गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

घर को लगी है आग घर के चिरागों से


डॉ. महेश परिमल
देश में एक के बाद एक धडाधड बम विस्फोट हो रहे हैं। कभी बेंगलुरु, कभी अमदाबाद कभी दिल्ली और कभी जयपुर। बम विस्फोट अब देश का स्थायी भाव बन गया है। एक विस्फोट की स्याही सूखने भी नहीं पाती कि दूसरा विस्फोट देश की सुरक्षा पर एक और सवालिया निश ान छोड़ जाता है।देश के नेता भले ही यह कहते रहे कि यह पडोसी मुल्क की चाल है, पर इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि पडोसी मुल्क भी तब तक कुछ नहीं कर सकता, जब तक हमारे ही लोगों की श ह उसे न मिले।पेड़ कितना भी श ोर क्यों न मचा लें कि वे अब कुल्हाडी का अत्याचार नहीं सहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए हम अवश्य विरोध करेंगे।पर वे पेड़ यह भूल जाते हैं कि कुल्हाडी पर लगा बेत आखिर लकडी का ही है, पेड़ का एक अंश है। तब भला कैसे हो सकता है विरोध? यदि बेत ही विरोध करना सीख जाए, तो यही पहला कदम होगा अत्याचार के विरुध्द। पर क्या ऐसा संभव है? जब हम अपने ही घर में छिपे हुए गद्दारों को नहीं सँभाल पा रहे हैं, तो फिर विदेशी गद्दारों से कैसे निबट पाएँगे?
भारत की गुप्तचर संस्था ''रॉ'' के विषय में मेजर जनरल वी. के. सिन्हा ने अपनी किताब में जो रहस्योद्धाटन किया है, वह एक-एक भारतीय को शर्मसार करने के लिए काफी है। जब देश की गुप्तचर एजेंसियों का यह हाल है, तो फिर सामान्य स्थिति में किस सुरक्षा की बात की जा सकती है? किताब में जो विस्फोटक जानकारी दी गई है, वह कुछ इस प्रकार है :-7 मार्च 2006 को वाराणसी में हुए बम विस्फोट में 20 लोग मारे गए, 11 जुलाई 2006 को मुम्बई की लोकल ट्रेनों में रखे गए बम धमाकों से 186 लोग मारे गए, इसमें सम्पत्ति का नुकसान हुआ, सो अलग, 8 सितम्बर 2006 महाराष्ट्र के मालेगाँव में हुए बम विस्फोट में 28 लोग मौत के शिकार हुए, 18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट में 13 लोग हताहत हुए, उसके बाद फिर वहीं हैदराबाद में ही 25 अगस्त को ही हुए भयानक विस्फोट में 40 निर्दोषों ने अपनी जान गवाई। इसके बाद लुधियाना के एक छबिगृह में हुए विस्फोट में 6 और अजमेर शरीफ की दरगाह में 12 लोग मारे गए।पिछले दो महीनों से लगातार बम विस्फोट हो रहे हैं, अपराधी मिल भी रहे हैं, पर उससे क्या, उनके नेटवर्क के आगे पुलिस तत्र निष्फल साबित हो रहा है।

इन मामलों में देश की तमाम गुप्तचर एजेंसियाँ केवल हवा में सुबूत खोज रही हैं। दूसरी ओर एक जानकारी के अनुसार देश की चीफ कंट्रोलर ऑफ एक्सप्लोजिव्स याने विस्फोटक पदार्थों के नियामक का मानना है कि इन विस्फोटों को हमारे देश में ही बनाया गया है। वरिष्ठ नियामक द्वारा दिए गए ऑंकड़े एक आम आदमी को कँपकँपा देने वाले हैं। 2004 से लेकर 2006 के बीच 86 हजार 899 डिटोनेटर्स, 20 हजार 150 किलोग्राम विस्फोटक, 52 हजार 740 मीटर डिटोनेटिंग फ्यूज और 419 किलो जिलेटीन स्टीक की चोरी हो चुकी है। इतनी सामग्री से तो देश के कई महानगरों में भयानक विस्फोट हो सकते हैं। चोरी हुई ये सामग्री कहाँ किसे मिली और उसका क्या हुआ, इसकी जानकारी किसी को नहीं है। इस तरह की खबरें इस देश पर आसन्न संकट को स्पश्ट करती हैं।
देश में विस्फोटकों के 21 हजार लायसेंसधारी उत्पादक हैं। पहाडों पर रास्ता बनाने के लिए, पुल या सडक बनाने के लिए या फिर खदानों में विस्फोट करने के लिए विस्फोटकों की आवश्यकता होती है। इसके लिए अमोनियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोरेट जेसे रसायनों की जरूरत पडती है। ये रसायन खाद बनाने में और कोयले की खदानों में खूब उपयोगी हैं।आश्चर्य इस बात का है कि ये रसायन आसानी से बाजार में मिल जाते हैं।खुले आम बिकने वाले इन रसायनों की बिी में किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। अमोनियम नाइट्रेट को फ्यूल आइल के साथ एक निश्चित मात्रा में मिलाया जाए एक विनाशकारी बम बन सकता है। चिंता का कारण यह है कि इतने विशाल पैमाने पर विस्फोटकों की चोरी हुई और हमारे गृह सचिव और रक्षा सचिव से बार-बार लिखित रूप से ध्यान में लाया गया, फिर भी विस्फोटकों की चोरी रुकी नहीं। यह भी संयोग है कि आतंकवादी हमले भी भी रुक नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के दृ नारायणन और देश के गृह मंत्री शिवराज पाटिल बार-बार कह रहे हैं कि त्योहारों के इस मौसम में कभी भी कहीं भी विस्फोट हो सकते हैं, उसके बाद भी विस्फोटकों की चोरी के खिलाफ किसी प्रकार के कडे कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
13 अप्रैल 2007 को केंद्र के गृहसचिव मधुकर गुप्ता ने इसे स्वीकार करते हुए कहा कि चोरी हुए विस्फोटकों को नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में इस्तेमाल में लाया जा रहा है, यह चिंताजनक है। पर क्या उनके चिंता करने से समस्या का समाधान हो जाएगा? ये चोरी बिना किसी मिलीभगत से हो ही नहीं सकती। पहले उन गद्दारों का पता लगाया जाए, जिन्होंने इस चोरी में गद्दारों का साथ दिया है। वे भी कम गद्दार नहीं हैं। हाल ही में भगवान राम के खिलाफ न जाने क्या-क्या विष उगलने वाले करुणानिधि के ही तमिलनाडु में ही एक विस्फोटक उत्पादक के यहाँ से पिछले दो वर्षों में 51 हजार मीटर डिटोनेटर फ्यूज की चोरी र्हुई, उसी तरह श्रीलंका के नौकादल ने सागर के मध्य में एक भारतीय जहाज से 61 हजार डिटोनेटर बरामद किया था।इस पर किसी अरब कंपनी का लेबल था, परन्तु ये सभी डिटोनेटर्स हैदराबाद की एक कंपनी ने ही बनाया था।
ठससे यह स्पष्ट हो गया है कि पडोसी देश ने हमारे देश के न जाने कितने धनलोलुप लोगों को खरीद लिया है। इन्हीं गद्दारों की मदद से ही देश के विभिन्न स्थानों में बनने वाले विस्फोटकों की चोरी हो रही है।यही विस्फोटक ही आतंकवाद और नक्सलवाद से जुड़े लोगों को काम आ रहा है।भारत में होने वाले तमाम आतंकवादी हमले में इन्हीं विस्फोटकों का प्रयोग हो रहा है।विस्फोटकों का उत्पादन करने वाले राज्य हैं :-गुजरात, छत्तीसग़ढ, मध्यप्रदेश, उडीसा, तमिलनाडु, झारखंड और महाराष्ट्र। इन सभी स्थानों से बडे पैमाने पर विस्फोटकों की चोरी हो रही है। निश्चित है इसमें स्थानीय नागरिकों की मिलीभगत होगी।तो फिर सरकार इन्हें क्यों नहीं पकडती?
इन स्थानों से विस्फोटकों की चोरी पिछले दो-तीन वर्षों से लगातार जारी है। यदि इसके मूल में जाएँ, तो स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें राज्यों के कई नेताओं की भी मिलीभगत है।केंद्र और राज्यों के बीच लगातार पत्र-व्यवहार जारी रहने के ेबाद भी यदि विस्फोटकों की चोरी हो रही है, तो इसका आशय यही है कि देश के आम आदमी और देश की विपुल संपदा की चिंता किसी को नहीं है, सब कुछ रामभरोसे चल रहा है।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

ऎसे मनाएँ दीपावली


डॉ महेश परिमल
साथियो,
दीपावली दीपों का त्योहार। पावन विचारों के साथ स्नेह बिखेरने का जगमगाता त्योहार। दीपपर्व पर माटी की सौंधी महक के साथ स्नेह की बाती में भीगा दीया जब जलता है, तो चारों ओर हर्ष और उल्लास फैल जाता है। रिश्तों की लौ इस रोशनी में दीपोत्सवी का रूप धारण कर लेती है। कृष्ण अमावस की रात हर ऑंगन में जगमगाता दीप अंधेरे से होड़ लेता है और विजय पथ की ओर अग्रसर होता है। हम सभी को इस दीप से प्रेरणा लेनी चाहिए और जीवन-पथ को आलोकित करना चाहिए क्योंकि हर घर-आंगन में जलता दीप यही कहता है-
अंधकार गहरा हो, मंजिल पर पहरा हो,
मत रुको, मत झुको, बढ़े चलो, बढ़े चलो।


दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आइए हम कुछ संकल्प अपने आप से करें-
• जल की एक-एक बूँद संरक्षित करेंगे।
• पर्यावरण सुरक्षा के लिए मुरझाए पौधों को नवजीवन देंगे।
• पटाखे न चलाकर प्रदूषण कम करने में छोटा-सा योगदान देंगे।
• जिनकी खुशियाँ लूट चुकी हैं, उनमें खुशियाँ बाँटेंगे।
• कन्या लक्ष्मी का रूप है, इसके जन्म पर उत्सव मनाएँगे।
डॉ महेश परिमल

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक : वेनिला फ्लेवर


डॉ. महेश परिमल
हममें से शायद ही कोई होगा, जिसने कभी आइस्क्रीम का स्वाद न चखा हो। बहुत मोदार लगती है, यह आइस्क्रीम। इसमें सबसे अधिक सुलभ आइस्क्रीम है, वेनिला। अकसर पार्टियों में यही आइस्क्रीम परोसी जाती है। लोग मो से इसे खाते हैं। देखा जाए, तो वास्तव में जो वेनिला का स्वाद है, उसे तो लोग जानते ही नहीं। आज जो वेनिला के नाम से आइस्क्रीम बिक रही है, वह है वेनिलीन का एसेंस। बहुत ही खतरनाक है आइस्क्रीम का सच। इसे जान लेने के बाद मेरा विश्वास है कि अब कोई इसे खाने के पहले एक बार अवश्य सोचेगा। क्या है वेनिला आइस्क्रीम का सच, आइए जानते हैं:-
विश्व में सबसे अधिक लोकप्रिय फ्लेवर वेनिला ही है। यहाँ तक कि पूरे विश्व में जितनी भी आइस्क्रीम बनती है, उसमें से 40 प्रतिशत वेनिला फ्लेवर की ही होती है। वास्तव में वेनिला एक फल है, जो मेडागास्कर में अधिक मात्रा में होता है। अब इसे व्यावसायिक दृष्टि से दक्षिण भारत के तीन रायों में भी उगाया जा रहा है। वेनिला का उपयोग आइस्क्रीम के अलावा केक, कोल्ड ड्रिंक, परफ्यूम्स और अन्य सौंदर्य प्रसाधनों में होता है। एक समय था, जब केरल में वेनिला की खेती करने वाले किसानों को एक किलो वेनिला के बीजों की कीमत 3,500 रुपए मिलती थी। आज यह कीमत घटकर मात्र 50 रुपए प्रति किलो हो गई है। इसका मुख्य कारण यही है कि इस बीच मोंसांटो नामक मल्टीनेशनल कंपनी ने भारत में सिंथेटिक वेनिला का आयात शुरू कर दिया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राकृतिक वेनिला एसेंस का मूल्य 4,000 रुपए प्रति लीटर है, जबकि अमेरिका से आयात किए गए कृत्रिम वेनिला एसेंस की कीमत मात्र 250 रुपए प्रति लीटर है। यही कारण है कि आइस्क्रीम, बिस्किट, कोल्ड ड्रिंक, सौंदर्य-प्रसाधन आदि बनाने वाली कंपनियों ने चुपचाप सिंथेटिक वेनिला का उपयोग शुरू कर दिया है। यह कृत्रिम वेनिला हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, किंतु इस बात की चिंता न करते हुए कंपनियाँ लगातार इसका उपयोग किए जा रही हैं।
भारत में आइस्क्रीम का उत्पादन हिंदुस्तान लीवर जैसी मल्टीनेशनल कंपनियाँ, वाड़ीलाल जैसी भारतीय कंपनियाँ और अमूल डेरी जैसी अन्य प्राइवेट कंपनियाँ भी करती हैं। क्वालिटी वॉल्श नाम से प्रसिद्ध आइस्क्रीम ब्रांड हिंदुस्तान लीवर का है, जो अब यूनीलीवर के नाम से जाना जाता है। पश्चिम भारत में जैसे अमूल प्रसिद्ध है, वैसे ही उत्तर भारत में मदर डेरी काफी जाना-पहचाना नाम है। इन कंपनियों में से अमूल को अलग कर दिया जाए, तो सभी कंपनियों के आइस्क्रीम में सिंथेटिक वेनिला का इस्तेमाल किया जाता है। अमूल डेरी ने तो अपनी तरफ से 'वेनिला रॉयल' नामक आइस्क्रीम तैयार किया है, जिसमें कुदरती वेनिला फ्लेवर का ही इस्तेमाल किया जाता है।
आज बाजार में कृत्रिम वेनिला एसेंस मिलता है, जो वेनिलीन नाम से जाना जाता है। पूरे विश्व में कृत्रिम वेनिला का इस्तेमाल लगभग 30 हजार टन है, जबकि वेनिला का स्वाभाविक एसेंस मात्र 50 टन जितना ही इस्तेमाल किया जाता है। भारत मेें प्रतिवर्ष लगभग 200 मेट्रिक टन जितना वेनिलीन इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें से 130 मेट्रिक टन तो आइस्क्रीम उत्पादक ही खरीदते हैं। लोगों की आइस्क्रीम के प्रति रुचि देखते हुए पूरी संभावना है कि यह ऑंकडा इस वर्ष के अंत तक 300 मेट्रिक टन की संख्या पार कर जाएगा। इस समय भारत में प्राकृतिक वेनिला का इस्तेमान केवल 2 टन के आसपास ही है। वेनिला के 50 टन बीज में से मात्र एक टन जितना ही कुदरती एसेंस निकाला जा सकता है।
आइस्क्रीम और अन्य खाद्य पदार्थो में जो कृत्रिम वेनिला एसेंस उपयोग किया जाता है, वह किस तरह तैयार होता है, यह जानना जरूरी है। इस कृत्रिम वेनिला की खोज अचानक ही हुई थी। केनेडा की ओंटेरियो पेपर मिल में से जो कचरा निकलता था, उसे किस प्रकार खत्म किया जाए, या उसका इस्तेमाल किस प्रकार किया जाए, यह मालिकों के लिए एक परेशानी का विषय था। इस कचरे में से वेनिला जैसी गंध आती थी। केमिस्टों ने इस कचरे में से वेनिलीन नामक केमिकल को अलग करने में सफलता प्राप्त की, जिसकी गंध बिलकुल वेनिला जैसी ही थी। इस वेनिलीन को प्राप्त करने के लिए लकड़ी को कास्टिक सोड़ा के साथ उबाला जाता है। इस प्रक्रिया में कागज की लुगदी और काले रंग का चिकना पदार्थ अलग हो जाता है। जिसे 'ब्लेक लीकर' कहा जाता है। इसी से कृत्रिम वेनिला तैयार किया जाता है।


