मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारतीय सेना के माथे पर ‘आदर्श’ कलंक



डॉ. महेश परिमल

राजनीति की बिसात में अशोक चौहान बलि का बकरा बन गए। लेकिन इस ‘आदर्श’ घपले में बहुत से नाम ऐसे हैं, जिनका नाम हम सब अब तक गर्व से लिया करते हैं। राजनीति के नाम से होने वाले इस घपले में सेना के कई अधिकारी भी जुड़े हैं। यदि पूरे मामले की ईमानदारी से जाँच की जाए, तो कई ऐसे चौंकाने वाले नाम आएँगे, जिससे पूरा देश ही शर्मसार होगा। राजनेताओं ने अपने स्वार्थ की रोटी सेंकी, तो अधिकारियों ने अपने अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया। जिसने ीाी ‘आदर्श’ में अपना सहयोग दिया, उसे उपकृत किया गया। फिर चाहे वह राजनीति के माध्यम से हो या फिर सेना के माध्यम से। आठ करोड़ का फ्लैट 80 लाख में भला कौन लेना नहीं चाहेगा?
वास्तव में देखा जाए, तो इस आदर्श घपले में महाराष्ट्र के राजनेताओं के बाद उच्च अधिकारियों और सेना के अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसमें सभी दल के राजनेता भी शामिल हैं, जो आपस में आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं। शुरू से शुरू करने के लिए हमें 11 वर्ष पीछे जाना होगा। तब महाराष्ट्र में सत्ता शिवसेना के हाथ में थी। मुख्यमंत्री थे नारायण राणो। इन्होंने सेना की जमीन पर आवासीय भवन तैयार करने की अनुमति सबसे पहले दी। पहले गुनहगार तो ये हैं। इसके बाद महाराष्ट्र-कांग्रेस एनसीपी का शासन आया और विलासराव देशमुख ने मुख्यमंत्री पद सँभाला। इन्होंने उक्त जमीन पर निर्माण कार्य की अनुमति दी। ये दूसरे गुनहगार हुए। इसके बाद सुशील कुमार श्ंिादे ने यहाँ पर 6 मंजिल से 31 मंजिल बनाने की अनुमति देकर तीसरे गुनहगार हुए। इसके बाद ही आए, अशोक चौहान। इन्होंने यहाँ बनने वाले फ्लैटों में 40 प्रतिशत फ्लैट्स असैनिकों को देने की अनुमति दी। यह रास्ता निकालकर उन्होंने अपनों को उपकृत करने का फैसला किया। कालांतर उनकी यह करतूत सामने आ गई और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। सवाल यह उठता है कि गाज केवल अशोक चौहान पर ही क्यों गिरी? क्या शेष राजनेता बेदाग हैं? उन्होंने इस यज्ञ में अपने कार्यो की आहूति नहीं दी? आखिर उन्हें क्यों छोड़ दिया गया?
इस आदर्श कांड में सबसे बड़ी भूमिका तो हमारे देश के सैन्य अधिकारियों की है। जिन पर हम नाज करते हैं कि उनसे ही देश की सीमाएँ सुरक्षित हैं। देश के लिए जान देने में ये सबसे आगे होते हैं। पश्चिम बंगाल में सुकना जमीन कांड के कारण सैन्य अधिकारियों की धवल चादर पर काला दाग लगा था। आदर्श कांड के बाद यह दाग और भी गहरा गया। सुकना जमीन कांड में सेना के पूर्व जनरल दीपक कपूर का नाम सामने आया था। आदर्श कांड में उन्हें फ्लैट दिया गया है। जनरल दीपक कपूर करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं। आवक से अधिक धन रखने के मामले में उन पर केस चल रहा है। उनके साथ सेना के ही एक अन्य अधिकारी एन.सी. वीज का नाम भी लिया जा रहा है। नौका दल के पूर्व अध्यक्ष एडमिरल माधवेंद्र सिंह भी इस कांड में शामिल हैं। मूल रूप से सेना की जमीन महराष्ट्र सरकार को तश्तरी में मिल गई। जमीन सरकार को मिलने में निश्चित रूप से सेना की उक्त तीनों अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इससे सेना की कितनी बदनामी हुई, क्या यह जानने की कोशिश कभी होगी? दूसरी ओर सेना के साथ ही धोखाधड़ी का भी मामला बनता है। सेना के इन भूतपूर्व अधिकारियों ने किस तरह से अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया। आदर्श में इन तीनों अधिकारियों को फ्लट्स दिए गए हैं। चूँकि उपरोक्त तीनों अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इनका कोर्ट मार्शल तो नहीं हो सकता, पर क्या इनके खिलाफ सीबीआई भी जाँच नहीं कर सकती? यदि जाँच में ये दोषी पाए जाते हैं, तो इन्हें भी सजा होनी चाहिए।
आदर्श हाउसिंग सोसायटी को जो जमीन दी गई थी, वह वास्तव में रक्षा विभाग की थी। इस पर सेना का कब्जा था। सन् 2000 में इस जमीन को ‘आदर्श’ के नाम पर तब्दील करने के लिए जनरल आफिसर कमांडिंग की मंजूरी आवश्यक थी। इसे मंजूर कराने में मेजर जनरल तेज किशन कौले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय श्री कौल सब एरिया कमांडर थे। इस जमीन को सोसायटी को देने में तमाम कागजी कार्यवाही पूरी करने में इन्होंने खूब मेहनत की। इसका विरोध भी हुआ, पर उन्हें फ्लैट देकर शांत कर दिया गया। इसमें भी कौल ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब यह ‘आदर्श’ कांड आकार ले रहा था, तब ब्रिगेडियर तारा कांत सिंह गुजरात और महाराष्ट्र के कर्नल थे। ‘आदर्श’ सौदे के जितने भी सवाल पूछे गए, उनके जवाब बड़ी चतुराई से दिए गए, जिससे विरोधियों की बोलती बंद हो गई। इस दौरान लेफ्टिनेंट जनरल तेजिंदर सिंह महाराष्ट्र और गुजरात के जनरल ऑफिसर ऑफ कमाडिंग के पद पर थे। इसके बाद ही वे कर्नल कमाडेंट ऑफ द गार्डस रेजिमेंट बने। जब यह मामला बाहर आया, उसके कुछ समय बाद ही वे रिटायर्ड हो गए। उन्हें भी इस सोसायटी में फ्लैट मिला। इसके बाद तो सोसायटी को जितनी भी मंजूरी मिलनी थी, वह सब धड़ाधड़ मिलती गई। मेजर जनरल आर.के. हुड्डा तीन महीने पहले ही मुंबई के कमांडर थे। उनकी भूमिका की भी जाँच की जा रही है। रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार इस कांड में भारतीय सेना के करीब 40 उच्च अधिकारियों की मिलीभगत है। इन सबके खिलाफ जाँच के आदेश जारी हो चुके हैं। यदि जाँच ईमानदारी के साथ हो, तो कई चेहरे बेनकाब हो सकते हैं।

