सोमवार, 30 जून 2008

दगाबाज हुआ ईश्वर का प्रतिरूप


डॉ. महेश परिमल
ईश्वर दु:ख से मुक्ति दिलाते हैं, तो डॉक्टर दर्द से। इसीलिए डॉक्टर को ईश्वर का दूसरा रूप कहा जाता है। पीड़ा से कराहता व्यक्ति डॉक्टर में ईश्वर के दर्शन करता है। उसे पूरा विश्वास होता है कि अब मैं डॉक्टर के पास आ गया हूँ, अब तो निश्चित ही दर्द से छुटकारा मिल जाएगा। डॉक्टर और मरीज का संबंध वर्षों से है और रहेगा। मरीज का विश्वास ही डॉक्टर को आत्मबल प्रदान करता है। इसी आत्मबल के कारण वह हमेशा मरीजों की सेवा के लिए तत्पर रहता है। लेकिन अब इस पवित्र संबंध पर दवा कंपनियों की नजर लग गई है, अब डॉक्टर अपने धर्म को भूलकर मरीजों को ऐसी गैरजरूरी दवाएँ लेने की हिदायत दे रहे हैं, जिसकी उसे दरकार ही नहीं है। इन दवाओं से मरीज की जेब तो हल्की होती ही है, साथ ही उसके स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ होता है। दूसरी ओर इन्हीं दवाओं से डॉक्टर का घर भरता है और वह उन दवा कंपनियों से महँगे उपहार लेता है, विदेश यात्राएँ करता है, फाइव स्टार होटलों में पार्टी का मजा लेता है, यहाँ तक कि अपने बच्चों की बर्थ डे पार्टी या फिर शादी के बाद हनीमून का खर्च भी इन्हीं दवा कंपनियों से लेता है। ऐसे में उस डॉक्टर को कैसे कहा जाए कि यह ईश्वर का दूसरा रूप है? 'फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स' नामक एक एनजीओ ने इस संबंध में कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किए हैं, जिसमें डॉक्टरों और फार्मास्यूटिकल्स कंपनी के बीच होने वाले लेन-देन की जानकारी दी गई है।
मुम्बई के एक डॉक्टर ने अपने चिरंजीव की शादी की, हनीमून के लिए उसे स्वीटजरलैंड भेजा, लेकिन इसका खर्च उठाया, एक दवा कंपनी ने। इसी तरह एक डॉक्टर के बेटे के जन्मदिन की पार्टी का पूरा खर्च उठाया, एक दवा कंपनी ने। आखिर दवा कंपनी उन डॉक्टरों पर इतनी मेहरबान क्यों थी, कारण स्पष्ट है, ये वे डॉक्टर हैं, जो मरीजों को उन्हीं कंपनियों की दवाएँ लेने की हिदायत देते हैं, साथ ही मरीज को जिन दवाओं की आवश्यकता ही नहीं है, वे दवाएँ भी मरीज के परचे पर लिख देते हैं। अमेरिका की दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को रिश्वत के रूप में करीब दस अरब डॉलर का बजट रखती हैं। इतनी बड़ी रकम आखिर आएगी कैसे? उसी के लिए ही तो ये मरीज बनाए गए हैं और उन्हें दवाएँ सुझाने वाले डॉक्टर। आखिर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ह डॉक्टर से मिलने क्यों आते हैं? बस यही कि डॉक्टर को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए। वरना यदि डॉक्टर को किसी दवा के बारे में जानना हो, तो इंटरनेट से सस्ता आखिर कौन सा माध्यम हो सकता है। ये दोनों मिलते ही हैं सौदेबाजी के लिए। डॉक्टर मरीज के परचे पर अधिक से अधिक दवाएँ लिखें, इसके लिए डॉक्टर को रिझाने के लिए कई तरह की रिश्वत दी जाती है। यह रिश्वत कई रूपों में हो सकती है। कभी डॉक्टर अपनी प्रेयसी या फिर परिवार के साथ विदेश यात्रा पर निकल जाता है, तब उसकी टिकट और होटलों की बुकिंग का सारा जिम्मा यही दवा कंपनियाँ लेती हैं। कई बार तो पूरा टूर ही कंपनी वहन करती है। इस तरह से उपकृत होने वाले डॉक्टर निश्चित रूप से उस दवा कंपनी को याद रखते हैं और उनकी दवाएँ मरीज के परचे पर लिख देते हैं। इस तरह के टूर के बाद डॉक्टर द्वारा प्रिस्काइब की जाने वाले दवाएँ बिकने की संभावना 4.5 से 10 गुना बढ़ जाती है। यही हाल दीपावली के समय होता है, जिस डॉक्टर के पास जितने अधिक गिफ्ट आते हैं, समझ लो वह डॉक्टर उतने ही अधिक फर्जी दवाएँ मरीजों को लेने का सुझाव देता है।

ये दवा कंपनियाँ बहुत ही दूरंदेशी होती हैं, इनकी नजर तमाम मेडिकल कॉलेजों में शुरू से ही रहती है। भावी डॉक्टर जब मेडिकल कॉलेजों में पढ़ते रहते हैं, तब ये दवा कंपनियाँ उनके पीछे पड़ जाती हैं। इन कंपनियों के प्रतिनिधि इनसे महीने में चार बार मिलते हैं, इस दौरान वे अपनी नई दवाओं के बारे में पूरी जानकारी डॉक्टरों को दे देते हैं। वास्तव में प्रतिनिधि इन दवाओं की बिक्री के बाद डॉक्टर के कमीशन की बात करते हैं। इसीलिए प्रतिनिधि डॉक्टरों से बार-बार मुलाकात कर डॉक्टर को अपने वश में करने की कोशिश करते हैं। आखिर बार-बार मिलने का कुछ तो असर होगा ही। दवा कंपनियों और डॉक्टर के बीच होने वाली यह मुलाकात कहीं भ्रष्टाचार की जड़ों को ही पुख्ता करती हैं। यदि सरकार डॉक्टरों और दवा प्रतिनिधियों की मुलाकात पर ही प्रतिबंध लगा दे, तो इस पर थोड़ा सा अंकुश तो रखा ही जा सकता है। इन दवा कंपनियों की नीयत यदि सचमुच साफ है, तो डॉक्टरों तक अपनी दवाओं की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से भी दे सकते हैं। आखिर मुलाकात की क्या आवश्यकता है? यही मुलाकात ही तो है, जो डॉक्टरों की रिश्वत तय करती है।
फार्मास्यूटिकल कंपनियाँ अक्सर डॉक्टरों के लिए फाइव स्टार होटलों में काकटेल पार्टियों का आयोजन करती हैं। दिन भर चलने वाली इस पार्टी में सभी सुविधाएँ डॉक्टरों को मुहैया कराई जाती हैं। डॉक्टर इन पार्टियों का भरपूर उपभोग करते हैं। पूरे परिवार का मनोरंजन होता है। तबीयत तर हो जाती है। पार्टी के बाद दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को महँगे उपहार दिए जाते हैं। हाल ही में मुम्बई के एक डॉक्टर के बारे में पता चला है कि वे रोज एक लेडिस बार में जाकर शराब पीया करते थे, उनका बिल एक दवा कंपनी अदा करती थी। बाद में पता चला कि वे डॉक्टर अपने उस बिल से 50 प्रतिशत अधिक धन दवा कंपनी को उनकी दवाओं के एवज में अदा कर देते थे, जो वे अपने मरीजों के प्रिस्क्रिप्शन पर लिख देते थे। भले ही उन दवाओं की दरकार मरीजों को न भी हो, पर ये डॉक्टर अपना यह काम पूरी ईमानदारी से कंपनी के लिए करते थे।
अब तो कुछ डॉक्टर दवा कंपनियों के एजेंट के रूप में काम करने लगे हैं। वे एक निश्चित केमिस्ट के यहाँ जितने परचे भेजते हैं, उसे एक अलग डायरी में नोट कर लेते हैं, महीने के अंत में डॉक्टर को अपने परचों के अनुसार केमिस्ट और दवा कंपनियाँ अपना कमीशन दे देती हैं। मरीज के लिए परचे पर दवा लिखकर डॉक्टर उससे कहते हैं कि दवा खरीदने के बाद दवाएँ उसे दिखा दें। डॉक्टर के क्लिनिक के पास ही जो मेडिकल स्टोर होता है, मरीज वहीं से दवा खरीदता है। दवा खरीदने के बाद मरीज उन दवाओं को दिखाने के लिए फिर डॉक्टर के पास जाता है, दवाएँ देखकर एक अलग डायरी में कुछ नोट कर लेता है। यह सब मरीज की ऑंखों के सामने होता है, पर दवा के बारे में उसका ज्ञान शून्य होता है, इसलिए वह कुछ कर नहीं पाता और डॉक्टर-दवा कंपनियों के बीच कठपुतली बनकर रह जाता है। डॉक्टरों के कमीशन के कारण ही दो रुपए में मिलने वाली दवा मरीज को दस रुपए में मिलती है। कई छोटी कंपनियाँ भी हैं, जो उच्च कोटि की दवा बनाती हैं, पर अपना प्रचार नहीं करती, उन कंपनियों की दवाएँ यदि गलती से मरीज खरीद ले, तो डॉक्टर उसे वापस करवा देते हैं, क्योंकि उस कंपनी से उसे किसी तरह की सुविधा या कमीशन नहीं मिलता। मरीज को जिन दवाओं की आवश्यकता ही नहीं है, उन दवाओं को खरीदकर मरीज अपनी जेब हल्की करता ही है, साथ ही अपने स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करता है।
इस तरह से दवा कंपनियों की कठपुतली बने डॉक्टर मरीजों के साथ विश्वासघात कर आखिर किस तरह से समाज की सेवा कर रहे हैं? मरीजों और ग्राहकों के अधिकार के लिए लड़ने वाली तमाम सामाजिक संस्थाओं को इस गोरखधंधे के प्रति सजग होकर सरकार को नींद से जगाना होगा। ताकि डॉक्टरों को दवा कंपनियों से मिलने वाली तमाम भेंट सौगातों पर अंकुश लग सके। ऐसे डॉक्टरों पर कानूनी कार्रवाई भी होनी चाहिए। ऐसे डॉक्टरों का समाज से बहिष्कार हो, तब तो बात ही कुछ और होगी। क्या आज का सोया हुआ समाज इस तरह की कार्रवाई करने के लिए आगे आ सकता है? आखिर यह हमारे स्वास्थ्य और धन का सवाल है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 28 जून 2008

सच के बदलते चेहरे


डा. महेश परिमल
बिहार में किसी निर्माण कार्य में भारी घोटाले की शिकायत प्रधानमंत्री कार्यालय में करने वाले इंजीनियर सत्येंद्र कुमार दुबे की मौत हो गई. एक ईमानदार व्यक्ति की बेईमान मौत. यह समाचार हमारे लिए दु:खदायी हो सकता है, लेकिन क्या आपने सोचा कि यह समाचार आज की पीढ़ी को किसी भी तरह से व्यथित नहीं करता. उन्हें ऐसी बातों से कोई आश्चर्य नहीं होता. बात गंभीर है, लेकिन हम यह न समझें कि यह पीढ़ी इतनी संवेदनहीन क्यों हो गई है? नहीं-नहीं इसमें हमारा कोई दोष नहीं है, न ही हमारे संस्कारों का. आज की पीढ़ी यह अच्छी तरह से जानती है कि जो विरोधी है, उसे जीने का कोई हक नहीं है. विरोधी को जीने का अधिकार नहीं. यह बात आज के बच्चे रोज ही देखते सुनते हैं. करीब-करीब हर फिल्म और धारावाहिक में ऐसा ही होता है. जिसने सच का दामन थामा, वह गया काम से. वह मर जाता है या उसे मार दिया जाता है.
जो प्रभावशाली है, इातदार है, निश्चित ही उसके पास ऐश्वर्यशाजी जीवन होगा. ऐसे लोग ही होते हैं, जो अपने प्रतिद्वंद्वी को ठिकाने लगाने में जरा भी देर नहीं करते. आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ जान की कोई कीमत नहीं है. ईमानदार आदमी बड़ी मुश्किल से मिलता है. विडम्बना तो यह है कि उसकी ईमानदारी की परख के लिए एक बेईमान को नियुक्त किया जाता है. जो उसे ईमानदारी के रास्ते से हटाने के पूरे उपाय करता है, क्योंकि उसकी ईमानदारी से उसके जैसे कई बेईमानों की हालत खराब होती है.
हमने सच का चेहरा देखा है. कहा जाता है कि सच शाश्वत और सापेक्ष होता है, पर आज की पीढ़ी के सच और हमारी पीढ़ी के सच में काफी अंतर है. हमारा सच बहुत ही भोलाभाला है. उस सच के सहारे हमने बहुत-सी मुश्किलों पर विजय प्राप्त की है. हमारे सच ने पग-पग पर हमारा साथ दिया है. अब आज की पीढ़ी का सच देख लो. इसे मालूम है कि सच उसके कोई काम नहीं आने वाला. इस सच से उसे परेशानियाँ ही अधिक मिली है, इसलिए तो वह उस सच की तरफ भाग रहा है, जो मृगतृष्णा है. इसे वह भी जानती-समझती है कि यह सच उसे कहाँ ले जाएगा, पर आज लोग उसी सच की तरफ भाग रहे हैं.
यहाँ आकर सत्यमेव जयते का प्रेरक वाक्य बेमानी हो जाता है. सत्य की हमेशा ही जीत नहीं होती. इसे आज के न्यायाधीश भी बेहतर जानते हैं. उनका कहना हो सकता है कि वे तो सुबूत और गवाह से बँधे हैं, इसलिए हमारा फैसला गलत भी हो सकता है. इसे पुरानी पीढ़ी तो मान लेगी, पर जो आज के दौड़ते-भागते लोग हैं, उनके पल्ले यह बात नहीं पड़ेगी. वे तो दौड़ती-भागती खबरों पर भी नजर रखते हैं. उन्हें मालूम है कि सच क्या है? आरोपी भले ही खूनी क्यों न हो, वह अपराध करने के पहले उसकी सजा से बचने के सारे उपाय कर लेता है. इस कार्य में उसे वे सभी लोग सहायता करते हैं, जो प्रतिष्ठित हैं, ऐश्वर्य से युक्त हैं.