कृत्रिम वेनिला तैयार करने के लिए डामर यानि कोलतार का भी उपयोग किया जाता है। डामर में ग्वाइकोल नामक पदार्थ होता है, जिस पर रासायनिक क्रिया द्वारा वेनिलीन प्राप्त किया जाता है। इसके अलावा गाय के गोबर में लिग्निन नामक चिकना पदार्थ होता है। जापान के वैज्ञानिकों ने इस पदार्थ का उपयोग करते हुए विनिलीन तैयार किया है। मेक्सिको में पाए जाने वाले टोंका नामक वृक्ष के फल में से कुमोरीन नामक पदार्थ बनाने में आता है। इस पदार्थ से भी कृत्रिम वेनिला का एसेंस तैयार किया जाता है। जिसका उपयोग आइस्क्रीम में होता है। यह पदार्थ केन्सरजन्य होने के कारण अमेरिका के फूड्स एंड ड्रग्स ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। वेनिला और वेनिलीन फ्लेवर में बहुत अधिक समानता है, किंतु स्वाद और सुगंध के मामले में दोनों में फर्क किया जा सकता है। वेनिला की तुलना में वेनिलीन फ्लेवर अत्यंत तीव्र होता है। यही कारण है कि जब खाद्य पदार्थो में इसका थोड़ा-सा भी अधिक उपयोग हो जाने से उसमें केमिकल की सुगंध आने लगती है।
वेनिला के प्राकृतिक एसेंस में लगभग 250 जितने फ्लेवर का मिश्रण होता है। वेनिलीन भी इसमें से एक है। प्राकृतिक वेनिला जब भोजन में लिया जाता है, तो उसमें से एक के बाद एक फ्लेवर बाहर आने लगते हैं, जिसका अनुभव बहुत अनूठा है। यही कारण है कि प्राकृतिक वेनिला को सुगंध का समुद्र कहा जाता है।
हमारी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हम वेनिला फ्लेवर का कोई भी पदार्थ खरीदते समय असली और नकली फ्लेवर के बीच का अंतर समझ न पाने के कारण पहचान नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि कृत्रिम वेनिला एसेंस से बने हुए पदार्थ धड़ाधड़ बिक रहे हैं और इस बात से अनजान बने हम इन पदार्थों को स्वाद ले-लेकर खा रहे हैं। हमारी इस स्वाद लोलुपता का ही फायदा कंपनियाँ उठा रही हैं। जबकि अमेरिका में तो ऐसा कानून है कि कोई भी खाद्य पदार्थ में यदि 'वेनिला' लिखा हुआ है, तो उसमें प्राकृतिक वेनिला का अर्क ही होना चाहिए। यदि इन खाद्य पदार्थो में सिंथेटिक फ्लेवर भी मिला हुआ है, तो उसका प्रमाण नेचुरल फ्लेवर की तुलना में कम ही होना चाहिए। जर्मनी में भी यह नियम है कि यदि किसी पदार्थ में वेनिला का इस्तेमाल हुआ है, तो उसके लेबल में यह लिखा हुआ होना चाहिए कि कृत्रिम वेनिला एसेंस का इस्तेमाल किया गया है कि नेचुरल वेनिला एसेंस का । भारत में इस तरह का कोई कानून न होने के कारण कृत्रिम वेनिला एसेंस का भरपूर प्रयोग किया जा रहा है। दुकान या आइस्क्रीम पार्लर से आइस्क्रीम खरीदने वाले ग्राहकों को इस बात की जानकारी ही नहीं होती कि इसमें इस्तेमाल किया गया वेनिला या वेनिलीन वास्तव में किस पेपर मिल का कचरा है या डामर से बनाया गया तरल पदार्थ है।
आइस्क्रीम उत्पादकों द्वारा प्राकृतिक वेनिला के बदले वेनिलीन केमिकल इस्तेमाल करने के पीछे मुख्य कारण दोनों की कींमतों में पाया जाने वाला अंतर है। एक लीटर आइस्क्रीम में यदि कृत्रिम वेनिलीन के बदले प्राकृतिक वेनिला का उपयोग किया जाए, तो आइस्क्रीम की कीमत भी दो रुपए बढ़ जाती है। वेनिला के बड़े कप में 200 मिली लीटर आइस्क्रीम आती है, इसे देखते हुए एक कप के हिसाब से 40 पैसा अधिक खर्च आता है। आइस्क्रीम उत्पादक 30 से 40 प्रतिशत लाभ कमाते हैं। यदि वे अपने लाभ में थोड़ी कमी करते हुए ग्राहकों को असली वेनिला फ्लेवर दें, तो भी उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा। बस आवश्यकता है सरकार इस दिशा में कोई कानून तैयार करे या फिर ग्राहक अपनी जागरूकता का परिचय दें।
तो देखा आपने हमारी स्वाद लोलुपता का फायदा किस तरह से ये कंपनियाँ उठा रही हैं और लाभ कमा रही है। हम अपनी जागरूकता का परिचय नहीं देते हैं और अपनी स्वादग्रंथियों को काबू में नहीं रख सकते, इसीलिए आज हम बार-बार बीमार पड़ रहे हैं या फिर डॉक्टरों के चक्कर लगा रहे हैं। कुछ तो करना ही पड़ेगा, अन्यथा इनकी बनाई चीजें हम खाते रहें और ये कंपनियाँ हमें खाती रहें। नुकसान हमारा ही होना है, तो क्यों न आज से ही जागरूकता का बिगुल बजाया जाए और लोगों को सचेत किया जाए।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

भारतीय सेना को बदनाम करने की साजिश


डॉ. महेश परिमल
आए दिन अखबारों में यह पढ़ने को मिलता रहता है कि घाटी में तैनात सेना के एक जवान को खुले आम अर्धनग्न करके घुमाया गया। इतना ही नहीं, उसे सड़कों पर घुमाते हुए उसके गले पर जूतों की माला भी पहनाई गई। कल्पना कीजिए, एक जवान हाफ पेंट या फिर केवल अतर्वस्त्रों में खड़ा है, उसके गले पर जूतों का हार है, नागरिकों का एक दल उसके साथ मारपीट कर रहा है। उस पर आरोप है कि उसे एक कश्मीरी महिला के साथ अनाचार करते हुए रँगे हाथ पकड़ा गया है। इसलिए नागरिक ही उसे सजा दे रहे हैं। पिछले महीने इस तरह की करीब चार-पाँच घटनाएँ ऐसी हो चुकी हैं, जिसमें सेना के जवान को सजा देने में कश्मीरियों ने कानून ही अपने हाथ में ले लिया है।
इस तस्वीर का एक पहलू तो बड़ा ही भयानक है, किंतु दूसरा पहलू बहुत ही मर्मांतक है, पीड़ादायी है। आज इसे समझने के लिए कोई तैयार ही नहीं है कि यह सब एक साजिश के तहत हो रहा है। इसकी योजना पड़ोसी देश में बनती है और इसे कश्मीर की वादियों में अंजाम दिया जाता है। हमारे गुप्तचर इसे अच्छी तरह से समझते हैं, पर स्थानीय प्रशासन का सहयोग न मिलने के कारण लाचार हैं। आज घाटी की राजनीति पर आईएसआई हावी है। उसी के इशारे पर आज कश्मीर में कई ऐसे कार्य हो रहे हैं, जो हमारे देश के हित में तो कतई नहीं हैं। आज आईएसआई ने घाटी के नेताओं को एक तरह से खरीद ही लिया है। इन नेताओं द्वारा लगातार यह माँग उठाई जा रही है कि घाटी से सेनाओं को हटा देना चाहिए। लेकिन उनकी नहीं सुनी जा रही है, इसलिए एक साजिश के तहत भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए ऐसा किया जा रहा है, ताकि कश्मीरी यह समझें कि जब तक घाटी में सेना है, तब तक उनका उध्दार संभव नहीं है। इसके तहत अब आईएसआई ने एक योजना के अंतर्गत घाटी में तैनात सेना के जवानों को इस तरह से बदनाम किया जा रहा है, जिससे वे अपना मनोबल खो दें और कुछ ऐसा कर जाएँ, जो उनके लिए घातक हो जाए।
एक दृश्य की कल्पना करें-सेना के एक जवान को एक संदिग्ध व्यक्ति दिखाई देता है, जो हथियारों से लैस है। जवान उसका पीछा करता है, इसे वह संदिग्ध व्यक्ति अच्छी तरह से जानता है। कुछ देर तक लुकाछिपी चलती है, अंत में वह संदिग्ध व्यक्ति एक मकान में घुस जाता है। सेना का जवान उस मकान के सामने जाकर सोचता है कि उस मकान के अंदर जाया जाए या नहीं। युवक का हथियारों से लैस होना और उसकी संदिग्ध गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए सेना का जवान उस मकान में प्रवेश कर जाता है। उसके अंदर घुसते ही उस मकान का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया जाता है। उसके बाद शुरू हो जाता है शोर। दौड़ो-दौड़ो, सेना का एक जवान एक अबला की इज्जत लूट रहा है, अरे कोई तो उस अबला को बचाओ। सेना का जवान कुछ समझे, इसके पहले ही लोग उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं। उसके बाद शुरू हो जाता है, जवान को बुरी तरह से मारपीट का सिलसिला। उसकी वर्दी फाड़ दी जाती है, बेरहमी से बेइज्जत किया जाता है, उसे जूतों की माला पहनाकर शहर की गलियों में अर्धनग्न अवस्था में घुमाया जाता है। इस तरह से शर्मसार होकर जवान भीतर से पूरी तरह से टूट जाता है।
जम्मू-कश्मीर की सरहदों एवं तमाम शहरों में तैनात सेना के अधिकारियों ने रक्षा मंत्री ए. के. एंटोनी से यह माँग की है कि अब इस खेल को खत्म ही कर दिया जाए। इससे जवानों का मनोबल टूट रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि जवान स्वयं ही यह निर्णय ले लें कि अब घाटी तो क्या, इस देश सेवा को ही नमस्कार कर लिया जाए। इस जहालत से तो अच्छा है कि अपने शहर में ही एक चाय की दुकान ही खोल लिया जाए, ताकि इज्जत की रोटी तो मिल सके। आईएसआई चाहती ही यही है कि सेना का मनोबल टूटे और वे यहाँ से चले जाएँ, ताकि घाटी वास्तव में आतंकवादियों के लिए स्वर्ग बन जाए। खरीदे गए राजनेताओं के साथ मिलकर आईएसआई सेना के जवानों को एक साजिश के तहत बदनाम कर किया जा रहा है।
सेना के जवानों को इस तरह से प्रताड़ित करने की अंतिम घटना किश्तवाड़ जिले के चतरु गाँव की है। वहाँ सेना के जवानों ने दो आतंकवादियों को मार गिराया। इससे कुपित होकर आतंकवादियों ने नागरिकों को उकसाया कि सेना उनके साथ जबर्दस्ती कर रही है। स्थानीय प्रशासन की अनदेखी से कुछ नागरिकों की मिलीभगत से सेना के जवानों के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो जाता है। नागरिक सेना के जवानों के खिलाफ एकजुट होने लगते हैं। नागरिक कहते हैं कि जिन्हें सेना के जवानों ने आतंकवादी समझकर मार गिराया है, वे तो मछुआरे थे। इनका आतंकवाद से कोई संबंध नहीं था। बस इसी बात को लेकर जवानों का विरोध शुरू हो जाता है। पर इस भीड़ से यह कौन पूछे कि यदि मारे गए लोग मछुआरे थे, तो उनके पास ए. के. 56 राइफल और अन्य हथियार कहाँ से आए और वे आधी रात को कहाँ मछली मारने गए थे? बाद में तो यह भी तय हो गया कि दोनों आतंकवादी मुहम्मद अशरफ और मुहम्मद सुलतान थे। पर उस समय तो नागरिकों के जोश के आगे सेना के जवानों के हौसले पस्त हो जाते हैं। रही सही कसर मीडिया पूरी कर देता है, वह तो सेना के जवानों पर मानवाधिकार हनन का आरोप लगा देता है। इस तरह से एक सोची-समझी साजिश के तहत सेना के जवानों को बदनाम कर उसे भीतर से तोड़ देने की कोशिश लगातार हो रही है।

पिछले महीने ही श् रीनगर से 40 किलोमीटर दूर कंगन गाँव में नागरिकों ने केवल सुनी-सुनाई बात पर ही सेना के एक जवान रणजीत सिंह के साथ मारपीट शुरू कर दी। जवान ने भी भीड़ का मुकाबला पूरी शिद्दत के साथ किया और एक जवान को मार भी डाला, पर 50-60 लोगों के बीच एक जवान की क्या बिसात, सो उस भीड़ ने पीट-पीटकर उस जवान को मार ही डाला। इसके बाद हुर्रियत कांफ्रेस ने एक दिन के लिए घाटी बंद का आह्वान किया और जवानों के खिलाफ माहौल बनाया। इस घटना से स्पष् ट है कि कमजोर राज्य का सहारा लेकर सेना के जवानों को लगातार बदनाम किया जा रहा है। इसके पीछे निश्चित रूप से आईएसआई का ही हाथ है, पर उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पा रही है। उसके लिए हमेशा ठोस सुबूत की माँग की जाती है, पर ठोस सुबूत तो कभी मिल ही नहीं सकते, यह सभी जानते हैं। भारतीय सेना के अफसर भी यही कहते हैं कि इस मामले में केंद्र सरकार का रवैया काफी ढीला-ढाला है।
एक तरफ 24 घंटे अपने अपने फर्ज को पूरा करने में तत्पर सेना के जवान वैसे ही तनाव में रहते हैं। घर-परिवार से दूर होकर हर मौसम में नागरिकों की रक्षा करने के संकल्प के साथ डटे इन जवानों को मानसिक रूप से किसी का सहारा चाहिए। उन्हें आत्मबल की आवश्यकता है, किंतु उसके बजाए इन्हें मिलती है बदनामी। ऐसे में निश्चित रूप से ये लोग मानसिन यंत्रणा के शिकार होते हैं। कई बार ये अपने ही अफसरों या साथियों पर गोली चला देते हैं, तो कई बार आत्महत्या कर लेते हैं। ये सारी स्थितियाँ इस बात की ओर संकेत करती हैं कि आज सेना के जवान स्वयं को असुरक्षित पा रहे हैं। दूसरों क सुरक्षा का भार अपने ऊपर लेने वाले जब स्वयं ही असुरक्षित हो जाएँ, तो उनसे कैसे हो पाएगा नागरिकों की सुरक्षा का महती काम? इस दिशा में शीघ्र ही कुछ न किया गया, तो आईएसआई की साजिश कामयाब हो जाएगी और सेना के जवानों में न तो कोई जोश होगा और न ही देश की सुरक्षा का संकल्प।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

उम्मीद की किरण दिखती है जजों के फैसलों में


डॉ. महेश परिमल
वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोड़ने वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य ऑंखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सजा देने की कोशिश करें। जल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत साा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले एक खबर पढ़ने को मिली कि एक जज ने एक विधायक को सजा के बतौर गांधी साहित्य पढ़ने के लिए कहा। बहुत अच्छा लगा। इसी तरह एक हीरोइन को दिन भर एक अनाथालय में रहने की सजा दी। कितनी अच्छी बात है कि एक विधायक गांधी साहित्य पढ़े और ऐश्वर्ययुक्त हीरोइन दिन भर अनाथालय में रहे। करीब 30 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी 'दुश्मन'। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सजा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। कुछ ऐसी ही कोशिश आज के न्यायाधीशों को करनी चाहिए, जिससे भटके हुए समाज को एक दिशा मिले। कुछ वर्ष पूर्व ही कोलकाता हाईकोर्ट के एक जज अमिताभ लाला अदालत जा रहे थे, रास्ते में एक जुलूस, धरना या फिर रैली के कारण पूरे तीन घंटे तक फँसे रहे। यातायात अवरुद्ध हो गया था, अतएव देर से ही सही, कोर्ट पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहला आदेश यह निकाला कि अब शहर में सोमवार से शुक्रवार के बीच कहीं भी कभी भी धरना, रैली, जुलूस या फिर प्रदर्शन नहीं होंगे। केवल शनिवार या रविवार को ही ऐसे कार्यक्रम किए जा सकते हैं, वह भी नगर निगम की अनुमति के बाद।
जज महोदय पर जब बीती, तभी उन्होंने आदेश निकाला। अगर वे आम आदमी होते, तो शायद ऐसा नहीं कर पाते। यह प्रजातंत्र है, यहाँ आम आदमी की पुकार अमूमन नहीं सुनी जाती। कहा भले ही जाता हो, पर सच्चाई इससे अलग है। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि एक आम आदमी का प्रतिनिधि विधायक या सांसद बनते ही वीआईपी कैसे हो जाता है? आम से खास होने में उसे जरा भी देर नहीं लगती। खास होते ही उसे आम आदमी की पीड़ा से कोई वास्ता नहीं होता। क्या वोट देकर वह अपने हक से भी वंचित हो जाता है? उसका प्रतिनिधि सुविधाभोगी कैसे हो जाता है?
ऐसे लोग यदि किसी प्रकार का गुनाह करते हैं, तो उनके लिए जज यह फैसला दे कि उसे लगातार एक महीने तक ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा करनी होगी या फिर सड़क से उसके गाँव तक पैदल ही जाना होगा। किसी दौलतमंद को सजा देनी हो, तो उसे दिन भर किसी झोपड़पट्टी इलाके में रहने की सजा दी जाए, खेत में हल चलाने की सजा दी जाए। इस तरह लोग आम आदमी की तमाम समस्याओं से बेहतर वाकिफ होंगे। उन्हें यह समझ में आएगा कि वास्तव में बुनियादी समस्याएँ क्या हैं।
अमिताभ लाला ने जब भुगता, तभी आम आदमी की समस्याएँ समझ में आई। इसके पहले उसी कोलकाता में न जाने कितनी बार बंद का आयोजन हुआ होगा, धरना आंदोलन हुआ होगा, इन सब में आम आदमी की क्या हालत हुई होगी, यह इसके पहले किसी ने भी समझने की कोशिश नहीं की। वैसे भी अमीरों के सारे चोचलों में बेचारे गरीब ही मारे जाते हैं, जो मजदूर रॊज कमाते-खाते हैं, उनके लिए ऐसे कार्यक्रम भूखे रहने का संदेशा लेकर आते हैं। अनजाने में वे उपवास कर लेते हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है।
अब समाज की न्याय व्यवस्था वैसी नहीं रही, जब खून का बदला खून जैसा जंगल का कानून चलता था। लोग अब भी न्याय व्यवस्था पर विश्वास करते हैं। न्याय के प्रति उनकी आशा जागी है। कानून तोड़ने वाले अब भी कानून तोड़ रहे हैं, लेकिन जो इस बात पर विश्वास करते हैं, वे अब भी कानून के दायरे में रहकर गुज़ारा कर लेते हैं। यदि संवेदनशील जज चाहें, तो अपने फैसलों से समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। उनके ये फैसले जमीन से जुड़ाव पैदा करने में मदद करेंगे। अब यह जजों पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

