गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

ओटीटी प्लेटफार्म पर अंकुश की तैयारी

न दिनों कई फिल्में और वेब सीरीज ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हो रही हैं। इससे सभी की कमाई हो रही है। पर हमारे समाज में अब तक जिसे गुप्त या गोपनीय माना जाता रहा है, उसे ही इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खुलकर दिखाया जा रहा है। ओटीटी प्लेटफार्म में रिलीज होने वाली फिल्में और वेब सीरीज में सेंसर की कैंची नहीं चल पाती, इसलिए अपशब्दों का खुलकर प्रयोग हो रहा है। दूसरी ओर हिंसा और अंतरंग संबंध को भी इस तरह से दिखाया जा रहा है कि हम उसे परिवार के साथ नहीं देख सकते। फिर भी देखने का जोखिम उठा रहे हैं। इन सब बातों को लेकर सरकार अब सचेत होने लगी है। उसने ओटीटी प्लेटफार्म की फिल्मों एवं वेब सीरीज पर कड़ी नजर रखते हुए उस पर अंकुश लगाने की तैयारी कर रही है। फलस्वरूप इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने डिजिटल पब्लिशर्स कंटेंट ग्रिवन्सिस काउंसिल बनाने की घोषणा की है।

सरकार के नए आईटी एक्ट का पालन करने के संबंध में सोशल मीडिया कंपनियों ने सहमति दर्शाई है। दूसरी ओर इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने ओवर द टॉप यानी ओटीटी प्लेटफार्म पर लगाम कसने के लिए डिजिटल पब्लिशर्स कंटेंट ग्रिवन्सिस काउंसिल की घोषणा की है। इस कदम के बाद फेसबुक, वाट्स एप, गूगल जैसी सोशल मीडिया कंपनियों के अलावा नेटफ्लिक्स, अमेजन, हॉटस्टार, प्राइम जैसे अनेक डिजिटल प्लेटफार्म पर सेंसरशिप लागू हो जाएगी। कुछ समय पहले ही केंद्र सरकार ने सभी डिजिटल प्लेटफार्म को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन करने की घोषणा की थी। पिछले कुछ बरसों से ओटीटी प्लेटफार्म को लेकर काफी विवाद हुए हैं। इसलिए सरकार ने इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता समझी। वैसे भी भारत में इंटरनेट पर समाचार और करंट अफेयर्स, और मनोरंजन पर आधारित वेबसाइट्स और एप नए ही कहे जाएंगे। इन सेवाओं को शुरू हुए एक दशक भी नहीं हुए हैं। भारत की टॉकीजों में रिलीज होने वाली फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड, टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के लिए ट्राई और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय है। न्यूज चैनलों के लिए न्यूज ब्राडकॉस्टर एसोसिएशन, एडवर्टाइजिंग के लिए एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल और अखबारों के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया जैसी नियामक संस्थाएं हैं। परंतु अभी तक इंटरनेट पर आधारित इन दोनों क्षेत्रों पर किसी का सीधा नियंत्रण नहीं था। इसका पूरा फायदा अब तक उठाया जाता रहा है। इस दौरान बहुत से वेबसीरीज ऐसी आई, जिसमें राजनीतिक टिप्पणियां खुलकर की जाती रही हैं। अपशब्दों के साथ अंतरंगता के दृश्य भी खुलकर दिखाए जाते रहे। आईटी मंत्रालय इंटरनेट से संबंधित मामले का ध्यान रखती है। पर इसके पास वेबसाइट पर दिखाई जाने वाली सामग्री के मापदंड तय करने का अधिकार नहीं था। अब यदि सूचना-प्रसारण मंत्रालय इंटरनेट पर मनोरंजन परोसने वाले प्लेटफार्म तथा एप के लिए मापदंड तय करने की शुरुआत करता है, तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे, यह तय है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक न्यूज चैनल के विवादास्पद कार्यक्रम के संबंध में सुनवाई चल रही थी, तब देश में मीडिया रेग्युलेशन को लेकर चर्चा होने लगी। कोर्ट में चर्चा के दौरान केंद्र सरकार ने कहा था कि टीवी और प्रिंट मीडिया से पहले डिजिटल मीडिया पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इस पर कोर्ट का कहना था कि डिजिटल मीडिया माध्यम पर प्रसारित होने वाली सामग्री का मूल्यांकन उपभोक्ता स्वयं ही कर देता है। इसलिए लोगों को भी यह आजादी होनी चाहिए कि वे क्या पढ़ना चाहते हैं या क्या देखना चाहते हैं।

वास्तव में समाज को प्रभावित करने वाले किसी भी मीडिया पर अंकुश तो होना ही चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म पर क्या परोसा जा रहा है, इसे भी ध्यान में रखना आवश्यक है। आज तो ओटीटी प्लेटफार्म, न्यूज पोर्टल्स और समाज के बीच उत्पादक और ग्राहक का संबंध हो गया है। आजकल हेडलाइंस ही इतनी आकर्षक बनाई जा रही है कि लोग क्लिक करने से बाज नहीं आते। बाद में सामग्री पढ़ने के बाद पता चलता है कि हेडलाइंन और कंटेंट के बीच कोई जुड़ाव है ही नहीं। उधर न्यूज चैनल भी टीआरपी के चक्कर में रसातल में जा रहे हैं। डिजिटल प्लेटफार्म भी विकृत सामग्री परोसने लगे हैं। अधिक से अधिक क्लिक प्राप्त करने के चक्कर में अधकचरी सामग्री परोसी जा रही है। किसी सेलिब्रिटी या नेता का कद बढ़ाने या घटाने के लिए, किसी की छवि चमकदार या धूमिल करने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया जा रहा है। इस समय खबरों का प्रामाणिक होना एक समस्या है। पहले जब सूचना के स्रोत काफी कम थे, लोग अखबार या टीवी से ही खबरें प्राप्त करते थे। आज हर हाथ में स्मार्ट फोन आ गया है, इसलिए फालतू की खबरें भी तेजी से भागने लगी हैं। लोग इसकी सत्यता की जांच के बिना ही फारवर्ड करने लगे हैं। कुछ ही समय में ही एक बुरी खबर सच की तरह सामने आ जाती है। जिसका कोई आधार ही नहीं होता। आज झूठी, मनगढ़ंत, भ्रम पैदा करने वाली, बेबुनियाद अफवाहें, चरित्रहनन और द्वैर द्वेष फैलाने वाली सूचनाओं का बोलबाला है। इसका सशक्त माध्यम यही डिजिटल प्लेटफार्म है। आधुनिक टेक्नालॉजी, सस्ते डेटा पैकेज और स्मार्ट फोन ने पूरी दुनिया को मुट्‌ठी में कैद कर लिया है। इस कारण यह आज एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा है। इसीलिए इस पर अंकुश की बात उठने लगी है।

इंटरनेट एक ऐसा प्लेटफार्म है, जिस पर नियंत्रण की बात करना सरल है, परंतु उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल है। इंटरनेट को किसी भी देश की सीमा रोक नहीं सकती, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन इसके रास्ते में अवरोध होता है। इस पर नियंत्रण एक बहुत बड़ी चुनौती है। सत्य बाहर आए, ऐसा लोग चाहते हैं। परंतु किसी भी मामले को तोड़-मरोड़कर प्रसारित करने से पूरा मामला ही उलझ जाता है। लोगों की विचारधारा को बदलने का प्रयास किया जाता है। इस कारण बुरे विचार हावी होने लगते हैं। अनेक मामलों में आभासी वास्तविकताओं को दर्शाया जाता है। इससे लोग सच्चाई से दूर होने लगते हैं। आधे सच को पूरे सच की तरह पेश किया जाता है। यह भयावह स्थिति है, जो समाज के लिए खतरनाक साबित होगी। इंटरनेट पर परोसे जाने वाली सामग्री अब तक किसी भी नियामक संस्था की नजर से दूर है। इसलिए वह आजाद है। ऐसे प्लेटफार्म पर ऐसी-ऐसी बातें सामने लाई जा रहीं हैं, जिससे कई बार सरकार भी सांसत में आ गई है। इसलिए कई लोगों का मानना है कि सरकार इंटरनेट पर अंकुश लगाए।

हकीकत यह भी है कि सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों पर अनावश्यक रूप से कैंची चलाने की प्रवृत्ति से तंग आकर अनेक फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने ओटीटी प्लेटफार्म पर अपनी फिल्में और धारावाहिक प्रसारित करना मुनासिब समझा। समाचार चैनलों पर पर्याप्त आजादी न मिलने के कारण कई पत्रकारों ने स्वतंत्र रूप से इंटरनेट माध्यमों पर अपने विचारों को व्यक्त करना शुरू कर दिया है। अब समस्या यह है कि सरकार ने इंटरनेट की सामग्री पर नजर रखना शुरू कर दिया, तो विविध कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटने की आशंका भी पैदा जा जाएगी। अनैतिकता पर अंकुश लगाने का काम ईमानदारी से हो, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है। पर यदि गलत मंशा के साथ इस पर अंकुश लगाया जाता है, तो इससे समाज में गलत संदेश जाएगा। इसे देखते हुए कुछ लोगों का मानना है कि इस पर अंकुश लगाने के बजाए इसे लोगों पर ही छोड़ दिया जाए। इंटरनेट को किसी भी देश की सीमा बांध नहीं सकती, इसलिए सरकार के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। अब देखना है कि सरकार इस दिशा में कौन-से कदम उठाती है?

डॉ. महेश परिमल


बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

वानखेड़े को सामने लाकर आर्यन का मामला दबाने की साजिश

ड़ी अजीब हालत है, जिसने आरोप लगाया, उस पर कार्रवाई के बजाए जिस पर आरोप लगे हैं, उस पर कार्रवाई की जा रही है। आर्यन के मामले में जिस तरह से नार्कोटिक कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारी समीर वानखेड़े पर जो शख्स आरोप लगा रहा है, उसे देखकर यह कतई नहीं लगता है कि वह करोड़ों रु पए की डिलींग करने वाला है। यह सब समीर वानखेड़े को सामने लाकर आर्यन का मामला दबाने की एक साजिश है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वानखेड़े ने कई बार कहा है कि कोई उनका पीछा कर रहा है, उनके परिवार वालों को धमकियां मिल रही हैं। उनके इस बयान पर ध्यान नहीं दिया गया, अब उन्हें ही फंसाने की कोशिश की जा रही है। वानखेड़े पर कई तरह के आरोप लगा दिए जाए, इससे यह तो साबित नहीं होता है कि आर्यन ने ड्रग्स नहीं ली?

कोई यह समझता क्यों नहीं है कि आरोप लगाने का यह मामला इतनी जल्दी सोशल नेटवर्क पर कैसे आ गया? आर्यन को छोड़ देने के बदले में 25 करोड़ रुपए की मांग की गई। मामला 16 करोड़ में तय हो गया। इस मामले को महाराष्ट्र के नेताओं ने तुरंत ही अपने हाथों में ले लिया। वहां तीन पार्टियों की सरकार है। इसलिए उनमें ही आपस में स्पर्धा चल रही है कि कौन किस तरह से इस मामले को अपने हित में इस्तेमाल कर सकता है। अब वानखेड़े को चोर साबित करने की स्पर्धा शुरू हो गई है। समीर वानखेड़े बॉलीवुड को बदनाम कर रहे हैं, ऐसा आक्षेप जब महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मिलक ने लगाया, तभी यह साफ हो गया कि आर्यन के मामले को कमजोर साबित करने का षड्यंत्र जोर-शोर से शुरू हो गया है। इसके पहले सुशांत सिंह की संदिग्ध मौत के समय महाराष्ट्र के नेताओं के हाथों पुलिस एक तरह से कठपुतली बन गई थी।

3 अक्टूबर को आर्यन की गिरफ्तारी हुई, उसके बाद 24 अक्टूबर को उसने मुंह खोला ओर बताया कि मुझसे कोरे कागज पर हस्ताक्षर ले लिए गए हैं। देखा जाए, तो यह भी अपराध ही है। उधर समीर वानखेड़े ने स्वयं पर लगे सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि मैं सारे आरोपों का जवाब देने को तैयार हूं, पर पहले मेरे परिवार की सुरक्षा की जाए। आर्यन के मामले में जो गवाह हैं, वे लगातार गायब होते जा रहे हैं। इनमें से एक गवाह के.पी.गोस्वामी भी गुमशुदा है। उसी के मोबाइल से आर्यन खान के जेल में होने के वीडियो में यह बताया गया है कि आर्यन किसी के साथ बात कर रहा है। 