आज की पीढ़ी का सच दूसरा है. उसे कोई लेना-देना नहीं, संवेदना से. कोई भी करुणगाथा उसकी ऑंखें गीली नहीं करती. उसे हर हाल में हँसी आती है. रोना तो उसने सीखा ही नहीं. वह प्राप्त करना जानती है. उसे इंतजार पसंद नहीं, धैर्य नाम के किसी भी श?द से वह परिचित भी नहीं है. पानी को बर्फ बनता यह पीढ़ी कभी नहीं देख सकती. उसे तो चाहिए एक क्षण में करोड़पति कैसे हुआ जा सकता है? कोई उसका रास्ता बता दे.
सत्येंद्र दुबे हमारे लिए आदर्शहो सकते हैं, पर यह पीढ़ी उसे बेवकूफ कहेगी. आज जब रिश्वत लेना शिष्टाचार का अंग बन गया है, भ्रष्टाचार नित नए रंग और रूप में सामने आ रहा है, बेईमानी सबके रग-रग में बस गई है, तो इन हालात में सच कैसे और क्यों जिंदा रहना चाहेगा भला?
हँसी आती है हमें. आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो बिलकुल संवेदनहीन है. दया, करुणा से कोसों दूर. ऐसे में एक ईमानदार मौत उसे जरा-भी विचलित नहीं करती. उसे मालूम है ऐसे ही होती है, ईमानदारों की मौत. यह भले ही विडम्बना हो कि बेईमानों को भी अपने काम के लिए ईमानदारों की जरूरत होती है, लेकिन ईमानदारी वह गहना नहीं है, जिस पर गर्व किया जा सके. अब ईमानदारी सपने की बात है. आज परिभाषा बदल रही है. कोई ईमानदार इसलिए है क्योंकि उसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिला.
आज के बच्चे अक्सर अपने पिता से कहते हैं कि आपको क्या मिला अपनी ईमानदारी से? आज समाज में हमारी इात इसलिए नहीं है, क्योंकि हमारे पास धन नहीं है. हमारे घर एक बार भी इंकम टैक्स वालों का छापा नहीं पड़ा, हमारे घर कभी पुलिस नहीं आई. ये भी भला कोई इात है? आप अपनी ईमानदारी अपने पास ही रखें और हमें हमारे रास्ते पर चलने दें. यही है आज का सच और आज की सच्चाई का चेहरा. बदलता चेहरा और बदलती सोच.
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 27 जून 2008

पर्यावरण बरबाद करने वालॊं तुम मारे जाऒगे


ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता खतरा
हाल ही में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने एक संकल्प के अंतर्गत लगातार छह महीनों तक पौधे लगाने की घोषणा की। अब यह बात अलग है कि उन्होंने साफ नीयत के साथ यह संकल्प लिया, निश्चित ही वे इसे पूरा नहीं कर पाएँगे। पर एक संकल्प तो लिया। ऐसा ही संकल्प हर सेलिब्रिटी ले, तो निश्चित रूप से कुछ ही समय बाद पूरी दुनिया का नक्शा ही बदल जाएगा। सच तो यही है कि अब इस दुनिया को केवल पेड़ ही बचा सकते हैं। बहुत ही जरूरी हो गए हैं, ये पर्यावरण की रक्षा के लिए। इंसान तभी बचेंगे, जब पेड़ बचेंगे। आज पानी का दुरुपयोग करने वाले यह समझते हैं कि अब हमें क्या करना है, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका। ऐसा सोचते हुए वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने विरासत में मिली सम्पदा का नाश कर दिया, अब अपनी भावी पीढ़ी के लिए वे क्या छोडे ज़ा रहे हैं कांक्रीट का जंगल?
जो पानी की बरबादी करते हैं, उनसे मैं यही पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्होंने बिना पानी के जीने की कोई कला सीख ली है, तो हमें भी बताए, ताकि भावी पीढ़ी बिना पानी के जीना सीख सके। नहीं तो तालाब के स्थान पर मॉल बनाना क्या उचित है? आज हो यही रहा है। पानी को बरबाद करने वालों यह समझ लो कि यही पानी तुम्हें बरबाद करके रहेगा। एक बूँद पानी याने एक बूँद खून, यही समझ लो। पानी आपने बरबाद किया, खून आपके परिवार वालों का बहेगा। क्या अपनी ऑंखों का इतना सक्षम बना लोगे कि अपने ही परिवार के किस प्रिय सदस्य का खून बेकार बहता देख पाओगे? अगर नहीं, तो आज से ही नहीं, बल्कि अभी से पानी की एक-एक बूँद को सहेजना शुरू कर दो। अगर ऐसा नहीं किया, तो मारे जाओगे।
वैश्विक तापमान यानी ग्लोबल वार्मिंग आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। इससे न केवल मनुष्य, बल्कि धरती पर रहने वाला प्रत्येक प्राणी त्रस्त ( परेशान, इन प्राब्लम) है। ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए दुनियाभर में प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन समस्या कम होने के बजाय साल-दर-साल बढ़ती ही जा रही है। चूंकि यह एक शुरुआत भर है, इसलिए अगर हम अभी से नहीं संभलें तो भविष्य और भी भयावह ( हारिबल, डार्कनेस, ) हो सकता है। आगे बढ़ने से पहले हम यह जान लें कि आखिर ग्लोबल वार्मिंग है क्या।

क्या है ग्लोबल वार्मिंग?
जैसा कि नाम से ही साफ है, ग्लोबल वार्मिंग धरती के वातावरण के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी है। हमारी धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से उष्मा ( हीट, गर्मी ) प्राप्त करती है। ये किरणें वायुमंडल ( एटमास्पिफयर) से गुजरती हुईं धरती की सतह (जमीन, बेस) से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित ( रिफलेक्शन) होकर पुन: लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से अधिकांश ( मोस्ट आफ देम, बहुत अधिक ) धरती के ऊपर एक प्रकार से एक प्राकृतिक आवरण ( लेयर, कवर ) बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस प्रकार धरती के वातावरण को गर्म बनाए रखता है। गौरतलब ( इट इस रिकाल्ड, मालूम होना ) है कि मनुष्यों, प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्शियस तापमान आवश्यक होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन ( अधिक मोटा होना) या मोटा होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव ( साइड इफेक्ट) ।
क्या हैं ग्लोबल वार्मिंग की वजह?
ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार तो मनुष्य और उसकी गतिविधियां (एक्टिविटीज ) ही हैं। अपने आप को इस धरती का सबसे बुध्दिमान प्राणी समझने वाला मनुष्य अनजाने में या जानबूझकर अपने ही रहवास ( हैबिटेट,रहने का स्थान) को खत्म करने पर तुला हुआ है। मनुष्य जनित ( मानव निर्मित) इन गतिविधियों से कार्बन डायआक्साइड, मिथेन, नाइट्रोजन आक्साइड इत्यादि ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में बढ़ोतरी हो रही है जिससे इन गैसों का आवरण्ा सघन होता जा रहा है। यही आवरण सूर्य की परावर्तित किरणों को रोक रहा है जिससे धरती के तापमान में वृध्दि हो रही है। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों ( प्लांटस), उद्योगों इत्यादि से अंधाधुंध होने वाले गैसीय उत्सर्जन ( गैसों का एमिशन, धुआं निकलना ) की वजह से कार्बन डायआक्साइड में बढ़ोतरी हो रही है। जंगलों का बड़ी संख्या में हो रहा विनाश इसकी दूसरी वजह है। जंगल कार्बन डायआक्साइड की मात्रा को प्राकृतिक रूप से नियंत्रित करते हैं, लेकिन इनकी बेतहाशा कटाई से यह प्राकृतिक नियंत्रक (नेचुरल कंटरोल ) भी हमारे हाथ से छूटता जा रहा है।
इसकी एक अन्य वजह सीएफसी है जो रेफ्रीजरेटर्स, अग्निशामक ( आग बुझाने वाला यंत्र) यंत्रों इत्यादि में इस्तेमाल की जाती है। यह धरती के ऊपर बने एक प्राकृतिक आवरण ओजोन परत को नष्ट करने का काम करती है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी ( अल्ट्रावायलेट ) किरणों को धरती पर आने से रोकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र ( होल) हो चुका है जिससे पराबैंगनी किरणें (अल्टा वायलेट रेज ) सीधे धरती पर पहुंच रही हैं और इस तरह से उसे लगातार गर्म बना रही हैं। यह बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि धु्रवों (पोलर्स ) पर सदियों से जमी बर्फ भी पिघलने लगी है। विकसित या हो अविकसित देश, हर जगह बिजली की जरूरत बढ़ती जा रही है। बिजली के उत्पादन ( प्रोडक्शन) के लिए जीवाष्म ईंधन ( फासिल फयूल) का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में करना पड़ता है। जीवाष्म ईंधन के जलने पर कार्बन डायआक्साइड पैदा होती है जो ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को बढ़ा देती है। इसका नतीजा ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आता है।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव :
और बढ़ेगा वातावरण का तापमान : पिछले दस सालों में धरती के औसत तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हुई है। आशंका यही जताई जा रही है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग में और बढ़ोतरी ही होगी।
समुद्र सतह में बढ़ोतरी : ग्लोबल वार्मिंग से धरती का तापमान बढ़ेगा जिससे ग्लैशियरों पर जमा बर्फ पिघलने लगेगी। कई स्थानों पर तो यह प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है। ग्लैशियरों की बर्फ के पिघलने से समुद्रों में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी जिससे साल-दर-साल उनकी सतह में भी बढ़ोतरी होती जाएगी। समुद्रों की सतह बढ़ने से प्राकृतिक तटों का कटाव शुरू हो जाएगा जिससे एक बड़ा हिस्सा डूब जाएगा। इस प्रकार तटीय ( कोस्टल) इलाकों में रहने वाले अधिकांश ( बहुत बडा हिस्सा, मोस्ट आफ देम) लोग बेघर हो जाएंगे।
मानव स्वास्थ्य पर असर : जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर मनुष्य पर ही पड़ेगा और कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडेग़ा। गर्मी बढ़ने से मलेरिया, डेंगू और यलो फीवर ( एक प्रकार की बीमारी है जिसका नाम ही यलो फीवर है) जैसे संक्रामक रोग ( एक से दूसरे को होने वाला रोग) बढ़ेंगे। वह समय भी जल्दी ही आ सकता है जब हममें से अधिकाशं को पीने के लिए स्वच्छ जल, खाने के लिए ताजा भोजन और श्वास ( नाक से ली जाने वाली सांस की प्रोसेस) लेने के लिए शुध्द हवा भी नसीब नहीं हो।
पशु-पक्षियों व वनस्पतियों पर असर : ग्लोबल वार्मिंग का पशु-पक्षियों और वनस्पतियों पर भी गहरा असर पड़ेगा। माना जा रहा है कि गर्मी बढ़ने के साथ ही पशु-पक्षी और वनस्पतियां धीरे-धीरे उत्तरी और पहाड़ी इलाकों की ओर प्रस्थान ( रवाना होना) करेंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ अपना अस्तित्व ही खो देंगे।
शहरों पर असर : इसमें कोई शक नहीं है कि गर्मी बढ़ने से ठंड भगाने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ऊर्जा की खपत (कंजम्शन, उपयोग ) में कमी होगी, लेकिन इसकी पूर्ति एयर कंडिशनिंग में हो जाएगी। घरों को ठंडा करने के लिए भारी मात्रा में बिजली का इस्तेमाल करना होगा। बिजली का उपयोग बढ़ेगा तो उससे भी ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा ही होगा।

ग्लोबल वार्मिंग से कैसे बचें?
ग्लोबल वार्मिंग के प्रति दुनियाभर में चिंता बढ़ रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज (आईपीसीसी) और पर्यावरणवादी अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर को दिया गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वालों को नोबेल पुरस्कार देने भर से ही ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटा जा सकता है? बिल्कुल नहीं। इसके लिए हमें कई प्रयास करने होंगे :
1- सभी देश क्योटो संधि का पालन करें। इसके तहत 2012 तक हानिकारक गैसों के उत्सर्जन ( एमिशन, धुएं ) को कम करना होगा।
2- यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। हम सभी भी पेटोल, डीजल और बिजली का उपयोग कम करके हानिकारक गैसों को कम कर सकते हैं।
3- जंगलों की कटाई को रोकना होगा। हम सभी अधिक से अधिक पेड लगाएं। इससे भी ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम किया जा सकता है।
4- टेक्नीकल डेवलपमेंट से भी इससे निपटा जा सकता है। हम ऐसे रेफ्रीजरेटर्स बनाएं जिनमें सीएफसी का इस्तेमाल न होता हो और ऐसे वाहन बनाएं जिनसे कम से कम धुआं निकलता हो।

गुरुवार, 26 जून 2008

लौट रहीं हैं संवेदनशील फिल्में...


डॉ. महेशपरिमल
एक जमाना था, जब लोग फिल्में देखने जाते थे, तब कलाकार का नाम नहीं, बल्कि किस बैनर की फिल्म है, यह अवश्य जानते थे. व्ही. शांताराम, जेमिनी, एवीएम, बी.आर. फिल्मस, राजश्री प्रोडक्शन, सागर आट्र्स, आर. के. प्रोडक्शन, प्रसाद प्रोडक्शन, नवकेतन फिल्मस, मिनर्वा प्रोडक्शन आदि की फिल्में देखकर दर्शक अपने साथ कुछ न कुछ नया विचार लेकर आता ही था. इन बैनरों की फिल्मों का समाज से सीधा सरोकार होता था. समाज की सच्चाई की जीती ये फिल्में अपनी एक अलग छाप छोड़ने में कामयाब होती थी. बीच के तीन दशक की बात छोड़ दें, तो कहा जा सकता है कि एक बार फिर संवेदनशील फिल्मों का दौर शुरू हो रहा है.

दो वर्ष पहले आई बागवाँ में संतानों के लिए सब कुछ करने वाले माता-पिता अंत में कितने परेशान होते हैं, इसे रवि चोपड़ा ने सफलता पूर्वक फिल्माया है. इस फिल्म की कहानी पिछले 40 वर्ष से पिता बी. आर. चोपड़ा के पास थी, पर किन्हीं कारणवश यह फिल्म नहीं बन पाई. पर जब रवि चोपड़ा ने इसे अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी के साथ शुरू की, तो लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया. फिल्म हिट रही और इस तरह से एक बार फिर संवेदनशील फिल्मों का दौर शुरू हो गया. वैसे पिछले एक दशक की हिट फिल्मों पर एक नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि राजश्री प्रोडक्शन ने पिछले 50 वर्षों में समाज को हमेशा ही संवेदनशील फिल्में ही दी हैं. अपनी ही हिट फिल्म 'नदिया के पार' का शहरी संस्करण लेकर जब फिल्म आई 'हम आपके हैं कौन', तो लोगों ने इसे काफी सराहा. यह फिल्म इतनी हिट रही कि इसे कई भाषाओं में डब किया गया. विदेशों में इसे केवल इसलिए सराहा गया कि इस फिल्म में भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है. उसके बाद आई 'हम साथ-साथ हैं', यह फिल्म भी सामाजिक सरोकारों को लेकर पारिवारिक ताने-बाने में बुनी हुई एक साफ-सुथरी फिल्म रही. लोगों ने इसे भी सराहा. इसी क्रम में करण जौहर की कुछ-कुछ होता है, मोहब्बतें, वीर-जारा, कभी खुशी-कभी ंगम, कल हो ना हो, इनमें से किसी भी फिल्म को एक्शन फिल्म नहीं कहा जा सकता. इसी तरह संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम', देवदास, ब्लेक आदि फिल्में संवेदनशील प्रेमकथा की कतार में आती हैं. विपुल शाह की वक्त, राजकुमार हिराणी की मुन्नाभाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्ना भाई, राकेशरोशन की कोई मिल गया इन फिल्मों में न तो बलात्कार है और न ही हिंसा. परिवार के सभी सदस्यों के साथ देखी जा सके, इन्हें इस तरह की फिल्मों के साथ रखा जा सकता है. इन्हीं फिल्मों के साथ डॉन, सरकार, कृश, धूम जैसी दो चार फिल्में आ गई, पर यह कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि आज के युवाओं को केवल एक्शन फिल्में ही अच्छी लगती हैं.

