बुधवार, 31 मार्च 2010

स्वास्थ्य विभाग की ये कैसी सेवा?


-एस. स्वदेश
हाल में कुछ खबरिया चैनलों पर ऐसा ही वाक्या फिर दिखा। नागपुर के सरकारी अस्पताल में पांच दिन का एक मासूम नवजात अस्पतालकर्मियों की लापरवाही से जिंदा जला और मर गया।
दुर्गा काडे नाम की महिला ने 17 फरवरी को एक निजी अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था। दोनों बच्चों का सामान्य औसत वजन कम व अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण विशेष उपचार के लिए आक्सीजन पर रखा गया था। दो दिन में जुड़वां नवजात की स्थिति काफी अच्छी हो गई थी लेकिन निजी अस्पताल में प्रतिदिन का इलाज शुल्क ज्यादा होने से उसे दो दिन बाद ही शासकीय मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल में नवजात के शरीर को सामान्य रखने के लिए वार्मर में रखा गया लेकिन चिकित्साकर्मियों की लापरवाही से तापमान ज्यादा हो गया। वार्मर में लगे बल्ब की ताप से एक नवजात का एक तरफ का हाथ, पैर और छाती बुरी तरह से जल गई। नवजात के परिजनों का आरोप है कि जब नवजात जल रहा था, तभी उन्होंने अस्पतालकर्मियों को बताया लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पांच दिन का नवजात तड़प कर मर गया। मामले पर जब हंगामा हुआ तो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले की जांच का आदेश देकर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दे दिया। यह घटना अब तक शायद ही किसी को याद हो। शायद अस्पताल प्रशासन बाद में मामले को दबा भी ले तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ता लेकिन इस घटना के आधार पर यह अवश्य सोचना चाहिए कि आखिर देश में चिकित्सा विज्ञान किस ओर तरक्की कर रहा है। एक निजी अस्पताल में अस्वस्थ जन्मा बच्चा स्वस्थ हो रहा है लेकिन पैसे के अभाव में उसे मजबूरन सरकारी अस्पताल का आसरा खोजना पड़ता है पर इस आश्रय में लापरवाही का आलम इतना है कि मौत हर किसी को सहज लगती है।
कहने के लिए तो देश में मेडिकल का क्षेत्र तेजी से तरक्की कर रहा है। यहां इलाज इतना सस्ता है कि विदेशी पर्यटक इलाज के लिए भारत को चुन रहे हैं। मुंबई समेत प्रमुख शहरों के पांच सितारा सुविधा वाले अस्पतालों में तो विदेशी मरीजों के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। विदेशी मरीजों को किसी तरह की तकलीफ न हो, उसके लिए उनकी भाषा बोलने वाली और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशिक्षण प्राप्त नसोर्ं को नियुक्त किया गया है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तरह की उन्नति को उपलब्धि बताकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय हमेशा ही अपनी पीठ थपथपाता है पर एक बात गौर करने वाली है कि जितनी तेजी से देश में मेडिकल टूरिज्म का दायरा बढ़ा है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से देश के सरकारी अस्पतालों की हालत लचर हो गई है। तभी तो आए दिन देश के किसी न किसी अस्पताल में लापरवाही के कारण होने वाली मौत की खबर समाचारों में आती है। ऐसी खबर इतनी आम हो गई है कि अब इससे लोग नहीं सिहरते हैं। देश के प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स में चिकित्सकीय लापरवाही की कई घटनाएं हो चुकी हैं। पूर्वी दिल्ली में गुरु तेग बहादुर अस्पताल तो इस मामले में कुख्यात हो चुका है। मीडिया की सक्रियता से अब छोटे शहरों में अस्पतालों की लापरवाही की घटनाएं प्रकाश में आने लगी हैं। सवाल है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध होती भारत की मेडिकल व्यवस्था घरेलू स्तर पर फिसड्डी क्यों साबित हो जाती है? सीधा और सरल जवाब है? जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त संख्या में न डाक्टर हैं और न ही अस्पताल। इसका लाभ निजी अस्पताल वाले खूब उठा रहे हैं।
-एस. स्वदेश

मंगलवार, 30 मार्च 2010

विध्वंसक घटना से रुकी थी तारों के निर्माण की प्रक्रिया


एक नवनि‍र्मित आकाशगंगा में अरबों साल पहले किसी विध्वंसक घटना की वजह से तारों के निर्माण की प्रक्रिया रुक गई थी । ब्रिटेन में डरहम विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने एक नए शोध में इस घटना के सबूत मिलने के बाद विश्वास व्यक्त किया है कि इससे मालूम हो सकता है कि हमारी आकाशंगगा के समान अन्य विशाल मंदाकिनियों का उनके निर्माण के बाद विस्तार क्यों नहीं होता रहा। उसने आशा व्यक्त की है कि इस निष्कर्ष से आकाशगंगाओं के निर्माण और विकास के बारे में समझ और बढ सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि तीन अरब साल पहले एसएमएम जे १२३७ प्लस ६२क्३ नाम इस विशाल आकाशगंगा का निर्माण महाविस्फोट के बाद हुआ, उस समय ब्रrाण्ड की उम्र मौजूदा उम्र की एक चौथाई थी। निष्कर्षो के अनुसार इस आकाशगंगा में कई विस्फोट हुए, जो किसी परमाणु बम से होने वाले विस्फोट से खरबों गुना ज्यादा शक्तिशाली थे। इस तरह के विस्फोट लाखों साल तक हर सेकंड होते रहे, जिनसे निकली गैस से नए तारों का निर्माण हुआ। इस गैस के कारण ये तारे आकाशगंगा की गुरुत्व शक्ति से बाहर हो गए, जिससे प्रभावी रूप से इनका विकास नियंत्रित हुआ। वैज्ञानिकों का मानना है कि आकाशगंगा के ब्लैक होल से उत्पन्न मलबे से बाहर निकले प्रवाह या समाप्त हो रहे तारों से उत्पन्न शक्तिशाली हवाओं से भारी मात्ना में ऊर्जा का उत्सर्जन होता है, जिसे सुपरनोवा कहा जाता है।
रायल सोसाइटी और रायल एस्ट्रोनोमिकल की आíथक सहायता से किया गया यह शोध रायल एस्ट्रोनोमिकल सोसाइटी के मासिक सूचनापत्न में प्रकाशित हुआ है। उर्सा मेजर तारामंडल के मार्गनिर्देशन में जेमिनी वेधशाला का इस्तेमाल करते हुए इस आकाशगंगा का निरीक्षण किया गया।

शोध दल के प्रमुख डा. डेव अलेक्जेंडर का कहना है-अतीत में देखने पर हमें एक विध्वसंक घटना का पता लगा है, जिसने तारों का निर्माण और स्थानीय ब्रrाण्ड में एक विशाल आकाशगंगा का विकास रोक दिया। यह आकाशगंगा नए तारों को बनने से रोककर अपने विकास को नियंत्नित कर रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस घटना के पीछे ऊर्जा का भारी उत्सर्जन है लेकिन इसका पता उन्हें अब लग पाया है।
उनका कहना है कि इसी तरह के भारी ऊर्जा उत्सर्जन ने तारों के निर्माण के लिए जरूरी पदार्थो को उड़ाकर संभवत: प्रारंभिक ब्रहृमांड में अन्य आकाशगंगाओं के विकास को रोक दिया। शोध दल अब यह पता लगाने के लिए तारों का निर्माण करने वाली अन्य विशाल आकाशगंगाओं का अध्ययन करने की योजना बना रहा है कि अन्य आकाशगंगाओं में भी इसी तरह की घटना तो नहीं हुई है।
अजय कुमार विश्वकर्मा

सोमवार, 29 मार्च 2010

भारत की कहानी दस्तावेजों की जुबानी



अभिलेखीय दस्तावेजों में संरक्षित है भारत का रोमांचकारी इतिहास
क्या आपको पता है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का पासपोर्ट कभी ओरलैंडो मजोटा के नाम से बना था और आजादी के लिए अपनी जान गंवाने वाले भगत ¨सह, राजगुरू और सुखदेव की चिता की राख आज भी अपनी वीरता की गाथा कह रही है ।
देश की पराधीनता से लेकर स्वाधीनता के संग्राम तक तथा विभाजन की ˜त्रासदी से लेकर युवा भारत के सफर तक की हर रोमांचकारी और महत्वपूर्ण घटनाओं के प्रामाणिक और अत्यंत दुर्लभ दस्तावेज और सामग्री का का यह खजाना मौजूद है राष्ट्रीय अभिलेखागार में । इन्हें सांस्कृतिक विरासत के तौर पर आगामी पीढ़ियों के लिए संजोए रखने की अहम जिम्मेदारी निभा रहे राष्ट्रीय अभिलेखागार ने अपनी स्थापना के ११क् वर्ष पूरे कर लिए है। इस मौके पर अभिलेखागार की ओर से १२ मार्च को अभिलेखागार की प्रांसगिकता, विषय पर एक संगोष्ठि का आयोजन किया गया । जिसमें जाने माने शिक्षाविद, अभिलेखीय विशेषज्ञ और इतिहासकार अपने अनुभवों और विचारों को प्रस्तुत किया।


ब्रिटिश शासन के दौरान १८९१ को इंपीरियल रिकार्ड आफ्सि के रूप में कोलकाता में अपनी शुरुआत करने वाला अभिलेखागार वर्ष 1926 में देश की राजधानी कोलकाता से दिल्ली आने के साथ ही यहां स्थानांतरित हो गया और आजादी के साथ ही १९४७ में इसे राष्ट्रीय अभिलेखागार का नया नाम दिया गया। अभिलेखागार में दस्तावेजों का इतना बड़ा खजाना है कि यदि इन्हें क्रमवार बिछा दिया जाए तो इनकी 40 किलोमीटर लंबी श्रृंखला बन जाएगी। इन दस्तावेजों में प्रत्येक सरकारी विभाग से जुडे पुराने रिकार्ड, दुर्लभ पांण्डुलिपियां, नामी-गिरामी शख्सियतों के निजी दस्तावेज,मुहरें,नक्शों के अलावा आजादी के परवानों के लिखे ऐसे अनेकं संस्मरण,पुस्तके,लेख और पत्र शामिल हैं जिन पर ब्रिटिश राज में प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभिलेखागार में 1748 से क्रमवार तिथि में रिकार्ड संरक्षित रखे गए हैं हालांकि इसके पूर्व के फ्रासी,हिन्दी,संस्कृत, अरबी,तमिल,तेलुगु और फ्रांसीसी भाषा में लिखे रिकार्ड भी उपलब्ध हैं। इन दस्तावेजों को संरक्षित रखने तथा शोधकर्ताओं और आम लोगों तक इनकी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए अभिलेखागार ने अत्याधुनिक वैज्ञानिक तरीके अपनाए हैं। कई दस्तावेंजो की माइक्रो फ्ल्मि बनाई गई है ताकि बड़ी संख्या के रिकार्ड बेहद आसानी से एक ही जगह पर देखे जा सकें। कई रिकार्ड की जानकारी आनलाइन भी उपलब्ध कराई गई है ।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

खुशबू से खुली राहें


डॉ. महेश परिमल
शादी के पहले सेक्स! सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह अपराध नहीं है। कोर्ट ने कहा है कि कोई युगल यदि शादी किए बिना ही साथ-साथ रहता है, तो वह कोई अपराध नहीं करते हैं। इसके पहले 2008 के अक्टूबर महीने में महाराष्ट्र सरकार ने लिव इन रिलेशनशिप (शादी के बिना साथ-साथ रहना) को मान्यता देते हुए एक कानून बनाया गया। उसी वर्ष जनवरी माह में सुप्रीम कोर्ट ने एक और फैसले में कहा था कि लिव इन रिलेशनशिप का दर्जा शादी जितना ही है। 23 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यदि दो बालिग युवक-युवती बिना शादी किए साथ-साथ रहते हैं, तो इसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए। इस दौरान उनके बीच संबंध भी स्थापित हो जाएँ, तो भी इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। साथ-साथ रहना इंसान का हक है।
न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने दक्षिण भारत की अभिनेत्री खुशबू के मामले में यह ऐतिहासिक फैसला किया है। सन् 2005 में खुशबू ने एक साक्षात्कार में शादी से पूर्व शारीरिक संबंधों को उचित माना था। इस पर देशव्यापी बहस छिड़ गई। विभिन्न सामाजिक संस्थाओं ने खुशबू पर मुकदमा दर्ज कर दिया। उनका कहना था कि खुशबू के इस बयान से समाज में विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
हमारे देश में अभी भी परंपरावादी लोग शादी से पहले शारीरिक संबंध के मामले में नाक-भौं सिकोड़ते हैं। इसके विपरीत आज मेटोपोलिटन शहरों में कई ऐसे युगल हैं, जो साथ-साथ रहना पसंद करते हैं। ऐसे युवाओं के लिए सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला राहत देने वाला है। लिव इन रिलेशनशिप पर विश्वास करने वाले युगल यदि अलग होते हैं, तो उन्हें भी शादी की तरह अधिकार मिलने चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति है। सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है। भारतीय संस्कृति की दृष्टि से देखें, तो शादी जैसी सामाजिक व्यवस्था पर आज भी कोई ऊँगली नहीं उठा सकता। अपनी तमाम कमियों के बाद भी विवाह एक आदर्श व्यवस्था है। इसे कोई भी कानून चुनौती नहीं दे सकता। शादी और संबंध किसी कानून से नहीं चलते। शादी का बंधन जब टूटता है, तभी कानून की आवश्यकता पड़ती है। आज की पीढ़ी शादी के बंधन में बँधना नहीं चाहती। न चाहे, पर इससे विवाह का महत्व किसी भी प्रकार से कम नहीं हो जाता।

