गुरुवार, 31 जनवरी 2008

खामोश मुहिम चलानी होगी शोर के खिलाफ


डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही शहर से बहुत दूर एक गाँव में जाने का अवसर मिला. खेतों, पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ के बीच गुजरते हुए बहुत अच्छा लगा. स्वच्छ पानी के तालाब में नहाना, ऐसा लगा मानो बरसों की शहरी थकान उतर गई हो. भोजन भी अपेक्षाकृत अधिक लिया. नींद तो इतनी गहरी आई कि पूछो ही मत, पर एक बात विशेश रूप से देखने में आई कि खेतों पर काम करते हुए दो कोनों पर खड़े मजदूरों में आपस में वार्तालाप हो जाता था और उन दोनों के बीच खड़े होकर मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था. मैंने देखा कि वे मजदूर परस्पर बातचीत कर हँस भी लेते थे. उनकी बोली से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद भी आखिर मुझे उनकी बातचीत समझ में क्यों नहीं आती थी?
आज जब मैं इस पर गंभीरता से विचार कर रहा हूँ तो पाता हंँ कि मेरे कानों को तो शहरी ध्वनि प्रदूषण का रोग लग गया है. शहरों में कल-कारखानों, वाहनों, मंदिरों, पटाखों, बैंडबाजों का शोर इतना व्यापक है कि सामान्य ध्वनि तो सुनाई ही नहीं देती. उन मजदूरों के कानों में ध्वनि संवेदना अधिक सक्रिय है, क्योंकि वहां शोर नहीं है. आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के आंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
उत्सवों में अधिक से अधिक शोर करना फैशन हो गया है. रोज सुबह मंदिरों में आरती के लिऐ लाउडस्पीकर का सहारा लिया जाता है. आरती के वक्त मंदिरों में कभी जाकर देखें तो पता चलेगा कि मात्र चार लोग ही विभिन्न वाद्ययंत्रों के माध्यम से लाउडस्पीकर का सहारा लेकर अधिक से अधिक शोर करते हैं. इस दौरान वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि जो आरती मन को शांति पहुँचाती है, वही लाउडस्पीकर से निकलकर किस तरह से दूसरों को अशांत कर रही है. बहुत सुरीली लगती है न लता मंगेशकर की आवांज, कभी उनके किसी गीत को साउंड सिस्टम में पूरी तीव्रता के साथ सुनो तब समझ में आ जाएगा कि अधिक तेज आवांज किस तरह से सुरीले स्वर को कर्कश बना देती है?
आज पर्यावरण पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जल और वायु के प्रदूषण पर सारा विश्व चिंतित है, पर ध्वनि प्रदूषण की ओर कोई इशारा भी नहीं करता. इसके लिये हमें ही प्रयास करना होगा. शुरूआत हम खुद से करें तो बेहतर होगा. तेज स्वर में न बोलें. अपने रेडियो, टेप, टी.वी. की आवांज धीमी रखें. उत्सवों में तेज स्वर से दूर रहें. अपने उत्सव में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग ही न करें. अपनी गाड़ियों में कर्कश ध्वनि वाले हार्न न लगाएँ, लोगों को ध्वनि प्रदूषण के खतरों एवं दुष्प्रभावों से अवगत कराएँं. अपनी तरफ से हम इतना ही करें तभी हमें शांति मिल सकती है. हमारे आसपास कितना शोर है यह जानने के लिए एक मिनट तक दोनों कानों में अपनी ऊँगलियाँ डाल लें, देखो कितनी शांति मिलती है? बाहरी शोर पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं, पर कुछ प्रयास तो हमारी ओर से हो ही सकते हैं. नहीं तो इन शोर प्रेमियों को कौन बताए कि आपका बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो उसके पीछे यह शोर तो नहीं? बच्चे के जन्म की खुशियाँ लाउडस्पीकर के माध्यम से बाँटने वाले कभी खुद ही अपने ही बच्चे की आवांज सुनने से तरस जाएँगे, क्योंकि यह शोर आपको बहरा बना देगा.
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 30 जनवरी 2008

शहरी जंगलों में खोता बचपन


डॉ. महेश परिमल
छुट्टी के दिन बाजार जाना हुआ, रास्ते में देखा कि सड़क के बीचो-बीच कुछ पत्थर रखे हुए हैं। यह संकेत आम है कि ऐसा केवल उस समय किया जाता है, जब सड़क पर किसी तरह का काम चल रहा हो। लोग समझ जाते हैं और दूसरी तरफ से आगे निकल जाते हैं। पर उस दिन आश्चर्य हुआ कि इस तरह की शरारत बच्चों ने क्रिकेट खेलने के लिए की थी। सड़क पर तो किसी भी तरह का काम नहीं चल रहा था, बच्चों ने ही सड़क पर पत्थर रखकर क्रिकेट खेलने का जरिया बना लिया। लोग तो आगे बढ़ गए, पर शायद यह किसी ने नहीं सोचा कि आखिर बच्चे सड़क पर ही क्रिकेट क्यों खेलते हैं?
एक मोहल्ले की इमारतों की खिड़कियों पर यदि काँच नहीं है, तो यह समझ लेना आसान होता है कि इस मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट प्रेमी हैं। उनके ही बॉल से खिड़कियों के काँच ने अपना अस्तित्व खो दिया है। यह तो हुई खामोश खिड़कियों की बात, पर मुम्बई के उपनगर दइसर की उस घटना को क्या कहा जाए, जिसमें रात आठ बजे क्रिकेट खेलने वाले चार किशोरों को पुलिस पकड़कर ले गई। वजह केवल यही थी कि क्रिकेट खेलते हुए बॉल पास के एक फ्लैट की खिड़की की लोहे की जाली को छुकर निकल गई थी। बस उसके मालिक ने पुलिस को टेलीफोन से इसकी शिकायत कर दी। पुलिस ने उन चारों किशोरों को थाने पर काफी समय तक बिठा रखा। बाद में उन्हें अभिभावकों के विनय अनुनय के बाद समझाइश देते हुए छोड़ दिया गया।
बात फिर वहीं आ जाती है कि आखिर बच्चे खेलने के लिए जाएँ तो जाएँ कहाँ? वेसे भी देखा जाए तो आजकल के बच्चों के पास पढ़ाई, होमवर्क और टयूशन के बाद इतना भी वक्त नहीं है कि वह कुछ खेल भी सके। फिर भी बच्चे यदि इसके लिए समय निकाल लें, तो यह बड़ी बात है। चलो, उन्हें समय मिल गया, तो क्या खेलें? आजकल तो क्रिकेट ही राष्ट्रीय खेल बना हुआ है, क्योंकि इसमें अच्छा खेलने वाले को सम्मान ही नहीं, बल्कि काफी धन भी मिलता है। इसी सोच के चलते आज हर बच्चा क्रिकेट ही खेलना चाहता है। इस खेल के लिए थोड़ा मैदान तो चाहिए ही। पर आज महानगरों में फैलते कांक्रीट के जंगलों में भला मैदान कहाँ से मिलेगा। जो जगह थी, वह तो पार्किंग में निकल गई, जो थोड़ी-बहुत जगह थी, वहाँ पेड़-पौधे लगा दिए गए। बच्चों के लिए पार्क की व्यवस्था फ्लैट लेने के पहले थी, पर बाद में केवल कागजात में ही सिमट गई। बच्चों के लिए कोई जगह नहीं। ऐसे में बच्चे सड़क पर उतर जाएँ, तो दोशकिसे दिया जाए?
आज क्रिकेट ही क्यों, किसी भी खेल की बात कर लें, तो स्पष्ट होगा कि शहरों से निकलने वाले खिलाड़ियों से बेहतर तो गाँव के युवा खिलाड़ी ही सफल हो रहे हैं। इसकी वजह यही है कि आज महानगरों दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलोर, अहमदाबाद, सूरत, बड़ोदरा में जहाँ बच्चों को खेलने के लिए खुले विशाल और हवादार मैदानों की कमी हैं, वहीं गाँवों के बच्चे गाँव की सीमा के खेतों में, नदी के तट पर और खुले आसमान के नीचे थककर चूर होने की हालत तक खेलते हैं और अपना पूरा बचपन जीते हैं, ऐसे में खेल प्रतिभा तो गाँव से ही निकलेगी। दूसरी ओर अँगरेजी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों ने कबड्डी, खो-खो, छुप्पन छुपैया, गिल्ली-डंडा जैसे नाम भी शायद ही सुने हों। उन्हें तो क्रिकेट, टेबल-टेनिस, बेस बॉल, फुटबॉल आदि खेलों की जानकारियाँ घर के एक कोने में रखे इडियट बॉक्स के द्वारा मिल ही जाती है, किंतु इन खेलों के लिए भी उन्हें खुला मैदान नसीब नहीं होता, सो वे कंप्यूटर या विडियो गेम से ही इन खेलों का लुत्फ उठा लेते हैं। सभी को तो पेशेवर खेल संस्थाओं की सुविधा तो नहीं मिल सकती।
कहने की बात यह है कि शहरी बच्चों का बचपन सीमेंट कांक्रीट के जंगलों के बीच खो गया है। उनकी छोटी सी नाजुक जिंदगी में खेलों के द्वारा उत्साह, उमंग, ताजगी, मित्रता, तंदुरुस्ती का सिंचन हो ही नहीं पा रहा है। ऐसे में कुछ बच्चे यदि छुट्टियों का मजा लेने अपने ननिहाल चलें जाएँ और वहाँ खुले आसमान के नीचे ताजा हवा के साथ नदी किनारे खेलने मिल जाए, तो फिर क्या कहना? वे इन पलों को खोना ही नहीं चाहते, खुलकर भरपूर जीते हैं। फिर शहर आकर बीते पलों की याद में ही जीने को विवश हो जाते हैं। तब उनकी हर बात पर गाँव के खुले मैदान की चर्चा होती है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो बच्चे अपने बचपन में भरपूर खेल नहीं खेल पाए, उन्हें बड़ी उम्र में मानसिक और शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। ऐसे बच्चे जिनका बचपन खेल से दूर होता है, वे आगे चलकर चिड़चिड़े स्वभाव के, स्वार्थी, शंकाशील और शरीर से दुबले-पतले होते हैं। उनकी रोग प्रतिकारक क्षमता कम होती है। उनमें एकता, मेलजोल, सद्व्यवहार जैसे कुदरती गुणों का भी विकास नहीं हो पाता।
महानगरों में फ्लेटधारी अक्सर यह शिकायत करते हुए पाए जाते हैं कि फ्लेट बनने के पहले उन्हें दिए गए नक्शे में बच्चों के लिए पार्क का स्थान था, जो बाद में गायब हो गया। इसके लिए वे बिल्डर को दोषी मानते हैं, किंतु बिल्डर का कहना होता है कि हम तो बच्चों के खेलने और वृध्दों के बैठने के लिए खुली जगह रखते ही हैं, पर सोसायटी वाले उसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर देते हैं। शादी, रिसेप्शन और जन्मदिन की पार्टी के लिए इस जगह का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। यदि हम बगीचा बनाते हैं, तो इसकी ठीक तरह से देखभाल नहीं की जाती। ऐसे में हमारा क्या दोष?
कुछ भी कहिए, आज महानगरों में बिल्डर और हाउसिंग सोसायटी के बीच मासूमों का बचपन छिन रहा है। हम लाख अपने आपको समझा लें, पर यह सच है कि जिसका बचपन खिलखिलाता होगा, उसका पूरा जीवन ही हँसता-मुस्कराता होगा। बचपन की निर्दोष शरारतों का मजा जिसने नहीं लूटा, उसकी जिंदगी बिल्कुल कोरी है। आज के शहरी किशोर इन्हीं कोरी जिंदगियों के बीच अपना समय गुजार रहे हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

सम्मान देकर सम्मानित होती संस्थाएँ


डॉ. महेश परिमल
आजकल रोज ही कुछ ऐसी संस्थाएँ पनप रहीं हैं, जिनका कोई नामलेवा नहीं होता. लेकिन वे कुछ ऊँची हस्तियों को कई तरह के पुरस्कार देकर उन्हें सम्मानित करने की घोषणा करती हैं. इससे होता यह है कि वे संस्थाएँ लोगों का केंद्र बिंदु बन जाती हैं. उसके बाद भले ही उन संस्थाओं का और कोई कार्यक्रम हो या नहीं, पर वे अपना पंजीयन करवाकर कई सुविधाओं का लाभ उठाने लगती हैं.
हाल ही इस तरह के कई समाचार पढ़ने को मिले, जिसमें कई नई संस्थाओं ने उन लोगों को पुरस्कार देने की घोषणा की है, जो या तो विवादास्पद हैं या फिर निश्चित रूप से उन्होंने किसी क्षेत्र में नाम कमाया है. ये संस्थाएँ इसी अवसर की ताक में होती हैं, जैसे ही कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष में विशेष रूप से ऊँचे स्थान पर पहुँचता है, वैसे ही कतिपय संस्थाएँ उन्हें सम्मानित कर अपनी संस्था को लोगों के सामने लाती हैं. देखा जाए तो हस्तियों को पुरस्कार देकर ये संस्थाएं स्वयं ही पुरस्कृत होती हैं. एक बार इस संस्था के बैनर पर कोई सम्मान समारोह हो गया, तो समझो उसके पौ-बारह. हाल ही में जिन संस्थाओं के नाम सामने आए हैं, उन्हें लोगों ने पहली बार जाना है.
मायानगरी मुम्बई मे तो आजकल यह एक फैशन ही हो गया है. मात्र कुछ लाख रुपए लेकर ऊँची फिल्मी हस्तियाँ किसी पान ठेले या फिर किसी रेस्तरां का उद्धाटन कर देती हैं. फिर उसके मालिक के साथ तस्वीरें खिंचवाती हैं, पार्टी होती है और उसके बाद न तो फिल्मी हस्ती उस पान ठेले वाले या फिर रेस्तरां के मालिक को पहचानती है और न ही इन लोगों को उनकी आवश्यकता ही पड़ती है. उनका काम तो उन तस्वीरों से ही निकल जाता है, जो समारोह के दौरान खिंची जाती है. इन तस्वीरों के माध्यम से उन्हें काफी लोकप्रियता मिल जाती है. अधिक हुआ तो फिल्मी हस्ती द्वारा समारोह में कहे गए कुछ वचनों को ही ये लोग रिकॉर्ड कर लेते हैं, बस काम हो गया. इन हस्तियों द्वारा मात्र कुछ लाख रुपयों के लिए इस तरह के काम किए जाते हैं, इसके पीछे सस्ती लोकप्रियता पाने की चाहत भी होती है.
हमारे देश में सम्मान के भूखे ऐसे बहुत से लोग हैं, जो सम्मान पाने के लिए अपनी तरफ से धन खर्च करने में संकोच नहीं करते. कला और साहित्य के क्षेत्र में यह परंपरा शुरू हो गई है. किसी कहानी या काव्य संग्रह के विमोचन के बाद वे स्वयं ही उसकी समीक्षा लेकर अखबारों के दफ्तरों में जाते हैं, संपादक से अनुनय करते हैं, किसी तरह समीक्षा प्रकाशित हो जाए, तो उसकी कटिंग को माध्यम बनाकर कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं. यही नहीं उसके बाद तो कई संस्थाओं द्वारा उस पर चर्चा करवाते हैं. इस तरह से अपने आप को एक प्रतिष्ठित कवि या लेखक बताने की पूरी जुगत करते हैं. इससे समाज में जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह अलग. इससे उनका समाज उन्हें सम्मानित करता है, इस तरह से समाज में भी वे एक ऊँचा कद प्राप्त कर लेते हैं.
सम्मान की यह भूख किस तरह से एक परंपरा को ही समाप्त कर रही है, इसकी तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है. देखा जाए तो जिस व्यक्ति का सम्मान होता है या फिर नागरिक अभिनंदन होता है, उस समारोह में विशिष्ट अतिथि के सामने उनका नाम पुकारा जाता है, सम्मान प्राप्त करने वाला मंच पर जाता है और शाल, श्रीफल और कुछ राशि प्राप्त कर अपने को धन्य समझता है. देखा जाए तो यह सार्वजनिक रूप से अपमानित होने का एक समारोह होता है. सम्मान यदि स्वयं ही किसी व्यक्ति के पास उसकी प्रतिभा के कारण उनके पास आया है, तो फिर सम्मानित होने के लिए उसे मंच पर जाने की क्या आवश्यकता है? विशिष्ट अतिथि को स्वयं ही शाल, श्री फल लेकर सम्मान प्राप्त करने वाले व्यक्ति के पास आना चाहिए. यह होता है उचित सम्मान. आजकल तो इस तरह के जो समारोह होते हैं, उसमें अपमान ही अधिक होता है. सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि समारोह के विशेष अतिथि को किसी के नाम ही पता नहीं रहता. वे तो केवल आयोजकों को ही पहचानते हैं. उन्हें न तो व्यक्ति की प्रतिभा से कोई मतलब होता है और न ही समाज में उनके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों की कोई जानकारी होती है. इस तरह के समारोहों में आकर वे भी स्वयं को स्थापित करते हैं, ताकि जब कभी उनका सम्मान हो, तब यही आयोजक किसी बड़ी हस्ती को बुलाकर इनका परिचय करवाएँ. इस तरह से सरकारी या व्यक्तिगत सुविधा प्राप्त करने की एक परंपरा ही चल पड़ती है.
सम्मान करना या सम्मान करवाना, ये सब सुविधाएँ प्राप्त करने के साधन हैं, जिसके आधार पर वे एक ऐसीे सीढ़ी तैयार करते हैं, जिससे होकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है. इसके लिए लोग मीडिया का खूब इस्तेमाल करते हैं. यदि कोई व्यक्ति अधिक से अधिक मीडिया के लोगों को जानता है, तो उसे लोग अपना काम निकलवाने के लिए अपने पास बुलाते हैं. उसकी आवभगत करते हैं, फिर धीरे से अपना काम बता देते हैं.
नारी उत्थान के नाम पर हर शहर में एक-दो संस्थाएँ तो मिलेंगी ही, पर कभी शहर में किसी नारी पर अत्याचार हो, तो इन संस्थाओं को खोजने निकल जाएँ या फिर उस पीड़ित नारी के लिए कुछ आर्थिक मदद इकट्ठी करनी हो, तो इन संस्थाओं का एक भी प्रतिनिधि शहर में ही नहीं मिलेगा. हाँ किसी सरकारी समारोह में इन संस्थाओं के सभी लोगों की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती है. ही तो वह अवसर होता है, जब वे सभी अपने आपको स्थापित करते हैं. चेहरे पर कई चेहरे लगाने वाले लोग हर गली-मोहल्ले में मिल जाएँगे. बरसाती घास की तरह ऊगने वाली इन संस्थाओं की सालाना बैठक भी होती है, पर केवल कागजों में. संस्था के सभी सदस्य बमुश्किल ही मिल पाते हैं. आखिर क्यों ऊग आती हैं इस प्रकार की संस्थाएँ? इस पर किसी ने विचार किया?
वास्तव में ये संस्थाएँ इंसान की मंजबूरी का एक रूप है. एक अकेले व्यक्ति की आवाज दबकर रह जाती है. संगठित आवाज का असर कुछ और ही होता है. इसलिए लोग इस तरह से एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं. बुलंद आवाज से सभी खौफ खाते हैं. बस यही से शुरू हो जाता है स्वार्थी लोगों का काम. कई संस्थाएँ आज भी हैं, जो केवल वयोवृध्द साहित्यकारों को ही सम्मानित करती हैं. याने इस संस्था का सम्मान प्र्राप्त करने के लिए उम्र कम से कम 60 साल होना आवश्यक है. ऐसी संस्थाओं से समाज को क्या लाभ? यदि इन संस्थाओं के क्रियाकलापों पर एक नजर डाली जाए, तो अधिकांश फर्जी साबित होगी. यदि इस दिशा में सरकार स्वयं ही एक कानून बनाकर इन पर अंकुश रखे, तो नागरिकों को रोज-रोज पनपने वाली संस्थाओं से छुटकारा मिल सकता है.
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 28 जनवरी 2008

