बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

विश्व के बढ़ते तापमान के पीछे विकसित देश जिम्मेदार


डॉ. महेश परिमल
विकसित देश कितना भी चिल्लाएँ कि आज दुनिया का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसके लिए विकासशील देश जिम्मेदार हैं। सच तो यह है कि यह आरोप लगाने वाले विकसित देश ही आज दुनिया को गर्म करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आज ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है, पूरा विश्व इसके लिए चिंतित है। ऐसे में विकसित देश यह आरोप लगाएँ कि इसके लिए विकासशील देश ही जिम्मेदार हैं, तो यह शर्म की बात है। आज दुनिया को सबसे अधिक खतरा ई-कचरे से है। ये ई-कचरा विकसित देशों की देन है। इस ई कचरे के कारण विश्व का पर्यावरण कितनी तेजी से बदल रहा है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
हाल ही में इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इलेक्ट्रॉनिक और कंप्यूटर कचरा प्रबंधन पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गर्या, जिसमें ई कचरे के खतरॊं से आगाह किया गया.इस सम्मेलन में लगभग 170 देशॊं के मंत्रियों ने हिस्सा लिया और इसमें ई-कचरे से निपटने के लिए एक नई सलाहकार समिति भी गठन किया गया।
सम्मेलन में एक नीति पर भी चर्चा की जाएर्गी, ताकि मेडिकल,केमिकल और कंप्यूटर के नुक़सानदेह कचरे से सुरक्षित तरीके से निपटा जा सके.पता चला है कि ग्रीनपीस नामक संगठन अमरीकी कंप्यूटर कचरे को चीन भेजने के विरोध में अभियान चला रहा है। चीन में मजदूर अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल कर कंप्यूटर सर्किट बोर्डों र्को गलाते हैं ताकि उनसे बहुमूल्य धातु निकाल सके।
ग्रीनपीस के एडवर्ड चेन का कहना है कि चीन ने भी उस बेसल समझौते को स्वीकार किया है जो नुकसानदेह कचरे को नियंत्रित करता है। हांगकांग में ई-कचरे के ख़िलाफ कानून है लेकिन वहाँ इसमें सर्किट बोर्ड शामिल नहीं है। यही वजह है कि तस्करी के माध्यम से इन्हें बड़ी मात्रा में दक्षिण चीन पहुँचा दिया जाता है। एक ओर जहां भारत आई.टी. ांति का सामना कर रहा है वहीं दूसरी ओर देश इलेक्ट्रॉनिक कचरे के ढेर से पटता जा रहा है। इलेक्ट्रानिक यानी ई-कचरा इलेक्ट्रॉनिक सामान से ही बनता है। टेक्नॉलॉजी में आगे बढ़ते हुए पुराने सामान की मरम्मत करने के अलावा बदलने की भी जरूरत पड़ती है। ई-कचरे का संकट बेकाबू होता जा रहा है। यह संकट पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। इसमें कई हानिकारक व जहरीले पदार्थ, जैसे सीसा, पारा,कैडमियम,पीवीसी प्लास्टिक और ब्रोमिनेटेड ज्वाला-रोधी पदार्थ होते हैं जो मनुष्याें के लिए हानिकारक माने जाते हैं।
औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक रि-सायक्लिंग से गुजारा जाए तो लगभग 40 किलो धूल जैसा पदार्थ उत्पन्न होता है। इसमें कई कीमती धातुएं होती हैं,जो प्रकृति में इतनी अधिक सांद्रता में पडी रहे तो विषैली होती है। इससे यह साफ नजर आता है कि लगातार बढ़ते हुए ई-कचरे के पहाड़ में एक खजाना छिपा है। इसे यदि अच्छे से संभाला व निपटाया जाए तो वह री-सायक्लिंग के एक नए व्यापार का मौका प्रदान कर सकता है। अभी तक कुछ ही कंपनियाें ने इस व्यापार की संभावनाओं को पहचाना है। यदि निवेशक इस नए क्षेत्र में पैसा लगाएंगे तो उन्हें तो फायदा होगा ही,देश का भी भला होगा। यानी दोहरी जीत की स्थिति बनेगी। और तो और फिलहाल जो ामीन इस कचरे को पटकने में बरबाद हो रही है, उसे भी कृषि तथा अन्य विकास के कामाें के लिए उपयोग किया जा सकता है। लेकिन ई-कचरे की सुरक्षित री-सायक्लिंग में पैसे का अभाव,अनिच्छा और अज्ञान तीन बडी रुकावटें हैं। यदि पर्यावरण का सख्त नियमन हो और साथ में री-सायक्लिंग सुविधाओं के लिए सरकार का उचित सहयोग मिले तो ई-कचरे के प्रबंधन का बेहतर मॉडल बन सकता है। फिलहाल ई-कचरे की री-सायक्लिंग दिल्ली, मेरठ, बैंगलोर, मुंबई, चैन्ने और फिरॊजाबाद में बडे स्तर पर चल रही है। धातुओं के पृथक्करण की प्रयिा में हाथॊं से छंटाई, चुंबकीय पृथक्ककरण, उलट ऑस्मोसिस,विद्युत विच्छेदन,संघनन,छानना और सेंट्रीफ्या करना जैसी तकनीकें शामिल है, लेकिन ये तरीके अकार्यक्षम होने के अलावा पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य दोनाें के लिए ही हानिकारक हैं।