बागवाँ, लगे रहो मुन्ना भाई की सफलता से यह कहा जा सकता है कि इन फिल्मों ने युवा वर्ग को निश्चित रूप से प्रभावित किया है. देश में गांधी साहित्य की बढ़ती बिक्री, गांधीगीरी पर घंटों चर्चा करते युवाओं को देखकर लगता है कि अब एक्शन फिल्मों से उनका मोहभंग होने लगा है. अपनी नई फिल्म बाबुल के बारे में रवि चोपड़ा ने इस बात की पुष्टि की है कि आज के युवाओं को संवेदनशील फिल्में भाने लगी हैं. बाबुल में एक अकाल विधवा होने वाली पुत्रवधू के जीवन में फिर से आनंद उल्लास लाने के लिए सास-ससुर क्या-क्या करते हैं, यह बताया गया है.
आज के युवाओं के पास फिल्मों के कई विकल्प हैं. आज वह पल भर में ही अपनी मनपसंद फिल्मों की सीडी प्राप्त कर लेता है. फिल्में चाहे विदेशी हों या फिर देशी, अब उसे अच्छी और मनपसंद फिल्में देखने से कोई रोक नहीं सकता. कथा में दम हो, प्रतिभावान कलाकार हों, उच्च कोटि का डायरेक्शन हो, कर्णप्रिय गीत-संगीत हों, तो टीन एजर्स उस फिल्म को देखने के लिए टूट पडेंग़े, फिर चाहे वह फिल्म विदेशी हो, या रीमेक. आज के युवा अपनी मस्ती में जीते हैं. उन्हें पता है कि क्या गलत है और क्या सही. कई बार उनका किसी गलत पर अधिक समय तक टिके रहने यह दर्शाता है कि उन्हें समझ नहीं है. पर बात यह नहीं है, आज का युवा एक तरफ काफी संवेदनशील है, तो दूसरी तरफ अपने कैरियर की तरफ सचेत भी है. अब डन्हें बरगलाना मुश्किल है. फिर चाहे वह क्षेत्र फिल्मों का ही क्यों न हो. पल भर में अपनी मनपसंद फिल्म की सीडी प्राप्त कर वह उस फिल्म के बारे में अपनी राय तय कर लेता है. कई बार तो पूर्व धारणा के अनुसार फिल्मों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी इकट्ठा कर वह अपनी राय बनाने में परिश्रम करता है. आजकल ऐसे कई संसाधनों की जानकारी उसे है, जिससे वह सही गलत का निर्णय कर सकता है. इसलिए आज के युवाओं को पथभ्रष्ट कहना मुश्किल है.

रही बात फिल्मों के गंभीर होने की, तो आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में हर कोई धन कमाना चाहता है. कई लोग केवल धन कमाते हैं और कई लोगों के सामने केवल धन ही सब-कुछ नहीं होता. वे संतुष्टि को धन मानते हैं. संतुष्टि केवल अपनी नहीं, बल्कि जिसके प्रति वे जवाबदार है,उनके प्रति. चोपड़ा बंधुओं की फिल्मों का कए सामाजिक सरोकार होता था. आज भी है,उन्हें मालूम है कि दर्शकों को ऐसा क्या चाहिए, जिसे संवेदनाओं में पिरो कर दिया जाए,तो उसे वे दिल से पसंद करेंगे. इसलिए वे वही परोसते हैं, जो आज के दर्शक चाहते हैं. इन दर्शकों में सबसे बड़ा वर्ग युवाओं का ही है, इसलिए उन्हें सामने रखकर वे अपनी सृजनशीलता का परिचय देते हैं. इस पर यदि संवेदनशील फिल्में आज के युवाओं को भाने लगी है, तो इसके आज के युवाओं की बदलती सोच ही है. इन अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.
डॉ. महेशपरिमल

बुधवार, 25 जून 2008

सेवेन डेडली सिंस

आप में से अकसर लोगों ने दुनिया के सात आश्चर्य के बारे में सुना पढ़ा और देखा होगा इन अजूबों में अब भारत का ताजमहल भी शामिल है, लेकिन क्या आप सात महापाप के बारे में भी जानते हैं?
नए साल से गले मिलने और साथ ही पुराने साल को अलविदा कहने का समय आ गया है. पूरे विश्व में इस वक़्त मस्ती और एक प्रकार के जश्न का माहौल है और लोग न जाने कितने प्रकार के संकल्प और प्रतिज्ञा के बारे में सोच रहे होंगे...
इस मौक़े पर हम लेकर आए हैं दुनिया के सात महापाप. क्या होते हैं ये सात महापाप? अंग्रेज़ी भाषा और पश्चिमी साहित्य एवं संस्कृति में इसे किस प्रकार देखा जाता है?
अंग्रेज़ी में इन्हें सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) भी कहा जाता है.
जब से मनुष्य ने होश संभाला है तभी से उनमें पाप-पुण्य, भलाई-बुराई, नैतिक-अनैतिक जैसे आध्यात्मिक विचार मौजूद हैं. सारे धर्म और हर क्षेत्र में इसका प्रचलन किसी न किसी रूप में ज़रूर है.
यह सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) इस प्रकार हैं:


लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)
यह सारे शब्द भाववाचक संज्ञा (Abstract Noun) के रूप हैं लेकिन इनमें से कई का प्रयोग क्रिया और विशेषण के रूप में भी होता है. अगर इन्हें ग़ौर से देखें तो पता चलता है कि इन सारे महापाप की हर जगह भरमार है और हम में से हर एक इसमें से किसी न किसी पाप से ग्रसित है.
पुराने ज़माने में इन सब को बड़े पाप में शामिल किया जाता था और उनसे बचने की शिक्षा दी जाती थी. पुराने ज़माने में ईसाई धर्म में इन सबको घोर पाप की सूची में रखा गया था क्यों की इनकी वजह से मनुष्य सदा के लिए दोषित ठहरा दिया जाता था और फिर बिना कंफ़ेशन के मुक्ति का कोई चारा नहीं था.
लस्ट (Lust) यानी उत्कंठा, लालसा, कामुकता, कामवासना (Intense or unrestrained sexual craving) यह मनुष्य को दंडनिय अपराध की ओर ले जाते हैं और इनसे समाज में कई प्रकार की बुराईयां फैलती हैं. विशेषण में इसे लस्टफुल (lustful) कहते हैं
ग्लूटनी (Gluttony) यानी पेटूपन. इसे भी सात महापापों में रखा गया है. जी हां दुनिया भर में तेज़ी से फैलने वाले मोटापे को देखें तो यह सही लगता है की पेटूपन बुरी चीज़ हैं और हर ज़माने में पेटूपन की निंदा हुई है और इसका मज़ाक़ उड़ाया गया है. ठूंस कर खाने को महा पाप में इस लिए रखा गया है कि एक तो इसमें अधिक खाने की लालसा है और दूसरे यह ज़रूरतमंदों के खाने में हस्तक्षेप का कारण है.
मध्यकाल में लोगों ने इसे विस्तार से देखा और इसके लक्षण में छह बातें बताईं जिनसे पेटूपन साबित होता है. वह इस प्रकार हैं.
eating too soon
eating too expensively
eating too much
eating too eagerly
eating too daintily
eating too fervently
ग्रीड (Greed) यानी लालच, लोभ. यह भी लस्ट और ग्लूटनी की तरह है और इसमें में अत्यधिक प्रलोभन होता है. चर्च ने इसे सात महापाप की सूची में अलग से इस लिए रखा है कि इस से धन-दौलत की लालच शामिल है (An excessive desire to acquire or possess more than what one needs or deserves, especially with respect to material wealth)
स्लौथ (Sloth) यानी आलस्य, सुस्ती और काहिली (Aversion to work or exertion; laziness; indolence). पहले स्लौथ का अर्थ होता था उदास रहना, ख़ुशी न मनाना और इसे महापाप में इसलिए रखा गया था कि इस से ख़ुदा की दी हुई चीज़ से परहेज़ करना. इस अर्थ का पर्याय आज melancholy, apathy, depression, और joylessness होगा. बाद में इसे इसलिए पाप में शामिल रखा गया क्योंकि इस की वजह से आदमी अपनी योग्यता और क्षमता का प्रयोग नहीं करता है.
रैथ (Wrath) ग़ुस्सा, क्रोध, आक्रोश. इसे नफ़रत और ग़ुस्से का मिला जुला रूप कहा जा सकता है जिस में आकर कोई कुछ भी कर जाता है. यह सात महापाप में अकेला पाप है जिसमें हो सकता है कि आपका अपना स्वार्थ शामिल न हो (Forceful, often vindictive anger)
एनवी (Envy) यानी ईर्ष्या, डाह, जलन, हसद. यह ग्रीड यानी लालच से इस अर्थ में अलग है कि ग्रीड में धन-दौलत ही शामिल है जबकि यह उसका व्यापक रूप है. यह महापाप इस लिए है कि कोई गुण किसी में देख कर उसे अपने में चाहना और दूसरे की अच्छी चीज़ को देख न पाना.
प्राइड (Pride) यानी घमंड, अहंकार, अभिमान को सातों महापाप में सबसे बुरा पाप समझा जाता है और किसी भी धर्म में इसकी कठोर निंदा और भर्त्सना की गई है. इसे सारे पाप की जड़ समझा जाता क्योंकि सारे पाप इसी के पेट से निकलते हैं. इसमें ख़ुद को सबसे महान समझना और ख़ुद से अत्यधिक प्रेम शामिल है.
अंग्रेज़ी के सुप्रसिद्ध नाटककार क्रिस्टोफ़र मारलो ने अपने नाटक डॉ. फ़ॉस्टस में इन सारे पापों का व्यक्तियों के रूप में चित्रण किया है. उनके नाटक में यह सारे महापाप इस क्रम pride, greed, envy, wrath, gluttony, sloth, lust में आते हैं.
अब जबकि आपने सात अजूबों के साथ सात महापाप भी देख लिया तो ज़रा सात महापुण्य भी देख लें. यह इस प्रकार हैं.
लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)
Chastity पाकीज़गी, विशुद्धता
Temperance आत्म संयम, परहेज़
Charity यानी दान, उदारता,
Diligence यानी परिश्रमी,
Forgiveness यानी क्षमा, माफ़ी
Kindness यानी रहम, दया,
Humility विनम्रता, दीनता, विनय
तो फिर क्या सोच रहे हैं. चलिए इस बार के रिज़ोल्युशन यानी संकल्प में इन महापापों से बचना और सदगुणों को अपनाना भी शामिल कर सकते हैं. वैसे जश्न के माहौल में कुछ ज़्यादा खाने से मना करने पर कहीं आप नाराज़ न हो जाएं. नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ विदा लेते हैं....

शुक्रवार, 20 जून 2008

कहानी कोम्पलिकेशन


भारती परिमल
'सागरिका समीर सक्सेना' इस खूबसूरत नाम को कागज पर लिखने के बाद डॉ. मयंक ने सामने की कुर्सी पर नजर डाली। उनके सामने सचमुच सागर-सी गहरी ऑंखों वाली खूबसूरत युवती अपने हमसफर के साथ बैठी थी। सारी कायनात आकर इस सुंदरता की बलैया लें, तो भी आश्चर्य न होगा, किंतु इस वक्त ये स्वयं ही उदासी का प्रतिरूप थी।
'कहिए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?' ऐसा कहते हुए डॉ. मयंक ने दोनों की ओर मुस्कराते हुए देखा। जवाब समीर ने दिया- डॉ., हमारी अभी अभी शादी हुई है और हम अभी बच्चा नहीं चाहते, इसलिए आप...
डॉ. मयंक ने पेन टेबल पर रख दिया और कठोर स्वर में उनसे पूछा- क्या मैं जान सकता हूँ क्यो? समीर जैसे इस सवाल के लिए पहले से ही तैयार था। तुरंत बोला- डॉ., अभी हमारी शादी को केवल 4 महीने ही हुए हैं। अभी तो हमारे मौज-मस्ती करने के, घूमने-फिरने के और एक-दूसरे को जानने-समझने के दिन हैं। हम इतनी जल्दी इस जवाबदारी को निभाने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। मेरी नौकरी को भी मुश्किल से एक साल हुआ है। सागरिका भी एम. ए. कर रही है। पहले हम अपने आप पर ध्यान दें। फिर बच्चे के बारे में कुछ सोचेंगे।
डॉ. मयंक का मन हुआ कि पूछ ले 'जब अपने आप पर ही ध्यान देना था, तो मौज-मस्ती करते हुए सावधानी क्यों नहीं रखी?' पर प्रत्यक्ष में उन्होंने केवल इतना ही कहा- देखिए, ये आपकी पत्नी की पहली प्रेगनेन्सी है। यदि इस समय एबॉर्शन करवाया गया, तो भविष्य में मुश्किलें हो सकती हैं। मैं आपको गर्भपात करवाने की सलाह बिलकुल नहीं दूँगा।
डॉ. की बात का समीर पर कोई असर नहीं हुआ। उसने निर्णयात्मक स्वर में कहा- नहीं, हम अभी 3-4 साल तक कोई बच्चा नहीं चाहते। आप ये काम कर दीजिए वरना शहर में दूसरे डाक्टर्स की कमी नहीं है। हम किसी दूसरे क्लिनीक में चले जाएँगे। चूँकि आपका नाम जाना-पहचाना है, इसलिए आपके पास आए हैं, प्लीा..। लेकिन इस प्लीा में विनती कम आदेश यादा था।
ओ. के. जब आप दोनों की यही मर्जी है, तो मैं क्या कर सकता हूँ। एक बार समझाना मेरा फर्ज था। उसे मानना न मानना आपके ऊपर है। ऐसा कहते हुए डॉ. मयंक ने फिर से पेन हाथ में पकडा और कुछ जरूरी कागाात तैयार करने में लग गए। उन कागाात पर पति-पत्नी दोनों के हस्ताक्षर लेने के बाद वे सागरिका को लेबर रूम में ले गए।
रूम से बाहर आते ही समीर ने प्रश् किया- डॉ. खतरे की तो कोई बात नहीं है? नहीं, फिलहाल तो खतरे की कोई बात नहीं है। सब कुछ अच्छी तरह से हो गया है, लेकिन भविष्य में यदि कुछ कॉम्पलीकेशन आ जाए तो कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है। बस आप दोनों को आगे से मौज-मस्ती के मामले में थोड़ी 'सावधानी' रखने की जरूरत है।
कुछ घंटे बाद जब दोनों क्लिनीक से निकले तो काफी खुश थे। यह बात केवल नए जोड़े समीर और सागरिका की ही नहीं है। आज की आधुनिक पीढ़ी में लाखों ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जिनके कारण दवाखानों में मरीजों की भीड़ लगी रहती है। देखा जाए तो पश्चिमी चकाचौंध ने डॉक्टरों की चांदी कर दी है।ँ
डॉ. मयंक एक ईमानदार डाक्टर है। वे इस तरह के केस में अपने पेशेन्ट को एक बार अवश्य समझाते हैं। भविष्य के हानि-लाभ की पूरी जानकारी देने के बाद ही वे अपने लाभ के बारे में सोचते हैं। किंतु आज तक वे यह नहीं समझ पाए कि आखिर ये पढ़े-लिखे और समझदार युवा ऐसा कदम क्यों उठाते हैं? भ्रूण हत्या पाप होने के बाद भी लोग अपने ही शरीर के एक टुकड़े को मारने में जरा भी देर नहीं करते। शादी के बाद की पहली प्रेगनेन्सी में तो जीवन की सारी खुशियाँ समाई होती है, दांपत्य जीवन का नव अंकुर.. गृहस्थ जीवन की शुरुआत का मूर्त रूप.. प्रेम का प्रतीक एक कोमल एवं सजीव अस्तित्व.. ये सभी आभूषण क्यों लोग केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए ही उतार फेंकने को विवश हैं? कहीं किसी की पढ़ाई अधूरी है, तो कहीं वैवाहिक जीवन का आनंद अधूरा है, तो कहीं पर नौकरी की शुरुआत है। बहाने.. बहाने.. और अनेक बहाने.. इन बहानों के बीच अजन्मे शिशु कोख से डस्टबीन तक का रास्ता तय कर लेते हैं और किसी को कोई अफसोस भी नहीं होता। डॉ. मयंक ये जल्दबाजी और लापरवाही कभी नहीं समझ पाए। उन्होेंने अपनी सोच को विराम दिया और घर की ओर रुख किया।
घर आते ही पत्नी मिताली ने बाँहे पसारे उनका स्वागत किया। 'आज तो बहुत अच्छे मूड में हो। कहो, क्या बात है? कहीं नौकरी में प्रमोशन तो नहीं मिला?' मिताली एक बैंक में काम करती थी। कुछ समय पहले ही उसने प्रमोशन के लिए परीक्षा दी थी। मयंक को लगा निश्चित ही आज उसका रिजल्ट आया है इसीलिए मिताली इतनी खुश दिखाई दे रही है।

