डॉ. महेश परिमल
बच्चों का गुड़ियों से विशेष लगाव होता है। बाल मनोविज्ञान कहता है कि गुड्डे और गुड़िया बच्चों के संसार में अपना अलग महत्व रखते हैं, बच्चे उन्हें अपने पास रखकर खुशी का अनुभव करते हैं, यह बच्चों के एकाकीपन को हरते हैं। बच्चे उनसे बातें करते हुए कल्पनाओं का एक अनूठा संसार बनाते हैं। कभी आपने सुनी है अपनी बिटिया की बातें, जो वह अपनी गुड़िया से करती है? आपके पास शायद इसके लिए समय ही नहीं होगा। आपका काम गुड़िया ला देने तक ही था, अब वह कैसी है और बिटिया उससे क्या-क्या बातें करती है, ये तो वही जाने।
जो पालक अपने बच्चों से दूर रहते हैं, वे इतने दूर होते हैं कि वे कभी अपने बच्चों के अनूठे संसार के साथी नहीं बन सकते। आगे चलकर उनका यह अनूठा संसार इतना विस्तृत हो जाता है कि उनमें केवल वही आ पाते हैं, जो उनके बचपन के साथी होते हैं। इसमें आजकल के माता-पिता तो कदापि नहीं होते। होते हैं केवल वही, जो उन्हें अपना मानते हैं, उनसे प्यार करते हैं या फिर उनकी गुड़िया को अच्छे लगते हैं। आज की भागम-भाग वाली जिंदगी में यह कहाँ? यह तो एक सपना ही है, जिसे केवल बच्चे ही देखते हैं।
मेरी दस साल की बिटिया ने उस दिन अपनी माँ पूछ लिया- माँ, यह तो बताओ कि ये गुड़िया इतनी छोटी-सी होने के बाद भी इतनी बड़ी क्यों दिखती है? बिटिया के लिए गुड़िया के बड़े होने का आशय उसकी ऊँचाई नहीं, बल्कि गुड़िया के शरीर का उभार था। उसकी गुड़िया निश्चित रूप से छोटी थी, पर चेहरे मोहरे से वह काफी बड़ी लग रही थी। बिटिया ने इसे ताड़ लिया और प्रश्न पूछकर माँ को निरुत्तर कर दिया। शायद आपसे भी आपकी बिटिया ने यह प्रश्न किया हो, पर आपको तो यह याद भी नहीं होगा। आओ, बिटिया के प्रश्न का हल ढूँढा जाए।
आज यदि हम गुड़िया के बाजार में चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि बच्चों की इन चीजों पर व्यावसायिकता का रंग चढ़ गया है। आज बाजार में मिलने वाली गुड़ियाएँ खेलने के लिए कम और शो-केस में रखने के लिए अधिक होती है। मुश्किल तब होती है, जब देखा-देखी में खरीदी गई गुड़िया की तरह सजने के लिए बिटिया तंग करती है, तो क्या उसकी यह इच्छा भी पूरी की जाए। चलो यह इच्छा पूरी कर दी जाए, पर यह क्या आवश्यक है कि अब वह इस तरह की कोई फरमाइश करेगी ही नहीं?
बच्चों का जमाना आज भी नहीं बदला। पहले भी बिटिया सात समंदर पार से गुडिया लाने की फरमाइश पापा से करती थी और आज भी नन्हीं बिटिया दूसरे शहर गए पापा से गुड़िया लेकर आने की जिद करती है, किंतु अब बिटिया की इस मनुहार से पापा असमंजस में पड़ जाते हैं कि उसके लिए क्या लेकर आए। वह इसलिए कि इस समय बाजार में जिस आकार-प्रकार की गुड़ियाएँ मिल रही हैं, वह खेलने की कम देखने की ज्यादा है। ये गुड़ियाएँ माता-पिता के मन में वितृष्णा के भाव जगाती हैं। इन्हें लेने से पहले माता-पिता अनेक बार इस संबंध में विचार करते हैं और फिर अपनी लाडली की जिद के आगे हार कर, न चाहते हुए भी ये 'मॉडल पीस' घर में आ ही जाता है।
हाल ही में 'बार्बी' डॉल का नया रूप 'विंक्स क्लब' के नाम से बाजार में आया है। इस ग्रुप में सात सदस्य हैं- स्टेला, फ्लोरा, मुसा, टेक्ना, ब्रेन्डॉन, आइसी और लायला। इन सभी की हेयर-स्टाइल, ड्रेस डिजाइन और शरीर का आकार सभी कुछ इतना आकर्षक है कि एकदम से यह बच्चों और बड़ों पर हावी हो जाते हैं। बाल-मन इन्हेें अपने खिलौनों के संसार में शामिल करना चाहता है, किंतु इनकी आसमान छूती किंमतें माता-पिता को बहाने बनाने को विवश कर देती हैं। इस ग्रुप की किसी गुड़िया की किंमत 749 रुपए है, तो किसी की 899 रुपए। यदि छोटे आकार की बार्बी ली जाए, तो नई आई प्रिसेंस बार्बी की किंमत 599 रुपए है। बड़े आकार की प्रिसेंस बार्बी आपको 3999 रुपए में आराम से मिल जाएगी। हाँ, यह तो रही सिर्फ बार्बी की किंमत। इनके साथ मिलने वाली ऐसेसरीज की किंमत तो अलग से तय है। केवल बच्चों की खुशी के लिए और अपने स्टेटस को बनाए रखने के लिए पडाेसी की देखा-देखी खिलौने लेते माता-पिता भी अब विचार करने लगे हैं कि इन्हें बच्चों के संसार का हिस्सा बनाया जाए या नहीं?
