गुरुवार, 19 जून 2008

हमारे भीतर ही है सौंदर्य


डॉ. महेश परिमल
आज हर कोई सौंदर्य की तलाशमें है। इस बाहरी सौंदर्य की चाहत रखने वाले आज लगातार भटक रहे हैं, उन्हें वह नहीं मिल पा रहा है, जो वह हृदय से चाहते हैं। सौंदर्य एक ऐसी अनुभूति है, जो भीतर से प्रस्फुटित होती है। इसके लिए आवश्यकता है दृष्टि की। यहाँ दृष्टि का आशय नजर न होकर भीतर की दृष्टि से है। सौंदर्य तो हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा है, हम ही हैं कि उसे देख नहीं पाते। हमारे ही आसपास बिखरे सौंदर्य को न देख पाने की कसक को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में उतारने की कोशिशकी है.
कविवर कहते हैं कि सौंदर्य की खोज में मैं न जाने कहाँ-कहाँ भटका, कई पर्वत श्रृंखलाएँ देखी, कई नदी, पहाड़ देखे, पर कहीं भी सौंदर्य की अनुभूति नहीं हुई। मैं अभागा था जो अपने ही ऑंगन में ऊगी धान की उन बालियों को नहीं देख पाया। बाद में उन्होंने उन बालियों का वर्णन इतने प्यारे और सटीक तरीके से किया है कि लगता है सचमुच सौंदर्य तो उनके ऑंगन में ही था, वे ही थे, जो उसकी तलाशमें इधर-उधर भटक रहे थे। किसी ने सच ही कहा है कि किसी को देखने के लिए ऑंखों की नहीं, बल्कि दृष्टि की आवश्यकता है। यही दृष्टि है, जो भीतर होती है। इसका संबंध ऑंखों से नहीं, बल्कि आत्मा से होता है। यही आत्मा है, जो कभी किसी झोपड़ी में जितना सुकून देती है, उतना सुकून तो महलों में भी नहीं मिलता।
सत्यम् शिवम् सुंदरम् अथवा सत् चित्त आनंद, ये सभी परमात्मा के ही स्वरूप हैं। आप जैसे-जैसे सत्य के करीब जाएँगे, सत्य को समझने और जीने की इच्छा को बलवती करेंगे, सत्य की सेवा में एक साधन के रूप में समर्पित हो जाएँगे, वैसे-वैसे परमात्मा आपके माध्यम से प्रकट होने लगेंगे। शुभेच्छा से लबालब भरी चेतना में स्वयं परमात्मा ही प्रकट होने लगते हैं। परमात्मा शिव की तरह है। सर्वमंगल की कामना हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। परमात्मा के माध्यम से कभी किसी का अमंगल नहीं होता। सभी के कल्याण की सतत बहती धारा का ही दूसरा नाम है परमात्मा।
इसे समझने के लिए आओ चलें, प्रकृति की गोद में। कभी कश्मीर जाकर वहाँ के पहाड़ी सौंदर्य को अपनी ऑंखों में बसाया है? श्रीनगर के बागीचों में खिले रंग-बिरंगे फूलों के सौंदर्य को निहारा है? कभी धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर की वादियों को मन की ऑंखों से देखने की कोशिशकी है? बर्फ से ढँकी पहाड़ियाँ भला किसका मन नहीं मोह लेती होंगी? वहाँ के स्त्री-पुरुष को कभी तालबध्द होकर चलते देखा है आपने? इन्हें मन की ऑंखों से निहारोगे, तो परमात्मा हमें अपने करीब महसूस होंगे। निश्चित ही यह प्रश्न सामने आएगा कि एक साधारण इंसान सौंदर्य की तलाशमें भला इतनी दूर आखिर क्यों जाएगा? वह तो अपने आसपास ही प्रकृति के अनोखे सौंदर्य को निहारने की कोशिशकरेगा। आखिर हमें कहाँ मिलेगा हिमालय जैसा सौंदर्य? तो चलो, हम अपने ही आसपास बिखरे सौंदर्य को निहारें।
कभी सुबह जल्दी उठकर ऊगते सूरज को देखो, वह हर बार अपने नए रंग में दिखाई देगा। उसकी किरणें हमें न केवल स्फूर्ति देती है, बल्कि उन किरणों की छटा देखने लायक होती है। इंद्रधनुषी रंगों में बिखरी ये किरणें नव जीवन का संदेशदेती हैं। दिन भर की यात्रा के बाद शाम को यही सूरज चटख लाल रंग की किरणों के साथ अपना डेरा समेटता है, तो उसका सौंदर्य ऑंखों को बहुत ही भला लगता है। सूरज के इन दोनों रूपों का सौंदर्य तो अनूठा है ही, कभी दोपहर के सूरज का तापसी रूप भी देखने की कोशिशकी जाए। ठंड की यही धूप गुनगुनी लगती है, तो गर्मी में झुलसा देने वाली होती है। बारिशमें तो हम सब तरस जाते हैं सूरज के दर्शन के लिए। सूरज का हर रूप अप्रतिम होता है, इसे निहारो और बसा लो अपने हृदय में।
अब कभी आसमान के बादलों का ही रूप देखने की कोशिशकरो। पवन किस तरह से बादलों की पालकी को लेकर चलते हैं? कितने रूप हैं बादलों के, कोई कह सकता है? कभी सघन, कभी काले, कभी रुई के फाहों की तरह मुलायम, कभी हल्के नारंगी रंग के, तो कभी हमारी कल्पना के रूप में ढलते बादल, हमें हमेशा कुछ न कुछ संदेशदेते दिखाई देते हैं। इनके आकार-प्रकार की तो बात ही न पूछो। पल-पल में ये अपना आकार ऐसे बदलते हैं मानो, प्रकृति के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। क्या इसे आपने कभी नहीं देखा, तो अपने ही ऑंगन में फुदकती चिड़ियाओं को ही देख लो, किस तरह से वह दाना चुगते समय दूसरे साथियों के साथ लुका-छिपी का खेल खेलती हैं। अपने बच्चों को दाना देते समय कितनी मासूम लगती हैं ये चिड़ियाएँ। यह भी एक सौंदर्य है, जिसे हम सदैव नकारते आए हैं या फिर कह लें, कभी देखने की कोशिशही नहीं की।

