शनिवार, 11 अक्तूबर 2008
चिंतन :-हमारी काहिली
डॉ. महेश परिमल
पहले घर की महिलाएँ सुबह जागते ही ईश्वर को याद करती थीं, पर आजकल की महिलाएँ अगर किसी को याद करती है, तो वह है अपनी कामवाली बाई को। कभी इधर ध्यान दिया आपने कि कामवाली बाई अचानक प्रात: स्मरणीय कैसे हो गई?
यदि घर के सदस्य आत्मनिर्भर नहीं है, याने अपना काम खुद नहीं कर सकते, तो उस घर में कामवाली बाई का महत्व बढ़ जाता है। ऐसे घर का नजारा तब देखना चाहिए, जब सुबह-सुबह कामवाली बाई का फोन आ जाए कि आज वह नहीं आ सकती। तब देखिए उस घर का नजारा। हर चेहरा बदहवास दिखाई देगा। न समय पर नाश्ता बनेगा, न भोजन। जिन्हें नाश्ता मिल गया उन्हें भोजन नहीं मिलेगा। जिन्हें गर्म पानी नहीं मिला, वे बिना नहाए ही दफ्तर पहुँचेंगे।
ऐसा क्यों होता है कि अनजाने में हम 'पर निर्भर' हो जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता। कहते हैं ना कि आदमी के जाने के बाद उसकी अहमियत पता चलती है। इसी तरह बीच-बीच में गोल मारकर बाई भी अपने जिंदा होने का अहसास कराती है। जिस दिन वह नहीं आती, उस दिन पता चलता है कि वह घर का कितना काम करती थी। प्रत्येक सदस्य उस पर निर्भर था।
यह एक विचारणीय प्रश्न है हम कैसे आलसी बन गए? हमें उठते ही बिस्तर पर ही 'बेड-टी' की आदत है। यह भी कोई आदत है, न मुँह धोया, न कुल्ला किया, पी ली चाय। साहब शरीर आपका है। इसका मतलब यह नहीं कि आप इसे स्वच्छ, ताजा हवा से भी वंचित रखें। ठंडी में गर्म और गर्मी में ठंडी हवा का आदी बना लिया है हमने इसे। यहीं से शुरू हो गई हमारी गुलामी। अपना काम सुबह खुद करो, इस बात से बहुत दूर हैं हम। यह तो हमारी समझ से ही बाहर की बात है। खानदानी रईस हैं हम। इतने नौकर-चाकर क्यों रखे हैं हमने? आखिर कमाते किसलिए हैं हम?
घर की महिलाएँ भी काम न करना पड़े इसलिए कामवाली बाई को कुछ न कुछ अतिरिक्त देकर उसकी अपेक्षा बढ़ाने का काम करती है। कभी रुपए, कभी साड़ी, कभी दूसरे कपड़े, कभी बचे हुए पकवान आदि। उसे काम के बदले में अतिरिक्त कुछ न कुछ मिलता है, तो वह भी आश्रित होने लगती है हम पर और हम भी उस पर निर्भर होने लगते हैं। इस तरह से कामवाली घर की महत्वपूर्ण सदस्य बन जाती है। यदि उसी कामवाली बाई ने घर का सारा काम करते-करते घर पर ही हाथ साफ कर दिया, तो आप लगाते रहें थाने के चक्कर। उसने तो आपकी मजबूरी का फायदा उठाकर आपको चक्कर में डाल दिया। फिर भी यदि आप अपना काम खुद न करने का संकल्प नहीं लेते, तो प्रश्न-दर-प्रश्न आपके सामने हैं-
- कामवाली बाई पर निर्भर होकर कहीं हम काहिल तो नहीं हो गए?
- धन के अलावा उसे कुछ अन्य चीजें देकर हम उसकी अपेक्षाएँ तो बढ़ाने में मदद नहीं कर रहें?
- वह मेहनतकश है, किंतु उसकी मेहनत का मूल्य हम अधिक तो नहीं ऑंक रहे?
- हम उस पर निर्भर हो जाते हैं, पर वह हम पर निर्भर क्यों नहीं रह जाती?
इन प्रश्नों का उत्तर तलाशेंगे आप?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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