मायानगरी में इतना बड़ा कांड हो, तो यह संभव ही नहीं कि इसमें सरकारी कर्मचारियों की सहायता न ली जाए। इसमें महाराष्ट्र के चीफ सेक्रेटरी से लेकर मुंबई म्युनिसिपल कमिश्नर और आयकर आयुक्त भी शामिल हैं। जिन्हें आदर्श सोसायटी में फ्लैट्स मिले हैं, उनके रिश्तेदारों की सूची बनाई जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें कौन-कौन से अधिकारी शामिल हैं। वैसे भी मुंबई जैसे महानगर में इतना बड़ा घोटाला करना हो, तो एक-एक संबंधित सरकारी विभाग के छोटे-छोटे बाबुओं की भी सहायता लेनी पड़ती है। इनके उच्चधिकारियों के बिना विभाग का पत्ता भी नहीं हिलता। इन्हें भी कुछ न कुछ तो मिला ही होगा। इसके अलावा कई आईएएस अधिकारी भी इसमें शामिल हैं। जब आदर्श सोसायटी को अनुमति मिली, तब मुंबई म्युनिसिपल कमिश्नर जयराज फाटक थे। पहले इसे 30 मंजिला भवन बनाने की अनुमति मुंबई महानगरपालिका की उच्चस्तरीय कमेटी ने दी थी। किंतु बाद में 31 वीं मंजिल भी बनाने की अनुमति मिल गई। इसके बदले में जयराज फाटक के पुत्र कनिष्क फाटक को एक फ्लैट आदर्श में मिल गया। यह भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है।
आदर्श सोसायटी के मामले में शहरी विकास सचित रामानंद तिवारी भी भागीदार हैं। सन् 2004 में जब इस सोसायटी को और 12 मंजिल बनाने की अनुमति मिली, तो उसके बाजू के प्लाट की एफआईसी माँगी गई थी। यह प्लाट बेस्ट कंपनी के लिए बस स्टैंड बनाने के लिए सुरक्षित रखा गया था। इस आवेदन को रामानंद तिवारी ने रिजेक्ट कर दिया। इसके बाद 2005 में बाजू के प्लाट पर आदश्र का कब्जा हो गया। इसके बदले में तिवारी के पुत्र ओंकार तिवारी को आदर्श में एक फ्लैट मिल गया। उस समय बेस्ट के जनरल मैनेजर उत्तम खोब्रागड़े थे, उन्होंने आवेदन रिजेक्ट होने के खिलाफ मुँह नहीं खोला, इसके बदले में उनकी सुपुत्री देवयानी को एक फ्लैट मिल गया। 2004 में प्रदीप व्यास मुंबई के कलेक्टर थे। चूँकि आदर्श को जमीन असंवैधानिक तरीके से दी गई थी, इसलिए कलेक्टरा की पुत्री सीमा को भी एक फ्लैट मिल गया। महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्य सचिव डी.के. शंकरन के पुत्र संजय को भी आदर्श में एक फ्लैट मिला है, क्योंकि जब शंकरन महसूल विभाग में थे, तब उन्होंने आदर्श को अनुमति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हमारे देश के लिए यह घोटाला एक आदर्श है। क्यांेकि इसमें सरकारी विभाग भी भ्रष्टाचार में पूरी तरह से लिप्त दिखाई दे रहा है। यह घोटाला केवल राजनेताओं का ही होता, तो एक बार दब भी जाता, पर इसमें तो उच्चधिकारियों का भी समावेश है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि इसकी गूँज दूर तक सुनाई देगी। वैसे सभी दोषियों को सलाखों के पीछे धकेल देना न्यायसंगत होगा। देखना यह है कि इस घोटाले में कौन किस तरह से बच निकलता है। वैसे सरकार को इस दिशा में कड़े कदम उठाने ही होंगे, क्योंकि यदि यह भवन सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से लोगों के लिए खतरा है, तो इसे जमींदोज करना ही मुनासिब होगा। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? दोषी सलाखों के पीछे होंगे, आखिर इस बहती गंगा में किसने हाथ धोए हैं? इस तरह के अनेक प्रश्न लोगों को मथ रहे हैं
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 13 नवंबर 2010