कभी मंद-मंद हवा के बीच किसी पेड़ की दो पत्तियों का आपस मेें मिलना कितना सुखद लगता है, यह कभी देखा आपने। अरे जब तेज हवा चलती है कि कुछ पेड़ किस तरह से झुककर धरती को प्रणाम करते हैं, इसे ही देखने की कोशिशकर लो। ध्वजा के तरह खड़े हुए देवदार या फिर अशोक के पेड़ को ही देख लो। चिलचिलाती धूप में भी किस तरह से अशोक का पेड़ हरा-भरा रहता है, इसका हरियाला संदेशजानने की कोशिशही कर लो। क्या पलाशके फूलों को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि प्रकृति ने उसे बड़ी ही तन्मयता से बनाया है। क्या इसका रंग हमें मोहित नहीं करता? पहली बारिशके बाद उठने वाली माटी की महक से भला कौन मतवाला नहीं बनता होगा? बारिशकी पहली फुहार किस तरह से तन-मन को भिगोकर भीतर की तपिशको कम कर देती है, यह जानने का प्रयास किया आपने?
यह तो हुआ प्रकृति का सौंदर्य, अब आप देखना ही चाहते हैं तो किसी शरारती बच्चे की शैतानी में ही खोज लो सौंदर्य। किस तरह से वह अपनी तमाम हरकतों को एक के बाद एक अंजाम देता है? पकड़े जाने पर उसके चेहरे की मासूमियत को निहारो, आप पाएँगे कि सचमुच यशोदा ने कृष्ण के चेहरे पर इसी तरह की मासूमियत देखी होगी। बच्चों की शरारतों और माँ के दुलार में भी होता है एक वात्सल्यपूर्ण सौंदर्य। भाई-बहन के नोक-झोंक में, देवर-भाभी की तकरार में, सखियों के वार्तालाप में, दोस्तों के जमावड़े में, प्रेमी युगल के सानिध्य में, पति-पत्नी के अपनेपन में भी होता है सौंदर्य। कभी किसी बुजुर्ग के पोपले मुँह और झुर्रीदार चेहरे को ही निहार लो, उनकी हँसी में होता है सौंदर्य। अनेक योजनाएँ होती हैं उनकी खल्वाट में। कभी उन्हें कुरेदने की कोशिशतो करो, फिर देखो अनुभव का सौंदर्य।
सौंदर्य के कई रंग हैं, कई रूप हैं, हर कहीं बिखरा पड़ा है सौंदर्य। बस आवश्यकता है उसे देखने की, उसे अपने भीतर महसूस करने की। केवल एक शब्द मात्र नहीं है सौंदर्य। वह एक अनुभूति है, जो हर प्राणी में होती है। कोई इसे अनुभव करता है, तो कोई इसे हँसी में ही टाल देता है। सौंदर्य की पराकाष्ठा उसे समझने में है। नदी का कल-कल किसी के लिए शोर हो सकता है, तो किसी के लिए जीवन का संगीत। सर-सर बहती हुई हवा जब हमारे शरीर को छुकर निकलती है, तब हम जिस कंपन को महसूस करते हैं, वास्तव में वही है हवा की मीठी चुभन। सौंदर्य हमारे सामने कब किस रूप में होता है, इसे जानने और समझने के लिए हमें अपनी दृष्टि को स्वच्छ बनाना होगा। ऑंखों में प्यार, दुलार और अपनापन लेकर यदि हम सौंदर्य को खोजने निकलें, तो हमारे ही आसपास मिल जाएगा। इसी सौंदर्य को जब भी हम अपने भीतर बसा लेंगे, तब ही समझो हमने परमात्मा को पा लिया। सत्य शिव और सुंदर का साक्षात्कार कर लिया।
डॉ. महेश परिमल

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