महाराष्ट्र सरकार ने पहले ही विवादास्पद लीव इन रिलेशनशिप को कानूनी रूप से मान्यता दे दी है। इसके अनुसार अब बिना शादी किए युवक-युवती जब तक चाहें, साथ रह सकते हैं। इन्हें मिला खुला आकाश। इसका मतलब यही हुआ कि बिन फेरे हम तेरे। बिना फेरों के साथ-साथ रहना अब तक सभी जगह शक की नजरों से देखा जाता है। पर अब ये जोड़े खुश हैं कि उन्हें किसी प्रकार की काननूी अड़चन नहीं आएगी और वे मुक्त होकर जीवन का मजा ले सकते हैं। जान अब्राहम और विपाशा बसु को अपना आदर्श मानने वाले ये कथित जोड़े गर्व के साथ सर उठाकर जीना चाहेंगे। इसका दूसरा पहलू भी कम खतरनाक नहीं होगा, जब एक समय बाद दोनों अलग हो जाएँगे, फिर उनका हाल-चाल पूछने कौन आएगा? विशेषकर युवती के लिए वह जीवन थोड़ा मुश्किल होगा, पर मुझे लगता है, तब तक वह युवती इतनी बोल्ड हो चुकी होगी कि उस चुनौती को भी सहजता के साथ स्वीकार कर लेगी।
आज जमाना तेजी से भाग रहा है। उसी तेजी से जीवन मूल्य बदल रहे हैं। हर काम शार्टकट में होने लगा है। लोगों में जिज्ञासा काफी बढ़ गई है। इंतजार तो आज की पीढ़ी करना ही नहीं जानती। धर्य किस चिड़िया का नाम है, कोई इनसे पूछे। ऐसे में विवाह के बंधन में बँधना इन्हें भारी लगता है। वक्त का तकाजा यही है कि बिना शादी के साथ-साथ रहा जाए। इसमें कोई बुराई नहीं है। वैसे भी मानव आजकल लगातार संकीर्ण होता जा रहा है। उसे किसी की परवाह नहीं है। सामाजिक व्यवस्थाएँ तो उनके लिए एक बोझ है। जिसे वह ढोना नहीं चाहती। किसी का किसी से कोई सरोकार नहीं है। तब फिर क्यों न खुले आकाश में मुक्त विचरण किया जाए? एक सुखद अनुभूति के साथ स्वच्छंद विचरण!
अब तो यह कहा जा सकता है कि संबंध कैसे भी हों, उसे कहाँ तक निभाना है, निभाना भी है या नहीं, ये सब निर्भर करता है, उन परिस्थितियों पर, जो आज की जरूरत है। इस तरह के संबंधों को ‘‘लीव इन रिलेशनशिप’’ कहा जाने लगा है। अब जीवनमूल्यों में आए बदलाव को देखते हुए इस तरह के संबंधों को नई पहचान और परिभाषा देनी होगी। यह बात अलग है कि इस तरह के संबंध कितने टिकते हैं, समाज इन्हें किस तरह की सम्मति देता है। ये संबंध समाज के लिए कितने हितकारी हैं, यह सब हमारे समाजशाियों को सोचना है। अब जब इसे कानूनी मान्यता मिल गई है, तो यह कहा जा सकता है कि हमारा समाज कितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है।
अपने पुष्ट विचारों के साथ खुशबू ने जो कुछ कहा, आज वह एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में हमारे सामने आया है। खुशबू ने अपने विचारों से कई राहें खोल दी हैं, उन लोगों के लिए, जो बिन फेरे हम तेरे, में विश्वास करते हैं। राहें खुली हैं, पर इसमें अवरोध के रूप में और कोई नहीं, हम ही होंगे। हमसे बड़ा हमारा दुश्मन और कोई नहीं है। आज जो सच है, कल नहीं भी हो सकता। पर जो शाश्वत सत्य है, वह यही कि विवाह एक महान् परंपरा है, जिसे निभाना बहुत ही सहज है और बहुत मुश्किल भी। जो इसे निभा ले जाते हैं, वे अपनी शादी की रजत और स्वर्ण जयंती मनाते हैं, और जो नहीं निभा पाते, वे दिवस ही मना पाते हैं।

डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 23 मार्च 2010

क्‍या सचमुच ताजमहल का नाम तेजो महालय ?


