डा. महेश परिमल
'नानक दुखिया सब संसार' इस बात पर ध्यान दिया जाए, तो संसार में कोई भी सुखी नहीं है. सब दु:खी हैं. सबके अपने-अपने दु:ख हैं. किसी को छोटा दु:ख है, तो किसी को बड़ा दु:ख. ऑंसू के साथ आने वाले दु:ख अस्थायी होते हैं. ऐसे दु:ख ऑंसुओं के साथ आते हैं और उसी के साथ चले भी जाते हैं. ये बार-बार आते हैं और ऑंसुओं के समंदर में डुबकी लगाकर चले भी जाते हैं. इंसान को सुख से अधिक दु:ख साथ देता है. सुख एक मेहमान की तरह होता है, आता है और चला भी जाता है. फिर भी लोग उसी सुख की तलाश में भटकते रहते हैं. पर जिन्हें उसकी तलाश नहीं होती, वे इसी दु:ख में रहकर भी दूसरों के जीवन में खुशियों के फूल बिखेरते रहते हैं.
दु:ख की नदिया पार करते हुए यदि प्रसन्नता के कुछ पल चुरा लिए जाएँ, तो यह एक उपलष्टिध हो सकती है. वैसे यह भी एक शाश्वत सत्य है कि दूसरों के दु:ख से कोई दु:खी नहीं होता, बल्कि दूसरों की खुशी से हर कोई दु:खी होता है. कोई फंर्क नहीं पड़ता अब हमें, कि हमारे पड़ोसी के बच्चे आज भूखे ही सो गए हैं, हमारी काम वाली बाई का बच्चा कई दिनों तक बुखार में तपकर आज चल बसा. यह सुनकर हम भले ही अपने बच्चे की ओर अधिक ध्यान देना शुरू कर दें, पर दूसरे किस-किस तरह के दु:ख से होकर गुंजर रहे हैं, यह हम जानना ही नहीं चाहते. दूसरों को ठंड में ठिठुरता देख हम एक और लिहाफ अपने ऊपर डाल लेते है. चिलचिलाती गर्मी में लोगों को झुलसता देखकर अपने घर में एक और ए.सी. लगा लेते हैं. बारिश में किसी का घर ढहता देखकर हम अपना घर और पक्का करने में जुट जाते हैं.
हमारे हृदय के तार मस्तिष्क की संवेदनाओं से टूटने लगे हैं. ठंडे बंद कमरे में बाल मंजदूरों की भयावह स्थिति पर गरमा-गरम चर्चा कर सकते हैं. इसी बीच कोल्ड्रींक लाने वाले बच्चे की किसी गलती पर उसे दो थप्पड़ रसीद करने में हमें ंजरा भी दु:ख या संकोच नहीं होता. किसानों की समस्याओं पर बात करने के लिए जिन्हें प्रतिनिधि के रूप में निमंत्रित किया जाता है, वे बड़े-बड़े फार्म हाउस के मालिक होते हैं. उन्हें देखकर हमें ंजरा भी आश्चर्य या दु:ख नहीं होता. बच्चों के लिए किताबें लिखने वालों की टीम में एक भी बच्चा नहीं होता. इसमें जिनकी रचनाएँ होती हैं, वे किसी अधिकारी की होती हैं, या उनके रिश्तेदारों की. जो शायद बच्चों के बारे में अधिक जानते हैं.
आजकल एक नए तरह का दु:ख हमारे समाज में पनपने लगा है. वह दु:ख ऐसा है कि जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता. यह दु:ख प्रतिद्वंद्विता का नहीं है, यह दु:ख धन के अभाव का भी नहीं है, यह दु:ख प्रतिस्पर्धा का भी नहीं है. यह दु:ख है, पहचान खत्म होने का. मेरे एक मित्र अपने फील्ड में चर्चित थे. उन्हें दूसरी फील्ड में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला. वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया जिसके अच्छे परिणाम आए. सम्मानजनक वेतन और अन्य सुविधाएँ. सबकुछ बेहतर था, वे अपनी इस स्थिति से प्रसन्न भी थे. अचानक उन्हें लगा कि अब उनकी वह पहचान नहीं रही, जो पहले थी. अब तो लोग उन्हें पहले के क्षेत्र का सफल व्यक्ति भी मानने को तैयार नहीं थे. उन्हें लगा कि मेरी पहचान खत्म होने लगी है. ये उनका दु:ख था, जो उन्हें लगातार साल रहा था. उनकी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. अपनी घटती लोकप्रियता का पता उन्हें तब चला, जब उनके पास दीपावली पर प्राप्त उपहारों की संख्या कम दिखी. इसे उन्होंने अपना मापदंड मान लिया. इसलिए वे और अधिक दु:खी रहने लगे.