वसंत...वसंत... कहाँ हो तुम


डा. महेश परिमल
अभी-अभी ठंड ने गर्मी का चुम्बन लिया है ... समझ गया बस वसंत आने वाला है. पर वसंत है कहाँ? वह तो खो गया है, सीमेंट और कांक्रीट के जंगल में. अब प्रकृति के रंग भी बदलने लगे हैं. लोग तो और भी तेंजी से बदलने लगे हैं. अब तो उन्हें वसंत के आगमन का नहीं, बल्कि 'वेलेंटाइन डे' का इंतजार रहता है. उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि वसंत कब आया और कब गया. उनके लिए तो वसंत आज भी खोया हुआ है.
कहाँ खो गया है वसंत? क्या सचमुच खो गया है, तो हम क्यों उसके खोने पर ऑंसू बहा रहे हैं, क्या उसे ढूँढ़ने नहीं जा सकते. क्या पता हमें वह मिल ही जाए? न भी मिले, तो क्या, कुछ देर तक प्रकृति के साथ रह लेंगे, उसे भी निहार लेंगे, अब वक्त ही कहाँ मिलता है, प्रकृति के संग रहने का. तो चलते हैं, वसंत को तलाशने. सबसे पहले तो यह जान लें कि हमें किसकी तलाश है? 'मोस्ट वांटेड' चेहरे भी आजकल अच्छे से याद रखने पड़ते हैं. तो फिर यह तो हमारा प्यारा वसंत है, जो इसके पहले हर साल हमारे शहर ही नहीं, हमारे देश में आता था. इस बार समझ नहीं आता कि अभी तक क्यों नहीं आया, ये वसंत.
आपने कभी देखा है हमारे वसंत को? आपको भी याद नहीं. अब कैसे करें उसकी पहचान. कोई बताए भला, कैसा होता है, यह वसंत? क्या मिट्टी की गाड़ी की नायिका वसंतसेना की तरह प्राचीन नायिका है, या आज की विपाशा बसु या मल्लिका शेरावत की तरह है. कोई बता दे भला. चलो उस बुंजुर्ग से पूछते हैं, शायद वे बता पाएँ. अरे.... यह तो कहते हैं कि मेरे जीवन का वसंत तो तब ही चला गया, जब उसे उसके बेटों ने धक्के देकर घर से निकाल दिया. ये क्या बताएँगे, इनके जीवन का वसंत तो चला गया. चलो उस वसंत भाई से पूछते हैं, आखिर कुछ सोच-समझकर ही रखा होगा माता-पिता ने उनका नाम. लो ये भी गए काम से, ये तो घड़ीसाज वसंत भाई निकले,जो कहते हैं कि जब से इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ बांजार में आई हैं, इनका तो वसंत ही चला गया. अब क्या करें. चलो इस वसंत विहार सोसायटी में चलते हैं, यहाँ तो मिलना ही चाहिए हमारे वसंत को. कांक्रीट के इस जंगल के कोलाहल में बदबूदार गटर, धुऑं-धूल और कचरों का ढेर है, यहाँ कहाँ मिलेगा हमारा वसंत. यहाँ तो केवल शोर है, बस शोर. भागो यहाँ से... ये आ रहीं हैं वासंती. ये जरूर बताएगी वसंत के बारे में. लो इनकी भी शिकायत है कि जब से लोगों के घरों में कपड़े धोने की मशीन और वैक्यूम क्लीनर आ गया है, हमारा तो वसंत चला ही गया.
अब कहाँ मिलेगा हमें हमारा वसंत? चलो ंहिंदी के प्राध्यापक डॉ. प्रेम त्रिपाठी से पूछते हैं, वे तो उसका हुलिया बता ही देंगे. लो ये तो शुरू हो गए, वह भ्रमर का गुंजन, वह कोयल की कूक, वह शरीर की सुडौलता, वह कमर का कसाव, वह विरही प्रियतम और उन्माद में डूबी प्रेयसी, वह घटादार वृक्ष और महकते फूलों के गुच्छे, वह बहते झरने और गीत गाती लहरें, वह छलकते रंग और आनंद का मौसम, बस मन मयूर हो उठता है और मैं झूमने लगता हूँ.
हो गई ना दुविधा. इन्होंने तो हमारे वसंत का ऐसा वर्णन किया कि हम यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि वसंत को किस रूप में देखें? सब गड्ड-मड्ड कर दिया त्रिपाठी सर ने. चलो अँगरेंजी साहित्य के लेक्चरर यजदानी सर से पूछते हैं, शायद उनका वसंत हमारे वसंत से मेल खाता हो? अरे ये सर तो उसे 'स्प्रिंग सीजन' बता रहे हैं. कहाँ मिलेगा यह 'स्प्रिंग सीजन' ? थक गए, थोड़ी चाय पी लें, तब आगे बढ़ें. अरे इस होटल के 'मीनू' में किसी 'स्ंप्र्रिग रोल्स' का ंजिक्र है, शायद उसी में हमें दिख जाए वसंत. गए काम से ! ये तो नूडल्स हैं. क्या इसे ही कहते हैं वसंत?
अब तो हार गए, इस वसंत महाशय को ढँढ़ते-ढँढ़ते. न जाने कहाँ, किस रूप में होगा ये वसंत. हम तो नई पीढ़ी के हैं, हमें तो मालूम ही नहीं है, कैसा होता है यह वसंत. वसंत को पद्माकर ने देखा है और केशवदास ने भी. कैसे दिख गया इन्हें बगरो वसंत? कहाँ देख लिया इन्होंने इस वसंत महाशय को? अब नहीं रहा जाता हमसे, हम तो थक गए. ये तो नहीं मिले, अलबत्ता पाँव की जकड़न जरूर वसंत की परिभाषा बता देगी. अचानक भीतर से आवांज आई, लगा कहीं दूर से कोई कह रहा है..
कौन कहता है कि वसंत खो गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हें तरह-तरह के वसंत से परिचय कराता हँ. ये देखो कॉलेज कैम्पस. यहाँ जुगनुओं की तरह यौवन का मेला लगा है. मैं पूछता हूँ क्या ये सभी प्रकृति के पुष्प नहीं हैं? इन्हें भी वसंत के मस्त झोकों ने अभी-अभी आकर छुआ है. यौवन वसंत. इसकी छुअनमात्र से इनके चेहरे पर निखार आ गया है. देख रहे हो इनकी अदाएँ, ये शोखी, ये चंचलता? वसंत केवल पहाडाें, झरनों और बागों में ही आता है, ऐसा किसने कहा? कभी भरी दोपहरी में किसी फिल्म का शो खत्म होने पर सिनेमाघर के आसपास का नजारा देखा है? वहाँ तो वसंत होता ही है, स्नेक्स खाते हुए, भुट्टे खाते हुए, चाट खाते हुए, पेस्ट्री खाते हुए. मालूम है नहीं भाया वसंत का यह रूप आपको. तो चलो, स्कूल की छुट्टी होने वाली है, वहाँ दिखाता हूँ आपको वसंत, देखोगे तो दंग रह जाओगे, वसंत का यह रूप देखकर. वो देखो... छुट्टी की घंटी बजी और टूट पड़ा सब्र का बाँध. कैसा भागा आ रहा हैं ये मासूम और अल्हड़ बचपन. पीठ पर बस्ता लिए ये बच्चे जब सड़क पर चलते हैं, तब पूरी की पूरी सड़क एक बगीचा नजर आती है और हर बच्चा एक फूल. क्या इन फूलों पर नहीं दिखता आपको वसंत?
कभी किसी ग्रींटिंग कार्ड की दुकान पर खड़े होकर देखा है, इठलाती युवतियाँ हमेशा सुंदर फूलों, बाग-बगीचों और हरियाली वाले कार्ड ही पसंद करती हैं. ऐसा नहीं लगता है कि इनके भीतर भी कोई वसंत है, जो इस पसंद के रूप में बाहर आ रहा है. ऐश्वर्यशाली लोगों के घरों में तो वाल पेंटिंग के रूप में हरियाला वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है. ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है, हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस ंजरा-सा दुबक गया है और हमारी ऑंखों से ओझल हो गया है. अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूँढ़े, तो उसे देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हाँ यही है वसंत, जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूँढ़ रहे थे. वसंत जीवन का संगीत है, तांजगी की चहक और सौंदर्य की खनक है, परिवर्तन की पुकार और रंग उल्लास का साक्षात्कार है. जहाँ कहीं ऐसी अनुभूति होती है, वसंत वहीं है. वसंत कहीं नहीं खोया है. मेरे और आपके अंदर समाया वसंत अभी भी अपना उजाला, तांजगी, सौंदर्य पूरी ऊर्जा के साथ चारों ओर फैला रहा है. बस खो गई है वसंत को परखने वाली हमारी नंजर. अब तो मिल गया ना हमारे ही भीतर हमारा वसंत. तो विचारों को भी यहीं मिलता है बस अंत.
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

आज भी कदम थाम लेते हैं, पुराने सुरीले गीत



डॉ. महेश परिमल
उस दिन गानोें को लेकर युवा पुत्र से बहस हो गई, वह हिमेश रेशमिया के गीत सुनना चाहता था, मैं पुरानी फिल्मों के गीतों का शौकीन हूँ. आखिर बहस को विराम देने के लिए मैं पुत्र की पसंद को आगे रखा और उसकी पसंद के दो गीत सुने, उसके बाद मैंने अपनी पसंद के दो गीत सुने। उसमें से एक गीत था कवि प्रदीप का लिखा और गाया गीत- देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान और दूसरा गीत था एस.डी. बर्मन की आवाज का सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा....। इन गीतों को सुनने के बाद मैंने पुत्र से पूछा- बेटे, अब तुम ईमानदारी से बताओ कि तुम्हें कौन-से गीत अच्छे लगे? पुत्र ने जवाब दिया- पापा, आप जीत गए।
मुझे पुत्र से जीतना अच्छा नहीं लगा, मैं उससे हार जाता, तो अधिक खुशी होती। पर गीतों के माधुर्य की दृष्टि से पुत्र को पुराने फिल्मी गीतों का महत्व समझाना था, इसलिए मुझे ऐसा करना पड़ा। इस घटना के बाद मन में यह विचार आया कि आखिर पुराने गीत इतने अच्छे क्यों लगते हैं? क्यों नहीं हम आज के गीतों के साथ अपने आप को जोड़ना चाहते? क्या कारण है कि आज के गीत दस दिन बाद याद ही नहीं रहते और पुराने गीत बरसों-बरस बाद भी न केवल याद हैं, बल्कि उसे सुनते ही मन में अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव भी होने लगता है। उन गीतों का संगीत ही नहीं, बल्कि गीत के शब्द भी कचोटने लगते हैं. इसके अलावा फिल्म मेें गीत जहाँ पर सुनाई पड़े हैं, उनकी सिचुएशन भी कितनी अच्छी बन पड़ी है, मानो वह गीत उसी सिचुएशन के लिए ही लिखा गया हो। पुराने गीतों में भावों की ऐसी लहरें उठती हैं कि उसमें डूब जाने का मन करता है, पर आज के गीतों को सुनकर लगता ही नहीं कि हम कोई गीत सुन भी रहे हैं।
आज कई टीवी चैनलों में फिल्मी गीतों से जुड़े कार्यक्रम और संगीत से जुड़ी प्रतिभाओं की खोज के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इनमें एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि आज के युवा इन कार्यक्रमों में पुराने गीतों का ही सहारा लेते हैं, इन्हीं गीतों से उनकी वास्तविक प्रतिभा की पहचान हो रही है। सुरों का उतार-चढ़ाव कहें या फिर राग की बारीकियाँ पुराने गीतों को गाने से ही समझी जा सकती हैं। पुराने गीतों में एक-एक शब्द का सही उच्चारण पूरे भाव के साथ सुनाई पड़ता है, पर आज के गीतों में संगीत इतना हावी है कि पता ही नहीं चलता कि गीत के बोल क्या हैं? फिर भाव तलाशना तो दूर की बात है।
आज यहाँ दो गायकों की ही चर्चा। इनमें से एक स्वयं गीतकार भी थे और दूसरे गायक होने के साथ-साथ संगीतकार भी थे। ये दोनों आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके गीतों की मिठास आज भी पूरे विश्व में घुली हुई है। इनके गीत आज भी जहाँ भी सुनाई पड़ते हैं, लोग सहसा रुककर उसे पूरी तल्लीनता के साथ सुनना चाहते हैं। एक कवि प्रदीप और दूसरे बर्मन दा। कवि प्रदीप का कोई भी गीत सुन लो, उनके कंठ में मानों सरस्वती का वास हो। उनकी गीतों की निर्झरिणी ऐसे बहती है, मानों कोई वीतरागी अपनी ही धुन में कुछ गा रहा हो। समाज की कड़वी सच्चाई हो या फिर प्रेम की गहराई, मधुर कंठ के साथ जब मधुर भाव भी जुड़ जाते हैं, तो एक चमत्कार पैदा होता है। यही चमत्कार पुराने गीतों में आज भी दिखाई देते हैं। याद कर लें, वह गीत- सुख-दु:ख दोनों रहत जिसमेें, जीवन है वो गाँव। कभी धूप तो कभी छाँव। इसके अलावा फिल्म जागृति का वह गीत- आओ बच्चो, तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो, यह धरती है बलिदान की। अधिक दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है। राष्ट्रीय पर्व पर हमेशा बजने वाला गीत- ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा ऑंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी। इस गीत को लिखने के पहले कवि प्रदीप ने किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, यह बहुत कम लोग जानते हैं। यह गीत तब लिखा गया था, जब भारत, चीन से युध्द हार गया था। सैनिकों के हौसले पस्त हो चुके थे, पूरा देश निराशा के दौर से गुजर रहा था। तब प्रदीप जी को लगा कि एक गीत की रचना होनी चाहिए, जिससे कम से कम सैनिकों के हौसले बुलंद हों, देश निराशा के गर्त से उबर जाए। तब केवल कुछ पंक्तियाँ ही उन्हें सूझी और उन्होंने उसे सिगरेट के पैकेट पर ही लिख लिया। आगे की पंक्तियों के लिए उन्हें एक तरह की मानसिक यंत्रणा से होकर गुजरना पड़ा। आखिर गीत तैयार हुआ, जब इसे लता जी ने दिल से गाया,तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की ऑंखों में ऑंसू आ गए। यही गीत की सफलता है कि वह आज हमारे शरीर पर सिहरन पैदा कर देता है। इस गीत के एक-एक शब्द को ध्यान से सुना जाए, तो ऑंखें भर आएँगी, यह तय है। 'तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली', 'हमने जग की अजब तस्वीर देखी, एक हँसता है दस रोते हैं', 'कोई लाख करे चतुराई, करम का भेद मिटे ना रे भाई', 'पिंजरे के पंछी रे, तेरा दरद न जाने कोय' आदि मुट्ठी भर चंद गीत ही हैं, जो हमें समय-समय पर सुनाई पड़ते रहते हैं, लेकिन आज भी अपनी माटी की सौंधी महक के साथ हमारी साँसों में समाए हुए हैं।
अब दूसरे गायक को लें, ये हैं सचिन देव बर्मन। इन्होंने अपने सुरीले संगीत के माध्यम से सांथाल और भटियाली लोक संगीत के साथ बाऊल साधू संगीत की उपासना की। इनके गीतों का स्वर यह कहता है कि दिल की गहराइयों से गाया जाने वाला गीत कभी बेसुरा नहीं होता। इनके गीत आज भी हमें यह अहसास कराते हैं कि जीवन मिटने का नहीं, मिट-मिटकर उबरने का नाम है। इनका सबसे पहला हिट गीत किसे माना जाए, निश्चित ही फिल्म सुजाता का- सुन मेरे बंधु रे , सुन मेरे मितवा, सुन मेरे साथी रे, इस गीत में वायब्रोफोन और इकतारा जैसे बंगला वाद्य यंत्रों के अलावा किसी अन्य का प्रयोग नहीं किया गया है, परन्तु सचिन दा के कंठ की मोहिनी क्षण भर में ही सुनने वाले को मुग्ध कर देती है। गीत की कुछ पंक्तियों में सचिन दा एक शीर्ष के गांधार तक एकाएक पहुँच जाते हैं (संगीत में सा, रे के बाद का तीसरा स्वर) प्रत्येक शब्द के भाव को सचिन दा का कंठ हू-ब-हू प्रस्तुत करता है। हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में ऐसे गीत बहुत ही कम सुनने को मिलते हैं।
सचिन दा के सभी गीतों में सुदूर गाँव की माटी का सौंधापन समाया हुआ है। सभी गीतों में कम से कम वाद्य यंत्रों का प्रयोग हुआ है। मात्र गायक का कंठ और गीतों की उर्मिल अभिव्यक्ति झलकती है। 'वहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ', अल्ला मेघ दे पानी दे, प्रेम के पुजारी हम हैं रस के भिखारी, मोरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, सफल होगी तेरी आराधना, काहे को रोये, इन सभी गीतों में मात्र गायक और उसके शब्दों की संवेदनाओं का ही अनुभव होता है। यह सच है कि इनके गीतों को ऊँगलियों में गिना जा सकता है, लेकिन इनकी बराबरी करने के लिए दुनिया के लाखों गीत भी कम हैं।
इन दोनों गायकों की अपनी शैली और अपनी भावाभिव्यक्ति है। आवाज की बुलंदी और मिठास भी सबसे अलग है। उनकी तुलना किसी और गायक के साथ नही की जा सकती। गायकों की भीड़ में ये दो अलग स्वर हैं। इनकी विशेषता भी यही है कि इनकी नकल आज तक नहीं हुई। जिस तरह से हिंदी साहित्य में कबीर की नकल नहीं हुई, ठीक उसी तरह से कवि प्रदीप और सचिन दा की आवाज की नकल नहीं हुई। पर यह सच है आज भी इनके गीत हृदय को शश्ंति देते हैं. मन जब उदास हो, तो इनके गीत कहीं न कहीं ये भाव जगतो हैं कि जीवन निराश होकर बैठने के लिए नहीं, बल्कि संघर्ष करने का दूसरा नाम है. यही कारण है कि लोग आज भी पुराने गीतों के इतने अधिक शौकीन हैं कि दूसरे गीत उन्हें सुहाते ही नहीं.
सुरीले कंठ से निकलने वाले गीतों की बात यही तक..
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

क्या भारत एक गरीब देश है?