मोहल्ला टाइप का एक मोहल्ला



अनुज खरे

हमारे एक रूटीन किस्म के पिताजी हैं। एक परंपरागत किस्म की माताजी हैं। एक भाईनुमा भाई है। एक बहन प्रवृति की बहन भी हैं। कुछ सामान है, यानी पूरा घर, घर किस्म का है। हमारा घर एक मोहल्लेटाइप के मोहल्ले में रहता है। मोहल्ले में भाईचारा किस्म की पुरातन व्यवस्थाओं का अस्तित्व भी पाया जाता है। मोहल्ले में कुछ ढोर भी हैं, जिनकी प्रवृति जानवरोंे के समान है। एक घूरा है जिसके दिन नहीं फिरे हैं। एक चक्की है जहां आटा पीसा जाता है। चक्की चलाने वाले एक भाई साब हैं जो आटा पीसने से बचे समय का सद्प्रयोग लव लेटर लिखने में करते हैं। कई बार तौलने वाले कांटे पर एक तरह आटे का कनस्तर दूसरी तरफ लव लेटर रखकर शब्दों के वजन तौलते हैं। हर बार पीपा ही वजनी निकलता है। अपने शब्दों में कम वजन और महंगा गेहूं देखकर वे लव मैरिज करने का साहस लंबे समय से नहीं जुटा पा रहे हैं। चक्की चलाते समय उनमें इतनी बुनियादी समझ तो आ ही गई है कि कच्ची उमर के प्यार की निरंतरता भविष्य में आटे की आबाध आपूर्ति क्षमता पर निर्भर है। इसके अलावा मोहल्ले में एक किराने की दुकान है जहां मिलावट भी होती है। डंडी भी मारी जाती है। बेइज्जती भी होती है। कई मजदूरों के घरों में शाम का खाना इसी दुकान के बलबूते बनता है। लोग मानते हैं कि बनिया कमीना है लेकिन ससुरा उधार तो देता है इसलिए आदर के काबिल तो है। तो इसलिए लोग आदर देते हैं वो उधार देता है बरसों से लेन-देन का ये संबंध इसी तरह चला आ रहा है।
हमारे मोहल्ले में एक फिक्स चबूतरा है जहां मोहल्ले के आवारा बुजुर्ग बैठते हैं। महिलाओं को घूरते हैं। बहुओं की बुराइयां करते हैं। उनके पिछलग्गू बनने पर अपने-अपने लड़कों को गालियां देते हैं। लगातार अपान वायु का विसर्जन करते हैं और फिर एक-दूसरे की तरफ शक की निगाहों से देखते हैं। लेकिन बैठते रोज हैं, जीवन की संध्या में एक-दूसरे के भरोसे यूं ही उनका जीवन चल रहा है। मोहल्ले में ही परंपरागत रूप से एक हैंडपंप है जहां पुश्तैनी आधार पर पानी भरने को लेकर झगड़ा चलता रहता है। हैंडपंप के पास बहुत सारे ईंट के टुकड़े पड़े हैं। जो पुरानी लड़ाइयों के काम आ चुके हैं। बर्तन मांजने और नई लड़ाइयों के काम आते हैं। मोहल्ले में एक हैयर कटिंग की एक दुकान है। जहां मालिश करने, चुगलखोरी करने के अलावा बीच-बीच में बाल भी काटे जाते हैं। दाढ़ी भी बनाई जाती है। मोहल्ले की कई लड़इयों में बुनियादी तौर पर योगदान दे चुकने के बाद भी रामभरोसे नऊआ का हर घर में आदर है। घर-घर बुलउआ देने का काम उसी के हवाले है। हमारे इस मोहल्ले में एक कुत्ता भी रहता है, जिसका एकमात्र उपयोग परंपरागत आधार पर मोहल्ले के बूढ़े अपने वर्तमान लड़के और उसके बीच, उसे ज्यादा वफादार बताने में करते हैं।
प्राचीनकालीन रुमानी कथाओं की तरह मोहल्ले में एक जवान मास्टरनी भी रहती हैं। जिन पर सबकी नजर है। मोहल्ले के लड़कों को अधिकांश समय उन्हें लाइन मारने में कटता है। रिटायर्ड लोगों का अधिकांश समय उनकी बदचलनी के किस्से सुना-सुना कर पास होता है। कुछ संजीदा किस्म के लोग मास्टरनी को इन सारी बातों की जानकारी देकर किसी जरूरत के समय अपने होने के बारे में सूचित करते हैं। अतिरिक्त सुरक्षा के रूप में अपनी छोटी बहन जैसा मानने का इरादा भी लगातार दोहराते हैं। हालांकि मास्टरनी को किसी की जरूरत पड़ती नहीं। कालांतर में संजीदा किस्म के लोग भी मायूस होकर रिटायर्ड किस्म वाली गतिविधियों में उतर आते हैं।
यूं तो मोहल्ले में फूट भी है, लेकिन जब कभी बाहर के मोहल्ले से आकर कोई लड़का किसी लड़की को लाइन मारता है तो सब एकजुट हो जाते हैं। बुजुर्ग उसके पिता को समझाने में निकल लेते हैं। लड़के उस बाहरी आक्रांता लड़के को पीटने की प्लानिंग बनाने में जुट जाते हैं। उस दौरान सबका भाईचारा और सह्दयता देखते ही बनती है। चाय या समोसे के पैसे के लिए कहना नहीं पड़ता कोई भी चुका देता है। मोहल्ले की लड़की है, गंभीर विमर्श चल रहा है, पैसे की क्या बात। इसी मामले में मोहल्ले की महिलाएं उसके छिप-छिपकर मिलने के किस्सों पर विचार गोष्ठि आयोजित कर लेती हैं। सबसे बड़ा बज्रपात तो मोहल्ले के उन लड़कों पर होता है जिनका अपनी तरफ से पचास परसेंट प्यार लड़की से चल रहा होता है वे बेचारे बैठे-बिठाए एकतरफा देवदास हो जाते हैं। शेविंग करवाना बंद कर देते हैं। रामभरोसे नऊवा की ऐसी ही नियमित ग्राहकी कम होती है, तो उसके संबंध में उनकी दुकान पर इतनी गहनता से विमर्श चलता है कि कुछ ही दिनों में पूरा मोहल्ला जान लेता है कि लड़की तो एक नंबर की आवार है। इसका तो कइयों से चक्कर था। इतने गंभीर आयोजन का नतीजा कुछ यूं निकलता है कि भले ही लड़की लाख मना करे कि वो किसी लड़के को नहीं जानती लेकिन घरवालों उसकी पहरेदारी और आवन-जावन के लिए इंतजाम किए बिना नहीं मानते। हालांकि उनका बस नहीं चलता अन्यथा तो लड़की की माताजी क्लास में भी उसके साथ बैठना शुरू कर दें। लड़की को तो पता तक नहीं चलता कि सारा मोहल्ला उसे बदचलन मानने लगा है। ऐसी बातें सुनकर लड़की से ज्यादा सदमे में तो उनका कथित प्रेमी आ जाता है। खुद को भाग्यशाली भी मानता है कि मैं कहां फंसने वाला था। तो हमारा इतना प्यारा मोहल्ला है कि बिना कुछ किए ही हर किस्म की हरकत को करता है।
इसी मोहल्ले में कई घरों में ताजे पति रहते हैं। शर्माने-लजाने में अपनी पत्नियों से बढ़कर हैं। अड़ोस-पड़ोस को लोगों के आने पर वे इतना शर्माते हैं जैसे वे नवब्याहता हों। इनके विपरीत इलाके में छुट्टा सांड़ किस्म के कुछ पुराने पति भी रहते हैं। जो पत्नियां को घर की मुर्गियां मानते हैं। लेकिन दूसरे की पत्नियों के प्रति उनका आदर गजब का है। अपनी निजी पत्नी को छोड़कर दूसरी सभी पत्नियों को पतिव्रता मानते हैं। उनके सतित्व की दुहाई उनके पति से ज्यादा विश्वास के साथ दे सकते हैं। किसी से कुछ नहीं सीखते लेकिन अपनी पत्नी को नई दिखने वाली हर महिला से आदर्श सीखने के बारे में निरंतर सूचित करते रहते हैं। मोहल्ले में आस-पड़ोस के घरों में लड़ाई और भाईचारे की परंपरागत किस्में भी पाई जाती हैं। परंपरागत यूं कि झगड़े के कारण शाश्वत हैं। घर का कूड़ा दूसरे के घर के आगे डाला तो लड़ाई, अपने बच्चे को बाजू वाले ने मारा तो मार-कुटाई, उनकी लड़की का किसी लड़के से नैन मटक्का चला तो ताने, हमारे लड़के से चला तो अपनी लड़की को संभालो, हमारे लड़के को बिगाड़ रही है किस्म के फिकरे। बाउंड्रीवॉल बनाने को लेकर रार, ऊपर बताए मामलों में से किसी एक आधार पर ठन चुकी पुश्तैनी दुश्मनी निभाने की परंपरा। भाईचारे की परंपरागत किस्मों के अंतर्गत मोहल्ले के दूसरे घरों की बुराई करने का स्नेहिल आयोजन, मेहमानों के आने पर छोटी बहन जैसी है कहकर मिलाने का फैशन, नमक से लेकर शक्कर तक हक से उधार मांगने की आदतें, बिटिया की शादी में पूरे मोहल्ले के लग जाने की फुरसतिया प्रवृतियां। मेहमानों के आने पर दूसरे घरों से खाने के बर्तनों के सैट मांगने जैसा भरपूर भव्य प्रयास। यानी परंपरा को खुद में समेटे एक मोहल्ले जैसा प्रवृति रखने वाला मोहल्ला हमारे यहां अभी भी सांस ले रहा है। फड़फड़ा रहा है। डूब रहा है। उतरा रहा है, लेकिन अपनी हरकतें छोड़ने से बाज नहीं आ रहा है।
हमारे मोहल्ले में त्योहार भी मनाए जाते हैं। इन त्योहारों को सब मिलजुलकर मनाते हैं। कमेटी बनाते हैं। चंदा भी एकट्ठा करते हैं। कमेटी में हर कोई इस बात पर एकमत है कि जो कमेटी में नहीं है उसके घर से सबसे ज्यादा चंदा लिया जाना चाहिए। हर घर से कोई ना कोई कमेटी में होता ही है। चंदा जोरदार होता है। त्योहार जमकर मनाया जाता है। बाद में अगले त्योहार तक कमेटी चंदा खाने को लेकर आपस में लड़ती है। अगले त्योहार पर फिर कमेटी बनती है। चंदा होता है। हर घर से कोई न कोई कमेटी में आता है। झगड़ा भी होता है पर मजाल है कि आपस में जरा सा भी मनमुटाव हो। चंदा करके त्योहार मनाने के बारे में सब एकमत हैं। इस तरह हमने प्राचीन संस्कृति को जिंदा कर रखा है। चंदा संस्कृतियों को जिंदा रखने में बेहद उपयोगी है। शहरों में लोग आपसी ठसक के कारण चंदा मांगते नहीं हैं इस कारण वहां से संस्कृति का लोप हो रहा है। लोग राजनैतिक पार्टियों तक से नहीं सीखते कि वे कैसे चंदे के बल पर अपनी समस्त प्रकार की अंदरूनी संस्कृति को जीवित रखे हैं। जागो मोहल्लो, ग्राम, कस्बों संस्कृति की खातिर जागो। चंदा करो। संस्कृति की रक्षा करो। अन्यथा हमारे जैसे कुछ मोहल्ले अपने एकल प्रयासों से क्या खाकर पूरे देश की संस्कृति को बचा पाएंगे। खैर, बात चल रही कि हमारा मोहल्ला बिलकुल ही अलग किसम की मोहल्ले जैसी चीज है। हर राष्ट्रीय समस्या पर पर्याप्त रूप से स्थानीय तौर पर चिंतित है।
हमारे मोहल्ले में यूं तो एक पार्क भी है। जो मुख्यत: दिन में आवारा लोगों के सोने, रात में जुआ खेलने के काम आता है। बीच-बीच में जब कभी वहां फूल-पत्तियां उग आती हैं तो ढोर भी मुंह मार देते हैं। कभी यहां झूले और फिसलपट्टियां भी लगाई गई होंगी जो अब कभी हम बुलंद इमारत थे-जीवन फानी है, संसार नश्वर है, जो आएगा सो जाएगा, खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाएंगे,माया जोड़ने से लाभ नहीं, टाइप की दार्शनिक बातों का इश्तेहार भर बन के रह गई हैं। पार्क का गेट बंधनमुक्त हो चुका है। यानी हर आदमी या जानवर चाहे जब घुस सकता है। पार्क में सही में एक फूल दो माली हैं। दूसरा माली चौकीदार भी है। फूल एक ही है वो भी बेशरम का है। मूलत: उगा तो पार्क के बाहर है लेकिन डाल अंदर को झुकी हुई है। सो पार्क की प्रॉपर्टी होने का भ्रम देती है। दो मालियों में से दिन की पाली वाला माली पार्क के नल से जरूरतमंदों और टैंकरवालों को पानी बेचता है। रातवाली पाली का चौकीदार, चौकीदारी के अलावा चिलम पीता है। चिलम और गांजे की महफिल सजाकर पूरे पार्क के मच्छरों को मोहल्ले के घरों की तरफ ढकेल देता है। पेशे के प्रति इतना ईमानदार है कि कभी रात को सोता नहीं है। पूरी रात सुट्टे लगाता रहता है। सुबह पांच बजे चिमनी बंद करता है तो फिर आठ बजे तक खांसता है। कई घरों में लोग धुआं देखकर मॉनिर्ंग वॉक और खांसना सुनकर ऑफिस के लिए तैयार होना शुरू कर देते हैं। पार्क का अस्तित्व इसलिए है कि मोहल्ला है। मोहल्ला पार्क का उपयोग पता बताने के लिए करता है। भले ही उजाड़ हो लेकिन पार्क मुस्तैदी से पता बताने में अपना अविस्मरणीय योगदान दे रहा है। पार्क और मोहल्ले में युग-युगांतर का संबंध है। जब तक मोहल्ला है, पार्क की कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाई जाएंगी। भले बाद में रसूखदार वहां अतिक्रमण कर लें या बिल्डर इमारतें खड़ी कर दें। लोग भले ही कुछ न करें लेकिन पार्क को अपनी यादों में जिंदा रखने की भरपूर कोशिश तो जरूर ही करेंगे। क्योंकि लोग और क्या कर सकते हैं या क्यों करें।
हमारे मोहल्ले के बीच से एक गंदा नाला भी बहता है। नाले स्वच्छ भी होते हैं इसके बारे में मेरी जानकारी सीमित है। नाले के साथ गंदा शब्द कब से जोड़ा गया, कब से कहा जा रहा है यह रहस्य ही है। लेकिन हमारे मोहल्ले का ये नाला, गंदे नाले के रूप में ही आदर पाता रहा है। आदर इसलिए कि पूरे शहर में ये मोहल्ला गंदे नाले वाले मोहल्ले के रूप में ख्याति प्राप्त है। पूरे शहर के लिए मच्छरों का उत्पादन अकेला ही कर देता है। ये नाला मोहल्ले के रुमानी जीवन का भी हिस्सा रहा है। सैकड़ों कहानियां इसी नाले के किनारे घटित हुई हैं। प्यार की दर्जनों प्लानिंगें इसी नाले के पाट पर बनाई गई हैं। मामला ठीक-ठाक न बैठने पर कई उपहार गुस्से में इसी नाले में फेंके गए हैं। प्रेमिका की कहीं और शादी होने पर उसके घरवालों से बदला लेने के लिए गंगा मइया की कसम की तरह की कई कसमें इसी नाले के आसपास खाई गई हैं। मार के नाले में फेंक देंगे..टाइप के शाश्वत डॉयलाग भी बोले गए हैं। नाले में बहने वाली विभिन्न वस्तुओं की तुलना भी झगड़ने वालों ने एक-दूसरे से की है। नाली के स्थान पर नाले के कीड़े टाइप के अशुद्ध वाक्य भी इसी की कृपा से प्रचलन में आए हैं।
इतना भयंकर मोहल्ला होने के बावजूद आजतक इस मोहल्ले के किसी बुजुर्ग के साथ बद्तमीजी नहीं की, किसी बच्चे ने किसी बड़े के साथ कभी बेअदबी नहीं की है। बूढ़े हो जाने पर घरों में उनकी कद्र की गई है। किसी बुजुर्ग ने कभी खुद को कमजोर नहीं समझा, 80 साल के हो जाने पर भी 55 साल के बेटे को डांटने और तमाचा मारने का साहस यहां के सभी बुजुर्गो में रहा है। किसी लड़के ने भी कभी डांट खाकर मजाल है कि कभी बाप को पलटकर जवाब दिया हो हमेशा गुस्सा अंदर जाकर पत्नी पर ही निकाला है।
इस तरह लड़ते-झगड़ते, पीढ़ियों साथ रहते, पुश्तैनी दुश्मनियां और मुंहबोली रिश्तेदारियां निभाते रहने वाला करेले के हलवे जैसा टेस्टी हमारा मोहल्ला केवल हमारे मोहल्ले में पाया जाता है। आपका मोहल्ला भी ऐसा ही है तो सौभाग्य मानिए।
ऐसी भागम-भाग और आत्मकेंद््िरत होते जमाने के दौर में आज कहीं मिलते हैं इतने प्यारे मोहल्ले.. सच कहिओ, तुम्हें उसी जवान मास्टरनी की कसम..,उस गंदे नाले की कसम.., तुम्हें तुम्हारे मोहल्ले की कसम..।
अनुज खरे

