बुधवार, 22 अक्तूबर 2008
उम्मीद की किरण दिखती है जजों के फैसलों में
डॉ. महेश परिमल
वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोड़ने वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य ऑंखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सजा देने की कोशिश करें। जल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत साा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले एक खबर पढ़ने को मिली कि एक जज ने एक विधायक को सजा के बतौर गांधी साहित्य पढ़ने के लिए कहा। बहुत अच्छा लगा। इसी तरह एक हीरोइन को दिन भर एक अनाथालय में रहने की सजा दी। कितनी अच्छी बात है कि एक विधायक गांधी साहित्य पढ़े और ऐश्वर्ययुक्त हीरोइन दिन भर अनाथालय में रहे। करीब 30 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी 'दुश्मन'। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सजा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। कुछ ऐसी ही कोशिश आज के न्यायाधीशों को करनी चाहिए, जिससे भटके हुए समाज को एक दिशा मिले। कुछ वर्ष पूर्व ही कोलकाता हाईकोर्ट के एक जज अमिताभ लाला अदालत जा रहे थे, रास्ते में एक जुलूस, धरना या फिर रैली के कारण पूरे तीन घंटे तक फँसे रहे। यातायात अवरुद्ध हो गया था, अतएव देर से ही सही, कोर्ट पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहला आदेश यह निकाला कि अब शहर में सोमवार से शुक्रवार के बीच कहीं भी कभी भी धरना, रैली, जुलूस या फिर प्रदर्शन नहीं होंगे। केवल शनिवार या रविवार को ही ऐसे कार्यक्रम किए जा सकते हैं, वह भी नगर निगम की अनुमति के बाद।
जज महोदय पर जब बीती, तभी उन्होंने आदेश निकाला। अगर वे आम आदमी होते, तो शायद ऐसा नहीं कर पाते। यह प्रजातंत्र है, यहाँ आम आदमी की पुकार अमूमन नहीं सुनी जाती। कहा भले ही जाता हो, पर सच्चाई इससे अलग है। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि एक आम आदमी का प्रतिनिधि विधायक या सांसद बनते ही वीआईपी कैसे हो जाता है? आम से खास होने में उसे जरा भी देर नहीं लगती। खास होते ही उसे आम आदमी की पीड़ा से कोई वास्ता नहीं होता। क्या वोट देकर वह अपने हक से भी वंचित हो जाता है? उसका प्रतिनिधि सुविधाभोगी कैसे हो जाता है?
ऐसे लोग यदि किसी प्रकार का गुनाह करते हैं, तो उनके लिए जज यह फैसला दे कि उसे लगातार एक महीने तक ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा करनी होगी या फिर सड़क से उसके गाँव तक पैदल ही जाना होगा। किसी दौलतमंद को सजा देनी हो, तो उसे दिन भर किसी झोपड़पट्टी इलाके में रहने की सजा दी जाए, खेत में हल चलाने की सजा दी जाए। इस तरह लोग आम आदमी की तमाम समस्याओं से बेहतर वाकिफ होंगे। उन्हें यह समझ में आएगा कि वास्तव में बुनियादी समस्याएँ क्या हैं।
अमिताभ लाला ने जब भुगता, तभी आम आदमी की समस्याएँ समझ में आई। इसके पहले उसी कोलकाता में न जाने कितनी बार बंद का आयोजन हुआ होगा, धरना आंदोलन हुआ होगा, इन सब में आम आदमी की क्या हालत हुई होगी, यह इसके पहले किसी ने भी समझने की कोशिश नहीं की। वैसे भी अमीरों के सारे चोचलों में बेचारे गरीब ही मारे जाते हैं, जो मजदूर रॊज कमाते-खाते हैं, उनके लिए ऐसे कार्यक्रम भूखे रहने का संदेशा लेकर आते हैं। अनजाने में वे उपवास कर लेते हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है।
अब समाज की न्याय व्यवस्था वैसी नहीं रही, जब खून का बदला खून जैसा जंगल का कानून चलता था। लोग अब भी न्याय व्यवस्था पर विश्वास करते हैं। न्याय के प्रति उनकी आशा जागी है। कानून तोड़ने वाले अब भी कानून तोड़ रहे हैं, लेकिन जो इस बात पर विश्वास करते हैं, वे अब भी कानून के दायरे में रहकर गुज़ारा कर लेते हैं। यदि संवेदनशील जज चाहें, तो अपने फैसलों से समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। उनके ये फैसले जमीन से जुड़ाव पैदा करने में मदद करेंगे। अब यह जजों पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बहुत अच्छा विषय उठाया है. हम तो बस ये उम्मीद ही कर सकते हैं की काश ये ब्लॉग कोई जज या वकील लोग भी पढ़ते हों, उनको एक दिशा मिले..निस्संदेह ऐसे निर्णय समाज को दूरगामी प्रभाव देंगे..
जवाब देंहटाएंबड़ी सुंदर बात कही आपने......काश यह सचमुच हो पाए.इश्वर से प्रार्थना है कि वे सुसंस्कारी हाथों में सत्ता तथा न्याय की शक्ति दें ताकि वह समाज को बदलने में सकारात्मक कार्य कर पायें.
जवाब देंहटाएंमीलों लम्बे रेगिस्तान की प्यास एक दो कुओं से नहीं शांत हो सकती।
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