; डॉ. महेश परिमल
एक समय वह था, जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। फिर एक समय ऐसा आया जब भारत एक गरीब देश के रूप में जाना जाने लगा और अब आज एक बार फिर समय का पहिया घूमा है। स्थिति यह है कि यहाँ के लगभग सभी छोटे-बड़े घरों में, झोंपड़ियों में टी.वी. है...फ्रिज है...सब्जीवाला, कबाड़ीवाला, पेपरवाला, बढ़ई, मिस्त्री सभी मोबाइल रखते हैं। लाखों की संख्या में कार और बाइक का उत्पादन और विक्रय हो रहा है। करोड़-दो करोड़ के फ्लेट और बंगलों का विक्रय हो रहा है। लाखों में मकान मिलना तो बहुत सहज और सामान्य बात हो गई है। रुपया तो मानों फिसला जा रहा है। वह कहीं भी थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। महँगाई की बातें तो खूब होती हैं, पर हाउसफुल सिनेमाघर, रेस्तराँ को देखकर नहीं लगता कि हम एक गरीब देश के नागरिक हैं।
ये है भारत का बदलता हुआ स्वरूप। आज यहाँ गरीबी पूरी तरह से नष्ट भले ही नहीं हुई है, पर इसमें कमी जरूर आई है। इसका कारण पंचवर्शीय योजना और वैश्वीकरण है। इसके विपरीत सरकारी तंत्र की कितनी ही भ्रष्टाचारी नीतियों के कारण महँगाई में भी बढ़ोतरी हुई है, परंतु ये महँगाई इतनी अधिक नहीं है, जो पहले की तरह मुँह से चीख निकालने को विवश कर दे। आज खरीददारी के लिए भीड़, धक्का-मुक्की, रेलमपेल बहुत अधिक बढ़ गई है। हर कहीं खरीददारों का हुजूम दिखाई देता है।
आज से 40-50 वर्ष पहले जहाँ 200-500 या अधिक से अधिक 1000 रुपए का वेतन ही आश्चर्य में डालता था, वहीं अब 1 लाख तो क्या 10 लाख रुपए. का वेतन भी आश्चर्य में नहीं डालता। इसी प्रकार 40-50 वर्ष पहले जहाँ 20-25 हजार रुपए में मकान खरीदा जा सकता था, वहीं अब इसी भाव में एक रूम या झोंपड़ी मिलना भी मुश्किल है। उस समय 10-15 लाख रुपए. का मकान बनाने वाले भी कम ही थे और आज जब लोग 1 करोड़ से 5 करोड़ का बंगला भी बना लेते है, तो लोगों को कोई आश्चर्य नहीं होता और सबसे अधिक हैरानी की बात तो ये है कि ये ही बंगले दोगुनी कीमत पर आसानी से बिक भी जाते हैं। 40 वर्ष पहले जहाँ सीमेन्ट की एक बोरी की कींमत 9-9 रुपए की थी, वही बोरी आज 119 रुपए की हो गई है, उसके बाद भी पहले की तुलना में आज इसके खरीददार बढ़ गए हैं।
के.एस.ए. टेक्नोपेक नामक कंपनी की एक उप कंपनी द नॉलेज कंपनी के द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार भारत में वार्षिक आय 45 लाख रुपए हों, ऐसे 10,60,000 घर हैं और नेशनल काउन्सील ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के सर्वे के अनुसार 1 करोड़ रुपए की वार्षिक आय वाले घर 6 वर्ष पूर्व 20,000 ही थे, जो 2005 में 53,000 हो गए हैं। ओ एन्ड एम नामक एक विज्ञापन कंपनी के अनुसार ये ऑंकड़े 61,000 से अधिक हैं और मेरिल लीच कंपनी 83,000 का ऑंकड़ा प्रस्तुत करती है। संक्शिप्त में यही कहा जा सकता है कि भारत में गरीबी घटी है।
भारत की इस स्थिति के कारण और भारत सरकार के द्वारा विदेशी उत्पादक कंपनियों को दी गई छूट के कारण ही आज कई विदेशी कंपनियाँ भारत के बाजार में अपना अधिकार करने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक रूप से आगे आ रही हैं। कितनी कंपनियाँ तो भारत की इस बदलती हुई स्थिति से हतप्रभ हैं, उन्हें यह बात स्वीकार ही नहीं है। अमेरिकन एक्सप्रेस ने भारत की बदलती हुई लाइफस्टाइल के बारे में एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया है, जिसमें बताया है कि भारत में अभी 'बेस्ट' पसंद करने के लिए बहुत अधिक विकल्प हैं। दुनियाभर की सभी बेस्ट ब्रान्ड कंपनियाँ अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए भारत के ग्राहकों को ललचा रही हैं।
उदाहरण के लिए लुईस वीईटोन और ह्यूगो बॉस नामक कंपनी ने तीन वर्ष पहले भारत में प्रवेश किया। उसके बाद तो चेनल, डीपोर, जेगरली कोलट्री, फेरागेमो, फेरी एन्ड एइजनेर जैसी अनेक कंपनियों ने अपनी वैभवशाली वस्तुओं के स्टोर महानगरों में खोले हैं। अब वेर सासी, गुसी, फेन्डी, वेलेन्टीनो, जीमी चू, आर्मनी जैसी कंपनियाँ भारत में आ रही है। महँगी से महँगी कार बनानेवाली कंपनियों की कारें तो कब से भारत की सड़कों पर दौड़ने लगी हैं। मर्सीडीस क्रूजर, बी.एम.डब्ल्यू, ओडी, पोरशी, रोल्स राइस इत्यादि 'स्टेटस सिम्बॉल' गिनी जाती हैं। ये सभी कारेें तो पिछले दस वर्षों से भारत में बड़ी संख्या में दौड़ने लगी हैं। पिछले वर्ष मर्सीडीस कार 2019 बिकी है और अभी हाल ही में लक्जरी मॉडल क्यू 7 एसयूवी बाजार में लाने वाली ओडी भी इस वर्ष अधिक बिकने की पूरी संभावना है।
एक तरफ ऐश्वर्यशाली जीवन तो दूसरी तरफ हमारे देश में बेकारी भी कम नहीं है। विकास की इस अंधी दौड़ में हर कंपनी भागी जा रही है। लोगों के पास काम करने के लिए समय ही नहीं है। हमारे देश में बढ़ रही झोपड़पट्टियों से यह कतई न समझ लिया जाए कि गरीब बढ़ रहे हैं। एक बार किसी झोपड़ी में ही झाँककर देखा जाए, तो उनका भी ऐश्वर्यशाली जीवन की झलक हमें दीख जाएगी। आप किसी राजगीर या प्लम्बर से बात करके तो देखें, पहले तो उसके पास आपसे बात करने का समय ही नहीं होगा, दूसरा यदि उसने बात कर भी ली, तो उसका यही कहना होगा कि आप मेरा मोबाइल नम्बर ले लीजिए, उसी से रात में बात कर लें। यह नम्बर भी वही आपको नहीं देगा, नम्बर देने का काम तो उसका सहायक करेगा। लोगों के पास महीनों-महीनों समय नहीं है। जब समय नहीं है, तो तय है कि उनकी आवक बहुत है। जब आवक है, तो जीवन ऐश्वर्यशाली होगा ही। आजकल लोगों की बातें ही एक बार सुन ली जाए, तो आश्चर्य होगा। हर कोई लाखों से कम में बात ही नहीं करता। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि हमारा देश अब अमीरों की श्रेणी में आ गया है। हमारे देश का डंका अब विदेशों में भी बजने लगा है। बात चाहे मित्तल समूह की हो या फिर टाटा की। हर जगह भारतीयों की पहचान अलग से कायम हो रही है। इसी के साथ हम सबने महसूस किया है कि अब गरीबी वाली वह बात अपने देश में नहीं रही। कई बार उड़ीसा के कालाहांडी जिले से भूख से मौत की खबर निश्चित रूप से दहला देती है, पर वह खबर एक दिन की सुर्खी बनकर रह जाती है।
आज हम श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठ बन रहे हैं, यह अच्छी बात है, भला किसे खुशी नहीं होगी इस खबर से कि हमारे देश का डंका अब विश्व परिदृश्य में शान से बज रहा है। अब जो अपनी गरीबी पर रो रहा है, वह या तो परिश्रमी नहीं है या फिर भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला है, यही कहा जा सकता है। आज परिश्रम का पूरा फल लोगों को मिल रहा है। यह एक शुभ संकेत है, इस पर हमें गर्व करना ही होगा।
? डॉ. महेश परिमल

क्या भारत एक गरीब देश है?



; डॉ. महेश परिमल
एक समय वह था, जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। फिर एक समय ऐसा आया जब भारत एक गरीब देश के रूप में जाना जाने लगा और अब आज एक बार फिर समय का पहिया घूमा है। स्थिति यह है कि यहाँ के लगभग सभी छोटे-बड़े घरों में, झोंपड़ियों में टी.वी. है...फ्रिज है...सब्जीवाला, कबाड़ीवाला, पेपरवाला, बढ़ई, मिस्त्री सभी मोबाइल रखते हैं। लाखों की संख्या में कार और बाइक का उत्पादन और विक्रय हो रहा है। करोड़-दो करोड़ के फ्लेट और बंगलों का विक्रय हो रहा है। लाखों में मकान मिलना तो बहुत सहज और सामान्य बात हो गई है। रुपया तो मानों फिसला जा रहा है। वह कहीं भी थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। महँगाई की बातें तो खूब होती हैं, पर हाउसफुल सिनेमाघर, रेस्तराँ को देखकर नहीं लगता कि हम एक गरीब देश के नागरिक हैं।
ये है भारत का बदलता हुआ स्वरूप। आज यहाँ गरीबी पूरी तरह से नष्ट भले ही नहीं हुई है, पर इसमें कमी जरूर आई है। इसका कारण पंचवर्शीय योजना और वैश्वीकरण है। इसके विपरीत सरकारी तंत्र की कितनी ही भ्रष्टाचारी नीतियों के कारण महँगाई में भी बढ़ोतरी हुई है, परंतु ये महँगाई इतनी अधिक नहीं है, जो पहले की तरह मुँह से चीख निकालने को विवश कर दे। आज खरीददारी के लिए भीड़, धक्का-मुक्की, रेलमपेल बहुत अधिक बढ़ गई है। हर कहीं खरीददारों का हुजूम दिखाई देता है।
आज से 40-50 वर्ष पहले जहाँ 200-500 या अधिक से अधिक 1000 रुपए का वेतन ही आश्चर्य में डालता था, वहीं अब 1 लाख तो क्या 10 लाख रुपए. का वेतन भी आश्चर्य में नहीं डालता। इसी प्रकार 40-50 वर्ष पहले जहाँ 20-25 हजार रुपए में मकान खरीदा जा सकता था, वहीं अब इसी भाव में एक रूम या झोंपड़ी मिलना भी मुश्किल है। उस समय 10-15 लाख रुपए. का मकान बनाने वाले भी कम ही थे और आज जब लोग 1 करोड़ से 5 करोड़ का बंगला भी बना लेते है, तो लोगों को कोई आश्चर्य नहीं होता और सबसे अधिक हैरानी की बात तो ये है कि ये ही बंगले दोगुनी कीमत पर आसानी से बिक भी जाते हैं। 40 वर्ष पहले जहाँ सीमेन्ट की एक बोरी की कींमत 9-9 रुपए की थी, वही बोरी आज 119 रुपए की हो गई है, उसके बाद भी पहले की तुलना में आज इसके खरीददार बढ़ गए हैं।
के.एस.ए. टेक्नोपेक नामक कंपनी की एक उप कंपनी द नॉलेज कंपनी के द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार भारत में वार्षिक आय 45 लाख रुपए हों, ऐसे 10,60,000 घर हैं और नेशनल काउन्सील ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के सर्वे के अनुसार 1 करोड़ रुपए की वार्षिक आय वाले घर 6 वर्ष पूर्व 20,000 ही थे, जो 2005 में 53,000 हो गए हैं। ओ एन्ड एम नामक एक विज्ञापन कंपनी के अनुसार ये ऑंकड़े 61,000 से अधिक हैं और मेरिल लीच कंपनी 83,000 का ऑंकड़ा प्रस्तुत करती है। संक्शिप्त में यही कहा जा सकता है कि भारत में गरीबी घटी है।
भारत की इस स्थिति के कारण और भारत सरकार के द्वारा विदेशी उत्पादक कंपनियों को दी गई छूट के कारण ही आज कई विदेशी कंपनियाँ भारत के बाजार में अपना अधिकार करने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक रूप से आगे आ रही हैं। कितनी कंपनियाँ तो भारत की इस बदलती हुई स्थिति से हतप्रभ हैं, उन्हें यह बात स्वीकार ही नहीं है। अमेरिकन एक्सप्रेस ने भारत की बदलती हुई लाइफस्टाइल के बारे में एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया है, जिसमें बताया है कि भारत में अभी 'बेस्ट' पसंद करने के लिए बहुत अधिक विकल्प हैं। दुनियाभर की सभी बेस्ट ब्रान्ड कंपनियाँ अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए भारत के ग्राहकों को ललचा रही हैं।
उदाहरण के लिए लुईस वीईटोन और ह्यूगो बॉस नामक कंपनी ने तीन वर्ष पहले भारत में प्रवेश किया। उसके बाद तो चेनल, डीपोर, जेगरली कोलट्री, फेरागेमो, फेरी एन्ड एइजनेर जैसी अनेक कंपनियों ने अपनी वैभवशाली वस्तुओं के स्टोर महानगरों में खोले हैं। अब वेर सासी, गुसी, फेन्डी, वेलेन्टीनो, जीमी चू, आर्मनी जैसी कंपनियाँ भारत में आ रही है। महँगी से महँगी कार बनानेवाली कंपनियों की कारें तो कब से भारत की सड़कों पर दौड़ने लगी हैं। मर्सीडीस क्रूजर, बी.एम.डब्ल्यू, ओडी, पोरशी, रोल्स राइस इत्यादि 'स्टेटस सिम्बॉल' गिनी जाती हैं। ये सभी कारेें तो पिछले दस वर्षों से भारत में बड़ी संख्या में दौड़ने लगी हैं। पिछले वर्ष मर्सीडीस कार 2019 बिकी है और अभी हाल ही में लक्जरी मॉडल क्यू 7 एसयूवी बाजार में लाने वाली ओडी भी इस वर्ष अधिक बिकने की पूरी संभावना है।
एक तरफ ऐश्वर्यशाली जीवन तो दूसरी तरफ हमारे देश में बेकारी भी कम नहीं है। विकास की इस अंधी दौड़ में हर कंपनी भागी जा रही है। लोगों के पास काम करने के लिए समय ही नहीं है। हमारे देश में बढ़ रही झोपड़पट्टियों से यह कतई न समझ लिया जाए कि गरीब बढ़ रहे हैं। एक बार किसी झोपड़ी में ही झाँककर देखा जाए, तो उनका भी ऐश्वर्यशाली जीवन की झलक हमें दीख जाएगी। आप किसी राजगीर या प्लम्बर से बात करके तो देखें, पहले तो उसके पास आपसे बात करने का समय ही नहीं होगा, दूसरा यदि उसने बात कर भी ली, तो उसका यही कहना होगा कि आप मेरा मोबाइल नम्बर ले लीजिए, उसी से रात में बात कर लें। यह नम्बर भी वही आपको नहीं देगा, नम्बर देने का काम तो उसका सहायक करेगा। लोगों के पास महीनों-महीनों समय नहीं है। जब समय नहीं है, तो तय है कि उनकी आवक बहुत है। जब आवक है, तो जीवन ऐश्वर्यशाली होगा ही। आजकल लोगों की बातें ही एक बार सुन ली जाए, तो आश्चर्य होगा। हर कोई लाखों से कम में बात ही नहीं करता। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि हमारा देश अब अमीरों की श्रेणी में आ गया है। हमारे देश का डंका अब विदेशों में भी बजने लगा है। बात चाहे मित्तल समूह की हो या फिर टाटा की। हर जगह भारतीयों की पहचान अलग से कायम हो रही है। इसी के साथ हम सबने महसूस किया है कि अब गरीबी वाली वह बात अपने देश में नहीं रही। कई बार उड़ीसा के कालाहांडी जिले से भूख से मौत की खबर निश्चित रूप से दहला देती है, पर वह खबर एक दिन की सुर्खी बनकर रह जाती है।
आज हम श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठ बन रहे हैं, यह अच्छी बात है, भला किसे खुशी नहीं होगी इस खबर से कि हमारे देश का डंका अब विश्व परिदृश्य में शान से बज रहा है। अब जो अपनी गरीबी पर रो रहा है, वह या तो परिश्रमी नहीं है या फिर भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला है, यही कहा जा सकता है। आज परिश्रम का पूरा फल लोगों को मिल रहा है। यह एक शुभ संकेत है, इस पर हमें गर्व करना ही होगा।
? डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 23 जनवरी 2008