श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण (भावार्थ) इस प्रकार हैं -
नाम
1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।
3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।
4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।
5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।
6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।
7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।
8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।
मंदिर परंपरा
9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।
10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।
11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।
12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।
14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।
15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।
16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।
प्रामाणिक दस्तावेज
18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।
20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।
23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।
24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।
यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख
25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।
26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।
27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।
28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।
29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।
संस्कृत शिलालेख
30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।
शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.
अनुपस्थित गजप्रतिमाएँ
31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (’COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”
कुरान की आयतों के पैबन्द
32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।
33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।
कार्बन 14 जाँच
34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
वास्तुशास्त्रीय तथ्य
35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।
36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।
37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।
38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।
39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।
असंगतियाँ
40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।
41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।
42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।
44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।
45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।
46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।
47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।
48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।
खजाने वाल कुआँ
49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।
दफ़न की तारीख अविदित
50. यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।
51. यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?
आधारहीन प्रेमकथाएँ
52. शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।
कीमत
53. शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।
निर्माणकाल
54. इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।
भवननिर्माणशास्त्री
55. ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं।
दस्तावेज़ नदारद
56. ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।
57. अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।
58. शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।
59. हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।
60. मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।
61. ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।
हिंदू गुम्बज
62. ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं।
63. ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।
64. ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।
कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन
65. महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
66. ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहज़हां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंजिल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृतीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर के इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बने दो और मंजिलें हैं जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राचीन हिंदू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।
67. नदी तट से भाग में संगमरमर के नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहज़हां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को जिन्हें कि शाहज़हां ने अतिगोपनीय बना दिया है भारत के पुरातत्व विभाग के द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों के दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिंदू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक एक दरवाजे बने हुये हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारा से चुनवा दिया गया है कि वे दीवाल जैसे प्रतीत हों।
68. स्पष्तः मूल रूप से शाहज़हां के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।
69. अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहज़हां के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहज़हां के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुये कमरे आज भी छुपाये हुये हैं।
शाहज़हां के पूर्व के ताज के संदर्भ
70. स्पष्टतः के केन्द्रीय भवन का इतिहास अत्यंत पेचीदा प्रतीत होता है। शायद महमूद गज़नी और उसके बाद के मुस्लिम प्रत्येक आक्रमणकारी ने लूट कर अपवित्र किया है परंतु हिंदुओं का इस पर पुनर्विजय के बाद पुनः भगवान शिव की प्रतिष्ठा करके इसकी पवित्रता को फिर से बरकरार कर दिया जाता था। शाहज़हां अंतिम मुसलमान था जिसने तेजोमहालय उर्फ ताजमहल के पवित्रता को भ्रष्ट किया।
71. विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘Akbar the Great Moghul’ में लिखते हैं, “बाबर ने सन् 1630 आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई”। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था।
72. बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूँनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृतांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।
73. बाबर स्वयं अपने संस्मरण में इब्राहिम लोधी के कब्जे में एक मध्यवर्ती अष्टकोणीय चारों कोणों में चार खम्भों वाली इमारत का जिक्र करता है जो कि ताज ही था। ये सारे संदर्भ ताज के शाहज़हां से कम से कम सौ साल पहले का होने का संकेत देते हैं।
74. ताजमहल की सीमाएँ चारों ओर कई सौ गज की दूरी में फैली हुई है। नदी के पार ताज से जुड़ी अन्य भवनों, स्नान के घाटों और नौका घाटों के अवशेष हैं। विक्टोरिया गार्डन के बाहरी हिस्से में एक लंबी, सर्पीली, लताच्छादित प्राचीन दीवार है जो कि एक लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय स्तंभ तक जाती है। इतने वस्तृत भूभाग को कब्रिस्तान का रूप दे दिया गया।
75. यदि ताज को विशेषतः मुमताज़ के दफ़नाने के लिये बनवाया गया होता तो वहाँ पर अन्य और भी कब्रों का जमघट नहीं होता। परंतु ताज प्रांगण में अनेक कब्रें विद्यमान हैं कम से कम उसके पूर्वी एवं दक्षिणी भागों के गुम्बजदार भवनों में।
76. दक्षिणी की ओर ताजगंज गेट के दूसरे किनारे के दो गुम्बजदार भवनों में रानी सरहंडी ब़ेगम, फतेहपुरी ब़ेगम और कु. सातुन्निसा को दफ़नाया गया है। इस प्रकार से एक साथ दफ़नाना तभी न्यायसंगत हो सकता है जबकि या तो रानी का दर्जा कम किया गया हो या कु. का दर्जा बढ़ाया गया हो। शाहज़हां ने अपने वंशानुगत स्वभाव के अनुसार ताज को एक साधारण मुस्लिम कब्रिस्तान के रूप में परिवर्तित कर के रख दिया क्योंकि उसने उसे अधिग्रहित किया था (ध्यान रहे बनवाया नहीं था)।
77. शाहज़हां ने मुमताज़ से निक़ाह के पहले और बाद में भी कई और औरतों से निक़ाह किया था, अतः मुमताज़ को कोई ह़क नहीँ था कि उसके लिये आश्चर्यजनक कब्र बनवाया जावे।
78. मुमताज़ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उसमें ऐसा कोई विशेष योग्यता भी नहीं थी कि उसके लिये ताम-झाम वाला कब्र बनवाया जावे।
79. शाहज़हां तो केवल एक मौका ढूंढ रहा था कि कैसे अपने क्रूर सेना के साथ मंदिर पर हमला करके वहाँ की सारी दौलत हथिया ले, मुमताज़ को दफ़नाना तो एक बहाना मात्र था। इस बात की पुष्टि बादशाहनामा में की गई इस प्रविष्टि से होती है कि मुमताज़ की लाश को बुरहानपुर के कब्र से निकाल कर आगरा लाया गया और ‘अगले साल’ दफ़नाया गया। बादशाहनामा जैसे अधिकारिक दस्तावेज़ में सही तारीख के स्थान पर ‘अगले साल’ लिखने से ही जाहिर होता है कि शाहज़हां दफ़न से सम्बंधित विवरण को छुपाना चाहता था।
80. विचार करने योग्य बात है कि जिस शाहज़हां ने मुमताज़ के जीवनकाल में उसके लिये एक भी भवन नहीं बनवाया, मर जाने के बाद एक लाश के लिये आश्चर्यमय कब्र कभी नहीं बनवा सकता।
81. एक विचारणीय बात यह भी है कि शाहज़हां के बादशाह बनने के तो या तीन साल बाद ही मुमताज़ की मौत हो गई। तो क्या शाहज़हां ने इन दो तीन साल के छोटे समय में ही इतना अधिक धन संचय कर लिया कि एक कब्र बनवाने में उसे उड़ा सके?
82. जहाँ इतिहास में शाहज़हां के मुमताज़ के प्रति विशेष आसक्ति का कोई विवरण नहीं मिलता वहीं शाहज़हां के अनेक औरतों के साथ, जिनमें दासी, औरत के आकार के पुतले, यहाँ तक कि उसकी स्वयं की बेटी जहांआरा भी शामिल है, के साथ यौन सम्बंधों ने उसके काल में अधिक महत्व पाया। क्या शाहज़हां मुमताज़ की लाश पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाता?
83. शाहज़हां एक कृपण सूदखोर बादशाह था। अपने सारे प्रतिद्वंदियों का कत्ल करके उसने राज सिंहासन प्राप्त किया था। जितना खर्चीला उसे बताया जाता है उतना वो हो ही नहीं सकता था।
84. मुमताज़ की मौत से खिन्न शाहज़हां ने एकाएक ताज बनवाने का निश्चय कर लिया। ये बात एक मनोवैज्ञानिक असंगति है। दुख एक ऐसी संवेदना है जो इंसान को अयोग्य और अकर्मण्य बनाती है।
85. शाहज़हां यदि मूर्ख या बावला होता तो समझा जा सकता है कि वो मृत मुमताज़ के लिये ताज बनवा सकता है परंतु सांसारिक और यौन सुख में लिप्त शाहज़हां तो कभी भी ताज नहीं बनवा सकता क्योंकि यौन भी इंसान को अयोग्य बनाने वाली संवेदना है।
86. सन् 1973 के आरंभ में जब ताज के सामने वाली वाटिका की खुदाई हुई तो वर्तमान फौवारों के लगभग छः फुट नीचे और भी फौवारे पाये गये। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली तो यह कि जमीन के नीचे वाले फौवारे शाहज़हां के काल से पहले ही मौजूद थे। दूसरी यह कि पहले से मौजूद फौवारे चूँकि ताज से जाकर मिले थे अतः ताज भी शाहज़हां के काल से पहले ही से मौजूद था। स्पष्ट है कि इस्लाम शासन के दौरान रख रखाव न होने के कारण ताज के सामने की वाटिका और फौवारे बरसात के पानी की बाढ़ में डूब गये थे।
87. ताजमहल के ऊपरी मंजिल के गौरवमय कक्षों से कई जगह से संगमरमर के पत्थर उखाड़ लिये गये थे जिनका उपयोग मुमताज़ के नकली कब्रों को बनाने के लिये किया गया। इसी कारण से ताज के भूतल के फर्श और दीवारों में लगे मूल्यवान संगमरमर के पत्थरों की तुलना में ऊपरी तल के कक्ष भद्दे, कुरूप और लूट का शिकार बने नजर आते हैं। चूँकि ताज के ऊपरी तलों के कक्षों में दर्शकों का प्रवेश वर्जित है, शाहज़हां के द्वारा की गई ये बरबादी एक सुरक्षित रहस्य बन कर रह गई है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मुगलों के शासन काल की समाप्ति के 200 वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी शाहज़हां के द्वारा ताज के ऊपरी कक्षों से संगमरमर की इस लूट को आज भी छुपाये रखा जावे।
88. फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाजत नहीं थी क्योंकि वहाँ चौंधिया देने वाली वस्तुएँ थीं। यदि वे वस्तुएँ शाहज़हां ने खुद ही रखवाये होते तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता। परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएँ थीं और शाहज़हां उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिये वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।
89. ताज की सुरक्षा के लिये उसके चारों ओर खाई खोद कर की गई है। किलों, मंदिरों तथा भवनों की सुरक्षा के लिये खाई बनाना हिंदुओं में सामान्य सुरक्षा व्यवस्था रही है।
90. पीटर मुंडी ने लिखा है कि शाहज़हां ने उन खाइयों को पाटने के लिये हजारों मजदूर लगवाये थे। यह भी ताज के शाहज़हां के समय से पहले के होने का एक लिखित प्रमाण है।
91. नदी के पिछवाड़े में हिंदू बस्तियाँ, बहुत से हिंदू प्राचीन घाट और प्राचीन हिंदू शव-दाह गृह है। यदि शाहज़हाँ ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।
92. यह कथन कि शाहज़हाँ नदी के दूसरी तरफ एक काले पत्थर का ताज बनवाना चाहता था भी एक प्रायोजित कपोल कल्पना है। नदी के उस पार के गड्ढे मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा हिंदू भवनों के लूटमार और तोड़फोड़ के कारण बने हैं न कि दूसरे ताज के नींव खुदवाने के कारण। शाहज़हां, जिसने कि सफेद ताजमहल को ही नहीं बनवाया था, काले ताजमहल बनवाने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकता था। वह तो इतना कंजूस था कि हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देने के लिये भी मजदूरों से उसने सेंत मेंत में और जोर जबर्दस्ती से काम लिया था।
93. जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊँची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाये गये हैं।
94. कुछ कल्पनाशील इतिहासकारों तो ने ताज के भवननिर्माणशास्त्री के रूप में कुछ काल्पनिक नाम सुझाये हैं पर और ही अधिक कल्पनाशील इतिहासकारों ने तो स्वयं शाहज़हां को ताज के भवननिर्माणशास्त्री होने का श्रेय दे दिया है जैसे कि वह सर्वगुणसम्पन्न विद्वान एवं कला का ज्ञाता था। ऐसे ही इतिहासकारों ने अपने इतिहास के अल्पज्ञान की वजह से इतिहास के साथ ही विश्वासघात किया है वरना शाहज़हां तो एक क्रूर, निरंकुश, औरतखोर और नशेड़ी व्यक्ति था।
95. और भी कई भ्रमित करने वाली लुभावनी बातें बना दी गई हैं। कुछ लोग विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि शाहज़हां ने पूरे संसार के सर्वश्रेष्ठ भवननिर्माणशास्त्रियों से संपर्क करने के बाद उनमें से एक को चुना था। तो कुछ लोगों का यग विश्वास है कि उसने अपने ही एक भवननिर्माणशास्त्री को चुना था। यदि यह बातें सच होती तो शाहज़हां के शाही दस्तावेजों में इमारत के नक्शों का पुलिंदा मिला होता। परंतु वहाँ तो नक्शे का एक टुकड़ा भी नहीं है। नक्शों का न मिलना भी इस बात का पक्का सबूत है कि ताज को शाहज़हां ने नहीं बनवाया।
96. ताजमहल बड़े बड़े खंडहरों से घिरा हुआ है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि वहाँ पर अनेक बार युद्ध हुये थे।
97. ताज के दक्षिण में एक प्रचीन पशुशाला है। वहाँ पर तेजोमहालय के पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
98. ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कि एक कब्र के लिया अनावश्यक है।
99. संपूर्ण ताज में 400 से 500 कमरे हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रहाइशी कमरों का होना समझ के बाहर की बात है।
100. ताज के पड़ोस के ताजगंज नामक नगरीय क्षेत्र का स्थूल सुरक्षा दीवार ताजमहल से लगा हुआ है। ये इस बात का स्पष्ट निशानी है कि तेजोमहालय नगरीय क्षेत्र का ही एक हिस्सा था। ताजगंज से एक सड़क सीधे ताजमहल तक आता है। ताजगंज द्वार ताजमहल के द्वार तथा उसके लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय वाटिका के ठीक सीध में है।
101. ताजमहल के सभी गुम्बजदार भवन आनंददायक हैं जो कि एक मकब़रे के लिय उपयुक्त नहीं है।
102. आगरे के लाल किले के एक बरामदे में एक छोटा सा शीशा लगा हुआ है जिससे पूरा ताजमहल प्रतिबिंबित होता है। ऐसा कहा जाता है कि शाहज़हां ने अपने जीवन के अंतिम आठ साल एक कैदी के रूप में इसी शीशे से ताजमहल को देखते हुये और मुमताज़ के नाम से आहें भरते हुये बिताया था। इस कथन में अनेक झूठ का संमिश्रण है। सबसे पहले तो यह कि वृद्ध शाहज़हां को उसके बेटे औरंगज़ेब ने लाल किले के तहखाने के भीतर कैद किया था न कि सजे-धजे और चारों ओर से खुले ऊपर के मंजिल के बरामदे में। दूसरा यह कि उस छोटे से शीशे को सन् 1930 में इंशा अल्लाह ख़ान नामक पुरातत्व विभाग के एक चपरासी ने लगाया था केवल दर्शकों को यह दिखाने के लिये कि पुराने समय में लोग कैसे पूरे तेजोमहालय को एक छोटे से शीशे के टुकड़े में देख लिया करते थे। तीसरे, वृद्ध शाहज़हाँ, जिसके जोड़ों में दर्द और आँखों में मोतियाबिंद था घंटो गर्दन उठाये हुये कमजोर नजरों से उस शीशे में झाँकते रहने के काबिल ही नहीं था जब लाल किले से ताजमहल सीधे ही पूरा का पूरा दिखाई देता है तो छोटे से शीशे से केवल उसकी परछाईं को देखने की आवश्कता भी नहीं है। पर हमारी भोली-भाली जनता इतनी नादान है कि धूर्त पथप्रदर्शकों (guides) की इन अविश्वासपूर्ण और विवेकहीन बातों को आसानी के साथ पचा लेती है।
103. ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुये हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दिये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।
104. ताजमहल पर शाहज़हां के स्वामित्व तथा शाहज़हां और मुमताज़ के अलौकिक प्रेम की कहानी पर विश्वास कर लेने वाले लोगों को लगता है कि शाहज़हाँ एक सहृदय व्यक्ति था और शाहज़हां तथा मुमताज़ रोम्यो और जूलियट जैसे प्रेमी युगल थे। परंतु तथ्य बताते हैं कि शाहज़हां एक हृदयहीन, अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति था जिसने मुमताज़ के साथ जीवन भर अत्याचार किये थे।
105. विद्यालयों और महाविद्यालयों में इतिहास की कक्षा में बताया जाता है कि शाहज़हां का काल अमन और शांति का काल था तथा शाहज़हां ने अनेकों भवनों का निर्माण किया और अनेक सत्कार्य किये जो कि पूर्णतः मनगढ़ंत और कपोल कल्पित हैं। जैसा कि इस ताजमहल प्रकरण में बताया जा चुका है, शाहज़हां ने कभी भी कोई भवन नहीं बनाया उल्टे बने बनाये भवनों का नाश ही किया और अपनी सेना की 48 टुकड़ियों की सहायता से लगातार 30 वर्षों तक अत्याचार करता रहा जो कि सिद्ध करता है कि उसके काल में कभी भी अमन और शांति नहीं रही।
106. जहाँ मुमताज़ का कब्र बना है उस गुम्बज के भीतरी छत में सुनहरे रंग में सूर्य और नाग के चित्र हैं। हिंदू योद्धा अपने आपको सूर्यवंशी कहते हैं अतः सूर्य का उनके लिये बहुत अधिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिये सूर्य का महत्व केवल एक शब्द से अधिक कुछ भी नहीं है। और नाग का सम्बंध भगवान शंकर के साथ हमेशा से ही रहा है।
झूठे दस्तावेज़
107. ताज के गुम्बज की देखरेख करने वाले मुसलमानों के पास एक दस्तावेज़ है जिसे के वे “तारीख-ए-ताजमहल” कहते हैं। इतिहासकार एच.जी. कीन ने उस पर ‘वास्तविक न होने की शंका वाला दस्तावेज़’ का मुहर लगा दिया है। कीन का कथन एक रहस्यमय सत्य है क्योंकि हम जानते हैं कि जब शाहज़हां ने ताजमहल को नहीं बनवाया ही नहीं तो किसी भी दस्तावेज़ को जो कि ताजमहल को बनाने का श्रेय शाहज़हां को देता है झूठा ही माना जायेगा।
108. पेशेवर इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा भवनशास्त्रियों के दिमाग में ताज से जुड़े बहुत सारे कुतर्क और चतुराई से भरे झूठे तर्क या कम से कम भ्रामक विचार भरे हैं। शुरू से ही उनका विश्वास रहा है कि ताज पूरी तरह से मुस्लिम भवन है। उन्हें यह बताने पर कि ताज का कमलाकार होना, चार स्तंभों का होना आदि हिंदू लक्षण हैं, वे गुणवान लोग इस प्रकार से अपना पक्ष रखते हैं कि ताज को बनाने वाले कारीगर, कर्मचारी आदि हिंदू थे और शायद इसीलिये उन्होंने हिंदू शैली से उसे बनाया। पर उनका पक्ष गलत है क्योंकि मुस्लिम वृतान्त दावा करता है कि ताज के रूपांकक (designers) बनवाने वाले शासक मुस्लिम थे, और कारीगर, कर्मचारी इत्यादि लोग मुस्लिम तानाशाही के विरुद्ध अपनी मनमानी कर ही नहीं सकते थे।
किस प्रकार से अलग अलग मुस्लिम शासकों ने देश के हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देकर उन्हें बनवाने का श्रेय स्वयं ले लिया इस बात का ताज एक आदर्श उदारहरण है।
आशा है कि संसार भर के लोग जो भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं जागरूक होंगे और पुरानी झूठी मान्यताओं को इतिहास के पन्नों से निकाल कर नई खोजों से प्राप्त सत्य को स्थान देंगे।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