मनोवैज्ञानिक डॉ. काकोली रॉय का तो स्पष्ट कहना है कि अब मिलने वाली गुड़ियाओं का रूप-रंग खेलने के लिए रहे ही नहीं। न ही इनका उददेश्य खेलना रहा है। चूंकि यह एक ह्यूमन फिगर होता है, इसलिए इसका उपयोग भले न हो, पर गलत उपयोग तो अवश्य होगा। शेप और कट के कारण ये गुडियाएँ बच्चों के कोमल मन पर बुरा प्रभाव डालती हैं। वे कहती हैं कि आज जो खिलौने आ रहे हैं, उनका बच्चों की वास्तविक जिंदगी से सीधा जुड़ाव दिखाई देता है। काल्पनिक खेलों का महत्व कम हो गया है। पहले के खिलौने बच्चों को एक सृजन संसार देते थे, वे काल्पनिक लोक में विचरण करते थे, उनके भीतर सकारात्मकता जागती थी, किंतु अब ये सभी चीजें गायब हो गई हैं। रह गई है, तो केवल वास्तविकता, जो कि कम उम्र में ही बच्चों पर अपना अधिकार जमा लेती है और बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं।
वास्तविकता की चकाचाैंध से भरे इस बाजार में निश्चित तौर पर फायदा तो विदेशी कंपनियों का ही होता है, क्योंकि वे हजारों का मुनाफा कमाती हैं, लेकिन भारतीय बच्चों के मानस पर अनजाने में ही वे किस तरह से अपना खेल खेल रही हैं, इस ओर माता-पिता का ध्यान अभी नहीं गया है।
आज की गुड़िया में ममतामयी और स्नेहिल भाव ढूँढे नहीं मिलता। इसके बदले उनमें दिखती है सेक्स अपील। छोटी सी गुड़िया के उरोजों के उभार, पतली कमर, घुटनों से ऊपर तक का स्कर्ट, भड़कीला मेकअप और तीखे नाक-नक्श ये सभी चीजें बच्चों को एक मायावी संसार में ले जाते हैं, जहाँ जाकर उनकी सोच को विराम नहीं मिलता। उपरोक्त चीजों की तलाश में ये गुड़ियाएँ अनजाने में ही बच्चों का रोल मॉडल बनती जा रही हैं। बच्चे अपने साथियों में भी इन्हीं की छवि तलाशते हैं। ऐसे में पढ़ाई से मन उचटना स्वाभाविक है।
हाट बाजार में मिलने वाली मिट्टी और प्लास्टिक की गुड़िया के दिन लद गए। अब बाजार में इन्हीं बार्बी डॉल का बोलबाला है। ग्रामीण बच्चों के लिए भी बार्बी शब्द अजाना नहीं रहा। केबल के माध्यम से पसरती विदेशी संस्कृति की झलक अब गाँवों में भी देखने को मिल रही है। इस चकाचौंध में बाल-मन की मनोभावनाएँ दब कर रह गई हैं। उन्हें समझने का कोई सार्थक प्रयास हमारे समाज में नहीं हो रहा है। बच्चे बिगड़ रहे हैं, यह सभी जानते हैं, पर बच्चे क्यों बिगड़ रहे हैं यह कोई नहीं जानता। क्या आप जानते हैं?
डॉ. महेश परिमल
सोमवार, 26 नवंबर 2007
छोटी-सी गुड़िया के बड़े-बड़े नखरे
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बच्चों का कोना
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने । आज से १५ वर्ष पूर्व तक तो बार्बी के साथ साथ, बिल्कुल नवजात शिशु सी हँसने व रोने वाली गुड़िया भी मिलती थीं । सस्ते मंहगे हर तरह के बर्तन ,भी मिलते थे । अब पता नहीं । परन्तु मुझे विश्वास है कि ढूँढने पर गुड़िया जैसी गुड़िया भी मिल ही जाएगी । नहीं तो सॉफ्ट टॉयज तो हैं हीं इनमें भी गुड़िया मिलती हैं । मेरी बेटियों के पास बहुत प्रकार की गुड़ियाँ थीं, बार्बी परिवार भी । मुझे उनपर कोई विपरीत प्रभाव पड़ा यह तो नहीं दिखता । आम लड़कियों से भी कम फैशनपसन्द व बेहद संवेदनशील हैं वे । शायद उन्हें मेरा पूरा समय मिला, यह भी एक कारण हो सकता है । फिर भी आपकी चिन्ता सही है ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
आपकी टिप्पणियों के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.
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