अब होगा ईमानदार डॉक्टरों का अकाल


डॉ. महेश परिमल
आज आम शिकायत यही है कि डॉक्टर अब मरीजों को लूटने लगे हैं। सच भी है आजकल डॉक्टरों के भाव बढ़े हुए हैं, उनकी मानवीयता मर गई है। अब तो ऐसी घटनाएँ आम होने लगी हैं कि इलाज के दौरान मरीज का यदि देहांत हो गया, तो जब तक उसके इलाज में हुए खर्च का भुगतान न हो जाए, तब तक लाश उसके परिजनों को नहीं सौंपी जाती, जिससे मृतक के परिजन अस्पताल में हंगामा और तोड़फोड़ करने लगे हैं। आए दिनों इस आशय के समाचार अखबारों में पढ़ने को मिल रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच आज के डॉक्टरों में मानवता नाम की कोई चीज नहीं रह गई है? इसे मरीजों की दृष्टि से सोचा जाए, तो निश्चित रूप से डॉक्टर ही दोषी होंगे, यदि इसे डॉक्टरों के नजरिए से सोचा जाए, तो स्पष्ट होगा कि इसमें डॉक्टरों से अधिक सरकार की नीतियों का दोष है। अब भला 25 लाख रुपए खर्च करके कोई युवा डॉक्टर की डिग्री हासिल करता है, तो उससे किस तरह से किसी सेवा की अपेक्षा रखी जाएगी। आखिर उसके पालकों ने किस तरह से उसकी पढ़ाई के लिए 25 लाख रुपए जुटाए होंगे? खेत, जमीन, घर, गहने बेचकर यदि अपने बच्चे के लिए धन जुटाए, तब पालकों की भी यही आशा होती है कि अब उनका पुत्र कुछ कमाए। ऐसे में उस पुत्र से सेवा की तो आशा की ही नहीं जा सकती। निश्चित रूप से अभी-अभी नया-नया बना डॉक्टर अपने पेशे के प्रति ईमानदार तो नहीं रह सकता।
कोल्हापुर में रहने वाले सुनील पाटिल के पिता डॉक्टर बनकर समाज की सेवा कर रहे हैं। सुनील की इच्छा थी कि वह भी पिता के पदचिह्नों पर चले, इसके लिए उसने निजी मेडिकल कॉलेज द्वारा लिए जाने वाले कामन इंट्रेस्ट टेस्ट (सीईटी) की परीक्षा में शामिल हुआ। इस परीक्षा में उसने 84 प्रतिशत अंक प्राप्त किए । उसे उसकी पसंद की कॉलेज काशीबाई नवले मेडिकल कॉलेज में प्रवेश भी मिल गया। पुणे की उस निजी मेडिकल कॉलेज चलाने वाली संस्था में उसने दो लाख 20 हजार रुपए जमा भी करा दिए। एक सप्ताह बाद ही उसके पास कॉलेज का पत्र आया, जिसमें यह जानकारी दी गई कि कॉलेज की फीस बढ़ाकर 4 लाख 40 हजार कर दी गई है, अतएव 2.2 लाख रुपए और तत्काल जमा नहीं किए गए, तो उसका एडमिशन रद्द माना जाएगा।
पाटिल परिवार पर मानों दु:ख का पहाड़ ही टूट पड़ा, डॉक्टर पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि अपने बच्चे के लिए एक बार सवा दो लाख रुपए इकट्ठे करें। स्थिति यह हो गई कि पूरे पाँच वर्ष में उन्हें 11 लाख के बजाए 22 लाख रुपए केवल फीस के रूप में दिए जाने हैं। इस बारे में सुनील का कहना था कि वह काशीबाई नवले कॉलेज के बजाए किसी ऐसे कॉलेज में प्रवेश ले लेगा, जिसकी फीस कम हो। इस पर प्राइवेट मेडिकल कॉलेज एसोसिएशन द्वारा उसे कहा गया कि सुनील ने चूँकि 84 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, इसलिए उसे किसी दूसरे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलेगा, क्योंकि यह मेरिट के सिद्धांत के खिलाफ है। सुनील के पास अब केवल दो रास्ते ही बचे थे, या तो वह पाँच वर्ष में 11 लाख रुपए और खर्च करने के लिए तैयार रहे, या डॉक्टर बनने का विचार ही त्याग दे। निजी मेडिकल कॉलेजों की इस मनमानी के खिलाफ उसने मुम्बई हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए माँग की है कि कॉलेज में प्रवेश के समय जो फीस तय की गई है, उसमें फेरफार करने की छूट कॉलेजों को नहीं देनी चाहिए।

यह व्यथा केवल सुनील की ही नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र के निजी मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन लेने वाले कई विद्यार्थ्ाियों की है । सरकारी मेडिकल कॉलेज आरक्षण के कारण और सीटें कम होने के कारण बहुत ही कम छात्रों को प्रवेश दे पाते हैं, इसलिए निजी मेडिकल कॉलेजों की बन आती है। इस वर्ष करीब दो हजार विद्यार्थ्ाियों ने निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था, इन कॉलेजों ने अपने ब्रोशर में जो फीस निर्धारित की थी, उसके आधार पर सैकड़ों विद्यार्थ्ाियों ने निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था। इसी बीच हाईकोर्ट का यह फैसला आया कि निजी मेडिकल कॉलेजों को बढ़ी हुई फीस ले सकते हैं, इसे आधार बनाकर प्रदेश की दस में से छह निजी मेडिकल कॉलेजों ने अपनी फीस बढ़ा दी, जिससे सैकड़ों विद्यार्थ्ाियों के सामने मुश्किल आ पड़ी।
निजी मेडिकल कॉलेजों को मानों विद्यार्थ्ाियों से अधिक से अधिक फीस लेने का लाइसेंस ही मिल गया। वे खुले रूप में लूट करने लगे। महाराष्ट्र में इन कॉलेजों को इस तरह की मनमानी करने का भी एक इतिहास है। हुआ यूँ कि सन 2002 में महाराष्ट्र की तमाम निजी मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटे सरकार के कोटे से भरनी पड़ती थी, शेष 50 प्रतिशत सीटें मैनेजमेंट कोटे की होती थी। इसकी फीस सरकार निर्धारित करती। सरकार के कोटै में जो 50 प्रतिशत सीटें होती थीं, उसकी फीस सरकारी मेडिकल कॉलेजों के समकक्ष होती थी। इससे गरीब और मध्यम वर्ग के विद्याथयों को भारी राहत मिल जाती थी। इस वाजिब फीस के कारण कॉलेज के संचालकों को जो नुसान होता था उसे मैनेजमेंट कोटे की 50 प्रतिशत सीटों की फीस से भरपाई कर ली जाती थी। निजी मेडिकल कॉलेजों को यह रास नहीं आया, क्याेंकि उन्हें तो नफाखोरी करनी थी। इसके लिए कॉलेज के संचालक सुप्रीमकोर्ट गए और फीस बढ़ाने की माँग की। सुप्रीमकोर्ट ने कॉलेज संचालकों की माँग मान ली, फलस्वरूप कॉलेजों ने अपनी फीस बढ़ाकर 3.8 लाख रुपए प्रतिवर्ष कर दी।
निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा इस तरह से फीस में जबर्दस्त रूप से की गई बढ़ोत्तरी विद्यार्थ्ाियों और पालकों के लिए किसी आघात से कम नहीं था। इस हालात को समझते हुए सुप्रीमकोर्ट के आदेश से जागीरदार समिति बनाई गई। इस समिति ने तय किया कि विभिन्न निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा दी जा रही सुविधाओं के आधार पर विद्यार्थ्ाियों से हर वर्ष 61 हजार रुपए से 1.41 लाख रुपए से अधिक फीस नहीं ले सकती। इस आदेश से केवल मुनाफा कमाने वाले निजी मेडिकल कॉलेज के संचालकों को मानो साँप सूँघ गया। वे चुप नहीं बैठे, उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की, हाईकोर्ट ने फीस तय करने के लिए एक बार फिर एक नई समिति बनाई, जिसका अध्यक्ष हाईकोर्ट के निवृत्तमान न्यायाधीश पी.एस.पाटणकर थे। इस समिति की स्थापना सन 2003 में की गई।
जस्टिस पाटणकर समिति के सामने कॉलेज के संचालकों ने अपने खर्चों को बढ़ाचढ़ाकर बताए। कॉलेज भवन का किराया अधिक बताया, इसके अलावा कॉलेज जिस अस्पताल के साथ संलग्न होते, उस अस्पताल के कई खर्चों को अपने खर्च में शामिल कर दिया, जैसे अस्पताल की नर्सों का वेतन, अखबारों में दिए गए विज्ञापनों के बाद कॉलेज के खिलाफ की जाने वाले तमाम याचिकाओं के कानूनी खर्च भी अपने खर्च में शामिल कर दिए। इस चालाकी की जानकारी जस्टिस पाटणकर को नहीं थी, इसलिए उन्होंने निजी मेडिकल कॉलेजों को फीस बढ़ाने की अनुमति दे दी।
इसके बाद निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालकों ने कॉलेज की फीस में जमकर वृदधि की। विद्यार्थ्ाियों और पालकों द्वारा जब इसका विरोध किया गया, तब जस्टिस पाटणकर को खयाल आया कि उनके द्वारा फीस बढ़ाए जाने की सिफारिश करना गलत कदम था। एक छात्र ने श्री पाटणकर के पास आकर कहा कि फीस बढ़ाए जाने की खबर सुनकर उनके पिता को हार्ट अटैक आ गया। पिछले वर्ष तो इन निजी मेडिकल कॉलेजों ने घटी हुई दर पर फीस ली, किंतु पीछे से उन्होंने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई एक साल बाद इस वर्ष की 24 जुलाई को हुई। अपने फैसले में हाईकोर्ट ने 60 प्रतिशत फीस घटाने की जस्टिस पाटणकर समिति के आदेश के खिलाफ निषेधाज्ञा जारी की। यह फैसला जब आया, तब तक वर्ष 2008-2009 के लिए प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो गई थी और 60 प्रतिशत कटौती के अनुसार ही फीस वसूल की गई, किंतु हाईकोर्ट का फैसला आते ही तमाम निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालकों ने विद्यार्थ्ाियों को फीस की शेष राशि जमा करने के लिए सर्कुलर भेज दिया। इसी कारण सुनील जैसे विद्यार्थी आफत में आ गए।
गुजरात और महाराष्ट्र में मेडिकल कॉलेज खोलना एक ऐसा धंधा माना जा रहा है, जिसमें बेशुमार दौलत है। महाराष्ट्र के अधिकांश दमदार नेता मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज चला रहे हैं। सकार की नीति भी कुछ खास व्यक्तियों को अनुमति देकर उन्हें उपकृत करने की है। सरकार की इस छूट का लाभ कॉलेज के संचालक खूब उठाते हैं और खुली लूट में शामिल हो जाते हैं।
अब आप ही बताएँ कि पूरे 25 लाख रुपए खर्च करके कोई डिग्री हासिल की जाए और उसके बाद किस तरह से सेवा कार्य किया जाए। इसी खर्च के एवज में डॉक्टर मरीजों से खूब धन लेता है, दवा कंपनियों का दलाल बन जाता है, साथ ही धन कमाने के लिए जो भी रास्ता मिलता है, उस पर चल पड़ता है। क्या नीति और क्या अनीति, उसके लिए सब बराबर है। अतएव यह कहा जा सकता है कि सरकार के संरक्षण में फल-फूल रहे मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज का धंधा बेशुमार दौलत का धंधा बन गया है। इससे स्पष्ट है कि भविष्य में यदि किसी को कोई ईमानदार डॉक्टर मिल जाए, तो इसे मरीज की किस्मत कहेंगे या फिर सरफिरा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

अब शौक से फरमाएँ ई-सिगार


डॉ. महेश परिमल
दो अक्टूबर से पूरे देश में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की घोषणा की गई है। घोषणाओं से क्या होता है, इससे किसका भला हुआ है। आज रोज ही मंत्रियों के बयान आ रहे हैं कि आतंकवाद को सख्ती से निपटा जाएगा। बयान आते ही कहीं न कहीं एक धमाका हो ही जाता है। जब भी यह कहा गया है कि बम विस्फोट के तहत कई शहरों में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है, यह घोषणा दूसरे दिन ही तहस-नहस हो जाती है, जब कई विस्फोटों से शहर की शक्ल ही बदल जाती है। इसलिए घोषणाएँ करना और उस पर अमल करना दोनों ही अलग-अलग बात है। इधर स्वास्थ्य मंत्री की घोषणा हुई, उधर चेन्नई की एक कंपनी ने ई-सिगार बेचने की घोषणा कर दी। कंपनी का दावा है कि यह ई-सिगार शरीर को किसी तरह से नुकसान नहीं पहुँचाती, इसका कभी भी, कहीं भी सेवन किया जा सकता है। धूम्रपान प्रेमियों के लिए यह एक अच्छी खबर हो सकती है कि अब वे खुले आम ई-सिगार का सेवन करेंगे और धूम्रपान का मजा लेंगे।
आखिर यह ई-सिगार है क्या? ई-सिगार को विदेशों में सुपर सिगार के नाम से जाना जाता है। यह सिगरेट जैसा ही दिखने वाला एक साधन है। उसके सफेद हिस्से में रि-चार्जेबल बैटरी होती है। फिल्टर के बाद के हिस्से में ऐसी कॉट्रीज होती है, जिसे बदला जा सकता है। इसमें ऊपर बताए अनुसार ही डाइल्यूटेड निकोटिन, पानी आदि का तरल द्र्रव्य होता है। ई-सिगार में सामने के भाग में इंडिकेटर लाइट होती है। उपयोगकर्ता सामान्य सिगरेट की तरह ही इसके कश ले सकता है। यह बात सच है कि इसे निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी में उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से निर्दोष मानना बिलकुल गलत है। निकोटिन किसी भी रूप में स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है। विश्व के सारे डॉक्टर इस पर ऐसा ही सोचते हैं। ई-सिगार बनाने वाली चेन्नई स्थित कंपनी एसपीके के प्रवक्ता सुनीत कुमार का इस संबंध में कहना है हम भारत में पहली बार ई-सिगार लेकर आएँगे। हम इसे हाँगकाँग से मँगवाएँगे और जरूरतमंदों के बीच इसे बेचेंगे। यह धूम्रपान की जानलेवा असर से बिलकुल मुक्त है और विदेशों में इसका उपयोग धूम्रपान का व्यसन छुड़ाने के लिए किया जाता है।

