बुधवार, 1 अक्तूबर 2008
आज वृद्ध दिवस यूँ बदलता है नजरिया
अपने जीवनकाल में उम्र के विभिन्न पड़ावों पर प्रत्येक व्यक्ति का अपने पिता की ओर देखने का नजरिया :-
चार वर्ष की आयु में - मेरे पिता महान हैं।
छ: वर्ष की आयु में - मेरे पिता सब जानते हैं।
दस वर्ष की आयु में - मेरे पिता बहुत अच्छे हैं, लेकिन गुस्सा बहुत जल्दी होते हैं।
तेरह वर्ष की आयु में (टीन एज की शुरुआत)- मेरे पिता बहुत अच्छे थे, जब मैं छोटा था।
चौदह वर्ष की आयु में - पिताजी बहुत तुनकमिजाज होते जा रहे हैं।
सोलह वर्ष की आयु में - पिताजी जमाने के साथ नहीं चल पाते हैं, पुराने विचारों के हैं।
अठारह वर्ष की आयु में - पिताजी तो लगभग सनकी हो चले हैं।
बीस वर्ष की आयु में - हे भगवान, अब तो पिताजी को झेलना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। पता नहीं, माँ उन्हें कैसे सहन कर पाती हैं।
पच्चीस वर्ष की आयु में - पिताजी तो मेरी हर बात का विरोध करते हैं।
तीस वर्ष की आयु में - मेरे बच्चे को समझाना मुश्किल होता जा रहा है, जबकि मैं अपने पिता से बहुत डरता था, जब मैं छोटा था।
चालीस वर्ष की आयु में - मेरे पिताजी ने मुझे बहुत अनुशासन से पाला। मुझे भी अपने बच्चों के साथ ऐसा ही करना चाहिए।
पैंतालीस वर्ष की आयु में - मैं आश्चर्यचकित हूँ कि कैसे मेरे पिता ने हमें बड़ा किया होगा?
पचास वर्ष की आयु में - मेरे पिता ने हमें यहाँ तक पहुँचाने के लिए बहुत कष्ट उठाए, जबकि मैं अपनी इकलौती संतान की देखभाल भी ठीक से नहीं कर पाता।
पचपन वर्ष की आयु में - मेरे पिता बहुत दूरदर्शी थे और उन्होंने हमारे लिए कई योजनाएँ बनाई थीं। वे अपने-आप में बेहद उच्चकोटि के इंसान थे, जबकि मेरा बेटा मुझे सनकी समझता है।
साठ वर्ष की आयु में - वाकई मेरे पिता महान थे।
अर्थात् 'पिता महान हैं' इस बात को पूरी तरह से समझने में व्यक्ति को छप्पन वर्ष लग जाते हैं।
लेबल:
आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
आपकी दृष्टि में काफी गंभीरता और सूक्ष्मता है। एक.दो वर्ष इधर.उधर भले ही हो जाए, पर शायद हर जमाने में लगभग ऐसा ही होता आया है।
जवाब देंहटाएंमैं ६६ से ऊपर हूँ इसलिए भी और जो कुछ देखता हूँ इसलिए भी ,लेखनी बहुत सुंदर लगी
जवाब देंहटाएंबड़ी सूक्ष्म और पारखी दृष्टि है आपकी।
जवाब देंहटाएंइस भावपूर्ण लेख के लिये बधाई
मथुरा कलौनी
bahut baariki se samjh kar likha hai....badhaaee
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत प्रभावशाली !
जवाब देंहटाएंMujhe kal vriddhashram jana hai...usi silsile me articles dhoondh rahi thi...aur ye padha...its ultimate...
जवाब देंहटाएं