शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

ग्रेट ब्रिटेन के साथ स्‍कॉटलैंड की व्‍यथा


हरिभूमि के संंपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य अस्ताचल की ओर

डॉ. महेश परिमल
कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है। भारत को विभाजित करने वाला और भाई-भाई को हमेशा के लिए दुश्मन बनाने वाला ग्रेट ब्रिटेन स्वयं विभाजन की राह पर खड़ा है। भारत-पाकिस्तान के बीच विभाजन की जवाबदार अंग्रेज सरकार थी। समय चक्र ऐसा चला कि साढ़े छह दशक बाद वह स्वयं ही उसी स्थिति में है। बहुत ही जल्द ग्रेट ब्रिटेन से ग्रेट शब्द हट जाएगा। ग्रेट ब्रिटेन के स्काटलैंड ने स्वयं को अलग करने का फैसला कर लिया है। वह भी यूरोप के अन्य देशों की तरह अलग होकर अपना अलग ही अस्तित्व बनाना चाहता है। स्वयं को स्वतंत्र करने के लिए स्कॉटलैंड काफी समय से संघर्ष कर रहा था। अब 18 सितम्बर को 42 लाख लोग वोट देकर यह तय करेंगे कि स्कॉटलैंड को ब्रिटेन के साथ रहना है या नही।
इतिहास पर एक नजर डालें, तो यह स्पष्ट होता है कि 1707 में स्कॉटलैंड और इंग्लंड का एकीकरण हुआ था। इसके बाद वह यूनाइटेड किंगडम के रूप में जाने जाने लगा। इसमें इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, आयरलैंड और वेल्स का समावेश हुआ था। स्कॉटलैंड जब से इंग्लैंड के साथ मिला है, तब से स्थानीय लोग इसका विरोध करते आ रहे हैं। बरसों बीत गए, पर विरोध का सुर बदला नहीं। यही विरोधी सुर अब बलवे के रूप में सामने आने लगा है। आज स्कॉटलैंड की स्थिति यह है कि उसकी खुद की सरकार है। शिक्षा-स्वास्थ्य आदि सेवाओं का संचालन भी वह स्वयं करता है। रेलवे जैसी आवश्यक व्यवस्थाएं केंद्रीय स्तर पर ब्रिटेन द्वारा संचालित की जा रही है। स्कॉटलैंड के न जाने कितने ही राष्ट्रभक्तों ने यह अभियान चलाया था। स्कॉटलैंड इसलिए अलग होने की हिम्मत कर रहा है, क्योंकि इंग्लैंड के आर्थिक क्षेत्र में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। इस समय इंग्लैंड मंदी के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि स्कॉटलैंड की आय के कारण ही इंग्लैंड का दिल धड़क रहा है। इस कारण मूल रूप से स्कॉटलैंड के लोग गरीब होने लगे। अपनी आय होने के बाद भी प्रजा यदि गरीब है, तो यह स्कॉटलैंड को सहन नहीं हो रहा था। इसलिए जब स्कॉटलैंड से स्वतंत्र होने की बात कही, तो इंग्लैंड चौंक उठा था। उधर ब्रिटेन की राजशाही भी टूट के कगार पर है। इसके बाद भी उनकी राजशाही का खर्च गरीब प्रजा को भारी पड़ रहा था। मंदी के कारण इंग्लैंड का काफी धन राजशाही में ही खर्च हो रहा था। स्कॉटलैंड के लोगों का कहना था कि उनकी आवक उनके उद्धार पर खर्च की जानी चाहिए।
स्कॉटलैंड ने जब स्वयं को स्वतंत्र करने की बात की, तो पहले इंग्लैंड ने इसे असंवैधानिक करार दिया। पर बाद भी स्कॉटलैंड में इसका उग्र विरोध हुआ, तो ब्रिटेन सरकार ने ऐसा समाधान खोज निकाला, जिसमें स्कॉटलैंड के सभी लोगों को स्वतंत्र नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में इंग्लैंड सरकार जनमत संग्रह के लिए तैयार हो गई। जैसे-जैसे जनमत संग्रह की तारीख करीब आती गई, ब्रिटेन का राज परिवार और प्रधानमंत्री डेविड केमरून दोनों ही घबराने लगे। केमरुन ने स्कॉटलैंड की प्रजा से आग्रह किया कि कोई भी अलग होने के लिए मतदान न करे। उन्होंने यह भी कहा कि 307 साल से चल रहा यह संबंध यदि टूटता है, तो यह दोनों के लिए नुकसानदेह साबित होगा। उन्होंने समाधान की दिशा में एक यह रास्ता भी निकाला, वह स्कॉटलैंड को और अधिक स्वायत्तता देने को तैयार है। निश्चित रूप से स्कॉटलैंड की मांग करने वालों को यह बात उचित नहीं लगी। ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री गार्डन ने भी स्कॉटलैंडवासियों से अलग न होने की अपील की है। यहां भी ब्रिटेन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। जिस तरह से ब्रिटेन ने भारत में फूट डालो और राज करो, की नीति अपनाई थी, ठीक उसी तरह उसने स्कॉटलैंड में भी यही किया। लेकिन उसकी यह चाल नाकाम साबित हुई।
मतदान पूर्व जब लोगों के बीच जाकर यह सर्वेक्षण किया गया कि आखिर जनता चाहती क्या है, तो स्पष्ट हुआ कि स्वतंत्र स्कॉटलैंड के लिए 51 प्रतिशत लोग तैयार हैं। यदि स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होता है, तो ब्रिटेन की आय बुरी तरह से कम हो जाएगी। मंदी और भी तेज होकर हमला करेगी। दूसरी तरफ राजशाही ठाठ का खर्चा भी संभालना मुश्किल हो रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन की साख पर निश्चित रूप से आंच आएगी। ब्रिटेन के सामने सबसे बड़ा संकट बिजली का होगा। इस समय ब्रिटेन के लिए 90 प्रतिशत बिजली स्कॉटलैंड से आपूर्ति की जा रही है। जब भी किसी देश का विभाजन होता है, तब वह आर्थिक रूप से कमजोर हो जाता है। विश्व के इतिहास पर देखें, तो भारत में मुगलों का शासन खत्म होगा, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था। ठीक इसी तरह भारत में व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों को कभी यहां से जाना होगा, ऐसा भी किसी ने नहीं सोचा था। दुनिया का सबसे बड़ा शक्तिशाली देश सोवियत संघ भी कभी बिखर सकता है, ऐसा भी किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन वही हुआ, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। यदि ब्रिटेन टूटता है, तो अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के कारण ही टूटेगा।
गुरुवार को स्कॉटलैंड के 42 लाख लोग फैसला करेंगे कि इंग्लैंड के साथ 307 साल पुराना संबंध कायम रखें या उस खत्म कर दें। ऐसी रिपोट़र्स हैं कि स्कॉटलैंड अलग होने का फैसला कर चुका है और अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या यह ब्रिटिश यूनियन के प्रतीक ध्वज का अंत होगा और क्या स्कॉटलैंड ब्रिटेन की महारानी और करेंसी पाउंड को मान्यता देता रहेगा। भले ही जनमत संग्रह में हां का बहुमत होते ही स्कॉटलैंड अलग हो जाएगा, लेकिन अभी भी आधारभूत चीजें तय नहीं हैं कि नए देश की करेंसी क्या होगी, शासक कौन होंगे, संविधान क्या होगा, स्कॉटलैंड यूरोपीय संघ का सदस्य होगा या नहीं? इस पूरे मामले में एक चीज अभी तक साफ नहीं है कि ब्रिटेन और स्कॉटलैंड के बीच मुद्‌दा क्या है। भाषा का कोई झगड़ा नहीं है।
 कौन करेगा वोट?
 स्कॉटलैंड में 42 लाख लोग वोट के लिए रजिस्टर्ड किए गए हैं, जो यह फैसला करेंगे कि उन्हें ब्रिटेन के साथ बने रहना है या नहीं। इसके लिए पूरे स्कॉटलैंड में %यस और नो कैम्पेन चलाया जा रहा है। अगर हवा बहने की बात करें तो पूरा स्कॉटलैंड एकजुट हो चुका है। 1707 तक स्कॉटलैंड एक स्वतंत्र देश था। लेकिन इसके बाद इंग्लैंड ने इस पर आधिपत्य जमा कर ग्रेट ब्रिटेन में मिला लिया। इसी तरह से नॉर्दर्न आयरलैंड भी इसी का हिस्सा है।  अगर फैसला हां हुआ तो क्या स्कॉटलैंड आजाद हो जाएगा? ऐसा नहीं है। जनमत संग्रह को पूरी तरह से कानूनी शक्ति नहीं है। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने स्कॉटलैंड के लोगों से वादा किया है कि अगर वो अलग होने के पक्ष में वोट देते हैं, तो वह उन्हें आजाद कर देगा। अलग होने की प्रRिया मार्च 2016 तक पूरी होगी।
 स्कॉटलैंड कौन सी करेंसी का उपयोग करेगा?
 इस पर विवाद है। लेकिन यह यूरो नहीं होगी। स्कॉटलैंड की सरकार चाहती है कि बैंक ऑफ इंग्लैंड से जुड़ी करेंसी पाउंड स्टलिर्ंग का इस्तेमाल करे। फिर भी ब्रिटेन ने चेतावनी दी है कि बाकी बचा यूके इसके लिए तैयार नहीं होगा। अगर स्कॉटलैंड अलग होगा तो उसे खुद की करेंसी बनानी होगी।
 कौन है आजादी कैम्पेन के पीछे
नेशनल स्कॉटिश पार्टी के नेता और स्कॉटलैंड के पहले मंत्री एलेक्स सेल्मंड पूरे स्कॉटलैंड में यस कैम्पेन चला रहे हैं। वे स्कॉटिश आजादी के सबसे पहले समर्थकों में से एक हैं। उन्हें 21वीं सदी का बहादुर दिल वाला व्यक्ति कहा जा रहा है। उन्होंने कहा कि अब स्कॉटलैंड के इतिहास को नए सिरे से बनाने की जरूरत है। सेल्मंड को एक बार उन्हीं की पार्टी से निलंबित किया जा चुका है। राजनेता से पहले वे इकोनॉमिस्ट के रूप में काम कर चुके हैं। कहा जाता था कि ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य कभी अस्ताचल की ओर नहीं जाता। वह भी कभी टूटने के कगार पर आ खड़ा हो सकता है, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन से जुड़ी इस मान्यता को झूठा साबित कर दिया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन का सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 13 सितंबर 2014