कैंसर का उपचार करते डॉक्टर्स का कहना है कि सामान्य सिगरेट में कम से कम चार हजार हानिकारक रसायन होते हैं। इसमें से 54 रसायन तो इस रोग के वाहक हैं। ई-सिगार के समर्थकों का कहना है कि ई-सिगार में डाइल्यूट किया हुआ निकोटिन, पानी और तम्बाखू का परफ्यूम होता है, जिसको पीने से सिगरेट पीने का ही अहसास होता है। ई-सिगार को कहीं भी पी सकते हैं। उसे जलाने की आवश्यकता नहीं होती और उससे धुऑं भी नहीं होता। इसीलिए सार्वजनिक स्थानों पर इसके सेवन से मित्रों या अन्य लोगों में किसी तरह का कोई नुकसान होने की संभावना नहीं रहती। इस सिगार के वितरक इतने होशियार हैं कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की तमिलनाड़ु शाखा के कुछ डॉक्टररों से यह कहलवाया है कि ई-सिगार स्वास्थ्य के लिए किसी भी रूप में हानिकारक नहीं है। अब इन डॉक्टरों को कौन समझाए कि जब यह कहा जा रहा है कि इसमें निकोटिन है, तो फिर यह कैसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं हो सकती? निकोटिन किसी भी रूप में हो, शरीर में किसी भी तरह से लाभ नहीं पहुँचाती। इस तरह का बयान देने वाले डॉक्टर निश्चित रूप से दंड के भागी हैं।
इन दिनों ई-सिगार चीन, इजराइल और यूरोपीय देशों में खुले आम बिक रही है। इसका एक पैकेट दो हजार रुपए में मिलता है। इस सिगार के उत्पादकों का दावा है कि यूरोपीय देशों के फूड एंड ड्रग्स विभाग ने इस सिगार को कानूनी रूप से मान्यता दी है। दूसरी ओर वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन ने इस प्रोडक्ट को अभी तक हरी झंडी नहीं दिखाई है। डब्ल्यूएचओ के तम्बाखू मुक्त अभियान के कार्यवाहक डायरेक्टर डग्लास बेचर ने ई-सिगार को पूरी तरह से निर्दोष या सुरक्षित बताने के दावे को नकार दिया है। उनका मानना है कि ई-सिगार इंसान के शरीर में निकोटिन का प्रवेश कराती है और निकोटिन किसी भी रूप में शरीर के लिए लाभप्रद नहीं है। ई-सिगार को पूरी तरह से निर्दोष होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। डब्ल्यूएचओ ने इसे किसी तरह से कानूनी मान्यता नहीं दी है। ई-सिगारके उत्पादक इस संबंध में भ्रम फैलाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इसके अलावा उसने 193 देशों को चेतावनी देते हुए नोटिस भेजी है, जिसमें कहा गया है कि ई-सिगार बोगस, अनटेस्डेड तथा खतरनाक हो सकती है।
भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो ई-सिगार से सावधान रहने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये सिगार चीन में बनाए जाते हैं। चीन कितना विश्वसनीय है यह हाल ही में वहाँ के बने खिलौनों पर हमारे देश में प्रतिबंध से जाना जा सकता है। चीन के दूध के सेवन के बाद होने वाली बीमारियों पर भी इन दिनों विवाद चल ही रहा है। इसलिए चीन के उत्पाद को ऑंख मूँदकर स्वीकार करना बहुत ही मुश्किल है। डब्ल्यूएचओ के डग्लास ने जिनेवा में पत्रकारों को संबोधित करते हुए इस संबंध में कहा है कि ई-सिगार का टाक्सिकोलोजिकल और क्लिनीकल परीक्षण अभी हुआ नहीं है। तो फिर इसे सुरक्षित कैसे कहा जा सकता है? इसे सरल भाषा में यही कहा जा सकता है कि ई-सिगार में हानिकारक जहरीले रसायनों का इस्तेमाल किया गया है, यह तो तय है, पर कितनी मात्रा में किया गया है, इसका परीक्षण होना बाकी है। जब तक यह परीक्षण नहीं हो जाता, तब तक इसे किसी तरह से स्वीकार करना स्वास्थ्य को खतरे में डालना ही होगा।
सन 2003 में डब्ल्यूएचओ के 200 छोटे बड़े सदस्य देशों के बीच यह समझौता हुआ था कि सिगरेट के पैकेट पर मोटे अक्षरों से यह लिखा जाए कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, साथ ही इससे संबंधित तस्वीर छापना भी अनिवार्य होगा। इस समझौते पर 160 देशों ने तुरंत अमल में लाना शुरू कर दिया, पर हमारे देश में इसका कितना पालन हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारे देश में तम्बाखू लॉबी राजनीति पर इतनी हावी है कि वह जो चाहती है, करवा लेती है। यहाँ यह बात ध्यान देने लायक है कि तम्बाखू के विभिन्न उत्पादों के सेवन से विश्व में हर वर्ष 54 लाख लोग तड़प-तड़पकर दम तोड़ देते हैं। हृदय रोग, लकवा और कैंसर जैसी अनेक बीमारियों के पीछे यही तम्बाखू ही है। इतनी मौतों के बाद भी जब सरकार नहीं चेती, तो फिर आम आदमी की क्या बिसात? वह तो पैदा ही होता है बेमौत मरने के लिए, फिर मौत चाहे तम्बाखू से हो, शराब से हो या फिर बम विस्फोट से। इसलिए ई-सिगार को अपने होठों से लगाने से पहले यह अवश्य सोच लें कि कहीं यह हमारी जान जोखिम में न डाल दे।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

न्यायमूर्ति हाजिर होऽऽऽ.....


डॉ. महेश परिमल
न्याय और अन्याय के बीच अधिक अंतर नहीं होता। जिसे न्याय मिलता है, उसका प्रतिद्वंद्वी यही मानता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है। न्यायाधीश का निर्णय कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता। जिसे न्याय मिला, वह भी तो एक पक्ष है, फिर यह निर्णय निष्पक्ष कैसे हुआ? जितना अंतर न्याय और अन्याय के बीच है, उतना ही अंतर कामयाब और नाकामयाब के बीच है। अन्याय को लेकर हमेशा बड़ों पर ऊँगली उठती है। पर अब हमारे देश में न्याय को लेकर भी ऊँगलियाँ उठने लगी हैं। अब पंच परमेश्वर वाली बात केवल कहानियों तक ही सिमट गई है। हाल ही में देश के कुछ न्यायाधीशों की गलत हरकतों से यह साफ हो गया कि अब वे अन्याय को न्याय में बदलने के लिए अपने को बदलने के लिए तैयार हैं।
आज देश के समग्र न्यायतंत्र पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप की काली छाया मँडराने लगी है। सामान्य मनुष्य का अपराध एक बार माफ किया जा सकता है, किंतु सरकार ने जिन्हें न्यायाधीश की कुर्सी पर बिठाया है, वे यदि अपराध करते हैं, तो उन्हें किस तरह से माफ किया जाए? इन दिनों देश की अदालतों में न्यायमूर्तियों पर भ्रष्टाचार का एक नहीं, बल्कि तीन गंभीर मामलों की जमकर चर्चा है। इन तीन मामलों के कारण देश की न्यायतंत्र की प्रतिष्ठा को दाँव पर लग गई है।
पहला मामला कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन द्वारा 32 लाख रुपए हड़प लेने का है। इस मामले में जज ने अपना इस्तीफा नहीं देने का निर्णय लिया है। किंतु उन्हें बर्खास्त करने के लिए सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस ने केंद्र सरकार को संसद में इंपिचमेंट का मोशन लाने का अनुरोध किया है। दूसरा मामला पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज निर्मल यादव का है, जिन पर 15 लाख रुपए की रिश्वत लेने के आरोप के तहत पूछताछ करने की अनुमति सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस ने दे दी है। तीसरा मामला तो और भी गंभीर है, जो गाजियाबाद का है। यहाँ की अदालत में चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों के प्रोविडंट फंड के खातों में से निकाले गए 23 करोड़ रुपए फर्जी वाउचरों के माध्यम से निकाले गए। इस धनराशि का उपयोग तत्कालीन 36 यूडिशियल ऑफिसरों के लिए विविध ऐश्वर्यशाली वस्तुएँ खरीदने में किया गया। इस मामले में सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के 11 जजों को लिखित रूप से आरोपों का जवाब देने के लिए कहा है। यह काम उत्तरप्रदेश पुलिस को सौंपा गया है।
गाजियाबाद की कोर्ट की तिजोरी से जिस तरह से 23 करोड़ रुपए निकाले गए और उसका उपयोग जजों के लिए घरों के सामान खरीदने के लिए किया गया, उसके कारण देवतास्वरूप न्यायमूर्तियों के आचरण को लेकर कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया। गाजियाबाद की एडीशनल सेशन्स जज श्रीमती रमा जैन को खयाल आया कि इस वर्ष फरवरी माह में अदालत की तिजोरी से फर्जी वाउचरों के माध्यम से 23 करोड़ रुपए निकाले गए हैं। उन्होंने तुरंत ही इसकी सूचना गाजियाबाद पुलिस को दी और एफआईआर दर्ज कराया। इसके बाद गाजियाबाद के एसएसपीए ने इस मामले की जाँच शुरू की।
पुलिस जाँच में यह सामने आया कि इस मामले के मुख्य सूत्रधार राजीव अस्थाना हैं। जिसने विभिन्न डिस्ट्रिक्ट जजों की सूचना से 2001 और 2007 के बीच अदालत की तिजोरी में से 23 करोड़ रुपए हड़प लिए थे। पुलिस के सामने अपने बयान में उसने इस बात को स्वीकार किया था कि इन रुपयों का उपयोग उसने अनेक जजों के लिए उनकी घर-गृहस्थी के सामान को खरीदने में किया था, जिसमें सुपी्रमकोर्ट के एक जज और इलाहाबाद हाईकोर्ट के 11 जज भी शामिल थे। अस्थाना ने यह भी दावा किया था कि गाजियाबाद के भूतपूर्व डिस्ट्रिक्ट जज आर.एस. चौबे के कहने पर उसने सुप्रीमकोर्ट के एकर् वत्तमान न्यायमूर्ति के घर भी टॉवेल, बेड-शीट, क्रॉकरी आदि चीजें पहुँचाई थीं। बाद में अस्थाना ने गाजियाबाद के एडिशनल चीफ युडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने भी इस प्रकार का बयान दिया था।
गाजियाबाद की कोर्ट में काम करनेवाले तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों के वेतन में से जो राशि प्रोविडन्ट फंड और ग्रेयुटी के रूप में काट ली जाती है, उसे अदालत की तिजोरी में जमा कर लिया जाता है। अस्थाना के अनुसार उसने इन खातों में से गलत बाउचर बनाकर 23 करोड़ रुपए हड़प लिए थे। इन रुपयों में से कोलकाता हाईकोर्ट के एक वर्तमान जज के घर उसने टी.वी., फ्रिज और वॉशिंग मशीन जैसे उपकरण भी खरीद कर पहुँचाए थे। अस्थाना ने ऐसा दावा किया है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के कम से कम सात सिटींग जजों को भी इन रुपयों में से लाभ मिला है। इनके लिए भी कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, फर्नीचर आदि वस्तुएँ खरीदी गई थीं। गाजियाबाद के एसएसपी ने इन जजों से पूछताछ करने की अनुमति सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस से माँगी हैं। उन्हें इस संबंध में मात्र लिखित प्रश्न पूछने की ही छूट दी गई है।
गाजियाबाद के एसएसपी दीपक रतन का कहना है कि इस संबंध में उन्हें 36 न्यायमूर्तियों को पूछने के लिए प्रश्नों की सूची तैयार कर राय सरकार को भेजी है। इन सवालों की एक बार सुप्रीमकोर्ट भी जाँच करेगी, उसके बाद ही सवालों को संबंधित न्यायाधीशों को भेजा जाएगा। इस मामले में अब तक राजीव अस्थाना समेत 83 लोगों के खिलाफ फौजदारी मामला फाइल किया गया। इनमें से 64 की धरपकड़ की गई है। अस्थाना ने यह स्वीकार किया है कि इस मामले में 36 न्यायमूर्ति भी शामिल हैं। इस मामले को एक तरफ राय सरकार रफा-दफा करने की कोशिश कर रही है, दूसरी तरफ भारत के पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने सुप्रीमकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर इस मामले की निष्पक्षता से जाँच की माँग की है। इनका साथ गाजियाबाद बार एसोसिएशन और ट्रांसपरंसी इंटरनेशनल नाम की संस्थाओं ने भी किया है। इसके पूर्व सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस के.जी. बालकृष्णन की इच्छा इन याचिकाओं की सुनवाई बंद दरवाजे में करने की थी, पर शांतिभूषण ने यह आरोप लगाया कि सरकार इस मामले को दबाना चाहती है, इसलिए ऐसा किया जा रहा है। इसके मद्देनजर अब इस मामले की सुनवाई खुली कोर्ट में की जा रही है।
हमारे देश में हाईकोर्ट या फिर सुप्रीमकोर्ट के कोई भी सिटिंग जज भ्रष्टाचार करे, तो उनके खिलाफ जाँच करने का कोई कानून ही नहीं है। अभी इस मामले की जाँच सुप्रीमकोर्ट जज द्वारा चयन की गई तीन जजों की समिति कर रही है, पर इनकी कार्रवाई अत्यंत गुप्त रखी जा रही है। इस मामले में सरकार की नीयत भी ठीक दिखाई नहीं दे रही है, क्योंकि जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए संसद में दिसम्बर 2006 में जजीस इंक्वायरी बिल पेश किया गया था, पर सरकार न्यायपालिका के साथ किसी प्रकार का पंगा नहीं लेना चाहती, इसलिए इस प्रस्ताव को ताक पर रख दिया गया। बहरहाल इस मामले का जो भी फैसला आए, पर सच तो यह है कि इस मामले ने जजों को भी संदेह के दायरे में खड़ा कर दिया है।
देश के न्यायमूर्तियों को स्वच्छ होना ही नहीं, बल्कि स्वच्छ दिखना भी चाहिए। आज न्याय को लेकर कानून अपने हाथ में लेने से भी लोग नहीं चूक रहे हैं। कानून हाथ में लेना आम बात हो गई है। जो दमदार हैं, उन्हें मालूम है कि न्याय को किस तरह से अपने पक्ष में किया जा सकता है। इस मामले में यदि आरोपी न्यायाधीशों पर किसी प्रकार की ठोस कार्रवाई नहीं की गई, तो निश्चित ही लोगों न्याय पर से विश्वास उठ जाएगा और यह स्थिति बहुत ही भयावह होगी, यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

बॉलीवुड में चल रहा है साइज का जादू


डॉ. महेश परिमल
बहुत ही कम ऐसे लोग होंगे, जिन्होंने आज के फिल्मी पत्रिकाओं और अखबारों के फिल्मी पेजों पर प्रतिभावान नायिकाओं की तस्वीरें देखते होंगे। आज अखबारों और पत्रिकाओं के फिल्मी पेजों पर मांसल देहधारी नायिकाओं की तस्वीरें ही देखने को मिलती हैं। काफी समय से बॉलीवुड की अभिनेत्रियों की साइज अत्यंत महत्वपूर्ण बन गई है । यहाँ तक कि एक समय की तंदरुस्त अदाकाराओं का स्थान दुबली-पतली अभिनेत्रियों ने ले लिया है। यह साइज अब घटते-घटते जीरो तक पहुँच गया है। हाल ही में फिल्म 'टशन' में करीना कपूर ने अपनी देह की साइज को 'जीरो फीगर' कर लिया, उसके बाद भी उसका यह जादू चल नही पाया।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीय दर्शकों को खासकर पुरुषों को कितने फीगर वाली नायिकाएँ अच्छी लगती हैं? इसका सीधा-सादा उत्तर यही है कि हाड़पिंजर वाली अभिनेत्री तो कतई नहीं। जिस तरह से स्थूलकाय महिला किसी को अच्छी नहीं लगती, ठीक उसी तरह एकदम सिंगल हड्डी नायिका भी किसी को अच्छी नहीं लगती। मतलब साफ है कि जो एक निश्चित माप की नारी देह ही ऑंखों को भली लगती है। एक माप से कम नारी देह केवल हाडपिंजर के सिवाय कुछ भी नहीं होती। फिल्म 'धूम' में ईशा देओल ने अपना वजन काफी कम किया था। किंतु वह हाड़पिंजर जैसी तो कतई दिखाई नहीं दे रही थी। दूसरी ओर 'धूम 2' में ऐश्वर्या राय और विपाशा बसु के स्लीम-ट्रीम और सेक्सी फीगर ने बहुत ही धूम मचाया। किंतु फिल्म 'टशन' में करीना के जीरो फीगर का जादू चल नहीं पाया, इससे यह बात स्पष्ट नहीं ािेती कि दर्शक आखिर क्या देखना चाहते हैं?