बुधवार, 10 नवंबर 2010

हिंदी भाषा और बंगाले का जादू

स्टीमर चल दिया था। हुगली के पानी को चीरते हुए, छोटे-बड़े जहाजों के पास से गुजरते हुए हम लोग बोटेनिकल गार्डन की ओर जा रहे थे। कमल जोशी, बरुआ शर्मा, त्रिपाठी-पूरा एक दल उस दिन पिकनिक मनाने निकला था। हम लोग ब्वायलर के नजदीक खड़े थे और आँच लगने से पसीना आ रहा था। मैं अलग जाकर रेलिंग के सहारे अकेला खड़ा हो गया। जाने कितनी बातें मन में घूम रही थीं। विशेषतया शरत बाबू के ‘पाथेर दावी’ के पात्र, उस के जहाजी, उस के खानाबदोश क्रांतिकारी उस पार की जूट मिलों के धुएँ में दिखाई पड़ते थे और छिप जाते थे। सहसा मेरी नजर स्टीमर में सामने लगी एक तख्ती पर पड़ी। उस पर नागरी अक्षरों में लिखा था- ‘फांस की लास।’ ‘फांस की लास’ क्या है? इस में ‘की’ तो मैं समझता था, हिंदी की एक विभक्ति है। लेकिन ‘फांस’ कौन सी चीज है? उस की ‘लास’ क्या हो सकती है? शरत, पथेर दावी, सब्यसांची, अपूर्व सभी भूल गए और उस तख्ती पर मेरा ध्यान अटक गया। मैंने हिंदी की सभी उपभाषाओं के शब्दों का स्मरण किया था। आप सच मानिए, मैं कितनी कम हिंन्दी जानता हूं इस का ज्ञान मुझे उसी दिन हुआ। अब मन में बड़ी झिझक कि किसी से पूछूँ तो क्या कहेगा? आखिरकार मैंने किसी तरह हिम्मत बाँधी और श्री शिवनारायण शर्मा से पूछा: ‘यह क्या लिखा है?’
‘‘यह? तुम नहीं समझे? यह है ‘फस्र्ट क्लास!’ स्टीमर का फस्र्ट क्लास।’’
‘फस्र्ट क्लास!’ मैं तो आसमान से गिर पड़ा। मैंने सोच, मैं अभी दौड़कर सुनीति बाबू के बंगले पर जाऊंँ और उनके दरवाजे पर सत्याग्रह कर दूं कि ‘देवता! अपनी भाषा विज्ञान की पुस्तकों में आप ने कहीं उस नियम का उल्लेख नहीं किया, जिसके अनुसार फस्र्ट क्लास का रूपांतर ‘फांस की लास’ हो जाता है।’
लेकिन मेरे कलकत्तेवासी मित्रों ने बताया कि ऐसी हिंदी कलकत्ते वालों के लिए कोई नई बात नहीं। बंगाल ने भारतीय संस्कृति को जो अमूल्य देनें दी हैं, उनमें से एक यह भी है। उन्होंने अपनी भाषा में तो जो किया उस की बात जाने दीजिए, वे अगर चाहें तो ऐसी हिंदी लिख दें कि बड़े-बड़े हिंदी वाले गच्च खा जाएँ और उस का कोई तात्पर्य न निकले। इसी को हमारे पूर्वज बंगाल का जादू कहते हैं। छूमंतर किया कि भाषा बदल गई। आप के सामने कुछ नमूने पेश करता हूं।
मैं उम्मीद करता हूं कि आप जूते पहनते ही होंगे। अपने तो खैर पहनते ही होंगे। भूले-भटके दूसरों के जूतों में भी कभी-कभी पाँव चला जाता होगा। आप जूते के तल्ले, जूते की पॉलिश, जूते की ठोकर, जूते की एड़ी वगैरह से भी परिचित होंगे। लेकिन क्या आप बता सकते हैं ‘जूते का मेरा मात’ कौन चीज होती है? सोचिए। मैं शर्त लगा सकता हूं कि आप हिंदी के बड़े से बड़े शब्द उलट डालिए, बाटा की हर एजेंसी में पूछ आइए, मुहल्ले के बूढ़े से बूढ़े मोची से हाथ जोड़ कर यह भेद माँगिए, पर आप को ‘जूते का मेरा मात’ का पता नहीं चलेगा। लेकिन कलकत्ते जाइए, वहां आपको बंगालियों की जूते की दुकानों पर अक्सर लिखा हुआ मिलेगा- ‘इआहां जूता का मेरा मात हाए।’ इसको यदि आप खड़ी बोली में अनूदित करें तो इस का अर्थ होगा- ‘यहां जूते की मरम्मत होती है।’
अगर आप बहुत संर्कीणमना हैं, आपमें प्रांतीयता की भावना है तो आप बंगालियों की निंदा करने लगेंगे कि ये लोग हिंदी का रूप बिगाड़ते हैं। लेकिन यह आपका अन्याय है। वास्तव में ये लोग उसे अपने सुसंस्कृत ढंग से लिखते हैं और उन्होंने हिंदी भाषा को जैसे नए-नए शब्द रूप और व्याकरण-तत्व दिए हैं, उस के लिए आप का सिर अहसान के बोझ से झुका होना चाहिए, उस के बजाए आप उन की निंदा करेंगे? अगर इसे कृतघ्नता नहीं कहेंगे तो और किसे कहेंगे?
एक हुए हैं ग्रियर्सन। सर जॉर्ज ग्रियर्सन। उन्होंने 20 मोटे-मोटे ग्रंथों में देश भर की भाषाओं का और हिंदी की तमाम उपभाषाओं का उल्लेख किया है, परिचय दिया है, नमूना दिया है, लेकिन हिंदी के इस बंगाली रूप को वे बिल्कुल छोड़ गए। इस को सिवा पक्षपात के और क्या कहा जाए।
बंगाली लोग हिंदी के शब्दों को कैसे सुधार कर सुंदर बना देते हैं, इस का दूसरा नमूना लीजिए। हिंदी में ‘फायदा’ बहुत प्रचलित है। लंबा-चौड़ा, बेडौल, बेतुका। बंगालियों ने उसे सुधार दिया है। कलकत्ते के सुंदर होमियो हॉल की नोटिस में कोई जी प्रसाद के खत का उल्लेख है जो कहते हैं- ‘आप के यहां का दवा व्यवहार कर के मुझे बहुत फैदा हुआ।’
देखिए- जरा से परिवर्तन से शब्द कितना सुंदर हो गया। आप मान लीजिए आप कोई कविता लिख रहे हैं। पंक्ति के अंत में ‘शैदा’ आता है। आप तुक ढूंढते-ढूंढते परेशान हैं। ‘मैदा’ या ‘पैदा’ के अलावा कोई तुक ही नहीं मिलती। अब आप चाहें ठाट से ‘फैदा’ रखकर चार पंक्तियों का पत्र पूरा कर लें। शैदा, मैेदा, पैदा, फैदा, अगर सुंदर होमियो हाल के बंगाली नोटिस लेखक ने फायदा शब्द का यह नया रूप आपके सामने न रखा होता, तो आप कितना सिर पटकते, आप की कविता कभी पूरी न होती और आप कवि बनने से वंचित रह गए होते।
खैर, यह तो एक-आध शब्द या एक-आध वाक्य का नमूना है। लेकिन, यदि एक पूरा गद्यांश इस भाषा में लिखा जाए, तब तो सौंदर्य का जादू भाषा पर छा जाता है। मैं तो उस अभूतपूर्व सौंदर्य से पूर्णतया वंचित रह जाता, अगर उस दिन मेरे प्रिय मित्र श्री नेमिचंद्र जैन ने मेरा ध्यान एक नोटिस की ओर नहीं दिलाया होता। यह नोटिस 13 खारापट्टी स्ट्रीट, कलकत्ता के कविराज श्री अमूल्य धनपाल की एक विशेष दवा की नोटिस थी, जो पता नहीं नेमि जी को कहां से प्राप्त हो गई थी और अमूल्य धनपाल की उस नोटिस को अमूल्य धन की तरह सहेजे रखे हुए थे।
उस नोटिस में सबसे ऊपर अंग्रेजी, बीच में बंगाली और सबसे नीचे हिंदी में विज्ञापन था जिस की अविकल प्रतिलिपि इस प्रकार है:
कलिकत्ता सरकारी मेडिकल कॉलेज से मोलाहाजा हो कर तारिफ हुआ सोने का मेडल मिला और सारकर में रेजेष्टारी हुआ।

