शनिवार, 30 अप्रैल 2016
कहानी - अहसास - मनोज चौहान
कहानी का कुछ अंश...
सुधीर की पत्नी मालती की डिलीवरी हुए आज पाँच दिन हो गए थे। उसने एक बच्ची को जन्म दिया था और वह शहर के सिविल हॉस्पिटल में एडमिट थी। सुधीर और उसके घर वालों ने बहुत आस लगा रखी थी कि उनके यहाँ लड़का ही पैदा होगा। सुधीर की माँ मालती का गर्भ ठहरने के बाद अब तक कितनी सेवा और देखभाल करती आई थी। मगर नियति के आगे किसका वश चलता है। आखिर लड़की पैदा हुयी और उनके खिले हुए चेहरे मायूस हो गए। सुधीर तो इतना निराश हो गया था कि डिलीवरी के दिन के बाद, वो दोबारा कभी अपनी पत्नी और बच्ची से मिलने हॉस्पिटल नहीं गया था।
सुधीर आई.पी.एच. विभाग में सहायक अभियन्ता के पद पर कार्यरत था। उस रोज़ वह दफ़्तर में बैठा था। उसके ऑफ़िस में काम करने वाला चपरासी रामदीन छुट्टी की अर्जी लेकर आया। कारण पढ़ा तो देखा की पत्नी बीमार है और देखभाल करने वाला कोई नहीं है। डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। इसीलिए रामदीन 15 दिन की छुट्टी ले रहा था। सुधीर ने पूछा कि तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारी पत्नी की देखभाल नहीं करते। यह सुनकर रामदीन ख़ुद को रोक ना सका और फफक- फफक कर रोने लग गया। सुधीर ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। उसकी आँखों से निकलने वाली अश्रुधारा ने सुधीर को एक पल के लिए विचलित कर दिया।
रामदीन बोला, "साहब,अपने जीवन की सारी जमा पूँजी मैंने बेटे की पढ़ाई पर ख़र्च कर दी।" सोचा था कि पढ़–लिख कर कुछ बन जाएगा तो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। मगर शादी के छः महीने बाद ही वह अलग रहता है। उसे तो यह भी नहीं मालूम की हम लोग ज़िन्दा हैं या मर गए। ऐसा तो कोई बेगाना भी नहीं करता, साहब। काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती तो आज हमारे बुढ़ापे का सहारा तो बनती।" इतना कहकर रामदीन चला गया। सुधीर ने उसकी अर्जी तो मंजूर कर ली मगर उसके ये शब्द कि "काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती," उसे अन्दर तक झकझोरते चले गए। एक वो था जो लड़की के पैदा होने पर ख़ुश नहीं था और दूसरी ओर रामदीन लड़की के ना होने पर पछता रहा था।
सुधीर सारा दिन इसी कशमकश में रहा। कब पाँच बज गए उसे पता ही नहीं चला। छुट्टी होते ही वह ऑफ़िस से बाहर निकला और उसके क़दम अपनेआप ही सिविल हॉस्पिटल की तरफ बढ़ने लगे।
"मैटरनिटी वार्ड" में दाख़िल होते ही उसने अपनी पाँच दिन की नन्ही बच्ची को प्यार से पुचकारना और सहलाना शुरू कर दिया। मालती सुधीर में आये इस अचानक परिवर्तन से हैरान थी। अपनी बच्ची के लिए सुधीर के दिल में प्यार उमड़ आया था। वह आत्ममंथित हो चुका था और उसे अहसास हो गया था की एक लड़की जो माँ-बाप के लिए कर सकती है, एक लड़का वो कभी नहीं कर सकता। उसे रामदीन के वो शब्द अब भी याद आ रहे थे कि काश! मेरी लड़की ...... ऑडियो के माध्यम से इस कहानी का सुनकर आनंद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपने कहानी को इस लायक समझा ...इसके लिए आभारी हूँ ....इस कहानी को अपनी सशक्त आवाज में रिकॉर्ड कर यहाँ प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद ...!
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