'हाँ, प्रमोशन तो हुआ है, लेकिन बैंक में नहीं, जिंदगी में। अभी तक मैं केवल एक पत्नी थी अब मैं माँ बनने वाली हूँ। तो यह तो प्रमोशन ही हुआ ना? कहते हुए मिताली खुशी से खिलखिला उठी।
'लेकिन डॉ. मैं हूँ। इस बात की जानकारी पहले मुझे होगी फिर तुम्हें होगी। यह उल्टा कैसे हो गया?'
'मेरे प्यारे डॉ. साहब। आधी डाक्टर तो मैं भी हूँ। यूरीन टेस्ट से मैं ने प्रेगनेन्सी का पता लगा लिया है। मुबारक हो। मेरे साथ साथ आपका भी प्रमोशन हो गया है। आप पापा बनने वाले हैं।'
'सच मिती, आज मैं बहुत खुश हूँ। पूरे पाँच साल बाद हमारे जीवन में खुशी का यह क्षण आया है। आज का डिनर हम बाहर करेंगे।' ये कहते हुए मयंक ने मिताली को बाँहों में उठा लिया। डिनर कर वे देर रात घर लौटे और फिर नन्हें शिशु के बारे में बातें करते करते कब 1 बज गया पता ही नहीं चला।
अभी उन्हेंं सोए हुए आधा घंटा ही हुआ था कि फोन घनघना उठा। बड़ी मुश्किल से मयंक ने ऑंखें खोली। अब भला इतनी रात को किसका फोन हो सकता है? उसने गहरी नींद में सोई मिती को जगाना ठीक न समझा और स्वयं ही रिसीवर उठा लिया। सामने की तरफ से बड़े भैया बोल रहे थे। मयंक ने आश्चर्य से पूछा- भला इतनी रात को फोन क्यों किया? सब ठीक तो है ना? माँ-बाबूजी की तबियत तो ठीक है ना?
जवाब मिला- अरे पगले, सब ठीक है। और फिर रात होगी तुम्हारे लिए। यहाँ तो दिन का उजाला फैला हुआ है। सूरज की किरणें घर के ऑंगन में दस्तक देते-देते अब तेरे जीवन में दस्तक देने वाली है। खबर ही इतनी अच्छी है कि मैं तुझसे बात करने के लिए अपने आपको रोक न सका। इसीलिए आधी रात को तुझे फोन लगाया है।
मयंक के बड़े भैया अमेरिका में कई सालों से स्थायी रूप से बस गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पत्नी-बच्चों और माता-पिता को भी वहीं बुला लिया है। यहाँ भारत में केवल मयंक और मिताली ही रहते हैं।
हाँ, मयंक। मैं जो कुछ कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुन- तुम दोनों के अमेरिका आने के लिए जो सरकारी तैयारियाँ चल रही थीं, वे अब पूरी हो चुकी हैं। तुम्हें चार-पाँच दिनों में सारे दस्तावेज मिल जाएँगे। फिर एक-दो महिने में तुम दोनों यहाँ आ सकते हो। समय बहुत ही कम है। तुम अपनी प्रेक्टिस समेटना शुरू कर दो। मकान जल्दबाजी में बेचना ठीक नहीं है। इसलिए फिलहाल उस पर ताला लगाना ही ठीक होगा। हाँ, वाहन और अन्य बड़े सामान तुम चाहो तो बेच सकते हो। कुल मिलाकर अब तुम सब कुछ समेटना शुरू कर दो और एक-दो महीने में यहाँ आ जाओ। यहाँ हम सभी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कई सालों बाद पूरा परिवार एक साथ एक छत के नीचे रहेगा। हम सभी की चाहत अब पूरी होने वाली है। बस तुम और मिताली अब यहाँ आने की तैयारी शुरू कर दो।
सुबह जब मयंक ने यह खबर मिताली को सुनाई तो वह भी खुश हो गई। उन दोनों की चाहत अमेरिका जाने की थी। कितने लंबे समय की तैयारियों के बाद ये चाहत पूरी हो रही थी। अपनों के बिना यहाँ उनका मन भी नहीं लगता था। करीब-करीब सभी रिश्तेदार तो वहीं अमेरिका में ही थे। यहाँ तो केवल वे दोनों बस अपने दिन ही काट रहे थे।
मिती को प्यार से अपने करीब बैठाते हुए मयंक बोला- मिती, अमेरिका जाने की खुशी तो मुझे भी बहुत है। वहाँ जाते ही सालों का सपना पूरा होने के साथ-साथ हमारा संघर्ष भी शुरू हो जाएगा। चार-पाँच साल तो अपनी पहचान बनाने के लिए काफी मेहनत करनी होगी। वहाँ की डिग्री प्राप्त करने के लिए फिर से पुस्तकों से नाता जोड़ कर दिन-रात पढ़ाई करनी होगी। दूर की सोच कर देखें तो संयुक्त परिवार में रहना हमारे लिए संभव नहीं है। अलग रहते हुए हमें साथ रहने की आदत नहीं है, सो यादा से यादा साल भर का साथ ही बहुत होगा। जब तक मेरी पढ़ाई चलेगी तब तक 3-4 साल के लिए तुम्हें नौकरी करनी पड़ सकती है। नया देश.. नया शहर.. नए लोग.. नई संस्कृति और एक नया संघर्ष.. डार्लिंग ये सभी के बीच एडजस्ट होने के लिए तुम्हें एबॉर्शन करवाना ही होगा।
क्या? मिती चीख पड़ी। मयंक, जानते हो तुम ये क्या कह रहे हो? कितने सालों बाद हमारी ये चाहत पूरी हो रही है और तुम मुझे एबॉर्शन करवाने की सलाह दे रहे हो?
हाँ, डियर। हम अगले पाँच वर्षो तक बच्चे की जवाबदारी नहीं उठा सकते। वी कान्ट अफोर्ड ए चाइल्ड फोर फाइव इयर्स, सॉरी। ये बात वही डॉ. मयंक कह रहा था, जो एक दिन पहले यह सोच कर परेशान हो रहा था कि क्यों लोग अपनी अजन्मी संतान को इस दुनिया में आने नहीं देते और इसके लिए अनेक बहाने खोज निकालते हैं। उन अनेक बहानों में से एक बहाना डॉ. मयंक ने भी ढूँढ लिया था।
अमेरिका में डॉ. मयंक और मिताली को बसे हुए पंद्रह साल हो गए हैं। मयंक की प्रेक्टिस अच्छी चल रही है। मिती को भी एक बैंक में अच्छे पद पर नौकरी मिल गई है। धन-दौलत, सम्मान, बड़ा सा बँगला सभी कुछ है उनके पास। बस कमी है तो केवल एक संतान की। कभी-कभी एबॉर्शन के किसी केस में कॉम्पलीकेशन भी आ जाते हैं। हजारों मरीजों के कॉम्पलीकेशन ठीक करने वाले डॉ. मयंक अपनी तकदीर का कॉम्पलीकेशन ठीक नहीं कर पाए।
भारती परिमल

गुरुवार, 19 जून 2008

हमारे भीतर ही है सौंदर्य


डॉ. महेश परिमल
आज हर कोई सौंदर्य की तलाशमें है। इस बाहरी सौंदर्य की चाहत रखने वाले आज लगातार भटक रहे हैं, उन्हें वह नहीं मिल पा रहा है, जो वह हृदय से चाहते हैं। सौंदर्य एक ऐसी अनुभूति है, जो भीतर से प्रस्फुटित होती है। इसके लिए आवश्यकता है दृष्टि की। यहाँ दृष्टि का आशय नजर न होकर भीतर की दृष्टि से है। सौंदर्य तो हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा है, हम ही हैं कि उसे देख नहीं पाते। हमारे ही आसपास बिखरे सौंदर्य को न देख पाने की कसक को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में उतारने की कोशिशकी है.
कविवर कहते हैं कि सौंदर्य की खोज में मैं न जाने कहाँ-कहाँ भटका, कई पर्वत श्रृंखलाएँ देखी, कई नदी, पहाड़ देखे, पर कहीं भी सौंदर्य की अनुभूति नहीं हुई। मैं अभागा था जो अपने ही ऑंगन में ऊगी धान की उन बालियों को नहीं देख पाया। बाद में उन्होंने उन बालियों का वर्णन इतने प्यारे और सटीक तरीके से किया है कि लगता है सचमुच सौंदर्य तो उनके ऑंगन में ही था, वे ही थे, जो उसकी तलाशमें इधर-उधर भटक रहे थे। किसी ने सच ही कहा है कि किसी को देखने के लिए ऑंखों की नहीं, बल्कि दृष्टि की आवश्यकता है। यही दृष्टि है, जो भीतर होती है। इसका संबंध ऑंखों से नहीं, बल्कि आत्मा से होता है। यही आत्मा है, जो कभी किसी झोपड़ी में जितना सुकून देती है, उतना सुकून तो महलों में भी नहीं मिलता।
सत्यम् शिवम् सुंदरम् अथवा सत् चित्त आनंद, ये सभी परमात्मा के ही स्वरूप हैं। आप जैसे-जैसे सत्य के करीब जाएँगे, सत्य को समझने और जीने की इच्छा को बलवती करेंगे, सत्य की सेवा में एक साधन के रूप में समर्पित हो जाएँगे, वैसे-वैसे परमात्मा आपके माध्यम से प्रकट होने लगेंगे। शुभेच्छा से लबालब भरी चेतना में स्वयं परमात्मा ही प्रकट होने लगते हैं। परमात्मा शिव की तरह है। सर्वमंगल की कामना हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। परमात्मा के माध्यम से कभी किसी का अमंगल नहीं होता। सभी के कल्याण की सतत बहती धारा का ही दूसरा नाम है परमात्मा।
इसे समझने के लिए आओ चलें, प्रकृति की गोद में। कभी कश्मीर जाकर वहाँ के पहाड़ी सौंदर्य को अपनी ऑंखों में बसाया है? श्रीनगर के बागीचों में खिले रंग-बिरंगे फूलों के सौंदर्य को निहारा है? कभी धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर की वादियों को मन की ऑंखों से देखने की कोशिशकी है? बर्फ से ढँकी पहाड़ियाँ भला किसका मन नहीं मोह लेती होंगी? वहाँ के स्त्री-पुरुष को कभी तालबध्द होकर चलते देखा है आपने? इन्हें मन की ऑंखों से निहारोगे, तो परमात्मा हमें अपने करीब महसूस होंगे। निश्चित ही यह प्रश्न सामने आएगा कि एक साधारण इंसान सौंदर्य की तलाशमें भला इतनी दूर आखिर क्यों जाएगा? वह तो अपने आसपास ही प्रकृति के अनोखे सौंदर्य को निहारने की कोशिशकरेगा। आखिर हमें कहाँ मिलेगा हिमालय जैसा सौंदर्य? तो चलो, हम अपने ही आसपास बिखरे सौंदर्य को निहारें।
कभी सुबह जल्दी उठकर ऊगते सूरज को देखो, वह हर बार अपने नए रंग में दिखाई देगा। उसकी किरणें हमें न केवल स्फूर्ति देती है, बल्कि उन किरणों की छटा देखने लायक होती है। इंद्रधनुषी रंगों में बिखरी ये किरणें नव जीवन का संदेशदेती हैं। दिन भर की यात्रा के बाद शाम को यही सूरज चटख लाल रंग की किरणों के साथ अपना डेरा समेटता है, तो उसका सौंदर्य ऑंखों को बहुत ही भला लगता है। सूरज के इन दोनों रूपों का सौंदर्य तो अनूठा है ही, कभी दोपहर के सूरज का तापसी रूप भी देखने की कोशिशकी जाए। ठंड की यही धूप गुनगुनी लगती है, तो गर्मी में झुलसा देने वाली होती है। बारिशमें तो हम सब तरस जाते हैं सूरज के दर्शन के लिए। सूरज का हर रूप अप्रतिम होता है, इसे निहारो और बसा लो अपने हृदय में।
अब कभी आसमान के बादलों का ही रूप देखने की कोशिशकरो। पवन किस तरह से बादलों की पालकी को लेकर चलते हैं? कितने रूप हैं बादलों के, कोई कह सकता है? कभी सघन, कभी काले, कभी रुई के फाहों की तरह मुलायम, कभी हल्के नारंगी रंग के, तो कभी हमारी कल्पना के रूप में ढलते बादल, हमें हमेशा कुछ न कुछ संदेशदेते दिखाई देते हैं। इनके आकार-प्रकार की तो बात ही न पूछो। पल-पल में ये अपना आकार ऐसे बदलते हैं मानो, प्रकृति के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। क्या इसे आपने कभी नहीं देखा, तो अपने ही ऑंगन में फुदकती चिड़ियाओं को ही देख लो, किस तरह से वह दाना चुगते समय दूसरे साथियों के साथ लुका-छिपी का खेल खेलती हैं। अपने बच्चों को दाना देते समय कितनी मासूम लगती हैं ये चिड़ियाएँ। यह भी एक सौंदर्य है, जिसे हम सदैव नकारते आए हैं या फिर कह लें, कभी देखने की कोशिशही नहीं की।

कभी मंद-मंद हवा के बीच किसी पेड़ की दो पत्तियों का आपस मेें मिलना कितना सुखद लगता है, यह कभी देखा आपने। अरे जब तेज हवा चलती है कि कुछ पेड़ किस तरह से झुककर धरती को प्रणाम करते हैं, इसे ही देखने की कोशिशकर लो। ध्वजा के तरह खड़े हुए देवदार या फिर अशोक के पेड़ को ही देख लो। चिलचिलाती धूप में भी किस तरह से अशोक का पेड़ हरा-भरा रहता है, इसका हरियाला संदेशजानने की कोशिशही कर लो। क्या पलाशके फूलों को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि प्रकृति ने उसे बड़ी ही तन्मयता से बनाया है। क्या इसका रंग हमें मोहित नहीं करता? पहली बारिशके बाद उठने वाली माटी की महक से भला कौन मतवाला नहीं बनता होगा? बारिशकी पहली फुहार किस तरह से तन-मन को भिगोकर भीतर की तपिशको कम कर देती है, यह जानने का प्रयास किया आपने?
यह तो हुआ प्रकृति का सौंदर्य, अब आप देखना ही चाहते हैं तो किसी शरारती बच्चे की शैतानी में ही खोज लो सौंदर्य। किस तरह से वह अपनी तमाम हरकतों को एक के बाद एक अंजाम देता है? पकड़े जाने पर उसके चेहरे की मासूमियत को निहारो, आप पाएँगे कि सचमुच यशोदा ने कृष्ण के चेहरे पर इसी तरह की मासूमियत देखी होगी। बच्चों की शरारतों और माँ के दुलार में भी होता है एक वात्सल्यपूर्ण सौंदर्य। भाई-बहन के नोक-झोंक में, देवर-भाभी की तकरार में, सखियों के वार्तालाप में, दोस्तों के जमावड़े में, प्रेमी युगल के सानिध्य में, पति-पत्नी के अपनेपन में भी होता है सौंदर्य। कभी किसी बुजुर्ग के पोपले मुँह और झुर्रीदार चेहरे को ही निहार लो, उनकी हँसी में होता है सौंदर्य। अनेक योजनाएँ होती हैं उनकी खल्वाट में। कभी उन्हें कुरेदने की कोशिशतो करो, फिर देखो अनुभव का सौंदर्य।
सौंदर्य के कई रंग हैं, कई रूप हैं, हर कहीं बिखरा पड़ा है सौंदर्य। बस आवश्यकता है उसे देखने की, उसे अपने भीतर महसूस करने की। केवल एक शब्द मात्र नहीं है सौंदर्य। वह एक अनुभूति है, जो हर प्राणी में होती है। कोई इसे अनुभव करता है, तो कोई इसे हँसी में ही टाल देता है। सौंदर्य की पराकाष्ठा उसे समझने में है। नदी का कल-कल किसी के लिए शोर हो सकता है, तो किसी के लिए जीवन का संगीत। सर-सर बहती हुई हवा जब हमारे शरीर को छुकर निकलती है, तब हम जिस कंपन को महसूस करते हैं, वास्तव में वही है हवा की मीठी चुभन। सौंदर्य हमारे सामने कब किस रूप में होता है, इसे जानने और समझने के लिए हमें अपनी दृष्टि को स्वच्छ बनाना होगा। ऑंखों में प्यार, दुलार और अपनापन लेकर यदि हम सौंदर्य को खोजने निकलें, तो हमारे ही आसपास मिल जाएगा। इसी सौंदर्य को जब भी हम अपने भीतर बसा लेंगे, तब ही समझो हमने परमात्मा को पा लिया। सत्य शिव और सुंदर का साक्षात्कार कर लिया।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 18 जून 2008