परीक्षा, बच्चे, पालक और हम


डॉ. महेश परिमल
परीक्षाएँ शुरू हो गई हैं। पालकों की व्यस्तता के साथ-साथ चिंताएँ भी बढ़ गई है। बच्च पढ़ता नहीं, पालक उसे बार-बार टोकते हैं। पालकों की इस हरकत से बच्चे में हल्का विद्रोह झलकता है। जिसे वह व्यक्त नहीं कर पाता, क्योंकि वह देख रहा है, माता-पिता उसके लिए किस तरह से दिन-रात परिश्रम कर रहे हैं। परीक्षा के इन दिनों में माँ उसका विशेष खयाल रखने लगी हैं। बच्चे को समय पर सब-कुछ मिल जाए, इसके लिए वह सचेत रहती है। पिता अगले साल बच्चे की पढ़ाई में होने वाले खर्च की व्यवस्था में जुटे हैं। बच्चे को जब अपने ही सूत्रों से पता चलता है कि उसकी पढ़ाई के लिए पिता ने कहीं अतिरिक्त काम करना शुरू कर दिया है, तो वह फिर विद्रोह करने की स्थिति में आ जाता है। एक बार फिर इसे दबाना पड़ता है। आखिर यह कैसी शिक्षा है, जिसमें केवल धन ही काम आता है। जिनके पास प्रतिभा हो, पर धन न हो, वे तो कहीं के नहीं रहे। शिक्षा की इतनी बड़ी-बड़ी दुकानों को देखकर लगता है कि ये संस्थाएँ देश के एक-एक बच्चे को उच्च शिक्षा देने के लिए तत्पर हैं। जितनी संस्थाएँ हैं, उसे देखकर लगता है कि क्या ये अपना काम ईमानदारी से कर रही हैं? विद्रोही बच्च शांत हो जाता है।
जब भी परीक्षा की तारीखें घोषित होती हैं, बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है। यदि आँकड़ों पर जाएँ, तो स्पष्ट होगा कि सन् 2010 में जनवरी माह के पहले सप्ताह में ही अकेले महाराष्ट्र में ही 9 विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। केंद्र का स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार केवल तीन वर्ष में ही कुछ 16 हजार विद्यार्थियों ने अपने आपको इस शिक्षा के प्रदूषित गंगोत्री के नाम पर स्वाहा कर दिया।
विद्यार्थियों द्वारा की गई आत्महत्याएँ:-
वर्ष विद्यार्थी
2004 5610
2005 5183
2006 5857
हमारे देश में दुर्घटनाओं एवं आत्महत्याओं के कारण रोज 129 जानें चली जाती हैं। यह सच है कि आज के युवाओं में किसी भी विषय पर गहराई तक सोचने का माद्दा है। वे प्रौढ़ों से अधिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। किंतु युवाओं में धर्य की कमी होने के कारण वे जल्दी ही हताश हो जाते हैं और अपेक्षाकृत परिणाम न मिलने पर वे अपनी जान को गवाँ देने में जरा भी देर नहीं करते। 30 से 44 वर्ष की उम्र के लोगों में आत्महत्या का अनुपात प्रतिदिन 119 है। ऐसा लगता है कि उम्र के साथ-साथ लोगों की सहनशक्ति भी बढ़ने लगी है। 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में आत्महत्या का अनुपात 94 है। 2008 में देश में कुल एक लाख 25 हजार 17 लोगों ने आत्महत्या का सहारा लिया। इन आँकड़ों में विद्यार्थियों का आँकड़ा सबसे अधिक मजबूती के साथ हमारे सामने आया है। इसका सबसे बड़ा कारण लार्ड मैकाले द्वारा डेढ़ सौ वर्ष तय की गई शिक्षा पद्धति है। इसी शिक्षा पद्धति में परीक्षा पद्धति भी शामिल है। लाखों मौतों के बाद भी आज तक सरकार यह समझ नहीं पाई है कि आखिर शिक्षा पद्धति में दोष कहाँ है? सरकार प्रयास करना चाहती है, तो उस पर हावी शिक्षा माफिया ऐसा करने से रोकता है। इनसे मुक्त होने के लिए दृढ़ संकल्पशक्ति की आवश्यकता है, जो सरकार के पास नहीं है।

मैकाले के पहले इस देश में लिखित परीक्षा का कोई अस्तित्व ही नहीं था, सभी एक साथ बिना किसी भेदभाव के शिक्षा ग्रहण करते थे। यदि कोई विद्यार्थी किसी विषय में कमजोर होता था, तो इसका जिम्मेदारी शिक्षक ही होता है। फिर शिक्षक उस विद्यार्थी को अपने तरीके से उस विषय में पारंगत करता था। इस तरह की शिक्षा प्राप्त करते हुए विद्यार्थी को जब परीक्षा देने का अवसर मिलता, तो वह हँसते-हँसते परीक्षा में शामिल होता और उसमें उत्तीर्ण भी हो जाता। भारत में 19 वीं शताब्दी में होरेसमेन नामक अँगरेज ने लिखित परीक्षा की पद्धति शुरू की, जिससे हमारा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मुक्त नहीं हो पाया है। आज आपके बच्चे में गजब की तर्कशक्ति है, वह बहुत अच्छा विश्लेषक है, उनकी सूझ-बूझ गहरी है, तो परीक्षा में वह कभी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाएगा। पर यदि बच्च रटने में होशियार है, तो परीक्षा में वह आपके बच्चे को काफी पीछे छोड़ देगा। आज की परीक्षा प्रणाली ऐसी ही है कि जिसने रट्टा मार लिया, उसने मैदान मार लिया। इसी रटंत पद्धति के कारण परीक्षा के समय छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का सैलाब आ जाता है। ये भी अनुशासित शिक्षा माफिया की एक चालाकी है। जिसमें सरकार तो फँस ही गई है, पालक भी लगातार इसी भूल-भुलैया में जी रहे हैं।
समय बदल रहा है, अब केवल परीक्षा में फेल होने के डर से बच्चे आत्महत्या नहीं कर रहे हैं, बल्कि 90 प्रतिशत पाने वाला छात्र भी इसलिए आत्महत्या का सहारा ले रहा है, क्योंकि उसके 92 प्रतिशत क्यों नहीं आए? अब उसे मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा। माता-पिता की मेहनत पर मैंने पानी फेर दिया। अब क्या मुँह दिखाऊँगा उन्हें? इसलिए आज बच्चे से अधिक पालक को यह समझने की आवश्यकता है कि बच्चों को समझाएँ कि डिग्री नहीं काबिलियत पर जोर दो। जब भी पढ़ाई करो, दिल से करो। किसी प्रकार का धोखा मत दो। आज तुम जो धोखा अपने पालकों को दे रहे हो, वह भविष्य में तुम्हारे लिए ही मुसीबत बनकर आएगा। उन्हें यह समझाओ कि अपनी प्रतिभा को इतना अधिक तराशो कि तुम नहीं, तुम्हारा काम बोलेगा। आत्महत्या जीवन का समाधान नहीं, बल्कि कायरता की निशानी है। ईश्वर ने हमें कुछ करने के लिए ही इस संसार में भेजा है, तो हम ईश्वर को सामने रखकर कुछ ऐसा करें, जिससे लोग आप पर गर्व कर सकें। प्रतिभा को तराशोगे, तो जिंदगी सँवर जाएगी। कॉलेज में जब कैम्पस सेलेक्शन होता है, तो केवल प्रतिभा ही काम आती है, किसी मंत्री का बेटा होना काम नहीं आता। वहाँ तो मजदूर का बेटा भी सबको पीछे छोड़ सकता है। इसीलिए काबिल बनो, नौकरी तुम्हारे पीछे दौड़ेगी। डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 18 मार्च 2010

योग की राजनीति या राजनीति का योग


डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में वैसे भी राजनैतिक दलों की कोई कमी नहीं है, इस पर हमारे रामकिशन यादव जी ने आगामी तीन वर्षो में एक राजनैतिक दल बनाने की घोषणा कर दी है। आप जानते हैं कौन हैं ये रामकिशन यादव, अरे ये तो वही रामदेव बाबा हैं, जो देश भर में योगगुरु के नाम से जाने जाते हैं। इन्होंने देश भर में पिछले एक दशक से योग की जो अलख जगाई है, वह आज भी पीड़ा से छटपटाते लाखों लोगों के जीवन में रोशनी बनकर उजास फैला रही है। उनके सामने बहुत सी चुनौतियाँ हैं। अपने कटाक्षों के लिए सुर्खियों में छाए रहने बाबा रामदेव ने यह फैसला किया है कि वे अब योग से भोग की दुनिया में कदम रखने जा रहे हैं। उन्होंने फैसला किया है कि वे स्वयं कभी चुनाव नहीं लडें़गे, पर सभी 543 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेंगे। उनका मानना है कि राजनीति में वे चाणक्य की भूमिका अदा करेंगे। वे कोई पद भी स्वीकार नहीं करेंगे।
अभी तो उनके सामने मदमस्त हाथी एक बहुत बड़ी समस्या है। मायावती को लेकर वे कुछ न कुछ कहकर सुर्खियों में आते ही रहे हैं। अपने बयानों से कई बार उन्होंने नेताओं को भी आड़े हाथों लिया है। जिस शहर में उन्होंने अपना शिविर लगाया है, डॉक्टरों के कोपभाजन बने हैं। योग से जो प्रसिद्धि उन्हें प्राप्त की है, उतनी ख्याति अन्य किसी योगगुरु को नहीं मिली है। टीवी पर रोज सुबह आज भी हजारों लोग उन्हें देखकर योग करते हैं और अपनी व्याधियों को दूर करते हैं। लोगों की पीड़ा हरने वाला व्यक्ति यदि यह सोचे कि अब भारतीय राजनीति को योग की आवश्यकता है, ताकि बीमार भारतीय राजनीति स्वस्थ हो सके। वैसे इस देश में राष्ट्रीय दल खड़ा करना बहुत ही मुश्किल है। बेशुमार दौलत की आवश्यकता होती है। इस घोषणा से यह तो पता चल ही गया कि उनके पास धन की कोई कमी नहीं है। अपना राजनैतिक दल बनाने की घोषणा से कई लोग जल-भुन गए हैं। उनकी सबसे बड़ी विरोधी नेता मायावती हैं। यह हाथी इतना मदमस्त हो गया है कि उसे भूख-गरीबी दिखाई नहीं देती। उसे नोटों का हार चाहिए। अब हार उसके लिए भले ही गले की हड्डी बन गया है। आयकर विभाग तो सतर्क हो ही गया है। मायावती ने पार्टी कार्यकत्र्ता आर.एस. शर्मा को भी पार्टी से निष्कासित कर दिया है, जिसने हार में नोटों की जानकारी दी थी।
बाबा रामदेव भारतीय राजनीति में एक कमल की तरह प्रस्तुत होना चाहते हैं। वे कोई पद स्वीकार नहीं करेंगे। उनके सामने कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, जिन्होंने पार्टी को एक नई दिशा दी है। यही नहीं उनके सामने बाल ठाकरे का उदाहरण है, जिन्होंने पद तो स्वीकार नहीं किया, पर मुंबई महानगरपालिका में अपना वर्चस्व कायम रखा, यही नहीं सरकार किसी की भी हो, वे उसे छद्म रूप से चलाते ही हैं। जब देश में यह सब हो सकता है, तो जो बाबा चाहते हैं, वैसा क्यों नहीं हो सकता। वे अपने तरीके से मदमस्त हाथी पर अंकुश रखना चाहते हैं। राजनीति का जवाब राजनीति से देने के लिए बाबा ने जिस तरह से पत्रकार वार्ता में अपना दल बनाने की घोषणा की है, उससे यही लगता है कि वे जिस परिवर्तन की इच्छा रखते हैं, वह राजनीति के दलदल में जाने के बाद ही पूरी हो सकती है। बाबा के अनुयायियों की संख्या देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे उत्तर प्रदेश सरकार के लिए अवश्य सरदर्द साबित हो सकते हैं।
मतदाता हर दल से यही अपेक्षा रखता है कि यह दल उन्हें संरक्षण प्रदान करेगा। महँगाई से बचाएगा, राशन दुकानों से मिलने वाले राशन की गुणवत्ता बेहतर करेगा, सड़क, पानी की समस्याओं से मुक्त कराएगा। पर ऐसा हो नहीं पाता। जिन पर विश्वास करके वह अपना कीमती मत देता है, वही चुनाव जीतकर अविश्वासी हो जाता है। इन्हीं मतदाताओं से दूर हो जाता है। संसद में उन्हें हाथापाई करते हुए जब भी देखा जाता है, तो शर्म आती हे कि हमने किस मूर्ख कों अपना कीमती मत देकर संसद में भेजा है। जिस देश की संसद में महान विभूतियाँ विराजती थीं, वही संसद आज लगातार शर्मसार हो रही है। ऐसे में एक नए राजनैतिक दल का स्वागत तो किया ही जा सकता है, जिसका कर्णधार एक योगी हो। दूसरी ओर आज के कथित योगी जिस तरह से भोग की राजनीति कर रहे हैं, उससे यही संशय है कि बाबा रामदेव ने जिस तरह से अपने योग से लाखों लोगों को व्याधियों से मुक्ति दिलाई है, क्या राजनीति में आकर वे राजनीति के बजबजाते फोड़े का इलाज कर पाएँगे?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 17 मार्च 2010