आर्यन के मामले को लेकर इन दिनों महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल आया हुआ है। इसके पहले जब तीन साधुओं का गला रेत दिया गया था, तब भी काफी विवाद हुआ था। गृहमंत्री देशमुख ने पुलिस महानिदेशक से डांस बार वालों से 100 करोड़ रुपए वसूल कर उन्हें देने का बयान सामने आया था। इससे गृहमंत्री की काफी फजीहत हुई थी। उन्हें अपने पद से इस्तीफा भी देना पड़ा था। पुलिस महानिदेशक को भी सस्पेंड कर दिया गया था। आर्यन मामले में भी यह तय है कि महाराष्ट्र के नेता वानखेड़े को जेल भेज देंगे। अब तक की स्थिति से यही कहा जा सकता है कि वानखेड़े की टीम इन आरोपों ने भयभीत नहीं है। आर्यन के मामले में कोई तो ऐसा है, जो पूरे मामले को अपने हाथों में लेकर उसे अपने तरीके से संचालित कर रहा है। यह हाथ बहुत ही अनुभवी है। मामले को डायवर्ट करने की पूरी तैयारी है। एक गवाह वानखेड़े पर रिश्वत का आरोप लगा रहा है, तो दूसरा भाग गया है। अंदर की बात यह है कि बॉलीवुड को उत्तर प्रदेश खींच ले जाने की चाल के सामने महाराष्ट्र सरकार के नेता और विशेषकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी तैयार नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने कई बार बॉलीवुड को उत्तर प्रदेश आमंत्रित किया है। जब आर्यन पकड़ा गया, तब कई चेहरे शाहरुख खान को समर्थन देने लगे। तभी समीर वानखेड़े को टारगेट बनाया गया और 25 करोड़ में आर्यन को छोड़ देने की बात सामने आई। 

हमारे देश में चाहे वह सेलिब्रिटी हो या राजनेता, यदि किसी पर अपना वरदहस्त रखते हैं, तो यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि जिस पर वरदहस्त है, वह कानून से ऊपर है। समीर वानखेड़े पर लगे आरोपों की जांच होनी चाहिए। यह आवश्यक है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आर्यन खान ने ड्रग्स नहीं लिया। सबसे पहले तो आरोप लगाने वाले की स्थिति देखनी चाहिए। क्या वह इसके काबिल है। उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिए, उसके बाद ही उसने जिस पर आरोप लगाया है, उसकी स्थिति देखनी चाहिए। आरोप लगाने के पहले कुछ सबूत भी तो होने चाहिए, केवल आरोप लगाने से कुछ नहीं होता, सबूत सामने हों, तो आरोप की गंभीरता समझ में आती है। पर इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है। लगता है, यहां वह उक्ति काम कर गई है कि पैसा बोलता है...।

डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

जिंदगी पर बाजार का कब्जा

कहा जाता है कि जब जिंदगी दांव पर लग जाए, तो वह एक निर्णायक मोड़ साबित होता है। अब तक इंसान बाजार पर हॉवी रहा, यह शायद पहली बार हो रहा है कि जिंदगी पर बाजार का कब्जा हो रहा है। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। वैसे भी जिंदगी टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित हो रही थी, पर अब बाजार ने इस पर कब्जा जमाकर इंसान को उसकी जिंदगी से पूरी तरह से अलग कर दिया है। इस जिंदगी से हंसी-खुशी के पल गायब हो रहे हैं। सुबह से लेकर शाम तक की दिनचर्या में इंसान के अपने पल बहुत ही कम होते हैं। अब सारे लम्हें उन हाथों में पहुंच गए हैं, जिनकी नजर में पैसा ही सब कुछ है।

जीवन मूल्य अब तेजी से बदल रहे हैं। अपराध करने के बाद भी अपराधी को अपने किए पर ज़रा भी पछतावा नहीं होता। किसी की हानि पहुंचाकर लोग अब खुश होते हैं। रास्ते चलते किसी को भी परेशान करना अब आम हो गया है। कानून के रखवालों के सामने कई लोग कानून की धज्जियां उड़ाते हुए दिख जाएंगे, पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार वे ही इस काम में लिप्त दिखाई देते हैं। महिलाएं यदि सक्षम है, तभी वह सुरक्षित है। अन्यथा उसे नोंचने के लिए समाज का एक वर्ग तैयार बैठा है। इसे देखकर बुजुर्ग अपने पुराने दिनों की जुगाली करते दिखाई देते हैं। उनका मानना है कि देखते ही देखते काफी कुछ बदल गया है। पहले हम बाजार जाते थे, अब बाजार ही हमारे घर पर आ गया है। खाने की जो भी चीज़ चाहिए, वह आधे घंटे के भीतर आपके सामने होगी। घर में क्या सामान आएगा, यह बुजुर्ग नहीं, बच्चे तय करने लगे हैं। हां, उस सामान की राशि बुजुर्ग ही देंगे। सामान उनकी मर्जी का तो नहीं आएगा। वे क्या चाहते हैं, इसकी किसी को नहीं पड़ी है। उनकी पसंद-नापसंद का कोई मतलब ही नहीं है।

जीवन मूल्य ही नहीं, अब नैतिक मूल्यों का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। देखते ही देखते चीजें बदलने लगी हैं। हालात बदलने लगे हैं। हम कुछ नया सोचें, इसके पहले ही कुछ ऐसा नया आ जाता है कि हम पिछला सब कुछ भूल जाते हैं। कई बार इस दौड़ में हम पीछे रह जाते हैं। हम थक जाते हैं, इसी अंधी दौड़ में। शहरों में हम आ तो गए हैं, पर गांवों में आज भी हमारा बचपन कहीं दुबका पड़ा है। चाहकर भी हम उस बचपन को अपना नाम नहीं दे सकते। कभी पूरा गांव हमारा था, आज शहर का एक कोना जिसे हम घर कहते हैं, वह भी हमारा नहीं है। आखिर हमारा क्या है, यह यक्ष प्रश्न हर बुजुर्ग के भीतर कौंधता रहता है। 

अब बाजार हमारे भीतर समाने लगा है। हम बाजार के होने लगे हैं। बाजार में क्या चीज बिकनी है, यह हम तय नहीं कर रहे हैं। इसके लिए कुछ विशेष शक्तियां लगातार काम कर रही हैं। बिचौलिए के बिना कोई काम संभव ही नहीं है। मूल रूप से चीजों की कीमतें बहुत कम हैं, पर एक सोची-समझी साजिश के तहत उन चीजों के दाम बिचौलियों के हाथों इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि साधारण इंसान को वह दोगुनी-तिगुनी कीमत पर मिल रहीं हैं। रोटी बनाने वाले और रोटी खरीदने वाले के बीच किसी तीसरे की भूमिका महत्वपूर्ण होने लगी है। यही तीसरा दोनों पर हावी है। अब वही आदेश देने लगा कि कितनी रोटी बननी है और कितनी रोटेी खरीदी जानी है। ऐसे में साधारण इंसान की कोई औकात ही नहीं है। वह लगातार पिस रहा है। उसकी सांसें उधार रखी हुई है। वह अपनी सांसों को लेने की भी ताकत नहीं रखता।

सरकारी आंकड़ों में आम आदमी की जिंदगी काफी आसान है। उसे हर तरह की सुविधाएं मिल रही हैं। तमाम सरकारी कार्यालय उसके काम के लिए तैयार बैठे हैं। हर कोई उसकी सुख-सुविधाओं का पूरा खयाल रख रहा है। पर हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है। आम आदमी आज भी महंगाई की चक्की में पिस रहा है। रोजगार की संभावनाएं लगातार कम होती जा रही है। किसी भी काम के लिए सरकारी महकमा काम नहीं आता। उसके काम में अनेक बाधाएं उत्पन्न की जाती हैं। इसके बाद भी कई लोगों के काम बहुत ही आसानी से हो जाते हैं। इसके पीछे का गणित हर कोई जानता है। ऐसे में आम आदमी की हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही है।

सरकारी आंकड़े सदैव झूठ बोलते हैं, यह जानते हुए भी लोग उस पर विश्वास करते हैं। ठीक हमारे नेताओं की तरह। जनता जानती है, इन नेताओं की हकीकत, इसके बाद भी जब वह सामने होता है, तो विरोध नहीं कर पाती। दूसरी ओर विज्ञापनों की दुनिया है, जिसमें खूब दावे किए जाते हैं, लोग जानते हैं कि इससे कुछ नहीं होने वाला, फिर भी न जाने किस प्रेरणा से वशीभूत होकर वह उत्पाद खरीद ही लेते हैं। इस तरह से मायाजाल है, जिसमें सभी उलझे हुए हें। सरकार का अलग मायाजाल है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अलग। इसमें उलझना सभी की मजबूरी है। न चाहकर भी इसमें लोग उलझते ही रहते हैं। विरोध की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। विरोध करने वाला कुछ दिनों बाद विरोध के काबिल ही नहीं होता। ऐसे में बहाव के साथ चलना हम सबकी विवशता है।

डॉ. महेश परिमल


शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

100 करोड़ वैक्सीनेशन, विश्व में भारत की प्रशंसा



सबेरा संकेत राजनांदगाँव में प्रकाशित आलेख





100 करोड़ वैक्सीनेशन, विश्व में भारत की प्रशंसा

यह देश के लिए गौरव के पल हैं कि हमारे देश के 100 करोड़ नागरिकों को वैक्सीन के डोज लग गए हैं। देश के इस वैक्सीनेशन अभियान की पूरे विश्व में प्रशंसा हो रही है। इस मामले में अभी हम केवल चीन से पीछे हैं, वहां दो अरब लोगों को टीका लग चुका है। बाकी कई देश तो हमसे काफी पीछे हैं। यही नहीं, अमेरिका से भी हम वैक्सीनेशन के मामले में बहुत आगे हैं। इस दौरान हमने कई चुनौतियों के पर्वतों को पार किया। इसे दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन अभियान माना जा रहा है।

देश की विशाल जनसंख्या को देखते हुए टीकाकरण अभियान एक बहुत बड़ी चुनौती थी। परंतु हमने उस मुकाम को प्राप्त कर ही लिया। देशवासी पहले की तरह सामान्य जीवन जी सकें, इसके लिए अभी भी चुनौतियों के कई पर्वतों को पार करना शेष है। कोरोना महामारी के चलते देश में 21 अक्टूबर 2021 का दिन ऐतिहासिक माना जाएगा। इस दिन देश ने वैक्सीन के डोज का आंकड़ा 100 करोड़ को पार कर गया। हमारे देश में सबसे बड़े टीकाकरण अभियान की शुरुआत 15 जनवरी 2021 से हुई। इसके लिए देश में 3000 सेंटर स्थापित किए गए। सबसे पहले चरण में स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन के कर्मचारियों को वैक्सीन के डोज दिए गए। इस अभियान के पहले ही दिन करीब दो लाख लोगों को वैक्सीन के डोज दिए गए। इसके बाद पहली अप्रैल से 60 साल से अधिक उम्र के लोगों को वैक्सीन के डोज देने का कार्यक्रम चलाया गया। इसके बाद मई से 18 साल से अधिक आयु के लोगों को वैक्सीन के डोज देने का कार्यक्रम चलाया गया।

इस अभियान के शुरु होते ही लोगों में आशंका और घबराहट का माहौल देखा गया। लोग वैक्सीन लेने में आनाकानी करने लगे थे। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में हालत बहुत ही खराब थी। जानकारी के अभाव में लोगों में वैक्सीन के प्रति डर पैछा हो गया था। सरकारी मशीनरी के माध्यम से पहले तो लोगों का डर दूर किया गया। वैक्सीन के प्रति जागृति लाने में सरकारी तंत्र को काफी मशक्कत का सामना करना पड़ा।

इस दौरान एक वर्ष से भी कम समय में वैक्सीन तैयार करने का भी रिकॉर्ड बना। आमतौर पर एक वैक्सीन को बनाने में करीब 10 वर्ष लगते हैं, पर हमारे देश में इसे बनाने में केवल दस महीने ही लगे। इस तरह से कोरोना के लिए दुनिया में हमारे देश में ही सबसे तेजी से विकसित हुई वैक्सीन तैयार हुई। कोरोना के लिए वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया काफी जटिल है। इस प्रक्रिया में धैर्य का होना अतिआवश्यक है। वैक्सीन बनाने वाली कंपनी को अलग-अलग स्तर पर मंजूरी लेनी होती है, जिसमें कई महीने लग जाते हैं। एक वैक्सीन को तैयार होने में 3-4 साल लग जाते हैं। परंतु कोरोना ने जिस तरह से पूरे विश्व में तबाही मचाई थी, उसे देखते हुए देश में वैक्सीन की खोज करने के काम में तेजी लाई गई। भारत में शुरुआत में जिस दो वैक्सीन को मंजूरी मिली, उसमें से कोवीशील्ड वैक्सीन के ट्रायल में ही तीन-चार सोपान थे। दूसरी ओर को वैक्सीन के तीसरे चरण में ही इसके अच्छे परिणाम सामने आने लगे। भारत में एक साथ दो वैक्सीन को मंजूरी मिलने के बाद हम उन देशों में शामिल हो गए, जहां विज्ञान ने काफी प्रगति की है।