सौंदर्य का पसरता बाजार

डॉ. महेश परिमल
इस समय वॉलीवुड अभिनेत्रियां सुर्खियों में हैं। चकाचौंध भरी मायानगरी का खतरनाक सच यही है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं है। हर सुंदर चेहरा कहीं न कहीं मजबूर है। रुपया जहां पानी की तरह बहता है, पर सुंदरता की इस नदी में सब कुछ स्वाहा होने में भी वक्त नहीं लगता। मायानगरी का सच यही है कि जो दिख रहा है, वह सच नहीं है। जो सच है, उसे देखने की हिम्मत होनी चाहिए। सपने दिखाने वाली इस मायानगरी में हर रोज लाखों सपने टूटते हैं। वास्तव में यह नगरी सपनों तो तोड़ने वाली नगरी है। यहां के लोगों की आंखों में जो सपने पलते हैं, यह आवश्यक नहीं है कि वे पूरे भी होते हैं। अपनी आंखों में सुनहरे भविष्य का सपना लेकर यहां रोज ही हजारों लोग आते हैं। पर जिनका सपना सच होता है, वे उंगलियों में गिने जा सकते हैं। जिनके सपने पूरे नहीं होते, वे रोजी-रोटी के लिए कुछ और व्यवसाय से जुड़ जाते हैं। पर जो युवतियां होती हैं, उनके पास अधिक विकल्प नहीं होता और वे सेक्स रेकेट में शामिल हो जाती हैं। यह एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें कभी मंदी नहीं आती। हमेशा चलने वाला यह व्यवसाय विश्व का पहला व्यवसाय है। बरसों से चल रहा है, इस पर अंकुश भले ही लगाया जा सकता हो, पर इसे बंद कदापि नहीं किया जा सकता।
तेलुगु फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री श्वेता बसु को वेश्यावृत्ति के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। उनके साथ कई व्यापारी भी गिरफ्तार किए गए हैं। हैदराबाद पुलिस ने श्वेता पर एक बड़े सेक्स रैकेट में शामिल होने का आरोप लगाया है। 23 साल की श्वेता ने विशाल भारद्वाज की चर्चित फिल्म मकड़ी में बाल कलाकार की हैसियत से काम किया था। इस फिल्म के लिए उन्हें 2002 में सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। बाद में उन्होंने एक और चर्चित हिंदी फिल्म इकबाल में भी काम किया। इसके अलावा उन्होंने टीवी धारावाहिक कहानी घर-घर की और करिश्मा का करिश्मा में भी काम किया। श्वेता पिछले कुछ समय से हैदराबाद में रहकर तेलुगु फिल्मों में काम कर रही थीं। गिरफ्तारी के बाद श्वेता ने एक बयान जारी कर सफाई दी है कि उनके पास पैसे नहीं थे और परिवार को सहारा देने के लिए उन्होंने मजबूरी में इस पेशे में कदम रखा। श्वेता के मुताबिक उनके लिए सारे रास्ते बंद हो गए थे और वह असहाय थीं। उन्होंने कहा है कि मेरी जैसी स्थिति अन्य अभिनेत्रियों की भी है।  इस खबर ने सुनहरे पर्दे के पीछे छिपी वो काली हकीकत बयां कर दी जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते थे। ऐसा नहीं है कि यह पहला ऐसा मामला है जिसमें एक मशहूर अभिनेत्री को सेक्स रैकेट में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो। ऐसे कई किस्से और कहानियां मौजूद हैं जिसमें तमाम ऐसी अभिनेत्रियों को इस गंदे धंधे में पकड़ा गया है। हालांकि श्वेता बसु प्रसाद जैसी अभिनेत्री का इस धंधे में पकड़ा जाना हैरान और परेशान कर देने वाली खबर है, लेकिन इस चकाचौध भरी इस दुनिया के परदे के पीछे की काली हकीकत शायद यहीं है। इस सूची में सबसे पहला नाम आता है लोकप्रिय तमिल अभिनेत्री भुवनेश्वरी का। भुवनेश्वरी को वेश्यावृत्ति में उनकी कथित संलिप्तता के लिए दो अन्य युवा मॉडलों के साथ चेन्नई पुलिस ने गिरफ्तार किया था। अक्टूबर 2009 में अभिनेत्री भुवनेश्वरी के पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दी की इनके घर रात-रात में लोगों का आना जाना लगा रहता है। पुलिस ने नकली ग्राहक बनाकर उसके घर भेजा जहां कमरे में पहले से दो अन्य मॉडल मौजूद थीं। इसके बाद पुलिस ने छापा मारकर तीनों को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस जांच में पता चाला कि तमिल अभिनेत्री भुवनेश्वरी अपने इस सेक्स रैकेट में कॉलीवुड और टॉलीवुड की अभिनेत्रियों को शामिल कर रखा था। भुवनेश्वरी को बोल्ड और ग्लैमरस भूमिकाओं के लिए जाना जाता था। उसने कई फिल्में समेत धारावाहिकों में भी अभिनय किया है। तमिल की ही एक और अभिनेत्री ऐश अंसारी को जोधपुर पुलिस ने एस्कॉर्ट सर्विस की आड़ में एक सेक्स रैकेट को चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया। नवंबर 2013 में ऐश अंसारी को उसके तीन पुरुष साथियों के साथ गिरफ्तार किया गया।  