गहरा संबंध है बच्चे का लोरी से


डॉ. महेश परिमल
गर्भ में रहते हुए अभिमन्यु ने अपने माता-पिता की बातें सुन ली थीं और चक्रव्यूह को भेदने की कला सीख ली थी। यह बात पूरी तरह से सच है। फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का वह सीन तो आपको याद होगा, जब आमिर खान करीना कपूर की गर्भवती बहन के पेट के पास जाकर ‘आल इज वेल’ बोलते हैं, तब शिशु हरकत करता है, इसे गर्भवती शिद्दत से महसूस करती है। बाद में शिशु के जन्म पर जब वह रोता नहीं है, उसकी कोई हरकत नहीं होती, तो एक बार फिर ‘आल इज वेल’ कहने पर उसके पाँव चलने लगते हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि गर्भस्थ शिशु से माता-पिता बातें करें, तो उसे शिशु पूरी तरह से सुनता है। केवल बातें ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ भ्रूण संगीत, स्वर, वाद्य और लय को भी महसूस करता है। इसीलिए चिकित्सक कहते हैं कि माता-पिता यदि गर्भस्थ भ्रूण से बातें कर सकते हैं।
इस संबंध में छत्तीसगढ़ राजनांदगाँव के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. पुखराज बाफना का कहना है कि जब भ्रूण पर इन सब का इतना अधिक असर होता है, तो निश्चित ही बच्चे पर लोरी का असर तो होता ही है। डॉक्टरों का कहना है कि माँ लोरी के माध्यम से बच्चे पर अच्छे संस्कार के बीज रोप सकती है। लोरी सुनते हुए शिशु को आनंद की अनुभूति होती है। उसके भीतर एक तरह के आनंद रस का प्रवाह होता है। जिससे वह रोमांचित भी होता है। उसके भीतर ग्रहण शक्ति का विकास होता है। गर्भस्थ शिशु से यदि उसके माता-पिता रोज कहें कि हम तुम्हें प्यार करते हैं, इसका असर उस समय शिशु पर अवश्य होगा, यह उसके बड़े होने पर ही पता चलेगा।

डॉक्टरों का यहाँ तक कहना है कि माँ अपने बच्चे को कभी भी अपने से अलग न करे, माँ के साथ रहने से बच्चे को एक अलग ही तरह की प्रशांति का अनुभव होता है। डॉक्टर इसे ञ्जrड्डठ्ठह्न्ह्वद्बद्यद्बह्ल4 कहते हैं। माँ की गर्मी से बच्चे को जो कुछ मिलता है, उसे हम वात्सल्य कह सकते हैं। जिन बच्चों को यह वात्सल्य भरपूर मिलता है, वे अपने जीवन में कुछ अनोखा करते हैं। रही बात लोरी की, तो पुराने जमाने में नींद की गोलियाँ नही होतीं थी, तो माँ थकी-माँदी होने के बाद भी बच्चे को लोरी सुनाती थी। इससे बच्च तो सो ही जाता था, माँ को भी इससे सुकून मिलता था। इसलिए लोरी को माँ से कभी अलग नहीं किया जा सकता। लोरी एक माध्यम है माँ और बच्चे के बीच संवाद का। आजकल की माँएँ बच्चे को भुलावे में रखने के लिए एक चूसनी या निप्पल थमा देती है, जिससे बच्च यह समझता हे कि वह मां का दूध पी रहा है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। उस उम्र में भी बच्चे की समझ विकसित हो चुकी होती है। वह समझ जाता है कि माँ से उसे चूसनी देकर धोखा दिया है। बड़े होने पर वह अपने व्यवहार में इसे बताने की कोशिश करता है, जिसे माँ नहीं समझ पाती।

डॉ. मेहरबान सिंह ने इस दिशा में काफी काम किया है। वे मानते हैं कि जो बच्चे लोरी से वंचित होते हैं, वे माँ के उस वात्सल्य से वंचित होते हैं, जो उसका अधिकार है। आजकल माँएँ इसे नहीं समझना चाहती। आज की पीढ़ी जिस तरह से उच्छृंखल हो रही है, उसके पीछे यह भी एक कारण हो सकता है। बच्च जिसका हकदार है, उसे यदि वह नहीं मिलेगा, तो निश्चित रूप से वह अधिकार न देने वालो के प्रति अपनी बेरुखी दिखाएगा। लोरी बच्चे का अधिकार है, यह उसे मिलनी ही चाहिए। लोरी के साथ थपकी का भी महत्वपूर्ण स्थान है। थपकी में एक लय होती है, जो लोरी के साथ-साथ चलती है। यह बच्चे को एक गहरा सुकूल देती है। बच्च स्वयं को निरापद समझता है और निश्चिंत होकर सो जाता है। डॉ. सिंह कहते हैं कि कोई भी माँ अपने बच्चे को अपने वात्सल्य से वंचित न करे, मेरी हर माँ से यही प्रार्थना है।
डॉ. महेश परिमल

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साथियो
मैं लोरी पर काम कर रहा हूं, इस दिशा में आप मेरा सहयोग दादादादी, नाना नानीमाँ से सुनी हुई लोरी भेज सकते हैं।लोरी किसी भी भाषा या बोली की हो सकती है। आपका सहयोग मुझे बहुत काम आएगा।
डॉमहेश परिमल

मंगलवार, 16 मार्च 2010

दम है तो क्रास कर, वर्ना बर्दाश्त कर



भारती परिमल
अपने शहर की दौड़ती-भागती सड़क पर जहाँ जिंदगी का हर क्षण दौड़ता भागता रहता है, उन्हीं क्षणों में एक ट्रक के पीछे मैंने एक स्लोगन देखा- दम है तो क्रास कर, वर्ना बर्दाश्त कर। स्लोगन पढ़कर मन जैसे इस पर विचार करने को विवश हो गया। स्लोगन का सीधा-सादा अर्थ यही था कि ट्रक वाला अपने पीछे आने वालों से सीधे स्पष्ट शब्दों में यही कह रहा था कि यदि तुममें ताकत है, तो मुझे ओवरटेक कर लो, नहीं तो चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चलते रहो। खाली-पीली हार्न बजाकर मेरी और खुद की शांति भंग मत करो। तुम भी दु:खी मत हो और मुझे भी चैन से चलने दो। यानी तुम अपने में खुश रहो और मुझे भी अपनी दुनिया में खुश रहने दो।
ईमानदारी से यदि इस स्लोगन की सच्चई को समझा जाए तो ट्रक के पीछे लिखा गया यह सूत्र वाक्य हम सभी का जीवन सूत्र है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसे लागू किया जा सकता है। यदि हममें हिम्मत है, तो ल़ड लेना चाहिए और यदि नहीं है तो जो स्थिति हो, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। दोनों में से कुछ भी किए बगैर बेवजह बक-बक, अंट-शंट करते रहने का क्या मतलब ? इसके बाद भी पूरी दुनिया ऐसे ही शोर से गूँज रही है। पडा़ेसी के पास एलसीडी टीवी है, तो इसका शोर दूसरे घर में चल रहा है कि हमें भी अपने घर में एलसीडी टीवी ही चाहिए। ऐसी स्थिति में ऊपर लिखा सूत्र वाक्य कार्य करता है। यदि दम है तो एलसीडी टीवी ले आइए, नहीं तो प़डोसी की समृद्धि को बर्दाश्त करिए। सभी को जीवन में सफल होना है, पर सभी आदमी सभी तरह से सफल नहीं हो सकते। इसीलिए दम है तो सफल होकर दिखाओ, नहीं तो वर्तमान परिस्थितियों से समझौता कर लो।
यही बात ऑफिस में भी लागू होती है। क्या आपको ऑफिस नर्क लगता है ? तो इसे स्वर्ग में बदलने के लिए प्रयास करो। क्या कहा ? स्वर्ग में बदल पाना संभव नहीं है ? तो नौकरी बदल लो। नौकरी बदलना भी संभव नहीं है ? तो फिर चुपचाप बैठ जाओ और जो स्थिति है, उसे स्वीकार कर लो और खुश होकर जीना सीख लो। रोज-रोज अपने तनाव की बातें कर स्वयं को और घरवालों को परेशान मत करो। क्योंकि घरवाले भी रोज का आपका तनाव सुनकर कुछ समय बाद एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे। वे ऐसा करें इसके पहले आप स्वयं ही ऐसा करना सीख जाएँ। यही जीवन की सच्चई है, इसे स्वीकार कर लें।
वे सारी समस्याएँ जो आपको परेशान तो करती हैं, पर जिनका समाधान आपके पास नहीं हैं, उन्हें समस्या मानने से ही इंकार कर दें। यही जीवन जीने का मूल मंत्र है। ऑफिस के तनावपूर्ण माहौल की बात करना, रोज की बात है़़ असंतुष्ट कारचालक बिना वजह हार्न पर हार्न बजाता है़़ रोज की बात है़़। बाजार से निकलते हुए लोगों का बीच रास्ते पर ख़डा हो जाना़़ रोज की बात है। राह चलते लोगों का बिना वजह जोर-जोर से बोलना़़रोज की बात है। इन सभी लोगों का उद्देश्य केवल यही होता है कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करें और कुछ पल के लिए स्वयं को महत्वपूर्ण साबित करें। लेकिन उनका यह निर्रथक उद्देश्य हमारे जीवन में विषमताएँ पैदा करें तो हमें इसकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए।
लियो टॉल्सटाय ने अपने उपन्यास ‘एन्ना कॉरेनीना‘ में पहले प्रकरण में पहला वाक्य यह लिखा है - ‘‘विश्व के तमाम सुखी परिवार एक समान कारणों से सुखी होते हैं, परंतु तमाम दु:खी परिवारों के दु:ख के कारण अलग-अलग होते हैं।‘‘ अर्थ यह है कि हमारे दु:ख के अनेक कारण हो सकते हैं, पर उन सभी दु:खों को दूर करने का एक ही उपाय है - ऊपर लिखा गया सूत्र वाक्य। अक्सर लोग इसी बात से दु:खी होते हैं कि उन्हें वह नहीं मिलता, जो सामने वाले को मिलता है। लोग अपने दु:ख से उतने दु:खी नहीं होते, जितने कि वे सामनेवाले के सुख से दु:खी होते हैं। ऐसे लोगों को इस सूत्र वाक्य को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहिए और दु:ख के क्षणों में स्वयं को टटोलते हुए प्रश्न पूछना चाहिए कि दोस्त, ताकत हो, तो उठ ख़डा हो, जो पाने की इच्छा हे उसे पा ले, आगे ब़ढता जा, हर ल़डाई जीत ले और यदि यह संभव नहीं है, तो हार स्वीकार कर, शांति रख, धीरज के साथ जीवन जी और खुश रह।
एक सामान्य वाक्य भी हमारी जिंदगी बदल सकता है। हमारे भीतर उत्साह और उमंग भर सकता है। हमें सुख और संतोष के साथ जीवन जीना सीखा सकता है। बशर्ते कि आप उस वाक्य की सच्चई को अपने जीवन में उतार लें। सो जब कभी इसी तरह का कोई सूत्र वाक्य देखें, तो उसके अर्थ को समझने का प्रयास करें और उसकी सच्चई को स्वीकार करें। तब तक इसी वाक्य को जीवन का मूल मंत्र बनाएँ - दम है तो Rॉस कर, वर्ना तो बर्दाश्त कर। वा! एक सामान्य सूत्र वाक्य जीवन की सच्चई के कितने करीब है !!
भारती परिमल