किताबें कुछ कहना चाहती हैं


सफदर हाशमी

किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की,
दुनिया की, इंसानों की,
आज की, कल की,
एक-एक पल की,
गमों की, फूलों की,
बमों की, गनों की,
जीत की, हार की,
प्यार की, मार की।
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
किताबों में साईंस की आवाज है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं..
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

सफदर हाशमी

मंगलवार, 17 जून 2008

समय के साथ खुद का ढालती आज की नायिकाएँ


डॉ. महेश परिमल
परिवर्तन समय की माँग है। सभी में समय के साथ बदलाव आता ही है। ऐसे में समाज का मनोरंजन करने वाला फिल्म उद्योग भला कैसे पीछे रह सकता है? इसीलिए आज बॉलीवुड जबर्दस्त परिवर्तन के दौर से गाुर रहा है। एक समय ऐसा था, जब हजारों-लाखों रुपए प्राप्त करने वाले कलाकार आज करोड़ों रुपए ले रहे हैं। लोग समझते हैं कि केवल अमिताभ, शाहरुख या अक्षय कुमार ही करोड़ों रुपए ले रहे हैं, बल्कि आजकल तो अभिनेत्रियाँ भी करोड़ों की बात कर रही हैं। इस मामले में अब अभिनेत्रियाँ भी अभिनेताओं के साथ कदमताल कर रही हैं। करीना कपूर, कैटरीना कैफ, बिपाशा बसु, रानी मुखर्जी, शिल्पा शेट्टी इनके उत्तम उदाहरण हैं। अब तो रोज ही नायिकाओं द्वारा अधिक से अधिक राशि की माँग की खबरें सुखयाँ बनने लगी हैं। हाल ही में शिल्पा शेट्टी ने एक फिल्म के लिए साढढ्े पाँच करोड़ रुपए लेने की खबर सुर्खी में आई, तो करीना आदि के तेवर ही बदल गए। अब इनमें यही होड़ मची है कि कौन कितने अधिक रुपए लेता है।

'जब वी मेट' की अपार सफलता के बाद तो करीना कपूर और कद्दावर हो गई है। इसी फिल्म के बाद ही अपने लम्बे प्रेम प्रकरण को विराम दे दिया और छोटे नवाब सैफ अली खाँ का दामन थाम लिया। मात्र 28 बरस की यह बाला आज वह एक फिल्म के तीन से साढ़े तीन करोड़ रुपए ले रही है। इसके पहले केवल ऐश्वर्या राय ही तीन करोड़ रुपए लेती थीं, पर अब करीना पारिश्रमिक लेने में सबसे आगे है। यह बात अलग है कि करीना को कद्दावर बनाने में फिल्म 'जब वी मेट' का बड़ा हाथ है। इस फिल्म के निर्माण के समय शाहिद-करीना पे्रम के सागर में डुबकियाँ लगा रहे थे। उनके पे‎‎्रम की अभिव्यक्ति इस फिल्म के कई दृश्यों में देखने को मिली। इसी फिल्म से शाहिद कपूर का भी बोलबाला हो गया। उन्होंने भी अपना पारिश्रमिक बढ़ा दिया है। हॉलीवुड हो या फिर बॉलीवुड, यहाँ लोगों को अभिनय से नहीं, बल्कि पारिश्रमिक से जाना और पहचाना जाता है। अब करीना ही नहीं, बल्कि रानी मुखर्जी भी अपने आप को एक्शन हीरोइन के रूप में स्थापित कर रही हैं।
परर्िवत्तन के दौर से गाुरते बॉलीवुड में एक बात अभी भी नहीं बदली, वहाँ आज भी हीरो की पसंद की हीरोइन को रखा जाता है। दर्शक वर्ग आज भी हीरो का नाम देखकर ही टॉकीज पहुँचता है, लेकिन अब हीरोइनें भी अपने आप को केवल हीरो के आगे-पीछे नाचने-गाने तक ही सीमित न रखकर ऐसी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ करने लगी हैं, जिससे उनका कलाकार उभरकर सामने आ रहा है। इसीलिए वे भी अब मुँहमाँगा दाम माँग रहीं हैं।

इस संबंध में एक माकर्ेंटिंग एजेंसी के वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि आज फिल्मों में टेलेंटेड हीरोइनों का अभाव है, इसलिए जिसकी हीरोइन की फिल्म हिट होती है, उसका भाव तुरंत ही बढ़ जाता है। आज हर फिल्म में एक सुंदर हीरोइन का होना अतिआवश्यक हो गया है। इसलिए सुंदर अभिनेत्रियाँ बहुत ही व्यस्त रहने लगी हैं। इनकी व्यस्तता का एक और कारण यह भी है कि आज की सारी सफल नायिकाओं के अपने प्र्रेम संबंध हैं, जिनके कारण उन्हें काफी पब्लिसिटी मिलती है। कइर्ण बार तो ये जान-बूझकर भी अपने प्रेम प्रकरणों पर खुलकर बात करती हैं, ताकि इस तरह से फिल्म भी चल जाए। फिल्म के बाद इन हीरोइनों को विज्ञापनों से भी काफी धन मिलने लगा है। इतने से भी पूरा नहीं पड़ने पर गमयों में ये किसी न किसी स्टॉर के साथ विदेशों में जाकर स्टे शो करतीं हैं, ताकि भारत से गर्मी से निजात मिल जाए और धन भी कमा लिया जाए।
आज चाहे करीना हो, कैटरीना हो, या फिर बिपाशा हो, ये सभी अपने गुरु ऐश्वर्या राय के नक्शे-कदम पर चल रही है। ऐश्वर्या राय तीन प्रेम प्रकरणों के चलते काफी विवादास्पद हुई, धीरे-धीरे अपनी प्रतिभा के बल पर चुनिंदा फिल्में ही लेने लगी। कई बार तो ऐसा भी हुआ, जब उसे कहानी पसंद न आई हो, तो उसने फिल्म में काम करने से ही मना कर दिया। मॉडल से हीरोइन बनने के सफर में उसने हमेशा लिखित समझौते ही किए। मुँहमाँगी रकम न मिलने पर उसे फिल्म छोड़ने का ारा भी दु:ख नहीं होता। यही कारण है कि आज की अभिनेत्रियाँ उसे अपना गुरु मानकर वैसा ही कर रही हैं। आज की अभिनेत्रियाँ अब किसी से डरती भी नहीं हैं। वे बेखौफ होकर शूटिंग के लिए पहुँचने लगी हैं। आजकल की नायिकाओं के साथ उनकी माता, भाई-बहन या फिर कोई संबंधी नहीं होता। पहले की नायिकाओं में इसके नखरे बहुत थे। पर समय के साथ अब यह भी बदल गया है। करीना हो या बिपाशा, ये दोनों तो परिवार प्रेमी हैं, इनके साथ कोई नहीं होता, पर कैटरीना इसमें थोड़े अपवाद के रूप में सामने आती हैं। वे अपने साथ सदैव अपनी 16 वर्षीय बहन इजाबेले को रखती हैं।

करीना कपूर ने शुरू में काफी फ्लॉप फिल्में दी हैं, लेकिन बाद में उसकी कई फिल्में हिट रहीं। उसने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन केवल कामर्शियल फिल्मों में ही नहीं, बल्कि 'चमेली' और 'ओमकारा' जैसी ऑफबीट फिल्मों में भी अच्छी भूमिकाएँ की हैं। करीना आज एक तरह से 'जब वी मेट' की नायिका गीत की तरह ही अपना जीवन जी रही है। वह अपने आप को खूब प्यार करती है और जीवन के सारे निर्णय लेते समय अत्यंत सजग रहती है।
आज की नायिकाओं में दूरदर्शिता स्पष्ट दिखाई देती है, अब वह बात नहीं रही, जब हम पुरानी फिल्मों की नायिकाओं की मौत की खबर सुनते थे, तब पता चलता था कि वह किस तरह से गरीबी और लाचारी में अपना जीवन काट रही थीं। आज की नायिकाओं ने अपने चारों ओर धन के इतने अधिक स्रोत तैयार रखे हैं कि भविष्य में उन पर किसी तरह का आर्थिक संकट नहीं आएगा, ऐसा कहा जा सकता है। अपने आपको बॉलीवुड में स्थापित रखने के लिए आज की नायिकाएँ स्टंट भी सीखने लगी हैं। डॉन में पि्रयंका चोपड़ा ने शाहरुख के साथ किए गए स्टंट सीन स्वयं ही किए हैं। 'टशन' में करीना कपूर को कई हैरतअंगेज स्टंट सीन के साथ हम देख सकते हैं। इस तरह से आज की नायिकाओं ने अपने आपको समय के साथ ढाल लिया है और बदलते जीवन मूल्यों के साथ स्वयं को भविष्य में पूरी तरह से सुरक्षित रखना भी सीख लिया है।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 16 जून 2008

देश में जारी है मिलावटी दूध का तांडव


डॉ. महेश परिमल
दूध हमारे जीवन का एक आवश्यक पेय पदार्थ है। दूध की महिमा अपरंपार है। दूध का मोल कभी चुकाया नहीं जा सकता, इस उक्ति के पीछे दूध में समाहित वे भाव हैं, जिससे माँ के माध्यम से शिशु तक पहुँचता है। जन्म के कुछ समय तक तो माँ का यही दूध उसके लिए अमृततुल्य होता है। लेकिन मिलावट की इस दुनिया में अब कुछ भी शुद्ध नहीं है, यहाँ तक माँ का दूध भी। आज वह भी मिलावट का शिकार हो गया है। कुछ देशों में मिलावट के कानून इतने सख्त हैं कि वहाँ मिलावट नहीं होती, पर हमारे देश में अभी तक मिलावट के नाम पर किसी को कोई बड़ी सजा दी गई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। दूध को दवा मानने वालों को कैसे समझाया जाए कि आज दवाओं में भी मिलावट जारी है और हमारे देश में 'सब चलता है', के कारण कुछ खास नहीं हो पाता।
दूध एक संपूर्ण आहार ही नहीं, दवा भी है। विश्व में माता का दूध सर्वश्रेष्ठ साबित हो चुका है। दूध पीने से अनेक रोगों का नाश होता है। दूध में पानी, खनिज तत्व, वसा, प्रोटीन, शर्करा आदि पदार्थो का समावेश होता है, जो शरीर के लिए अति आवश्यक है। किंतु आज मिलावटी दूध बाजार में उपलब्ध है। इसके सेवन से स्त्रियों को स्तन और गर्भाशय का केन्सर होने की संभावना बढ_ण जाती है। छोटे बच्चों को यदि ये मिलावटी दूध नियमित रूप से दिया जाए, तो इसके सेवन से युवावस्था तक आते-आते ये अनेक रोगों के शिकार हो सकते हैं। ये सारी बातें यदा-कदा अखबार या अन्य पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हमारे मस्तिष्क में बैठती है, किंतु इसके बाद भी आज की आधुनिक मम्मियाँ अपने फिगर मेन्टेन की चाहत में बच्चों को स्तनपान कराने से दूर रहती हैं। शारीरिक सौंदर्य की चिंता में लगभग 94 पýý्रतिशत माताएँ संतान को डिब्बाबंध दूध देकर बीमारियों को आमंत्रित कर रही हैं।
एक समय था, जब हमारे देश में दूध की नदियाँ बहती थीं। इसके विपरीत वह समय जल्द ही आने वाला है, जब हम अपनी सुबह की शुरुआत विदेशी दूध की चाय पीकर करेंगे, क्योंकि मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपनी गुणवत्तायुक्त और एकदम नई पेकिंग के साथ दूध का व्यापार करने के लिए हमारे देश में प्रवेश कर चुकी हैं। दक्षिण भारत में इनका दूध का व्यापार शुरू हो चुका है। विदेशी कंपनियाँ भी अपने लाभ की ओर ध्यान देते हुए पूरी तैयारी के साथ बाजार में कदम रख रही हैं। इस व्यापार के पीछे की हकीकत देखी जाए, तो मिलावटी दूध की बात सामने आती है। आज पेकिंग दूध में मिलावट की दृष्टि से ही चिकित्सक रोगी को इसे न पीने की सलाह देते हैं। दूध में पानी से लेकर जंतुनाशक, डी.डी.टी., सफेद रंग, हाइड_्रोजन पैराक्साइड आदि मिलाकर सिन्थेटिक दूध बनाया जाता है। देश में प्रतिदिन लगभग 1 करोड़ लीटर से अधिक दूध की बिक्री होती है। किंतु मिलावटी दूध के कारण अब तो दूध को संपूर्ण आहार कहना भी गलत होगा।
आज मिलावटी दूध के सेवन से लोग अनेक रोगों का शिकार हो रहे हैं। माँ के दूध में 87.7 प्रतिशत पानी, 3.6 प्रतिशत वसा, 6.8 प्रतिशत शर्करा, 1.8 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत खनिज तत्व होते हैं। भैंस के दूध में 84.2 प्रतिशत पानी, 6.6 प्रतिशत वसा, 5.2 प्रतिशत शर्करा, 3.9 प्रतिशत प्रोटीन और 0.8 प्रतिशत अन्य खनिज पदार्थ उपलब्ध होते हैं। गाय के दूध में 84.2 प्रतिशत पानी, 6.6 प्रतिशत वसा, 5.2 प्रतिशत शर्करा, 3.9 प्रतिशत प्रोटीन, 0.7 प्रतिशत खनिज तत्व होते हैं। बकरी के दूध में 86.5 प्रतिशत पानी, 4.5 प्रतिशत वसा, 4.7 प्रतिशत शर्करा, 3.5 प्रतिशत प्रोटीन, 0.8 प्र्रतिशत खनिज तत्व, भेड़ के दूध में 83.57 प्रतिशत पानी, 6.18 प्रतिशत वसा, 4.17 प्रतिशत शर्करा, 5.15 प्रतिशत प्रोटीन और 0.93 प्रतिशत खनिज तत्व होते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि संसार में माता का दूध सर्वश्रेष्ठ है।