पुलिस को जांच में पता चला कि अभिनेत्री ऐश अंसारी कथित तौर पर देश भर के प्रमुख शहरों में ग्राहकों के लिए सेक्स सेवाओं की पेशकश करती थी। इंटरनेट के माध्यम से उसका सेक्स कारोबार संचालित होता था। अभिनेत्री ऐश अंसारी शाहरुख खान के साथ भी काम कर चुकी हैं। फिल्म ‘ओम शांति ओम’ और ‘चलते-चलते’ में काम किया था। पुलिस ने एक गुप्त सूचना के आधार पर जोधपुर के होटल में ऐश और उसके पुरुष साथियों को गिरफ्तार कर लिया। उनकी पहचान श्रवण चौहान, सुनील और गौरव के रूप में की गई है, जो उसे ग्राहक लाकर देते थे और इसमें वह विदेशी मॉडलों का इस्तोमाल करती थी। कुछ दिन पहले एक फिल्म आई थी ‘लाइफ की तो लग गई’। इसी फिल्म से बॉलीवुड में करियर की शुरुआत करने वाली बंगाली अभिनेत्री मिष्टी मुखर्जी को मुंबई पुलिस ने जिस्मफरोशी के आरोप में पकड़ा। पुलिस के छापे में मिष्टी दिल्ली के एक फैशन डिजाइनर राकेश कटोरिया के साथ आपत्तिजनक हालत में पकड़ी गईं। ओशिवरा स्थित मीरा टावर की 15वीं मंजिल पर स्थित उनके आलीशान फ्लैट से अश्लील फिल्मों की करीब एक लाख सीडी और डीवीडी भी बरामद हुई थी। पुलिस ने मिष्टी के पिता और भाई को गिरफ्तार कर लिया, क्योकि मिष्टी के इस धंधे में उसका पूरा परिवार शामिल था। मीरा टावर में करीब 70 आईएएस और आईपीएस अफसरों के फ्लैट हैं। यह बिल्डिंग पहले भी हाई प्रोफाइल सेक्स रैकेट को लेकर सुर्खियों में रही है। पुलिस को सूचना मिली थी कि मीरा टावर के फ्लैट नंबर 1502 से सैक्स रैकेट का धंधा चलाया जा रहा है। जब पुलिस ने दबिश दी तो मिष्टी और कटोरिया आपत्तिजनक हालत में मिले। इसी कड़ी में एक और लोकप्रिय अभिनेत्री यमुना का नाम आता है जिसे जनवरी, 2011 में बंगलौर में विट्ठल माल्या रोड पर स्थित आईटीसी रॉयल गार्डेनिया में एक सेक्स रैकेट में उसकी कथित संलिप्तता के मामले में गिरफ्तार किया गया। अभिनेत्री यमुना के ग्राहक मुंबई और दिल्ली से यहां के फाइव स्टार होटल में आते थे और उसके साथ-साथ कई अन्य मॉजलों के साथ रातें रंगीन करते थे। केंद्रीय अपराध शाखा ने इस छापे में आठ लड़कियों और ग्राहक नंदकुमार को गिरफ्तार किया। पुलिस ने वहां से दो कारों को जब्त किया, जिसमें भारी मात्रा में रुपए भी थे। वह रूपए अभिनेत्री को भुगतान के लिए देना था।तेलुगू धारावाहिकों की मशहूर हिरोइन श्रवनी को अक्टूबर 2013 में एक हाइप्रोफाइल सेक्स रैकेट में रंगे हाथों पकड़ा गया था। विशेष आपरेशन टास्क फोर्स ने मकान नंबर 203 पर छापा मारा और श्रवनी को जयराज स्टील कंपनी के मालिक संजन कुमार गोयनका के साथ रंगे हाथों पकड़ा। टास्क फोर्स ने उनके पास से लगभग 2 लाख रूपए भी जब्त कर लिया। वहीं, तेलुगू अभिनेत्री सायरा बानो और ज्योति को एक सेक्स रैकेट में उनकी कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया गया था। 23 अगस्त 2010 को, हैदराबाद पुलिस ने स्प्रिंग स्वर्ग अपार्टमेंट में इस रैकेट का भंडाफोड़ किया।
ये तो हकीकत का एक पहलू है। इसके पीछे की सच्चई यही है कि मायानगरी में सपने दिखाने वाले लोग पहले अपने ग्राहक को नशे का आदी बनाते हैं। जब वह पूरी तरह से नशे की गिरफ्त में आ जाता है, तो उससे कई तरह के गलत काम करवाए जाते हैं, बदले में उसे मिलती है नशे की पुड़िया। जिसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहता है। नशे की इस पुड़िया में कुछ ऐसा होता है कि इंसान अपना विवेक खो बैठता है। उसे भले ही भोजन न मिले, चल जाएगा, पर नशे की पुड़िया के लिए वह कुछ भी कर सकता है। यहीं से शुरू होता है अपराध की दुनिया का पहला कदम। देश-विदेश के मॉडलिंग के लिए आने वाली युवतियां कुछ ही महीनों में कॉलगर्ल बन जाती हैं। इसका उन्हें पता ही नहीं चलता। हमारे देश में नशीले पदार्थो का सेवन सबसे अधिक मायानगरी में ही होता है। फैशन डिजाइनिंग और मॉडलिंग के धंधे में युवतियां आती तो हैं, पर उससे बाहर जा नहीं पातीं। उनके सौंदर्य का भरपूर उपयोग किया जाता है। बाद में उसे गंदी नाली का कीड़ा समझकर फेंक दिया जाता है। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। उसके पास शरीर बेचने और आत्महत्या के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता।
आज बदलते सामाजिक मूल्यों के कारण जीवन काफी संघर्षपूर्ण हो गया है। रोजी-रोटी की समस्या के आगे सारी समस्याएं गौण हो जाती हैं। इसके अलावा आजकल लोगों में एक नई तरह की भूख दिखाई देने लगी है। वह है कामयाबी की भूख। कामयाब होने के लिए आज हर कोई कुछ भी करने को तैयार है।  कामयाबी आज एक नशे की तरह हो गई है। जो कामयाब हो गया, वह उससे बड़ी कामयाबी की तलाश में निकल पड़ता है, पर जो नाकामयाब हुआ, वह कहीं का नहीं रह पाता। यह नाकामयाबी उसे कोई नया रास्ता नहीं दिखा पाती। उस समय कोई शिक्षा काम नहीं आती। नाकामयाबी अपना काम कर जाती है। इंसान निराश के गर्त में डूब जाता है। नाकामयाबी से कामयाबी को खोज पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए लोग केवल कामयाब होना जानते हैं, दूसरे लोग भी कामयाब लोगों को ही पसंद करते हैं। इसीलिए कामयाब के पास काम की कमी नहीं होती, पर नाकामयाब किंतु अपने क्षेत्र में महारत हासिल करने वाला इंसान फाके मस्ती में जीने को मजबूर है। आज समाज बदल रहा है। इसलिए जीने के तरीके भी बदल रहे हैं। पहले का कोई नुस्खा काम नहीं आ रहा है। यह एक ऐसी सच्चई है, जिसे चाहकर भी कोई स्वीकारना नहीं चाहता। इसलिए अब नए-नए तरह के अपराध बढ़ रहे हैं। सुंदर अभिनेत्रियों का सेक्स रेकेट में शामिल होना इस बात का परिचायक है कि सौंदर्य की हर जगह पूजा होती है। पर आज सौंदर्य का यह बाजार ऐसे पसर रहा है, जो कई तरह के अपराधों को जन्म दे रहा है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