बैंगल शटी फुड
लड़का भाले का बीमारी आदमी का सिरिफ एही हाल को श्री पोष्टाई खाना है, बांगला गभर्णमंेट का इनस्पेक्टर जनार अब सिभिल हस्पिटाल समूह हिन्दुस्तान का फुड पड्राक्ट का प्रदर्शनी, बड़े-बड़े डॉक्टर कविराज लोगों ने इस फुड की सिपरास किया है। खाने का तरकिब- इस फुड का एक भाग बौ 16 भाग इया पानी अच्छी तरह मिला कर माटी, इनामेल इया एलमिनियम का बर्तन में 10 मिनिट तक पोकाय के पारा चिनि इया मिश्रि मिला कर तब। 15 मिनिट बाद उतारने होगा। ठांडा होने से खाना।
श्री अमुल्य धनपाल।
आफिस- 13 खारापट्टी स्ट्रीट
कलिकत्ता
जेनारेल मारचेंट अरडार सापलवर एंड केमिसन एजण्ट
अब चाहें हिंदी के आलोचक मानें या न मानें, लेकिन कविराज अमूल्य धनपाल ने हिंदी गद्य के बड़े-बड़े शैलीकारों का घमंड तोड़ दिया है। यह है बंगाले का जादू। आप लाख साफ-सुथरी हिंदी लिखंे, लेकिन यह रवानीं, सह असर आप की भाषा में नहीं आ सकता। पहली बार यह भाषा पढ़ कर मुझ पर क्या असर हुआ, अगर मैं उसी शैली में असफल रूप से कहने का प्रयास करूं तो इस प्रकार होगा।
‘नेमि बाबू की दुकान में नोटिस पढ़ा इया देखना भर से दिमाग ठंडा होनपा। बेहोसी होता होता बचा। भागा तब।’
मैं तो साहब सोच रहा हूं कि अगर अपनी शैली में वही जोर लाना है तो कम से कम बंगल शटी फुड ‘पोकाय’ के खाना तो शुरू ही कर दूं। मैं हिंदी के अन्य गद्य लेखकों से भी इसी का ‘सिप्रास’ करता हूँ।
(ठेले पर हिमालय से साभार)
धर्मवीर भारती