इस संदर्भ में बायो-हाइड्रो-मेटलर्जिकल तकनीक इस समस्या का बेहतर हल है। इस तकनीक में सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस (बायोलीचिंग) का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे बैक्टीरिया के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में उपस्थित एंजाइम कचरे में मौजूद धातुओं को ऐसे यौगिकॊं में बदल देते हैं कि उनमें गतिशीलता पैदा हो जाती है। बायोलीचिंग की प्रयिा में बैक्टीरिया कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। पहले से ही कई बैक्टीरिया और फफूंद का उपयोग प्रिंटेट सर्किट बोर्ड से सीसा (लेड), तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है। इनमें बेसिलस प्रजातियां, सोमाइसिस सिरेयिसी, योरोविया,लाइपोलिटिका प्रमुख हैं। यदि ई-कचरे की छीलन को 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर बैक्टीर?या थायोबेसिलस थायोऑॅक्सीडेंस और थायोबैसिलस फेरोऑॅक्सीडेंस के साथ रखा जाए, तो कुल तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमिनियम में से 90 प्रतिशत से अधिक आसानी से निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से एस्पजिलस नाइजर और पेनिसिलियम सिम्प्लिसिसिमम नाम फफूंदॊं की मदद से 65 प्रत?शत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा यदि कचरे की छीलन की सांद्रता थोड़ी बढाकर 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमिनियम, निकल, सीसा (लेड),जस्ता में से भी 95 प्रतिशत तक अलग करने में सफल रहती हैं।
इस तरह बायोलीचिंग द्वारा अलग करके पुन: प्राप्त की गई धातुओं का उपयोग धातु की वस्तुएं बनाने वाले उद्योग कच्चे माल के रूप कर सकते हैं। इस प्रयिा से कचरे के निपटान की समस्या को सुलझाने के अलावा कच्चे माल की कीमत को कम करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, §ü-कचरे के री-सायक्लिंग से काफी आमदनी होने की भी संभावना है। इस संदर्भ में भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें प्राय: कम सफल रही है। इनकी बजाय जैविक तकनीकॊं के उपयोग से कचरे से उपयोगी पदार्थों र्की पुन: प्राप्ति की दक्षता बढ़ जाएगी। यदि हम चाहते हैं कि अपना आज का जीवन स्तर बनाए रखें, तो यह कचरा फैलाने वालाें की जिम्मेदारी है कि वे ई-कचरे को री-सायकल करें जो वैसे भी जल्दी ही वित्तीय एवं पदार्थों र्की आपूर्ति की दृष्टि से एक अनिवार्यता बन जाएगी।
त्योहाराें के इस मौसम में शायद आप भी नया टीवी, फ्रिज या कुछ और नहीं तो एक नया मोबाइल फोन खरीदने का मन बना रहे हाें। लेकिन क्या कभी आपको आलमारी की दराज में रखे बेकार हो चले मोबाइल फोन और ताख पर रखे पुराने टीवी का खयाल आया है?

आपके प्रिय मोबाइल, कंप्यूटर और दूसरे इलेक्ट्रानिक सामान कबाड बनने के बाद जो गुल खिलाते हैं, कभी उसकी चिंता भी करें। इस तरह कबाड में फेंक दिए गए उपकरणा की बढती तादाद भारत की तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर का काला पहलू बन चुकी है। इलेक्ट्रानिक समृध्दि का हाल यह है कि भारत के शहराें में हर साल 50 हजार टन से अधिक ई-कचरे का अंबार जमा हो रहा है। इस खतरन>क कचरे की रोकथाम के लिए काम कर रहे एनजीओ टाक्सिक लिंक के अनुसार अकेले मुंबई में हर साल 19 हजार टन से ज्यादा ई-कचरा जमा हो जाता है। यह आंकडा कंप्यूटर,फ्रिज,टीवी,वाशिंग मशीन जैसे कुछ उपकरणाें के कबाड का ही है। इसमें अन्य देशाें से आने वाले इलेक्ट्रानिक कचरे का कबाड शामिल नहीं है।
टाक्सिक लिंक की प्रीति महेश के अनुसार ई-कचरे के ढेर में सबसे ज्यादा हिस्सा पंजाब का है। इसके बाद आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र,तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल,दिल्ली,गुजरात तथा कर्नाटक का नंबर आता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यम की एक ताजा रिपोर्ट भी कहती है कि दुनिया में हर साल निकल रहे लगभग 50 करोड़ टन इलेक्ट्रानिक कचरे का 90 फीसदी हिस्सा भारत सहित दक्षिण एशिया के देशाें में जमा हो रहा है। टाक्सिक लिंक के निदेशक रवि अग्रवाल के अनुसार दिल्ली, विदेश से आने वाले कचरे का देश में सबसे बडा निपटान-केंद्र है। चिंताजनक बात यह है कि किसी कानूनी ढांचे के अभाव में मुख्यत: संगठित क्षेत्र में यह काम हो रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक असुरक्षित और अवैध तरीकाें से चल रहे इस काम के कारण बडी मात्रा में पारे, सीसे सहित अनेक खतरनाक पदार्थ वातावरण में मंडरा रहे हैं। जानकाराें का मानना है कि 2010 तक भारत में कंप्यूटराें की संख्या 15 करोड़ पार कर जाएगी।