फिर जेलों को भी मिलेगी राहत


http://epaper.jagran.com/epaper/12-sep-2014-262-National-Page-1.html
आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
पहली बार विचाराधीन कैदियों पर विचार
डॉ. महेश परिमल
हमारे देश का कानून कहता है कि हजार गुनाहगार भले ही छूट जाएं, पर एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। बरसों से ऐसा सुनते आ रहे है, पर सच्चई आज भी इससे कोसों दूर है। व्यक्ति निर्दोष है या दोषी, यही तय करने में बरसों बीत जाते हैं। देश में एक नहीं अनेक किस्से ऐसे हैं, जिसमें तय सजा से अधिक समय जेल में ही विचाराधीन कैदी के रूप गुजारने वाले कैदी आज भी जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। इससे एक तो सरकार पर उनके भोजनादि पर खर्च बढ़ रहा है, दूसरा जेलों में सीमा से अधिक कैदी आज भी नारकीय जीवन बिता रहे हैं। जेलों को लेकर कहा गया है कि यहां कैदियों को सुधारा जाता है। पर देश में जेलों की जो स्थिति है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि छोटा अपराधी यहां रहकर बड़ा अपराधी बनकर निकलता है। इस बार सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि अपने जुर्म की आधी सजा काट चुके करीब ढाई लाख कैदी अब रिहा होंगे। यह वे कैदी होंगे, जिनके मामले कोर्ट में चल रहे हैं। और अब तक उन पर फैसला नहीं आया है। ऐसे कैदियों की पहचान के लिए न्यायिक अधिकारियों को एक अक्टूबर से दो महीने तक हर हफ्ते जेल का दौरा करना होगा। वहीं पर निजी मुचलका लेकर उन्हें रिहा करने के आदेश जारी करने होंगे। इस समय देश की जेलों में करीब 3.81 लाख कैदी हैं। इनमें से 2.54 लाख विचाराधीन हैं। कानून कहता है कि फैसले के इंतजार में संभावित सजा में से आधी काट चुके कैदियों को रिहा किया जाए। लेकिन इसका पालन कभी-कभार ही होता है। भारतीय जेलों में मौजूद हर तीसरा कैदी ही अपने अपराध की सजा काट रहा है। बाकी तो जेल में रहकर फैसले का इंतजार कर रहे हैं। धीमी न्याय प्रणाली और कई साल तक चलने वाले मुकदमों की वजह से उनकी सजा पर फैसला हो पा रहा है। कई तो अपने अपराध के लिए निर्धारित से ज्यादा सजा काट चुके हैं। कई कैदियों के पास जमानत के पैसे नहीं है, इसलिए मजबूरी में जेल में रह रहे हैं।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि किसी अपराध के लिए किसी की धरपकड़ होती है। उसके बाद उसे जेल में डाल दिया जाता है। एक साल से अधिक वह जेल में ही रहता है। अदालत में मामला चलता है, तो उसे निर्दोष बरी कर दिया जाता है। प्रश्न यह उठता है कि एक निर्दोष को जेल भेजना क्या अपराध नहीं है? यदि अपराध है, तो इसके अपराधी को सजा क्यों नहीं मिलती? इस मामले में हम अपराधी आज की व्यवस्था को मान सकते हैं। आज अदालतों में लाखों मामले पेंडिंग पड़े हैं, जिसका निराकरण नहीं हो पा रहा है। तारीख पे तारीख पड़ती रहती है, पर समस्या वहीं के वहीं होती है। इसलिए लोग यही कहते हैं कि कोर्ट-कचहरी से भगवान ही बचाए। लोग इस दिशा में स्वयं ही आगे आकर अपना नुकसान कर अदालत में न जाने की हरसंभव कोशिश करते हैं। सभी को यही चिंता सताती है कि यदि अदालत गए, तो फिर केस लंबा चलेगा, शायद हमारे नाती-पोतों को ही फैसला सुनने का सौभाग्य मिलेगा। सरकार हमेशा देश की न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने का वादा करती है, फास्ट ट्रेक कोर्ट की बातें करती हैं, पर उनका यह वादा पूरा नहीं हो पाता। हमारे यहां की अदालतें अभी तक हाईटेक नहीं हो पाई हैं। दूसरी तरफ अदालतों में केस लगातार बढ़ रहे हैं। सब कुछ अंग्रेजों के जमाने का चल रहा है। बरसों बाद भी इसमें कोई तब्दीली नहीं देखी गई है। हमारे देश की न्याय प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए चाहिए इच्छा शक्ति, जिसका सरकार में पूरी तरह से अभाव है। न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने का काम अदालत ही कर सकती है। ऐसे कई काम हैं, जिसके लिए अदालत ही सरकार को सूचना देती है, उसके बाद ही सरकार जागती है।
विचाराधीन कैदियों के मामले में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने असंतोष व्यक्त किया है। जेल पर खर्च का भार बढ़ता ही जा रहा है। जेल को जितनी राशि आवंटित की जाती है, उससे कैदियों को पूरी तरह से भोजन नहीं मिल पाता। देश में कई जेले ऐसी हैं, जहां क्षमता से अधिक कैदी भरे पड़े हैं। इसलिए वहां कैदियों को बिगड़ने की संभावना ही अधिक दिखाई देती है। यदि जेल में कोई अच्छा जेलर आ गया, तो हालात कुछ सुधरते हैं, पर उनके तबादले के बाद हालात फिर पुराने र्ढे पर आ जाते हैं। वैसे भी किसी अधिकारी की नियुक्ति यदि जेलर के रूप में होती है, तो इसे वे एक पनिशमेंट ही मानते हैं। इसके अलावा यह भी देखने में आता है कि अदालतों में भी छुट्टियों का दौर होता है। कभी किसी ने इस पर गंभीरता से विचार किया है कि अदालतों में अवकाश क्यों होना चाहिए। अन्य किसी सरकारी कार्यालय में तो इतना लम्बा अवकाश नहीं होता। अवकाश तो शालाओं-कॉलेजों में होता है। वह भी विद्यार्थियों का। शिक्षक-प्राध्यापक तो फिर भी काम पर लगे ही रहते हैं। इसलिए अदालतों में अवकाश खत्म कर उसे दो या तीन पारियों में होना चाहिए। ताकि मामलों का निपटारा जल्द से जल्द हो। जहां लाखों मामले लंबित हों, वहां अवकाश के मजे कैसे लिए जा सकते हैं? अदालतों को सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक दो शिफ्टों में होना चाहिए। अधिक न्यायाधीशों एवं स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए। यदि सरकार की नीयत साफ हो, तो सब कुछ हो सकता है। यदि ऐसा हो, तो हमारे यहां विचाराधीन कैदियों की संख्या अपने आप ही कम हो ेजाएगी।
अभी हमारे देश में 3.81 लाख से अधिक कैदी हैं। इसमें से एक तिहाई यानी करीब 2.54 लाख कैदी विचाराधीन हैं। ये ऐसे कैदी हैं, जिसके खिलाफ मुकदमा चल रहा है। अब इन विचाराधीन कैदियों का भार बढ़ रहा है, इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है। हमेशा जब भी उनकी पेशी होती है, तो पुलिस उन्हें वाहनों से अदालत ले जाती है, फिर शाम को ले आती है। ऐसा कई बार होता है। इस दौरान कैदी भी कुछ अलग अनुभव करते हैं। उन्हें अपने परिजनों से मिलने का मौका मिल जाता है। दूसरी ओर जिन कैदियों पर गंभीर अपराध के मुकदमे चल रहे होते हैं, उनकी पेशी अब वीडियो कांफ्रेंसिंग से होने लगी है। इससे उन्हें अदालत लाने-ले जाने का खर्च अवश्य कम हुआ है। फिर भी यह सुविधा अभी तक हर जेल तक नहीं पहुंच पाई है। इस दिशा में अभी तेजी नहीं आई है। देश की न्याय प्रक्रिया में तेजी से सुधार लाने के लिए बहुत से काम करने होंगे। अब देश में नई सरकार आई है, बहुमत वाली सरकार बहुत कुछ ऐसे कदम इस दिशा में उठा सकती है, जिससे न्याय प्रक्रिया में तेजी आए।
डॉ. महेश परिमल


