आज के जमाने में विशुद्ध शाकाहारी होना एक चुनौती है। लोग भले ही स्वयं को शुद्ध शाकाहारी कहकर गर्व का अनुभव कर लेते हों, पर यह भी सच है कि आज हमारे हाथ में जो चीजें आ रही हैं, वह किसी भी तरह से शाकाहारी नहीं हैं। इसलिए अब शाकाहारियों के लिए सावधान होने का समय आ गया है। यदि नई सरकार अपने नियम-कायदों में थोड़ा-सा बदलाव करे, तो इस धोखाधड़ी को रोका जा सकता है। जिस धार्मिक भावना से मांस, मछली, चिकन या अन्य पदार्थों का इस्तेमाल करने से हम बच रहे हैं, वही चीजें किसी न किसी रूप में हमारे सामने आ रही हैं। जिस तरह से किसी मांसाहारी होटल में शाकाहारी पदार्थों की विश्वसनीयता कायम नहीं रह सकती, ठीक उसी प्रकार आज कई ऐसी चीजों में कुछ अंश में ही सही मांसाहार का इस्तेमाल किया जा रहा है। तथाकथित शाकाहारी पदार्थों में जिलेटिन, ग्लिसरीन, कृत्रिम रंगों और सुगंधों का मिश्रण किया जाता है। इस सब में प्राणियों की हड्डियां, चमड़ी और खून का अंश हो सकता है। यदि हम ग्रीन मार्क देखकर कोई वस्तु खरीद रहे हैं, तो भी यह पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी तरह से शुद्ध है। सरकारी कानून में ऐसी सख्ती न होने के कारण यह धोखाधड़ी जारी है। इसके लिए शाकाहारियों को ही सामने आना होगा।
आइए अब जान ही लिया जाए कि किन चीजों में मांसाहार का इस्तेमाल होता है। अधिकांश कंपनियां साबुन बनाने के लिए मटन टेलो का इस्तेमाल करती हैं। साबुन बनाने के दौरान ग्लिसरीन को एक बाय प्रोडक्ट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह ग्लिसरीन प्राणीजन्य होने के कारण मांसाहार की श्रेणी में आता है। ग्लिसरीन वनस्पतिजन्य हो सकता है। पर बाजार में मिलने वाला 90 प्रतिशत ग्लिसरीन प्राणीजन्य होने के कारण मांसाहारी है। यह ग्लिसरीन दवाओं के अलावा अन्य कई खाद्य पदार्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है। दवाओं में तो शाकाहारी या मांसाहारी पदार्थों का उपयोग किए जाने की कोई सूचना नहीं दी जाती। इस कारण मांसाहार के अंश को दवाओं में मिलाया जाता है, इससे शाकाहारी अनजाने में ही ग्रहण कर मांसाहारी बन जाते हैं। हमें जो ग्लिसरीन उपलब्ध है, उसे ई-422 नम्बर दिया गया है। खाद्य सुरक्षा के नियमों के अनुसार खुराक की पेकिंग पर केवल यह कोड नम्बर ही दिया जाता है। सभी लोग इसे नहीं समझते। बाजार में मिलने वाली कई चॉकलेट और केक में एडीटीव के रूप में जो पदार्थ इस्तेमाल में लाया जाता है, वह आंशिक रूप से मांसाहार ही है। टूथपेस्ट का इस्तेमाल हम आम तौर पर दांत साफ करने के लिए करते हैं, पर कानूनन उसे फूड नहीं माना जाता। इसलिए उस पर कभी ग्रीन मार्क या रेड मार्क नहीं लगाया जाता। टूथपेस्ट में ग्लिसरीन का उपयोग खुले तौर पर किया जाता है। इसे शाकाहारी भी इस्तेमाल में लाते हैं। स्नान करने के लिए अधिकांश साबुनों में मटन टेलो का इस्तेमाल किया जाता है। शाकाहारी इसे अपने शरीर पर रगड़ते हैं। कानूनों में साबुन की व्याख्या कास्मेटिक श्रेणी में की गई है। होठों को रंगने वाली लिपस्टिक में जानवरों की चरबी और रक्त का इस्तेमाल किया जाता है। लिपस्टिक को भी कास्मेटिक की श्रेणी में रखा गया है। इस कारण इसके लेबल में शाकाहारी या मांसाहारी के किसी तरह का चिह्न नहीं लगाया जाता।