अब पुराने जमाने की नायिकाओं के फीगर पर नजर डालते हैं। पहले की नायिकाएँ मांसल देह वाली थीं। मधुबाला, नूतन, मीनाकुमारी, नंदा, आशा पारेख, वैजयंतीमाला, वहीदा रहमान, हेलन, बिंदु, सायरा बानो, तनूजा, रेखा, हेमामालिनी और डिम्पल कपाड़िया जैसी तमाम नायिकाओं के शरीर भरावदार थे। कई फिल्मों के इनके शरीर की काफी नुमाइश भी की गई। इसके बाद आई परवीन बॉबी और जीनत अमान अपने शरीर के प्रति विशेष रूप से सचेत थीं। उन्हें मालूम था कि आकर्षक शरीर किसे कहा जाता है और इसे किस तरह से तराशा जाता है? अपनी इस जागरूकता को उन्होंने खूब भुनाया। यहीं से शरीर के प्रति सचेत रहने वाली नायिकाओं का प्रादुर्भाव हुआ। बहुत ही दुबली-पतली काया वाली माधुरी दीक्षित को सुभाष घई ने दूध के साथ शहद लेने की सलाह दी, इससे माधुरी का शरीर परदे पर सेक्सी दिखने लगा। श्रीदेवी भी अपने आकर्षक शरीर का प्रदर्शन समय-समय पर खूब किया। काजोल, मनीषा कोईराला, रवीना टंडन आदि भी मांसल देहधारी रहीं। किंतु उर्मिला मांतोडकर और करिश्मा कपूर ने आकर्षक देह की परिभाषा ही बदल दी। 'रंगीला' में उमला और 'दिल तो पागल है' में करिश्मा के स्लीम-ट्रीम फीगर के कारण हिंदी फिल्म उद्योग में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया। अब नायिकाएँ जिम की तरफ कूच करने लगीं, ताकि परदे पर सेक्सी दिखाई दें। पर्सनल ट्रेनर की पूछ-परख बढ़ने लगी। शिल्पा शेट्टी जैसी कमनीय काया वाला नायिकाएँ भी अपने फीगर के प्रति जागरूक बनर् गई्र। इससे प्रिटी जिंटा को लगा कि उसका बजन कुछ अधिक ही है, इसलिए वह भी अपना वजन कम करने के अभियान में लग गई। उधर अपना वजन कम न कर पाने के कारण मनीषा कोईराला जैसी समर्थ अभिनेत्री एक तरह से फिल्मों से आउट ही हो गई।

अब धीरे-धीरे फिल्मों में मॉडलों का आगमन होने लगा। टीवी पर इन मॉडलों के शरीर का एक भाग ही सामने आता। वे अकसर साइड पोश पर अपने परिधानों और शरीर का प्रदर्शन करतीं। इसलिए इनके फिल्मों में आने से इनकी पूरी देह ही दर्शकों के सामने आने लगी। तब इन्हें समझ में आया कि फिल्मों के दर्शक कुछ अधिक ही सचेत हैं, इसलिए उन्होंने अपनी देह का तराशना शुरू कर दिया। ऐश्वर्या राय ने 'ताल' और 'हम दिल दे चुके सनम' के लिए अपना वजन बढ़ाया था। उधर पतली-दुबली किंतु ताड़ की तरह लम्बी मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन काफी मशक्कत के बाद अपने शरीर को भरावदार बना पाई। 'जिस्म' में विपाशा बसु खासी तंदरुस्त दिख रही थीं, प्रियंका चोपड़ा और लारा दत्ता ने 'अंदाज' के लिए अपना वजन बढ़ाया था। उधर कैटरीना कैफ ने 'सरकार' और 'मैंने प्यार क्यूँ किया' के लिए अपने शरीर को मांसल बनाया था। एकदम दुबली-पतली दीपिका पादुकोण को फराह खान ने 'ओम शांति शांति' के लिए वजन बढ़ाने के लिए कहा था। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' में काजोल, 'डर' में जूही चावला,, 'लम्हे' में श्रीदेवी जैसी ख्यातनाम नायिकाओं के शरीर भरावदार थे, इसके बाद भी इन फिल्मों ने काफी दर्शक बटोरे। किंतु यशराज कैम्प के आदित्य चोपड़ा ने कीम शर्मा, शमिता शेट्टी और प्रीती झंगियानी जैसी ग्लैमरस डॉल के शरीर को भुनाने की कोशिश 'मोहब्बतें' में की, पर वे सफल नहीं हो पाए। उसी तरह 'मेरे यार की शादी', 'मुझसे दोस्ती करोगे', 'नील एन निकी' और 'झूम बराबर झूम' जैसी फिल्मों में नायिकाएँ को हॉट लुक की तरह पेश किया गया, पर यह प्रयोग सुपर-डुपर फ्लॉप हो गया। इसी भीड़ में स्लीम-ट्रीम रानी मुखर्जी का सिक्का अच्छा चल निकला। रानी मुखर्जी के साथ उनकी बाडी लैंग्वेज और अभिनय भी था, इसलिए दशकों ने उसे सहजता से स्वीकार कर लिया।
हाल ही में विपाशा बसु और करीना कपूर अपना वजन उतारकर बहुत ही खुश दिखाई दे रही है। उधर ईशा देओल, रिया सेन, कोयना मित्रा, सेलिना जेटली, पायल रोहतगी, अमृता राव और मल्लिका शेरावत जैसी सेक्सी अभिनेत्रियों का उपयोग फिल्मों में केवल दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ही किया गया। इन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर काम मिला, यह सोचना मूर्खता ही होगी। ये सभी अपनी सेक्सी देह के कारण ही फिल्मों में टिकी हुई हैं, ऐसा कहा जा सकता है। आयशा टांकिया, विद्या बालन और तब्बू जैसी अभिनेत्रियाँ अपने शरीर नहीं, बल्कि अपने अभिनय से दर्शकों को खींच लेती हैं। मलाइका अरोरा जैसी ग्लैमरस अभिनेत्री कहती है कि इकहरा बदन और आकर्षक लचक धारण करने वाली नारी ही सुंदर लगती हैं। हाड़पिंजर जैसी काया धारण करने वाली नारी को सुंदर नहीं कहा जा सकता। इस संबंध में कोकणा सेन शर्मा कहती हैं कि केवल मांसल देह के बजाए 'फीट' होना अधिक आवश्यक है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यदि अभिनेत्री में मांसल देह के साथ-साथ अभिनय क्षमता भी हो, तो दर्शक उसे हाथो-हाथ लेते हैं। मल्लिका शेरावत से बेहतर अभिनय की उम्मीद करना फिजूल है, लोग उसके शरीर को ही देखने उमड़ पड़ते हैं, इसे वह अच्छी तरह से जानती है। पहले ही नायिकाओं में अभिनय क्षमता गजब की थी, इसलिए वे आज भी अपनी दूसरी पारी खेल रही हैं, आज की नायिकाएँ दूसरी पारी खेल पाएँ, इसमें शक है। आज बॉलीवुड में केवल मांसल देहधारी नायिकाओं का ही बोलबाला है। अपने मांसल देह के कारण ये कुछ समय तक ही फिल्मों में चल पाती हैं। ममता कुलकर्णी, किमी काटकर, खुशबू, आयशा जुल्का, फरहा, माधवी, राधिका, अमला, अश्विनी भावे, वर्षा उसगाँवकर, श्रीप्रदा जैसी अभिनेत्रियाँ केवल अपनी देह के कारण ही कुछ समय तक चल पाई, उसके बाद ये सभी परदे से गायब हो गई। इसलिए यही कहा जा सकता है कि मांसल देह के साथ-साथ यदि अभिनय प्रतिभा हो, तो वे नायिकाएँ न केवल दर्शकों को आकषत करती हैं, बल्कि अपने अभिनय से रिझाती भी हैं। पुरानी अभिनेत्रियों को आज केवल उनके अभिनय के कारण ही जाना जाता है, मांसल देह के कारण नहीं।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

चिंतन :कौन परिवर्तनशील?


डॉ. महेश परिमल
कहा जाता है कि समय परिवर्तनशील है, पर देखा जाए तो हम समय से यादा परिवर्तनशील हैं। कब धार्मिक बन जाएँ, कब अधार्मिक, हम खुद नहीं जानते। घर से निकले किसी काम से, सामने बिल्ली ने रास्ता काट दिया। हमारे सामने अंधविश्वास था। हम ठहर गए, हमारा ही कोई साथी आगे बढ़ा। हमने सोचा- अपशकुन टल गया। हम भी आगे बढ़ गए। मन के अनुकूल काम हुआ या नहीं, नहीं मालूम, पर आते समय हम एक बिल्ली के आगे से गुजर कर उसका रास्ता काट गए। बदकिस्मती बिल्ली की वह एक कार के पहिए के नीचे आ गई। उसका प्राणांत हो गया।
अब वह बिल्ली अपनी क्षत-विक्षत अवस्था में सड़क पर पड़ी है। बदबू फैला रही है। हमने अपनी जागरूकता का परिचय देना चाहा, चलो कुछ करे। बिल्ली के अंग को ही समेट कर फेंक दें। हम जागरूक नहीं हो पाए, अलबत्ता पार्षद से कह आए। हम पार्षद के आश्वासन से लदे हुए थे। बिल्ली के अंग नहीं हट पाए। हाँ, कौवे, कुत्ते कभी-कभी वहाँ दिख जाते। वातावरण दूषित होता देख हमने नगर निगम फोन कर पुन: अपनी जागरूकता का परिचय दिया। वहाँ जिसने फोन उठाया, वह उस विभाग का कर्मचारी नहीं था, फिर भी उसने पूरी बात सुनी और संबंधित कर्मचारी को बताने का आश्वासन दिया।
इधर बिल्ली के अंग कम होते जा रहे थे और दुर्गंध बढ़ती जा रही थी। समस्या वहीं के वहीं थी। फिर हम सबने एक साथ जागरूक होने का परिचय दिया। चंदा किया, जमादार को बुलवाया, उससे विनती की, हाथ जोड़े, उसने रुपए लिए और उस जगह को साफ कर दिया। जगह साफ हो गई और हमारा हृदय भी साफ हो गया। अब गंदे और बदबूदार विचार भी आने बंद हो गए।
सोचता हूँ कि बिल्ली को मरना था। हमने रास्ता काटा और वह चल बसी, पर उसके साथ-साथ हमारी मान्यताएँ और परंपराएँ भी क्या चल बसी, जो हमें माता-पिता और समाज से संस्कार के रूप में मिली थीं? रास्ते चलते हुए मंदिर दिखा, तो झट से सर झुकाया, पर बिल्ली मरी हुई देखी, तो मुँह फिराकर निकल गए। कहीं धार्मिक बने, तो कहीं अधार्मिक। हम अपना चेहरा कितनी जल्दी बदल लेते हैं, कभी सोचा आपने?
जब हम किसी से अपना काम करवाना चाहते हैं, तब उससे विनती करते हैं कि नियम-कायदों में जरा ढील दे दो, पर जब वही व्यक्ति हमारे पास किसी काम से आता है, तब हम नियम-कायदों के प्रति और सख्त हो जाते हैं। ऐसा कैसे कर लेते हैं हम? यहाँ हम स्वयं ही यह नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं?
घर के सामने कोई समस्या हो, मोहल्ले की कोई समस्या हो, समाज की, शहर की कोई समस्या हो, तो हम उसे अनदेखा तब तक करते रहते हैं, जब तक वह खुद की समस्या नहीं बन जाती। अब जब समस्या गले पड़ ही गई, तो उसका समाधान तो ढूँढना ही है। तब तो वही समस्या हमारे लिए बहुत बड़ी हो जाती है। आखिर क्यों न हो, उसका असर हमारे परिवार पर पड़ेगा भई। तो जनाब क्या पहले जब वह समस्या देश और समाज की थी, तब आपकी नहीं थी? बदल लिया न अपना चेहरा? सच-सच बताना कितने चेहरे हैं आपके? प्रश्न तो अभी भी उठ रहे हैं कि -
- क्या आप सामाजिक प्राणी नहीं हैं?
- क्या आप समाज से अलग रहना पसंद करते हैं?
- क्या आपका अपना अलग ही समाज और राष्ट्र है?
- क्या आपका हित समाज और राष्ट्र के हित से बड़ा है?
अगर ये सब गलत है, तो उठिए और हर समस्या का समाधान ढूँढिए और एक अच्छे नागरिक होने का सुबूत दीजिए। यही आपकार् कत्तव्य है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

पाक: दिल में कुछ जुबां पर कुछ


नीरज नैयर
मिस्टर 10 पसर्ेंट से राष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचे आसिफ अली जरदारी भारत के साथ रिश्तों की गर्माहट को और बढ़ाना चाहते हैं. बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा में जरदारी ने गर्मजोशी से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तकबाल करके यह जताने का प्रयास किया कि वो दहशतगर्दी के खेल से हटकर कुछ करने की सोच रहे हैं. बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाक हुकूमत के अंदरूनी मामलों में उलझे रहने के चलते भारत-पाक बातचीत सर्द खाने में पड़ी थी जिसे पाकिस्तानी राष्ट्रपति फिर से माकूल माहौल में लाने की जद्दोजहद करते दिखाई पड़ रहे हैं. दोनों देशों ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने, संयुक्त आतंकवाद निरोधक नीति पर काम करने एवं द्विपक्षीय व्यापार के लिए सीमा की बंदिशें खोलने पर सहमति जताई है. जिसे निहायत ही अच्छा कदम समझा जा सकता है. वैसे इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं कि जरदारी जब से सत्ता में आए हैं भारत-पाक के बीच उपजी कटुता को मिटाने की बातें करते रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के तख्तोताज पर काबिज हुक्मरानों की ऐसी भारत पसंदगी ने वक्त दर वक्त जो निशानात रिश्तों की तस्वीर पर छोड़े हैं उससे जरदारी की बातों को सहज ही स्वीकारा नहीं जा सकता. पाकिस्तान की विदेश नीति में कश्मीर हमेशा सबसे ऊपर रहा है. वहां की अवाम भी शायद उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधना पसंद करती है जो कश्मीर की चिंगारी को सुलगाता रहे. ऐसे में जरदारी इससे कैसे अछूते रह सकते हैं. राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही आवाम को संबोधित करते हुए जरदारी ने ऐलान किया था कि मुल्क कश्मीर के मामले में बहुत जल्दी खुशखबरी सुनेगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा में मनमोहन सिंह से संबंधों को नए आयाम देने के वादे के बाद जरदारी ने पाकिस्तानी खबरनवीसों से जो कुछ कहा वह उनके दिल और जुबां के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. जरदारी ने कहा कि असल मुद्दा कश्मीर है और अगर द्विपक्षीय वार्ता से नतीजा नहीं निकलता तो हम संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने से भी एतराज नहीं करेंगे. अभी हाल ही में जब जरदारी ने कश्मीर में हिंसक संघर्ष करने वालों को आतंकवादी करार दिया तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी, भारत सरकार ने दिल खोलकर पाकिस्तानी सदर के बयान का स्वागत किया लेकिन महज चंद घंटों के अंतराल में ही यह साफ हो गया कि पाक सिपहसलारों के जहन में कश्मीर के अलावा कुछ और ठहर ही नहीं सकता. पर यहां जरदारी की मंशा पर पूरी तरह सवालात उठाना भी जायज नहीं होगा. जरदारी ने जिस तरह हिम्मत के साथ कश्मीर मसले पर इतनी ज्वलंत टिप्पणी करने का साहस दिखाया उतना शायद ही पाक का कोई शासक कर सका हो.
पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ तो इन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा करते थे. वैसे यह अनायास ही नहीं है, जरदारी के इस बयान के पीछे कई कारण छिपे हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी कई चीजें हुई हैं, जो पाकिस्तान के खिलाफ जाती हैं. एक तो उसके सीमांत इलाके में अमेरिका की सैन्य कार्रवाई बदस्तूर जारी है जिसे लेकर पाक में आक्रोश है. दूसरे, अमेरिका और फ्रांस के साथ हुए भारत के परमाणु समझौते ने इस्लामाबाद को चिंतित और कुंठित कर दिया है. ऐसे में भारत को पहले की तरह अपना दुश्मन बताकर पाकिस्तान यूरोप या अमेरिका से कुछ हासिल नहीं कर सकता. लिहाजा सीमा पार से दोस्ती की पींगे बढ़ाने की बातें कही जा रही हैं. रह-रहकर संघर्ष विराम का उल्लंघन और पाक प्रधानमंत्री गिलानी की चीन से परमाणु करार की रट पड़ोसी मुल्क की कुंठा का ही परिणाम है. बीते कुछ दिनों में ही पाकिस्तानी फौज द्वारा सीमा पार से अकारण ही गोलीबारी की अनगिनत खबरें सामने आ चुकी हैं. घुसपैठ का आलम यह है कि अगर हमारी सेना सतर्क नहीं होती तो कारगिल की पुनरावृत्ति हो चुकी होती. कश्मीर में अलगाववादियों को आईएसआई और पाक सेना का पूरा समर्थन मिल रहा है. देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है. यही कारण है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत परस्त नजरिए अपनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी छवि सुधारना चाहती है. करार के बाद भारत न केवल अमेरिका के नजदीक आ गया है बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में टांग फैलाकर बैठने का हक भी हासिल हो गया है. फ्रांस आदि देशों से भारत की बढ़ती नजदीकी पाक की परेशानी को और बढ़ा रही है. दरअसल अमेरिका से पाक के रिश्ते अब उतने मधुर नहीं रहे हैं जितने पहले थे. अपनी सीमा में अमेरिकी सैनिकों की कार्रवाई से बौखलाकर पाक पीएम गिलानी ने जिस लहजे में अमेरिका को चेताया था उससे साफ है कि बुश-मुश द्वारा तैयार की गई रिश्तों की गांठ ढीली पड़ गई है. पाकिस्तान ने आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से सालों तक जो मोटी रकम वसूली थी उस पर ओबामा या मैक्केन के आने के बाद रोक लग सकी है. पाक की छवि वैसे भी विश्व पटल पर आतंकवादी देश के रूप में बनी हुई है, ऐसे में अमेरिका से लेकर यूरोप तक भारत के दोस्तों की फेहरिस्त बढ़ने से पाक की भारत विरोधी गतिविधि उसके संकटकाल को और लंबा खींच सकती है, लिहाजा सोची-समझी रणनीति के तहत ही कश्मीर पर जरदारी का बयान और आतंकवाद के सफाए के लिए मिलकर लड़ने जैसे बातें पड़ोसी मुल्क के सियासतदां की तरफ से आ रही है. पाकिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के शासकों ने कभी भारत का भला नहीं चाहा, बात चाहे बेनजीर की हो, शरीफ की हो या फिर मुशर्रफ की हर किसी के दिल में कुछ और जुबां पर कुछ और रहा, सबकी यही कोशिश रही कि कश्मीर छीनकर हिंदुस्तान की हरियाली को उजाड़ा जाए. भारत हमेशा ही पाकिस्तान को अपना दोस्त, अपना भाई समझता रहा है लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा दोस्ती को बहुत हल्के में लिया. अगर इस्लामाबाद असलियत में भारत से दोस्ती बढ़ाना चाहता है केवल खुशफहमी वाले बयानात से कुछ नहीं होगा उसे जमीनी स्तर पर कदम आगे बढ़ाना होगा, पर अफसोस ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ती.
नीरज नैयर