ऐसे कई दु:ख हो सकते हैं, जो व्यक्ति को अकेला कर रहे हैं. इन दु:खों के बीच वे यह मानते हैं, कि उनका दु:ख सबसे बड़ा है. इसका कोई समाधान भी नहीं है. इसका समाधान पहले वाली स्थिति में पहुँच जाना ही है. ऐसे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि दूसरी फील्ड में जाकर जब उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला, तो उनके लिए यह एक चुनौती थी, जिसे उन्होंने स्वीकारा. उनके कार्य की प्रशंसा होने लगी, स्वयं उनका भी आत्मिक विकास हुआ. एक विशेष समाज में उनकी आवभगत बढ़ गई. लोगों की नंजर में वे और भी सम्मानीय हो गए. एक ही फील्ड में सफल होते रहने का ठप्पा उनके व्यक्तित्व से हट गया. यह एक अच्ठी बात हुई. जिसे वे समझ नहीं पा रहे हैं.
आज समाज में कई तरह के दु:ख सामने आने लगे हैं. सभी अपने दु:ख को सबसे बड़ा मानते हैं. उनका मानना हे कि हमारे पास पहले से ही इतने अधिक दु:ख हैं कि हम अब और कोई दु:ख झेलना नहीं चाहते. ऐसे मेें कोई केवल खुशियाँ ही खुशियाँ बाँटे, तो लोग उससेर् ईष्या करेंगे. यह सोचकर कि कहाँ से ले आता है, ये इंसान इतनी सारी खुशियाँ? लोग यह भूल जाते हैं कि वे भी एक इंसान हैं उन्होंने अपने दु:ख की तिलांजलि देकर लोगों को खुशियों लुटाने में अपनी खुशी देखते हैं. उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम है कि उसका दु:ख सुनने वाला कोई नहीं है, हाँ उसकी खुशियों में हर कोई शरीक हो सकता है. इसलिए वे कुछ पल खुशियों के बटोर लेते हैं और बाँट देते हैं. इससे उनकी खुशी दोगुनी हो जाती है. वे इसे फिर बाँट देते हैं. खुशियाँ फिर बढ़ जाती हैं.
प्रसन्नता एक अनुभूति है, जिसे कुछ श्रम से प्राप्त किया जा सकता है. श्रम ऐसा कि दु:ख इंसान का सच्चा साथी है. जब तक यह है, खुशी कैसी होती है, इसका अहसास होता रहेगा. क्योंकि छाया है, इसलिए धूप है. अंधेरा है, इसलिए उजास है, तो क्यों न दोनों को साथ-साथ लेकर चला जाए. दूसरों के दु:खों को आत्मसात् करते हुए उनका दु:ख ले लिया जाए, तो उनके पास केवल खुशियाँ ही बचेंगी. वे इसी खुशी में जीना सीख लेंगे. लोगों को भले ही खुशियाँ न दो, पर उनके दु:खों को अपना लो, तो यही बहुत बड़ी बात है. अनुभव की कड़वी दवा शरीर के भीतर गई, शरीर का विकार नष्ट हो गया, दु:खरूपी कष्ट निकल गया और खुशी ने अपना घर बना लिया. अतिरिक्त प्रसन्नता की बात ही कहाँ रह जाती है? महात्मा ऐसा ही करते हैं. वे लोगों को दु:खों से दूर कर देते हैं, खुशियाँ अपने-आप उनके करीब चली आती हैं.
तो यह है खुशियाें का संसार, जहाँ दु:ख कुछ अधिक ही आक्रामक लगता है. खुशियाँ मेहमान बनकर आती हैं. पर ऐसा नहीं है. हमें दु:ख को ही मेहमान मान लेना चाहिए. खुशियाँ अपने आप बढ़ने लगेंगी.
डा. महेश परिमल
गुरुवार, 8 नवंबर 2007
मेरा तेरा उसका दु:ख
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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