§ü-कचरे को लेकर घाेंघे की चाल से नीति निर्धारण कर रहे पर्यावरण मंत्रालय ने बीते दिनाें कुछ दिशा-निर्देशाें का मसौदा जारी किया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए गए निर्देशाें में ई-कचरे को खतरनाक अपशिष्ट कानून 2003 के दायरे में रखा गया है। साथ ही कचरे के निपटारे को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड ने ई-कचरे की खरीद का अधिकार केवल उन्हीं लोगाें को दिया है, जो पहले अपनी संस्था को पंजीकृत कराएंगे।
विकसित एवं धनी देशाें से अल्पविकसित तथा विकासशील देशाें तक खतरनाक कचरे के स्थानान्तरण पर रोक लगाने के लिये सन् 1989 में बेसल समझौता सम्पन्न हुआ था। तथापि यह समझौता खतरनाक कचरे के स्थानान्तरण पर रोक लगाने में सफल नहीं हुआ है क्याेंकि अभी भी धनी औद्योगिक राष्ट्र विकासशील देश जैसे चीन एवं भारत को अपना कूड़ा भेज रहे हैं।
अमरीका का सर्वाधिक ई-कचरा चीन एवं भारत को भेजा जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार केवल सन् 2007 में ही 600 टन ई-कचरा भारत को प्रेषित किया गया था। गौरतलब है कि अमरीका में ई-कचरा निर्यात अवैध नहीं है क्याेंकि अमरीका ने बेसल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
अमेरिका का ई-कचराघर बना भारत
वातावरण पर निगरानी रखने वाली संस्था इनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) की जानकारी के बावजूद अमेरिका अपने इले1ट्रानिक उपकरणों के जहरीले कचरे को भारत भेज रहा है। इस कचरे को भारत के अलावा पाकिस्तान, हांगकांग, सिंगापुर और वियतनाम भेज कर निपटाया जा रहा है। साइंटिफिक अमेरिकन की रिपोर्ट के अनुसार उपयोग नहीं किए जा रहे मोबाइल फोन, कंप्यूटर और टेलीविजन जैसे इले1ट्रानिक उत्पादों के 19 लाख टन कचरे को ईपीए की जानकारी के बावजूद दूसरे देशों में डाला जा रहा है।
ईपीए की नियमों का सीधा उल्लंघन
ईपीए को यह भी मालूम है कि इस ई-कचरे में कैडमियम, पारा और अन्य जहरीले तत्व शामिल हैं। लेड से बने हुए मानिटर और कैथोड रे टयूब (सीआरटी) यु1त टीवी सेटों को भारत जैसे देशों में भेज कर निपटाया जा रहा है। यहां इनमें से कुछ पुर्जों का दोबारा प्रयोग हो रहा है। कांग्रेस की जांच समिति ने आरोप लगाया कि ईपीए इस कचरे को निपटाने में असफल रही है। सरकारी जवाबदेही कार्यालय (जीएओ) ने कहा कि एजेंसी के पास न तो कोई योजना है और न ही कोई समय सीमा। इस जहरीले कचरे का निर्यात ईपीए की नियमों का सीधा उल्लंघन है। यूरोपीय संघ की तरह ईपीए के पास भी इस जहरीले कचरे को निपटाने की कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
वातावरण के नुकसान पर चिंता
ई-कचरे के निर्यात पर पाबंदी लगाने की मांग करने वाले डेमोट सांसद जेने ग्रीन ने कहा कि यह कमजोर नियमों को लागू करने में असफलता का प्रमाण है। उन्होंने कहा कि ईपीए जानबूझकर नियमों की अवहेलना कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार, जीएओ के अधिकारियों ने बताया कि ईपीए ई-कचरे की बढ रही समस्या से जानबूझकर इस तरह निपट रहा है। इसके जवाब में कहा गया कि ईपीए द्वारा दस जांचे की जा रही हैं और क्षेत्रीय कार्यालय इले1ट्रानिक कचरे को जमा करने और दोबारा उपयोग करने की निगरानी कर रहे हैं। इस कचरे के कारण दूसरे देशों के नागरिकों के स्वास्थ्य और वातावरण को होने वाले नुकसान पर चिंता जताई जा रही है।
इस तरह से देखा जाए, तो ई कचरा आज पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए खतरा बन गया है, पर यदि इसका सही रूप से दोहन हो, तो यह कचरा सभी के काम भी आ सकता है, आवश्यकता है, इसे परखने की। पूरे विश्व को इस दिशा में सोचना ही होगा, तभी बच पाएगा विश्व का पर्यावरण।
डॉ. महेश परिमल

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