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

मुश्किल है मन के भ्रम को मिटाना


डॉ. महेश परिमल
कहा गया है मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कई बार देखा गया है कि बड़े-बड़े विवादों के मूल में सार तत्व कुछ भी नहीं रहता। उसमें रहता है केवल भ्रम और मिथ्या अहंकार। मन ही है जिसके भीतर भ्रम और अहंकार पनपते हैं। कोई लाख प्रयत्न कर ले, पर मन के भ्रम को मिटाना मुश्किल है।
प्रत्येक विचारवान मनुष्य के भीतर एक चंचल मन होता है। इसे जितना रोकना चाहो, वह उतना ही भागेगा। अगर उसे भाग जाने के लिए कहा जाएगा, तो वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाएगा। मन में ही उठते हैं विचार। विचारवान पुरुष जानबूझकर किसी का विरोध नहीं करता। यदि कोई जानबूझकर उसके सही विचारों का विरोध करता है, तो वह विचारवान नहीं हो सकता। ऐसा करके वह अपनी ही हानि करता है, ऐसा व्यक्ति क्षमा का पात्र है।
कई लोग दूसरों की बुराइयाँ करने में ही अपना समय व्यतीत कर देते हैं। ऐसे लोग कभी शांति से नहीं रहते। दूसरों की सही या गलत बुराइयों का सबके सामने बखान करके विवाद या तनाव बढ़ाकर कोई व्यक्ति न अपने जीवन में शांति पा सकता है और न ही दूसरे की शांति में सहायक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो अशांत रहेगा ही, दूसरों को भी अशांत करेगा। इसी में उसे जीवन के परम आनंद का सुख मिलता है।
दूसरी ओर ऐसा व्यक्ति हमेशा कहीं न कहीं उलझा रहता है। उलझे हुए आदमी के मन का स्तर सदैव गिरता रहता है। वह हमेशा बुरा सोचता है और बुरा कहता है। इस प्रकार वह निरंतर बुराइयों में लिपटा रहता है। उसकी आध्यात्मिक शक्ति क्षीण हो जाती है और वह पतित हो जाता है। याद रखें, आध्यात्मिक पतन सबसे बड़ा पतन है।
यह तो तय है कि हम दूसरे के मन की बात समझ नहीं सकते, पर उनके विचारों का सम्मान तो कर ही सकते हैं। दूसरों के विचारों को आदर देना बहुत बड़ी मानवता है। जो दूसरे की सुख-सुविधा के बारे में नहीं सोचता उसे कभी शांति नहीं मिल सकती। कोई शत्रु यदि चाहे, तो हमें आर्थिक या शारीरिक हानि ही पहुँचा सकता है, लेकिन यदि हमने लोगों की बुराई करने का एक सूत्रीय अभियान चला रखा है, तो हमारे दु:ख और बढ़ जाएँगे। शांति हमसे कोसों दूर हो जाएगी, क्योंकि दूसरों के लिए राग-द्वेष का भाव अपने मन में रखकर हम स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। हमारी हानि मन की अशुद्धि में है और लाभ मन की पवित्रता में। इस बात को ठीक से समझ लिया जाए, तो हमारी दृष्टि में कोई शत्रु नहीं होगा। सब मित्र होंगे।
अंत में केवल इतना ही कबीरदास जी कह गए हैं- सांचे श्रम न लागै, सांचे काल न खाय, सांच ही सांचा जो चलै, ताको काह नशाय। यह वचन विश्व नियम का महाकाव्य है। हमें चाहिए कि हम दूसरों पर संदेह करके अपने मन को खराब न करें, किन्तु अपने मन को साफ रखकर सच्चे मार्ग पर चलने का प्रयास करें।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

चिंतन :-हमारी काहिली


डॉ. महेश परिमल
पहले घर की महिलाएँ सुबह जागते ही ईश्वर को याद करती थीं, पर आजकल की महिलाएँ अगर किसी को याद करती है, तो वह है अपनी कामवाली बाई को। कभी इधर ध्यान दिया आपने कि कामवाली बाई अचानक प्रात: स्मरणीय कैसे हो गई?
यदि घर के सदस्य आत्मनिर्भर नहीं है, याने अपना काम खुद नहीं कर सकते, तो उस घर में कामवाली बाई का महत्व बढ़ जाता है। ऐसे घर का नजारा तब देखना चाहिए, जब सुबह-सुबह कामवाली बाई का फोन आ जाए कि आज वह नहीं आ सकती। तब देखिए उस घर का नजारा। हर चेहरा बदहवास दिखाई देगा। न समय पर नाश्ता बनेगा, न भोजन। जिन्हें नाश्ता मिल गया उन्हें भोजन नहीं मिलेगा। जिन्हें गर्म पानी नहीं मिला, वे बिना नहाए ही दफ्तर पहुँचेंगे।
ऐसा क्यों होता है कि अनजाने में हम 'पर निर्भर' हो जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता। कहते हैं ना कि आदमी के जाने के बाद उसकी अहमियत पता चलती है। इसी तरह बीच-बीच में गोल मारकर बाई भी अपने जिंदा होने का अहसास कराती है। जिस दिन वह नहीं आती, उस दिन पता चलता है कि वह घर का कितना काम करती थी। प्रत्येक सदस्य उस पर निर्भर था।
यह एक विचारणीय प्रश्न है हम कैसे आलसी बन गए? हमें उठते ही बिस्तर पर ही 'बेड-टी' की आदत है। यह भी कोई आदत है, न मुँह धोया, न कुल्ला किया, पी ली चाय। साहब शरीर आपका है। इसका मतलब यह नहीं कि आप इसे स्वच्छ, ताजा हवा से भी वंचित रखें। ठंडी में गर्म और गर्मी में ठंडी हवा का आदी बना लिया है हमने इसे। यहीं से शुरू हो गई हमारी गुलामी। अपना काम सुबह खुद करो, इस बात से बहुत दूर हैं हम। यह तो हमारी समझ से ही बाहर की बात है। खानदानी रईस हैं हम। इतने नौकर-चाकर क्यों रखे हैं हमने? आखिर कमाते किसलिए हैं हम?
घर की महिलाएँ भी काम न करना पड़े इसलिए कामवाली बाई को कुछ न कुछ अतिरिक्त देकर उसकी अपेक्षा बढ़ाने का काम करती है। कभी रुपए, कभी साड़ी, कभी दूसरे कपड़े, कभी बचे हुए पकवान आदि। उसे काम के बदले में अतिरिक्त कुछ न कुछ मिलता है, तो वह भी आश्रित होने लगती है हम पर और हम भी उस पर निर्भर होने लगते हैं। इस तरह से कामवाली घर की महत्वपूर्ण सदस्य बन जाती है। यदि उसी कामवाली बाई ने घर का सारा काम करते-करते घर पर ही हाथ साफ कर दिया, तो आप लगाते रहें थाने के चक्कर। उसने तो आपकी मजबूरी का फायदा उठाकर आपको चक्कर में डाल दिया। फिर भी यदि आप अपना काम खुद न करने का संकल्प नहीं लेते, तो प्रश्न-दर-प्रश्न आपके सामने हैं-
- कामवाली बाई पर निर्भर होकर कहीं हम काहिल तो नहीं हो गए?
- धन के अलावा उसे कुछ अन्य चीजें देकर हम उसकी अपेक्षाएँ तो बढ़ाने में मदद नहीं कर रहें?
- वह मेहनतकश है, किंतु उसकी मेहनत का मूल्य हम अधिक तो नहीं ऑंक रहे?
- हम उस पर निर्भर हो जाते हैं, पर वह हम पर निर्भर क्यों नहीं रह जाती?
इन प्रश्नों का उत्तर तलाशेंगे आप?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

मासूमों के काँधों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बंदूक

डॉ. महेश परिमल
आज हमारे में चुपके-चुपके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। इसे हम अभी तो नहीं समझ पा रहे हैं, पर भविष्य में निश्चित रूप से यह हमारे सामने आएगा। इस बार इन बहुराश्ट्रीय कंपनियों ने हमारी मानसिकता पर हमला करने के लिए मासूमों का सहारा लिया है। हमारे मासूम याने वे बच्चे, जिन पर हम अपना भविष्य दाँव पर लगाते हैं और उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे हमारा सहारा बनें। सहारा बनने की बात तो दूर, अब तो बच्चे अपने माता-पिता को बेवकूफ समझने लगे हैं और उनसे बार-बार यह कहते पाए गए हैं कि पापा, छोड़ दो, आप इसे नहीं समझ पाएँगे। इस पर हम भले ही गर्व कर लें कि हमारा बच्चा आज हमसे भी अधिक समझदार हो गया है, पर बात ऐसी नहीं है, उसकी मासूमियत पर जो परोक्ष रूप से हमला हो रहा हैं, हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं।आज घर में नाश्ता क्या बनेगा, इसे तय करते हैं आज के बच्चे। तीन वर्श का बच्चा यदि मैगी खाने या पेप्सी पीने की जिद पकड़ता है, तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजाने में उसके मस्तिष्क में विज्ञापनों ने हमला किया है। मतलब नाश्ता क्या बनेगा, यह माता-पिता नहीं, बल्कि कहीं बहुत दूर से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तय कर रही हैं।
मैंने पहले ही कह दिया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बहुत ही धीरे से चुपके-चुपके हमारे निजी जीवन में प्रवेश कर रही हैं, इस बार उन्होंने निशाना तो हमें ही बनाया है, पर इस बार उन्होंने काँधे के रूप में बच्चों को माध्यम बनाया है। यह उसने कैसे किया, आइए उसकी एक बानगी देखें-इन दिनों टीवी पर नई कार का विज्ञापन आ रहा है, जिसमें एक बच्चा अपने पिता के साथ कार पर कहीं जा रहा है, थोड़ी देर बाद वह अपने गंतव्य पहुँचकर कार के सामने जाता है और अपने दोनों हाथ फैलाकर कहता है '' माय डैडीड बिग कार''। इस तरह से अपनी नई कार को बेचने के लिए बच्चों की आवश्यकता कंपनी को आखिर क्यों पडी? जानते हैं आप? षायद नहीं, षायद जानना भी नहीं चाहते। टीवी और प्रिंट मीडिया पर प्रकाषित होने वाले विज्ञापनों में नारी देह के अधिक उपयोग या कह लें दुरुपयोग को देखते हुए कतिपय नारीवादी संस्थाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। नारी देह अब पुरुषों को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बच्चों का सहारा लिया है। अब यह स्थिति और भी भयावह होती जा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब बच्चों में अपना बाजार देख रहीं हैं। आजकल टीवी पर आने वाले कई विज्ञापन ऐसे हैं, जिसमें उत्पाद तो बड़ों के लिए होते हैं, पर उसमें बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है।घर में नया टीवी कौन सा होगा, किस कंपनी का होगा, या फिर वाषिंग मषीन, मिक्सी किस कंपनी की होगी, यह बच्चे की जिद से तय होता है। सवाल यह उठता है कि जब बच्चों की जिद के आधार पर घर में चीजें आने लगे, तो फिर माता-पिता की आवश्यकता ही क्या है? जिस तरह से हॉलीवुड की फिल्में हिट करने में दस से पंद्रह वर्ष के बच्चों की भूमिका अहम् होती है, ठीक उसी तरह आज बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बच्चों के माध्यम से अपने उत्पाद बेचने की कोशिश में लगी हुई हैं। क्या आप जानते हैं कि इन मल्टीनेशनल कंपनियों ने इन बच्चों को ही ध्यान में रखते हुए 74 करोड़ अमेरिकन डॉलर का बाजार खड़ा किया है। यह बाजार भी बच्चों के षरीर की तरह तेजी से बढ रहा है। इस बारे में मार्केटिंग गुरुओं का कहना है कि किसी भी वस्तु को खरीदने में आज के माता-पिता अपने पुराने ब्रांडों से अपना लगाव नहीं तोड़ पाते हैं, दूसरी ओर बच्चे, जो अभी अपरिपक्व हैं, उन्हें अपनी ओर मोड़ने में इन कंपनियों को आसानी होती है। नई ब्रांड को बच्चे बहुत तेजी से अपनाते हैं। इसीलिए उन्हें सामने रखकर विज्ञापन बनाए जाने लगे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि इसके तात्कालिक परिणाम भी सामने आए हैं। यानि यह मासूमों पर एक ऐसा प्रहार है, जिसे हम अपनी ऑंखों से उन पर होता देख तो रहे हैं, पर कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि आज हम टीवी के गुलाम जो हो गए हैं। आज टीवी हमारा नहीं, बल्कि हम टीवी के हो गए हैं।
हाल ही में एक किताब आई है ''ब्रांड चाइल्ड''। इसमें यह बताया गया है कि 6 महीने का बच्चा कंपनियों का ''लोगो'' पहचान सकता है, 3 साल का बच्चा ब्रांड को उसके नाम से जान सकता है और 11 वर्ष का बालक किसी निश्चित ब्रांड पर अपने विचार रख सकता है। यही कारण है कि विज्ञापनों के निर्माता '' केच देम यंग '' का सूत्र अपनाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के बच्चे सोमवार से शुवार तक रोज आमतौर पर 3 घंटे और शनिवार और रविवार को औसतन 3.7 घंटे टीवी देखते हैं। अब तो कोई भी कार्यम देख लो, हर 5 मिनट में कॉमर्शियल ब्रेक आता ही है और इस दौरान कम से कम 5 विज्ञापन तो आते ही हैं। इस पर यदि किेट मैच या फिर कोई लोकप्रिय कार्यम चल रहा हो, तो विज्ञापनों की संख्या बहुत ही अधिक बढ जाती है। इस तरह से बच्चा रोज करीब 300 विज्ञापन तो देख ही लेता है, यही विज्ञापन ही तय करते हैं कि उसकी लाइफ स्टाइल कैसी होगी।इस तरह से टीवी से मिलने वाले इस आकाषीय मनोरंजन की हमें बड़ी कीमत चुकानी होगी, इसके लिए हमें अभी से तैयार होना ही पडेगा।
समय बदल रहा है, हमें भी बदलना होगा। इसका आषय यह तो कतई नहीं हो जाता कि हम अपने जीवन मूल्यों को ही पीछे छोड़ दें। पहले जब तक बच्चा 18 वर्ष का नहीं हो जाता था, तब तक वह अपने हस्ताक्षर से बैंक से धन नहीं निकाल पाता था। लेकिन अब तो कई ऐसी निजी बैंक सामने आ गई हैं, जिसमें 10 वर्ष के बच्चे के लिए ेडिट कार्ड की योजना षुरू की है। इसके अनुसार कोई भी बच्चा एटीएम जाकर अधिक से अधिक एक हजार रुपए निकालकर मनपसंद वस्तु खरीद सकता है। सभ्रांत घरों के बच्चों का पॉकेट खर्च आजकल दस हजार रुपए महीने हो गया है। इतनी रकम तो मध्यम वर्ग का एक परिवार का गुजारा हो जाता है। सभ्रांत परिवार के बच्चे क्या खर्च करेंगे, यह तय करते हैं, वे विज्ञापन, जिसे वे दिन में न जाने कितनी बार देखते हैं। चलो, आपने समझदारी दिखाते हुए घर में चलने वाले बुध्दू बक्से पर नियंत्रण रखा। बच्चों ने टीवी देखना कम कर दिया। पर क्या आपने कभी उसकी स्कूल की गतिविधियों पर नजर डाली? नहीं न....। यहीं गच्चा खा गए आप, क्योंकि आजकल स्कूलों के माध्यम से भी बच्चों की मानसिकता पर प्रहार किया जा रहा है।आजकल तो स्कूलें भी हाईफाई होने लगी है। इन स्कूलों में बच्चों को भेजना किसी जोखिम से कम नहीं है। मुम्बई की एक नर्सरी स्कूल के संचालकों ने बच्चों फील्ड ट्रिप के बहाने एक आलिशान षॉपिंग मॉल में ले गए। यहाँ आकर बच्चों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विभिन्न उत्पादों के बारे में जानकारी ली। इसमें शमिल शिक्षकों ने भी अपने ज्ञान की अभिवृद्धि की।एक और नर्सरी स्कूल के बच्चों को षरीर की पाँच इंद्रियों के बारे में बताने के लिए मेकडोनाल्ड्स के रेस्टॉरेंट में ले जाया गया। ऐसे उदाहरणों से आप सभी समझ रहे होंगे कि किस तरह से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने षाला के संचालकों और प्राचार्यों पर डोरे डालकर उन्हें अपने उत्पादों का संवाहक बना रहे हैं। ये कंपनियाँ अब उन्हें प्रलोभन देकर अपने उत्पादों को सीधे स्कूलों में ही बेचना षुरु कर दिया है। जिन स्कूलों में ये नियम होता है कि यूनिफार्म, जूते, कॉपी-किताबें आदि स्कूल से ही लिए जाएँ, वहाँ इसी तरह का खेल खेला जाता है। कोलगेट कंपनी तो आजकल स्कूलों में दंत विशेषज्ञों को लेकर पहुँच ही रही है। जहाँ विशेषज्ञ बच्चों के दाँतों का परीक्षण कर उन्हें कोलगेट करने की सलाह देते हैं, साथ ही एक छोटा सा ब्रश और पेस्ट की टयूब भी देते हैं, ताकि बच्चे को उसका चस्का लग जाए।इस तरह से बच्चों के दिमाग पर उपभोक्तावाद का आमण हो रहा है। इससे तो पालक किसी भी तरह से अपने बच्चों को बचा ही नहीं सकते।
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या आजकल स्कूलें बच्चों का ब्रेन वॉश करने वाली संस्थाएँ बनकर रह गई हैं? बच्चे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ग्राहक बनकर अनजाने में ही पश्चिमी संस्कृति के जीवनमूल्यों को अपनाने लगे हैं। यह चिंता का विषय है। पहले सादा जीवन उच्च विचार को प्राथमिकता दी जाती थी, पर अब यह हो गया है कि जो जितना अधिक मूल्यवान चीजों को उपयोग में लाता है, वही आधुनिक है। वही सुखी और सम्पन्न है। ऐसे मेें माता-पिता यदि बच्चों से यह कहें कि आधुनिक बनने के चक्कर में वे कहीं भटक तो नहीं रहे हैं, तो बच्चों का यही उत्तर होगा कि आप लोग देहाती ही रहे, आप क्या जानते हैं इसके बारे में। ऐसे में इन तथाकथित आधुनिक बच्चों से यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने वृध्द माता-पिता की सेवा करेंगे?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