शनिवार, 13 मार्च 2010

मस्तिष्काघात ने बदल दी जिंदगी


इसे कुदरत का करिश्मा कहा जाए या फिर इत्तेफाक कि कभी लड़ाई-झगड़ने में लगे रहने वाले अपराधी किस्म के एक शख्स की जिन्दगी मस्तिष्काघात के बाद इतनी बदल गई कि अब वह एक जुनूनी कलाकार बन चुका है। कभी पेशे से भवन निर्माता रहे ६क् वर्षीय टामी मैकहाग का दिमाग मस्तिष्काघात के बाद बिल्कुल बदल चुका है और वह हर रोज १६ घंटे चित्रकारी में लगाते हैं । चित्र बनाने का जुनून उन पर इस हद तक छाया हुआ है कि उन्होंने अपने घर की दीवारों, छत यहां तक कि फर्श को भी खूबसूरत चित्रों से सजा दिया है।
टामी के सिर के पिछले हिस्से में दो फोड़े हो गए थे, जिनके फूट जाने के बाद वह २क्क्१ में एक हफ्ते तक कोमा में रहे । इस दौरान वह मौत के बिलकुल नजदीक पहुंच चुके थे। जब वह इस गहरी बेहोशी से जागे तो जिन्दगी के प्रति उनका नजरिया पूरी तरह से बदल चुका था। उनमें सृजन की ऐसी उद्दाम और अनियंत्रित ऊर्जा आ गई थी कि उसे संभालना उनके लिए मुश्किल हो गया और वह कविता लिखने, चित्र बनाने, मूíतयां गढने और नक्काशी करने लगे । डाक्टरों का मानना है कि टामी के अचानक कलाकार बन जाने का कारण मस्तिष्काघात है। अमरीका में हार्वर्ड विश्वविद्यालय की एक तंत्निका विज्ञानी डॉ. एलिस फ्लाहर्टी ने टीम और उसकी अविश्वसनीय स्थिति का अध्ययन करने के बाद कहा कि उनकी चोट के कारण ही उनमें यह प्रकाश फूटा। टामी के मित्न समझ नहीं पा रहे हैं कि इस बदले हुए व्यक्ति का क्या किया जाए, जो मूíतयां बनाने के लिए लट्ठे पर घंटों मोम टपकाता रहता है, अक्सर कविताएं बोलता है, बिल्लियों को प्यार करता है और गलती से भी कोई कीड़ा कुचल जाए तो रोने लगता है। टामी के व्यक्तित्व परिवर्तन से तंत्रिका विज्ञानियों के लिए एक विषय मिल गया है। फोड़ा फूटने के बाद उसके मस्तिष्क में जिस तरह से बदलाव आया है, उससे शायद उन्हें यह सुराग मिल सकता है कि मस्तिष्क में रचनात्मक क्षमता किस तरह उत्पन्न होती है।
ब्रेन हेमरैज के बाद से टामी के लिए सभी रंग अधिक चटकीले हो गए हैं। वह कहते हैं कि वह समझ नहीं पाते कि नए रंगों को किस तरह बयान करें। बीमारी के बाद उन्हें नौ साल हो चुके हैं और उनका हर दिन और लगभग हर रात कला के सृजन में ही गुजरती है। मेर्सीसाइड में बर्कनहेड स्थित उनके घर में फायरप्लेस के अगल-बगल अब एक चित्नित बड़ा घोड़ा खड़ा है, जबकि उनका रेडियेटर आकृतियों और रंगों से सजा हुआ है। टामी अपने बदलाव के बाद हालांकि हजारों पें¨टग, नक्काशियां और मूíतयां बना चुके हैं लेकिन वह अपने को कलाकार नहीं मानते हैं। वह कहते हैं,, मैं कलाकार नहीं हूं। मैंने किताबों में रूप और रंग का अध्ययन नहीं किया है। मैं तो सिर्फ रचना कर रहा हूं और अपने भीतर से सृजनात्मकता के प्रवाह को निकलने दे रहा हूं। बीमार पड़ने से पहले मैं हरफनमौला था और बिल्कुल भी सृजनशील नहीं था। मैं टूटी हुई नालियों को जोड़ सकता था या प्लग के साकेट को ठीक कर सकता था, लेकिन पें¨टग, कविता या इस तरह की चीजें तो कतई नहीं कर सकता था। अपनी नई जिन्दगी के तजुर्बो को बांटने के लिए अब टामी की योजना ऐसे शौकिया कलाकारों की पे¨टग को प्रदíशत करने के लिए एक नि:शुल्क गैलरी स्थापित करने की है, जो किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। इसके लिए उनकी योजना बर्कनहेड में मार्केट स्ट्रीट की एक इमारत को क्रिएटिव सेंटर में बदलने की है। वह कहते हैं,, वहां इस समय मेरी २क्क् से अधिक पें¨टग लगी हैं और मैं ऐसे लोगों के कार्यो को प्रदíशत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता हूं जो बीमारियों से जूझ रहे हैं। यह एक ऐसा स्थान होगा, जहां जीवन से संघर्ष कर रहे लोग अपने को अभिव्यक्त कर सकेंगे और जनता की खुशी के लिए अपने चित्रों को प्रदर्शित कर सकेंगे।
अजय कुमार विश्वकर्मा

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

‘‘चले दृढ़ कदमों से गांधी छा गई साम्राज्य पर आँधी’’


प्रवीण के लहेरी
हमारी आजादी के इतिहास का सबसे उज्जवल प्रकरण में ‘दांडीयात्रा’ को लिया जा सकता है। पूर्ण स्वराज्य के संकल्प को साकार बनाने गांधीजी ने नमक कानून भंग करने के लिए 241 मील पदयात्रा का विचार किया और इस संबंध में जो भी आयोजन किया गया, वह किसी भी आंदोलन के लिए एक मील का पत्थर है। इसीलिए हर वर्ष इस घटना की याद को ताजा करने के लिए लोग दांडीयात्रा का आयोजन करते हैं।
गुजरात के मंच पर इस ऐतिहासिक घटना ने आकार लिया। जिससे हमारी अनेक पीढ़ियाँ गर्व से इसका स्मरण करेंगी। सरदार वल्लभभाई पटेल जब इस यात्रा की पूर्व तैयारी के साथ भरुच में युद्ध का शंखनाद करते हैं, तो कहते हैं कि ‘‘संसार ने कभी नहीं देखा होगा, ऐसा युद्ध अब होने वाला है.. गुजराती यानी व्यापार कर जीने वाले.. इन्होंने कभी अपने हाथों में हथियार नहीं उठाए, युद्धक्षेत्र देखा नहीं..यदि मृत्यु की चिंता हो, तो उसका जीवन बेकार है। इस शुभ क्षणों में जन्म हुआ है... अवसर मिला है, तो उसका स्वागत करो, अब तो दीये में जिस तरह पतंगे गिरते हैं, उसी तरह लड़ाई में कूद जाना है। तभी तो लोग जानेंगे कि महात्मा गांधी ने 15 साल यूँ ही नहीं बिताए हैं... साबरमती के संत को किसी ने जाना हो, तो यह सभी बातें बिलकुल आसान हैं .. इसे अपना धर्म समझ लेना। देश से लोग जितनी अपेक्षा रखेंगे, उससे कहीं अधिक अपेक्षा लोग गुजरात से रखेंगे।’’ इसके पहले वाइसरॉय लॉर्ड इरविन को गांधीजी ने लिखा ही था कि ‘‘मैं जानता हूँ कि अहिंसा की लड़ाई लड़ने में मैं मूर्खतापूर्ण खतरा उठा रहा हँू, पर गंभीर खतरों के बिना सत्य की विजय संभव ही नहीं है।’’
1922 में गांधीजी को राजद्रोह के आरोप में 6 वर्ष की सजा हुई तब ब्रिटिश संसद में लॉर्ड बर्कनहेड ने शेखी बघारते हुए कहा था कि ‘‘गांधीजी की गिरफ्तारी से भारत में कहीं भी विरोध का स्वर सुनाई नहीं दिया और हमारा काफिला सुखपूर्वक आगे ही बढ़ रहा है।’’ वल्लभभाई पटेल की इच्छा थी कि 1930 में हुई गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में जनता उसका मुँहतोड़ जवाब दे। सत्याग्रहियों से जेल भर जाए। टैक्स के भुगतान के बिना शासन की कार्यप्रणाली ठप्प हो जाए। इस संबंध में जब उन्होंने खेड़ा जिले के रास ग्राम में लोगों के आग्रह पर भाषण करना शुरू किया, तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 9 मार्च 1930 को रविवार का अवकाश होने के बाद भी मजिस्ट्रेट ने अदालत खुली रखकर सरदार पटेल को 3 माह की सजा सुनाई। साबरमती जेल जाते हुए गांधीजी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लिया।
9 मार्च 1930 को गांधीजी ने लिखा कि ‘‘इसमें संदेह नहीं कि यदि गुजरात पहल करता है, तो पूरा भारत जाग उठेगा।’’ इसलिए दस मार्च को अहमदाबाद में 75 हजार शहरियों ने मिलकर सरदार पटेल को हुई सजा के विरोध में लड़ने की प्रतिज्ञा की। 11 मार्च को गांधीजी ने अपना वसीयतनामा कर अपनी इच्छा जताई कि आंदोलन लगातार चलता रहे, इसके लिए सत्याग्रह की अखंड धारा बहती रहनी चाहिए, कानून भले ही भंग हो, पर शांति रहे। लोग स्वयं ही नेता की जवाबदारी निभाएँ।
11 मार्च की शाम की प्रार्थना नदी किनारे रेत पर हुई, उस समय गांधीजी के मुख से यह उद्गार निकले ‘‘मेरा जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का नाश करने के लिए ही हुआ है। मैं कौवे की मौत मरुँ या कुत्ते की मौत, पर स्वराज्य लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूँगा।’’
दांडी यात्रा की तैयारी देखने के लिए देश-विदेश के पत्रकार, फोटोग्राफर अहमदाबाद आए थे। आजादी के आंदोलन की यह महत्वपूर्ण घटना ‘‘वाइज ऑफ अमेरिका’’ के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत की गई कि आज भी उस समय के दृश्य, उसकी गंभीरता और जोश का प्रभाव देखा जा सकता है।
अहमदाबाद में एकजुट हुए लोगों में यह भय व्याप्त था कि 11-12 की दरम्यानी रात में गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। गांधीजी की जय और वंदे मातरम् के जयघोष के साथ लोगों के बीच गांधीजी ने रात बिताई और सुबह चार बजे उठकर सामान्य दिन की भाँति दिनचर्या पूर्ण कर प्रार्थना के लिए चल पड़े।
भारी भीड़ के बीच पंडित खरे जी ने अपने कोमल कंठ से यह गीत गाया :-
‘‘शूर संग्राम को देख भागे नहीं,
देख भागे सोई शूर नाहीं’’
प्रार्थना पूरी करने के बाद जब सभी लोग यात्रा की तैयारी कर रहे थे, इस बीच अपने कमरे में जाकर गांधीजी ने थोड़ी देर के लिए एक झपकी भी ले ली। लोगों का सैलाब आश्रम की ओर आ रहा था। तब सभी को शांत और एकचित्त करने के लिए खरे जी ने ‘‘रघुपति राघव राजाराम’’ की धुन गवाई। साथ ही उन्होंने भक्त कवि प्रीतम का गीत बुलंद आवाज में गाया:-
ईश्वर का मार्ग है वीरों का
नहीं कायर का कोई काम
पहले-पहल मस्तक देकर
लेना उनका नाम
किनारे खड़े होकर तमाशा देखे
उसके हाथ कुछ न आए
महा पद पाया वह जाँबाज
छोड़ा जिसने मन का मैल।
अहमदाबाद के क्षितिज में मंगलप्रभात हुआ, भारत की गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए भागीरथ प्रयत्न शुरू हुए। 12 मार्च को सुबह 6.20 पर वयोवृद्ध 61 वर्षीय महात्मा गांधी के नेतृत्व में 78 सत्याग्रहियों ने जब यात्रा शुरू की, तब किसी को बुद्ध के वैराग्य की, तो किसी को गोकुल छोड़कर जाते हुए कृष्ण की, तो किसी को मक्का से मदीना जाते हुए पैगम्बर की याद आई। गांधीजी के तेजस्वी और स्फूतिर्मय व्यक्तित्व के दर्शन मात्र से स्वतंत्रता के स्वर्ग की अनुभूति करते लाखों लोगों की कतारों के बीच दृढ़ और तेज गति से कदम बढ़ाते गांधीजी और 78 सत्याग्रहियों का दल अन्याय, शोषण और कुशासन को दूर करने, मानवजाति को एक नया शस्त्र, एक अलग ही तरह की ऊर्जा और अमिट आशा दे रहा था।
गांधीजी ने यात्रा के लिए और जेल जाने के लिए अलग-अलग दो थैले तैयार किए थे, जो उनकी यात्रा की तस्वीरों में देखे जा सकते हैं, क्योंकि समग्र यात्रा के दौरान कब जेल जाना पड़ जाए, यह तय नहीं था। 16 मार्च को गांधीजी ने नवजीवन में लिखा ‘‘ब्रिटिश शासन ने सयानापन दिखाया, एक भी सिपाही मुझे देखने को नहीं मिला। जहाँ लोग उत्सव मनाने आए हों, वहाँ सिपाही का क्या काम? सिपाही क्या करे? पूर्ण स्वराज्य यदि हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, तो हमें यह अधिकार प्राप्त करने में कितना समय लगना चाहिए? 30 कोटि मनुष्य जब स्वतंत्रता प्राप्ति का संकल्प करंे, तो वह उसे मिलती ही है।’’ 12 मार्च की सुबह का वह दृश्य उसी संकल्प का एक सुहाना रूप था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि ‘‘महात्मा जी के त्याग और देशप्रेम को हम सभी जानते ही हैं, पर इस यात्रा के द्वारा हम उन्हें एक योग्य और सफल रणनीतिकार के रूप में पहचानेंगे।’’ गजब का आत्मविश्वास, लोकजागृति, अद्भुत धर्य, सहनशीलता, शांत प्रतिकार के प्रतीक समान यह दांडी यात्रा 77 वर्ष बाद भी कौतुहल और प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। मानवजाति के इतिहास का यह एक अनोखा स्वर्ण पर्व गुजरात की यश गाथा का मोर पंख है।
गांधीयात्रा 15 किलोमीटर
1. अहिंसा में कार्यसिद्ध करने की तीव्र शक्ति समाहित है।
2. रात-दिन मेहनत करने के बाद भी खामोश रहने वाले करोड़ों लोगों के विचार से स्वतंत्रता अर्थात रौंदे जाने वाले भार से मुक्ति।
3.चोरी के धन से अन्न खाना Êाहर के समान है।
4. स्वच्छता, सेवा, समानता और शोषणविहीन समाज न हो तो, स्वराज्य पूर्ण नहीं हो सकता।
5. शरीर को हानि पहुँचाने वाले पदार्थ तम्बाखू, शराब, नशीले द्रव्य आदि का उपयोग न करना ही बुद्धिमानी की निशानी है।
जीवन-मरण
मनुष्य को जीवन और मृत्यु को समान रूप से देखना चाहिए, हो सके तो मृत्यु को आगे रखें। यह कहना कठिन है, इसे अमल में लाना उससे भी ज्यादा कठिन है। सभी अच्छे कार्य मुश्किल होते हैं। चढ़ाई हमेशा तकलीफदेह होती है और ढलान आसान होने के साथ-साथ फिसलनभरी भी होती है। स्वाभिमान खोने से अच्छा है, हिम्मत के साथ मौत को गले लगाया जाए।