दफ्तर से भी प्यार करना सीख्रें



डा. महेश परिमल
उस दिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरा सहकर्मी अपने मित्र से कह रहा था कि यार तुम मेरे दफ्तर ही आ जाना, वहीं सारी बातें कर लेंगे. फिर बाद में मुझे समय नहीं मिलेगा. मुझे लगा कि क्या दफ्तर इतनी बेकार जगह है, जहाँ किसी को लंबी बातचीत के लिए बुलाया जाए? क्या मेरे सहकर्मी को दफ्तर में कोई काम नहीं है?
कल्पना करें एक पुजारी को रोज की जाने वाली पूजा से बोरियत होती हो और उसकी मंदिर जाने की इच्छा ही न हो, तब क्या होगा? देखा जाए तो रोजमर्रा की पूजा और मंदिर जाना सचमुच कई बार बोरियत को जन्म देता है, पर इसे ही दूसरे नजरिए से देखा जाए, तो यह बात हमें नागवार गुजरेगी. आप ही बताएँ जिस स्थान पर हम अपने जीवन का एक तिहाई हिस्सा गुजारते हैं, जहाँ से हमें अपने परिश्रम का फल मिलता है, हमारी आर्थिक जरूरतें पूरी होती हैं, हमें अपना जीवन सँवारने का अवसर मिलता है. भला उस स्थान से कैसी नफरत?
लेकिन आज हो यही रहा है. लोग अपने दफ्तर को एक उबाऊ स्थान मानते हैं. वे वहाँ से चम्पत होने के फिराक में लगे रहते हैं. एक तरफ तो वे उसी दफ्तर को अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का साधन मानते हैं, दूसरी तरफ वे उसी स्थान को छोड़कर दूसरी जगहों पर अपना समय गुजारने में अधिक विश्वास करते हैं. आखिर यह दोहरी मानसिकता भला केसी?
यह सच है कि दफ्तर जाते ही वही चेहरे, वही फाइलें, वही टेबल-कुर्सी आदि सब जो ऑंखों में बस जाते हैं, वही बार-बार ऑंखों के सामने आती हैं, तो हमें वह सब एकरसता याने मोनोटोनस लगता है. जीवन में जिस प्रकार रोज एक ही तरह का भोजन हमें रुचता नहीं, ठीक उसी तरह एक ही तरह का वातावरण हमें नहीं रुचता. जीवन परिर्व(ानशील है. हर चीज आज बदलाव के दौर से गुंजर रही है. ऐसे में यदि दफ्तर के काम में बदलाव आज जाए, तो संभव है उसमें भी हमें रुचि आने लगे.
आज अधिकांश कार्यालयों में कंप्यूटर से काम होने लगे हैं. इसमें कई तरह की ज्ञान की बातों का समावेश है. यदि उसमें इंटरनेट है, तो समझो वह ज्ञान का खजाना है. आपको बस उसमें से काम की बातें निकालनी है. यदि यही काम हम दूसरों के लिए भी कर दें, तो संभव है हमारा वह साथी भी हमसे खुश रहे और कार्यालय में हमारा महत्व बढ़ जाए. यह हमेशा याद रखें कि दफ्तर एक उपासना स्थल है, यहाँ उपासना जितनी कठिन होगी, संतुष्टि उतनी अधिक प्राप्त होगी. इसमें अपनापन ढूँढ़ेंगे, तो अपनापन पाएँगे. यदि इसे बेगाना मानेंगे, तो वही दफ्तर हमें बोझ लगने लगेगा.
आजकल लोग अपने आराध्य स्थल को लोग बोझ मानने लगे हैं. वेसे भी आज हर इंसान के पास यदि अपना आस्मां है, तो अपना तनाव भी है. बच्चे भी अब तनावग्रस्त होने लगे हैं. हमसे ही प्राप्त कर रहे वे तनावभरी ंजिंदगी. विरासत में मिलने लगा है उन्हें तनाव. खुशी तो अब दुर्लभ वस्तु बनकर रह गई है. हर कदम पर समस्याओं का चौराहा हमारे सामने होता है. तब यदि बोझ बने दफ्तर का विचार लेकर घर आएँ, तब क्या हालत होगी घर और बच्चों की? कभी सोचा आपने और हमने?
पुजारी को पूजा से कभी बोरियत नहीं होती. वह उसमें रमने का बहाना ढूँढ़ ही लेता है. क्यों न हम भी अपने कार्यालय को मंदिर मानें और काम ही पूजा है, इस सूत्र वाक्य के साथ जुट जाएँ अपने काम में. कुछ समय तक आपको यह सब करना अटपटा लग सकता है, लेकिन कुछ ही दिनों बाद आप उसमें परिर्व?ान पाएँगे, आपको लगेगा कि ये क्या हो रहा है? आप खुश रहकर सबको खुश रखने का प्रयास करें, यही व्यवहार जब आपसे भी होने लगेगा, तब तो समझो आपने अपने आप पर ही फतह कर ली. बहुत बड़ी बात नहीं है यह, एक बार करके तो देखें, आपकी दुनिया ही बदल जाएगी. आपको बस अपने आराध्य स्थल को बेहतर बनाने के लिए केवल एक कदम बढ़ाने की आवश्यकता है, कुछ समय बाद आप स्वयं को दस कदम आगे पाएँगे.
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

पिता नहीं बन पाएँगे मोबाइलधारी!



डॉ. महेश परिमल
मोबोइल आज की जरुरत है। इसके बिना आज विकास की बात की ही नहीं जा सकती। आज हर तरफ हमें मोबाइलधारी दिखाई देंगे। कई बार तो यह आवश्यकता न होकर फैशन के रूप में दिखाई दे रहा है। युवा वर्ग में तो यह यंत्र अत्यंत ही प्रचलित है। आधुनिकता की दौड़ में युवाओं ने इस खतरनाक यंत्र को अपने से इस तरह से चिपका रखा है, मानो वह उससे अलग होना ही नहीं चाहता। मोबाइल पर कई शोध किए जा रहे हैं, इसमें से हाल ही में जो चौंकाने वाला शोध सामने आया है, उसके अनुसार मोबाइलधारियों को पिता बनने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। अभी यह शोध सामने नहीं आया है कि मोबाइल से आज की युवतियों को किस प्रकार का खतरा है, पर सच तो यह है कि जब यह युवकों को पिता न बनने देने के लिए जिम्मेदार हो सकता है, तो संभव है युवतियों को यह यंत्र मातृत्व सुख से वंचित रख सकता है।
जी हाँ आधुनिक जमाने का यह यंत्र हमारे समाज के लिए कितना खतरनाक है, यह तो समय ही बताएगा, पर यह सच है कि मोबाइल से निकलने वाली किरणें पुरुषों के शुक्राणुओं की संख्या में काफी कमी कर देती है। वैज्ञानिकों के इस शोध के पीछे यह बात है कि लोग अपने मोबाइल को अपने जेब या फिर कमर के आसपास रखते हैं, यही वह स्थान हैं, जो शुक्राणुओं के जन्म स्थान के काफी निकट हैं। क्या आपको मालूम है कि मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन का सबसे घातक असर कमर के नीचे के भागों में होता है।
इक्कीसवी सदी की युवा पीढ़ी की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह मोबाइल को अपना दोस्त मानकर उसे सदैव अपने पास ही रखना चाहती है। इस मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन से युवा पीढ़ी नपुंसक बन रही है। यह एक ऑंख खोलने वाल शोध है, जिससे लाखों युवा चपेट में आ गए हैं। यह चेतावनी केवल उन्हीं युवा या पुरुषों के लिए है, जो अपना मोबाइल कमर के नीचे वाले भाग में रखते हैं और दिन भर में चार घंटे से अधिक उसका फटाफट उपयोग करते हैं।इस स्थिति में होने वाला इलेक्ट्रो मैगनेटिक रेडिएशन्स उनमें नपुंसकता का प्रमाण बढ़ा सकता है।
हाल ही में हुए कितने ही अध्ययनों के आधार पर दिल्ली के चिकित्सक मोबाइल के अधिक से अधिक उपयोग से बचने की सलाह देते हैं। दूसरी ओर मोबाइल बनाने वाली कंपनियाँ स्वाभाविक रूप से इस तरह के शोध के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट करती हैं। उनका मानना है कि मोबाइल से इस तरह का किसी प्रकार का नुकसान शरीर को नहीं होता।
ठोस जानकारी के अनुसार इस समूचे विवाद की शुरूआत अमेरिकन सोसायटी फॉर रि प्रोडेक्टिव मेडिसिन की वार्षिक बैठक के बाद जारी हुए कई निष्कर्षो के बाद हुई। वास्तव में सोसायटी ने एक सर्वेक्षण कराया था जिसके अनुसार एक पुरूष यदि दिन भर में चार घंटे से अधिक मोबाइल फोन का बेतहाशा उपयोग करता है, तो उसे पिता बनने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इस सर्वेक्षण में उन पुरूषों को लिया गया, जो मोबाइल फोन का इस्तेमाल बेतहाशा करते हैं और जो बिल्कुल नहीं करते हैं। दोनों ही वर्ग के पुरूषों के शुक्राणुओं की संख्या में काफी भिन्नताएँ पाई गई।
यह सर्वेक्षण अमेरिका के क्लीपलैंड और न्यू ऑर्लियन्स के कितने ही वैज्ञानिकों एवं मुम्बई के कितने ही विशेषज्ञों ने मिल कर किया है। इसके अंतर्गत 350 से अधिक पुरूषों को उनके शुक्राणुओं की संख्या के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया गया और उनकी बारीकी से जाँच की गई। इस जाँच से यह बात सामने आई कि जो पुरूष दिन में चार घंटे से अधिक समय तक मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं, उनमें शुक्राणुओं की संख्या मोबाइल का बिल्कुल उपयोग न करने वाले पुरूषों में स्थित शुक्राणुओं की तुलना में 25 प्रतिशत कम थीं। इसके साथ ही मोबाइलधारी पुरूषों के शुक्राणुओं की गुणवत्ता में भी काफी अंतर देखा गया।
इस संबंध में नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डॉ. संदीप गुलेरिया बताते हैं कि समूचे विश्व में मोबाइलधारकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इस संबंध में बहुत से शोध एवं सर्वेक्षण सामने आए हैं। अभी तक हुए अध्ययनों के अनुसार केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जो हृदय रोगी पेसमेकर का इस्तेमाल करते हैं, वे अपना मोबाइल यदि कमीज की जेब में रखते हैं, तो मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन उनके हृदय को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है। इसीप्रकार कार चलाते समय मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले लोगों को भी सावधान रहने की जरुरत है।
दूसरी ओर नोएडा स्थित मेट्रो हॉस्पिटल के रेडियोलॉजिस्ट डॉ. दीपक हंस का मानना है कि मोबाइल से निकलने वाली विकिरण से पुरूषों के शुक्राणुओं की संख्या में कमी के अनेक विरोधाभासी तथ्य सामने आए हैं, जिससे स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि शुक्राणुओं की संख्या में कमी के पीछे मोबाइल विकिरण ही है। वे आगे कहते हैं कि भारत में वैसे तो मोबाइल सेल का व्यापक उपयोग अधिक पुराना नहीं है, अत: मोबाइलधारकों को अधिक परेशान होने की जरुरत नहीं है। अध्ययन दर्शाते हैं कि 15 वर्ष से अधिक समय तक मोबाइल का उपयोग करने वाले लोगों के लिए ही खतरा अधिक है।
डॉ. हंस लोगों को सावधान करते हुए कहते हैं कि मोबाइलधारी अपने यंत्र को कमर के नीचले हिस्से की ओर कदापि न रखें, क्योंकि शरीर का यह भाग शुक्राणुओं के उत्पादन क्षेत्र के काफी करीब होता है। जिससे विकिरण का प्रभाव वहाँ पर सबसे अधिक नुकसानदायक हो सकता है। स्वाभाविक रूप से अधिकांश मोबाइल उत्पादक कंपनियाँ इस तरह के सर्वेक्षण एवं शोधों को बेबुनियाद बताती हैं। वे यह मानने को तैयार ही नहीं है कि मोबाइल के अधिक इस्तेमाल से कोई खतरा भी हो सकता है।
कुछ भी हो, किसी भी चीज की अति सदैव पीड़ादायक ही होती है। इस दृष्टि से मोबाइल का युवाओं द्वारा अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना भावी पीढ़ी के लिए निश्चित रूप से नुकासानदायक हो सकता है।
रोज डेढ़ लाख नए मोबाइलधारी
देश में रोज डेढ़ लाख नए मोबाइलधारी ग्राहक बन रहे हैं। इस तरह से हर सप्ताह दस लाख मोबाइलधारी तैयार हो रहे हैं। इस क्षेत्र में रोज नई कंपनियाँ नए और आकर्षक योजनाओं के साथ सामने आ रही हैं। देश में अभी 11 करोड़ लोग मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं। इस संबंध में बीएसएनएल का लक्ष्य तो आगामी तीन वर्षो में 35 करोड़ लोगों के हाथो में मोबाइल रखने का है। इसी से समझा जा सकता है कि मोबाइल विकिरण इस देश पर किस तरह हावी हो जाएगा। यह सभी जानते हैं कि मोबाइल रेडिएशन से किसी बिमारी का इलाज नहीं होता, बल्कि यह बिमारियों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 19 जनवरी 2008

एक अकेले में भी है दम


डॉ. महेश परिमल
इस धरती पर साँस लेने वाले हर आदमी ने फुरसत के क्षणों में एक बार तो यह अवश्य सोचा होगा कि आखिर इस धरती पर उसका क्या महत्व है? क्या उसके होने न होने से इस संसार में कोई अंतर आएगा? आखिर इस धरती पर वह क्यों आया? किसलिए आया? किसके लिए आया? ये सभी क्या, क्यों, कैसे, किसलिए के प्रश्जाल में एक बार तो व्यक्ति अवश्य उलझा होगा। हो सकता है कभी ये प्रश् उसके मन में निराशा लाते हों और उसमें जीवन के प्रति हताशा के भाव भरते हों, किंतु ये भी हो सकता है कि ये ही प्रश् उसके मन में कभी आशा का संचार भी करते हों। यदि सचमुच आशा का स्रोत फूटता है, तो यह दार्शनिकता व्यक्ति के जीवित होने का संकेत है, उसके जीवन जीने का संकेत है और यदि इसके विपरित केवल निराशा ही घेरे रहती है, तो यह मात्र उसके जिंदा रहने का ही संकेत है, जो कि पूर्ण रूप से गलत है। इसलिए अपने आप से वादा करें कि आप अपने आपको कभी अकेला महसूस कर अपने महत्व को भूलाएँगे नहीं। यह सच है कि एक अकेले व्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से संसार में कोई महत्व नहीं होता, किंतु वह अप्रत्यक्ष रूप से संसार का एक हिस्सा है। संसार के लिए भले ही उसका महत्व न हो, किंतु जिन लोगों से वह जुड़ा हुआ है, उनके लिए तो उसका विशेष महत्व है।
एकांत में अपने भीतर सकारात्मक विचारों को पैदा करना ही एक बड़ी उपलब्धि है। याद रखें जो व्यक्ति ये समझता है कि मैं खूब महत्व का हूँ, वही व्यक्ति दूसरों के लिए महत्व का बन सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने आपके लिए कितने महत्व के हैं? प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि उसके भीतर ऐसा कुछ है, जिसके दम पर वह इस दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है। यदि आप स्वयं ही अपने महत्व को नहीं समझेंगे, तो कोई दूसरा आपके महत्व को कैसे जानेगा और क्यों कर जानेगा?
इस दुनिया को महान व्यक्तियों की जरूरत होती है, लीडरों की जरूरत होती है। उसके पीछे चलने वालों की कमी नहीं है। इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना काम अकेले ही शुरू किया था, तब उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उन्हें महान व्यक्ति का दर्जा मिल जाएगा। बस उन्हें अपने आप पर विश्वास था कि वे कुछ ऐसा कर पाएँगे, जिसकी इस दुनिया को जरूरत है और उनका यह विश्वास जीत गया। इस जीते हुए विश्वास ने ही उन्हें महानता दिलवाई। इतिहास गवाह है कि विश्व के जितने भी महान पुरूष हुए हैं, वे सभी शुरूआत में बहुत ही साधारण थे। ये सभी अपने कार्यो से एवं महेनत से महान बने हैं।
कोई रातोंरात कुछ नहीं मिल जाता। भाग्य के पौधे को अपनी मेहनत के पसीने से सींचा जाता है, तभी उस पर सफलता का फूल खिलता है। आप अपने आपको बदल दें, फिर पूरी दुनिया अपने आप ही बदल जाएगी। प्राय: लोगों की मानसिकता यह होती है कि वे सोचते हैं कि कोई नई शुरूआत करे, तो हम उससे जुड़ जाए, किंतु वे ऐसा नहीं सोचते कि वे स्वयं शुरूआत करें और लोग उनसे जुड जाए। ऐसा विचार करने वाले बहुत कम लोग होते हैं। यह मनुष्य को खुद को तय करना होता है कि उसे क्या करना है, लोगों से जुड़ना है या लोगों को अपने साथ जोड़ना है। किसी का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ना है या खुद ऐसी राहों पर आगे बढ़ना है, जहाँ लोग उसका अनुसरण करे। ऐसा फैसला जब व्यक्ति कर लेता है, तभी उसके महान और साधारण होने की शुरूआत हो जाती है।
अभी दो महीने पहले बंगलादेश के मोहम्मद युनुस को कोई पहचानता नहीं था। उन्हें जब नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो सारी दुनिया को लगा कि आखिर ये कोन है? दुनिया के गरीब और अविकसित राष्ट्र बंगलादेश में मोहम्मद युनुस ने जब गरीब लोगों के लिए काम करना शुरू किया, तब उसे स्वयं को भी यह मालूम न था कि उसे उसके इस काम का प्रतिफल नोबल पुरस्कार के रूप में मिलेगा। इस साधारण व्यक्ति युनुस को तो उसके राज्य के लोग भी नहीं जानते थे, फिर भला पूरे देश की बात ही क्या? मोहम्मद युनुस ने सारी दुनिया के सामने एक उदाहरण दिया है कि मनुष्य चाहे तो सब कुछ कर सकता है।
व्यक्ति के आत्म विश्वास और दृढ़ निश्चय को इस कहानी के माध्यम से अच्छी तरह समझें- एक व्यक्ति समुद्र किनारे खड़ा लहरों का आना-जाना देख रहा था। लहरों के साथ कितनी ही गोल्डन फिश किनारे आ जाती थीं। उस व्यक्ति को लगा कि यदि ये मछलियाँ जाती हुई लहरों के साथ फिर से पानी में न जा सकीं, तो यही किनारे पर तड़प कर मर जाएँगी। यह विचार आते ही उसने किनारे से गोल्डन मछलियों को इकट्ठा किया और उन्हें समुद्र में गहरे पानी में फेंकना शुरू किया। उस व्यक्ति को एक दूसरा आदमी दूर से देख रहा था। उसे ऐसे व्यवहार से आश्चर्य हुआ। वह मछली पकड़ने वाले आदमी के पास आया और उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? पहला व्यक्ति बोला कि मैं मछलियों को बचा रहा हूँ। आदमी ने दूसरा प्रश् किया- समुद्र का किनारा तो काफी फैला हुआ है। मछलियाँ तो सभी किनारों पर खींचती चली आती होगी, फिर भला तुम कितनी मछलियों को बचा पाओगे? पहला व्यक्ति बोला- मुझे मालूम है कि मैं सभी मछलियों को नहीं बचा पाऊँगा, किंतु क्या इस कारण मैं जिन्हें बचा सकता हूँ, उन्हें भी मरने के लिए छोड़ दूँ? मेरे लिए महत्व का सवाल यह नहीं है कि कितनी मछलियाँ मर जाएगी, मेरे लिए तो महत्व का सवाल यह है कि मैं कितनी मछलियों को बचा पाऊँगा।
मनुष्य के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह अपनी क्षमताओं को पहचान नहीं पाता। जो महान हो चुके हैं, वे पहले साधारण मनुष्य ही थे, उनके कार्यों ने उन्हें महान बनाया। जो महान बनते हैं,उनके कार्य कुछ हटकर होते हैं। इसे इस तरह से कहा जा सकता है कि महान लोग कोई अलग कार्य नहीं करते, बल्कि वे हर कार्य को कुछ अलग ढंग से करते हैं। दुनिया वालों का काम है कहना। इसके सिवाय उन्हें कुछ नहीं आता। लाोगें ने तो पुरुषोत्तम राम को नहीं छोड़ा, तो फिर साधारण मनुष्य की क्या बिसात? कई लोग यह कहते पाए जाते हैं कि वह तो सब कुछ अपने भाग्य में लिखवाकर लाया है। पर बात ऐसी नहीं होती, मनुष्य अपना भाग्य स्वयं लिखता है। अच्छे कार्योँ की प्रशंसा करने वाले कम ही होते हैं, पर आलोचना करने वाले उससे कई गुना अधिक होते हैं। अच्छे कार्य करने से पहले ही लोगों की आलोचना शुरू हो जाती है, याद रखो कि पत्थर उसी पेड़ पर मारा जाता है, जिस पर फल लगे होते हैं। कई काम केवल इसलिए शुरू ही नहीं हो पाते, क्योंकि उसके साथ लोगों की आलोचना जुड़ी होती है।पर जो दृढ़ निश्चयी होते हैं, वे लोगों की परवाह नहीं करते, इसलिए अपने काम को अंजाम दे पाते हैं। जब काम सफल हो जाता है, तब यही आलोचना करने वाले सबसे बड़े प्रशंसक बन जाते हैं। यहाँ बात केवल दृढ़ निश्चयी होने की नहीं है, बल्कि अपने ध्येय के प्रति ईमानदार रहकर जो अपना काम करते हैं, वे ही आगे बढ़ पाते हैं।
याद रखो, जिस पेड़ पर लोग पत्थर मारते हैं, वे केवल कुछ फल ही प्राप्त कर पाते हैं, पूरा पेड़ उनका कभी नहीं हो सकता। पर जो दृढ़ निश्चयी औरर् कत्तव्यपरायण होते हैं, वे पूरे पेड़ के हकदार होते हैं, पर यह अधिकार उन्हें तभी मिलेगा, जब वे पेड़ की तरह सोचें। पेड़ कभी भी अपने लिए नहीं सोचता, वह महत्वपूर्ण है, जब तक वह अपने को महत्व देता रहेगा, तब तक वह अपने परिवार, समाज, राज्य, देश और विश्व के लिए महत्वपूर्ण होगा। एक दियासलाई से कई दीप जलाए जा सकते हैं। आप ऐसा ही एक दीप बनें, जिससे अज्ञानता का अंधकार दूर हो, परिश्रम की उजास सामने आए। इस संबंध में कविवर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है 'जदि तोमार डाक सुने केऊ न आसबे, तो एकला चलो' याने यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई तुम्हारे पास न आए,तो अकेले ही चलने का संकल्प लो, अकेले ही चलते चलो। सही है भीड़ उन्हीं के पीछे होती है, जिनका सफर अकेले ही शुरू हुआ था।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