दूध एक उत्तम आहार होने के बाद भी आज केवल मिलावट के कारण ये संदेह के घेरे में है। दूध की शुध्दता पर लगे प्रश्न चिह्न से उसकी गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में दूध के पंद्रह नमूने लिए गए और जब उस पर शोध किया गया, तो पता चला कि उसमें 0.22 से 0.166 माइक्रोग्राम जितना डी.डी.टी. था। पंजाब में दूध में डी.डी.टी. होने का प्रमाण अन्य रायों की तुलना में 4 से 12 गुना अधिक है। यदि ऐसा दूध स्त्रियाँ सेवन करें, तो उनमें स्तन केन्सर या गर्भाशय का केन्सर होने की संभावना काफी बढ़ जाती है। दूध पावडर में भी डी.डी.टी. का प्रमाण अधिक होने के कारण यह छोटे बच्चों के लिए भी हानिकारक है।
आज लाइफ स्टाइल में आनेवाले बदलाव के कारण पेकिंग वाले दूध की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। साथ ही दूध पावडर की मांग भी बढ़ रही है। वसायुक्त एवं वसारहित दूध दोनों का ही विक्रय अधिक होता है। इससे आगे बढ़कर कंपनियों द्वारा खास ऐसी पेकिंग की जा रही है, जिसमें दूध लगभग तीन महीने तक खराब नहीं होता। प्लास्टिक की पेकिंग वाला दूध अच्छा होता है और अधिक समय तक खराब नहीं होता, ऐसा भी लोग मानने लगे हैं। आंध्रप्रदेश की एक दुग्ध डेयरी ने तो 6 माह तक खराब न होने वाले दूध को बाजार में लाने की तैयारी कर ली है। ग्राहक तो केवल पूर्ण विश्वास के साथ दूध की डेयरी और ब्रान्ड का नाम पढ़कर दूध खरीदते हैं। भारत में डेयरी प्रोजेक्ट का बाजार वर्ष में 36000 करोड़ का है।

दूध की लगातार बढ़ती जा रही माँग के कारण ही ताजा दूध मिलना तो अब संभव ही नहीं है। सभी दुधारू पशुपालक अपने पशुओं का दूध डेयरी में बेच देते हैं। यहाँ तक कि बीमार पशु का दूध भी आय को ध्यान में रखते हुए डेयरी में पहुँचा दिया जाता है। सोने पे सुहागा यह कि कई पशुपालक तो अपने पशुओं को अधिक दूध के लिए इंजेक्शन देकर दूध का व्यापार करने से भी नहीं चूकते। ऐसा दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है, इस दिशा में उन्हें सोचने की फुरसत ही नहीं है।
दूध का व्यापार करने वाले इन स्वार्थी लोगों ने तो दूध का मूल रंग ही बदल दिया है। आज दूध सफेद नहीं, अनेक रंगों में उपलब्ध है। साथ ही विविध फ्लेवर में भी बाजार में उपलब्ध है। 10 रुपए में मात्र 200 ग्राम दूध ग्राहक को देकर आज खूब कमाई की जा रही है। अमेरिका, दुबई, सिंगापुर सहित कई देशों में मिलावट को लेकर बनाए गए नियम काफी सख्त होने के कारण वहाँ पर खास मिलावट नहीं होती, पर हमारे देश में तो सब चलता है, की तर्ज पर खूब मिलावट होती है। नियम है, पर वे सभी ताक पर रखे हुए हैं। इसी का फायदा उठाकर व्यापारी वर्ग पूरे मुनाफे के साथ अपना व्यापार फैलाता जा रहा है।
दूध पीने से शरीर को वसा, प्रोटीन, खनिज तत्वों सहित अन्य जरूरी पोषक तत्व प्राप्त होते हैं, किंतु मिलावटी दूध के सेवन से तो निरोगी व्यक्ति भी रोगी बन जाता है। ऑंखों की योति फीकी पड़ जाती है, जोड़ो में दर्द की समस्या पैदा होती है। इसके बाद भी उपभोक्ता असमंजस की स्थिति में है कि जाएँ तो जाएँ कहाँ_? क्योंकि मिलावट का बाजार इतना विस्तृत है कि उसे कोई दूसरी राह ही नहीं सूझती। इस मिलावटी दूध के साथ छिपा एक सत्य यह भी है कि आज दुधारू पशुओं की संख्या भारत में ही नहीं विश्व में भी कम होती चली जा रही है। इस स्थिति में इस समस्या का हल क्या होगा? फिलहाल तो एक ही हल नजर आता है कि दूध को केवल गरम करके नहीं वरन् अच्छी तरह से उबाल कर फिर सेवन किया जाए। यही एक उपाय है जो रोगों से बचाने में कुछ हद तक सफल हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 14 जून 2008

आशा अमर है


भारती परिमल
आशा जीवन का पर्याय है। आशा के अभाव में मनुष्य केवल जिंदा रहता है। जिंदा मनुष्य और जानवरों में कोई भेद नहीं होता। आशा प्रेरणा की पहली किरण है। प्रकाश का महापुंज है। साँसों की परिभाषा है। रिश्तों की गहराई है। सागर की उफनती लहर है। रेगिस्तान की तपती रेत पर पड़ती बूँद है। खिड़की पर बैठी चिड़िया है। घने जंगल में भागती हिरनी है। पतझर के बाद का वसंतोत्सव है। मुट्ठी में कैद रेत का अंतिम कण है। सूने ऑंगन में खिला फूल है। बादल के गालों से टपका ऑंसू है। सूखी धरती को सुकून देता मृदु जल है। चातक की ऑंखों का सुकून है। कवि हृदय की कल्पनाओं का आकार है। लेखक के विचारों का विराम है। प्रेयसी की प्रतीक्षा को मुखरित करती पायल की झ्रकार है। कोकिला की वाणी से निकली कुहू-कुहू की गूँज है। धुँधली साँझ का रेशमी उजाला है। गहरे ऍंधकार का टिमटिमाता दीया है। भटकते राही का पथ-प्रदर्शक है। पतझर के पीले पत्तों के बीच ऍंगड़ाई लेती हरी दूब है। लहलहाती धरती पर खिलती पीली सरसों है। मझधार में नाव खेते नाविक के हाथों की ताकत है। नील गगन में उड़ते पंछी के परों का जोश है। बूढ़े किसान की ऑंखों से झाँकती मुस्कान है। विधवा के श्वेत-श्याम जीवन में बिखरता इंद्रधनुषी रंग है। नारी का शृंगार है। पुरूष का जीवन संसार है। संसार के हर रिश्ते की मजबूत डोर है। घर का कोलाहल है। बिटिया की खिलखिलाहट है। बेटे का दुलार है। ममत्व की ठंडी बयार है। प्रेम की अविरल धारा है। कठिनाइयों की खाई को पाटती मजबूत शिला है। संपूर्ण जीवन का सार है। ईश्वर से मिला अनमोल उपहार है।
आशा के नए नए रूपों से परिचित होने के बाद भी कई रूप ऐसे हैं जो अभी भी अनदेखे ही हैं। अपने अपने अनुभवों के आधार पर ये रूप परिभाषित होते हैं। जिनके जीवन में ये रूप नहीं होते उनका जीवन स्वयं में ही भार रूप होता है। अत: जीवन को भार विहीन बनाने के लिए आशा का दामन थामना बहुत जरूरी है। इतिहास साक्षी है कि आशा की योति जलाकर ही हमने आजादी की लडाई लड़ी है और गुलामी के अंँधकार को दूर भगाया है। आशा के ही सहारे एक मजदूर तन-तोड़ मेहनत करता है। एक विधवा आशा के सहारे ही मासूम शिशु के साथ अपना सूना जीवन बिताती है। आशा की ऊँगली थामे एक नौजवान जीवन-पथ का संघर्ष शुरू करता है।

आशा अंतर्मन का विश्वास है तो एक तरह का पागलपन भी है। बादलों में पानी की आशा छुपी होती है, पर हर बादल पानी नहीं बरसाते। ऋतुओं में वसंत ऋतुराज कहलाता है, पर हर ऋतु वसंत नहीं होती। सूरज के ऊगते ही दिन ऊगता है, पर हर दिन सूरज नहीं दिखता। रात को आकाश तारों से जगमगा उठता है, पर कोई तारा प्रकाश नहीं देता। यह हमारे भीतर का पागलपन ही है, जो हम अति आशावादी हो जाते हैं। जबकि हर आशा कभी पूरी नहीं होती। परिस्थितियों की ऑंधियों में कितनी ही आशाएँ दम तोड़ देती है। अकाल मृत्यु की मानिंद कई आशाएँ भी काल के गर्त में समा जाती है। फिर भी इंसान है कि हिम्मत नहीं हारता। उदास ऑंखों में जहाँ निराशा का जल भरा होता है, वहाँ फिर से हाथ उठते हैं और ऊँगलियों के पोर आशा का रूप ले कर उसे सुखाने का प्रयास करते हैं। आशा जीवन की प्रेरणा, जीवन की धड़कन, साँसों की गति और रचना का संसार है। आशा अमर है।
भारती परिमल

शुक्रवार, 13 जून 2008

मम्मी-आंटी


भारती परिमल
वैशाली से फोन पर हुई चर्चा के बाद उसके पतझड़ से सूने जीवन में जैसे बहार आ गई थी। जर्जर होती शाखों पर नई कोपलें उग आई थीं और उसकी मुस्कान में आशाओं की कलियाँ खिलने लगी थी। उसे लगा था कि लम्बे अंतराल के बाद वैशाली उसे भूल गई है और उसके बिना जीने की आदत डाल लेनी चाहिए, किंतु शाम को वैशाली का एकाएक फोन आना और फोन पर हुई लंबी बातचीत ने यह साबित कर दिया कि अपनेपन के रिश्ते कभी अंतराल के घेरे में दम नहीं तोड़ते, बल्कि वे तो अपनी मजबूती को संभाले हुए और अधिक सबल होते चले जाते हैं। वैशाली ने अधिकारपूर्वक उससे साथ रहने का अपना निर्णय सुना दिया था। कितनी गंभीरता और प्यार से कहा था वैशाली ने - आपने कैसे सोच लिया कि मैं आपके बगैर रह लूँगी। मेरे जीवन के वो दिन जब मुझे माँ-बाप की जरूरत थी, तो आपने हर कदम पर मेरा साथ दिया और मुझे अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल बनाया और आज जब आपको मेरी जरूरत है, तो मैं आपको अकेला छोड़ दूँगी? मैं आपके बगैर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको मेरे साथ ही रहना है। कल सुबह की ट्रेन से आपको दिल्ली आना है। आप मेरे पास रहेंगी और हमेशा रहेंगी। आपकी बेटी आपके बिना नहीं रह सकती। प्लीा मम्मी-आंटी मेरे पास आ जाइए।
वैशाली की इस प्यार भरी मनुहार ने उसे सोचने पर विवश कर दिया। रिटायर्ड होने के बाद जब एक एक पल काटना मुश्किल हो रहा था। वहाँ अब एक-एक पल का साथ निभाने को वैशाली फिर उसके साथ थी। वैशाली के जाने के बाद वह स्वयं को एकदम अकेली महसूस करने लगी है। ऐसा नहीं था कि वैशाली एकाएक चली गई हो। वैशाली का जाना तो तय था और इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करने में उसने भी किसी प्रकार की कंजूसी नहीं दिखाई थी। गुरुवार का व्रत पिछले तीन सालों से वैशाली की चाहत पूरी हो जाने के लिए ही तो रख रही थी। अब जब ये चाहत पूरी हो चुकी है और वैशाली अपनी मंजिल की ओर बढ़ चुकी है, तो एकांत में यह मन केवल उसे ही याद करता है।
वैशाली के साथ उसका खून का रिश्ता नहीं है। फिर भी वह उसके जीवन में इस तरह घुलमिल गई है कि समय का हर पल उसी के आसपास घूमता रहता है। कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिस पर एकाएक विश्वास नहीं होता और विश्वास करने का समय आता है, तब तक पाँवों तले की जमीन खिसक चुकी होती है। हम किसी और जमीन पर खड़े स्वयं के होने का अनुभव ही करते रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति उसकी थी। वैशाली का आना उसके जीवन की एक आकस्मिक घटना थी और उसका चले जाना स्वयं के अस्तित्व की तलाश के बाद का एक नया सफर था।
जब महिला एवं बाल विकास अधिकारी के रूप में एक पिछड़े गाँव में उसकी नियुक्ति हुई थी, तब एक सप्ताह ही गाँव में रहने के बाद लगा था कि यह नौकरी ही छोड़ दे। कैसे रहेगी वह ऐसे पिछड़े हुए गाँव में जहाँ शिक्षा के नाम पर एकमात्र प्रायमरी स्कूल है और अंधविश्वासों का परचम लहरा रहा है। बिल्ली के रास्ता काटने पर अपशुकन होता है, यह तो किताबों में पढ़ा था, पर यहाँ तो किसी महिला के रास्ते में आ जाने पर ही अपशुकन माना जाता था। इसीलिए गाँव की महिलाएँ घर की चारदिवारी में ही रहती थीं और यदा-कदा किसी काम से निकल भी गई तो डेढ़ हाथ का घूँघट ओढ़े रहती थीं। आवाज निकालना तो दूर की बात थी, वे तो चूड़ियों की खन-खन और हाथ की ऊँगलियों से ही अपनी बात कह पाती थीं। नहीं, नहीं, ऐसे घुटन भरे वातावरण में वह नहीं रह पाएगी।
निर्णय करने के मामले में तो वह हमेशा से अव्वल रही है। उसने एक पल में ही निर्णय ले लिया कि वह नौकरी छोड़ देगी, पर दूसरे ही पल फिर खयाल आया नौकरी छोड़ देगी तो करेगी क्या? क्या फिर से उसी घर में जाएगी जहाँ उसे हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है? बाँझ कह कर रात-दिन कोसा जाता है? अपनापन तो दूर हमेशा दहेज कम लाने के कारण ताने मारे जाते हैं? क्या वो वापस उसी कैदखाने में जाएगी? या फिर मायके में जहाँ पिता की कमर तीन लड़कियों की शादी के नाम से झुकी चली जा रही है? उसकी शादी के समय लिया गया कर्ज तो उतरा नहीं है और वह स्वयं एक बोझ बन कर वहाँ पड़ी रहेगी? कितनी मुश्किलों के बाद सास, देवर, ननद और पति के तानों को सुनते हुए उसने ये सफलता की सीढ़ी प्राप्त की है और जब इस पर चढ़कर मंजिल को छूने का समय आया, तो पिछड़ेपन का बहाना करके नौकरी छोड़ने का विचार आ रहा है?
सारी रात के वैचारिक मंथन के बाद उसी गाँव में रहने का निर्णय ले कर वह एक सशक्त नारी के रूप में विकास पथ पर आगे बढ़ चली। पिछड़ेपन के कारण महिला विकास की बात सोचना टेढ़ी खीर है, पर बाल विकास की ओर तो कदम बढ़ाया ही जा सकता है। गाँव के सरपंच और अन्य चार-पाँच बुद्धिजीवियों के बीच बच्चों के विकास की अपनी योजनाओं को रखते हुए उसने ग्रीष्मकालीन कक्षाएँ शुरू कर दी। एक से दस और दस से पचास का ऑंकड़ा पार करते हुए सालों लग गए। इस बीच महिला विकास की चिंगारी सुलगाने में भी उसे अच्छी-खासी मेहनत करनी पड़ी। गाँव के एक-एक घर को विश्वास में लेना, उसे अपनेपन के साथ उसी के महत्व के बारे में बतलाना कोई आसान काम न था।
गाँव की महिलाओं में जागरूकता, स्वाभिमान, आत्मसम्मान और शिक्षा की आवश्यकता आदि वैचारिक भाव लाने के प्रयास में उसने तन-मन एक कर दिए। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति ने उसका साथ दिया और महिला विकास का कार्य भी नई-नई सफलताओं को पाने लगा। सालों की इस मेहनत के बाद पूरा गाँव उसका अपना था। एक-एक घर से अपनेपन के तार जुड़ गए थे। अपनेपन की इस विशाल जलकुम्भी में कुछ खो गया था तो वह था रिश्तों का अपनापन, मायके और ससुराल के बीच का सेतू जो राखी की एक डोर और सिंदूर की एक लकीर से जुड़ा हुआ था, वो सेतू टूट चुका था। फिर भी अपनत्व की इस जलकुम्भी से तरबतर वह खुश थी, बहुत खुश। उसने गाँव के विकास के लिए अपने सारे प्रमोशन ठुकरा दिए थे और इसी गाँव की होकर रह गई थी।
एकाएक उसकी खुशियों पर नजर लग गई। दस वर्ष पूरे होने की खुशी में गाँव वालों के द्वारा एक आयोजन किया गया था। जिसमें बच्चों के द्वारा गीत एवं नृत्य का छोटा-मोटा कार्यक्रम रखा गया था और उसके बाद रात्रिकालीन भोजन का भी प्रबंध था। गाँव का हर व्यक्ति इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले रहा था। बच्चे तो दावत और नृत्य के नाम से बेहद खुश थे। महिलाएँ भी विकास की इस बेला में पुरुषों से बराबरी करते हुए हर काम में अपना सहयोग दे रही थी। चारों ओर खुशियों का वातावरण था। रंगबिरंगे बल्बों की रोशनी जगमगा रही थी। पंडाल के एक तरफ बड़े-बडे क़ड़ाहे चढ़े हुए थे, किसी में जलेबी थी तो किसी में भजिए तले जा रहे थे। कुछ औरते एक गोल घेरे में हँसी-ठिठोली करते हुए पूड़ियाँ बेल रही थीं। पास ही गरमागरम जलेबी और भजिए खाने के लालच में बच्चे हलवाई को घेरे खड़े थे, जो उन्हें चार-पाँच बार पास खड़े रहने के नाम से डाँट भी चुका था। खुशियों के इन क्षणों में एकाएक अनहोनी का विकराल रूप सामने आया। गैस के तीन सिलेन्डरों में से एक सिलेन्डर एकाएक फट पड़ा। फटते ही हाहाकार मच गया। तेल के कड़ाहे लुढ़क पड़े। जिससे आग ने जोर पकड़ लिया। चारों ओर आग ही आग। पल भर पहले का ठिठोली का माहौल चीख और आर्तनाद में बदल गया। फिर तो नजदीक के शहर से एम्बुलेंस और डॉक्टर्स आए, पुलिस आई, फायर ब्रिगेड आई और राहत के जो-जो सामान उपलब्ध करवाए जा सकते थे, सभी की व्यवस्था सरकार द्वारा की गई।
पूरे गाँव में श्मशान सी खामोशी छा गई थी। इस अनहोनी में सभी ने कुछ न कुछ खोया था। किसी की माँग का सिंदूर, किसी के ऑंचल की छाँव, किसी के स्नेह का रेशमी बंधन तो किसी के काँधे का एकमात्र सहारा.. कितने ही रिश्ते इस विकराल आग की भेंट चढ़ गए थे।
रधिया के दो बेटे और पति तीनों ही इस आग में स्वाहा हो गया थे। रधिया खुद भी तीन चौथाई जल चुकी थी। उसके बचने की उम्मीद बिलकुल नहीं थी। अपनी इकलौती निशानी वैशाली का हाथ उसके हाथ में देते हुए रधिया ने अंतिम साँसे ली। वैशाली की जवाबदारी उसके हाथों में सौंपते हुए रधिया के चेहरे पर जो संतोष था, उसी संतोष ने उसे एक माँ की जवाबदारी का अहसास कराया। आज तक गाँव के विकास का सपना पाले उसकी ऑंखों में अब वैशाली को पालने और उसे अपने पैरों पर खड़ा करने का सपना पलने लगा। अपने स्नेह और ममत्व की छाँव में वैशाली को पढ़ाने के लिए उसने गाँव को अलविदा कह शहर की ओर रुख किया।
वैशाली को पाते ही उसके भीतर ममता की नदी बहने लगी। वैशाली असाधारण प्रतिभा की धनी थी। इसीलिए उसने उसे एयर होस्टेस बनाने का विचार किया। वैशाली की मेहनत और उसकी चाहत अब एक थे। एक तरफ पैसों की कमी नहीं थी, तो दूसरी तरफ वैशाली में भी कुछ बनने की लगन थी। दोनों ने मिलकर सपनों को एक नया आकाश दिया और वैशाली ने सफलता के जहाज में अपने कदम रख ही दिए। जिस दिन वैशाली दिल्ली के लिए रवाना हुई, उसे विदा करते हुए उसके चेहरे पर पूर्ण संतोष का भाव था। यूँ लग रहा था जैसे इन वर्षो में उसने पूर्ण मातृत्व सुख प्राप्त कर लिया हो।
वैशाली की जवाबदारी उसने एक माँ की तरह ही निभाई है। उसे गर्व है कि उसने अपने एकाकी जीवन में कुछ ऐसा किया जो अपने आप में अनोखा है। इस अनोखेपन ने उसे एक पहचान दी है- मम्मी-आंटी। उसने वैशाली के पास जाने का निर्णय लिया और सूटकेस में कपड़े जमाने की तैयारी करने लगी। बादलों की ओट से बाहर निकल चाँद ने भी मुस्कराकर उसके इस निर्णय का स्वागत किया। वैशाली की मम्मी-आंटी जल्द से जल्द वैशाली तक पहुँच जाना चाहती थी।
भारती परिमल