विश्व के बढ़ते तापमान के पीछे विकसित देश जिम्मेदार


डॉ. महेश परिमल
विकसित देश कितना भी चिल्लाएँ कि आज दुनिया का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसके लिए विकासशील देश जिम्मेदार हैं। सच तो यह है कि यह आरोप लगाने वाले विकसित देश ही आज दुनिया को गर्म करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आज ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है, पूरा विश्व इसके लिए चिंतित है। ऐसे में विकसित देश यह आरोप लगाएँ कि इसके लिए विकासशील देश ही जिम्मेदार हैं, तो यह शर्म की बात है। आज दुनिया को सबसे अधिक खतरा ई-कचरे से है। ये ई-कचरा विकसित देशों की देन है। इस ई कचरे के कारण विश्व का पर्यावरण कितनी तेजी से बदल रहा है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
हाल ही में इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इलेक्ट्रॉनिक और कंप्यूटर कचरा प्रबंधन पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गर्या, जिसमें ई कचरे के खतरॊं से आगाह किया गया.इस सम्मेलन में लगभग 170 देशॊं के मंत्रियों ने हिस्सा लिया और इसमें ई-कचरे से निपटने के लिए एक नई सलाहकार समिति भी गठन किया गया।
सम्मेलन में एक नीति पर भी चर्चा की जाएर्गी, ताकि मेडिकल,केमिकल और कंप्यूटर के नुक़सानदेह कचरे से सुरक्षित तरीके से निपटा जा सके.पता चला है कि ग्रीनपीस नामक संगठन अमरीकी कंप्यूटर कचरे को चीन भेजने के विरोध में अभियान चला रहा है। चीन में मजदूर अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल कर कंप्यूटर सर्किट बोर्डों र्को गलाते हैं ताकि उनसे बहुमूल्य धातु निकाल सके।
ग्रीनपीस के एडवर्ड चेन का कहना है कि चीन ने भी उस बेसल समझौते को स्वीकार किया है जो नुकसानदेह कचरे को नियंत्रित करता है। हांगकांग में ई-कचरे के ख़िलाफ कानून है लेकिन वहाँ इसमें सर्किट बोर्ड शामिल नहीं है। यही वजह है कि तस्करी के माध्यम से इन्हें बड़ी मात्रा में दक्षिण चीन पहुँचा दिया जाता है। एक ओर जहां भारत आई.टी. ांति का सामना कर रहा है वहीं दूसरी ओर देश इलेक्ट्रॉनिक कचरे के ढेर से पटता जा रहा है। इलेक्ट्रानिक यानी ई-कचरा इलेक्ट्रॉनिक सामान से ही बनता है। टेक्नॉलॉजी में आगे बढ़ते हुए पुराने सामान की मरम्मत करने के अलावा बदलने की भी जरूरत पड़ती है। ई-कचरे का संकट बेकाबू होता जा रहा है। यह संकट पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। इसमें कई हानिकारक व जहरीले पदार्थ, जैसे सीसा, पारा,कैडमियम,पीवीसी प्लास्टिक और ब्रोमिनेटेड ज्वाला-रोधी पदार्थ होते हैं जो मनुष्याें के लिए हानिकारक माने जाते हैं।
औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक रि-सायक्लिंग से गुजारा जाए तो लगभग 40 किलो धूल जैसा पदार्थ उत्पन्न होता है। इसमें कई कीमती धातुएं होती हैं,जो प्रकृति में इतनी अधिक सांद्रता में पडी रहे तो विषैली होती है। इससे यह साफ नजर आता है कि लगातार बढ़ते हुए ई-कचरे के पहाड़ में एक खजाना छिपा है। इसे यदि अच्छे से संभाला व निपटाया जाए तो वह री-सायक्लिंग के एक नए व्यापार का मौका प्रदान कर सकता है। अभी तक कुछ ही कंपनियाें ने इस व्यापार की संभावनाओं को पहचाना है। यदि निवेशक इस नए क्षेत्र में पैसा लगाएंगे तो उन्हें तो फायदा होगा ही,देश का भी भला होगा। यानी दोहरी जीत की स्थिति बनेगी। और तो और फिलहाल जो ामीन इस कचरे को पटकने में बरबाद हो रही है, उसे भी कृषि तथा अन्य विकास के कामाें के लिए उपयोग किया जा सकता है। लेकिन ई-कचरे की सुरक्षित री-सायक्लिंग में पैसे का अभाव,अनिच्छा और अज्ञान तीन बडी रुकावटें हैं। यदि पर्यावरण का सख्त नियमन हो और साथ में री-सायक्लिंग सुविधाओं के लिए सरकार का उचित सहयोग मिले तो ई-कचरे के प्रबंधन का बेहतर मॉडल बन सकता है। फिलहाल ई-कचरे की री-सायक्लिंग दिल्ली, मेरठ, बैंगलोर, मुंबई, चैन्ने और फिरॊजाबाद में बडे स्तर पर चल रही है। धातुओं के पृथक्करण की प्रयिा में हाथॊं से छंटाई, चुंबकीय पृथक्ककरण, उलट ऑस्मोसिस,विद्युत विच्छेदन,संघनन,छानना और सेंट्रीफ्या करना जैसी तकनीकें शामिल है, लेकिन ये तरीके अकार्यक्षम होने के अलावा पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य दोनाें के लिए ही हानिकारक हैं।
इस संदर्भ में बायो-हाइड्रो-मेटलर्जिकल तकनीक इस समस्या का बेहतर हल है। इस तकनीक में सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस (बायोलीचिंग) का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे बैक्टीरिया के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में उपस्थित एंजाइम कचरे में मौजूद धातुओं को ऐसे यौगिकॊं में बदल देते हैं कि उनमें गतिशीलता पैदा हो जाती है। बायोलीचिंग की प्रयिा में बैक्टीरिया कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। पहले से ही कई बैक्टीरिया और फफूंद का उपयोग प्रिंटेट सर्किट बोर्ड से सीसा (लेड), तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है। इनमें बेसिलस प्रजातियां, सोमाइसिस सिरेयिसी, योरोविया,लाइपोलिटिका प्रमुख हैं। यदि ई-कचरे की छीलन को 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर बैक्टीर?या थायोबेसिलस थायोऑॅक्सीडेंस और थायोबैसिलस फेरोऑॅक्सीडेंस के साथ रखा जाए, तो कुल तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमिनियम में से 90 प्रतिशत से अधिक आसानी से निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से एस्पजिलस नाइजर और पेनिसिलियम सिम्प्लिसिसिमम नाम फफूंदॊं की मदद से 65 प्रत?शत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा यदि कचरे की छीलन की सांद्रता थोड़ी बढाकर 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमिनियम, निकल, सीसा (लेड),जस्ता में से भी 95 प्रतिशत तक अलग करने में सफल रहती हैं।
इस तरह बायोलीचिंग द्वारा अलग करके पुन: प्राप्त की गई धातुओं का उपयोग धातु की वस्तुएं बनाने वाले उद्योग कच्चे माल के रूप कर सकते हैं। इस प्रयिा से कचरे के निपटान की समस्या को सुलझाने के अलावा कच्चे माल की कीमत को कम करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, §ü-कचरे के री-सायक्लिंग से काफी आमदनी होने की भी संभावना है। इस संदर्भ में भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें प्राय: कम सफल रही है। इनकी बजाय जैविक तकनीकॊं के उपयोग से कचरे से उपयोगी पदार्थों र्की पुन: प्राप्ति की दक्षता बढ़ जाएगी। यदि हम चाहते हैं कि अपना आज का जीवन स्तर बनाए रखें, तो यह कचरा फैलाने वालाें की जिम्मेदारी है कि वे ई-कचरे को री-सायकल करें जो वैसे भी जल्दी ही वित्तीय एवं पदार्थों र्की आपूर्ति की दृष्टि से एक अनिवार्यता बन जाएगी।
त्योहाराें के इस मौसम में शायद आप भी नया टीवी, फ्रिज या कुछ और नहीं तो एक नया मोबाइल फोन खरीदने का मन बना रहे हाें। लेकिन क्या कभी आपको आलमारी की दराज में रखे बेकार हो चले मोबाइल फोन और ताख पर रखे पुराने टीवी का खयाल आया है?

आपके प्रिय मोबाइल, कंप्यूटर और दूसरे इलेक्ट्रानिक सामान कबाड बनने के बाद जो गुल खिलाते हैं, कभी उसकी चिंता भी करें। इस तरह कबाड में फेंक दिए गए उपकरणा की बढती तादाद भारत की तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर का काला पहलू बन चुकी है। इलेक्ट्रानिक समृध्दि का हाल यह है कि भारत के शहराें में हर साल 50 हजार टन से अधिक ई-कचरे का अंबार जमा हो रहा है। इस खतरन>क कचरे की रोकथाम के लिए काम कर रहे एनजीओ टाक्सिक लिंक के अनुसार अकेले मुंबई में हर साल 19 हजार टन से ज्यादा ई-कचरा जमा हो जाता है। यह आंकडा कंप्यूटर,फ्रिज,टीवी,वाशिंग मशीन जैसे कुछ उपकरणाें के कबाड का ही है। इसमें अन्य देशाें से आने वाले इलेक्ट्रानिक कचरे का कबाड शामिल नहीं है।
टाक्सिक लिंक की प्रीति महेश के अनुसार ई-कचरे के ढेर में सबसे ज्यादा हिस्सा पंजाब का है। इसके बाद आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र,तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल,दिल्ली,गुजरात तथा कर्नाटक का नंबर आता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यम की एक ताजा रिपोर्ट भी कहती है कि दुनिया में हर साल निकल रहे लगभग 50 करोड़ टन इलेक्ट्रानिक कचरे का 90 फीसदी हिस्सा भारत सहित दक्षिण एशिया के देशाें में जमा हो रहा है। टाक्सिक लिंक के निदेशक रवि अग्रवाल के अनुसार दिल्ली, विदेश से आने वाले कचरे का देश में सबसे बडा निपटान-केंद्र है। चिंताजनक बात यह है कि किसी कानूनी ढांचे के अभाव में मुख्यत: संगठित क्षेत्र में यह काम हो रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक असुरक्षित और अवैध तरीकाें से चल रहे इस काम के कारण बडी मात्रा में पारे, सीसे सहित अनेक खतरनाक पदार्थ वातावरण में मंडरा रहे हैं। जानकाराें का मानना है कि 2010 तक भारत में कंप्यूटराें की संख्या 15 करोड़ पार कर जाएगी।
§ü-कचरे को लेकर घाेंघे की चाल से नीति निर्धारण कर रहे पर्यावरण मंत्रालय ने बीते दिनाें कुछ दिशा-निर्देशाें का मसौदा जारी किया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए गए निर्देशाें में ई-कचरे को खतरनाक अपशिष्ट कानून 2003 के दायरे में रखा गया है। साथ ही कचरे के निपटारे को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड ने ई-कचरे की खरीद का अधिकार केवल उन्हीं लोगाें को दिया है, जो पहले अपनी संस्था को पंजीकृत कराएंगे।
विकसित एवं धनी देशाें से अल्पविकसित तथा विकासशील देशाें तक खतरनाक कचरे के स्थानान्तरण पर रोक लगाने के लिये सन् 1989 में बेसल समझौता सम्पन्न हुआ था। तथापि यह समझौता खतरनाक कचरे के स्थानान्तरण पर रोक लगाने में सफल नहीं हुआ है क्याेंकि अभी भी धनी औद्योगिक राष्ट्र विकासशील देश जैसे चीन एवं भारत को अपना कूड़ा भेज रहे हैं।
अमरीका का सर्वाधिक ई-कचरा चीन एवं भारत को भेजा जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार केवल सन् 2007 में ही 600 टन ई-कचरा भारत को प्रेषित किया गया था। गौरतलब है कि अमरीका में ई-कचरा निर्यात अवैध नहीं है क्याेंकि अमरीका ने बेसल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
अमेरिका का ई-कचराघर बना भारत
वातावरण पर निगरानी रखने वाली संस्था इनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) की जानकारी के बावजूद अमेरिका अपने इले1ट्रानिक उपकरणों के जहरीले कचरे को भारत भेज रहा है। इस कचरे को भारत के अलावा पाकिस्तान, हांगकांग, सिंगापुर और वियतनाम भेज कर निपटाया जा रहा है। साइंटिफिक अमेरिकन की रिपोर्ट के अनुसार उपयोग नहीं किए जा रहे मोबाइल फोन, कंप्यूटर और टेलीविजन जैसे इले1ट्रानिक उत्पादों के 19 लाख टन कचरे को ईपीए की जानकारी के बावजूद दूसरे देशों में डाला जा रहा है।
ईपीए की नियमों का सीधा उल्लंघन
ईपीए को यह भी मालूम है कि इस ई-कचरे में कैडमियम, पारा और अन्य जहरीले तत्व शामिल हैं। लेड से बने हुए मानिटर और कैथोड रे टयूब (सीआरटी) यु1त टीवी सेटों को भारत जैसे देशों में भेज कर निपटाया जा रहा है। यहां इनमें से कुछ पुर्जों का दोबारा प्रयोग हो रहा है। कांग्रेस की जांच समिति ने आरोप लगाया कि ईपीए इस कचरे को निपटाने में असफल रही है। सरकारी जवाबदेही कार्यालय (जीएओ) ने कहा कि एजेंसी के पास न तो कोई योजना है और न ही कोई समय सीमा। इस जहरीले कचरे का निर्यात ईपीए की नियमों का सीधा उल्लंघन है। यूरोपीय संघ की तरह ईपीए के पास भी इस जहरीले कचरे को निपटाने की कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
वातावरण के नुकसान पर चिंता
ई-कचरे के निर्यात पर पाबंदी लगाने की मांग करने वाले डेमोट सांसद जेने ग्रीन ने कहा कि यह कमजोर नियमों को लागू करने में असफलता का प्रमाण है। उन्होंने कहा कि ईपीए जानबूझकर नियमों की अवहेलना कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार, जीएओ के अधिकारियों ने बताया कि ईपीए ई-कचरे की बढ रही समस्या से जानबूझकर इस तरह निपट रहा है। इसके जवाब में कहा गया कि ईपीए द्वारा दस जांचे की जा रही हैं और क्षेत्रीय कार्यालय इले1ट्रानिक कचरे को जमा करने और दोबारा उपयोग करने की निगरानी कर रहे हैं। इस कचरे के कारण दूसरे देशों के नागरिकों के स्वास्थ्य और वातावरण को होने वाले नुकसान पर चिंता जताई जा रही है।
इस तरह से देखा जाए, तो ई कचरा आज पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए खतरा बन गया है, पर यदि इसका सही रूप से दोहन हो, तो यह कचरा सभी के काम भी आ सकता है, आवश्यकता है, इसे परखने की। पूरे विश्व को इस दिशा में सोचना ही होगा, तभी बच पाएगा विश्व का पर्यावरण।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