विदा लेती हरियाली


डा. महेश परिमल
लहर-लहर लहराता सावन, रिमझिम फुहारों से रिझाता सावन, बच्चों की अठखेलियों में भीग जाता सावन, गोरी की पलकों में दो घड़ी ठहर कर ओठों में बसता अल्हड़ सावन, पपीहे की पीऊ-पीऊ से पिया को पुकारता सावन, माँ-बाबा की बूढ़ी ऑंखों में तैरता सावन, भाई की सूनी कलाई पर बहना का प्यार बांधता रेशमी सावन, भाभी की चूड़ियों और ननद की हँसी में खनखनाता सावन, यानि की ंजिंदगी के सभी रिश्तों के बंधन में बँधता सावन, कहाँ चला गया इतने रूपों में ढला ये भीगा-भीगा सावन?
सावन ने दस्तक दी थी हमारे द्वार पर और हम दौड़ पड़े थे, उसके स्वागत में. पहले सावन में माटी की गंध ने नाक को छुआ था, वह तो अभी तक साँसों में समाई है. वही सावन अब जाने की तैयारी में है. जाते-जाते भी इस बार सावन ने ही नहीं, बल्कि भादो ने भी खूब भिगोया. इस बार बारिश ने पूरी धरती पर हरियाली बिछा दी है. अब यह चला जाएगा, न जाने कहाँ, पर हमें इतना तो कहता ही जा रहा है कि क्या हम इस हरीतिमा को सहेजकर रख पाएँगे? आज हम कहीं से भी गुंजरें, तो हमें इसका अहसास ही नहीं होगा कि जो पेड़ अब तक तन कर खड़े थे, वे अब और झुकने लगे हैं. शायद हम इसे प्रकृति का चमत्कार मान लें. लेकिन सच तो यह है कि मिट्टी का कटाव लगातार बढ़ने के कारण पेड़ों की जड़ें अपनी पकड़ ढीली कर रही हैं, फलस्वरूप पेड़ झुकने लगे हैं. झुककर पेड़ हमें शायद यही कह रहे हैं कि हे मानव अब तो चेत जाओ. पर हमें इसकी कहाँ चिंता है. हमें तो रोज ही फालतू खर्च करने के लिए पानी मिल रहा है, वही काफी है. जहाँ हमने अपना बसेरा तैयार किया है, वहाँ तो खूब हरियाली है. बिल्डर को दो लाख रुपए अतिरिक्त इसीलिए तो दिए हैं. ताकि हरियाली बनी रहे. हमें तो कोई चिंता नहीं, जिन्हें चिंता करनी है वे करें.
केवल शहरों में ही नहीं, बल्कि गाँवों में भी लगातार आरा मशीनें चल रहीं हैं, क्या इससे ही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि पेड़ कितनी तेंजी से कट रहे हैं. सरकारी ऑंकड़े कितना भी मुलम्मा चढ़ा लें, पर सच यही है कि आज पेड़ लगातार कट रहे हैं और हरियाली हमसे दूर होते जा रही है. हम इसे रोक तो नहीं सकते, पर अपने ऑंगन में एक पौधा लगाकर इसके कदमों को धीमा अवश्य कर सकते हैं. बारिश ने हमें कितना भिगोया, पर क्या हम उस पानी को सहेजकर रख पाए? न जाने कितना पानी व्यर्थ ही चला गया. इतना पानी तो अब तक अपनी ऑंखों से भी नहीं गुजरा होगा. सभी जानते हैं कि जब धरती बरसती है, तब बादल बरसते हैं. धरती का बरसना याने संचित पानी जितने अधिक वाष्पीकृत होंगे, उतना ही बादल अपने ऑंचल में उस पानी को सहेजेंगे. पर हमने धरती को इसका मौका ही नहीं दिया. क्योंकि पानी संचित होता हेै पेड़ों से और पेड़ों के मामले में हम लगातार शून्य होते जा रहे हैं.
आज हरियाली हमसे दूर नहीं हो रही है, बल्कि हमारी ंजिदगी हमसे दूर हो रही है. अब तो पेड़ों की पूजा होती थी, यह कहना मुहावरा हो सकता है. आज की पीढ़ी तो यह मानेगी ही नहीं. क्योंकि उसने तो पेड़ों को बेदर्दी से कटते ही देखा है. पेड़ के ऑंसू भी नहीं देखे होंगे आज की पीढ़ी ने. क्योंकि पेड़ तब रोते हैं, जब उनका कोई साथी उनसे अलग हो जाता है. अब साथी तो क्या पूरी जमात ही उनसे अलग हो रही है. इसके पीछे यही मानव की अदम्य लालसा है, जो पेड़ों को काट रही है. एक पेड़ पर हजारों का जीवन होता है, लेकिन वहाँ केवल कुछ लोग ही बसते हैं, लेकिन लाखों का जीवन बरबाद हो जाता है. रही बात पेड़ों की छाँव की. तो पेड़ अब इस काबिल ही नहीं रहे कि अपनी ठंडी छाँव दे पाए. जब छाँव देने वाले माता-पिता ही वृध्दाश्रमों की शरण में जा रहे हों, तब तो समझ लो, सब कुछ ही सिमट गया, उन झुर्रियों में. हाशियों पर जाती झुर्रियों की तरह यदि पेड़ भी हाशिए पर चले जाए, तो हरियाली केवल श?दकोश की शोभा बनकर रह जाएगी. तब कहाँ रह जाएगी हरी-हरी वसुंधरा और कचनार के पेड? तब होगा दूर-दूर तक फैला रेतीला मैदान. सूरज की तीखी गरमी के साथ झुलसता इंसान और झुलसती संवेदनाएँ. एक-एक बूंद पानी को तरसते प्राणी. ऐसे में हमें अभी ही समझना होगा कि पेड़ हैं, तो पानी है. पेड़ नहीं तो कुछ भी नहीं.
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा. मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरे का पानी ही उतर गया है. कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते. हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते. अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा. पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है. संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं. हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता. हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है. पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

खतरनाक है प्लास्टिक की पारदर्शिता


डॉ. महेश परिमल
आज क्या हम प्लास्टिक की बोतलों के बिना अपने जीवन की कल्पना कर सकते हैं। आज जहाँ जाओ, वहाँ प्लास्टिक की बोतलें आपका स्वागत करती मिलेंगी। हम भी इसकी पारदर्शिता पर धोखा खा जाते हैं और इसमें रखा पानी पीकर गर्व का अनुभव करते हैं। पर क्या कभी किसी ने सोचा कि ये बोलते किस तरह से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं? शायद यह सोचने का हमारे पास वक्त ही नहीं है। आज बच्चे तो क्या बडे बुजुर्ग भी प्लास्टिक की इन बोतलों का पानी पी रहे हैं और अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने का अवसर दे रहे हैं। आइए जानें कि ये बोतलें किस तरह से हमारे स्वास्थ्य को पी रहीं हैं :-
स्कूल जाने के पहले माँ बच्चे के हाथ में टिफिन के साथ प्लास्टिक की बोतल में शुध्द पानी भरकर देना नहीं भूलती, नौकरी पर जाने के पहले लोग उसी प्लास्टिक की बोतल में छाछ या घर का ही शुध्द पानी ले जाना नहीं भूलते। ये सभी प्लास्टिक की बोतलों का इस्तेमाल इसीलिए करते हैं कि ये लाने-ले जाने में अत्यंत ही सुविधाजनक हैं। इसी सुविधा को देखते हुए आज शहरों ही नहीं, बल्कि सुदूर गाँवों में भी लोग इसी प्लास्टिक की बोतलों का इस्तेमाल खुलेआम कर रहे हैं। अब तो यात्रा के दौरान सुराही या वॉटर बॉटल ले जाना सपने की बात हो गई है। प्लास्टिक की इन बोतलों ने घर ही नहीं, बल्कि अस्पताल और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा कर लिया है। इस तरह से देखा जाए तो अब हम सबका जीवन प्लास्टिक की इन बोतलों के बिना अधूरा-सा हो गया है।
पर रुको! प्लास्टिक की इन बोतलों की महिमा गाने के पहले यह जान लें कि ये प्लास्टिक की बोतलें आज हमें किस तरह से नुकसान पहुँचा रही है। हाल ही में शीतल पेय पदार्थों में जंतुनाशक होने की खबर आते ही लोगों ने किस तरह से इन ठंडे-ठंडे और कूल-कूल पेय पदार्थों को अलविदा कह दिया है। इस पर यदि यह कहा जाए कि प्लास्टिक की ये बोतलें उन पेय पदार्थों से भी अधिक खतरनाक हैं, तो कई लोग इसे पागलपन ही कहेंगे, पर सच यही है कि आज भले ही हम इन प्लास्टिक की बोतलों से पानी या अन्य पेय पी रहे हैं, पर अनजाने में ये बोतलें हमारे स्वास्थ्य को पी रही हैं। 'रायल सोसायटी ऑफ केमिस्ट्री' के हाल ही में प्रकाशित जर्नल में बताया गया है कि जर्मनी के हेडलबर्ग यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिकों ने इस संबंध में अध्ययन किया है। उनके अनुसार केनेडा और यूरोप की विभिन्न 63 ब्राण्ड की पानी की बोतलों में से एंटीमनी मैटल मिला था। वास्तव में एंटीमनी का उपयोग सिरेमिक, रंग तथा इनेमल्स में करने में होता है। यह शरीर के लिए खतरनाक है।
ऐसे तो हम सब विभिन्न तरह की प्लास्टिक की बोतलें अपने जीवन में काम में लाते ही रहते हैं, पर इनमें से कई बोतलें हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रही हैं। विशेषकर वे बोतलें जो दोबारा इस्तेमाल में लाई जा रही हैं, क्योंकि जब बोतल को बनाने में प्रयुक्त पॅलीथिलीन ट्रिप्थेलेट टूटता है, तब डाइथीलेक्सीलेडीपेट अलग होकर पानी के साथ रासायनिक क्रिया करता है और तैयार केमिकल कैंसर का कारण बनता है। अब समय आ गया है कि इन प्लास्टिक की बोतलों के खिलाफ खुलेआम प्रदर्शन होने चाहिए। इसके दुष्परिणाम हमें शायद अभी देखने को न मिलें, पर सच तो यह है कि ये भी शीतल पेय पदार्थों की तरह हमारे शरीर को खोखला कर रही है। जिस तरह से बूँद-बूँद से घट भरता है, उसी तरह से रोज एक बूँद ही सही, पर हमारे शरीर में विषैला पदार्थ जा रहा है, तो निकट भविष्य में वह हमारे स्वास्थ्य को कितना नुकसान पहुँचाएगा, यह अभी तो कहा नहीं जा सकता, पर उसकी कल्पना ही की जा सकती है। कितनी ही बोतलों में बिस्फेनोला होता है, जो हार्मोन को संतुलित करता है, ऐसा अंकोलॉजिस्ट कहते हैं। अमेरिका में हुए एक अध्ययन में कहा गया है कि प्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि होने से महिलाओं में स्तन कैंसर का प्रमाण बढ़ गया है। पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर और महिलाओं में स्तन कैंसर होने के पीछे यही प्लास्टिक की बोतलें ही जवाबदार हैं।
प्लास्टिक में हाइड्रोकार्बन होता है, यही हाइड्रोकार्बन कैंसर के लिए जवाबदार है। प्लास्टिक के जो अणु वजन में हलके होते हैं, वे पानी में मिलकर उसमें घुल जाते हैं, और शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं। प्लास्टिक की इन बोतलों को रि-साइकिलिंग करने की प्रक्रिया बहुत ही खर्चीली होने के कारण लोग प्लास्टिक की बोतलों को यूँ ही पड़ा रहने देते हैं, जिससे यह पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचा रही हैं। क्योकि ये नालियों को चोक कर रही हैं, जिससे पानी रुक कर सड़न पैदा करता है। जहाँ खतरनाक जीवाणु अपना घर बना लेते हैं, और मनुष्य जाति पर हमला बोल देते हैं। अधिक समय तक पानी यदि इन प्लास्टिक की बोतलों में जमा रहता है, तो उस पानी में एसिटेल्डीहाइड मिल जाता है, जिसके कारण ऑंख, त्वचा और श्वसन मार्ग में अवरोध उत्पन्न होता है।
अब सरकार और उपभोक्ताओं का ध्यान प्लास्टिक की इन बोतलों पर गया है, लोग सचेत होने लगे हैं, धीरे-धीरे इसके खिलाफ माहौल बनने लगा है। पर इसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतर जाएँ, इसके लिए अभी समय है। आज हम सभी को सूचना का अधिकार प्राप्त है, कोई एक जनहित याचिका के माध्यम से इन बोतलों के निर्माण में होने वाले रासायनिक पदार्थों की जानकारी ले सकता है, इस पर भी यदि गलत जानकारी दी जाती है, तो स्थिति शीतल पेय पदार्थों जैसी हो सकती है। देर से ही सही, पर इसके दुष्परिणाम सामने आएँगे ही, पर लोग यदि इसके दुष्परिणाम की प्रतीक्षा न करें और इसके खिलाफ अभी से सचेत हो जाएँ, तो निश्चित ही यह मानव जीवन के कल्याण के लिए उठाया गया एक अनोखा कदम होगा।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 16 जनवरी 2008