कतलखाने से प्राणियों के कतल के बाद उनकी हड्डियों से जिलेटीन तैयार किया जाता है। जिलेटीन खाद्य पदार्थों की श्रेणी में नहीं आता। इसलिए इसकी पेकिंग पर इसे शाकाहारी या मांसाहारी नहीं बताया जाता। जिलेटिन का उपयोग च्युंगम और कुछ चॉकलेट बनाने में किया जाता है। बच्चे जिस बहुत चाव से खाते हैं,ऐसी कई चीकनी पीपरमेंट में भी जिलेटीन का इस्तेमाल होता है। यह चॉकलेटों में जिलेटिन के रूप में इस्तेमाल होने से उसे खाद्यपदार्थ का एक हिस्सा नहीं माना जाता, इस कारण जिलेटिनयुक्त खुराक दी जाती है। जिसमें मांसाहारी पदार्थ का इस्तेमाल होता है, उसे बताने की आवश्यकता कानून में नहीं है। कत्लखाने में किसी भी प्राणी को मारा जाता है, तो उससे 25 प्रतिशत टेलो निकलता है। इसी से बनता है ग्लिसरीन। इसके अलावा इससे 20 प्रतिशत मांस और 45 प्रतिशत हड्डी, चमड़ा और रक्त मिलता है। हड्डी से जिलेटीन प्राप्त होता है। इसका उपयोग कई शाकाहारी चीजें बनाने के लिए होता है। रक्त का उपयोग हिमोग्लोबीन के इलाज के लिए किया जाता है। इसके अलावा एक जानवर के शरीर से हड्डियां, चमड़ी, बाल, पूंछ आदि को जलाकर उसका कोयला बनाया जाता है। इस कोयले का उपयोग खाद्य तेल के शुद्धिकरण में किया जाता है। इस तरह से रिफाइंड तेल का इस्तेमाल करने वाले अनजाने में ही मांसाहारी बन जाते हैं। दूसरी ओर अनजाने में ही सही वे पशुओं के कतल को भी प्रोत्साहन देने में सहायक होते हैं। इस समय बाजार में जो जिलेटीन मिल रहा है, वह सीधे कतलखाने से मिले कचरे से नहीं बनाया जाता। इस कचरे से कई प्रकार के औद्योगिक पदार्थ बनाए जाते हैं।
केंद्र सरकार द्वारा 'फूड’ की जिस तरह से व्याख्या की गई है, उसमें टूथपेस्ट, टूथ पाउडर, लिपस्टिक, लिपबाम आदि का समावेश नहीं किया गया है। इस कारण शाकाहारी भी हड्डियों के चूरे से बनने वाली चीजों का इस्तेमाल आसानी से कर लेते हैं। पशुओं के रक्त से बनने वाली लिपस्टिक को महिलाएं बड़े ही चाव से होठों पर लगाती हैं। उन्हें इसका जरा भी आभास नहीं है कि ये पशुओं के खून से बनी है। ब्रिटेन के कानून में 'फूडÓ की जो व्याख्या की गई है, उसमें च्युइंगम का भी समावेश किया गया है। हमारे देश में पशु प्रेमियों ने मांग की है कि अब सरकार को 'फूड’ की व्याख्या समुचित रूप से कर देनी चाहिए, ताकि शाकाहारी यह समझ सकें कि टूथपेस्ट, टूथ पावडर, लिपस्टिक और लिपबाम में कहीं न कहीं पशुओं के शरीर के अंगों का इस्तेमाल किया गया है। वैसे शाकाहारियों को यह सलाह भी दी जाती है कि वे यही कोशिश करें कि इस तरह की वस्तुओं का इस्तेमाल ही न करें, जिससें कतलखाने से प्राप्त वस्तुओं का इस्तेमाल दैनिक उपभोग में आने वाली चीजों में किया जाता हो। सरकार को भी इस दिशा मेें सक्रिय होकर कड़े कदम उठाने होंगे, ताकि दैनिक जीवन में उपयोग में लाई जाने वाली चीजों पर यह अंकित किया जाए कि इसके निर्माण में किस-किस तरह की चीजों का इस्तेमाल किया गया है। इससे भी अधिक आवश्यक है हमारी जागरूकता। हमें उत्पादों का इस्तेमाल करने के पहले उत्पादकों को इस बात के लिए विवश कर दिया जाना चाहिए कि वह अपने उत्पादों में यह बताए कि यह चीज पूरी तरह से शाकाहारी है, इसमें किसी भी तरह से मांसाहारी चीजों का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसके बाद भी यदि ऐसा होता है, तो इसे हम व्यवस्था का ही दोष मानेंगे।
डॉ. महेश परिमल
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