प्रवीण के लहेरी

गुरुवार, 11 मार्च 2010

अब पौधों से बनेगा मिंट्टी में खपने वाला प्लास्टिक


सैन फ्रांस्सिको। प्लास्टिक अब औद्योगिक कचरा नहीं रहेगा। हाल ही में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि धरती के पर्यावरण के अनुकूल पौधों से प्लास्टिक बनाने में उन्होंने कामयाबी हासिल कर ली है। यानी अब नए किस्म का प्लास्टिक मिट्टी में आसानी से गल जाएगा और पर्यावरण के लिए घातक कचरा नहीं बनेगा। साथ ही यह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की रोकथाम में भी कारगर होगा। आईबीएम के शोधकर्ताओं ने एक ऐसा तरीका इजाद किया है जिससे प्लास्टिक बनाने के लिए पेट्रोलियम पदार्थो की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नया प्लास्टिक जैविक रसायन से बना होगा और यह पर्यावरण को दूषित नहीं करेगा। स्वास्थ्य के लिए भी यह बेहद फायदेमंद साबित होगा।
आईबीएम के नॉर्थ कैलिफोर्निया स्थित अलमदेन रिसर्च सेंटर के विज्ञान और तकनीकी विभाग के मैनेजर चंद्रशेखर नारायण ने कहा कि यह नई खोज प्लास्टिक उद्योग जगत के लिए एक मील का पत्थर साबित होगी। ये प्लास्टिक बनेगा कैसे? इस सवाल पर चंद्रशेखर ने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया में जैविक चीजों का इस्तेमाल किया जाएगा। सड़ी-गली चीजों को नए प्राकृतिक तरीके से दोबारा बनाया जाएगा। जैविक कचरे को रीसाइकिल करके जैविक रूप से गल जाने वाले अणुओं में तब्दील किया जाएगा।
पौधों से प्लास्टिक बनाने के लिए आगे भी और नए आयाम छूने की गुंजाइश है। इस प्लास्टिक में पर्यावरण के साथ इसका और भी अधिक तालमेल बनाने की कोशिशें जारी हैं। अब खाने के डिब्बों और पैकेजिंग में इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक को और स्वास्थ्यवर्धक बनाया जाएगा।

बुधवार, 10 मार्च 2010

मुंबई की महाभारत: दुर्योधन, धृतराष्ट्र और गांधारी

नीरज नैयर
मुंबई में महाभारत का नया अध्याय शुरू हो गया है, इस बार दुर्योधन के रूप में बाल ठाकरे ने री-एंट्री मारी है। इससे पहले उनके भतीजे राज ठाकरे इस किरदार में नजर आ चुके हैं। बीच-बीच में उध्दव ठाकरे भी खुद को दुर्योध्न साबित करने की कोशिशें करते रहते हैं, ये बात अलग है कि उन्हें उतनी पब्लिसिटी नहीं मिल पाती। देखा जाए तो मुंबई एक तरह से ठाकरे परिवार की रणभूमि हो गई है, कभी चाचा-भतीजा मिलकर गैरमराठियों के साथ पांडवों जैसा बर्ताव करते हैं तो कभी आमने-सामने आकर अपनी शक्ति का अहसास कराते हैं। महाभारत में तो पांडवों के उध्दार के लिए श्रीकृष्ण मौजूद थे, मगर इस कलयुग में उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए कोई नहीं कृष्ण नहीं है। राय सरकार सबकुछ जानते हुए भी गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी है, और केंद्र सरकार ने धृतराष्ट्र का रूप अख्तियार कर लिया है। अब ऐसे में कौरवों की जीत होना स्वभाविक है, इसलिए वो हर बाजी जीतते जा रहे हैं। मुंबई की महाभारत में ताजा अध्याय शाहरुख खान के उस बयान को लेकर सुर्खियों में आया जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों के आईपीएल में न चुने जाने पर दुख जाहिर किया। वैसे ये बात सोचने वाली है कि अगर शाहरुख को इतना ही दुख था तो उन्होंने अपनी टीम के लिए पाक खिलाड़ियों को क्यों नहीं चुना, चुन लेते तो इतना सब होता ही नहीं। खैर जो नियति में लिखा है वो तो होना ही है, नियति में लिखा था कि वृध्दावस्था में पहुंच चुके बाल ठाकरे युवा दुर्योध्न का किरदार निभाएंगे सो निभा रहे हैं। सीनियर दुर्योधन को किसी शकुनी की जरूरत नहीं, वो अपने पासे खुद ही फेंकने में विश्वास रखते हैं। इसलिए उन्होंने शाहरुख के बयान के तुरंत बाद बिना कोई पल गंवाए भागवाधारी सैनिकों को उत्पात मचाने का आदेश दे डाला। हर बार की तरह सैनिकों ने कुछ कांच तोड़े, पोस्टर जलाए, नारेबाजी की और जता दिया कि कलयुग में सिर्फ कौरवों की चलती है। इस महाभारत में सबसे अनोखी और अच्छी घटना ये रही है कि गांधारी बनी राय सरकार ने पहली दफा दुर्योधन के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया, लेकिन अफसोस की बात ये रही कि उसका यह कदम अच्छाई-बुराई को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन कर उठाया गया। एक फिल्म के लिए सरकार जितनी मशक्कत करती नजर आई, अगर उसका एक फीसदी भी उत्तरभारतीयों को राज के कहर से बचाने के लिए किया जाता तो निश्चित तौर पर जूनियर ठाकरे कभी दुर्योधन जैसी हैसीयत हासिल नहीं कर पाता। जिस वक्त राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों, बिहारियों को चुन-चुनकर निशाना बना रहे थे, राय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। दरअसल भतीजे को ताकतवर बनाकर कांग्रेस और एनसीपी चाचा की राजनीतिक जमीन हथियाना चाहते थी और वो काफी हद तक उसमें कामयाब भी हुए। इस बार के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा, इस नुकसान के पीछे कांग्रेस-एनसीपी नहीं बल्कि राज ठाकरे की पार्टी मनसे रही। उसने शिवसेना के गढ़ माने जाने वाले इलाकों में सीट हासिल की। हालांकि राज को कोई यादा बड़ी सफलता नहीं मिल सकी, मगर उसने चाचा का खेल जरूर खराब कर दिया। कहा जा रहा है कि ठाकरे और शाहरुख के बीच के विवाद में राज के कूदने के पीछे भी कांग्रेस का हाथ है। ये सोच कर ताज्‍जुब होता है कि एक राय सरकार के लिए लोगों की जान से यादा फिल्म की रिलीज महत्वपूर्ण हो सकती है। यदि सीनियर ठाकरे की जगह जूनियर ठाकरे ही दुर्योध्न की भूमिका में होते तो न तो धृतराष्ट्र अपनी आदत बदलता और न गंधारी आंखों से पट्टी हटाती। केंद्र सरकार ने भी इस बार मुंबई की महाभारत में यादा रुचि दिखाई, राहुल गांधी सीनियर दुर्योधन की धमकी को हवा में उड़ाते हुए मुंबई में जमकर घूमें। उन्होंने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया और देशवासियों को बताने का प्रयास किया कि मुंबई सबकी है। दूसरे दिन मुल्क भर के मीडिया ने उन्हें अर्जुन की संज्ञा दे डाली, उनके ट्रेन के सफर को चक्रव्यूह तोड़ने जैसा करार दिया। मुंबई सबकी है राहुल इस बात को आसानी से कह सकते हैं, राहुल क्या एक आम आदमी भी इतनी सुरक्षा के बीच सीना चौड़ाकर दंभ से कह सकता है कि मुंबई उसकी जागीर है। क्या कांग्रेस का यह अर्जुन आम उत्तर भारतियों की तरह मुंबई जाकर इस तरह की बातें कर सकता है, शायद नहीं। शाहरुख खान को कांग्रेस का करीबी माना जाता है, और कांग्रेस इस कोशिश में भी लगी है कि बॉलिवुड के नायक को बॉक्स आफिस की जगह सियासत के अखाड़े में कैश करवाया जाए। इसलिए उनकी फिल्म को आम आदमी से यादा सुरक्षा मिलनी ही थी। राय के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण खुद इस मामले को बारीकि से देख रहे थे, फिल्म के प्रदर्शन में बाधा बनने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किए जाने की चेतावनी दी गई थी। अब ऐसे में फिल्म को धमाकेदार शुरूआत मिलना जायज है। टिकट खिड़की पर माई नेम इज खान की सफलता को मीडिया में ठाकरे की हार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, महाभारत में दुर्योधन की हार में धृतराष्ट्र की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन कलयुग में धृतराष्ट्र और गांधारी ने मिलकर दुर्योध्न को शिकस्त दी है। इसलिए ये खबर बनती है, मगर इस खबर के बनने के पीछे की कहानी को प्रमुखता देना भी मीडिया का कर्तव्य बनता है। हर कोई ठाकरे बनाम शाहरुख की जंग के उतार-चढ़ाव को दिखाता रहा, पढ़ाता रहा लेकिन किसी ने राय और केंद्र सरकार के हृदय परिवर्तन पर फोकस करने की जरूरत नहीं समझी। यह भी खबर बननी चाहिए थी कि जो सरकार बेकसूर लोगों को प्रताड़ित होते देख सकती है, वह फिल्म के पोस्टर फड़ते क्यों नहीं देख पाई। अगर सत्ता में बैठे लोग कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने को इतनी ही तवाो देते हैं तो उन्हें राज ठाकरे को भी रोकना चाहिए था, उसे भी नकेल पहनानी चाहिए थी। यह निहायत ही शर्मनाक है राजनीतिज्ञ भोले-भाले लोगों के शव पर बैठकर राजनीति कर रहे हैं। महाभारत के इस अध्याय ने न सिर्फ धृतराष्ट्र और गांधारी बने बैठी सरकारों की असलीयत उजागर की है, बल्कि मीडिया की पथभ्रमिता पर भी प्रकाश डाला है। यह हर मायने में अच्छी बात है कि सरकार ने ठाकरे के मंसूबों को चकनाचूर कर दिया, लेकिन यह और भी अच्छी होती अगर राज के संबंध में भी ऐसे ही कदम उठाए होते। महज राजनीतिक हित साधने के लिए राज ठाकरे को खुलेआम कुछ भी करने की आजादी देना कहां तक जायज है। यह सवाल सरकार से पूछे ही जाने चाहिए।

नीरज नैयर

सोमवार, 8 मार्च 2010

किस समाज में जी रहे हैं हम

डॉ. महेश परिमल
एक कथित साधू पत्नी की पुण्यतिथि पर अपने आश्रम में भंडारे का आयोजन करता है, 20 हजार लोगों को भोजन कराता है। बाद में कपड़े और बरतन बाँटता है, जिसमें भगदड़ होती है, जिससे 64 लोगों की मौत हो जाती है। वह इसे अपनी नहीं, बल्कि भगवान की गलती करार देता है। दूसरे दिन वह फिर कहीं दूसरे स्थान पर लोगों को रुपए बाँटता है। इतनी मौतों का उसे कोई ग़म नहीं, वह शान से अपना काम करता है, भड़काऊ बयान देता है। हम खामोश होकर सब देखते हैं। एक और साधू इसी देश में सेक्स रेकैट चलाता है। उसके पास कद्दावर लोग आते हैं। वह उनकी सेक्स की भूख मिटाने का प्रबंध करता है। दिन में वह साधू का चोला पहनता है, रात में एक अय्याश व्यक्ति बन जाता है। उसकी पहुँच काफी ऊपर तक होती है। वह अपने आपको कृष्ण का अवतार मानता है और उसके यहाँ काम करने वाली युवतियों को वह अपनी गोपियाँ बताता है। एक प्रगतिशील राज्य का मुख्यमंत्री की हाजिरी भी उसके पास होती है। हम इसे भी देखते समझते हैं।
आखिर ये साधु-महात्मा देखते-देखते इतनी बड़ी संपत्ति के मालिक कैसे बन जाते हैं? इनके आश्रम कथित रूप से अय्याशी का अड्डा कैसे बन जाते हैं। आश्रम भी अतिक्रमण की भूमि पर बन जाता है। प्रशासन सोता रहता है। हर कथित साधू या महात्माओं के अपने राजनीतिक चेले होते हैं। इन्हें वे अपनी ऊँगलियों पर नचाते हैं। कई बार तो मंत्रिमंडल में अपनों को पद दिलाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। चंद्रास्वामी को कौन नहीं जानता, जो सीधे प्रधानमंत्री से मिल सकते थे। उनकी जाँच भी नहीं होती थी। अपने आश्रम चलाने के अलावा सरकार चलाने में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उन्हें पूरी तरह से राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। उन पर ऊँगली नहीं उठाई जा सकती थी। आखिर राजनीति में इनका दखल क्यों होता है? शायद ही कोई मंत्री, विधायक, सांसद ऐसा हो, जिनका अपना कोई ऐसा गुरु न हो, जो उन्हें राजनीतिक सलाह न देता हो। इनकी आड़ में ये गुरु कई ऐसे काम करते जाते हैं, जो समाज विरोधी होते हैं। हम ऐसे लोगों की लीलाएँ देखने सुनने के लिए विवश हैं।
समाज का एक ऐसा व्यक्ति जो नशीली दवाएँ लेता है। एक स्वर्गीय राजनेता का पुत्र है। जो तलाकशुदा है। फिर से शादी रचने को एक प्रायोजित कार्यक्रम बनाकर टीवी पर आता है। कई युवतियों को देखता पहचानता है। युवतियाँ भी उस पर फिदा होती हैं। उसके नाम पर तीन युवतियाँ अपने हाथों पर मेंहदी रचाती हैं। उसमें से वह एक से कथित तौर पर शादी करता है। बाकी दो युवतियाँ उसे अपना भाई मान लेती हैं। किसी युवती के हाथों पर एक ही बार मेंहदी रचती है। बार-बार तो रचती नहीं है। लेकिन हम ऐसा होता देख रहे हैं, इसे देखने में अपनी शान समझते हैं। शादी के नाम पर एक और अभिनेत्री तमाशे करती है। हम उसका यह तमाशा मजे लेकर देखते हैं। मीडिया ने जो परोसा,उसे सहजता के साथ ग्रहण भी करते हैं। हम क्या चाहते हैं, इसे जानने-समझने की फुरसत न तो मीडिया के पास है और न ही हमारे पास यह बताने का समय है कि हम क्या चाहते हैं? हमारे बच्चे अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए इनकी कठपुतली बनते हैं। इनके शोषण का शिकार होते हैं। लेकिन हमें Êारा भी शर्म नहीं आती।
यही नहीं हमारे मनोरंजन के संसाधनों पर आजकल सांस्कृतिक हमला हो रहा है। हम मजे लेकर उसे देख रहे हैं, साथ ही अपनी सक्रियता का परिचय भी दे रहे हैं। लम्बे समय तक देश की महिलाओं और पुरुषों को सास-बहू के प्रपंचों ने लुभाया। जहाँ एक ऐसे समाज को दिखाया गया, जिसमें 25 वर्ष की बहू करोड़ों रुपए की बात करती है, प्रपंच रचती है, इसमें उसका साथ देते हैं, समाज के कथित ठेकेदार। इनके द्वारा एक ऐसे समाज का निर्माण हुआ, जिसमें केवल घात और प्रतिघात है। करुणा-संवेदनाओं से इनका कोई नाता नहीं है। यह सिलसिला अब बंद हो गया है, पर समाज में कुछ स्थापित बुराइयों को छोड़ गया है। अब दूसरी तरफ हम फिर इस मुगालते में हैं कि धारावाहिकों को चलाने में एसएमएस भेजकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। एक आलीशान मकान में कुछ महिलाएँ, कुछ युवतियाँ, एक हिजड़ा, एक पहलवान का बेटा, एक विदूषक, एक संगीतकार आदि रहते हैं, हँसी-ठिठोली करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं और अपने इसी व्यवहार के कारण वहाँ से निकल जाते हैं। पूरा देश उन्हें देख रहा है, पर वे अपने आपको नहीं देख रहे हैं। हमारा समय निकल जाता है। वे कैसा व्यवहार कर रहे हैं, यह बताने के लिए हम एसएमएस करते हैं। विज्ञापन एजेंसियाँ खूब कमाती हैं। हम ठगे जाते हैं। फिर भी हमें कोई चिंता नहीं। हम इनकी मानसिक गुलामी सहन करते हैं।
देश की आर्थिक राजधानी पर सशस्त्र हमला होता है। राजधानी 72 घंटे तक आतंकवादियों की गिरफ्त में होती है। कई आतंकवादी मारे जाते हैं। एक जिंदा पकड़ा जाता है। डेढ़ वर्ष तक हम मारे हुए आतंकवादियों की लाश को सँभालकर रखते हैं, उस पर करोड़ो रुपए खर्च करते हैं। जीवित आतंकी पर मुकदमा करते हैं, उसकी सुरक्षा पर भी करोड़ों रुपए खर्च होते हैं, वह बार-बार अपने बयान बदलता है। उसने जो किया, उसका फैसला नहीं हो पाता। हम मजे से उनकी खबर पढ़ते हैं। हमारा खून नहीं खौलता। एक कमरे में कैद एक वृद्ध आदमी कथित तौर पर दादागिरी करता है। उसे मुगालता है कि वह देश की आर्थिक राजधानी को चलाता है। देश के सम्मानीय हस्तियों को लेकर उल्टे-सीधे बयानबाजी करता है। हमारे देश के कृषि मंत्री उसके तलुए चाटते हैं। फिर भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
कहीं ऐसा नहीं लगता है कि हम जिस समाज में जी रहे हैं, वह एक वायवीय समाज है? जहाँ संवेदना का कोई स्थान नहीं। करुणा जहाँ शरमाती है। अपनों के प्रति प्यार नहीं है। साजिश, दगाबाजी, छल-प्रपंच, रिश्वत आदि समाज के स्थायी भाव बनकर रह गए हैं। ऐसे में कोई अच्छा काम होता है, तो समाज उसे नकार देता है। मीडिया में उसे जगह नहीं मिलती। समाज को एक बेहतर संदेश देने वाले कार्यक्रम न जाने कहाँ खो गए। ऐसे व्यक्ति भी आज समाज के लिए बोझ बने हुए हैं। अच्छी बातें सामने नहीं आ रही हैं, एक साजिश के तहत हम सब ठगे जा रहे हैं। फिर भी यह मुगालता कि हम देश के सभ्य नागरिक हैं।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

विश्व खेल रत्न हैं मास्टर ब्लास्टर



प्रशांत रायचौधरी
भले ही सचिन तेंडुलकर को अभी भी भारत रत्न अवार्ड नहीं मिला हो लेकिन खेलप्रेमियों की निगाह में वे विश्व खेल रत्न तो बन ही गए हैं। उन्हें वही सम्मान प्राप्त है जो रोजर फेडरर (टेनिस), यूसेन बोल्ट (धावक), माइकल शूमाकर (फॉमरूला-1 कार रेसर), क्रिश्टियानो रोनाल्डो (फुटबॉल) व माइकल फेल्प्स (तैराकी) को प्राप्त है। ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह स्टेडियम में 24 फरवरी को शाम के छह बजकर 14 मिनट में मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंडुलकर ने वनडे क्रिकेट का विश्व का पहला दोहरा शतक बनाने के बाद आसमान की ओर देख कर भगवान व अपने स्वर्गीय पिता को तो याद किया ही लेकिन शायद उनके जेहन में कहीं न कहीं सईद अनवर भी रहे होंगे। अनवर ने सचिन के नेतृत्व में खेल रही भारतीय टीम के खिलाफ 13 साल पहले 194 रन बना कर विश्व कीर्तिमान रचा था। तब से उनके मन में एक बोझ था कि उनके नेतृत्व में विश्व कीर्तिमान बन गया और उनकी रणनीति फेल हो गई। अब उन्हें इस बात से भी बेहद खुशी मिली होगी कि अनवर ने सचिन द्वारा उनके रिकॉर्ड तोड़े जाने पर कहा कि मेरी भी इच्छा थी कि कभी यदि रिकॉर्ड टूटे तो सचिन ही तोड़े। दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ग्वालियर वनडे मैच में उन्होंने कवर ड्राइव,करारे हुक्स, पुल शॉट, लेट कट्स व कलाई के सहारे आकर्षक फ्लिक्स का जो शानदार प्रदर्शन किया उसे भूलाना मुश्किल है। उन्होंने पहले 100 रन 90 गेंदों में और बाद के 100 रन सिर्फ 47 गेंदों में पूरे किए। सचिन की इस बेमिसाल पारी के बाद उन्हें डॉन ब्रेडमैन, ब्रायन लारा व रिकी पोंटिंग से श्रेष्ठ होने की उपमा दी जा रही है जबकि सचिन ने मासूमियत से कहा कि रिकॉर्ड बनते ही टूटने के लिए है। मैं चाहता हूं कि मेरा रिकॉर्ड कोई भारतीय ही तोड़े। सचिन के इस कथन से साबित होता है कि उनमें कोई अहंकार नहीं है और वे जमीन से जुड़े हुए हैं। महान लिटिल मास्टर सुनील गावसकर ने तो यहां तक कह दिया कि अब सचिन को टेस्ट में 450 रन व वनडे में 250 रन बनाने के बारे में सोचना चाहिए। गावसकर ने एक बात बिल्कुल सही कही है कि सचिन अभी भी क्रिकेट के बच्चे से लगते हैं जिसमें रनों की जबर्दस्त भूख है। सचिन रन के लिए ऐसे मचलते हैं कि लगता है कि वे अंत तक नाबाद रहेगे। ग्वालियर वनडे में वे ओपन करने आए और अंत तक नाबाद रहे।
फील्डिंग भी की : सचिन ने दोहरा शतक बनाने के बाद जब फील्डिंग का मौका आया तो बिना थके अंत तक फील्डिंग करते रहे। उन्होंने इससे पहले जयपुर वनडे में भी आखिरी गेंद पर चौका बचाया था जिससे भारत एक रन से रोमांचक जीत दर्ज कर सका था। दूसरी ओर सईद अनवर ने जब 194 रन की पारी खेली थी तब उन्होंने शाहिद आफरीदी का रनर के रूप में उपयोग किया था। सचिन भले ही फिट हों लेकिन उन्होंने कहा है कि वे अब फिटनेस पर और ज्यादा ध्यान देंगे।इसका मतलब है कि उनके बल्ले से कीर्तिमानों की बारिश जारी रहेगी।
अब शतकों के शतक की चर्चा: सचिन के नए कीर्तिमान के बाद अब चर्चा होने लगी है कि क्या वे इसी साल शतकों का शतक पूरा करने में कामयाब होंगे। फिलहाल उन्होंने टेस्ट में 47 व वनडे में 46 शतक लगाए हैं। वे मंजिल से 7 शतक दूर हैं। सचिन ने इस साल अभी तक चार शतक व एक दोहरा शतक लगाए हैं जबकि अभी इस साल का दूसरा माह भी खत्म नहीं हुआ है।
अनवर से है बेहतर पारी : अनवर व सचिन ने 1989 से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में प्रवेश किया। सईद अनवर ने अपने कैरियर के आठवें साल में 194 रन का कीर्तिमान रचा था जबकि सचिन को इस कीर्तिमान के लिए बीस साल तक इंतजार करना पड़ा। अनवर ने 29 साल की उम्र में व सचिन ने लगभग 37 साल की उम्र में व्यक्तिगत वनडे रन का विश्व कीर्तिमान रचा। अनवर ने जब भारत के खिलाफ 194 रन की पारी खेली थी तब लगा था कि इससे बेहतर पारी हो ही नहीं सकती लेकिन सचिन ने ग्वालियर में जिस अंदाज में बल्लेबाजी की वह अनवर से बेहतर इस मायने में भी थी कि उन्होंने ढलती उम्र में करिश्मा किया। ऐसा लग रहा था कि गेंद पतंग की तरह उड़ रही हो।
अब आगे क्या : जहां तक सचिन का सवाल है तो अब उनका सपना शतकों के शतक के अलावा भारत को विश्व कप विजेता बनाने की है। जाहिर सी बात है कि सचिन इसके लिए अपने प्रदर्शन में और निखार लाएंगे और इसका लाभ टीम इंडिया को मिलेगा। सचिन से प्रेरित होकर टीम के अन्य साथी भी नए-नए कीर्तिमान रचने की कोशिश करेंगे और शायद तभी सचिन का कहा सही साबित होगा कि किसी भारतीय ने ही उनका रिकॉर्ड तोड़ा है।

प्रशांत रायचौधरी

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