अतृप्त कल्पनाएँ ही दु:ख का कारण


डॉ. महेश परिमल
प्रसिध्द छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने कहा है कि किसी वस्तु की कल्पना में जो सुख है, वह उस वस्तु की प्राप्ति में नहीं। यही बात दु:ख के संबंध में भी लागू होती है। आज मानव सुख की कल्पना तो कर ही नहीं पाता, हाँ दु:ख की कल्पना कर अपने वर्तमान को दु:खी अवश्य करता है। वह या तो अतीत में जीता है, या भविष्य में। वर्तमान में जीना वह भूलता जा रहा है। यही कारण है कि वह दु:ख आने से पहले ही दु:ख का अनुभव करने लगता है।
दु:ख की खोज में यदि आप निकलेंगे तो आपको तीन प्रकार के दु:ख मिलेंगे- स्वजनित दु:ख, परजनित दु:ख और कर्मजनित दु:ख। व्यक्ति दु:ख का अनुभव करता है, किंतु उसके निवारण का उपाय कदाचित ही कर पाता है, क्योंकि दु:ख उसके ऊपर इतना अधिक हावी हो जाता है कि वह उससे बचाव का उपाय ही नहीं सोच पाता है। हमारे कितने ही दु:ख भयजनित होते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि हकीकत में उसके सामने वह दु:ख नहीं होता, किंतु उस दु:ख से जुड़ी भविष्य की कल्पना ही उसे अधिक दु:खी कर देती है।
ऊँचे पद पर आसीन व्यक्ति को कोई चुनौती नहीं होती, किंतु उसके बाद भी पद छीन जाने का विचार ही उसे दिन-रात बेचैन किए रहता है। वह इस काल्पनिक दु:ख में ही दु:खी रहता है कि यदि उससे यह सम्मानजनक पद छीन लिया गया, तो क्या होगा? विचारों की यह तरंगे ही उसे दु:ख के सागर में डूबो देती है। वृध्द व्यक्ति को हमेशा अपनी मृत्यु का भय सताता है। कब, किस समय, किन परिस्थितियों में और कैसे मृत्यु उसे अपने पाशमें लेगी यही भय उसे दिन-रात लगा रहता है। अपनी असली मृत्यु आने के पूर्व वह कई बार मौत को पा लेता है। शरीर मृत्यु से कोसों दूर रहता है, किंतु मन उसे मृत्यु के नजदीक ले जाता है। केवल कोरी कल्पनाओं के द्वारा ही वह सांध्यबेला में कई-कई बार मृत्यु के मुख में जाता है। उसमें भी अपने किसी प्रिय की मृत्यु का समाचार या नजरों के सामने उसकी मौत उसे अपनी मौत के करीब ले जाती है।
देखा जाए तो मौत एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई समझकर भी समझना नहीं चाहता। जो पैदा होगा, वह मौत को प्राप्त होगा, यह एक शाश्वत सत्य है, लेकिन इंसान अपनी मौत को पीछे धकेलने के लिए क्या-क्या करता नहीं दिखता। यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ आदि सब मौत को झुठलाने के उपाय ही हैं। जिन्हें मौत का भय नहीं, वे तो कई मुसीबतों का सामना ऐसे ही कर लेते हैं। जिन्हें अपने साहसिक कार्यों से सफलता मिली है, उन सभी ने कहीं न कहीं मौत को अपने करीब पाया है और वे उससे नहीं डरे, इसलिए सफलता उन्हें प्राप्त हो गई। जिनके भीतर मौत का भय होता है, वे कोई भी काम साहस के साथ नहीं कर पाते। हमारे बीच ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना जीवन तो जिया ही नहीं, वे लगातार मौत के साये में रहकर जीवन को दु:खमय बनाते रहे हैं।
व्यक्ति के दु:ख का कारण सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति है। इस समय इंसान एक शुतुरमुर्ग की तरह होता है, जिसकी प्रवृत्ति होती है कि मुसीबत के समय वह अपना सर रेत में छिपा लेता है, इसके पीछे यही सोच होती है कि कोई उसे नहीं देख रहा है। वास्तविकता इसके विपरीत होती है। यही है सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति। इस प्रवृत्ति के इंसान अपने आसपास एक वायवीय संसार का सृजन कर लेते हैं। सब कुछ उनकी कल्पना में ही होता रहता है। इसे सही साबित करने के लिए उसके पास इसी तरह की कपोल-कल्पित मान्यताएँ भी होती हैं, वह उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। उसका एक अपना रचना संसार होता है, जिसमें वह जीना चाहता है। पर यह स्थिति उसे सच से इतना दूर ले जाती है कि सच उसे एक मजाक लगता है, वह उसका सामना ही नहीं कर पाता।
एक और दु:ख का कारण है, अतीत का बोझ अपने पर लादे रहना। हमारे समाज में कई ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपने अतीत में ही जीते हैं। वे वर्तमान की बातों को भी अपने अतीत से तौलते नजर आते हैं। उन्हें अपना अतीत इतना प्यारा लगता है कि वे उससे अलग होना ही नहीं चाहते। वर्तमान की उपेक्षा ही उनके दु:ख का कारण होती है, क्योंकि अतीत में वे अकेले ही जीते हैं। वर्तमान में रहने वाले लोग उनके अतीत के सहभागी नहीं होते, इसलिए वे वर्तमान की उपेक्षा करने लगते हैं। अतीत को अपने सर पर लादे हुए लोग कभी भी सुखी नहीं हो सकते। इसके लिए उन्हें अतीत के भूत को अपने सर से उतारना होगा, तभी स्थिति सँभल सकती है।
आज का इंसान इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से पूरम्पूर है। जीवन एक ऐसा अस्पताल बन गया है, जहाँ मरीज को हमेशा दूसरे का बिस्तर ही अच्छा लगता है। वह यही देखता है कि सामने वाले के पास क्या-क्या है और उसके पास क्या-क्या नहीं है। उसके पास क्या नहीं है, यह चिंता उसे हमेशा सताती रहती है। जो उसके पास है, उसका उसे सुख नहीं है, बल्कि जो उसके पास नहीं है, उसका ही उसे सबसे अधिक दु:ख है। आज यही दु:ख का मूल कारण्ा है। इसके अलावा एक बात और है, वह यह कि आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग? लोगों को आज अपने आप पर इतना भी विश्वास नहीं रहा कि वे अपनी बात को दृढ़ता से रख सकें, उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि उनकी इस हरकत से लोग क्या कहेंगे। कई बार अमीर बेटा अपने गरीब बाप को सबके सामने केवल इसीलिए गले नहीं लगा सकता, क्योंकि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। इस चक्कर में वह अपने पिता का सच्चा प्यार भी नहीं पा सकता और न ही सुपुत्र होने का सुबूत ही दे सकता है।
इंसान केवल इतना जान ले कि हमारी अतृप्त कल्पनाएँ ही दु:ख का कारण है। दु:ख कहीं बाहर से नहीं आता, वह हमारी कल्पना से ही उपजता है। दु:ख को यदि किसी से डर लगता है, तो वह है हँसी। जहाँ हँसी का साम्राज्य है, वहाँ दु:ख फटक भी नहीं पाता। हँसी के सामने दु:ख कभी टिक नहीं पाया। जो दु:ख में भी हँस लेता है, वह सीधे ईश्वर से जुड़ जाता है, ईश्वर भी उनकी इस महानता के सामने नत हो जाते हैं। जो है, उसी में संतुष्ट हो जाएँ, यही वह मूल मंत्र है, जिसके आगे बड़ी से बड़ी शक्तियाँ पराजित हो जाती हैं। जो अपने पास है, उसकी खुशियाँ मनाएँ, यही एक सत्य है, जिसे हमें समझना है। बस.....
? डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

पतंग से सीखो अनुशासन

डा. महेश परिमल
आकाश में तैरती रंग-बिरंगी पतंगें भला किसे अच्छी नहीं लगती? एक डोर से बँधी हवा में हिचकोले खाती हुई पतंग कई अर्थों में हमें अनुशासन सिखाती हैं, जरा उसकी हरकतों पर ध्यान तो दीजिए, फिर समझ जाएँगे कि मात्र एक डोर से वह किस तरह से हमें अनुशासन सिखाती है.
अनुशासन कई लोगों को एक बंधन लग सकता है. निश्चित ही एकबारगी यह सभी को बंधन ही लगता है, पर सच यह है कि यह अपने आप में एक मुक्त व्यवस्था है, जो जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अतिआवश्यक है. आप याद करें, बरसों बाद जब माँ पुत्र से मिलती है, तब उसे वह कसकर अपनी बाहों में भींच लेती है. क्या थोड़े ही पलों का वह बंधन सचमुच बंधन है? क्या आप बार-बार इस बंधन में नहीं बँधना चाहेंगे? यहाँ यह कहा जा सकता है कि बंधन में भी सुख है. यही है अनुशासन.
अनुशासन को यदि दूसरे ढंग से समझना हो, तो हमारे सामने पतंग का उदाहरण है. पतंग काफी ऊपर होती है, उसे डोर ही होती है, जो संभालती है. बच्चा यदि पिता से कहे कि यह पतंग तो डोर से बंधी हुई है, तब यह कैसे मुक्त आकाश में विचर सकती है? तब यदि पिता उस डोर को ही काट दें, तो बच्चा कुछ देर बाद पतंग को जमीन पर पाता है. बच्चा जिस डोर को पतंग के लिए बंधन समझ रहा था, वह बंधन ही था, जो पतंग को ऊपर उड़ा रहा था. वही बंधन ही है अनुशासन. अनुशासन ही होते हैं, जिससे मानव आधार प्राप्त करता है.
कभी पतंग को आपने आकाश में मुक्त रूप से उड़ान भरते देखा है! क्या कभी सोचा है कि इससे जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है. गुजरात और राजस्थान में मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग उड़ाने की परंपरा है. इस दिन लोग पूरे दिन अपनी छत पर रहकर पतंग उड़ाते हैं. क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या महिलाएँ, क्या युवतियाँ सभी जोश में होते हैं, फिर युवाओं की बात ही क्या? पतंग का यह त्योहार अपनी संस्कृति की विशेषता ही नहीं, परंतु आदर्श व्यक्तित्व का संदेश भी देता है. आइए जानें पतंग से जीवन जीने की कला किस तरह सीखी जा सकती है-
पतंग का आशय है अपार संतुलन, नियमबध्द नियंत्रण, सफल होने का आक्रामक जोश और परिस्थितियों के अनुकूल होने का अद्भुत समन्वय. वास्तव में देखा जाए तो तीव्र स्पर्धा के इस युग में पतंग जैसा व्यक्तित्व उपयोगी बन सकता है. पतंग का ही दूसरा नाम है, मुक्त आकाश में विचरने की मानव की सुसुप्त इच्छाओं का प्रतीक. परंतु पतंग आक्रामक एवं जोशीले व्यक्तित्व की भी प्रतीक है. पतंग का कन्ना संतुलन की कला सिखाते हैं. कन्ना बाँधने में थोड़ी-सी भी लापरवाही होने पर पतंग यहाँ-वहाँ डोलती है. याने सही संतुलन नहीं रह पाता. इसी तरह हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन न होने पर जीवन गोते खाने लगता है. हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन होना आवश्यक है. आज के इस तेजी से बदलते आधुनिक परिवेश में प्रगति करनी हो, तो काम के प्रति समर्पण भावना आवश्यक है. इसके साथ ही परिवार के प्रति अपनी जवाबदारी भी निभाना भी अनिवार्य है. इन परिस्थितियों में नौकरी-व्यवसाय और पारिवारिक जीवन के बीच संतुलन रखना अतिआवश्यक हो जाता है, इसमें हुई थोड़ी-सी लापरवाही ंजिंदगी की पतंग को असंतुलित कर देती है.
पतंग से सीखने लायक दूसरा गुण है नियंत्रण. खुले आकाश में उड़ने वाली पतंग को देखकर लगता है कि वह अपने-आप ही उड़ रही है. लेकिन उसका नियंत्रण डोर के माध्यम से उड़ाने वाले के हाथ में होता है. डोर का नियंत्रण ही पतंग को भटकने से रोकता है. हमारे व्यक्तित्व के लिए भी एक ऐसी ही लगाम की आवश्यकता है. निश्चित लक्ष्य से दूर ले जाने वाले अनेक प्रलोभनरूपी व्यवधान हमारे सामने आते हैं. इस समय स्वेच्छिक नियंत्रण और अनुशासन ही हमारी पतंग को निरंकुश बनने से रोक सकता है. पतंग की उड़ान भी तभी सफल होती है, जब प्रतिस्पर्धा में दूसरी पतंग के साथ उसके पेंच लड़ाए जाते हैं. पतंग के पेंच में हार-जीत की जो भावना देखने में आती है, वह शायद ही कहीं और देखने को मिले. पतंग किसी की भी कटे, खुशी दोनों को ही होती है. जिसकी पतंग कटती है, वह भी अपना ंगम भुलकर दूसरी पतंग का कन्ना बाँधने में लग जाता है. यही व्यावहारिकता जीवन में भी होनी चाहिए. अपना ंगम भुलकर दूसरों की खुशियों में शामिल होना और एक नए संकल्प के साथ जीवन की राहों पर चल निकलना ही इंसानियत है.
पतंग का आकार भी उसे एक अलग ही महत्व देता है. हवा को तिरछा काटने वाली पतंग हवा के रुख के अनुसार अपने आपको संभालती है. आकाश में अपनी उड़ान को कायम रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाली पतंग हवा की गति के साथ मुड़ने में ंजरा भी देर नहीं करती. हवा की दिशा बदलते ही वह भी अपनी दिशा तुरंत बदल देती है. इसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों के अनुसार ढलना आना चाहिए. जो अपने आप को हालात के अनुसार नहीं ढाल पाते, वे 'आऊट डेटेड' बन जाते हैं और हमेशा गतिशील रहने वाले 'एवरग्रीन' होते हैं. यह सीख हमें पतंग से ही मिलती है.
पतंग उड़ाने में सिध्दहस्त व्यक्ति यदि जीवन को भी उसी अंदाज में ले, तो वह भी जीवन की राहों में सदैव अग्रसर होता जाएगा. बस थोड़ा-सा सँभलने की बात है, जीवन की डोर यदि थोड़ी कमजोर हुई, तो जीवन ही जोखिम में पड़ जाता है. इसीलिए पतंग उड़ाने वाले हमेशा खराब माँजे को अलग कर देते हैं, जिसका उपयोग कन्ना बाँधने में किया जाता है. उस धागे से पेंच नहीं लड़ाया जा सकता. ठीक उसी तरह जीवन में भी उसी पर विश्वास किया जा सकता है, जो सबल हो, जिस पर जीवन के अनुभवों का माँजा लगा हो, वही व्यक्ति हमारे काम आ सकता है. धागों में कहीं भी अवरोध या गठान का होना भी पतंगबाजों को शोभा नहीं देता. क्योंकि यदि पेंच लड़ाते समय यदि प्रतिद्वंद्वी का धागा उस गठान के पास आकर अटक गया, तो समझो कट गई पतंग. क्योंकि पतंग का धागा वहीं रगड़ खाएगा और डोर का काट देगा. जीवन भी यही कहता है. जीवन में मोहरूपी अवरोध आते ही रहते हैं, परंतु सही इंसान इस मोह के पडाव पर नहीं ठहरता, वह सदैव मंजिल की ओर ही बढ़ता रहता है. 'चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी' यही मूलवाक्य होना चाहिए. 25 या 50 पैसे से शुरू होकर पतंग हजारों रुपयों में भी मिलती है. इसी तरह जीवन के अनुभव भी हमें कहीं भी किसी भी रूप में मिल सकते हैं. छोटे से बच्चे भी प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं, तो झुर्रीदार चेहरा भी हमें अनुभवों के मोती बाँटता मिलेगा. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह से अनुभवों की मोतियों को समेटते हैं.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 14 जनवरी 2008

