शनिवार, 14 जून 2008
आशा अमर है
भारती परिमल
आशा जीवन का पर्याय है। आशा के अभाव में मनुष्य केवल जिंदा रहता है। जिंदा मनुष्य और जानवरों में कोई भेद नहीं होता। आशा प्रेरणा की पहली किरण है। प्रकाश का महापुंज है। साँसों की परिभाषा है। रिश्तों की गहराई है। सागर की उफनती लहर है। रेगिस्तान की तपती रेत पर पड़ती बूँद है। खिड़की पर बैठी चिड़िया है। घने जंगल में भागती हिरनी है। पतझर के बाद का वसंतोत्सव है। मुट्ठी में कैद रेत का अंतिम कण है। सूने ऑंगन में खिला फूल है। बादल के गालों से टपका ऑंसू है। सूखी धरती को सुकून देता मृदु जल है। चातक की ऑंखों का सुकून है। कवि हृदय की कल्पनाओं का आकार है। लेखक के विचारों का विराम है। प्रेयसी की प्रतीक्षा को मुखरित करती पायल की झ्रकार है। कोकिला की वाणी से निकली कुहू-कुहू की गूँज है। धुँधली साँझ का रेशमी उजाला है। गहरे ऍंधकार का टिमटिमाता दीया है। भटकते राही का पथ-प्रदर्शक है। पतझर के पीले पत्तों के बीच ऍंगड़ाई लेती हरी दूब है। लहलहाती धरती पर खिलती पीली सरसों है। मझधार में नाव खेते नाविक के हाथों की ताकत है। नील गगन में उड़ते पंछी के परों का जोश है। बूढ़े किसान की ऑंखों से झाँकती मुस्कान है। विधवा के श्वेत-श्याम जीवन में बिखरता इंद्रधनुषी रंग है। नारी का शृंगार है। पुरूष का जीवन संसार है। संसार के हर रिश्ते की मजबूत डोर है। घर का कोलाहल है। बिटिया की खिलखिलाहट है। बेटे का दुलार है। ममत्व की ठंडी बयार है। प्रेम की अविरल धारा है। कठिनाइयों की खाई को पाटती मजबूत शिला है। संपूर्ण जीवन का सार है। ईश्वर से मिला अनमोल उपहार है।
आशा के नए नए रूपों से परिचित होने के बाद भी कई रूप ऐसे हैं जो अभी भी अनदेखे ही हैं। अपने अपने अनुभवों के आधार पर ये रूप परिभाषित होते हैं। जिनके जीवन में ये रूप नहीं होते उनका जीवन स्वयं में ही भार रूप होता है। अत: जीवन को भार विहीन बनाने के लिए आशा का दामन थामना बहुत जरूरी है। इतिहास साक्षी है कि आशा की योति जलाकर ही हमने आजादी की लडाई लड़ी है और गुलामी के अंँधकार को दूर भगाया है। आशा के ही सहारे एक मजदूर तन-तोड़ मेहनत करता है। एक विधवा आशा के सहारे ही मासूम शिशु के साथ अपना सूना जीवन बिताती है। आशा की ऊँगली थामे एक नौजवान जीवन-पथ का संघर्ष शुरू करता है।
आशा अंतर्मन का विश्वास है तो एक तरह का पागलपन भी है। बादलों में पानी की आशा छुपी होती है, पर हर बादल पानी नहीं बरसाते। ऋतुओं में वसंत ऋतुराज कहलाता है, पर हर ऋतु वसंत नहीं होती। सूरज के ऊगते ही दिन ऊगता है, पर हर दिन सूरज नहीं दिखता। रात को आकाश तारों से जगमगा उठता है, पर कोई तारा प्रकाश नहीं देता। यह हमारे भीतर का पागलपन ही है, जो हम अति आशावादी हो जाते हैं। जबकि हर आशा कभी पूरी नहीं होती। परिस्थितियों की ऑंधियों में कितनी ही आशाएँ दम तोड़ देती है। अकाल मृत्यु की मानिंद कई आशाएँ भी काल के गर्त में समा जाती है। फिर भी इंसान है कि हिम्मत नहीं हारता। उदास ऑंखों में जहाँ निराशा का जल भरा होता है, वहाँ फिर से हाथ उठते हैं और ऊँगलियों के पोर आशा का रूप ले कर उसे सुखाने का प्रयास करते हैं। आशा जीवन की प्रेरणा, जीवन की धड़कन, साँसों की गति और रचना का संसार है। आशा अमर है।
भारती परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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