शनिवार, 6 नवंबर 2010

दीप पर्व की अशेष शुभकामनाऍं

मोती सा त्त्‍योहार दिवाली

ज्‍योति का त्‍योहार दिवाली

दीप जलें ,जगमग जगमग

रोशन हर घर में खुशहाली

यही कामना सच हों सपने

रहे न कोई पुलाव ख्‍याली

चकाचौंध में, भूल न जाना

कुछ रातें हैं, अब भी काली












गुरुवार, 4 नवंबर 2010

हमारे आसपास बढ़ता चाणक्य नीति का महत्व



डॉ. महेश परिमल
आज देश की राजनीति का स्वरूप लगातार बदल रहा है। नहीं बदल रहा है, तो वह है नेताओं का चरित्र। इतना अवश्य जान लें कि जिस देश के राजनेता राजनीति के मूल सिद्धांतों को अच्छी तरह समझकर उसे अमल में लाएँगे, तो उस देश की प्रजा उतनी ही अधिक सुखी होगी और शासन यशस्वी बनेंगे। यह सच आज भारतीय राजनीति से बहुत दूर है। यहाँ प्रजा तो सुखी नहीं है, अलबत्ता राजनेता अपनी भावी पीढ़ियों के साथ बहुत ही अधिक खुश हैं। इन दिनों पूरे विश्व में अचानक कौटिल्य के अर्थशास्त्र की माँग बढ़ गई है। विदेशों के तथाकथित मैनेजमेंट गुरु भी कंपनियों के सफल संचालन के लिए कौटिल्य के सूत्र वाक्यों को अमल में लाने लगे हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो लोकप्रिय है ही, इसके अलावा राजनीति पर उनकी लिखी किताब भी महत्वपूर्ण है। आज कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तरह चाणक्यनीति भी विख्यात है। सबसे पहले यह भ्रम दूर कर लें कि चाणक्य और कौटिल्य अलग-अलग हैं। वास्तव में चाणक्य और कौटिल्य एक ही व्यक्ति का नाम है।
जब भी कहीं चाणक्य राजनीति की बात आती है, तब हम समझते हैं कि यह किताब कुटिलता से भरपूर होगी। इसमें यह बताया गया होगा कि किस तरह से राजनीति में प्रतिद्वंद्वी को परास्त करें और सत्ता हासिल करें। चाणक्यनीति के बारे में यह हमारी भूल है कि हम ऐसा समझते हैं। दरअसल चाणक्यनीति के मूल में स्वार्थ नहीं, बल्कि परमार्थ है। यही कारण है कि चाणक्य ने अपने ग्रंथ के पहले ही श्लोक में तीन लोकों के नाथ ईश्वर को प्रणाम कर अपने ग्रंथ का मंगलाचरण करते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना ही चाणक्य की राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यदि किसी भी शासक को राजनीति में सफल होना है, तो उसे ईश्वर के अस्तित्व और धर्म के मूलभूत सिद्धांतों में श्रद्धा रखनी होगी।
आज हमारे देश में सांप्रदायिक ताकतें लगातार बलशाली होती जा रहीं हैं। इसके रहते कोई भी शासक सफल नहीं हो सकता। इसे ही ध्यान में रखकर अपनी दूरदर्शिता दिखाते हुए चाणक्य ने ग्रंथ लिखा। अपने ग्रंथ के बारे में चाणक्य पूरी तरह से स्पष्ट हैं। चाणक्य कहते हैं ‘मैं यहाँ प्रजा के कल्याण के लिए राजनीति के ऐसे रहस्यों का उद्घाटन करुँगा, जिसे जानने के बाद व्यक्ति सर्वज्ञ बन जाएगा।’ यहाँ पर चाणक्य ने व्यक्ति के लिए जिस सर्वज्ञ शब्द कहा है, उसका आशय यही है कि ऐसा व्यक्ति संसार के सभी व्यवहारों को समझने लगेगा, अर्थात वह पूर्णत: व्यावहारिक हो जाएगा। उसका संबंध आध्यात्मिक जगत के साथ नहीं होगा। आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करने वाले तो महात्मा होते हैं। चाणक्य दावे के साथ कहते हैं कि जो व्यक्ति मेरे ग्रंथ से राजनीति के इस विज्ञान को समझेगा, वही प्रजा का कल्याण कर पाएगा। चाणक्य ने यहाँ पर ज्ञान नहीं, बल्कि विज्ञान शब्द का प्रयोग किया है। राजनीति के सिद्धांतों का अभ्यास करने की क्रिया को ही ज्ञान कहा जाता है। इसे समाज के एक-एक व्यक्ति के हित में उसका उपयोग करना विज्ञान कहलाता है। ज्ञान की अपेक्षा विज्ञान अधिक सारगर्भित है। चाणक्य यह दावा नहीं करते कि इस ग्रंथ में जो कुछ लिखा गया है, वह मौलिक है। पहले ही श्लोक में वे कहते हैं कि अनेक शास्त्रों में से चुन-चुनकर राजनीति की बातों का संपादित किया है। इस वाक्य में ही चाणक्य की ईमानदारी और पारदर्शिता झलकती है। आज का युग चाणक्य के पाठकों को अँधेरे में रखना नहीं चाहता। वे स्पष्ट रूप से कुबूल करते हैं कि मैंने तो राजनीति के सिद्धांतों का संकलन ही किया है। इस तरह से संकलित कर चाणक्य ने अनेक पूर्व महर्षियो के ज्ञान की धरोहर को जीवंत रखा है और हम तक उसे पहुँचाने का पुण्य कार्य किया है।
किसी भी ग्रंथ को पढ़ने और उसे अमल में लाने के पहले हमें यह जान लेना आवश्यक है कि इस ग्रंथ का अभ्यास करने से हमें क्या लाभ होगा? चाणक्य ने पने ग्रंथ के प्रारंभ में ही इस प्रश्न का उत्तर दे दिया है। चाणक्य कहते हैं कि इस नीतिशास्त्र को सही अर्थो में समझा है, तो वे यह अच्छी तरह से जान जाएँगे कि कौन-सा कार्य अच्छा है और कौन-सा बुरा। इस माध्यम से उन्होंेने उत्तम मनुष्य की व्याख्या भी कर दी है। उत्तम मनुष्य उसे कहते हैं, जो नीतिशास्त्र केमूल सिद्धांतों को स्वयं अमल में लाए, उसके आधार पर प्रजा को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, यह भी स्पष्ट हो जाएगा। ईष्ट क्या है और अनिष्ट कय है, इसका भी बोध यह ग्रंथ कराएगा। चाणक्य का नीतिशास्त्र प्रजा को सुखी बनाने का शास्त्र है। कोई भी व्यक्ति, जो सुखी होना चाहता है, उसे जीवन को दु:खी बनाने वाले तत्वों की पहचान पहले कर लेनी चाहिए। चाणक्य का नीतिशास्त्र बहुत ही व्यावहारिक बातें करता है। इसी कारण सुख के साधनों की तलाश करने के बदले दु:ख पैदा करने वाले साधनों को पहचान लेना चाहिए, ताकि सुख प्राप्त करने में ये तत्व बाधक न बनें। आखिर कहाँ हैं ये दु:ख देने वाले तत्व? चाणक्य कहते हैं ‘मूर्ख व्यक्ति को दिया जाने वाला उपदेश, कुलटा स्त्री का भरण-पोषण और दु:खी लोगों का संसर्ग विद्वानों को भीे दु:खी बना देता है। ’ जिसे सुखी होना है, उसे कभी भी मूर्ख व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए। कुलटा स्त्री का भरण-पोषण नहीं करना चाहिए। यहाँ पर दुखियारों की मदद करना निषेध नहीं माना है, पर उसके साथ रहने का निषेध किया गया है। क्योंकि उसका संक्रमण अवश्य होगा।

जैन शास्त्रों में भी लिखा गया है कि मूर्ख व्यक्ति को उपदेश देना ऐसा है, जैसे खुजली वाले कुत्ते के शरीर पर चंदन का लेप मलना। ये बेकार की मेहनत है। इसका कोई परिणाम नहीं निकलेगा। इससे निराशा ही मिलती है। बारिश में भीगने वाले बंदर से पेड़ के पक्षियों ने घोसला बनाने की सलाह दी। इससे क्रोधित होकर बंदर ने पक्षियों के घोसलों को ही नष्ट कर दिया। सइी तरह कुलटा स्त्री साँप की तरह है, जिसे दूध पिलाकर हम यह समझें कि हमने उस पर दया की। जो दया करने वाले के प्रति फादारी नहीं कर सकती, उसका भरण-पोषण करना पति का कर्तव्य नहीं है। आज का कानून भी पति से बेवफाई करने वाली स्त्री से तलाक लेने की सलाह देता है। दु:खी मनुष्यों में से एक प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। इस कारण ऐसे लोगों के साथ रहने वाला भी निराशावादी हो जाता है। जिन्हें आशावादी बनना हो, उसे आशावादियों के साथ रहना चाहिए। सोहबत का असर इंसानों पर ही सबसे पहले होता है। यह चाणक्य बहुत पहले कह गए हैं।
बाद के श्लोक में चाणक्य मनुष्य के जीवन के लिए सबसे अधिक हानिकारक चार तत्वों की बात करते हैं। चाणक्य कहते हैं ‘दुष्ट पत्नी, शठ मित्र, आज्ञा न मानने वाले नौकर और घर में बसने वाला साँप’ ये चारों मृत्यु के समान हैं। पति और पत्नी संसाररूपी रथ के दो पहिए है, यदि पत्नी दुष्ट हो, तो जीवन के हर कदम पर अवरोध पैदा होते हैं और संसार का यह रथ बराबर चल नहीं पाता। रणभूमि पर शत्रुओं का वीरतापूर्वक मुकाबला करने वाला पराक्रमी योद्धा भी पत्नी के सामने लाचार बन जाता है। दुष्ट पत्नी अपने पति के लिए अभिशाप होती है। वह सज्जन पुरुष का जीवन हराम कर देती है। पत्नी दुष्ट हो, तो घर से सुख-शांति हमेशा के लिए चली जाती है। जिस घर में शांति न हो, उसका समाज में भी कोई मान-सम्मान नहीं होता। पत्नी बेवफा हो, तो अरबों की दौलत भी सुख नहीं दे सकती।
इंसान की सबसे बड़ी पूँजी उसकी संतान और मित्र है। जिन्हें अच्छे मित्र मिले, वह विश्व का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति है। जिन्हें धूर्त मित्र मिले हैं, वह विश्व का सबसे बड़ा दुर्भाग्यशाली व्यक्ति है। मनुष्य किसी भी व्यक्ति के साथ मित्रता करे, तब उसे उसके दुगरुणों के बारे में जानकारी नहीं होती, उसे यह विश्वास होता है कि मुसीबत के समय सहायता करने वालों में यही सबसे आगे होगा। मित्र तो सहायता करेगा ही। वास्तव में जीवन में जब बाधाएँ आती हैं और तब हमने मित्र से सहायता की अपेक्षा रखी हो, तभी वह धोखा दे जाए, तो कैसा लगता है? समाज में दूसरे लोग हमारे साथ धोखाधड़ी करते हैं, तब हमें आघात नहीं लगता, पर जब मित्र ही हमसे धोखा करने लगे, तो उस आघात को सहना बहुत ही मुश्किल होता है। इसी तरह मालिक का आदेश न मानने वाला नौकर भी खतरनाक होता है। घर में जब मेहमान आएँ हो, उस समय यदि उसे कोई आदेश दिया जाए, तभी नौकर सेठ का अपमान कर दे, तो यह बात सेठ के लिए बहुत ही अधिक आघातजनक होगी।
लोग यह दलील देते हैं कि चाणक्य आज से 2400 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। उसके समय की राजनीति और आज की राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है। तो उसका जवाब यह है कि चाणक्य ने अपने ग्रंथ में राजनीति के शाश्वत सिद्धांतों की चर्चा की है। राजनीति के साथ-साथ उन्होंने समाजशास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को भी समझाया है। यह सिद्धांत प्राचीन काल में जितने प्रासंगिक थे, आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। देश में राजशाही हो या लोकशाही, पर राजनीति के सिद्धांत कभी नहीं बदलते। जो राजनेता सिद्धांतों की जानकारी प्राप्त कर लेते है, वे अपने आप को देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सकते हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