गुरुवार, 11 सितंबर 2014

खाते खुल जाने से क्रांति नहीं हो सकती

डॉ. महेश परिमल
प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत एक ही दिन में डेढ़ करोड़ खाते खुल गए। इसे एक क्रांति का नाम दिया जा रहा है। पर क्या एक विकासशील देश के लिए यह शर्म की बात नहीं है कि उस देश में अभी तक साढ़े सात करोड़ लोगों के बैंक खाते ही नहीं हैं। वैसे यह सच है कि करोड़ों बैंक खाते खुल जाने से रातों-रात गरीबी दूर होने वाली नहीं है। कोई चमत्कार नहीं होने वाला। वैसे भी हमारे देश में बैंकों की कमी नहीं है, पर उनकी शाखाओं की अवश्य बेहद कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बैंकों की शाखाएं नहीं पहुंच पाई हैं। वैसे शहरों में जो भी बैंक हैं, उन्हें मालदार खाताधारी चाहिए। जिसके पास लाखों रुपए हो, जिसका पूरा लेन-देन बैंक के माध्यम से हो, वही ग्राहक बैंक के लिए लाभदायी हो। अब गरीब के खाते खुल भी गए, तो उससे जो लेन-देन होगा, वह बहुत ही कम राशि का होगा। इससे बैंक ही इस पर दिलचस्पी नहीं लेगी कि किसी गरीब का खाता खुले। प्रधानमंत्री की जन-धन योजना के तहत खाते तो खुल गए, पर अब उससे व्यवहार किस तरह होगा। खाता खुलने का आशय यही है कि उसमें राशि जमा हो और उसकी निकासी भी। गरीब के पास राशि ही नहीं होगी, तो खाते खुल जाने का क्या मतलब?
आज शहरी क्षेत्रों में बैंकों की कमी नहीं है, फिर भी एटीएम की कमी बरकरार है। कितनी ही सरकारी बैंके ऐसी हैं, जो आज भी संकुचित मानसिकता से ग्रस्त है। कोई गरीब बैंक में आए, ऐसा वह चाहती ही नहीं। कोई अमीर बैंक में पहुंचता है, तो बैंककर्मियों की लार टपकती है। गरीब यदि बैंक जाकर राशि निकालता भी चाहता है, तो कैशियर का व्यवहार ऐसा होता है, जैसे वह अपनी जेब से राशि दे रहा हो। इसके लिए पहले बैंकों की मानसिकता को बदलना आवश्यक है। आज एक विद्यार्थी का खाता बहुत ही जल्द खुल जाता है। क्योंकि उसके पास अपनी पहचान के कई साधन हैं। पर गाँव के किसी किसान को खाता खुलवाने में इसलिए परेशानी होती है कि उसके पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं होता, जिससे वह अपनी पहचान बता सके। प्रधानमंत्री ने गरीबों की परेशानी को समझते हुए गरीबों का बैंक खाता खुलवाने की दिशा में एक कारगर कदम उठाया है। इसे क्रांति नहीं कहा जा सकता। क्योंकि खाते इसलिए नहीं खुले, क्योंकि गरीबों के पास गरीबी के अलावा कुछ है ही नहीं। पर खाता खुल जाने से उन सभी का बीमा भी हो गया, अब दुर्घटना होने पर खाताधारी को 30 हजार रुपए बीमे के मिलेंगे। अनजाने में ही सही, उनके परिवार को कुछ सहायता तो मिल ही जाएगी।
 कई लोगों के बैंक खाते नहीं हैं, उसके कई कारण हो सकते हैं। बैंकिंग व्यवहार के लिए जितनी राशि की आवश्यकता होती है, उतनी राशि ही लोगों के पास नहीं होती। कई लोग बैंक खाते खुलवाने की प्रक्रिया से ही अनजान हैं। इसके अलावा बैंकों को केवल उन्हीं खाताधारकों से लाभ होता है, जो बड़ी राशि का व्यवहार करते हैं। अब बैंकिंग के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा दिखने लगी है, इसलिए खाता खुलवाना आसान हो गया है। आज भी कई सहकारी बैंकों में खाता खुलवाना एक परेशानी से भरा काम है। क्योंकि ये बार-बार एक ही दस्तावेज की मांग करती हैं। कई बार तो बैंक में दिया गया दस्तावेज दूसरी बैंक स्वीकार ही नहीं करती। इससे उपभोक्ता को आश्चर्य होता है कि एक बैंक के लिए उनके दस्तावेज मान्य हैं, तो दूसरी बंक लिए वह अमान्य कैसे हो सकते हैं? सरकारी बैंकों के कर्मचारियों का व्यवहार भी कई बार ग्राहकों के लिए उचित नहीं होता। एक तरफ ग्रहकों की लंबी लाइन लगी होती है, दूसरी तरफ कर्मचारी कंप्यूटर पर गेम खेलता होता है। ऐसे दृश्य अक्सर दिखाई देते हैं। जैसे ही भीड़ बढ़ती है, वैसे ही कर्मचारी अपनी जगह से गायब हो जाता है। कई बैंकों के कर्मचारी कंप्यूटर पर भी इतने धीरे-धीरे काम करते हैं, मानों वे ग्राहक पर अहसान कर रहे हों। अक्सर बैंकों में ग्राहक-कर्मचारियों में विवाद हो जाता है। निजी क्षेत्र की बैंकों ने अभी तक ग्राहकों का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाई हैं। फिर भी सरकारी बैंकों से सबक लेते हुए वे ग्राहकों को उचित सुविधाएं  देकर तुरंत काम करने की योजना पर काम कर रही हैं। बैंकों द्वारा लोन आदि दिए जाने पर उनके विज्ञापनों में कुछ और बात होती है, लेकिन जब लोन लेने जाओ, तो कई गुप्त शुल्क लिए जाते हैं, जिसकी जानकारी ग्राहकों को नहीं होती। ग्राहकों की सुरक्षा का लाभ देने की घोषणाएं करने वाली बैंकें अपनी सुरक्षा भी नहीं कर पा रही हैं। ग्राहकों द्वारा दिए गए नोट को मशीन से देखकर असली-नकली की पहचान करती हैं, पर उन्हीं के एटीएम से नकली नोट निकलने पर वे ग्राहकों की बात पर विश्वास नहीं करती। ऐसी स्थिति में ग्राहक का बैंक के प्रति विश्वास टूट जाता है। रिजर्व बैंक के बार-बार कड़े निर्देश से बैंके अब ग्राहकों को अधिक से अधिक सुविधाएं देने का वादा कर रही हैं। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री की जन-धन योजना द्वारा बैंकिंग सेक्टर में लोगों के लिए सच्चे अर्थ में उपयोगी साबित होगी, ऐसा कहा जा सकता है। इसे एक छोटी किंतु अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है।
बैंक में खाताधारी होना सामान्य व्यक्ति के लिए गर्व की बात भी हो सकती है। कई बार पासबुक भी बड़े काम आती है। छोटी-छोटी बचत यदि बैंक में जमा होने लगे, तो बचत को प्रोत्साहन मिलता है। आजकल कर्मचारियों का वेतन सीधे बैंकों में ही जमा होने लगा है, इससे व्यक्ति उतनी ही राशि निकालता है, जितनी उसे आवश्यकता होती है। फालतू खचरे से एक तरह से लगाम ही कस जाती है। देश का अर्थतंत्र छोटी-छोटी बचत से सबल होता है। सन 2008 में जब वैश्विक मंदी दिखाई दी थी, तो भारत को इसलिए फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि देश का अधिकांश वर्ग बचत करना जानता है। अब बैंक खातों से बचत का क्षेत्र बढ़ेगा। इसमें कोई शक नहीं। अब खाताधारी को एक लाख का दुर्घटना बीमा और 30 हजार जीवन बीमा के अलावा 5 हजार के ओव्हरड्राफ्ट की भी सुविधा मिलेगी। इससे लोगों में आशा का संचार हुआ है। अब किसान भी खाताधारी बनकर बैंकों से व्यवहार कर सकेंगे। जन-धन योजना को लागू करते समय कई मुद्दों पर ध्यान दिया गया है। अब तो केवल एक ही पहचान पत्र से खाता खुल जाएगा। खाते में लघुतम राशि रखने की चिंता नहीं रहेगी। बैंक में खाता खुल जाने से देश में क्रांति नहीं होने वाली, पर यह भी सच है कि बैंक में खाता खुल जाने के बाद क्रांति को रोका नहीं जा सकता।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 6 सितंबर 2014