इसके पहले इस तरह की किसी वैक्सीन के लिए हमें पश्चिमी देशों का मुंह ताकना पड़ता था। इसके बाद भी कई सालों बाद हमें वह वैक्सीन प्राप्त होती थी। पर कोरोना के खिलाफ लड़ाई में बनने वाली वैक्सीन के मामले में हम जल्द ही इतने सक्षम हो गए कि वैक्सीन दूसरे देशों को देने की पंक्ति में शामिल हो गए। कई देशों ने हमारी वैक्सीन को सराहा। इधर हमने भी देश के कोने-कोने में वैक्सीन पहुंचाने का भगीरथ प्रयास किया। यह भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे हमारे देश के लोगों ने अपना काम समझकर किया और सफलता प्राप्त की। समृद्ध जनसंख्या वाले देश में वैक्सीन के डोज को गांव-गांव पहुंचाने के अलावा लोगों को उसके लिए प्रेरित करना एक मुश्किल काम था, जिसे स्वास्थ्यकर्मियों ने पूरी शिद्दत के साथ अंजाम दिया।

सामान्य रूप से देश में एक साल में 5 से 6 करोड़ लोगों को वैक्सीन दी जाती है। इसमें भी आधे तो बच्चे होते हैं, शेष महिलाएं होती हैं। विशेषकर गर्भवती महिलाओं को वैक्सीन के डोज देने का यह पहला प्रसंग है। शुरुआत के चार महीनों में 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन के डोज लगाने की योजना थी। दूसरी चुनौती फ्रंटलाइन वॉरियर्स के एक-एक व्यक्ति को वैक्सीन के डोज देने की थी। इस दौरान कोरोना के दोनों डोज आवश्यक थे। दो डोज लेने के बाद ही मानव शरीर कोरोना के खिलाफ कम्युनिटी विकसित करता है। ऐसे में हर व्यक्ति को वैक्सीन के दोनों डोज मिले, यह सुनिश्चित किया जाना भी आवश्यक था। तीसरी चुनौती यह थी कि कम से कम समय में अधिक से अधिक लोगों को वैक्सीन दी जाए। इसके लिए वैक्सीन का निर्माण, फिर उत्पादन और फिर उसे सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचाना भी काफी मुश्किलभरा काम था। इसके अलावा 65 से 70 देश भी हमसे वैक्सीन की मांग कर रहे थे। उन्हें भी संतुष्ट करना हमारे लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। देखते ही देखते हमारे देश ने इन चुनौतियों का सामना कर लिया। इसके साथ ही हम उन देशों में शामिल हो गए, जो आत्मनिर्भर हैं। इस काम में हमारे वैज्ञानिकों की महत्वपू्र्ण भूमिका रही।

देश का यही प्रयास था कि वैक्सीन के माध्यम से कोरोना के खिलाफ हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति पैदा करना। ताकि हम सब सामान्य जीवन जी सकें। इसमें हम सफल रहे। यह भी एक शुभ संकेत है कि कोरोना से स्वस्थ होने वालों का प्रतिशत 98 रहा। दूसरी ओर संक्रमितों की संख्या दो लाख से कम रही है। हमारा लक्ष्य तब पूरा होगा, जब हमारे देश के सभी युवाओं को वैक्सीन के दोनों डोज लग जाएं। वैक्सीन के दो डोज के बीच के अंतर को भी हमने एक चुनौती के रूप में लिया, जिसमें हम सफल रहे। 100 करोड़ लोगों को वैक्सीन के डोज देने का गौरव हमने प्राप्त कर लिया। इसके लिए सरकार और टीकाकरण अभियान के साथ जुड़े सभी योद्धा बधाई के पात्र हैं। शुरुआत में 20 करोड़ डोज देने में 131 दन लगे। 80 करोड़ से 100 करोड़ तक पहुंचने में केवल 31 दिन लगे। इसके बाद भी पूरी तरह से दोनों डोज की वैक्सीन देने का भगीरथ कार्य अभी भी बाकी है। जिसे समय रहते पूरा कर लिया जाएगा, यह विश्वास है।

डॉ. महेश परिमल

 

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

हे! ईश्वर, घर का सदस्य सुरक्षित आए, उसकी खबर नहीं



देश के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नीतिन गडकरी इन दिनों बहुत बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर रहे हैं। उनकी बातों पर विश्वास करें, तो कुछ ही वर्षों में हम न जाने कहां होंगे। कुछ ही पलों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाएंगे। हमें किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी। हमारी सेहत ठीक होगी। हम लोगों से अच्छी तरह से मेल-मिलाप कर पाएंगे। सड़कों पर चलना और भी आसान हो जाएगा। राष्ट्रीय राजमार्गों पर चलना बहुत ही सरल और सहज होगा। ये सारी बातें इन दिनों दिवास्वप्न जैसी लगती हैं। क्योंकि घर से निकलते ही हमें रास्तों के गड्ढे ही बता देते हैं कि हमारा भविष्य कैसा होगा? हम जिस काम से निकले हैं, वह हो भी पाएगा या नहीं?  घर से निकला हमारे परिवार का सदस्य सही सलामत घर आ भी पाएगा या उसकी खबर आएगी, कहा नहीं जा सकता। एक आम इंसान यही सोचता है कि सुबह का घर से निकले उसके पिता, उसका बेटा, पत्नी या फिर वह स्वयं ही सुरक्षित लौट आए। उसे नहीं चाहिए चमचमाती और चकाचौंध करने वाली सड़कें। उसे चाहिए उबड़-खाबड़ सड़कों से मुक्ति, ताकि उसके घर आने वाले लोग तो आएं, पर उनकी खबर न आए। 

हम सबका जीवन विसंगतियों से भरा पड़ा है। चारों ओर परेशानियों के घने बादल छाए हुए हैं। इन हालात में इंसान जब घर से बाहर निकलता है, तो उसका सामना सबसे पहले रास्तों से ही पड़ता है। इन दिनों शहर ही नहीं, बल्कि गांव-गांव की सड़कों की हालत बहुत ही ज्यादा खराब है। कई स्थानों पर सड़कों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है। इन रास्तों पर खुद को बचाते हुए चलना भी किसी करतब से कम नहीं। हर तरह के टैक्स देकर भी इन रास्तों से गुजरना इंसान की मजबूरी बन गई है। इन रास्तों को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी किसकी है, यह भी पता लगाना बहुत ही मुश्किल है। जिसकी जिम्मेदारी होती है, उसे तो पता ही नहीं होता कि यह सड़क उसकी निगरानी में है। सड़कों की हालत बद से बदतर होती जा रही है, लेकिन जिम्मेदारों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। हर कोई दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार मानता है। जिम्मेदारी तय कैसे की जाती है, यह भी एक मुश्किल काम है। जिसे समझना एक आम आदमी के बस की बात नहीं है। केवल कुछ अधिकारियों की लापरवाही और बदइंतजामी का खामियाजा एक आम आदमी भरे, यह कहां का इंसाफ है?

रास्तों पर गड्‌ढों से क्या-क्या होता है, यह जानना आसान नहीं है। शरीर के पूरे अंग टूट-टूट जाते हैं। अस्थिपंजर ढीला हो जाता है। कमर की हालत तो पूछो ही मत, वह तो रात में सोते समय अपना सही रूप दिखाती है। दूसरी ओर वाहन की हालत इंसानों से भी अधिक खराब। शॉकब और हेंडल की हालत रोज ही खराब होती जाती है। लाइट भी काम नहीं करती। पहिया पंचर हो जाता है, सो अलग। इन टूटे रास्तों पर कहीं-कहीं स्पीड ब्रेकर भी मिल जाते हैं, जो हमें यह बताते हैं कि हमें अपना वाहन धीरे चलाना है। इन स्पीडब्रेकर्स को पार करते हुए भी वाहन कई बार रो पड़ता है। इन रास्तों को लेकर सरकार यह दावा करती है कि इन गड्ढों के कारण ही शहर में दुर्घटनाओं की संख्या में कमी आई है। वह खुश होती है, दुर्घटनाओं के घटते आंकड़ों को देखकर। इधर हमारा रोना जारी रहता है।

शहर में सड़़कों की मरम्मत का काम एक विभाग का नहीं है। इसे अलग-अलग विभागों में बांटा गया है। यही कारण है कि सड़कों को दुरुस्त करने के लिए ये विभाग एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं। ये सारे विभाग वीआईपी रोड की ही मरम्मत में लगे रहते हैं। इन्हें उसी मार्ग में गड्‌ढे दिखाई देते हैं। बाकी रास्तों से इनका कोई लेना-देना नहीं होता। मरम्मत की जवाबदारी कई विभागों में बंटी होने के कारण ही सड़कें दुरुस्त नहीं हो पाती। किसी एक विभाग की जिम्मेदारी तय कर दी जाए, तो बीमार सड़कों की हालत में सुधार आए।

इसका एक समाधान यह हो सकता है कि शहर या गांव में जब भी कोई सड़क बने, तो सड़क के किनारे एक बोर्ड पर ठेकेदार का नाम और मोबाइल नम्बर दे दिया जाए, तो सड़क के खराब होने पर लोग फोन करके उसे इसकी सूचना दें, तो स्थिति में काफी सुधार आ सकता है। इसके बाद भी यदि सड़क ठीक नहीं होती, तो ठेकेदार से यह पूछा जा सकता है कि इस सड़क की जो लागत आई है, उसमें किस अधिकारी या नेता को कितना हिस्सा दिया गया है, इसे सार्वजनिक किया जाए। इससे हिस्सा लेने वालों पर यह डर बना रहेगा, तो वे भी अपने बचाव में हिस्सा लेने से कतराएंगे। एक उपाय यह भी हो सकता है कि जिस रास्ते पर बड़ा गड्‌ढा हो, वहां पर एक नाव बनाकर उस पर कोई बैठ जाए, जब तक रास्ता ठीक न हो जाए, उसका धरना जारी रहे। इससे वहां मीडिया का जमावड़ा हो जाएगा, लोगों का ध्यान उस रास्ते की ओर जाएगा। शोर-शराबा होगा, तब संभव है, जिम्मेदार नींद से जागें। यह गांधीवादी रास्ता होगा, लोगों को जगाने के लिए। आम इंसान की गांधीगिरी भी कह सकते हैं इसे।

अंत में मंत्री जी से यही कहना है कि देश की सड़कों को बेहतर बनाने का सपना दिखाने से अच्छा है कि पहले शहर-कस्बों एवं गांवों की सड़कों को बेहतर बना दें। कम से कम उस पर इंसान को चलने में शर्म न आए, इतनी अच्छी तो की ही जा सकती है। नहीं चाहिए, हमें बड़े-बड़े हाइवे, हम तो चाहते हैं कि जब हम घर से बाहर निकलें, तो हम ही लौटें, हमारी खबर न आए। इन गड्‌ढों से न जाने कितनी जानें रोज जा रही हें, लोग लाचार होकर उन रास्तों से होकर गुजर रहे हैं। इतने सारे वीआईपी क्या कभी आम इंसान बनकर इन रास्तों का अचानक मुआइना नहीं कर सकते? आखिर वीआईपी होने के पहले वे आप इंसान ही तो थे। सो कुछ देर के लिए ही सही, आम इंसान ही बन जाएं। सारी सड़कों के गड्ढे एक साथ भरे जा सकते हैं, या सड़कें दुरुस्त की जा सकती है, यदि उस सड़क से वीआईपी गुजरें। यदि सच्चाई देखनी है, तो आम इंसान बनना ही होगा। बस यही अनुरोध सभी वीआईपी से कि कुछ देर के लिए आम इंसान बन जाएं, सड़कें ही नहीं, देश भी सुधर जाएगा।

डॉ. महेश परिमल


शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

बिग बी की यह कैसी देशभक्ति?