मायके गई पत्नी को लिखा गया भैरंट लेटर



अनुज खरे

प्रिय पत्नी जी,
सादर प्रणाम। सादर प्रणाम इसलिए कि आपकी दिशा में किए गए मेरे सारे काम सादर एवं साष्टांग अवस्था में ही होते हैं। उपरोक्त तथ्य आपको पता ही है, लेकिन मेरे लिए आश्चर्य दूसरों के लिए सत्य कि यह तथ्य सर्वविदित है। आगे समाचार यह कि तुम्हारे बिना घर सूना-सूना सा लग रहा है। कुछ जलनखोर इसे खिजा में बहार आ गई बताते हैं (हालांकि खिजा का मतलब क्या है मुझे नहीं पता, लेकिन गुरु शब्द तो वाकई जोरदार है।) कुछ शुभचिंतक इस मरघट में शांति आ गई बताते हैं। दोनों ही उदाहरणों के माध्यम से मुझे लोगों के चरित्र और शिक्षा-दीक्षा के लेबल का पता चल रहा है। लोग गिरे हुए हैं एक पत्नी वियोगी को इस तरह की समझाइश दे रहे हैं। हालांकि लोगों को कसूर नहीं है देश की शिक्षा व्यवस्था की कमजोरी के कारण ही लोग इस विशिष्ट परिस्थिति के लिए कोई खास शब्द या उदासीनतामूलक वाक्य नहीं रच पाए हैं। लेकिन हर खामी के लिए देश को जिम्मेदार ठहराना या देश ही जिम्मेदार होता है, किस्म के वाक्य जरूर खूब रच लिए गए हैं। पूरा देश किसी भी तरह की समस्या आने पर बेखटके इन वाक्यों के प्रयोग पर पूरी तरह एकमत है। तो जाहिरा तौर पर लोग इस संदर्भ में गिरे हुए माने जाएंगे।
और प्रिये एक्सक्यूज मी!, यहां शिक्षा-दीक्षा के तरन्नुम में दीक्षा का जिक्र फिजूल में ही आ गया है। मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। जैसा कि तुम आज तक नहीं मानती हो। उससे मेरा कोई संबंध नहीं है। उसकी कजरारी आंखों बड़ी-बड़ी जरूर थीं लेकिन मैं उनमें नहीं डूबा। उसकी मुस्कान बड़ी कंटीली जरूर थी लेकिन मैं उनसे घायल नहीं हुआ। उसकी नाक बड़ी सुंदर जरूर थी लेकिन उसके साथ रासरंग रचाकर अपनी नाक नहीं कटवाई है। उसके हाथ कमल के फूल जैसे जरूर थे लेकिन मैं उन्हें थामने के लिए कीचड़ में नहीं उतरा। उसके पैर बड़े खूबसूरत थे लेकिन मैंने कभी ‘इन्हें जमीन पर मत रखिए मैले हो जाएंगे’ टाइप के डायलॉग नहीं बोले। हालांकि मुझे याद है जिस दिन उसकी शादी हुई थी तुम कितनी खुश थीं, उस दिन तुमने हलवा-पूरी के साथ खीर भी बनाई थी। कितना आग्रह करके तुमने सब खिलाया था। कितना स्वादिष्ट था उस दिन का खाना, वाह!। कितनी करारी थीं पूरियां अहा!। कितना धांसू अंदाज था तुम्हारे परोसने का उफ्फ!। कितना दुखी सीन था दीक्षा के विदा के समय का, ओह!।
खैर, मुद्दे पर लौटें। जब से तुम गईं हो रसोई का बुरा हाल है। बर्तन उदास हैं। मसालेदानी चीत्कार कर रही है। जिस मूंग की दाल को तुमने मुझे बिना नागा खिलाया था उसका डिब्बा अब उपेक्षित सा महसूस कर रहा है। जिस काली मिर्च के गुण बता-बताकर उसे हर चीज में डालती थीं उसका वो तीखापन जाता रहा है। मिक्सी अपनी स्थिति को लेकर सांसत में है। जिन बाइयों के चेहरे घर में घुसते समय कुम्हला जाते थे उनमें नई चमक और अतिरिक्त रौनक दिखाई दे रही है। उनका डर जाता रहा है। घी के डिब्बे का स्तर रोज घट रहा है, तो सब्जियां आ रही हैं, जा कहां रही हैं पता नहीं चल रहा है। कल ही जिस मूली को आधा खाकर मैंने रखा था आज पत्तियों के रूप में केवल उसके अवशेष मिले हैं। परसों ही जेब में रखी चिल्लर गायब हो चुकी है। हालांकि खुशी इस बात की है कि रुपए सुरक्षित हैं। जा चिल्लर ही रही है। कोई दुष्ट नोटों को छोड़ चिल्लर पर ही नजर गढ़ाए है। और हां, आचार कहीं तुम्हारे वियोग में अपने ही बचे-खुचे तेल में डूबकर आत्महत्या न कर ले। आ जाओ प्रिये, उनकी फफूंदी दूर करो, उनका वर्तमान संवारो, उन्हें भविष्य का नया जीवन दो।