जहर परोसती पाठ्यपुस्तकें

डॉ. महेश परिमल
इन दिनों पाठ्य पुस्तकों में कुछ ऐसा लिखा जा रहा है, जिससे बच्चे दिग्भ्रमित हो रहे हैं। उन्हें पालकों ने अब तो जो भी बताया, पाठ्य पुस्तकें उसे गलत बता रही हैं। बालपन में इस तरह की दिग्भ्रमण की स्थिति उनके मानसिक विकास को प्रभावित करती है। सरकार बदलने के साथ ही पाठ्य पुस्तकों में भी बदलाव लाया जाता है। पुस्तकों में यह बताया जाता है कि किन विद्वानों ने इसे तैयार करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया है। पर किताबें जब बाहर आती हैं, तब ऐसा नहीं लगता है कि ये किताबें विद्वानों की नजर से भी गुजरी हैं। किताबों का लेखन एक अलग ही विषय है, पर जब उसे बच्चों को पढ़ाया जाता है, तब उसमें निहित गलत जानकारी बच्चों के बालसुलभ मन में विकृतियां पैदा करती हैं। हाल ही में यह खबर आई है कि पश्चिम बंगाल में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है कि खुदीराम बोस आतंकवादी थे। बंगाल की पावन भूमि, जिसे रत्न प्रसविनी भी कहा जा सकता है, वहां के क्रांतिकारी को यदि आतंकवादी बताया जाए, तो यह पूरी बंगाल की विद्वता पर सवाल खड़े करता है। विद्वानों की भूमि से इस तरह का संदेश जा रहा है, यह देश के लिए खतरनाक है, साथ ही बच्चों के भविष्य के लिए उउसे भी अधिक खतरनाक है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूरे भारत में पाठ्यपुस्तकों की संरचना विदेशी एजेंसियों की गाइड लाइन के अनुसार तैयार होती है। अंग्रेज भारत से चले गए, पर हमारी शिक्षा आज भी उनकी गुलाम है। इसका उदाहरण यही है कि हमने आज तक ऐसी शिक्षा नीति ही तैयार नहीं की, जिससे युवा आत्मनिर्भर बनें। यही कारण है कि आज नेशनल काउंसिल फॉर एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) नाम की सरकारी एजेंसी द्वारा पहली से बारहवीं कक्षा के लिए जो पाठ्य पुस्तकें तैयार की गई हैं, उसमें यह पढ़ाया जा रहा है:-
-भगवान महावीर 12 वर्ष तक जंगल में भटकते रहे, इस दौरान उन्होंने कभी स्नान भी नहीं किया और न ही अपने कपड़े बदले।
-सिखों के गुरु तेगबहादुर आतंकवादी थे और लूटपाट करते थे।
-श्रीराम और श्रीकृष्ण हिंदुओं की कथाओं के हीरो हैं, इनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
-सिखों के गुरु गोविंद सिंह मुगलों के दरबार में मुजरा करते थे।
-औरंगजेब जिंदाबाबा (पीर) था।
-लोकमान्य तिलक, बिपीन चंद्र पॉल, वीर सावकरकर, लाला लाजपतराय और अरविंद घोष चरमपंथी नेता थे।
-मां दुर्गा तामसिक प्रवृत्ति की देवी थी, वे शराब के नशे में चूर रहती थी, इसलिए उनकी आंखें हमेशा रक्तरंजित रहती थीं।
-प्राचीन काल में भारत की स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था, वे धार्मिक क्रियाओं में भी शामिल नहीं हो सकती थीं।
- आर्य भारत के मूल निवासी नहीं, पर मुस्लिम और ईसाई भी बाहर से आए हैं।
ये सभी बातें कपोल-कल्पित हैं और वह जैन, सिख और वैदिक धर्म के बाद भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रांतिकारियों के लिए भी अपमानजनक है। प्रसिद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय में आज की तारीख में भी विद्यार्थियों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें निम्नलिखित विकृत और कपोल-कल्पित बातों को भी पढ़ाया जाता है:-
-गांधीजी का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का कोई मनोवैज्ञानिक आधार नहीं था। रामराज्य के रूप में स्वराज्य की उनकी व्याख्या भारत के मुस्लिमों को उत्साहित नहीं कर पाई।
-सरदार पटेल आरएसएस का साथ देकर सांप्रदायिकता को बढ़ाने में शर्मनाक भूमिका निभाई थी।
-हनुमान एक छोटा सा वानर था, वह कामुक व्यक्ति था, लंका के घरों का शयन कक्ष देखा करता था।
- ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्री का स्नान कुत्ते के समान है।
-स्त्रियों का एक वस्तु समझा जाता था, उसे खरीदा जा सकता था और बेचा भी जा सकता था।
इस प्रकार की विकृत मानसिकता को दर्शाने वाले तथ्य असावधानीवश पाठ्य पुस्तकों में शामिल नहीं किए गए हैं, इसे जानबूझकर पाठ्य पुस्तकों में शामिल गया है। ताकि देश का भविष्य हमारे क्रांतिकारी नेताओं, महापुरुषों आदि के बारे में अपने विचार हल्के रखें। इससे वे अपने धर्म-संस्कृति से विमुख होकर दूसरे धर्मो की तरफ आकर्षित हो। मेकाले का भी यही उद्देश्य था कि उनकी पद्धति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने वाले हमेशा अंग्रेजों के गुलाम बनें रहें। वह सब कुछ इस तरह के विकृत तथ्यों वाली किताबों के माध्यम से ही हो सकता है। देश में जब अंग्रेजों का राज था, तब हमारी संस्कृति में सतियों की पूजा करना और बाल विवाह आम बात थी। इसके खिलाफ राजा राममोहन राय ने एक अभियान चलाया। उनके इसी अभियान के कारण ही लॉर्ड बेंटिक ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया। आज शालाओं में पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसमें राजा राममोहन राय की प्रशंसा की जा रही है, पर उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने की कोशिश् की थी, यह नहीं पढ़ाया जाता।
वेस्ट बंगाल में आठवीं कक्षा के बच्चे देश के लिए जान देने वाले नौजवानों को आतंकवादियों के रूप में देख रहे है। दरअसल आठवीं कक्षा की इतिहास की किताबों में खुदीराम बोस, प्रफुल्ला चाकी और जतींद्र मुखर्जी जैसे अमर शहीदों को रिवॉल्यूश्नरी टेररिज्म चैप्टर के अंदर जगह मिली है। अगर रिवॉल्यूश्नरी टेरेरिज्म पाठ को हिंदी में अनुवाद किया जाए तो यह क्रांतिकारी आतंकवाद कहलाता है. क्या कहना है इतिहासकारों का। पश्चिम बंगाल सरकार के इस कदम की देश के प्रमुख इतिहासकारों ने घोर भत्र्सना की है। इतिहासकारों के अनुसार यह तथ्य ब्रिटिश शासन के हिंदुस्तानी Rांतिकारियों के प्रति रवैए को मान्यता देता है. गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन ने हिंदुस्तानी देशभक्तों को आतंकवादी कहा था. इसके साथ ही इतिहासकारों ने कहा है कि अगर खुदीराम बोस एक क्रांतिकारी आतंकवादी हैं तो राज्य सरकार सुभाषचंद्र बोस को सरकार किस शब्द से पुकारेंगे? इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को पाठ्यपुस्तकों में शब्दों का चुनाव काफी देख समझ कर करना चाहिए. यहां पर यह बात भी देखने लायक है कि ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के 10 महीने के अंदर ही हायर सेकेंडरी एजुकेशन के पाठ्य क्रम से कार्ल मार्क्‍स से संबंधित पाठ हटवा दिए थे। समझ में नहीं आता कि बात-बात पर ब्रेंकिंग न्यूज देने वाला मीडिया इस बात को क्यों नही उठाता? इन विकृत तथ्यों का विरोध होना चाहिए। जन आंदोलन होने चाहिए, तभी हमारी भावी पीढ़ी बच पाएगी। अभी गुजरात की 42 हजार शालाओं में दीनानाथ बत्रा की 7 पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। जब इन किताबों की खरीदी हुई, तो कई लोगों को झटका लगा। वे यह प्रचार करने लगे कि यदि विद्यार्थियों ने इन किताबों को पढ़ा, तो वे अंधश्रद्धा और वहम के कायल हो जाएंगे। वास्तविकता यह है कि दीनानाथ बत्रा की किताबें भारतीय संस्कृति कितनी भव्य और महान है, बच्चे इसे पढ़कर अपने जीवन में किस तरह का बोधपाठ ले सकते हैं, इसका वर्णन बहुत ही सरल भाषा में किया गया है।
1947 में जब देश आजाद हुआ, तब से लेकर अब तक शालाओं में अंग्रेजों और उनके चमचों द्वारा तैयार किया गया इतिहास ही पढ़ाया गया है। यह इतिहास अनेक विकृतियों से भरा पड़ा है। कई बार पाठ्य पुस्तकों के गलत और विकृत तथ्य हमारे सामने आते हैं, पर कुछ दिनों बाद सब कुछ भूला दिया जाता है। आखिर इस दिशा में मीडिया सचेत क्यों नहीं होता। यह भी एक तरह का अपराध ही है, जो बच्चों में देश के प्रति नफरत के बीज बो रहा है। यह सब कुछ एक सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। इस पर अंकुश आवश्यक है। अन्यथा संभव है बच्चों के मन में बचपन से ही देश के प्रति दुराग्रह फैल जाए और वह अपनी मातृभूमि को ही हर बात पर कोसने लगे?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