बुधवार, 11 जून 2008

टिमटिम तारे, फूलों से प्यारे


भारती परिमल
आकाश में तारों का अपना एक अलग संसार है। यह संसार अपने आपमें अनोखा है। अनगिनत तारों से भरे इस संसार में सभी तारों का अलग-अलग घर है। सभी के अपने-अपने ऑंगन और अपने-अपने खिलौने हैं। यहाँ का नियम ऐसा है कि सभी को अपने ही ऑंगन में इन खिलौनों के साथ खेलना है। कोई किसी के ऑंगन में या घर में नहीं जा सकता। हाँ, अपने ऑंगन में खेलते-कूदते एक-दूसरे से बात जरूर की जा सकती है। यहाँ हर समय केवल सुबह का उजियाला रहता है। दोपहर, शाम और रात की परिभाषा ये तारे नहीं जानते। ये तो बस अपने घर में पड़े रहते हैं या फिर ऑंगन में ही उछलते-कूदते, गीत गुनगुनाते रहते हैं।
लम्बे समय से ऐसा ही जीवन जीते हुए एक तारा इससे बोर हो गया। उसने अपने सामने ऑंगन पर खेलते तारे को आवाज लगाई- ऐ... भाई, झिलमिल..।
क्या है भाई टिमटिम?
क्या तुम एक जैसी दिनचर्या से बोर नहीं हो गए? टिमटिम ने पूछा।
झिलमिल बोला- हाँ, बोर तो हो गया हूँ, पर क्या करूँ?
टिमटिम बोला- मेरा भी यही हाल है। मैं तो अब इससे ऊबने लगा हूँ और थक भी गया हूँ।
तो, फिर घर के अंदर जाओ और चादर ओढ़कर सो जाओ- झिलमिल ने कहा।
टिमटिम बोला- नहीं, भाई। मैं ऐसी थकान की बात नहीं कर रहा। मैं तो इन सभी चीजों से बोर हो गया हूँ और कुछ नया करना चाहता हूँ, कोई नई जगह जाना चाहता हूँ। एक ही घर, एक ही ऑंगन, एक ही गीत मैं इन सभी से थक चुका हूँ।
झिलमिल ने कहा- तो फिर ऐसा करो, हम दोनों चुपचाप आपस में घर बदल लेते हैं, तुम मेरे घर में आ जाओ और मैं तुम्हारे घर पर आ जाता हूँ। किसी को पता भी न चलेगा और हमारी बोरियत दूर हो जाएगी।
टिमटिम बोला- बिलकुल नहीं, ऐसा करने से न तो तुम्हें मजा आएगा और न ही मुझे क्योंकि हमारे घर भी तो एक जैसे ही बने हुए हैं। फिर हमें यह थोड़े ही लगेगा कि हम एक नए घर में आए हैं।
तो फिर क्या किया जाए?
टिमटिम बोला- क्यों न ऐसा करें कि हम इस दुनिया से बाहर निकल कर दूसरी दुनिया की सैर करें?
झिलमिल डरते हुए बोला- नहीं, नहीं। हम ऐसा नहीं कर सकते। हमारे बाप-दादा के जमाने से ऐसा ही चला आ रहा है। हम इसे बदल नहीं सकते।
टिमटिम बोला- पर क्या तुमने कभी घर की छत पर चढ़ कर बाहर की दुनिया देखी है? कितनी खूबसूरत और रंगबिरंगी है।
झिलमिल ने कहा- हाँ, देखी है ना। वो दुनिया सचमुच देखने में बहुत खूबसूरत लगती है, पर क्या किया जा सकता है? हम वहाँ नहीं जा सकते।
टिमटिम बोला- क्यों नहीं जा सकते? तुम यदि साथ चलो, तो हम दोनों मिलकर उस दुनिया को देख सकते हैं।
यह सुनकर झिलमिल ने अपने दोनों कान पकड़ लिए और बोला- ना, बाबा ना। मैं ऐसा नहीं कर सकता। आज तक किसी ने ऐसा नहीं सोचा।
टिमटिम बोला- सोचा तो होगा, पर कोई ऐसा कर नहीं पाया। हम दोनों साथ मिलकर ऐसा कर सकते हैं। बस थोड़ी सी हिम्मत की जरूरत है।

झिलमिल ने कहा- वो हिम्मत तो मेरे पास नहीं है। तुम्हें जाना है, तो जाओ। मैं तो तुम्हारे साथ नहीं आऊँगा।
टिमटिम ने अकेले ही बाहर की रंगबिरंगी दुनिया देखने का फैसला कर लिया और जगमग करता हुआ, फररर फररर फररर उड़ता हुआ.... पृथ्वी पर आ पहुंँचा।
उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उसने सफेद बर्फ से लिपटे हुए पहाड़ को देखा। झर-झर झरते झरने, कल-कल करती नदियाँ, हरी-भरी धरती और चहचहाते पंछियों का कलरव ये सभी उसके लिए आश्चर्य की चीजें थीं। इससे बढ़कर आश्चर्य था- चार पैर वाले पशुओं के साथ दो पैर वाले मनुष्यों का मेलजोल। आपस में किस तरह से पशु-पक्षी, मनुष्य सभी हिलमिल कर रहते हैं। एक दूसरे के साथ इनका अपनेपन का व्यवहार। किसी एक घर में ही कैद रहने का कोई नियम नहीं। कोई हरी धरती पर रहता है, तो कोई खुले मैदान में, तो कोई अपनी पसंद के मकान बनाकर रहता है। आपस में एक दूसरे से बोलना, घर आना-जाना। ये सभी चीजें उसे बहुत भली लगी।
टिमटिम तो अपनी आकाश की दुनिया ही भूल गया। वह तो इसी दुनिया में खुश हो कर दिन बिताने लगा। कभी किसी पेड़ पर चढ़ गया, तो कभी किसी लहरों के साथ दूर-दूर तक बहता रहा। जब थक गया, तो बर्फीले पहाड़ पर आराम कर लिया, तो कभी खुले मैदान में खूब घूमा। यूँ ही करते हुए, दिन-महीने गुजरते गए।
यहाँ आकाश में झिलमिल को अपने मित्र की चिंता होने लगी। आखिर इतना समय बीत जाने पर भी टिमटिम वापस क्यों नहीं आया। एक दिन हिम्मत करके वह भी अपने मित्र की तलाश में धरती की ओर चल पड़ा। खोजते-खोजते कई दिन बीत गए। उसे धरती की रंगबिरंगी दुनिया को नजदीक से देखना अच्छा लगा। नए लोगों को देखकर वह बहुत खुश होता। फिर टिमटिम की याद आते ही उदास हो जाता। एकदिन लहरों के साथ अठखेलियाँ करते हुए टिमटिम से उस की मुलाकात हो ही गई।
झिलमिल को देखकर टिमटिम बहुत खुश हुआ। अब दोनों दोस्त मिल चुके थे। साथ मिलकर खूब सैर करते। यहाँ केवल सुबह नहीं थी। दोपहर, शाम, रात का बदलता हुआ रूप भी था। सो वे दोनों तो यहाँ से जाने का मन ही नहीं कर रहे थे।
उन दोनों की इच्छा थी कि वे इसी धरती पर हमेशा के लिए रह जाए, पर इसे पूरी कौन करेगा। दोनों जगमगाते हुए, नदी, नाले, सागर, पेड़, पौधे, जंगल, पहाड़, मैदान सभी कुछ पार करते हुए, शाम ढले सूरज दादा के पास पहुँचे। वे अपने घर वापस जाने की तैयारी कर रहे थे। दोनों ने सूरज दादा को प्रणाम किया और अपने मन की बात कही। सूरज दादा ने दोनों की अभिलाषा को समझा और उसे स्वीकार करते हुए उन्हें हमेशा के लिए फूलों के रूप में इस धरती पर रहने की अनुमति दे दी।
फूलों का रंगबिरंगा रूप पाकर दोनों तारे बेहद खुश हो गए। फिर तो आकाश के तारों के संसार में घर-घर में ये बात पहुँच गई। उन तारों के बीच फूल बनकर धरती पर आने की होड़ लग गई। तारों की ये स्पर्धा आज भी चालू है। जब ये तारे फूल बनते हैं, तो सुगंध के माध्यम से अपनी खुशी जाहिर करते हैं और ईश्वर के चरणों में स्थान पाकर सूरज दादा का आभार मानते हैं।
भारती परिमल

मंगलवार, 10 जून 2008

बाल कविताऍ

बिल्ली और चूहा


भारती परिमल
किसी को नहीं मिली मलाई
चूँ चूँ चूहे ने दौड़ लगाई,
खाने को ठंडी ठंडी मलाई।
इतने में पीछे से पूसी आई,
मारा पँजा खूब डाँट लगाई।
सरपट भागा चूँ चूँ चूहा,
डर कर हाल जो बुरा हुआ।
दुबक कर बैठ गया कोने में,
पूसी ने मुँह डाला भगौने में।
तभी मम्मी ने झाँका धीरे से,
पूसी समझी चूँ चूँ आया पीछे से।
वापस पलटी दौड़ कर किया वार,
पर रहा सब वार बेकार।
पलट वार में उल्टा हुआ भगौना,
चूँ चूँ ने भी छोड़ दिया कोना।
अब तो सचमुच मम्मी आई,
डंडे से पूसी की हुई पिटाई।
ताली बजाते उछला चूँ चूँ,
किसी को नहीं मिली मलाई।