परमात्मा के निकट ले जाता है सौंदर्य

डॉ. महेश परिमल
आज हर कोई सौंदर्य की तलाश में है। इस बाहरी सौंदर्य की चाहत रखने वाले आज लगातार भटक रहे हैं, उन्हें वह नहीं मिल पा रहा है, जो वह हृदय से चाहते हैं। सौंदर्य एक ऐसी अनुभूति है, जो भीतर से प्रस्फुटित होती है। इसके लिए आवश्यकता है दृष्टि की। यहाँ दृष्टि का आशय नजर न होकर भीतर की दृष्टि से है। सौंदर्य तो हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा है, हम ही हैं कि उसे देख नहीं पाते। हमारे ही आसपास बिखरे सौंदर्य को न देख पाने की कसक को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में उतारने की कोशिश की है.
कविवर कहते हैं कि सौंदर्य की खोज में मैं न जाने कहाँ-कहाँ भटका, कई पर्वत श्रृंखलाएँ देखी, कई नदी, पहाड़ देखे, पर कहीं भी सौंदर्य की अनुभूति नहीं हुई। मैं अभागा था जो अपने ही ऑंगन में ऊगी धान की उन बालियों को नहीं देख पाया। बाद में उन्होंने उन बालियों का वर्णन इतने प्यारे और सटीक तरीके से किया है कि लगता है सचमुच सौंदर्य तो उनके ऑंगन में ही था, वे ही थे, जो उसकी तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे। किसी ने सच ही कहा है कि किसी को देखने के लिए ऑंखों की नहीं, बल्कि दृष्टि की आवश्यकता है। यही दृष्टि है, जो भीतर होती है। इसका संबंध ऑंखों से नहीं, बल्कि आत्मा से होता है। यही आत्मा है, जो कभी किसी झोपड़ी में जितना सुकून देती है, उतना सुकून तो महलों में भी नहीं मिलता।
सत्यम् शिवम् सुंदरम् अथवा सत् चित्त आनंद, ये सभी परमात्मा के ही स्वरूप हैं। आप जैसे-जैसे सत्य के करीब जाएँगे, सत्य को समझने और जीने की इच्छा को बलवती करेंगे, सत्य की सेवा में एक साधन के रूप में समर्पित हो जाएँगे, वैसे-वैसे परमात्मा आपके माध्यम से प्रकट होने लगेंगे। शुभेच्छा से लबालब भरी चेतना में स्वयं परमात्मा ही प्रकट होने लगते हैं। परमात्मा शिव की तरह है। सर्वमंगल की कामना हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। परमात्मा के माध्यम से कभी किसी का अमंगल नहीं होता। सभी के कल्याण की सतत बहती धारा का ही दूसरा नाम है परमात्मा।
इसे समझने के लिए आओ चलें, प्रकृति की गोद में। कभी कश्मीर जाकर वहाँ के पहाड़ी सौंदर्य को अपनी ऑंखों में बसाया है? श्रीनगर के बागीचों में खिले रंग-बिरंगे फूलों के सौंदर्य को निहारा है? कभी धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर की वादियों को मन की ऑंखों से देखने की कोशिश की है? बर्फ से ढँकी पहाड़ियाँ भला किसका मन नहीं मोह लेती होंगी? वहाँ के स्त्री-पुरुष को कभी तालबध्द होकर चलते देखा है आपने? इन्हें मन की ऑंखों से निहारोगे, तो परमात्मा हमें अपने करीब महसूस होंगे। निश्चित ही यह प्रश्न सामने आएगा कि एक साधारण इंसान सौंदर्य की तलाश में भला इतनी दूर आखिर क्यों जाएगा? वह तो अपने आसपास ही प्रकृति के अनोखे सौंदर्य को निहारने की कोशिश करेगा। आखिर हमें कहाँ मिलेगा हिमालय जैसा सौंदर्य? तो चलो, हम अपने ही आसपास बिखरे सौंदर्य को निहारें।
कभी सुबह जल्दी उठकर ऊगते सूरज को देखो, वह हर बार अपने नए रंग में दिखाई देगा। उसकी किरणें हमें न केवल स्फूर्ति देती है, बल्कि उन किरणों की छटा देखने लायक होती है। इंद्रधनुषी रंगों में बिखरी ये किरणें नव जीवन का संदेश देती हैं। दिन भर की यात्रा के बाद शाम को यही सूरज चटख लाल रंग की किरणों के साथ अपना डेरा समेटता है, तो उसका सौंदर्य ऑंखों को बहुत ही भला लगता है। सूरज के इन दोनों रूपों का सौंदर्य तो अनूठा है ही, कभी दोपहर के सूरज का तापसी रूप भी देखने की कोशिश की जाए। ठंड की यही धूप गुनगुनी लगती है, तो गर्मी में झुलसा देने वाली होती है। बारिश में तो हम सब तरस जाते हैं सूरज के दर्शन के लिए। सूरज का हर रूप अप्रतिम होता है, इसे निहारो और बसा लो अपने हृदय में।
अब कभी आसमान के बादलों का ही रूप देखने की कोशिश करो। पवन किस तरह से बादलों की पालकी को लेकर चलते हैं? कितने रूप हैं बादलों के, कोई कह सकता है? कभी सघन, कभी काले, कभी रुई के फाहों की तरह मुलायम, कभी हल्के नारंगी रंग के, तो कभी हमारी कल्पना के रूप में ढलते बादल, हमें हमेशा कुछ न कुछ संदेश देते दिखाई देते हैं। इनके आकार-प्रकार की तो बात ही न पूछो। पल-पल में ये अपना आकार ऐसे बदलते हैं मानो, प्रकृति के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। क्या इसे आपने कभी नहीं देखा, तो अपने ही ऑंगन में फुदकती चिड़ियाओं को ही देख लो, किस तरह से वह दाना चुगते समय दूसरे साथियों के साथ लुका-छिपी का खेल खेलती हैं। अपने बच्चों को दाना देते समय कितनी मासूम लगती हैं ये चिड़ियाएँ। यह भी एक सौंदर्य है, जिसे हम सदैव नकारते आए हैं या फिर कह लें, कभी देखने की कोशिश ही नहीं की।
कभी मंद-मंद हवा के बीच किसी पेड़ की दो पत्तियों का आपस मेें मिलना कितना सुखद लगता है, यह कभी देखा आपने। अरे जब तेज हवा चलती है कि कुछ पेड़ किस तरह से झुककर धरती को प्रणाम करते हैं, इसे ही देखने की कोशिश कर लो। ध्वजा के तरह खड़े हुए देवदार या फिर अशोक के पेड़ को ही देख लो। चिलचिलाती धूप में भी किस तरह से अशोक का पेड़ हरा-भरा रहता है, इसका हरियाला संदेश जानने की कोशिश ही कर लो। क्या पलाश के फूलों को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि प्रकृति ने उसे बड़ी ही तन्मयता से बनाया है। क्या इसका रंग हमें मोहित नहीं करता? पहली बारिश के बाद उठने वाली माटी की महक से भला कौन मतवाला नहीं बनता होगा? बारिश की पहली फुहार किस तरह से तन-मन को भिगोकर भीतर की तपिश को कम कर देती है, यह जानने का प्रयास किया आपने?
यह तो हुआ प्रकृति का सौंदर्य, अब आप देखना ही चाहते हैं तो किसी शरारती बच्चे की शैतानी में ही खोज लो सौंदर्य। किस तरह से वह अपनी तमाम हरकतों को एक के बाद एक अंजाम देता है? पकड़े जाने पर उसके चेहरे की मासूमियत को निहारो, आप पाएँगे कि सचमुच यशोदा ने कृष्ण के चेहरे पर इसी तरह की मासूमियत देखी होगी। बच्चों की शरारतों और माँ के दुलार में भी होता है एक वात्सल्यपूर्ण सौंदर्य। भाई-बहन के नोक-झोंक में, देवर-भाभी की तकरार में, सखियों के वार्तालाप में, दोस्तों के जमावड़े में, प्रेमी युगल के सानिध्य में, पति-पत्नी के अपनेपन में भी होता है सौंदर्य। कभी किसी बुजुर्ग के पोपले मुँह और झुर्रीदार चेहरे को ही निहार लो, उनकी हँसी में होता है सौंदर्य। अनेक योजनाएँ होती हैं उनकी खल्वाट में। कभी उन्हें कुरेदने की कोशिश तो करो, फिर देखो अनुभव का सौंदर्य।
सौंदर्य के कई रंग हैं, कई रूप हैं, हर कहीं बिखरा पड़ा है सौंदर्य। बस आवश्यकता है उसे देखने की, उसे अपने भीतर महसूस करने की। केवल एक शब्द मात्र नहीं है सौंदर्य। वह एक अनुभूति है, जो हर प्राणी में होती है। कोई इसे अनुभव करता है, तो कोई इसे हँसी में ही टाल देता है। सौंदर्य की पराकाष्ठा उसे समझने में है। नदी का कल-कल किसी के लिए शोर हो सकता है, तो किसी के लिए जीवन का संगीत। सर-सर बहती हुई हवा जब हमारे शरीर को छुकर निकलती है, तब हम जिस कंपन को महसूस करते हैं, वास्तव में वही है हवा की मीठी चुभन। सौंदर्य हमारे सामने कब किस रूप में होता है, इसे जानने और समझने के लिए हमें अपनी दृष्टि को स्वच्छ बनाना होगा। ऑंखों में प्यार, दुलार और अपनापन लेकर यदि हम सौंदर्य को खोजने निकलें, तो हमारे ही आसपास मिल जाएगा। इसी सौंदर्य को जब भी हम अपने भीतर बसा लेंगे, तब ही समझो हमने परमात्मा को पा लिया। सत्य शिव और सुंदर का साक्षात्कार कर लिया।
? डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

मानवजाति की जान का दुश्मन है चूहा



; डॉ. महेश परिमल
चूहा हमारे समाज का कट्टर दुश्मन है। शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो, जो चूहों से आक्रांत न हो। आज हर गली-मोहल्लों में चूहों का आतंक है। कुछ वर्षों पूर्व मुम्बई में नगर निगम ने चूहे पकड़ने वालों को इनाम देने की घोषणा की थी। लोग रात में चूहे पकड़ते और दिन में उसे नगर निगम के कार्यालय में जमा करते, इसे लोगों ने अपनी कमाई का साधन बना लिया था। बाद में यह योजना बंद कर दी गई। पर चूहों का आतंक अभी तक कम नहीं हुआ है। किसी-किसी घर में चूहे का होना ही परेशानी का कारण माना जाता है। चूहों की उपज हमारे द्वारा ही फैलाई गई गंदगी से होती है। इसी कारण आज यह छोटा-सा चूहा हमारी जान का दुश्मन बना हुआ है।
अक्सर यह सुना जाता है कि वैज्ञानिकों ने अपने शोध को प्रमाणित करने के लिए पहला प्रयोग चूहों पर किया। यह सच है कि चूहे वैज्ञानिकों के लिए भले ही सहायक हों, पर संपूर्ण मानव जाति के लिए चूहे बहुत ही खतरनाक हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चूहे से 70 तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं। चूहे जितना अनाज खाते नहीं हैं, उससे अधिक बरबाद करते हैं। हर वर्ष लाखों टन अनाज चूहों द्वारा ही बरबाद किया जाता है। खेतों में फसल को भी नुकसान पहुँचाकर किसानों को भारी परेशानी में डाल देते हैं, क्योंकि उन्हें चूहों के कारण अपनी उपज का सही दाम नहीं मिल पाता।
चूहे और मानव का सहअस्तित्व सदियों से चला आ रहा है। विध्नहर्ता गणेशजी ने चूहे को अपना वाहन बनाया है। बाँसुरीवाला और चूहा, सात पूँछवाला चूहा, चूहा और साँप, चूहों ने बाँधी बिल्ली के गले में घंटी आदि कई कहानियाँ हमने बचपन में अपनी दादी-नानी से सुनी थी, जिसमें चूहा ही नायक था। पर ये बातें केवल कहानियों में ही अच्छी लगती हैं। देखा जाए तो चूहा मानवजाति के लिए एक अभिशाप है। मानव ने अपने आसपास जो गंदगी फेला रखी है, उसी के कारण इन चूहों को बढ़ने का अवसर मिल रहा है। रेल्वे प्लेटफार्म के पास का ट्रेक इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ चूहों की संख्या हमेशा बढ़ती ही रहती है, क्योंकि यात्रियों द्वारा फेंकी गई खाद्य सामग्री ही इनका मुख्य आहार है।
चूहों की बढ़ती संख्या और उनसे मानव जाति को होने वाला नुकसान पूरे विश्व के लिए चिंता की बात हो गई है। ऑस्ट्रेलिया में 2003 में आयोजित दूसरे मूषक सम्मेलन में विशेषज्ञों ने घोषणा की थी कि चूहे 70 प्रकार के विविध रोगों को फेला सकते हैं। वहाँ बताया गया कि चूहों के काटने से रेट बाइट फीवर होता है। इसी तरह यदि चूहे को मच्छर, मक्खी, खटमल आदि धोखे से भी काट लें, तो मानव को प्लेग और टाइफ्स जैसी बीमारी होती है। टाइफ्स में शरीर पर लाल चकत्ते, दुर्बलता और संक्रामक ज्वर जैसे लक्षण देखने में आते हैं। चूहे मानव के भोजन को जूठा कर और उसमें अपने मल-मूत्र के द्वारा उसे विषाक्त बना देते हैं। इस सामग्री को यदि मानव अपने इस्तेमाल में लाता है, तो लेप्टोस्पायरोसिस और साल्मोनेलोसिस नामक रोग होता है। यह तो थोड़े से जाने-पहचाने उदाहरण हैं, इसके अलावा चूहों से अन्य सैकड़ों रोग फैलते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि रेट बाइट के कारण व्यक्ति चूहे जैसी हरकतें करने लगता है।
आजकल लेप्टोस्पायरोसिस नामक रोग की चर्चा है। यह रोग पालतू प्राणियों गाय, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदि के द्वारा फेलता है। इनके मल-मूत्र मिश्रित पानी यदि हमारे शरीर के कटे हुए किसी भाग में जरा सा भी लग जाए, तो संक्रमण के माध्यम से यह रोग हमारे शरीर में प्रवेश कर जाता है। इस रोग के लक्षणों में तेज बुखार आना, रक्तचाप कम होना, सिर, पेट और स्नायुओं में तेज दर्द, उलटी, ऑंख लाल होना आदि का समावेश है। सन् 2000 हजार में अकेले थाईलैण्ड में ही इस रोग के लगभग 6000 सरकारी ऑंकड़े सामने आए थे, इनमें से 350 लोगों की मौत हो गई थी।
कहा जाता है कि पृथ्वी पर जितनी आबादी मानव की है, उससे कहीं अधिक चूहों की है। हर वर्ष करीब दो करोड़ चूहों का नाश किया जाता है। इसके बाद भी चूहों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। चूहों और मानव की यह लड़ाई पिछले 700 वर्षों से जारी है। किसानाें के सबसे बड़े और जानी दुश्मन ये चूहे ही हैं। किसानों की लहलहाती मेहनत को ये चूहे इस कदर नष्ट कर देते हैं, इसका अंदाजा शायद किसी को न हो। ये चूहे एक साल में इतने अधिक अनाज का नुकसान करते हैं कि उससे विश्व की आधी आबादी का पेट भर सकता है। इससे अरबों रुपयों का नुकसान प्रतिवर्ष होता है। इसके बाद भी चूहों की आबादी घटाने में मानव विफल रहा है।
अमेरिका के पर्यावरणविद् डॉ. जैक्सन ने इन्हीं चूहों से परेशान होकर कहा था कि देखना एक दिन पृथ्वी पर मनुष्य के बदले चूहों का साम्राज्य होगा। उनकी यह बात उस समय भले ही मजाक लगी हो, लेकिन यह सच है कि आज चूहे इंसान के लिए घातक सिध्द हो रहे हैं। दूसरे विश्व युध्द के बाद अमेरिका ने एनोवी क्षेत्र में प्रायोगिक तौर पर परमाणु परीक्षण किया था, उस समय सारे जीव-जंतु और वनस्पति का नाश हो गया था, लेकिन भूगर्भ में छिपे तमाम चूहे पूरी शिद्दत के साथ जीवित थे।
आइए अब आपको ले चलते हैं चूहों के अनोखे संसार में। आपको यह जानकर होगा कि एक चूहा एक रात में 200 से 300 फीट लंबी सुरंग खोद सकता है। चेन्नई में चूहों ने एक अदालत भवन और आंध्र प्रदेश में एक मंदिर शार्ट सर्किट के कारण पूरी तरह से भस्मीभूत कर दिया था। विश्व में चूहों की लगभग 550 जातियाँ हैं। नार्वे में सबसे बडे 400 ग़्राम के चूहे देखने को मिलते हैं। इनकी पूँछ 12 सेंटीमीटर लंबी होती है। भारत में काले और भूरे रंग के चूहे विशेष रूप से देखने में आते हैं। कृषि विभाग के अनुसार हमारे देश में चूहों की संख्या लगभग एक हजार करोड़ से अधिक है।
चूहों पर पिछले पंद्रह वर्षो से अनुसंधान करने वाले डॉ. जैक्सन का कहना है कि अमेरिका में खरगोश जितने बड़े चूहों का अस्तित्व पिछले पाँच करोड़ वर्षों से है, उनके अनुसार चूहों में कई प्रकार की विशेषताएँ पाई जाती हैं-
Ø एक चूहा अपने शरीर के चौथे हिस्से के बराबर वाली जगह से आसानी से निकल सकता है।
Ø बीस फीट की ऊँचाई वाली दीवार पर यह आसानी से चढ़ सकता है।
Ø यह अन्न के बिना सात दिन और पानी के बिना दो दिन तक आराम से जीवित रह सकता है।
Ø मानव की अपेक्षा चूहे की पाचन श्क्ति 15 गुना अधिक है।
Ø एक चूहा एक दिन में 5 वर्ष के बालक की खुराक जितना अन्न खा लेता है।
Ø चूहे का जोड़ा अपने जीवन काल में 15 हजार बच्चों को जन्म देने की क्षमता रखता है।
Ø स्थिर पानी में चूहा आधे किलोमीटर तक तैर सकता है और उसे पानी में डूबोया जाए तो वह तीन मिनट तक जीवित रह सकता है।
Ø भूख से तड़पने वाला चूहा बहुत ही आक्रामक होता है।
Ø भूकम्प के झटकों से गिरने वाले मकानों के मलबे से भी यह आसानी से बाहर निकल सकता है।
Ø एक चुहिया 21 दिन की गर्भावस्था के दौरान ही सात से दस बच्चों को जन्म देती है।
Ø अपने जन्म के मात्र तीन महीनों बाद ही वह पूर्ण रूप् से वयस्क हो जाता है।
Ø वर्ष में छह से दस बार चुहिया बच्चों को जन्म देती है।
Ø एक चूहे की औसत आयु तीन वर्ष होती है।
Ø मांसाहारी जंगली चूहों की अपेक्षा अधिकतर चूहे शाकाहारी होते हैं।
Ø उबले अनाज चूहों को प्रिय होते हैं, इसके अभाव में वे कच्चे अनाज, फल-सब्जियाँ खाते हैं। ये भी न मिलने पर कागज, कपड़ा और प्लास्टिक चबाते हैं।
Ø चूहे के दाँतो की निरंतर वृद्धि होती रहती है, इसलिए उनहें कुछ न कुछ कुतरने की आदत होती है। अगर ये कुछ न कुतरें, तो इनके दाँत आपस में जुड़ जाएँगे और इससे इनकी मौत हो सकती है।
Ø सबसे आश्चर्य की बात यह है कि चूहों में रंग को परखने की क्षमता नहीं होती, इनकी ऑंख की अपेक्षा नाक अधिक तीव्र होती है, इसी की सहायता से वे अंधेरे में भी आसानी से भागदौड़ कर लेते हैं।
Ø अत्यंत पतले तार पर आसानी से चलने वाले ये चूहे यदि सात फीट की ऊँचाई से गिरें, तो इनका बाल भी बाँका नहीं होता।
इस तरह से देखा जाए, तो चूहे मानव जाति को किसी भी तरह का लाभ नहीं देते, ये भले ही साँप का भोजन हो, पर हमारे देश में इतने साँप और बिल्लियाँ भी नहीं हैं कि वे मिलकर चूहों का नाश कर पाएँ। इसके लिए तो लाखों पाइड पाइपर की आवश्यकता होगी, जो अपनी सुरीली धुनों से चूहों को आकर्षित करें और उन्हें ले जाएँ एक दूसरी ही दुनिया में। तो आओ चलें उन पाइड पाइपर की तलाश करने.....
? डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