अपेक्षाओं का बोझ


डॉ. महेश परिमल
मेरा बच्चा अखबार ध्यान से पढ़ता है। कभी-कभी किसी खबर को लेकर बहस भी करता है। दिमागी कैनवास अभी बड़ा नहीं है, फिर भी कल्पना की ऊँची उड़ान उड़ लेता है। एक दिन उसने अखबार में 'चित्र देखो, कहानी लिखो' कॉलम पढ़ लिया। चित्र देख उसे एक कहानी सूझी। उसने कहानी लिखकर मुझे बताई। कहानी अच्छी थी। उसके शैक्षणिक स्तर के बराबर। पाँचवी कक्षा का छात्र उससे आगे कुछ सोच भी नहीं सकता था। कहानी रफ कॉपी में लिखी थी। मैंने उसे एक अच्छे पृष्ठ पर साफ-सुथरे ढंग से लिखने को कहा। उसने हाँ कह दिया।
आपको शायद विश्वास नहीं होगा, कहानी लिखकर भेजने की अंतिम तिथि निकल गई, लेकिन बच्चा अपनी कहानी साफ-सुथरे ढंग से अच्छे कागज पर नहीं लिख पाया। आप कारण जानना चाहेंगे ना, तो कारण भी सुन लीजिए, बच्चे के पास समय नहीं था।
जरा अपने बच्चों की दिनचर्या पर ध्यान दें। सुबह उठना, तैयार होना, छह घंटे बाद स्कूल से लौटना, भोजन, होमवर्क, थोड़ा आराम, टी.वी. पर कार्टून, नाश्ता-दूध, खेल, टयूशन के बाद रात का भोजन, मनपसंद धारावाहिक, देर रात सोना इसी में ही समाप्त हो गई दिनचर्या। अब आप बता सकेंगे किस समय पर कटौती करेंगे आप?
अब अपने अतीत की तरफ ध्यान दें। तब तो हमें केवल तीन काम आते थे- खेलना, खेलना और केवल खेलना। इस बीच थोड़ी पढ़ाई कर ली जाती थी। तब तो हमारे पास धींगा-मस्ती के लिए पर्याप्त समय था। पर आज के बच्चों के पास समय की कमी है। वह भी अच्छे कार्यों के लिए। इस पर कभी ध्यान दिया आपने?
लोग कहते हैं, आज के बच्चों पर किताबों का बोझ है। बस्ते का बोझ है जो उन्हें कुली बना रहा है, पर इसका दूसरा पहलू यह है कि बस्ते का बोझ तो बच्चा उठा ही रहा है, हमने उस पर अपेक्षाओं का जो बोझ लादा है ना, उसे वह सहन नहीं कर पा रहा है। फलस्वरूप आज के बच्चों ने तनाव का पाठ बचपन में ही पढ लिया है। अब वे भी तनाव में ही पलते-बढ़ते हैं। हमने कभी उनके तनाव का कारण जानने की कोशिश नहीं की। हमने तो उनकी स्कूल डायरी में शिक्षक के निर्देश भी नहीं पढ़े। हाँ, कुछ छोटी-मोटी परीक्षाओं में नंबर कम आने पर डाँट जरूर लगाई है। यहां आकर हमारी डयूटी खत्म। फिर हम भी व्यस्त हो गए, जीवन की भागम-भाग में।
हम पिता बन गए, पालक बन गए। बच्चे की उपलब्धि की शान बघारते रहे, पर अच्छे पिता या अच्छे पालक न बन कर जिम्मेदारियों से भागते रहे। बच्चे पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ लादा, पर उससे कभी यह न पूछा कि वह क्या चाहता है? उसे हमसे क्या शिकायत है?
- क्या बच्चे पर अपेक्षाओं का बोझ लादना ठीक है?
- क्या हम बच्चे का बचपन छिनने का गुनाह नहीं कर रहे?
- क्या हमने कभी बच्चे से उसकी पीड़ा जानने की कोशिश की?
- बच्चे के लिए शिक्षा आवश्यक है या संस्कार?
- क्या बच्चे को हमने बच्चा बनकर जाना है?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

क्या आप केवल माता-पिता ही हैं?


भारती परिमल
क्या आप वास्तव में एक माता-पिता हैं या सिर्फ एक माता-पिता की भूमिका निभा रहे हैं? प्रश्न सचमुच आश्चर्य में डालने वाला है, परंतु यह शत प्रतिशत सच है। आपको स्वयं ही अंतर्मन के आईने में झाँक कर देखना होगा और इस सवाल का ंजवाब देना होगा कि क्या सही है और क्या ंगलत? मात्र बालक को जन्म देना, इसका नाम ही वात्सल्य नहीं है। उसे पूरे ममत्व के साथ पालपोस कर बड़ा करना ही सही अर्थो में वात्सल्य है। जब आपने बालक को जन्म दिया है, उसे इस संसार में लाने का पनीत कार्य किया हैं, तो उसके प्रति अपनी पूरी जवाबदारी भी निभानी होगी। वह मासूम और अबोध जीव इस संसार में अपनी खुशी से तो आया नहीं है, उसे इस संसार में लाने में आपकी भूमिका महत्व की है। आप अपनी इच्छा या अनिच्छा से उसे इस संसार में लाए हैं, तभी तो वह इस संसार में आया है। फिर उसे संभालने की, उसकी छोटी-बड़ी ंजरूरतें पूरी करने की, उसके सुख-दु:ख के साथी बनने की पूरी जवाबदारी आपकी ही है। अब तो वह इस संसार में आ चुका है, तो उसके प्रति अपना कर्त्तव्य तो पूरा करना ही होगा। भले ही उसे खुशी-खुशी पूरा करें या फिर भारी मन से अनिच्छा के साथ। तो फिर क्यों न अपनी स्वयं की सहमति के साथ खुशी-खुशी इसर् कत्तव्य को पूरा किया जाए? क्योंकि भारी मन से न चाहते हुएर् कत्तव्य पूरा करने का अर्थ हुआ - स्वयं के जीवन को ही भार रूप बनाना। जब स्वयं का जीवन ही भाररूप रहेगा तो फिर संतान की सही ढंग से देखभाल किस तरह होगी? उसे अच्छा व्यवहार किस प्रकार मिलेगा? अच्छे वातावरण का अभाव तो उसके व्यक्तित्व को बौना बना देगा। इसलिए ऊपरी मन से बालक पर वात्सल्य जाहिर न करें, बल्कि हृदय से उस पर अपने ममत्व की फुहार कर उसे पूरी तरह आप्लावित कर दें। आप स्वयं विचार करें कि क्या आप ऐसा कर रहे हैं?
पिछले दिनों में आपने अपने मासूम बच्चे को कब वास्तव में प्यार किया है? क्या आपने उसकी कोमल बाँहों को थाम कर अपनी गोद में बैठाया है? क्या उसके सिर पर या उसकी पीठ पर प्यार से एक चपत लगाई है? क्या उसके गाल पर वात्सल्य का एक मीठा चुंबन दिया है? अरे यह तो कहिए कि कितने दिन हो गए, आपने उसे अपने पास बिठा कर उसकी परेशानियों को पूछा है? चलिए, परेशानियाँ पूछना तो दूर रहा, क्या आपने उसकी कोई बात जो वह कितने उत्साह और उमंग से आपको बताना चाह रहा था, क्या वह बात भी आपने उसके मुँह से सुनी है? क्या कहा? आपके पास इन सभी बातों के लिए समय नहीं है? अरे, जब आपकी कामवासना मूर्त रूप ले रही थी, तब उसके लिए नौ महीने का समय आपके पास था? और आज जब वह आपके घर का चिराग बनकर आपके सामने खड़ा है, बगिया का महकता फूल बनकर अपनी सुगंध चारों ओर बिखेर रहा है, तब उसके लिए आपके पास नौ पल का भी समय नहीं है? यह आपकी महत्वाकांक्षा की सीमा का पार नहीं तो और क्या है? और उस पर भी आप यह कहते हैं कि आप माता-पिता हैं। नहीं, बिल्कुल नहीं। आप तो केवल माता-पिता की एक छोटी-सी भूमिका ही निभा रहे हैं।

इस कलयुग में माता-पिता की विवशता है कि उसके पास अपनी संतान को देने के लिए सब कुछ है, ऐश्वर्य के सुख साधन है, बच्चों की भौतिक सुख-सुविधाएँ पूरी करने के लिए पैसे हैं, सभी कुछ है, पर उसके साथ बिताने के लिए एक पल नहीं है। इसके बाद भी महत्वाकांक्षा यह कि संतान उनके सारे स्वप्नों को पूरा करें। इस महत्वाकांक्षा की शुरुआत तो बालक के जन्म के साथ ही हो जाती है। यह इच्छा एक सुदृढ़ आकार तब लेती है, जब बालक पाठशाला जाना शुरू करता है। बालक के स्कूल जाते ही माता-पिता दोनों ही अपने सपनों का भार उसके सिर पर रख देते हैं। स्कूल बैग का भार तो बालक बड़ी मुश्किल से उठा पाता है और उस पर माता-पिता के सपनों का अनचाहा भार? ऐसे में बालक शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर न हो जाए, तो यह उसका भाग्य ही है। धीरे-धीरे इन ऊँचे सपनों के भार के साथ बालक शरीर से बड़ा होता है और मानसिक रूप से छोटा। क्योंकि उसके दिमाग में उसके खुद के तो विचार होते नहीं हैं। केवल माता-पिता की इच्छा और अरमान विचार के रूप में उसके दिमाग में साँप की कुंडली की तरह लिपटे हुए रहते हैं। माता-पिता की महत्वाकांक्षा की वेदी पर उसकी स्वयं की इच्छाएँ होम हो जाती हैं।
माता-पिता के पास बालक की इच्छाएँ पूरी करने का, उसकी परेशानियों को सुलझाने का, उसे समझने का समय होता नहीं है, किन्तु जब बालक असफलता के मार्ग पर आगे बढ़ता है, तो उससे इस संबंध में पूछने का सच कहें तो डाँटने का समय अवश्य होता है। माता-पिता हमेशा यही इच्छा रखते हैं कि वे स्वयं बालक को समय दे या न दें, किन्तु बालक हर परीक्षा में सफल हो। उसमें भी सिर्फ सफलता उन्हें संतोष नहीं देती बल्कि वे तो यह चाहते हैं कि उनका बेटा या बेटी अच्छे नंबरों से सफल हों, जिससे उनका समाज में एक स्टेटस बना रहे। इस स्टेटस मेन्टेन की कोशिश में बालक कठपुतली बन कर रह जाता है।
क्या कारण है कि माता-पिता संतान से इतनी ज्यादा अपेक्षा रखते हैं? क्या वास्तव में वे अपनी संतान को कुछ बनाना चाहते है? यदि सचमुच संतान को कुछ बनाना चाहते हैं, तो उसे कुछ समय देना होगा। उसकी सारी समस्याओं को हल करने में उसकी मदद करनी होगी। उसके कोरे ऑंचल को अपने ममत्व से भिगोना होगा, उसकी हर छोटी-बड़ी तकलीफों को दूर करना होगा। वह मात्र आपकी महत्वाकांक्षाओं का शो पीस नहीं है, उसमें भी प्राण हैं, उसकी भी साँसें चलती है, इसलिए उसमें भी जीवन है और जीवन है, तो उसकी स्वयं के जीवन के प्रति इच्छाएँ भी हैँ, क्या उसे अपनी इच्छाएँ पूरी करने का अधिकार नहीं? र् कत्तव्य और अधिकारों की इस उलझन में क्या संतान की इच्छाओं की मुस्कान उसी के चेहरे पर देखना क्या आपका कर्त्तव्य नही?
यदि वास्तव में आप माता-पिता हैं और केवल माता-पिता की भूमिका नहीं निभा रहे हैं, तो तोड़ दीजिए संतान के आसपास बाँधी गई अपेक्षाओं के काँच की दीवार.... और उसे खुला छोड़ दीजिए एक पंछी की तरह, ताकि वह अपनीे स्वाभाविक उड़ान भर सके। उसके स्वयं के विचारों का आकाश और उसी के विचारों का इंद्रधनुष। फिर देखें उसकी स्वतंत्र उड़ान उसे किस दिशा में ले जाती है, हो सकता है कि यह स्वतंत्र उड़ान भरते हुए वह अपने विचारों में आपके भी विचारों को शामिल करते हुए एक नया मार्ग और एक नया लक्ष्य निर्धारित करे और आप उस पर गर्व कर सकें। यह भी हो सकता है कि उसके स्वयं के विचारों का मार्ग उसे रसातल में ले जाए। भले ही ऐसा हो, परंतु उसे इस बात का संतोष होगा कि उसने अपना पूरा जीवन अपनी मर्जी से जीया।
आप संतान के लिए मात्र मार्गदर्शन की एक किरण बनें, पूरा का पूरा सूरज बनने की भूल न करें, पूरे सूरज के सानिध्य में उसकी ऑंखें चौधिया जाएँगी और शरीर जल जाएगा, इसलिए केवल किरण बनें, जिसकी तपिश उसे एक सही मार्ग खोजने में प्रेरणादायक बन सके। डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, ऐयरफोर्स पायलट संतान से अपेक्षाओं की यह एक लंबी सूची है, अपेक्षाओं का यह भार उस पर डालने का स्वार्थी यह निर्णय बदल डालें और फिर उसकी परवरिश करें, फिर देखें संतान आपकी आशा के अनुरूप आगे बढ़ता है या नहीं? उसके स्वप्न में अपने सपने जोड़ दें उसके अरमानों में अपने अरमानों की डोर बाँधे, फिर संतान आपकी है, केवल आपकी। आप केवल एक भूमिका नहीं निभा रहे हैं, बल्कि हकीकत में वात्सल्य का बीज उस मिट्टी में बो रहे हैं, जो फिर एक नई पीढ़ी को जन्म देगी और आपके द्वारा दिया गया स्नेह उसे समर्पित करेगी। इस पीढ़ी को ममत्व का नीर दें, जिससे वह भी आने वाली पीढ़ी को वही ममत्व दे सके।
भारती परिमल

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