भारत-जापान, दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है

डॉ. महेश परिमल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जापान दौरे से कई आशाएं जागी हैं। भारत-जापान केवल व्यापार के ही क्षेत्र में आगे आएं, ऐसा कोई नहीं चाहता, दोनों देश कई क्षेत्रों में आकर साझा करें, ऐसी इच्छा सबकी है। दोनों ही देश को एक-दूसरे की आवश्यकता है। विश्व राजनीति के पटल पर दोनों देश अपना प्रभुत्व खड़ा करना चाहते हैं। भारत-जापान के बीच कई समझौते हुए। इसमें सबसे बड़ा समझौता बुलेट ट्रेन को लेकर है। भारत में बुलेट ट्रेन के लिए जापान मदद करेगा। इसके अलावा जापान अगले 5 वर्षो में भारत में 2.10 लाख करोड़ का निवेश करेगा। इसके अलावा जापानी तकनीक का उपयोग भारत में अधिक से अधिक कर उसे रोजगारोन्मुख बनाने की दिशा में भी समझौता हुआ है। इस समय भारत का दुश्मन नम्बर वन पाकिस्तान एक तरह से गृहयुद्ध को झेल रहा है। वहां राजनीतिक स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है। ऐसे में प्रधानमंत्री ने जापान की यात्रा कर पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। वैश्विक अर्थतंत्र में इस समय दो मुद्दों की चर्चा है। एक है एबीनोमिक्स और दूसरा है मोदीनोमिक्स। एबीनोमिक्स जापान को मंदी से बाहर लाने की इच्छा रखते हैं, वहीं मोदीनोमिक्स 50 मिलीयन नौकरियों के अवसर को पाना चाहते हैं। इससे भारत का अर्थतंत्र मजबूत होगा। मोदी जापान की स्मार्ट सिटी से काफी प्रभावित दिखे, वे भारत में भी 100 स्मार्ट सिटी तैयार करना चाहते हैं।
जापान में 2000 मंदिरों वाले शहर क्योटो शहर की तुलना भारत के काशी से केवल मंदिरों की संख्या के आधार पर ही की जा सकती है। परंतु स्वच्छता की दृष्टि से दोनों शहरों की तुलना करना मूर्खता ही होगी। हमारे लिए गंगा अवश्य एक पवित्र पावन नदी हो सकती है। पर उसे प्रदूषित करने में हम ही सबसे आगे हैं। हमारे देश में नदियों की भले ही पूजा होती हो, पर उसमें गंदगी डालने में भी हम सबसे आगे हैं। क्योटो के लिए यह बात एकदम अलग है। वहां के निवासी नदियों की पूजा भले ही न करें, पर नदियों को स्वच्छ रखना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। क्योटो शहर समुद्र के किनारे है। वहां समुद्र के किनारे की स्वच्छता देखकर ही हमें यह आभास हो जाता है कि पर्यावरण के संरक्षण में वे कितने आगे हैं। वहां मंदिर हैं, इसलिए वह शकर पवित्र है, ऐसी बात नहीं है, पवित्रता जापानियों की मूल संस्कृति में है। वे देश के प्रति निष्ठावान हैं। चूंकि वे सफाईपसंद हैं, इसलिए क्योटो शहर साफ-सुथरा है। यही मानसिकता यदि काशी के लोगों में भी आ जाए, तो काशी को साफ-सुथरा होने में समय नहीं लगेगा। आज जापान में दोनों प्रधानमंत्रियों की दोस्ती की ही चर्चा है।
नरेंद्र मोदी ने जब जापानी प्रधानमंत्री को पहले जापानी भाषा में ट्वीट किया, तो इसका जवाब जापानी प्रधानमंत्री ने तुरंत दिया। सोशल मीडिया पर इसकी खूब चर्चा हुई। जापान के प्रधानमंत्री को ट्वीटर पर लाखों लोग फालो करते हैं, पर वे स्वयं नरेंद्र मोदी को फालो करते हैं। नरेंद्र मोदी का मूलमंत्र भारत को आर्थिक रूप से सक्षम और समृद्ध बनाना है। जापान से वह टेक्नालॉजी लेकर भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप करने और अधिक बिजली उत्पन्न करने के प्लान में मोदी व्यस्त हैं। मोदी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी विजय के साथ विदेश नीति का कोई सरोकार नहीं है, परंतु उन्होंने भारतीयों से जो अच्छे दिनों का वादा किया है,उसे वे निभाना चाहते हैं। जापान के प्रधानमंत्री भी मोदी की मुलाकाता का मर्म समझते हैं। परंतु चीनअमेरिका के लिए भारत-जापान के बढ़ते संबंध चिंता का विषय हैं। भारत में सबसे अधिक निवेश करने वालों में जापान चौथे नम्बर पर है। ¨कतु यह निवेश पिछले कुछ वर्षो में घटा है। जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल को-ऑपरेशन ने ऐसे संकेत दिए हैं कि जापानी निवेशकों को भारत में दिलचस्पी है। इधर रिजर्व बैंक की 2012-13 की रिपोर्ट बताती है कि जापान का भारत में निवेश पहले दो अरब डॉलर था, जो घटकर 1.3 डॉलर रह गया है। मोदी इंफ्रास्ट्रक्चर मैनेजमेंट के लिए निवेश चाहते हैं, जापान इंटरनेशनल को-ऑपरेशन एजेंसी के प्रमुख अकीहीको तनाका के अनुसार जापान भारत को चीन की तरह विकसित करने में मदद कर सकता है। गुजरात के द्वार जिस तरह से निवेशकों के लिए खुला रखा था, उसी तरह भारत के द्वार भी वे निवेशकों के लिए खुला रखना चाहते हैं।
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब पहली बार 2007 में जापान की यात्रा पर गए थे। तब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो ऐब ही थे। तब मोदी अपने बिजनेस मिशन पर थे। वहां उन्होंने लोगों को खूब प्रभावित किया। इसके बाद जब वे 2012 में जापान गए, तब वहां सत्ता पलट चुकी थी। इसके बाद भी उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री एब से भेंट की थी, ऐब ने भी उनका जोशीला स्वागत किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री योशीहीको नोडा ने भी मोदी का जोश पूर्ण स्वागत किया था। गुजरात के विकास से जापानी प्रधानमंत्री भी काफी प्रभावित हुए थे। दिसम्बर 2012 में ऐब फिर सत्ता में आ गए, तो सबसे पहले उन्हें नरेंद्र मोदी का ही अभिनंदन मिला। ऐब ने भी इसका तुरंत प्रत्युत्तर दिया था। मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं थे, तब भी वे संबंधों को बनाए रखने में विश्वास रखते थे, अभी भी वे ऐसा ही करते हैं। अभी जब वे जापान में बसे भारतीयों से मिले, तब उसमें से कई गुजराती ऐस थे, जिन्हें वे नाम से जानते थे और उन्होंने उन्हें उनके नाम से पुकारा, तो सभी को अच्छा लगा। दोनों ही प्रधानमंत्रियों में एक समानता है कि दोनों ही स्पष्ट बहुमत से अपनी सरकार बनाई है। जापान अब बदल रहा है। लोग अंग्रेजी बोलने लगे हैं। एयरपोर्ट में भी अंग्रेजी में एनाउंसमेंट होने लगा है। अब उनके मुंह से ‘हेलो’ भी निकल जाता है। भारत-जापान के बीच व्यापारिक संबंधों में अब तक जो सुस्ती थी, अब उसमें नई ऊर्जा आएगी, यह प्रधानमंत्री की जापान यात्रा से स्पष्ट हो गया है।
जापान के बाद नरेंद्र मोदी की नजर अमेरिका पर है। मोदी को मित्र बनाने की कला से देश को काफी लाभ हो सकता है। काशी को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए क्योटो के साथ हुए एमओयू ने भी देश का ध्यान खींचा है। एक तरफ गंगा के शुद्धिकरण की योजना चल रही है, तो दूसरी तरफ काशी के विकास को नया आयाम जापान से मिलेगा। एमओयू के अमलीकरण में काफी समय लगता है, परंतु उस दिशा में कदम बढ़ाए गए हैं, यह प्रशंसनीय है। यह भेंट यह दर्शाती है कि अब तक अमेरिका भारत की नाक दबाता रहा है, लेकिन वह भी सचेत हो जाएगा। दो विकासशील देश किस तरह से विकसित देशों को टक्कर दे सकते हैं, यह दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात के बाद स्पष्ट हो गया है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 3 सितंबर 2014