हानायक या कहें बिग बी ने पान मसाले ब्रांड के एक विज्ञापन से खुद को अलग कर लिया है। इस प्रचार के लिए उन्हें जो राशि मिली थी, उसे भी उन्होंने वापस कर दिया है। उस विज्ञापन के कारण उन्हें काफी आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा था। उनके कार्यालय से इस आशय की जानकारी दी गई है कि जब अमिताभ बच्चन इस ब्रांड से जुड़े, तो उन्हें पता नहीं था कि यह विज्ञापन प्रतिबंधित उत्पाद से संबंधित है। यह जानकारी इस तरह से प्रस्तुत की गई, मानो बिग बी देशभक्ति दिखाते हुए बहुत बड़ा बलिदान कर रहे हों। उन्होंने कोई बलिदान नहीं किया है, देर से ही सही, उन्हें यह आभास हुआ है कि प्रतिबंधित चीजों को बेचने के लिए उनका इस्तेमाल हुआ है। इस तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां कई लोगों की प्रतिभा का इस्तेमाल करती आई है। यह सिलसिला बरसों से जारी है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। दो दशक पहले भी अमिताभ बच्चन का एक बयान सामने आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने बरसों तक पेप्सी के ब्रांड एम्बेसेडर के रूप में काम किया। बाद में उन्हें यह समझ में आया कि जिसका वे विज्ञापन कर रहे हैं, उसमें जहर की मात्रा है। इसलिए उन्होंने उसका प्रचार करना बंद कर दिया। यह ब्रह्मज्ञान उन्हें एक मासूम बच्ची के कहने पर आया। उनके इस बयान से कोला ड्रिंक्स का उत्पादन करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां हड़बड़ा गई। लोग तो यह भी कहने लगे थे कि अमिताभ को अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनने में इतना वक्त कैसे लग गया? उल्लेखनीय है कि जयपुर में जब एक मासूम ने अमिताभ से यह कहा था कि हमारी टीचर कहती हैं कि पेप्सी में जहर होता है, तो फिर आप उसका प्रचार क्यों करते हैं? यह किस्सा 2001 का है, पर अमिताभ बच्चन ने 2005 तक पेप्सी का प्रचार किया। आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनने में चार साल लगा दिए? संभव है कि वे कांट्रेक्ट से बंधे हों। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उन्हें यह जानने में काफी वक्त लग गया कि वे जिसका विज्ञापन कर रहे हैं, वह प्रतिबंधित उत्पाद में आता है। समझ में नहीं आता कि इतने हितैषियों के बीच घिरे होने के बाद भी उन्हें सच्चाई से वाकिफ कराने वाला कोई नहीं है।

भारतीय वैज्ञानिक, प्रखर वक्ता और आजादी बचाओ आंदोलन के संस्थापक और भारत के विभिन्न भागों में कई दशकों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जन जागरण अभियान चलाने वाले स्व. राजीव दीक्षित ने अपने एक बयान में यह दावा किया था कि अमिताभ बच्चन को कोलाइटीस होने का मुख्य कारण उनकी कोला ड्रिंक्स पीने की आदत है। स्वयं अमिताभ ने उन्हें पत्र लिखकर बताया था कि उनकी आंतों के रोग का कारण भी यही था कि वे बहुत अधिक मात्रा में कोला ड्रिंक्स लेते थे। इसी कारण उन्हें कोलाइटिस हुआ है। अमिताभ ने उन्हें यह भी बताया था कि वे पेप्सी के साथ जुड़े हैं, इसे वे सार्वजनिक नहीं करना चाहते। अब उनके आलोचक यही कह रहे हैं कि उन्होंने जानबूझकर बरसों तक नागरिकों को जहर पीने के लिए प्रेरित किया। अमिताभ स्वयं कहते हैं कि उन्हें अभिषेक ने यह सलाह दी थी कि किसी भी कंपनी का ब्रांड बनने और उसके उत्पाद का प्रचार करने के पहले इसकी जांच करना जरुरी है कि उसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए कितना उपयोगी और कितना हानिकारक है। 

इसके पहले पूर्व क्रिकेटर सौरव गांगुली भी काफी ट्रोल हुए थे। वे अडानी की कंपनी फॉर्च्यून राइस ब्रान कुकिंग आयल के ब्रांड एम्बसेडर रहने के दौरान जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा, उसके बाद तेल कंपनी के विज्ञापन का मजाक उड़ाया जाने लगा। लोगों का यही विचार था कि जो दिल की सेहत का प्रचार कर रहा है, उसका दिल भला इतना कमजोर कैसे हो सकता है? यहां तक कि पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद ने भी गांगुली के स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ ब्रैंड के विज्ञापन पर टिप्पणी करते हुए ट्विटर पर लिखा- "दादा, आप जल्द स्वस्थ हों। ईश्वर की कृपा बनी रहे। हमेशा जांचे-परखे उत्पादों का ही विज्ञापन करें। खुद जागरूक और सावधान रहें। ईश्वर की कृपा बनी रहे।" बाद में भले ही कंपनी ने उस विज्ञापन के प्रदर्शन पर रोक लगा दी है। पर सवाल यह उठता है कि हमारे सेलिब्रिटी जिस उत्पाद का विज्ञापन कर रहे हैं, क्या वे स्वयं ही उसका उपयोग करते हैं?

सेलिब्रिटी द्वारा किए जा रहे विज्ञापन पर इसके पहले भी सवाल उठाए गए हैं। एक दशक पहले हेल्थ सप्लीमेंट के सेग्मेंट में सबसे बड़ा मार्केट शेयर रखने वाले रिवाइटल ब्रैंड को नुकसान उठाना पड़ा था, जब उसके पहले ब्रैंड एम्बेसेडर क्रिकेटर युवराज सिंह को कैंसर होने पर अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। उनके स्थान पर तुरंत सलमान खान को लिया गया। फिर 2016 में ब्रैंड में बदलाव करते हुए "फिट एंड एक्टिव" टैग के साथ सलमान के स्थान पर महेंद्र सिंह धोनी को लाया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि धोनी जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाले थे, साथ ही काफी सक्रिय भी। दूसरी ओर धोनी सलमान से ज्यादा युवा थे। मज़ेदार बात यह है कि अधिकांश कंपनियां अपने उत्पाद को बताने के लिए या तो फिल्मी हस्तियों का या फिर क्रिकेटर्स के चेहरों को सामने लाती हैं। ये ही लोग आज की युवा पीढ़ी को लुभाते हैं, आकर्षित करते हैं। एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या ये सेलिब्रिटी उन उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं, जिसका वे विज्ञापन करते हैं?

इस तरह से देखा जाए तो केवल धन की खातिर हमारे आदर्श हमारे लिए जहर परोसने का काम कर हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। ये यह भी नहीं सोचते कि इस तरह से वे भारत के भविष्य की सेहत को बिगाड़ने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यदि कुछ लोग बिना धन के इस दिशा में जागरूकता फैलाने का काम करें, तो लोग उसे भी नोटिस में लेंगे। संभव है उपभोक्ता जाग जाए और देश का भविष्य संवरने लगे।

डॉ. महेश परिमल

17 अक्टूबर 2021 को लोकस्वर बिलासपुर में प्रकाशित




 

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

कुछ अतिरिक्त ही बनाता है हमें श्रेष्ठ


छत्तीसगढ़ी भाषा का एक शब्द है, पुरौनी। यह उस वक्त इस्तेमाल किया जाता है, जब हम कुछ सौदा लेते हैं, तो आखिर में विक्रेता हमारी झोली में एक मुट्‌ठी और डाल दता है। यह अतिरिक्त प्राप्त करना ग्राहक को खुश कर देता है। विज्ञान के प्रयोग के दौरान जब ब्यूरेट से क्षार बीकर में जाता है, तो एक अतिरिक्त बूंद से अम्ल का रंग बदल जाता है। यहां भी अतिरिक्त होना महत्वपूर्ण है। इस अतिरिक्त का यह सिलसिला हमारे जीवन में भी चलता ही रहता है। हम जिस संस्था में काम करते हैं, वहां हमारा 8 घंटे काम करना पर्याप्त नहीं माना जाएगा। उन 8 घंटों के अलावा आप संस्था को और कितना समय देते हैं, यह महत्वपूर्ण है। जीवन के हर क्षेत्र में यह अतिरिक्त हमारे आसपास होता है। बैरे को टीप देना भी इसी का एक अंग है। इसके बिना किसी भी परिश्रम का अधूरा ही माना जाएगा। अतिरिक्त के रूप में आपकी योग्यता भी हो सकती है, धन भी और समय तो है ही।

जिस तरह से हमें हर महीने वेतन प्राप्त होता है, उसके बाद जब हमें बोनस मिलता है, तो हम इसे अतिरिक्त वेतन मानते हैं। ठीक इसी तरह जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हम कुछ अतिरिक्त जोड़ दें, तो वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। गायन के क्षेत्र में भी यह अतिरिक्त कई बार देखा गया है। मोहम्मद रफी ने कई कलाकारों को अपनी आवाज दी है। पर जॉनीवॉकर के लिए उनकी आवाज एकदम से अलग है। आपको याद होगा-सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए"। इसी तरह जब वे शम्मीकपूर के लिए गाते हैं, तो उनका अंदाज थिरकने वाला हो जाता है। किशोर कुमार की अपनी विशेषता "उडलइ" थी। जो वे मस्ती भरे गाने के बीच में ले ही आते थे। इस तरह से हमारे जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं, उसे और बेहतर बनाने के लिए हमें अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। यही अतिरिक्त मेहनत ही हमें अपने कार्य में श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है।

कमल हासन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि मैं कलाकार न भी होता, तो भी जो कुछ करता, उसे कुछ अलग ही तरीके से करता। भले ही वह काम झाडू़ लगाने का ही क्यों न हो। हमारे आसपास बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे, तो बड़े से बड़े काम को बड़ी आसानी से कर लेते हैं। इसकी वजह है कि उस काम को करने के लिए उन्होंने अतिेरिक्त मेहनत की है। जो सबके लिए मुश्किल होता है, वह काम कुछ लोगों के लिए बड़ा आसान होता है। इसके पीछे कड़ी मेहनत और लगन की आवश्यकता होती है। यह दोनों रत्न हमें एकाग्रता से प्राप्त होते हैं। कुछ अतिरिक्त देना और कुछ अतिरिक्त प्राप्त करना दोनों ही सुखद अनुभूति है। कई बार किसी भाषा का जानना भी एक योग्यता हो सकती है। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब किसी संस्था को अपनी क्षेत्रीय शाखा खोलने के लिए वहां की बोली या भाषा जानने वाले की आवश्यकता होती है। हिंदी अखबार के एक समूह ने गुजराती में अखबार निकाला, तो मध्यप्रदेश के अपनी हेड ऑफिस में उन्होंने एक मूल रूप से गुजराती किंतु हिंदी भाषी पत्रकार को गुजराती अखबार की समीक्षा के लिए रख लिया। इससे उनके गुजराती अखबार के सभी पत्रकार एवं संपादक सचेत हो गए। वे अब मालिक को दिग्भ्रमित करने की हिम्मत नहीं कर पाते। इस तरह से हिंदीभाषी पत्रकार को उसकी मातृभाषा अतिरिक्त योग्यता के रूप में काम आ गई। 

कुछ लोग इसे देश प्रेम से भी जोड़कर देखते हैं। जापान में काम के दौरान यदि किसी कर्मचारी को यह सूचना मिलती है कि उसे संतान की प्राप्ति हुई, तो वह दो घंटे अतिरिक्त काम कर अपनी खुशी का इजहार करता है। इसके पीछे उसका यह मानना है कि मैंने अपनी खुशी के लिए जीवन के दो घंटे अतिरिक्त दिए। यह आवश्यक नहीं कि खुशी का इजहार करने के लिए वह ऑफिस में ही दो घंटे काम करे। वह सड़क पर झाडू लगाने में भी नहीं हिचकता। जीवन के हर क्षेत्र में यह अतिरिक्तता काम आती है। दोनों पक्ष अतिरिक्त की आशा रखते हैं। मालिक कर्मचारी से यह आशा रखता है कि अधिक से अधिक काम लिया जाए और कम से कम भुगतान किया जाए। दूसरी ओर कर्मचारी यही सोचता है कि कम से कम काम किया जाए और अधिक से अधिक भुगतान लिया जाए। जब यह तादात्म्य हो जाता है, तो जीवन दोनों के लिए आसान हो जाता है।

जीवन में हमें अतिरिक्त देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। यह अतिरिक्त ही हमारी पहचान बनेगा। हमारे काम में भी इस अतिरिक्त की पहचान होगी। सभी कर्मचारी 8 घंटे तक कार्यालय में काम करते हैं, पर कुछ लोग ही प्रमोशन के हकदार होते हैं, इसके पीछे यही अतिरिक्त का भाव सामने आता है। आज का समय सौ प्रतिशत का नहीं, बल्कि सौ से ज्यादा प्रतिशत का है। अब बातचीत में लोग हंड्रेड परसेंट की बात नहीं करते, बल्कि हंड्रेड वन या हंड्रेड टेन की बात करने लगे हैं। इसी से हमें जान लेना चाहिए कि हमें अतिरिक्त में क्या-क्या देना है और क्या-क्या नहीं देना है? इस चक्कर में हम कहीं अपने जीवन का आधार तो नहीं दे रहे हैं? 

यहां आकर हमें ठिठककर यह सोचना होगा कि हम इतना सब कुछ कर रहे हैं, तो इस दौरान हमारा परिवार हमारे साथ ही है ना? कहीं वह हमसे दूर तो नहीं हो गया। हमारे अपनों के बीच हमारी पहचान कायम है ना? संस्था को हम अपने 8 घंटे देने के बाद 6 घंटे अतिरिक्त तो नहीं दे रहे हैं? ऐसे में संस्था इस अतिरिक्त से खुश हो जाए, पद और वेतन भी बढ़ जाए, तक क्या? क्योंकि इस बीच हमारे अपने ही हमारे न रहे, परिवार दूर चला गया, बच्चों ने पहचानने से ही इंकार कर दिया। मालिक का पिछलग्गू होने का खिताब मिल गया। तो फिर उस जीवन का क्या अर्थ रह जाएगा? यह अतिरिक्त करने का मुआवजा हमें असामाजिक होकर चुकाना पड़ता है। इसलिए हमें अतिरिक्त देने और अतिरिक्त प्राप्त करने के बीच संतुलन बनाना होगा। तभी जीवन आसान होगा।

डॉ. महेश परिमल


आप जानते हैं गस पगोनिस को?