मासूम सपनों से खिलवाड़



डॉ. महेश परिमल
आज का दौर रिकॉर्ड का है। एक रिकॉर्ड तैयार करो फिर उसे तोड़ने के लिए दूसरा रिकॉर्ड बनाओ। बस यूं ही एक के बाद एक रिकॉर्ड बनाते जाओ और सुर्खियों में छा जाओ। इसमें अब बड़े ही नहीं बच्चे भी शामिल हो गए हैं या यूं कहें कि शामिल कर लिए गए हैं। आज रिकॉर्ड बनाने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते। देखें इन रिकॉर्डो की एक झलक इन सुर्खियों में-
-नन्हें बुधिया द्वारा लगातार 64 किलोमीटर तक दौड़ने का रिकॉर्ड।
-एक बच्ची द्वारा चालीस घंटे तक रोटियाँ सेंकने का रिकॉर्ड।
-सात साल की बच्ची द्वारा भोपाल के बड़े ताल का एक बड़ा हिस्सा बिना रूके तैरकर पार करने का रिकॉर्ड।
-इंदौर की एक बच्ची ने बनाया लगातार गाने का रिकॉर्ड।
-इसी रिकॉर्ड को तोड़ने के लिए खंडवा की एक बच्ची द्वारा लगातार गाने का रिकॉर्ड
-लगातार कई घंटो तक हनुमान चालीसा लिखने का रिकॉर्ड।
हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार 57 प्रतिशत लोगोेंं का मानना है कि बच्चों में रिकॉर्ड बनाने की भावना के पीछे माता-पिता दोषी हैं। समझ में नहीं आता कि इस तरह के रिकॉर्ड बनाकर ये मासूम समाज में किस तरह का बदलाव लाने की सोच रहे हैं। ये मासूम आज अपने पालकों की अपेक्षाओं के बोझ से इतने अधिक लद गए हैं कि कई बार उन्हें अपना आत्मसम्मान ही नहीं, बल्कि अपनी जान भी देनी पड़ रही है। कलकत्ता का ही उदाहरण हमारे सामने है, जिसमें पालक दीपक भट्टाचार्य अपने ही पुत्र विश्वदीप भट्टाचार्य की हत्या के आरोप में इन दिनों जेल में बंद हैं। विश्वदीप टेबल-टेनिस का होनहार खिलाड़ी था। जिला एवं राज्य स्तरीय खेलों में अपने अनूठे प्रदर्शन से उसने कई प्रतियोगिता जीती। होनहार पुत्र को अभिभावकों की तरफ से प्रोत्साहन तो दिया ही जाता है। किंतु विश्वदीप को उनके पिता द्वारा प्रोत्साहन के रूप में पाशविक दबाव मिला। कई बार जब उसका प्रदर्शन ठीक नहीं होता, तब उसके पिता उसे खूब मारते, पिटाई इतनी अधिक हो जाती कि वह दर्द से बिलबिला उठता। अभी कुछ दिन पहले ही एक स्पर्धा में विश्वदीप हार गया। इससे उसके पिता दीपक भट्टाचार्य ने उससे जमकर प्रेक्टिस करवाई। यह प्रेक्टिस उसे महँगी पड़ी, वह हाँफने लगा। उसकी हालत देखकर उसकी माँ और बहन ने उसे अस्पताल पहुँचाया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी, डॉक्टर ने विश्वदीप का परीक्षण कर बताया कि विश्वदीप की जान जा चुकी है। उसका नाता इस दुनिया से टूट चुका है। सोचो, उसकी माँ पर क्या गुजरी होगी? उनका एकमात्र कुल दीपक बुझ गया। विश्वदीप की माँ और बहन के ही बयानों के आधार पर दीपक पर पुत्र विश्वदीप की हत्या का आरोप है।
ये एक उदाहरण है, आज के प्रतिस्पर्धी समाज की अतृप्त भूख और प्यास का। इस चक्कर में न जाने कितने मासूम अपने अभिभावकों के अत्याचार का शिकार हो रहे हैं। जहाँ निठारी में हुए मासूमों के जीवन के साथ होने वाले खिलवाड़ की चारों ओर निंदा हो रही है, वहीं अपने ही कुलदीपक को बुझाने की तैयारी करने वालों पर किसी की दृष्टि ही नहीं जा रही है। ये मासूम अपने ही घर में प्रताड़ित हो रहे हैं, अपनों द्वारा ही ठुकराए जा रहे हैं, अपनों से ही प्यार और दुलार के बजाए उन्हें मिल रहा है सख्त अनुशासन के नाम पर पिटाई का तोहफा।
अक्सर ऐसा होता है कि पालक अपनी इच्छाओं को अपने ही संतानों के माध्यम से पूरी करने का सपना देखते हैं। उनका मानना होता है कि जो हम नहीं कर पाए, वह हमारी संतान के माध्यम से हो, तो बुरा क्या है? लेकिन अनजाने में ही वे अपनी संतान पर किस तरह से अपनी अपेक्षाओं का बोझ लाद देते हैं, इसका उन्हें जरा भी आभास नहीं होता। वे समझते हैं कि हमारी अपेक्षाओं को उनकी संतान ने अच्छी तरह से समझा है, इसलिए वे उन पर अनजाने में ही एक प्रकार का दबाव बनाने लग जाते हैं। यही अनजाना दबाव ही मासूमों पर किस कदर भारी पड़ता है, यह उपरोक्त उदाहरण से ही स्पष्ट है।
भोपाल के ताल को काफी हद तक तैरकर पार करने वाली नन्हीं मासूम रिकॉर्ड बनाने के दौरान लगातार रोती और चीखती रही, पर उसकी मासूम चीखें ताल की लहरों में ही खो गई। उसके अभिभावकों पर उन चीखों का कोई असर नहीं हुआ। वे तो उस सात साल की मासूम से रिकॉर्ड बनवाना चाहते थे। रोटियाँ सेंकने वाली मासूम लगातार गैस के सम्पर्क में आने से बेहोश हो गई, पर उसका बेहोश होना उनके पालकों को होश में नहीं ला पाया। इसी तरह लगातार गाने का रिकॉर्ड बनाने वाली किशोरी की स्वर नलिका में कुछ खराबी आ गई, पर इस खराबी ने भी उनके अभिभावकों को सावधान नहीं किया। ये कैसा जुनून है, जिसकी चकाचौंध तो पालकों के भीतर है, पर भेंट उनके मासूम चढ़ते हैं।
आने वाला समय उन अभिभावकों के लिए चेतावनी भरा है, जो अपने बच्चों पर अपनी अपेक्षाओं और इच्छाओं का बोझ लाद रहे हैं। अभी तो मानव अधिकार आयोग का ध्यान इस दिशा में नहीं गया है। उधर मेनका गांधी भले ही जानवरों पर होने वाले अत्याचारों पर अखबारों में स्तंभ लिख रहीें हों, पर सच तो यह है कि घर की ही चारदीवारी के भीतर सिसकते और छटपटाते मासूमों की अनसुनी चीखों को कोई समझने को ही तैयार नहीं है। यही हाल रहा और पालकों अपने मासूमों पर अत्याचार करते रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब अनसुनी चीखों का शोर सोए हुए समाज को झंझोड़कर रख दे। पालकों से यही आग्रह है कि मासूमों पर अपेक्षाओं का बोझ लादने के पहले यह सोच लें-
अभी तो ये कोरी मिट्टी है
अभी तो इसमेें पानी डालना है
अभी तो इसे ठीक से सानना है
अभी तो इसे एक आकार देना है
मत रौंदो इसे अपने क्रूर हाथों से
इन्हीं हाथों से सहलाना अभी बाकी है
टूटती हुई जिंदगियों को जोड़ना अभी बाकी है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 9 जनवरी 2008

मोबाइल के गागर में संगीत का सागर


डॉ. महेश परिमल
किसी विद्वान ने कहा है कि समय के साथ चलो, नहीं तो पीछे रह जाओगे। सच है, जो समय के साथ नहीं चलते, वे इतने पीछे रह जाते हैं कि कभी आगे नहीं बढ़ पाते। समय आज भी भाग रहा है, इसी के साथ-साथ लोगों की पसंद भी बदलने लगी है। पहले और आज की तुलना करें, तो हमें कई चीजें बदली हुई नजर आएँगी। आज से दस वर्ष पूर्व किसी ने सोचा था कि आदमी चलते-फिरते फोन के माध्यम से किसी से बात कर सकता है। एक सीडी में हजारों गाने हो सकते हैं। आज मात्र तीन या चार फिल्मों को समाहित करने वाली सीडी मिल रही है, निकट भविष्य में एक सीडी में 15 फिल्में समाहित हो जाएँगी। यह अभी हमारे लिए भले ही अजूबा हो, पर यह अजूबा बहुत जल्द हमारे सामने होगा। आडियो केसेट और सीडी का जमाना अब जाने वाला है, आज सब कुछ मोबाइल में ही समाने लगा है। एक अँगूठे में ही पूरी दुनिया आपके सामने होगी। अब सेलफोन में ही हजारों गीत स्टोर करें और सुनते चले चलें अपनी मंजिल की ओर......
आज टी.सीरीज वाले गुलषन कुमार जीवित होते, तो आडियो केसेट और सीडी के धंधे में आने वापली मंदी को देखकर बहुत दु:खी होते। सेलफोन की बिक्री जैसे-जैसे बढ़ रही है, वैसे-वैसे कॉम्पेक्ट डिस्क याने सीडी और केसेट की बिक्री कम होती जा रही है, क्योंकि आजकल के युवाओं को संगीत भी चलते-फिरते चाहिए, इसलिए ट्रेन, बस, कार या फिर बाइक पर सवार होकर लोग सेलफोन के साथ इयरफोन जोड़कर हिंदी और अँगरेजी फिल्मों के गीत सुनते दिखाई दे रहे हैं। अभी पिछले साल से ही अपने सेलफोन पर संपूर्ण ट्रेक्स डाउनलोड करना संभव हुआ है। फलस्वरूप् हिंदी फिल्मों की हाई-प्रोफाइल म्युजिक लांच पार्टियाँ अब भूतकाल की बात बन गई है। फिल्म इंडस्ट्री का लेटेस्ट ट्रेण्ड गीतों की सीडी बाजार में पहुँचे, इसके पहले ही स्वयं की फिल्म के संगीत को डिजीटल विष्व में रिलीज करना है। इसे ई-म्युजिक का प्यारा-सा नाम दिया गया है।
निर्माता-दिग्दर्षक करण जोहर ने खुद की बिग बजट वाली फिल्म ''कभी अलविदा ना कहना'' का म्युजिक एप्पल के ऑनलाइन म्युजिक स्टोर आईटयुन्स पर रिलीज किया, तब उसने सपने में भी यह खयाल नहीं था कि डिजीटल म्युजिक की बिक्री आडियो सीडी और केसेट की बिक्री सारे रिकॉर्ड तोड़ देगी। '' कभी अलविदा ना कहना'' का संगीत रिलीज करने वाले सोनी बीएमजी के आष्चर्यजनक रूप से लोगों ने फिल्म के गीतों की मात्र 15 लाख सीडी खरीदी। उधर इस फिल्म के गीतों को 25 लाख लोगों ने अपने सेलफोन पर डाउनलोड किया। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि गीतों के एलबम की बिक्री के लिए उसे प्रमोट करना महँगा साबित हो रहा है। उधर एलबम के डिजीटल सेल में से मिलने वाला धन विषुध्द मुनाफा ही बन जाता है, क्योंकि वह फाइल बार-बार डाउनलोड की जा सकती है। ''कभी अलविदा ना कहना'' के गीतों को मिलने वाले जबर्दस्त प्रतिसाद को देखते हुए ''डॉन'' और ''जानेमन'' फिल्म का संगीत भी स्टोर्स में रिलीज करने के पहले आइटयुन्स ने उसे डिजीटल विष्व में जारी किया था।
चलते-फिरते संगीत सुनने का चलन लगातार बढ़ रहा है। इसलिए आडियो केसेट और सीडी का धंधा लगातार मंदा होते जा रहा है। 2001 मेें सीडी और केसेट की कुल बिक्री 1081 करोड़ रुपए थी, जो घटकर 702 करोड़ रुपए पर पहुँच गई। इसी तरह सीडी की बिक्री में भी बेषुमार वृद्धि हुई है, इसलिए केसेट की बिक्री बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2000-2001 में कुल 39 करोड़ केसेट्स की बिक्री हुई, वहीं 2005 में घटकर इसकी बिक्री 5 करोड़ 70 लाख ही हो पाई। दूसरी ओर मोबाइल म्युजिक (रिंग टोंस, ट्रु टोंस, फुल ट्रेक डाउनलोड्स और वीडियो क्लिपिंग्स) की बिक्री बढ़कर 450 करोड़ तक पहुँच गया। मोबाइल म्युजिक के एक वर्ष में 30 करोड़ म्युजिक डाउनलोड्स हुए थे। भारती एयरटेल के डायरेक्टर (मार्केटिंग) गोपाल विट्ठल का कहना है कि यह ऑंकड़े अगले एक-डेढ़ वर्ष में बढ़कर दोगुने हो जाएँगे। हमारे देश में अभी 30 करोड़ मोबाइलधारी हैं। फलस्वरूप् मोबाइल म्युजिक का चलन बढ़ा है। इस क्षेत्र से म्युजिक कंपनियों को इस वर्ष 120 करोड़ रुपए की आवक होगी। इसके पीछे मोबाइलधारियों को अपने सेलफोन पर म्युजिक डाउनलोड करने के बाद 450 करोड़ रुपए म्युजिक कंपनी को भुगतान करना होगा। इस स्थिति को देखते हुए यह कहा जा रहा है कि 2009-10 में 3500 करोड़ की बिक्री के साथ ही मोबाइल म्युजिक इंडस्ट्री विष्व में इस प्रकार की सबसे बड़ी इंडस्ट्री बन जाएगी।
म्युजिक के अधिकार प्राप्त करना लगातार महँगा होने से 2002 में म्युजिक इंडस्ट्री लगभग ठप्प हो गई थी। संजय लीला भंसाली की फिल्म '' देवदास '' के म्युजिक राइट्स 12 करोड़ रुपए में बेचने के बाद यह स्थिति पैदा हुई थी। मोबाइल मनोरंजन का सफल साधन बना उसके पहले बाजार में से ऑडियो सीडी और केसेट की बिक्री में से एक बड़ी राषि बनाना मुष्किल हो गया था, इस कारण म्युजिक कंपनियों ने राइट्स के लिए अप्रत्याषित राषि चुकाने से इंकार कर दिया। इंडियन म्युजिक इंडस्ट्री के सीइओ विपुल प्रधान कहते हैं कि 'वर्षों की मंदी के बाद डिजीटल सेल्स की मेहरबानी से इंडस्ट्री फिर से लाभ के पड़ाव पर पहुँची है।' सारेगामा ने 2004-05 में 25 करोड़ का नुकसान उठाया था और इसके विपरीत 2005-06 में 8.87 करोड़ का मुनाफा कमाया। उसका 25 प्रतिषत से अधिक का मुनाफा डिजिटल सेल्स के कारण है।
म्युजिक कंपनियों के हिस्से में मात्र 20 प्रतिषत ही राषि आती है और शेष 80 प्रतिषत राषि टेलिकॉम कंपनियों और साउंड बज़ जैसे म्युजिक रिटेलर के हिस्से में जाती है। उसके बाद भी आय के इस नए स्रोत के कारण हिंदुस्तान म्युजिकल वर्क्स जैसी कितनी ही बहुत पुरानी म्युजिक कंपनियों को जीवनदान मिला है। 1930 के दषक की प्रसिध्द म्युजिक कंपनी हिंदुस्तान म्युजिक वर्क्स ने कुंदनलाल सहगल, मन्ना डे और एस.डी. बर्मन जैसे कलाकारों को मंच दिया था, किंतु उसके बाद धीरे-धीरे इस कंपनी की प्रसिध्दि में गिरावट आई। अब मोबाइल रिंगटोन्स और कॉलर टयुन्स के कारण कंपनी फिर से अपनी पहचान बना रही है। आज हिंदुस्तान म्युजिकल वर्क्स के सोवम सहा केवल पुराने गीतो से ही 5 लाख रुपये कमाते हैं। सहा कहते है कि 'सहगल के गीत डॉन और कभी अलविदा ना कहना के साथ ही रिलीज करवाए थे, फिर भी सहगल के गीतों ने इन दोनों फिल्मों के मुकाबले अधिक प्रसिध्दि पाई। सहगल के गीत अधिक डाउनलोड हुए थे। हम दूसरे 30,000 ट्रेक्स डिजीटाइज़ कर रहे हैं।'
डिजीटाइज़ेषन के कारण कंपनियाँ उपभोक्ताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए कटिबध्द हैं। उदाहरण के लिए आजकल बड़े गुलाम अली खाँ, मेंहदी हसन और बिस्मिल्लाह खान के पुराने षास्त्रीय संगीत की आईटयून्स की बहुत माँग है। उधर के.एल. सहगल मोबाइल फोन पर हिट हैं। संगीत के षौकीन विभिन्न संगीत के लिए अलग-अलग रकम चुकाने के लिए भी तैयार हैं।
डिजीलाइजेषन का दूसरा एक बड़ा फायदा हय है कि वह पाइरेसी का मुकाबला करने में सक्षम है। ओपन मोबाइल एलायंस के माध्यम से तमाम सहभागी कंपनियाँ इस मामले में एक साथ हैं। दूसरी ओर डिजीटल राइट्स मेनेजमेंट अनधिकृत सामग्री के वितरण को रोककर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मोबाइल हेंडसेट के उत्पादक भी चलते-फिरते संगीत के द्वारा उपभोक्ताओं का मनोरंजन करने में पूरी तरह से कटिबध्द हैं। इस दिषा में नोकिया जैसी कंपनियाँ लगातार नए प्रयोग कर रही है। हाल ही में नोकिया ने ही एक ऐसा हेंडसेट निकाला है, जिसमें 6 हजार गीतों का संग्रह किया जा सकता है। अभी भी इस दिषा में नए-नए षोध जारी हैं।
नोकिया ने आज तक विष्वभर मेें विविध सुविधाओं वाले करीब एक करोड़ इक्विपमेंट बेचे है। पायरेसी रोकने के लिए नोकिया एन सिरीज के फोन की डिजाइन इस तरह से की गई है कि एक बार गीत डाउनलोड करने के बाद वह वहीं लॉक हो जाते हैं, उससे उन गीतों को कही फारवर्ड नहीं किया जा सकता। पोडकास्टिंग जैसी सर्विस लांच करने के बाद नोकिया अब वेबसाइट पर काम कर रही है, ताकि वह मोबाइलधारकों को रिटेल में म्युजिक बेच सके। सोनी के बीएमजी के श्रीधर सुब्रमण्यम का कहना है कि आज बाय-टू-ऑन म्युजिक ( गीत खरीदकर स्वयं के पास रखने) का जमाना अब पुराना हो गया है। उदाहरण के लिए बीएसएन एक स्ट्रीमिंग सर्विस दे रहा है, जिसके लिए टाटा ब्राड बेण्ड सबस्काइबर्स एक बार सौ रुपए भरकर खुद की पसंद के गीतों जितने चाहे उतने गीत सुन सकता है। बीएसएनएल टाटा टेलिसर्विस के मोबाइलधारियों को भी यह डाउनलोड सुविधा देना चाहती है। बीएसएनएल से आजकल रोज ही करीब 2000 टे्रक डाउनलोड हो रहे हैं।
आज अधिक से अधिक लोग संगीत का आनंद ले रहे हैं। पर संगीत का आनंद लेने का माध्यम बदल गया है। आज म्युजिक कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उपभोक्ता जिस तरह का संगीत चाहते हैं, उसकी माँग को वह तुरंत पूरी कर दे। इसके मद्देनजर कई कंपनियों ने बदले हुए जमाने का रूख देते हुए ऐसा करना षुरू भी कर दिया है।
डॉ. महेश परिमल

Post Labels