टेबल और कुर्सी

एक था टेबल, एक थी कुर्सी।
कुर्सी थी बड़ी सयानी,
खुद को समझे महारानी।
बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब,
नेता हो या मजदूर,
कुर्सी से नहीं रहते दूर।
अकड़म-बकड़म, गोल-गपक्कम,
करते फिरते सौ तिकड़म।
मंजिल को वे पा ही जाते,
कुर्सी पर तो बैठ ही जाते।
इसीलिए कुर्सी इतराती,
अपनी किस्मत पर इठलाती।
टेबल बेचारा ऑंसू बहाता,
अपना दु:ख सबसे छुपाता।
लेकिन ऐसा कब तक चलता?
आया परीक्षा का मौसम,
पढ़ाई यादा मस्ती कम।
फिर तो चली ऐसी बयार,
टेबल बना बच्चों का यार।
टेबल पर ही पुस्तक-कॉपी जमती,
टेबल पर ही चुन्नू के हाथों से पेन है चलती।
बिना टेबल के कुर्सी हुई बेकार।
पढ़ाई करने वालों के लिए,
टेबल-कुर्सी दोनों पक्के यार।
कंप्यूटर का भी जमाना आया,
टेबल पर ही उसने अधिकार जमाया।
अब कुर्सी को समझ में आई अपनी भूल,
बेकार ही उसने बोया पेड़ बबूल।
टेबल के पास पहुँच वो बोली,
तेरे बिना मैं तो हुई अकेली।
मिलजुल कर हम साथ रहेंगे,
जन-जन से भी यही कहेंगे।
भारती परिमल

सोमवार, 9 जून 2008

चौराहे पर ठिठका बचपन


डा. महेश परिमल
बारिशने इस मौसम पर धरती का ऑंचल भिगोने की पहली तैयारी की. प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए मैं अपने परिवार के साथ अपने परिसर की छत पर था. बारिशकी नन्हीं बूँदों ने पहले तो माटी को छुआ और पूरा वातावरण उसकी सोंधी महक से भर उठा. ऐसा लगा मानो इस महक को हमेशा-हमेशा के लिए अपनी साँसों में बसा लूँ. उसके बाद शुरू हुई रिमझिम-रिमझिम वर्षा. ऐसा लगा कि आज तो इस वर्षा और माटी के सोंधेपन ने हमें पागल ही कर दिया है. हम चारों खूब नहाए, भरपूर आनंद लिया, मौसम की पहली बारिशका.
मैंने अपनी खुली छत देखी. विशाल छत पर केवल हम चारों ही थे. पूरे 38 मकानों का परिसर. लेकिन एक भी ऐसा नहीं, जो प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए अपने घर से बाहर निकला हो. बाद में भले ही कुछ बच्चे भीगने के लिए छत पर आ गए, लेकिन शेष सभी कूलर की हवा में अपने को कैद कर अपने अस्तित्व को छिपाए बैठे थे. क्या हो गया है इन्हें? आज तो प्रकृति ेने हमें कितना अनुपम उपहार दिया है, हमें यह पता ही नहीं. कितने स्वार्थी हो गए हैं हम प्रकृति से दूर होकर. कहीं ऐसा तो नहीें कि हम अपने आप से ही दूर हो गए हैं?
पूरी गर्मी हम छत पर सोए. वहाँ था मच्छरोेंं का आतंक. हमने उसका विकल्प ढूँढा, बड़े-बड़े पत्थर हमने मच्छरदानी के चारों तरफ लगाकर पूरी रात तेज हवाओं का आनंद लिया. हवाएँ इतनी तेंज होती कि कई बार पत्थर भी जवाब दे जाते, हम फिर मच्छरदानी ठीक करते और सो जाते. कभी हवाएँ खामोशहोती, तब लगता कि अंदर चलकर कूलर की हवा ली जाए, पर इतना सोचते ही दबे पाँव हवाएँ फिर आती, और हमारे भीतर की तपन को ठंडा अहसास दिलाती. कभी तो हवा सचमुच ही नाराज हो जाती, तब हम आसमान के तारों के साथ बात करते, बादलों की लुकाछिपी देखते हुए, चाँद को टहलता देखते. यह सब करते-करते कब नींद आ जाती, हमें पता ही नहीं चलता.
ए.सी., कूलर और पंखों के सहारे हम गर्मी से मुकाबला करने निकले हैं. आज तो हालत यह है कि यदि घर का ए.सी. या कूलर खराब हो गया है, उसेबनवाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, चाहे इसके लिए दफ्तर से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े. शायद हम यह भूल गए हैं कि कूलरों और ए.सी. की बढ़ती संख्या यही बताती है कि पेड़ों की संख्या लगातार कम होते जा रही है. आज से पचास वर्ष क्योें, पच्चीस वर्ष पहले ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि तब इतनी क्रूर तो नहीं थी. उस समय गर्मी भी नहीं पड़ती थी और ठंडक देने वाले इतने संसाधन भी नहीं थे. पेड़ों से बने जंगल आज फर्नीचर के रूप में ड्राइंग रुम में सज गए या ईंधन के रूप में काम आ गए. अब उसी ड्राइंग रुम में जंगल वालपेपर के रूप में चिपक गए या फिर कंप्यूटर की स्क्रीन में कैद गए. वे हमारी ऑंखों को भले लगते हैं. हम उन्हें निहार कर प्रकृति का आनंद लेते हैं.
कितना अजीब लगता है ना प्रकृति का इस तरह से हमारा मेहमान बनना? प्रकृति ने बरसों-बरस तक हमारी मेहमान नवाजी की, हमने मेहमान के रूप में क्या-क्या नहीं पाया. सुहानी सुबह-शाम, पक्षियों का कलरव, भौरों का गुंजन, हवाओं बहना आदि न जाने कितने ही अनोखे उपहार हमारे सामने बिखरे पड़े हैें, लेकिन हम हैं कि उलझे हैं आधुनिक संसाधनों में. हम उनमें ढूँढ़ रहे हैं कंम्यूटर में या फिर ड्राइंग रुम में चिपके प्राकृतिक दृश्य में.
असल में हुआ यह है कि हमने प्रकृति को पहचानने की दृष्टि ही खो दी है. वह तो आज भी हमारे सामने ंफदकती रहती है, लेकिन हमें उस ओर देखने की फुरसत ही नहीं है. हमने अपने भीतर ही ऐसा आवरण तैयार कर लिया है, जिसने हमारी दृष्टि ही संकुचित कर दी है. विरासत में यही दृष्टि हम अपने बच्चों को दे रहे हैं, तभी तो वे जब कभी ऑंगन मेें या गैलरी में लगे किसी गमले में उगे पौधों पर ओस की बूँद को ठिठका हुआ पाते हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है. वे अपने पालकों से पूछते हैं कि ये क्या है? पालक भी इसका जवाब नहीं दे पाते. भला इससे भी बड़ी कोई विवशता होती होगी?
प्रकृति हमारे भीतर आज भी कुलाँचे मारती है, वह हमें पुकारती है, वह हमें दुलारना चाहती है, अपने ममत्व की छाँव देना चाहती है, लेकिन हम हैं कि चाहकर भी न तो उसके पास जा सकते हैं, न उसकी आवाज सुनना चाहते हैं और न ही उसकी छाँव में रहकर सुकून पाना चाहते हैं. हम भाग रहे हैं अपने ही आप से. भीतर के मासूम बच्चे को हमने छिपा दिया है संकुचित विचारों की भूल-भूलैया में. हम तो कीचड़ से खूब सने हैं, दूसरों को भी खूब नहलाया है कीचड़ से, पर अब यदि हमारा बच्चा कीचड़ से सना हुआ हमारे सामने आ जाता है, तो उसकी यह हालत करने वाले से झगड़ने में पीछे नहीं रहते. कीचड़ से सना हमारा बच्चा हमें ही फूटी ऑंख नहीं सुहाता. क्योंकि आज हालात काफी बदल गए हैं. अब हमें हमारा नटखट बचपन नहीं चाहिए, बल्कि एक सुनहरा भविष्य चाहिए. इस सुनहरे भविष्य की चाह में बचपन को सिसकता छोड़ चुके हैं. यह बचपन आज भी सभी चौराहों पर सिसकता हुआ हम सभी को मिल ही जाएगा।
डा. महेश परिमल

शनिवार, 7 जून 2008

चलें बचपन के गाँव में…



भारती परिमल
आओ चलें बचपन के गाँव में, यादों की छाँव में... कलकल करती लहरों से खेलें, कच्ची अमियाँ और बेर से रिश्ता जोड़े। रेत के घरोंदे बनाकर उसे अपनी कल्पनाओं से सजाएँ। कड़ी धूप में फिर चुपके से निकल जाएँ घर से बाहर और साथियों के संग लुकाछिपी का खेल खेलें। सावन की पहली फुहार में भीगते हुए माटी की सौंधी महक साँसों में भर लें। ठंड की ठिठुरन, गरमी की चुभन और भादों का भीगापन सब कुछ फिर ले आएं चुराकर और जी लें हर उस बीते पल को, जो केवल हमारी यादों में समाया हुआ है।
वो सुबह-सुबह मंदिर की घंटियों और अजान की आवाज के साथ खुलती नींद और दूसरे ही क्षण ठंडी बयार के संग आता आलस का झोंका, जो गठरी बन बिस्तर मेें दुबकने को विवश कर देता, वो झोंका अब भी याद आता है। माँ की आवाज के साथ.. खिड़की के परदों के सरकने से झाँकती सूरज की पहली रश्मियों के साथ.. दरवाजे के नीचे से आते अखबार की सरसराहट के साथ.. चिड़ियों की चीं चीं के साथ.. दादी के सुरीले भजन के साथ.. दादा के हुक्के की गुड़गुड़ के साथ.. सजग हुए कानों को दोनों हाथों से दबाए फिर से ऑंखे नींद से रिश्ता जोड़ लेती थी। ऑंखों और नींद का यह रिश्ता आज भी भोर की बेला में गहरा हो जाता है। इसी गहराई में डूबने आओ एक बार फिर चलें बचपन के गाँव में।
बरगद की जटाओं को पकड़े हवाओं से बातें करना.. कच्चे अमरुद के लिए पक्की दोस्ती को कट्टी में बदलना.. टूटी हुई चूड़ियों को सहेज कर रखना.. बागों में तितलियाँ और पतंगे पकड़ना.. गुड्डे-गुड़िया के ब्याह करवाना.. पल में रूठ कर क्षण में मान जाना.. बारिश की बूँदों को पलकों पे सजाना.. पेड़ों से झाँकती धूप को हथेलियों में भरने की ख्वाहिश करना.. बादल के संग उड़कर परियों के देश जाने का मन करना.. तारों में बैठ कर चाँद को छूने की चाहत रखना.. बचपन कल्पना के इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से सजा होता है। सारी चिंताओं और प्रश्ों से दूर ये केवल हँसना जानता है, खिलखिलाना जानता है, अठखेलियाँ करना और झूमना जानता है। तभी तो जीवन की आपाधापी में हारा और थका मन जब-जब उदास होता है, यही कहता है- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.. बीते हुए दिन की कल्पना मात्र से ही ऑंखों के आगे बचपन के दृश्य सजीव होने लगते हैं। बचपन एक मीठी याद सा हमारे आसपास मंडराने लगता है। एकांत में हमारी ऑंखों की कोर में ऑंसू बनकर समा जाता है, तो कभी मुस्कान बन कर होठों पर छा जाता है। कभी ये बचपन चंचलता का लिबास पहने हमें वर्तमान में भी बालक सा चंचल बना देता है, तो कभी सागर की गहराइयों सा गंभीर ये जीवन क्षण भर के लिए इसकी एक बूँद में ही समा जाने को व्याकुल हो जाता है।
एक बार किसी विद्वान से किसी महापुरुष ने पूछा कि यदि तुम्हें ईश्वर वरदान माँगने के लिए कहे, तो तुम क्या माँगोगे? विद्वान ने तपाक से कहा- अपना बचपन। निश्चित ही ईश्वर सब-कुछ दे सकता है, लेकिन किसी का बचपन नहीं लौटा सकता। सच है, बचपन ऐसी सम्पत्ति है, जो एक बार ही मिलती है, लेकिन इंसान उसे जीवन भर खर्च करता रहता है। बड़ी से बड़ी बातें करते हुए अचानक वह अपने बचपन में लौट जाएगा और यही कहेगा कि हम बचपन में ऐसा करते थे। यहाँ हम का आशय उसके अहम् से कतई नहीं है, हम का आशय वे और उसके सारे दोस्त, जो हर कौम, हर वर्ग के थे। कोई भेदभाव नहीं था, उनके बीच। सब एक साथ एक होकर रहते और मस्ती करते। हम सभी का बचपन बिंदास होता है। बचपन की यादें इंसान का पीछा कभी नहीं छोडती, वह कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाए, बचपन सदैव उसके आगे-आगे चलता रहता है। बचपन की शिक्षा भी पूरे जीवन भर साथ रहती है। बचपन का प्यार हो या फिर नफरत, इंसान कभी नहीं भूलता। बचपन की गलियाँ तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक्त मिलता, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता। बचपन में किसी के द्वारा किया गया अहसान एक न भूलने वाला अध्याय होता है। वक्त आने पर वह उसे चुकाने के लिए तत्पर रहता है। कई शहरों के भूगोल को अच्छी तरह से समझने वाला व्यक्ति उन शहरों में भी अपने बचपन की गलियों को अपने से अलग हीं कर पाता।
बचपन चाहे सम्पन्नता का हो या विपन्नता का। दोनों ही स्थितियों में वह बराबर साथ रहता है। सम्पन्नता में विपन्नता का और विपन्नता में सम्पन्नता दोनों ही विचार साथ रहते हैं। याद करें कम से कम रुपयों में पिकनिक का मजा और अधिक से अधिक खर्च करने के बाद भी और खर्च करने की चाहत। हर किसी के बचपन में माँ, पिता, भाई, बहन, दोस्त एक खलनायक की तरह होतं ही हैं, उस समय उसकी सारी हिदायतें हमें दादागीरी की तरह लगती। उसे अनसुना करना हम अपनार् कत्तव्य समझते। पर उम्र के साथ-साथ वे सारी हिदायतें गीता के किसी श्लोक से कम नहीं होती, जिसका पालन करना हम अपनार् कत्तव्य समझते हैं। आखिर ऐसा क्या है बचपन में, जो हमें बार-बार अपने पास बुलाता है? बचपन जीवन के वे निष्पाप क्षण होते हैं, जिसमें हमारे संस्कार पलते-बढ़ते हैं। बचपन कच्ची मिट्टी का वह पात्र होता है, जो उस समय अपना आकार ग्रहण करता होता है। बचपन उस इबारत का नाम है, जो उस समय धुंधली होती है, पर समय के साथ-साथ वह साफ होती जाती है।
बचपन के गाँव में हमारा लकड़पन, हमारी शरारतें, हमारी उमंगें, हमारा जोश, हमारा उत्साह, हमारी नादानी, हमारी चंचलता, हमारा प्यार सब कुछ रहता है, जो समय के साथ वहीं छूट जाता है, हम चाहकर भी उसे अपने साथ ला नहीं सकते। जहाँ हमारा बचपन होता है, वहीं हमारी यादों का घरौंदा होता है, यादों के इस छोटे से घरौंदे में हमारा व्यक्तित्व ही समाया हुआ होता है। इसी घरौंदे का एक-एक तिनका जीवन की कठिनाइयों में हमारे सामने होता है। दूसरों के लिए वे भले ही तिनके हों, पर जब हम डूबने लगते हैं, तब यही हमें उबारने का एक माध्यम होते हैं। सच ही कहा गया है जिसने अपना बचपन भूला, दुनिया उसे भूल गई। इसीलिए कहता हूँ कि यदि आप चाहते हैं कि दुनिया आपको न भूले, तो अपने बचपन को याद रखें, दुनिया अपने आप ही आपको याद रखेगी। हाल ही में आपने अखबारों में पढ़ा होगा कि बिग बी याने अमिताभ बच्चन ने अपने बचपन में पहली बार मंच पर एक नाटक के दौरान मुर्गा बने थे। कई भूमिकाएँ करने के बाद उन्हें बचपन की वह भूमिका आज भी याद है। देखा बचपन की यादें किस तरह से बार-बार हमारे जीवन में आती रहती हैं। यही है बचपन की यादों का महत्व!


भारती परिमल

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