क्या होता है गस पगोनिस, इसे तो कुछ घटनाओं के माध्यम से जाना जा सकता है। मूल रूप से यह एक अवधारणा है, जिसे अंग्रेजीे में कांसेप्ट कह सकते हैं। इसके अनुसार हमारे कई काम ऐसे होते हैं, जो हम नहीं करते, पर वे हमारे सामने होते ही रहते हैं। इस तरह के काम करने वाले को हम कभी महत्वपूर्ण नहीं मानते। इन्हें हम सदैव अनदेखा ही करते रहते हैं। अनदेखा करने का खामियाजा हमें तब भुगतना होता है, जब वह काम करने वाला हमारे सामने नहीं होता। युद्ध के दौरान सैनिकों को यदि समय पर बंदूक, बारुद, राशन, दवाएं आदि न मिले, तो क्या युद्ध जीतने की कल्पना की जा सकती है। ऐसे ही हमारी दृष्टि से ओझल किंतु महत्वपूर्ण लोगों को ही कहते है गस पगोनिस।

फिल्म 'कोशिश’ की शूटिंग चल रही थी, एक सीन फिल्माया जाना था। सीन था, जब संजीव कुमार का पुत्र एक गूंगी, बहरी लड़्की से शादी करने से इंकार कर देता है। तब पिता बने संजीव कुमार अपने पुत्र समझाते हैं कि तुम्हें पढ़ा-लिखाकर इतना बड़ा केवल इसलिए किया कि तुम अपने पिता की भावनाओं को न समझो। तुहारी मां भी गूँगी और बहरी थी, मैं तो आज भी गूंगा और बहरा हूं, लेकिन तुम तो सही सलामत हो। फिर मेरा दिल क्यों दुखा रहे हो। संजीव कुमार ने इस सीन को इतने दिल से किया कि सीन ओ.के. होने के बाद एक लाइटमैन ने कह दिया कि देख लेना, इस बार का भरत अवार्ड ‘हरी भाई’ को ही मिलेगा। सचमुच उस वर्ष का भरत अवार्ड संजीव कुमार को ही मिला। लेकिन इसके लिए उन्होंने इसका श्रेय उस लाइटमैन को दिया। इस तरह से उन्होंने अपनी विजय को दूसरों की विजय बताया।

यह थी एक लाइटमैन की छोटी-सी कहानी। वह छोटा-सा व्यक्ति कहीं कोई बड़ी शख्सियत का मालिक नहीं था। लेकिन उसके पास अभिनय को परखने की दृष्टि थी। बहुत से बड़े-बड़े कामों के पीछे छोटे-छोटे लोगों का हाथ होता है। लेकिन श्रेय किसी और को मिलता है। परदे के पीछे कई हस्तियाँ ऐसी होती हैं, जो चकाचौंध से दूर होकर अपना काम करती रहती हैं, पर सबको जाना नहीं जा सकता। लेकिन एक सच्चे इंसान को इन्हें जानना आवश्यक होता है। हमारे जीवन में भी कई ऐसे लोग होंगे, जिनसे हमने प्रेरणा ली होगी। न भी ली हो, पर हमारी सफलता में उनका भी हाथ होगा ही। बड़ी-बड़ी संस्थाओं में छोटे-छोटे कर्मचारी होते हैं, जिनका काम कोई खास नहीं होता, लेकिन उनका काम महत्वपूर्ण होता है। उनके काम को कभी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। कई काम ऐसे हैं, जो छोटे माने जाते हैं, पर उसका पता तभी चलता है, जब वह काम करने वाला व्यक्ति सामने नहीं होता।

आप कितनी भी महँगी घड़ी खरीद लें, पर उसके पट्टे को संभालने वाली एक छोटी-सी पिन होती है, जो बमुश्किल दो-चार रुपए में मिलती है, लेकिन पूरी घड़ी को संभालने का दारोमदार उसी पिन में छिपा होता है। अब उसके महत्व को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता। स्कूटर का क्लच या गेयर वायर भला कितने का होता है, पर जब वह टूटता है, तो गाड़ी को यूँ ही ढुलाते हुए कई किलोमीटर तक ले जाना पड़ता है, तब समझ में आता है कि एक छोटा-सा वायर भी स्कूटर के लिए कितना महत्व रखता है? जीवन में परदे के पीछे कई ऐसे लोग होते हैं, जिनसे कुछ न कुछ सीखा जा सकता है।

खाड़ी युद्ध के दौरान यदि गस पगोनिस नहीं होता, तो शायद बुश और उसके राजनैतिक सलाहकार कोलीन पावेल इतने नहीं इतराते। गस पगोनिस उनके लाॅजिस्टिक मैनेजर हैं, इनका मुख्य काम यही है कि सैनिकों को समय पर राशन, कपड़े, डीजल-पेट्रोल आदि की आपूर्ति करना। यह काम हालांकि छोटा-सा है, लोगों की नजर में गस पगोनिस की हैसियत एक राशन वाले से अधिक नहीं है, लेकिन उसने यह कार्य अंत तक शिद्दत के साथ किया, यही बहुत है। किसी भी संस्था के लिए लॉजिस्टिक मैनेजर का बहुत महत्व है, यह अलग बात है कि अन्य मैनेजरों की तुलना में उसकी हैसियत एक आपूर्तिकर्ता से अधिक नहीं है। जो सैनिक युद्ध में लड़ते रहते हैं, उनके लिए यह महत्वपूर्ण है कि उनके पास आवश्यकताओं की चीजे समय पर पहुँच जाएँ। अब यदि वे लड़ाई में जीत जाएँ, तो इसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा। लेकिन वे इसे अच्छी तरह से समझते हैं कि उनके पास यदि जरूरत की चीजें समय पर नहीं पहुँच पातीं, तो उनके लिए यह मोर्चा जीतना मुश्किल था। गस पगोनिस जैसे लोग परदे के पीछे ही होते हैं, लेकिन उनके काम को कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता। ये वो जाँबाज सैनिक होते हैं, जो अपने कार्यों से लोगों को जीत के लिए प्रेरित करते हैं। इन्हें किसी भी अच्छी बात का श्रेय नहीं मिलता, ऐसे लोग चाहते भी नहीं कि उन्हें इसका श्रेय मिले। यह तो लोगों की भलमनसाहत होती है कि वे ऐसे लोगों को अपनी जीत का श्रेय देते हैं। फिल्म फेयर अवार्ड घोषित होता है, जिन्हें काफी इनाम मिलते हैं और उनमें इंसानियत होती है, तो इसका श्रेय वे निर्देशक, कोरियाग्राफर, डायलॉग राइटर, मेकअपमैन को देेते हैं। क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उनसे अच्छा काम निर्देशक ने लिया है, उनके चेहरे पींपल्स आदि को दूर करने में मेकअपमैन का हाथ है, जिस संवाद पर लोग तालियाँ बजाते हैं, वे संवाद उसके नहीं थे। वह तो केवल एक माध्यम ही था। अतएव वह अपनी जीत का श्रेय दूसरों को देने में नहीं चूकते। ऐसे लोग अनजाने में ही गस पगोनिस का ही सम्मान करते हैं।

व्यवसाय में कई तरह के गस पगोनिस होते हैं, जो परदे के पीछे रहकर अपना काम करते रहते हैं। धोबी, नाई, मोची, कामवाली बाई जैसे कई लोग समाज में होते हैं, जिनसे हमारा कोई सीधा संबंध नहीं होता, लेकिन उनकी अनुपस्थिति बता देती है कि वे हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। व्यापार और व्यवसाय में यह बात भी महत्व रखती है कि एक अदना-सा कर्मचारी भी संस्था के लिए महत्वपूर्ण है। यदि व्यापार उन्नति करता है, तो श्रेय इन्हें भी मिलना चाहिए। इनके कामों को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए। मैनेजमेंट का फंडा यही कहता है कि  हमारे आसपास कई गस पगोनिस हैं, जो अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं। हमें परदे के पीछे रहने वाले उन लोगों की तरफ ध्यान देना चाहिए। जिस व्यापारी ने एक हमाल की अहमियत नहीं समझी, तो समझ लो, उसका व्यापार चौपट होने में वक्त नहीं लगेगा। इसलिए जब भी कर्मचारियों के हित में कोई बात हो, तो हमारे आसपास परदे के पीछे गस पगोनिस की तरफ अवश्य ध्यान दिया जाए।

जिन्होंने अभी-अभी अपना व्यवसाय प्रारंभ किया है, उनके लिए यही कहना है कि छोटे-छोटे कर्मचारियों की तरफ विशेष ध्यान दिया जाए। क्योंकि ये निष्ठावान होते हैं, अपने काम के प्रति ईमानदार होते हैं, लम्बे समय तक संस्था में बने रहेंगे। लेकिन जो ऊँची कुर्सी पर बैठे अधिकारी को जब भी कोई अच्छा मौका मिलेगा, तो वह नहीं चूकेगा। उसे अपनी निष्ठा बदलने में ज़रा भी वक्त नहीं लगेगा। वह और भी ऊँचे वेतन पर कहीं चला जाएगा। लेकिन छोटा र्काचारी संस्था छोडऩे के पहले लाख बार सोचेगा। उसे वह सब याद आएगा, जो आपने उसकी भलाई के लिए किया। आपकी प्रताड़ना को वह भूल जाएगा, लेकिन आपके द्वारा की गई भलाई को वह कभी नहीं भूलेगा। ऐसे लोग ही होते हैं संस्था का आधार। इमारत कितनी भी बड़ी हो, तो उसकी ऊँचाई नहीं देखनी चाहिए, बल्कि उसकी बुनियाद की प्रशंसा करनी चाहिए, जो दिखाई नहीं दे रही है, पर उस पूरी इमारत को संभाले हुए है।

ऐसे बहुत से लेखक हुए हैं, जो अपनी महान् रचना का श्रेय किसी ऐसे व्यक्ति को देते हैं, जो अदना-सा है, जो साहित्य का ककहरा भी नहीं जानता। पर ऐसे लोग भी हैं। लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो ताजमहल तो बनवा लेते हैं, लेकिन नाम उन्हीं का होता है, उनके कारीगरों को कौन जानता है? जब भी कोई बड़ा काम बिगड़ता है, तो आप पाएँगे कि ठीकरा किसी अदने से व्यक्ति के सर ही फूटता है। तब कोई बड़ा अधिकारी यह कहने नहीं आता कि इसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ। लेकिन अच्छे काम का श्रेय लेने की होड़ मच जाती है। तो अपनी जड़ों को न भूलें, आधार को अनदेखा न करें, छोटे काम भी महत्व के होते हैं, इसे समझने का प्रयास करें, श्रेय देने में इन्हें सदैव सामने लाएँ, तो ही व्यापार उन्नति करेगा और व्यापारी का यश बढ़ेगा।

डॉ. महेश परिमल


शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

आप शाकाहारी हो ही नहीं सकते

आज के जमाने में विशुद्ध शाकाहारी होना एक चुनौती है। लोग भले ही स्वयं को शुद्ध शाकाहारी कहकर गर्व का अनुभव कर लेते हों, पर यह भी सच है कि आज हमारे हाथ में जो चीजें आ रही हैं, वह किसी भी तरह से शाकाहारी नहीं हैं। इसलिए अब शाकाहारियों के लिए सावधान होने का समय आ गया है। यदि नई सरकार अपने नियम-कायदों में थोड़ा-सा बदलाव करे, तो इस धोखाधड़ी को रोका जा सकता है। जिस धार्मिक भावना से मांस, मछली, चिकन या अन्य पदार्थों का इस्तेमाल करने से हम बच रहे हैं, वही चीजें किसी न किसी रूप में हमारे सामने आ रही हैं। जिस तरह से किसी मांसाहारी होटल में शाकाहारी पदार्थों की विश्वसनीयता कायम नहीं रह सकती, ठीक उसी प्रकार आज कई ऐसी चीजों में कुछ अंश में ही सही मांसाहार का इस्तेमाल किया जा रहा है। तथाकथित शाकाहारी पदार्थों में जिलेटिन, ग्लिसरीन, कृत्रिम रंगों और सुगंधों का मिश्रण किया जाता है। इस सब में प्राणियों की हड्डियां, चमड़ी और खून का अंश हो सकता है। यदि हम ग्रीन मार्क देखकर कोई वस्तु खरीद रहे हैं, तो भी यह पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी तरह से शुद्ध है। सरकारी कानून में ऐसी सख्ती न होने के कारण यह धोखाधड़ी जारी है। इसके लिए शाकाहारियों को ही सामने आना होगा।