विरोध, विरोधियों को भी अच्छा लगना चाहिए

डॉ. महेश परिमल
भारतीय राजनीति अब नई करवट ले रही है। अभी तक ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के सामने ही प्रदेश के मुख्यमंत्री की हूटिंग हुई हो। यह बात समझने की है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस प्रवृत्ति पर लगाम नहीं कसी गई, तो स्थिति भयावह हो सकती है। ऐसा हो रहा है, यह कांग्रेस-भाजपा दोनों के लिए शोचनीय है। कांग्रेस यदि इसे अपना अपमान मान रही है, तो उसे सचेत हो जाना चाहिए कि ऐसा होना नागरिकों के आक्रोश का ही एक भाग है। कांग्रेस को इससे अधिक यह सोचने की आवश्यता है कि उसकी पराजय के कारण क्या हैं? यदि वह ऐसा नहीं सोचती, तो यह उसकी भूल होगी। भाजपा के लिए भी यह एक खतरे की घंटी है कि विशाल बहुमत पाकर वह मदमस्त हो गई है। यही अहंकार उसे रसातल में भी ले जा सकता है। आश्चर्य की बात यह है कि आखिर यह सब उन्हीं राज्यों में ही क्यों हो रहा है, जहां निकट भविष्य में आम चुनाव हैं। शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कई नेताओं को रास नहीं आ रही है। कई नेता ईष्र्या की आग में तप रहे हैं। इस कारण भाजपा की छवि बिगड़ रही है। राजनीति में शुद्धि लाने के लिए इस तरह की हरकतें बंद होनी चाहिए।
भारतीय राजनीति में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं का बहिष्कार करने का संकल्प गैरभाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने किया है। इसके पीछे उनके कारण भी ठोस हैं। एक नहीं, पर चार गैरभाजपाशासित राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में बुलाया गया था। पर श्रोता उन्हें सुनने के बजाए नरेंद्र मोदी को सुनना चाहते थे। इससे कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को लगा कि भाजपा कार्यकर्ता उनका अपमान कर रहे हैं। प्रधानमंत्री की बढ़ती लोकप्रियता से केवले कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा नेताओं को भी ईष्र्या होने लगी है। देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह घातक है। अमूमन ऐसा होता है कि देश के प्रधानमंत्री जब भी घोषित रूप से सरकारी समारोह में शामिल होते हैं, तो राज्य के मुख्यमंत्री को भी आमंत्रित किया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्री को भी बोलने का मौका दिया जाता है। इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी समारोह में प्रधानमंत्री हों और मुख्यमंत्री की हूटिंग की गई हो। यह सब प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के बढ़ने के कारण हो रहा है।
यह तय है कि जिस कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी हों, उस कार्यक्रम में लोग किसी अन्य नेता को सुनना ही पसंद नहीं करते। इसका उदाहरण भोपाल में देखने को मिला था। जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया गया, इसके तुरंत बाद ही 25 सितम्बर 2013 को उनकी एक विशाल आमसभा भोपाल में आयोजित की गई थी। इस समारोह में लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी उपस्थित थे। लेकिन जनता केवल नरेंद्र मोदी को ही सुनना चाहती थी। जनता के आक्रोश को देखते हुए अन्य नेताओं ने अपना भाषण छोटा कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को एक बार नहीं, बल्कि तीन बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ समारोह में उपस्थित रहे। पहली बार जब प्रधानमंत्री ने वैष्णो देवी के लिए रेल्वे लाइन के उद्घाटन के अवसर पर वे साथ-साथ थे। उस दौरान उमर अब्दुला को लोगों ने पूरा सुना। अपने भाषण के दौरान उन्होंने इस रेल्वे लाइन का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को देते हुए नरेंद्र मोदी को एक तरह से उत्तेजित करने की कोशिश की। इसके बाद कारगिल के जिस समारोह में नरेंद्र मोदी और उमर अब्दुल्ला एक मंच पर उपस्थित थे। इस दौरान लोगों ने उमर अब्दुल्ला की हूटिंग की, वे नरेंद्र मोदी को सुनना चाहते थे।
हरियाणा और महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में सत्तारुढ़ कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। चुनाव के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान और हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को पद से हटाने की माँग ने जोर पकड़ा था। पर वे दोनों ही बच गए। अगले विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की हार तय मानी जा रही है। इस समय दोनों ही मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता का ग्राफ काफी नीचे है। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पूरे उफान पर है। इस कारण कांग्रेस के नेताओं को मोदी की लोकप्रियता से ईष्र्या होना लाजिमी है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री के सामने ही यदि मुख्यमंत्रियों के खिलाफ हूटिंग होती है, तो इससे मुख्यमंत्रियों की पीड़ा को समझा जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हरियाणा से 166 किलोमीटर दूर कैथल से राजस्थान की सीमा तक जाते हुए नेशनल हाइवे का शिलान्यास के लिए पहुंचे थे। इसमें भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी उपस्थित थे। आयोजकों ने नरेंद्र मोदी के भाषण के पहले हुड्डा का भाषण रखा था। पर जनसैलाब तो केवल नरेंद्र मोदी को ही सुनने आया था। इसलिए हुड्डा के खिलाफ नारेबाजी हो गई। हरियाणा के मुख्यमंत्री की तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान को भी 16 अगस्त को प्रधानमंत्री की रायगढ़ और सोलापुर में आयोजित सभाओं में अपमानित होने का कड़वा घूंट पीना पड़ा था। इसलिए नागपुर में 21 अगस्त को आयोजित कार्यक्रम में वे शामिल नहीं हुए। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन तो कह चुके हैं कि
मैं प्रधानमंत्री के साथ बैठा था, किसी बीजेपी नेता के साथ नहीं। सरकारी कार्यक्रम राजनीितक ताकत दिखाने की जगह नहीं है। आपको ताकत ही दिखाना है, तो चुनावी मैदान में आइए, हम तैयार हैं। देश में एक गलत परंपरा शुरू हो रही है। ये खतरनाक संकेत हैं। यह भी सच है कि जब सोरेन के खिलाफ नारेबाजी हो रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों को शांत रहने का इशारा भी किया था। जनसमूह को संयम रखने के लिए भी कहा, पर इसका किसी पर कोई असर नहीं हुआ। इस घटना से मोदी प्रशंसक भले ही खुश हो जाएं, पर उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अपने राजनीतिक विरोधियों को मात देने का यह कोई बेहतर तरीका नहीं है। इस कारण भाजपा और मोदी दोनों की ही छवि  बिगड़ती है। एक तरफ प्रधानमंत्री राजनीति के गलियारों से गंदगी दूर करने का संकल्प लेते हैं, तो दूसरी तरफ उनके ही सामने इस तरह की नारेबाजी हो रही है। विरोधियों का अपमान करना भी एक तरह की राजनीतिक गंदगी ही है। राजनीति में यदि शुद्धि लानी है, तो ऐसी हरकतों को तुरंत बंद किया जाना चाहिए। इससे एकबारगी प्रशंसक खुश हो जाएं, पर यह खुशी अधिक समय तक नहीं रह सकती। क्योंकि इस खुशी में कहीं न कहीं विरोधियों का लताड़ने का भाव है। विरोध तो ऐसा होना चाहिए कि विरोधियों को भी अच्छा लगे।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 1 सितंबर 2014

क्‍या जन-धन योजना को एक क्रांति कहें



 
आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

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