आगे सब ठीक है, लेकिन दूसरों की बुराई को सुनने का तुम्हारा धैर्य और नियमित रूप से उसके लिए समय निकालने की लगन के चलते आस-पड़ोस की तुम्हारी सहेलियां तुम्हारी कमी हरदम महसूस कर रही हैं। उनकी आवाज में अपनी सास की बुराई करने के लिए वांछित स्तर की ऊष्मा और ऊर्जा दोनों ही पैदा नहीं हो पा रही है। उनकी उदासी मुझसे देखी नहीं जाती है। मेरी मजबूरी है अन्यथा मैं उनके पास खड़ा होकर तुम्हारी जगह भरने की कोशिश करता। तुम तो जानती ही हो किसी का भी दुख मुझसे देखा नहीं जाता है। फिर मामला तो पास-पड़ोस का है। (पड़ोसिनें तो प्राचीनकाल से ही खूबसूरत रहती चली आ रही हैं।) तो ऐसे में मैं.. मतलब हम ही उनके काम नहीं आएंगे तो कौन आएगा। सोचो। विचार करो। मेरे नहीं तो कम से कम अपनी पड़ोस की सहेलियों के दुख को तो समझो। लौटे प्रिये, अविलंब लौटो।
वैसे तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है, बाकी सब ठीक है। हां, ड्राइंगरूम की हालत कोमा में आ गए जैसी है। सोफे निराशा के गर्त में डूब चुके हैं। उनकी गद्दियां औंधे मुंह पड़ी हैं। सेंटर टेबल धूल के गर्त के नीचे दबकर पुरातात्विक महत्व की हो चुकी है। गुलदस्तों में जो फूल अंतिम बार खोंसे गए थे वे अब किसी का सामना नहीं कर पा रहे हैं, उनकी गर्दन लज्जा से झुक चुकी है। पूरी दोपहर टीवी खाली-खाली सूनी आंखों से निहारता रहता है। प्राइम टाइम में तो उसकी आंखों से चिंगारियां निकलती हैं। जिन सीरियलों को देखकर निजी तौर पर उनकी टीआरपी बढ़ाने का ठेका लिए हुए थीं उनकी हालत खराब हो चुकी है। बालिका वधू से लेकर बिदाई तक सभी जगह सासें प्रभावशाली हो चुकी हैं। बहुओं की हालत पतली है। सासें बड़े जोशो-खरोश से बहुओं पर अत्याचार कर रही हैं। पहले तुम्हारी उपस्थिति मात्र से उनकी इतनी हिम्मत नहीं पड़ती थी। छोटे पर्दे की बहुओं के लिए तुम्हारा घर बैठे-बैठे इतना संबल और नैतिक समर्थन काफी था। टीवी पर आने वाले पुराने फ्रिज, वाशिंग मशीन के विज्ञापन किसी को भी अपील नहीं कर पा रहे हैं। शायद कंपनी वाले भी जान गए हैं इसलिए नए विज्ञापन दे भी नहीं रहे हैं। पत्नी मायके में हो तो नए विज्ञापन देने से कोई फायदा नहीं कंपनी वाले जानते हैं। कंपनी वाले बड़े चालाक होते हैं,भई लेकिन इन दिनों तुम्हारे जाने से कुछ मुश्किल में चल रहे हैं। और हां इसी बीच कुछ नए सीरियल भी आ चुके हैं उनकी भी बहुएं तुम्हारे भरोसे ही हैं। उधर, एकता कपूर भी तुम्हारे आसरे ही बैठी है। चैनलवाले भी तुम्हारी ही राह ताक रहे हैं। पूरी विज्ञापन इंडस्ट्री भी तुमसे उम्मीद लगाए बैठी है। मुंह न मोड़ो, अपनी जिम्मेदारी समझो। आ जाओ प्रिये, जल्दी आ जाओ। छोटे पर्दे के अपने निजी संसार को बचाने के लिए जल्दी आ जाओ।
और आगे क्या लिखूं। तुम मेरे खाने पीने की चिंता मत करो। जबसे पता चला है मेरे दोस्त रोज शाम को हमारे घर आ जाते हैं। उन्हें मेरे खाने-पीने का पूरा खयाल है। रोज खाने-पीने के बाहर से सामान ले आते हैं। लेकिन एक बात है मैं उन्हें खाली बोतलें अपने घर में नहीं छोड़ने देता। नॉनवेज के लिए तुमने मना किया था इसलिए मैं अपने घर के बर्तन नहीं देता हूं, बेचारों को अपने ही घरों से इसके लिए बर्तन लाने पड़ते हैं। ताश खेलने के लिए बेचारे कह-कह कर थक गए लेकिन जुआ के लिए जब से तुमने अपने सिर की कसम देकर मना किया है मैं नहीं खेलता केवल जरूरत पड़ने पर दोस्तों को उधार ही देता हूं। वे इतने भोले हैं कि इस बात का बुरा नहीं मानते। बेचारे मेरा दुख देखकर देर रात तक रुकते हैं, बहुत जोर देने या घर से पत्नियों के फोन आने पर ही जाते हैं। वे तो रविवार या सरकारी छुट्टी में दिन में भी आ जाते हैं। वे भी मेरे दुख में बहुत दुखी हैं। जो सबसे ज्यादा रुपए हारा है, रोज तुम्हारे आने की तारीख पूछते हैं। कल ही मुझे बता रहा था कि यार, तेरा घर मेरे लिए बड़ा लकी है पिछले बार भी शुरू में मुझे बड़ी जमकर दच्च लगी थी। बाद के चार दिनों में सब बराबर हो गया था। इस बार भी भाभीजी छह दिन और न आएं तो वो पिछली वसूली कर प्रोफिट में आ जाएगा। हालांकि मैं इस बार उससे यह कह पाने की स्थिति मे नहीं हूं कि इस बार तू दच्च ही खाएगा या प्रोफिट में आ पाएगा। बताओ प्रिये, उसे किस दिशा की तरफ इशारा करूं।

ऐसे ही अब तुम्हें क्या सुनाऊं, हमारे बैडरूम की दीवारों पर तुम्हारे खौफ के कारण डरते-डरते डोलने वाली छिपकलियों की हिम्मत और हिमाकत इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। दो दिन पहले ही एक छिपकली आधा मकोड़ा खाकर मेरे लिखने वाली टेबल पर छोड़ गई थी, आज वापस आई थी मकोड़ा टेबल पर न देखकर मुझे आंखें दिखा रही थी। पहले उसकी मजाल थी कि ऐसा करे। मकड़ियां भी पहले हमारे कमरे के कोने-आतरों में शहर से बाहर फेंक दिए गए झुगगीवासियों की तरह छोटे-छोटे घरघूले बनाए थीं आज उन्होंने पूरे कमरे में बड़े-बड़े प्लॉट हथिया लिए हैं। एनआरआई किस्म के लक्जरी बंगलों का निर्माण कर लिया है। आस-पड़ोस के कमरों से रिश्तेदारों को बुलाकर पूरे कमरे में अवैध कॉलोनियां काट डाली हैं। यहां तक की हमारे बिस्तर तक से उन्होंने अपनी कॉलोनियों में जाने के लिए सड़कों का निर्माण कर लिया है। आ जाओ प्रिये, नगरनिगम के अतिक्रमणहारी दस्ते की तरह आकर इन बेरसूखदार छिपकलियों और मकड़ियों को उनकी औकात दिखाओ। अन्यथा ऐसा न हो कि इनके मुंह में बड़े कॉलोनाइजरों वाला स्वाद लग जाए और हम एक अदद कमरे तक से विस्थापित हो जाएं।
अंत में कुल मिलाकर समाचार यह है कि इन दिनों हमारे पूरे गृहप्रदेश पर संकट छाया हुआ है। हर आंतरिक मोर्चा एक समस्या खड़ी कर रहा है। बच्चे मनमानी पर उतर आए हैं। चावल-दाल के डिब्बे अपने सूखे और अकाल की स्थिति पर लगातार बाइयों के माध्यम से ज्ञापन भेज रहे हैं। केंद्रीय मदद का पैसा गलत हाथों में न चला जाए। महालेखा परीक्षक की तरह आ जाओ प्रिये, आकर इस भ्रष्टाचार से निपटने में भिड़ जाओ। न आओ तो कम से कम आने की तारीख तो बताओ ताकी जब तक इस अराजकता का ही आनंद लिया जा सके।

पुनश्च: बुरा मत मानना, लेकिन रोज-रोज मुझे बहाने बनाना अच्छा नहीं लगता है इसलिए इतना तो जरूर लिखना कि दोस्त को क्या बताना है उसे दच्च लगेगी या बंदा प्रोफिट में रहेगा।
सादर,
तुम्हारा
सेवकराम सत्यपति
लौटती डाक से आया जवाब प्रथम पैराग्राफ तक ही अक्षरश: कल सुबह पहुंच रही हूं। स्टेशन आ जाना। पिछली बार की तरह ज्यादा इंतजार न करना पड़े। आने से पहले दूध उबालकर फ्रिज में रख देना नहीं तो बिल्ली मुंह मार देगी। स्टेशन के रास्ते में सब्जी मंडी पड़ती है वहां से रविवार वाली लिस्ट देखकर सब्जी खरीद लेना। जल्दीबाजी में फिर सड़ी सब्जियां मत उठा लाना। जाते समय कपड़े प्रेस को दिए थे तुमने तो उठाए नहीं होंगे आज ही उठा लेना। जाते समय पापड़ छत पर डाले थे.., बगीचे में पानी भी नहीं दिया होगा, पौधे सूख गए होंगे.., तुमसे कोई काम ढंग से नहीं होता, चार दिन भी पीछे से नहीं संभाल सकते..दोस्तों के साथ ऐश चल रही है। गैरजिम्मेदारी कब जाएगी तुम्हारी। इतनी उमर हो गई है, कुछ तो सीखो..वगैरहा-वगैरहा।
बड़ी हंसी आ रही है न आपको। बड़ा मजा आ रहा है न पत्र पढ़ने में..। पढ़िए-पढ़िए। कल आपकी भी शादी होगी न, आपकी बीवी भी मायके जाएगी न। तब देखूंगा आप क्या लिख लेते हो। लिख तो फिर भी लोगो गुरु, लेकिन हमारे जैसी अच्छी सब्जी खरीदने की तमीज कहां से लाओगे।
अनुज खरे

Post Labels