आइए अब जान ही लिया जाए कि किन चीजों में मांसाहार का इस्तेमाल होता है। अधिकांश कंपनियां साबुन बनाने के लिए मटन टेलो का इस्तेमाल करती हैं। साबुन बनाने के दौरान ग्लिसरीन को एक बाय प्रोडक्ट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह ग्लिसरीन प्राणीजन्य होने के कारण मांसाहार की श्रेणी में आता है। ग्लिसरीन वनस्पतिजन्य हो सकता है। पर बाजार में मिलने वाला 90 प्रतिशत ग्लिसरीन प्राणीजन्य होने के कारण मांसाहारी है। यह ग्लिसरीन दवाओं के अलावा अन्य कई खाद्य पदार्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है। दवाओं में तो शाकाहारी या मांसाहारी पदार्थों का उपयोग किए जाने की कोई सूचना नहीं दी जाती। इस कारण मांसाहार के अंश को दवाओं में मिलाया जाता है, इससे शाकाहारी अनजाने में ही ग्रहण कर मांसाहारी बन जाते हैं। हमें जो ग्लिसरीन उपलब्ध है, उसे ई-422 नम्बर दिया गया है। खाद्य सुरक्षा के नियमों के अनुसार खुराक की पेकिंग पर केवल यह कोड नम्बर ही दिया जाता है। सभी लोग इसे नहीं समझते। बाजार में मिलने वाली कई चॉकलेट और केक में एडीटीव के रूप में जो पदार्थ इस्तेमाल में लाया जाता है, वह आंशिक रूप से मांसाहार ही है। टूथपेस्ट का इस्तेमाल हम आम तौर पर दांत साफ करने के लिए करते हैं, पर कानूनन उसे फूड नहीं माना जाता। इसलिए उस पर कभी ग्रीन मार्क या रेड मार्क नहीं लगाया जाता। टूथपेस्ट में ग्लिसरीन का उपयोग खुले तौर पर किया जाता है। इसे शाकाहारी भी इस्तेमाल में लाते हैं। स्नान करने के लिए अधिकांश साबुनों में मटन टेलो का इस्तेमाल किया जाता है। शाकाहारी इसे अपने शरीर पर रगड़ते हैं। कानूनों में साबुन की व्याख्या कास्मेटिक श्रेणी में की गई है। होठों को रंगने वाली लिपस्टिक में जानवरों की चरबी और रक्त का इस्तेमाल किया जाता है। लिपस्टिक को भी कास्मेटिक की श्रेणी में रखा गया है। इस कारण इसके लेबल में शाकाहारी या मांसाहारी के किसी तरह का चिह्न नहीं लगाया जाता।

कतलखाने से प्राणियों के कतल के बाद उनकी हड्डियों से जिलेटीन तैयार किया जाता है। जिलेटीन खाद्य पदार्थों की श्रेणी में नहीं आता। इसलिए इसकी पेकिंग पर इसे शाकाहारी या मांसाहारी नहीं बताया जाता। जिलेटिन का उपयोग च्युंगम और कुछ चॉकलेट बनाने में किया जाता है। बच्चे जिस बहुत चाव से खाते हैं,ऐसी कई चीकनी पीपरमेंट में भी जिलेटीन का इस्तेमाल होता है। यह चॉकलेटों में जिलेटिन के रूप में इस्तेमाल होने से उसे खाद्यपदार्थ का एक हिस्सा नहीं माना जाता, इस कारण जिलेटिनयुक्त खुराक दी जाती है। जिसमें मांसाहारी पदार्थ का इस्तेमाल होता है, उसे बताने की आवश्यकता कानून में नहीं है। कत्लखाने में किसी भी प्राणी को मारा जाता है, तो उससे 25 प्रतिशत टेलो निकलता है। इसी से बनता है ग्लिसरीन। इसके अलावा इससे 20 प्रतिशत मांस और 45 प्रतिशत हड्डी, चमड़ा और रक्त मिलता है।  हड्डी से जिलेटीन प्राप्त होता है। इसका उपयोग कई शाकाहारी चीजें बनाने के लिए होता है। रक्त का उपयोग हिमोग्लोबीन के इलाज के लिए किया जाता है। इसके अलावा एक जानवर के शरीर से हड्डियां, चमड़ी, बाल, पूंछ आदि को जलाकर उसका कोयला बनाया जाता है। इस कोयले का उपयोग खाद्य तेल के शुद्धिकरण में किया जाता है। इस तरह से रिफाइंड तेल का इस्तेमाल करने वाले अनजाने में ही मांसाहारी बन जाते हैं। दूसरी ओर अनजाने में ही सही वे पशुओं के कतल को भी प्रोत्साहन देने में सहायक होते हैं। इस समय बाजार में जो जिलेटीन मिल रहा है, वह सीधे कतलखाने से मिले कचरे से नहीं बनाया जाता। इस कचरे से कई प्रकार के औद्योगिक पदार्थ बनाए जाते हैं।

केंद्र सरकार द्वारा 'फूड’ की जिस तरह से व्याख्या की गई है, उसमें टूथपेस्ट, टूथ पाउडर, लिपस्टिक, लिपबाम आदि का समावेश नहीं किया गया है। इस कारण शाकाहारी भी हड्डियों के चूरे से बनने वाली चीजों का इस्तेमाल आसानी से कर लेते हैं। पशुओं के रक्त से बनने वाली लिपस्टिक को महिलाएं बड़े ही चाव से होठों पर लगाती हैं। उन्हें इसका जरा भी आभास नहीं है कि ये पशुओं के खून से बनी है। ब्रिटेन के कानून में 'फूडÓ की जो व्याख्या की गई है, उसमें च्युइंगम का भी समावेश किया गया है। हमारे देश में पशु प्रेमियों ने मांग की है कि अब सरकार को 'फूड’ की व्याख्या समुचित रूप से कर देनी चाहिए, ताकि शाकाहारी यह समझ सकें कि टूथपेस्ट, टूथ पावडर, लिपस्टिक और लिपबाम में कहीं न कहीं पशुओं के शरीर के अंगों का इस्तेमाल किया गया है। वैसे शाकाहारियों को यह सलाह भी दी जाती है कि वे यही कोशिश करें कि इस तरह की वस्तुओं का इस्तेमाल ही न करें, जिससें कतलखाने से प्राप्त वस्तुओं का इस्तेमाल दैनिक उपभोग में आने वाली चीजों में किया जाता हो। सरकार को भी इस दिशा मेें सक्रिय होकर कड़े कदम उठाने होंगे, ताकि दैनिक जीवन में उपयोग में लाई जाने वाली चीजों पर यह अंकित किया जाए कि इसके निर्माण में किस-किस तरह की चीजों का इस्तेमाल किया गया है। इससे भी अधिक आवश्यक है हमारी जागरूकता। हमें उत्पादों का इस्तेमाल करने के पहले उत्पादकों को इस बात के लिए विवश कर दिया जाना चाहिए कि वह अपने उत्पादों में यह बताए कि यह चीज पूरी तरह से शाकाहारी है, इसमें किसी भी तरह से मांसाहारी चीजों का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसके बाद भी यदि ऐसा होता है, तो इसे हम व्यवस्था का ही दोष मानेंगे।

डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

बहुत पुरानी है बॉलीवुड-ड्रग्स की दोस्ती

डॉ. महेश परिमल

आजकल लोगों को यह शिकायत है कि हममें एकता का अभाव है, इसलिए हमारा दुश्मन हम पर हॉवी हो जाता है। पर जब से आर्यन गिरफ्तार हुआ है, तब से बॉलीवुड में जो एकता दिखाई दे रही है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि काश ये सभी सुशांत सिंह के मामले में भी इसी एकता का प्रदर्शन करते। मामला एक बड़े स्टार की बिगड़ैल संतान का है, इसलिए सहानुभूति जताने के लिए लोग जमा हो रहे हैं। अब तो इससे आगे बढ़कर कुछ लोग तो यह भी कहने लगे हैं कि आर्यन निर्दोष है, वह बेचारा है, उसे माफी मिलनी चाहिए। देखा जाए तो बॉलीवुड के अधिकांश सितारे नशे के आदी हैं। कुछ लोग तो इन्हें माल की आपूर्ति भी करते हैं। पर पकड़े नहीं गए, इसलिए वे सभी निर्दोष हैं।

इस समय बॉलीवुड में ऐसा माहौल बनने लगा है, जिसमें एक बहुत बड़ा गुट आर्यन को माफी देने की सिफारिश करने लगा है। एक और गुट इस बात की कोशिश में है कि यह मामला अधिक दिनों तक सुर्खियों में न रहे। यह तो भला हो मीडिया का, जिसने अब आर्यन का मामला छोड़कर लखीमपुर में किसानों की मौत के पीछे पड़ गए हैं। अब उनका ध्यान आर्यन के मामले की तरफ कम हो गया है। मामला कोर्ट में होने के बाद भी कुछ चौंकाने वाले बयान भी आ रहे हैं। बॉलीवुड में आर्यन के समर्थन में सबसे पहले सुनील शेट्‌टी ने आवाज उठाई। उसके बाद सलमान खान रातों-रात शाहरुख के घर पहुंचे। अब खबर यह भी है कि ऐसा कैम्पेन चलाया जाए, जिसमें आर्यन का मामला अधिक न उछाला जाए। इसके लिए एजेंसी की तलाश की जा रही है।

बॉलीवुड के कई सितारे बार-बार विवादों में फंसते रहे हैं। उनमें होने वाले विवाद और लफड़े कई बार सुर्खियों में आए हैं। कैटरीना कैफ के जन्म दिन पर सलमान खान और शाहरुख खान के बीच तीखा विवाद हुआ था। संजय दत्त ने भी स्वीकार किया था कि वे ड्रग्स लेते हैं। बॉलीवुड के दो गुट अब साफ दिखने लगे हैं। एक गुट है अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, अक्षय कुमार का, दूसरा गुट है खान बंधुओं का। जिसमें सलमान, शाहरुख, आमिर, सैफ शामिल हैं। जब सुशांत सिंह का मामला सामने आया था, तब इसमें से किसी ने भी उसके समर्थन में आवाज नहीं उठाई थी। सब खामोश थे। यहां तक कि जब कंगना रनौत की ऑफिस को तोड़ दिया गया, तब भी बॉलीवुड खामोश था। कोई कुछ बोलना ही नहीं चाहता था।

हमारे देश के नेता हर मामले में कुछ न कुछ बोलने के आदी हैं। निर्भया मामले में मुलायम सिंह यादव ने यहां तक कह दिया था कि छोटी उमर के बच्चों ने आवेश में आकर ऐसा काम किया है, उन्हें माफ कर देना चाहिए। मुलायम के इस बयान को कई लोगों ने चुनौती भी दी थी। देश की समस्याओं को छोड़कर हमारे नेताओं के बयान ऐसे विवादास्पद मामलों में आते ही रहते हैं, जो आगे चलकर और भी विवादास्पद हो जाते हैं। आर्यन के मामले में भी उसे निर्दोष बताने वाले बॉलीवुड में कम नहीं हैं। इसकी वजह यही है कि बॉलीवुड और ड्रग्स की दोस्ती बहुत ही पुरानी है। इस समय बॉलीवुड में जो कुछ चल रहा है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि शाहरुख अपनी राजनैतिक शक्ति का इस्तेमाल करेंगे या नहीं, इस पर विचार चल रहा है। दूसरी ओर निगेटिव को पॉजीटिव में बदलने का काम करने वाली एजेंसियां शाहरुख खान की ऑफिस में बैठी हैं। कुछ कयास लगाए जा रहे हैं कि शाहरुख खान सार्वजनिक रूप से माफी मांगेंगे। क्योंकि वे देश के प्रतिष्ठित नागरिक हैं। इस तरह से वे लोगों का दिल जीतने में कामयाब होंगे। संभव है शाहरुख एक फिल्म बनाकर यह बताने की कोशिश करें कि संतानें जब किसी मामले में फंस जाती हैं, तब उसके अभिभावकों और पारिवारिक सदस्यों को किस तरह की यातनाओं से गुजरना होता है। कई लोगों ने शाहरुख को यह भी सलाह दी है कि वे नशे के आदी बेटे पर एक किताब लिखे।

अंत में यही कहा जा सकता है कि विपदाओं को अवसर में बदलने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। बॉलीवुड दंभी लोगों की जमात है। ड्रग्स पर फिल्म बनाते-बनाते कई लोग इसके आदी हो चुके हैं। यहां रेव पार्टी कोई नई बात नहीं है। सुशांत सिंह के मामले में कई ऐसे नाम सामने आए थे, जो ड्रग्स के आदी थे, तब मामला दबा दिया गया था। उधर आर्यन के मामले में कुछ भी न बोलकर शाहरुख खान देश के कानून का सम्मान कर रहे हैं, ऐसा बताया जा रहा है। एक तरह से उसकी छवि को उज्जवल बनाने का प्रयास हो रहा है।

डॉ. महेश परिमल


गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

गरबे में छिपा जीवन का फलसफा

वरात्र शुरू हो गए हैं। इसी के साथ शुरू हो गई है युवाओं की मस्ती। गुजरात ही नहीं, अब तो पूरे देश में इन दिनों एक उत्सव का माहौल देखा जाता है। इन दिनों युवाओं के पैर थिरकने से नहीं चूकते। वे किसी न किसी बहाने से नगाड़ों की थाप पर अपने पांवों को थिरकने का मौका अवश्य देते हैं। वैसे देखा जाए, तो गरबा खेलना एक परंपरा ही नहीं, बल्कि इसके पीछे एक दर्शन है।

