास एक मील का पत्थर साबित हुआ है।
हमारे आसपास न जाने कितने पक्षी ऐसे हैं, जो प्रकृति की गोद में ही रहकर अपनी वंषवृद्धि करते हैं। गिध्द भी इसी स्वभाव का पक्षी है। वह बंधनावस्था में अपना संववन नहीं करते। पर पक्षी वैज्ञानिकों का संरक्षण्ा पाकर गिध्दों ने वंष परम्परा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। ब्रिडिंग सेंटर के प्रभारी डॉ. विभु प्रकाष का इस संबंध मे कहना है कि मादा गिध्द ने अंडे दिए, इसका आषय यही हुआ कि हमने उनकी वंषवृद्धि के लिए अनुकूल वातारण सेंटर में ही उपलब्ध कराए। इससे यह कहा जा सकता है कि भविष्य में हम गिध्दों की संख्या बढ़ाने में अपना योगदान दे सकते हैं।
डा. विभु प्रकाष के प्रयास सफल हों, यह केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के पक्षीविदों की इच्छा है। यदि ऐसा संभव होता है, तो निकट भविष्य में सुखद परिणाम सामने आएँगे, ऐसी आषा की जा सकती है।
डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 24 नवंबर 2007
कहाँ गए जटायु के वंषज: खतरे में हैं पर्यावरण के रक्षक
लेबल:
आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें