मंगलवार, 16 मार्च 2010
दम है तो क्रास कर, वर्ना बर्दाश्त कर
भारती परिमल
अपने शहर की दौड़ती-भागती सड़क पर जहाँ जिंदगी का हर क्षण दौड़ता भागता रहता है, उन्हीं क्षणों में एक ट्रक के पीछे मैंने एक स्लोगन देखा- दम है तो क्रास कर, वर्ना बर्दाश्त कर। स्लोगन पढ़कर मन जैसे इस पर विचार करने को विवश हो गया। स्लोगन का सीधा-सादा अर्थ यही था कि ट्रक वाला अपने पीछे आने वालों से सीधे स्पष्ट शब्दों में यही कह रहा था कि यदि तुममें ताकत है, तो मुझे ओवरटेक कर लो, नहीं तो चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चलते रहो। खाली-पीली हार्न बजाकर मेरी और खुद की शांति भंग मत करो। तुम भी दु:खी मत हो और मुझे भी चैन से चलने दो। यानी तुम अपने में खुश रहो और मुझे भी अपनी दुनिया में खुश रहने दो।
ईमानदारी से यदि इस स्लोगन की सच्चई को समझा जाए तो ट्रक के पीछे लिखा गया यह सूत्र वाक्य हम सभी का जीवन सूत्र है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसे लागू किया जा सकता है। यदि हममें हिम्मत है, तो ल़ड लेना चाहिए और यदि नहीं है तो जो स्थिति हो, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। दोनों में से कुछ भी किए बगैर बेवजह बक-बक, अंट-शंट करते रहने का क्या मतलब ? इसके बाद भी पूरी दुनिया ऐसे ही शोर से गूँज रही है। पडा़ेसी के पास एलसीडी टीवी है, तो इसका शोर दूसरे घर में चल रहा है कि हमें भी अपने घर में एलसीडी टीवी ही चाहिए। ऐसी स्थिति में ऊपर लिखा सूत्र वाक्य कार्य करता है। यदि दम है तो एलसीडी टीवी ले आइए, नहीं तो प़डोसी की समृद्धि को बर्दाश्त करिए। सभी को जीवन में सफल होना है, पर सभी आदमी सभी तरह से सफल नहीं हो सकते। इसीलिए दम है तो सफल होकर दिखाओ, नहीं तो वर्तमान परिस्थितियों से समझौता कर लो।
यही बात ऑफिस में भी लागू होती है। क्या आपको ऑफिस नर्क लगता है ? तो इसे स्वर्ग में बदलने के लिए प्रयास करो। क्या कहा ? स्वर्ग में बदल पाना संभव नहीं है ? तो नौकरी बदल लो। नौकरी बदलना भी संभव नहीं है ? तो फिर चुपचाप बैठ जाओ और जो स्थिति है, उसे स्वीकार कर लो और खुश होकर जीना सीख लो। रोज-रोज अपने तनाव की बातें कर स्वयं को और घरवालों को परेशान मत करो। क्योंकि घरवाले भी रोज का आपका तनाव सुनकर कुछ समय बाद एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे। वे ऐसा करें इसके पहले आप स्वयं ही ऐसा करना सीख जाएँ। यही जीवन की सच्चई है, इसे स्वीकार कर लें।
वे सारी समस्याएँ जो आपको परेशान तो करती हैं, पर जिनका समाधान आपके पास नहीं हैं, उन्हें समस्या मानने से ही इंकार कर दें। यही जीवन जीने का मूल मंत्र है। ऑफिस के तनावपूर्ण माहौल की बात करना, रोज की बात है़़ असंतुष्ट कारचालक बिना वजह हार्न पर हार्न बजाता है़़ रोज की बात है़़। बाजार से निकलते हुए लोगों का बीच रास्ते पर ख़डा हो जाना़़ रोज की बात है। राह चलते लोगों का बिना वजह जोर-जोर से बोलना़़रोज की बात है। इन सभी लोगों का उद्देश्य केवल यही होता है कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करें और कुछ पल के लिए स्वयं को महत्वपूर्ण साबित करें। लेकिन उनका यह निर्रथक उद्देश्य हमारे जीवन में विषमताएँ पैदा करें तो हमें इसकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए।
लियो टॉल्सटाय ने अपने उपन्यास ‘एन्ना कॉरेनीना‘ में पहले प्रकरण में पहला वाक्य यह लिखा है - ‘‘विश्व के तमाम सुखी परिवार एक समान कारणों से सुखी होते हैं, परंतु तमाम दु:खी परिवारों के दु:ख के कारण अलग-अलग होते हैं।‘‘ अर्थ यह है कि हमारे दु:ख के अनेक कारण हो सकते हैं, पर उन सभी दु:खों को दूर करने का एक ही उपाय है - ऊपर लिखा गया सूत्र वाक्य। अक्सर लोग इसी बात से दु:खी होते हैं कि उन्हें वह नहीं मिलता, जो सामने वाले को मिलता है। लोग अपने दु:ख से उतने दु:खी नहीं होते, जितने कि वे सामनेवाले के सुख से दु:खी होते हैं। ऐसे लोगों को इस सूत्र वाक्य को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहिए और दु:ख के क्षणों में स्वयं को टटोलते हुए प्रश्न पूछना चाहिए कि दोस्त, ताकत हो, तो उठ ख़डा हो, जो पाने की इच्छा हे उसे पा ले, आगे ब़ढता जा, हर ल़डाई जीत ले और यदि यह संभव नहीं है, तो हार स्वीकार कर, शांति रख, धीरज के साथ जीवन जी और खुश रह।
एक सामान्य वाक्य भी हमारी जिंदगी बदल सकता है। हमारे भीतर उत्साह और उमंग भर सकता है। हमें सुख और संतोष के साथ जीवन जीना सीखा सकता है। बशर्ते कि आप उस वाक्य की सच्चई को अपने जीवन में उतार लें। सो जब कभी इसी तरह का कोई सूत्र वाक्य देखें, तो उसके अर्थ को समझने का प्रयास करें और उसकी सच्चई को स्वीकार करें। तब तक इसी वाक्य को जीवन का मूल मंत्र बनाएँ - दम है तो Rॉस कर, वर्ना तो बर्दाश्त कर। वा! एक सामान्य सूत्र वाक्य जीवन की सच्चई के कितने करीब है !!
भारती परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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यानि कहने का मतलब यह, की अकेला आदमी देश दुनिया राजनीती समाज की सड़ांध से परेशान है. या तो वह बदलाव के लिए लड़ जाए, या फिर राजनीती में आकर बदलाव लाए, या अफसर बने या देश का विविआईपी बन जाए. और गर इन सबमे कुछ न कर सके तो चुपचाप बैठ जाए... जो नहीं बदल सकते उसपर सोचकर क्यों वक्त बर्बाद करना? सही है. शिक्षा व्यवस्था से असंतुष्ट हो तो सर्कार से लड़ जाओ, या कैसे भी मन मारकर झेलो और पुराना सिलेबस पढो. यह सब नहीं कर सकते तो चुपचाप पढाई छोड़ने से किसने रोका है? पर शिकायत मत करो, न किसी के सामने अपना दुखड़ा रोओ.
जवाब देंहटाएंलोग अगर शिकायत करना और समस्याओं पर बात करना भी छोड़ दें, मज़बूरी को नियति मान लें तो आ चुका बदलाव. यही पलायनवादी सोच है जो भारत को सब कुछ होते हुए भी पिछड़ा रखे हुए है. इस हद तक पलायनवाद ठीक नहीं.
आपस में बात करने से ही रह निकलती है बात बनती है.