गरबा लय और ताल का सामंजस्य है। इसी में ही छिपा है जीवन का फलसफा। जिस तरह से गरबा खेलने के दौरान पता होता है कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब रोकना है और कब किसी के इंतजार में खड़े रहना है। यही कदमताल जीवन में भी आगे चलकर दिखाना होता है, तभी जीवन सार्थक होता है। अन्यथा सही कदमताल न होने के कारण कई जीवन बरबाद हो जाते हैं। गरबा खेलने में दर्शन को तलाशना थोड़ा हास्यास्पद लग सकता है। पर जीवन को दूसरे नजरिए से देखने वालों के लिए यह किसी दर्शन से कम नहीं है। इसकी फिलासफी को वही समझ सकते हैं, जिन्होंने गरबा खेला है। बचपन में अक्सर गरबा खेलते समय पीछे वाले का डांडिया हमारे सर पर लग जाता था। उस समय जोश-जुनून के आगे कुछ नहीं होता था, पर देर रात डांडिए की वह चोट अपना काम दिखाना शुरू कर देती थी। सिर के उस हिस्से पर उभार महसूस होने लगता था।
जीवन में विपदाएं आती ही रहती हैं। हम समझते हैं कि आखिर यह विपदाएं हमारे सामने ही क्यों आती हैं? अब ज़रा कामयाब लोगों की जिंदगी को देखें, तो समझ में आ जाएगा कि उन्होंने सारी विपदाओं का मुकाबला करने में खुद को तैयार किया। मुसीबतों का सामना करने की उनकी हिम्मत नहीं थी, फिर भी उन्होंने आगे बढ़ने का हौसला जुटाया। इन्हीं मुसीबतों से उन्होंने सीखा कि कब क्या करना चाहिए? अवसर तो सभी को मिलते हैं, कामयाब वही होते हैं, जो अवसरों को समझकर आगे कदम बढ़ाते हैं। अवसर ही हमें सिखाते हैं कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब पीछे करना है। कब कदमों को थाम लेना है। अब इसी से हम गरबे के दर्शन को समझने की कोशिश करें। गरबा खेलने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब पीछे खींचना है। कब डांडिए को सामने वाले के डांडिए से टकराना है। कब थम जाना है। कब किसी के लिए खड़े होना है। अगर कोई इसे नहीं जानता, तो वह गरबा ही क्यों, कोई भी नृत्य नहीं कर सकता। केवल गरबा ही नहीं, बल्कि हर तरह के नृत्य में यही होता है। इधर संगीत की सुरलहरी, उधर कदमों का तालमेल। यही है नृत्य और यही है गरबा।
नगाड़ों की थाप के दौरान जो अपने कदमों को थिरकने से रोक दे, उसे क्या कहा जाए? अन्यायी? जी हां, उसे हम अन्यायी ही कहेंगे। मेरा विचार इससे एक कदम आगे जाकर ठहरता है, उसे अत्याचारी कहा जाएगा। जो अपनी इच्छाओं को मार डाले, अपनों के लिए जीने की जुगत में अपना सारा जीवन ही दांव पर लगा दे। सारी योग्यताएं होने के बाद भी उससे गाफिल रहे। चाहकर भी कुछ न कर पाए, उसे अत्याचारी ही कहेंगे ना? यह सच है कि कई बार परिस्थितियों का चक्रव्यूह इतना उलझा हुआ होता है कि इंसान के वश में करने के लिए कुछ नहीं होता। इसका मतलब यह तो नहीं होता कि जीवन ही समाप्त हो गया। आप कार से कहीं जा रहे हैं, सामने किसी बरात के कारण आप ट्रॉफिक में फंस गए, तो बजाए उस हालात पर खीझने के आप भी भीड़ में शामिल होकर कुछ देर के लिए डांस ही कर लें। इससे लोगों को तो मजा आएगा ही, आप भी कुछ देर के लिए सुकून महसूस करेंगे।
जिसे भी संगीत की थोड़ी-सी भी समझ है, वह उसकी सुरलहरी में खो ही जाता है। गुजरात के बच्चों-बच्चों गरबा के लिए बजने वाले नगाड़ों की थाप की अनुगूंज होती है। इसकी थाप सुनते ही उसके पांव थिरकने लगते हैं। यह उन्हें विरासत में मिला है। इसलिए गरबा खेलते समय युवाओं ही नहीं, बल्कि बुजुर्गों और बच्चों में भी एक विशेष प्रकार का उत्साह देखने को मिलता है। कुछ ऐसी ही स्थितियां ग्रामीण क्षेत्रों में भी देखने को मिलती हैं, जहां किसी समारोह में लोग गाजे-बाजे के साथ पूरी शिद्दत से नृत्य करने लगते हैं। वास्तव में इन्हीं नृत्यों में छिपा होता है जीवन का ककहरा। नृत्य के साथ जीवन को जीने की कला को समझा जाए, तो जीवन आसान हो सकता है। आप उन कोरियोग्राफर्स पर ध्यान दें, उनके पास जीवन की समस्याओं का समाधान मिल जाएगा, क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह से पता होता है कि किस रिदम में किस पांव को उठाना है, हाथ को कब और कैसे लहराना है। कब पीछे हटना है, कब आगे बढ़ना है। नृत्य में इसे ही अनुशासन कहते हैं। वास्तव में यही जीवन का अनुशासन है।
जीवन जीने की कला किसी किताब में नहीं, बल्कि चारों तरफ बिखरी पड़ी है। आवश्यकता है, उसे पहचानने की। चींटी और मकड़ी के जीवन से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अधिक दूर जाने की क्या आवश्यकता है। रोज ही किसी गाय या कुत्ते को रोटी दो, तो भी समझ में आ जाएगा कि जीवन में केवल पाना ही उपलब्धि नहीं है, बल्कि देना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं। जिसे रोज ही रोटी देते हो, उस गाय की आंखों में झांककर देखो, उसमें केवल प्यार ही मिलेगा। कुत्ते को ऐसे ही वफादार नहीं कहा जाता। रोटी देते समय उसकी हरकतें देखो। किस तरह से एक निश्चित समय पर वह आपके करीब आकर अपनी उपस्थिति का आभास दिलाता है। चुपचाप अपने हिस्से की रोटी लेकर आगे निकल जाता है। मेरा अनुभव है कि कई बार कुत्ते रोटी कहीं छिपा भी देते हैं। कई बार मिल-बांटकर खाते हैं। आपस में एक-दूसरे को देखकर गुर्राते भी नहीं। क्या इनकी हरकतें नहीं बताती कि हमें मिलजुलकर रहना चाहिए? इन जानवरों के बीच रहकर आप स्वयं को कभी अकेला नहीं मानेंगे। मात्र इनके हिस्से की रोटी देकर आप अनजाने में उनके साथी बन जाते हैं। क्या यह कोई कम उपलब्धि है? बताओ भला...?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

एयर इंडिया की घर वापसी



1932 में जेआरडी टाटा ने जिस एयर इंडिया को शुरू किया था, वह एक बार फिर टाटा समूह के हाथ में आ गई है। इस बीच यह  कंपनी जब तक यह सरकार के अधीन रही, विवादास्पद ही रही। कंपनी 40 हजार करोड़ के कर्ज के बोझ के नीचे दब गई। हारकर सरकार ने इससे अपने हाथ खींच लिए। अब सरकार को यह आरोप झेलना होगा कि उसने एयर इंडिया को बेच दिया। अपने बचाव के लिए सरकार को इस आरोप का जवाब तैयार रखना होगा। गृहमंत्री ने घोषणा की थी कि श्राद्ध पक्ष के बाद एयर इंडिया के नए मालिक के नाम की घोषणा होगी, पर मीडिया ने श्राद्ध पक्ष के इस अवरोध को पार कर यह घोषणा कर ही दी कि एयर इंडिया की घर वापसी हो रही है। अब सरकार को यह राहत है कि घर के जेवरात घर में ही रह गए। इज्जत नीलाम होने से बच गई।

हमारे देश में टाटा विश्वास का दूसरा नाम है। हाल ही में एक सर्वेक्षण हुआ, जिसमें यह पाया गया कि विश्वासपात्र ब्रांड पर टाटा सबसे ऊपर है। दूसरा क्रम रिलायंस का है। एयर इंडिया को खरीदने की लाइन में रिलायंस और अडानी कभी शामिल नहीं हुए। आखिर 40 हजार करोड़ के कर्ज वाली कंपनी का घाटा पूरा करने के लिए 15 सल लग जाएंगे, उसके बाद ही यह लाभ देने वाली कंपनी बनेगी। टाटा को एयर लाइंस देने के लिए सरकार ने यह चाल चली कि किसी भी हालत में यह कंपनी किसी विदेशी कंपनी के हाथ में न पहुंचे। इसलिए इसके नियम-कायदे ही ऐसे तैयार किए गए, जिसमें विदेशी कंपनी इसे लेने में दिलचस्पी ही न दिखाए। इसके पहले आरएसएस के सर्वेसर्वा मोहन भागवत का वह बयान भी सामने आ गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि एयर इंडिया का मालिक भारत का ही होना चाहिए। यह कंपनी किसी विदेशी हाथ में न जाने पाए। इसलिए स्पाइस जेट ने एयर इंडिया को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई थी। उसने भी टेंडर भरा था, पर इसे तो टाटा के हाथ लगना ही था, सो यह कंपनी टाटा के हाथ में आ गई। अब केवल औपचारिक घोषणा होना बाकी है।

देश की पहली एयर लाइंस बनाने का श्रेय टाटा को ही जाता है। 1932 में जेआरडी टाटा ने एयर लाइंस शुरू की थी, यह कंपनी स्थापना के बाद से ही मुनाफा कमाने वाली कंपनी रही। 1946 में इसका नाम बदलकर एयर इंडिया किया गया। जेआरडी टाटा देश के पहले कामर्शियल पायलेट थे। 10 फरवरी 1929 को उन्हें इसका लायसेंस मिला था। 1943 में सरकार ने इस कंपनी को अपने अधीन कर लिया। सरकार के अधीन होने के बाद भी टाटा इसके अध्यक्ष पद पर रहे। एयर इंडिया का लोगो महाराज कंपनी की पहचान बन गया। कुछ सालों बाद यूनियनों के कारण एयर लाइंस घाटे के ट्रेक में चलने लगी। आज इस कंपनी पर 40 हजार करोड़ का कर्ज है।

यह सच है कि घाटे में चल रही और कर्ज में डूबी यूनिट को कोई भी लेना नहीं चाहता। इस समय टेलिकॉम कंपनी वोडाफोन-आइडिया का साथ देने वाला कोई नहीं है। सरकार इसे राहत का पैकेज दे रही है, इसके बाद भी उसे थामने वाला कोई सामने नहीं आ रहा है। एयर इंडिया की घर वापसी से सरकार के सिर से एक बोझ कम हो जाएगा। इसे संभालने के लिए सरकार को खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी। कंपनी के कर्मचारियों को वेतन की व्यवस्था करना और रिटायर कर्मचारयों के परिवार वालों को लगातार स्वास्थ्य सुविधाएं देना सरकार के ही जिम्मे था। इसलिए सरकार ने सूझबूझ का परिचय देते हुए टेंडर का ड्राफ्ट ही ऐसा तैयार किया कि कोई भी विदेशी कंपनी इसमें शामिल न होने पाए। केवल स्पाइस जेट को ही इसमें शामिल किया गया, जो केवल एक औपचारिकता मात्र ही थी। इस तरह से सरकार एक तीर से कई निशाने साधने में कामयाब रही।

अब सरकार को विपक्ष के इस आरोप का जवाब तलाशना होगा कि उसने एयर इंडिया को बेच दिया। सरकार कह सकती है, पर इसे हर कोई जानता है कि शरीर के सड़े हुए अंग को अलग करना ही उचित है। 2021 के अब केवल तीन महीने ही शेष हैं। इस बीच सरकार को बहुत कुछ ऐसा करना है, जिससे साख बची रहे, आरोपों का जवाब भी दे दिया जाए और डिसइंवेस्टमेंट की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए। 

डॉ. महेश परिमल  


शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

पीढ़ियों का द्वंद्व और हमारे बुजुर्ग


एक अक्टूबर को वृद्ध दिवस पर अमर उजाला में प्रकाशित



एक अक्टूबर को वृद्ध दिवस पर लोकस्वर  में प्रकाशित




समय की ढलान पर ठिठकी झुर्रियां

डॉ. महेश परिमल

आज के बदलते समाज की कड़वी सच्चाई है - वृद्धाश्रम। इसमें कोई दो मत नहीं कि आज जिन हाथों को थामकर मासूम झूलाघर में पहुंचाए जा रहे हैं, कल वही मासूम हाथ युवावस्था की देहरी पार करते ही उन कांपते हाथों को वृद्धाश्रम पहुंचाएंगे। पहुंचाने की प्रक्रिया जारी रहेगी, बस हाथ बदल जाएंगे और जगह बदल जाएगी। कितनी भयावह सच्चाई है यह, इसकी भयावहता का अनुभव तब हुआ जब अखबार में यह खबर पढ़ी कि बड़े शहर के एक वृद्धाश्रम में अगले पंद्रह वर्षों तक के लिए किसी भी बुजुर्ग को नहीं लिया जाएगा, क्याेंकि वहां की सारी सीटें रिजर्व हैं! तो क्या हमारे यहां वृद्धों की संख्या बढ़ रही हैं ? नहीं, हमारी संवेदनाएं ही शून्य हो रही हैं। हमारे अपनेपन का ग्राफ कम से कमतर होता चला जा रहा है। दिल को दहला देने वाली ये खबर और इस खबर के पीछे छिपी सच्चाई मानवता को करारा चांटा है।

जब एक पिता अपने मासूम और लाडले को ऊंगली थामकर चलना सिखाता है, तो दिल की गहराइयों में एक सपना पलने लगता है - आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सीखलाऊं, कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं। ऐ मेरे लाडले, आज मैंने तुझे सहारा दिया है, कल जब मुझे सहारे की जरूरत हो, तो मुझे बेसहारा न कर देना। लेकिन आज के बदलते समाज में बहुत ही कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जिनका ये सपना सच हो रहा है। आज बुजुर्ग हमेशा हाशिए पर होते हैं। जिस तरह तट का पानी हमेशा बेकार होता है, डूबता सूरज नमन के लायक न होकर केवल मनोरम दृश्य होता है ठीक उसी तरह जीवन की सांझ का थका-हारा मुसाफिर भुला दिया जाता है या फिर वृद्धाश्रम की शोभा बना दिया जाता है। अनुभव की इस गठरी को घर के एक कोने में उपेक्षित रख दिया जाता है। आशा भरी नजरों से निहारती बूढ़ी आंखों को कभी घूर कर देखा जाता है तो कभी अनदेखा कर दिया जाता है। कभी उसे झिड़कियों का उपहार दिया जाता है तो कभी हास्य का पात्र बनाकर मनोरंजन किया जाता है। 

नई पीढ़ी हमेशा अपनी पुरानी पीढ़ी पर ये आरोप लगाती आई है कि इन बुजुर्गों को समय के साथ चलना नहीं आता। वे हमेशा अपनी मनमानी करते हैं। अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपते हैं। स्वयं की पसंद का कुछ न होने पर पूरे घर को सर पर उठा लेते हैं और बड़बड़ाते रहते हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ने की आदत बना लेते हैं। इसीलिए युवा उनसे दूर भागने का प्रयास करते हैं। उनकी साठ के बाद की सठियाई हरकतों पर नाराज होते हैं। बुजुर्गों पर लगाए गए ये सारे आरोप अपनी जगह पर सच हो सकते हैं पर यदि उनकी जगह पर खुद को रख कर देखें तो ये आरोप सच होकर भी शत प्रतिशत सच नहीं कहे जा सकते। ये भी हो सकता है कि खुद को उनकी जगह पर रखने के बाद हमारी सोच में ही बदलाव आ जाए। आज बुजुर्गों ने नई पीढ़ी के साथ कदमताल करने का प्रयास किया है। इसी का परिणाम है कि हम बुजुर्गो को माॅल में घूमते हुए देखते हैं, पिज्जा-बर्गर खाते हुए देखते हैं, प्लेन में सफर करते हुए देखते हैं, स्कूटी पर बैठे हुए देखते हैं, पार्क में टहलते हुए, योगा करते हुए, किसी हास्य क्लब में हंसी के नए-नए प्रकार पर अभिनय करते इन बुजुर्गों के चेहरों पर कोई लाचारगी या विवशता नहीं दिखती बल्कि वे इन कामों को दिल से करते हैं। उम्र के पड़ाव पार करते इन बुजुर्गों ने समय की चाल पहचानी है, तभी तो वे नए जोश के साथ इस राह पर निकल पड़े हैं, जहां वे नई पीढ़ी को उनकी हां में हां मिलाकर खुशियां दे सकें।

अनुभवों का ये झुर्रीदार संसार हमारी धरोहर है। यदि समाज या घर में आयोजित कार्यक्रमों में कुछ गलत हो रहा है, तो इसे बताने के लिए इन बुजुर्गों के अलावा कौन है जो हमारी सहायता करेगा ? विवाह के अवसर पर जब एकाएक किसी रस्म अदायगी के समय वर या वधू पक्ष के गोत्र बताने की बात आती है, तो घर के सबसे बुजुर्ग की ही खोज होती है। आज की युवा पीढ़ी भले ही इन्हें अनदेखा करती हो, पर यह भी सच है कि कई रस्मों की जानकारी बुजुर्गों के माध्यम से ही मिलती है। आज कई घरों में नाती-पोतों के साथ कम्प्यूटर पर गेम खेलते बुजुर्ग मिल जाएंगे या फिर आज के फैशन पर युवा पीढ़ी से बातचीत करती बुजुर्ग महिलाएं भी मिल जाएंगी। यदि आज के बुजुर्ग ये सब कर रहे हैं तो उन पर लगा ये आरोप तो बिलकुल बेबुनियाद है कि वे आज की पीढ़ी के साथ कदमताल नहीं करते हैं। बल्कि वे तो समय के साथ चलने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम ही उनके चांदी-से चमकते बालों से उम्र का अंतर महसूस कर उन्हें हाशिए की ओर धकेलने का प्रयास कर रहे हैं।

बुजुर्ग हमारे साथ समय गुजारना चाहते हैं। कुछ अपनी कहना चाहते हैं और कुछ हमारी सुनना चाहते हैं। पर हमारे पास उनकी बात सुनने का समय ही नहीं है इसलिए हम अपने विचार उन पर थोपकर उनसे किनारा कर लेते हैं। क्या आपको याद है - अपनेपन से भरा कोई पल आपने उनके साथ बिताया है! दिनभर केवल उनकी सुनी है और उनके अपनापे के सागर में गोते लगाए हैं! लगता है, एक अरसा बीत गया है हमने तो उन्हें स्नेह की दृष्टि से देखा ही नहीं है। जब भी देखा है, स्वार्थी आंखों से देखा है कि यदि हम घर से बाहर जा रहे हैं, तो वे घर की सही देखभाल करें या बच्चों को संभाले या फिर शांत बैठे रहें। यदि वे घर के छोटे-मोटे काम जैसे कि सब्जी लाना, बिजली या टेलीफोन बिल भरना, बच्चों को स्कूल के स्टाॅप तक छोड़ना आदि कामों में सहायता करते हैं तो वे हमारे लिए सबसे अधिक उपयोगी हैं लेकिन यदि इन कामों में भी उनका सहयोग नहीं मिल पाता है तो ये धीरे-धीरे बोझ लगने लगते हैं।

अपने मन में पलती-बढ़ती इन गलत धारणाओं को बदल दीजिए। इन बुजुर्गों के अनुभव के पिटारे में कई रहस्यमय कहानियां कैद हैं। इनके पोपले मुंह में स्नेह की मीठी लोरियां समाई हैं। भले ही इनकी याददाश्त कमजोर हो रही हों पर अचार की विविध रेसिपी का खजाना, छोटी-मोटी बीमारी पर घरेलू उपचार का अचूक नुस्खा इन्हें मुंहजबानी याद है। ये इसे बताने के लिए लालायित रहते हैं, बस इनसे पूछने भर की देर है।

आज इस प्यारी और अनुभवी धरोहर से हम ही किनारा कर रहे हैं। घर के आंगन में गूंजती ठक-ठक की आवाज हमारे कानों को बेधती है। आज ये आवाज वृद्धाश्रमों में कैद होने लगी है। झुर्रियों के बीच अटकी हुई उनकी आंसुओं की गर्म बूंदें हमारी भावनाओं को जगाने में विफल साबित हो रही है। हमारी उपेक्षित दृष्टि में उनके लिए दया भाव नहीं है। हमारी संवेदनहीनता वास्तव में एक शुरुआत है- उस अंधकार की ओर जाने की जहां हम भी एक दिन खो जाएंगे। अंधकार के गर्त में स्वयं को डुबोने से कहीं ज्यादा अच्छा है इन अनुभवों के झुर्रीदार चेहरों को हम उजालों का संसार दें। इनकी रोशनी से खुद का ही संसार रोशन करें।

डॉ. महेश परिमल
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हाशिए पर झुर्रियां
डॉ. महेश परिमल
श्राद्ध पक्ष चल रहा है। हमें वे बुजुर्ग याद आ रहे हैं, जिनकी ऊंगली थामकर हम जीवन की राहों में आगे बढ़े। उनकी प्रेरणा से आज हम बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हमारी इस प्रगति को देखने के लिए आज वे हमारे बीच नहीं हैं। घर के किसी कोने पर या मुख्य स्थान पर उनकी तस्वीर पर रोज बदलती माला हमें कुछ बताती है। उन संतानों को शत-शत नमन, जिन्होंने अपनी धरोहर को याद रखा? उनकी संवेदनाएं इसी तरह हरी-भरी रहे, यही कामना? पर उन संतानों के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है, जो अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजने में कोई संकोच नहीं करते। आज वे अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम की राह दिखा रहे हैं, कल उनकी संतान भी ठीक ऐसा ही करेगी, संभव है इससे भी आगे बढ़कर कुछ करे। इसलिए उन्हें आज संभलना है, यदि वे आज को संभल लेते हैं, तो कल आपने आप ही संभल जाएगा?
देश में लगातार बढ़ रही वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताती है कि बुजुर्ग अब हमारे लिए 'अनवांटेड' हो गए हैं। उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है। बार-बार हमें टोकते रहते हैं, वे हमें अच्छे नहीं लगते। हम स्वतंत्रता चाहते हैं, इसलिए हमने उन्हें अपनी मर्जी से जीने के लिए वृद्धाश्रमों में छोड़ दिया। अब वे वहां खुश रहें और हम अपने में खुश रहें, बस....ये विचार हैं आज के इस कंप्यूटर युग के एक युवा के। उन्हें याद नहीं है कि उसके माता-पिता ने उसे किस तरह पाला-पोसा। याद नहीं, ऐसी बात नहीं, बल्कि याद रखना ही नहीं चाहते। उनका मानना है कि उन्होंने हम पर अहसान नहीं किया, बल्कि अपने कर्तव्य का पालन ही किया है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का पढ़ाते-लिखाते हैं। उन्होंने कुछ अलग नहीं किया। ये हैं रफ-टफ दुनिया के युवा विचार। कुछ वर्ष बाद जब इन्हीं युवाओं पर परिवार की जिम्मेदारी आएगी, तब ये क्या सचमुच सोच पाएंगे कि हमारे माता-पिता ने हमें किस तरह बड़ा किया?
बड़े भाई के असामयिक निधन का दु:खद समाचार मिला, हृदय द्रवित हो उठा। मैं उनसे 14 घंटे दूर था। इसलिए उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हो पाया। अब मुश्किल यह थी कि निधन की सूचना पाने के बाद मुझे क्या करना चाहिए? घर में हम केवल चार प्राणी, कोई बुजुर्ग नहीं। वे होते तो हम शायद उनसे कुछ पूछ लेते, आखिर वे ही तो होते हैं हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के जानकार। ऐसे में सहसा वह झुर्रीदार चेहरा हमारे सामने होता है, जिसकी गोद में हमारा बचपन बीता, जिनकी झिड़की हमें उस समय भले ही बुरी लगी हो, पर आज गीता के उपदेश से कम नहीं लगती। उनकी चपत ने हमें भले ही रुलाया हो, पर आज अकेलेपन में वही प्यार भरी हल्की चपत हमें फिर रुलाती है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा खंडित हो चुकी है। एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोडऩा नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोडऩा चाहते हैं। पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियां हाशिए पर चली जाती हैं। इसकी वजह भी हम हैं। हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते। इससे उस पोपले मुंह के अहम् को चोट पहुंचती है। उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता। भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की मांग करता है। तब हमें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं। तब हमने उन्हें अनदेखा किया था।
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो। ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब आंखों में खटकते हैं। वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं। बात-बात में हमें टोकने वाले, हमें डांटने वाले और परंपराओं का सख्ती से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं। अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी।
यही समय होता है पीढिय़ों के द्वंद्व का। एक पीढ़ी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएं, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल। उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन। वे हमारी शरारतों पर हंसते-हंसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे। वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली। वे जोडऩा चाहते थे, हमारी श्रद्धा तोडऩे में रही। घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना। साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना या फिर बच्चों को रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियां सुनाना, बात-बात में ठेठ गंवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूंज। यह न हो तो भी कभी-कभी गांव का इलाज तो चल ही जाता है। पर अब यह सब कहां?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढि़वादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्चिंत होकर बैठ जाते हैं। यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा। पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं। पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह गलत है। पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है। कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का कांधा नहीं होता। बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गांव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं।
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं। कही कोई अंतर नहीं। वे अपने समय की तुलना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके फर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अधिकांश मित्र छिटक चुके होते हैं। यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएंगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है। फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की। दिन में आपने जिस बुजुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं। उनके पोपले मुंह से आशीर्वाद के शब्दों को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएं हैं। दादी मां का केवल "बेटा" कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं। यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए। लेकिन वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं। हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं। इसके बाद भी इन बुजुर्गां के मुंह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा कभी न करे। देखा... । झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डॉ. महेश परिमल 

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